महाभारत के रचियता गणेश देवता "भाग द्वितीय"
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महाभारत में वर्णित जन-जातियों का विवरण
मद्र ,त्रिगर्त ,अम्बष्ठ,प्रतीच्य ,उदीच्य , मालव ,शिबि शूरसेन, शूद्र ,मलद ,सौवीर, कितव,अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि कोसल, वत्स ,गर्ग, करुष तथा पौण्ड्र
दाशेरक, कश्मीर और औरसिक, पिशाच, मुद्गल ,कांबोज वाटधान ,चोल ,पांड्य , त्रिगर्त, मालव, दरद, , खशो, शक ( सीथियन)
मद्रास्त्रिगर्ता: साम्बष्ठा:प्रतीच्योदीच्य मालवा: ।
शिबय: शूरसेनाश्च शूद्राश्च मलदै: सह ।15।
सौवीरा: कितवा: प्राच्या दाक्षिणात्याश्च सर्वश:।
तवात्मजं पुरस्कृत्य सूत्रपुत्रस्य पृष्ठत: ।16।
हर्षयन्त: स्वसैन्यानि ययुस्तव सुतै: सह।
मद्र ,त्रिगर्त ,अम्बष्ठ,प्रतीच्य ,उदीच्य , मालव ,शिबि शूरसेन, शूद्र ,मलद ,सौवीर, कितव, प्राच्य, तथा दक्षिणात्य ये सब वीर यौद्धा आपके पुत्र दुर्योधन को आगे करके सूतपुत्र कर्ण के पृष्ठभाग में रहकर अपनी सेनाओं को हर्ष प्रदान करते हुए आपके पुत्रों के साथ चले ।15-16
यदि हम कृष्ण का समय पाँच हजार वर्ष पूर्व माने भी तो इस मान्यता का कोई ठोस आधार नहीं -
क्यों कि भारत में शकों और यूनानीयों का आगमन ईसा की कुछ सदीयों पूर्व ही हुआ है ।
और महाभारत में वर्णन है कि कृष्ण का यूनानीयों और शकों से युद्ध हुआ।
महाभारत में द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व ग्यारहवें अध्याय में वर्णन है देखें👇
अङ्गान् वङ्गान् कलिङ्गान् मागधान् काशिकोसलान्
वात्स्यगार्ग्यकरुषांश्च पौण्ड्रांश्चाप्यजयद् रणे।।15।
आवन्त्यान् दाक्षिणात्यांश्च पर्वतीयान् दशेरकान् ।
काश्मीरकानौरसिकान् पिशाचांश्च समुद्लान् ।16।
काम्बोजान् वाटधानांश्च चोलान् पाण्ड्यांश्च संजय ।
त्रिगर्तान् मालवांश्चैव दरदांश्च सुदुर्जयान्।17।
नानादिग्भ्यश्च सम्प्राप्तान् खशांश्चैव शकांस्तथा ।
जितवान पुण्डरीकाक्षो यवनं च सहानुगम।18।
(महाभारत द्रोण पर्व के अन्तर्गत द्रोणाभिषेकपर्व ग्यारहवें अध्याय)
उन कृष्ण ने रण क्षेत्र में अंग, वंग, कलिंग, मगध, काशि कोसल, वत्स ,गर्ग, करुष तथा पौण्ड्र आदि देशों पर विजय पाई थी ।15।
संजय ! इसी प्रकार कमलनयन श्री कृष्ण ने अवन्ती दक्षिण प्रान्त ,पर्वती देश ,दाशेरक, कश्मीर और औरसिक, पिशाच, मुद्गल ,कांबोज वाटधान ,चोल ,पांड्य , त्रिगर्त, मालव ,अत्यंत दुर्जय दरद,आदि देशों के योद्धाओं को तथा नाना दिशा से आए हुए , खशो, शकों और अनुयायी यों सहित कालयवन को भी जीत लिया ।16।
महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुुन का युद्ध भी शक और यवनों से भी हुआ।
महाभारत के कर्ण पर्व के छयालीसवें अध्याय 15-16वें श्लोकों में वर्णन है कि कर्ण की आज्ञा से उनके प्रपक्षस्थान में कम्बोज, शक,और यवन, महाबली श्रीकृष्ण और अर्जुुन को ललकारते हुए खड़े थे।👇
तेषां प्रपक्षा: काम्बोजा: शकाश्च यवनै:सह ।15।
निदेशात् सूतपुत्रस्य सरथा साश्वपत्तय:।
आह्वयन्तो८र्जुनं तस्थु: केशवं च महाबलम् ।16।
अब यूनानीयों का भारत आगमन तो ईरानीयों के बाद हुआ ई०पू० 323 में
और शकों का ई०पू० द्वितीय सदी में
फिर किस आधार पर कृष्ण को पाँच हजार वर्ष पूर्व माने ।
वैसे भी ई०पू० नवम सदी में कृष्ण को मानना औचित्य पूर्ण है।
क्यों कि -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों का सप्तसैन्धव में आगमन ई०पू० बारहवीं सदी तो मान्य है
अब और सुनिए !
भारतीय पुरोहितों को जिस जन-जाति की वंश उत्पत्ति-का ज्ञान नहीं होता उसको वे विशेष चमत्कारिक ढंग से उत्पन्न कर देते हैं ।
जैस नन्दनी गाय से द्रविड़ो और म्लेच्छों को उत्पन्न कर के उन्हें गोपुत्र की उपाधि से विभूषित कर देना ।
नीचे महाभारत से उद्धृत कुछ श्लोकों का दिग्दर्शन है
👇
विदन्त्यसुरमायां ये सुघोरा घोरचक्षुष:।41।
यवना पारदाश्चैव शकाश्च सह बाह्लीकै:।
काकवर्णा दुराचारा: स्त्रीलोला : कलहप्रिया:।।42।
द्राविडास्तत्र युध्यन्ते मत्तमातंविक्रमा:।
गोयोनिप्रभवा म्लेच्छा: कालकल्पा: प्रहारिण:।43।
जो आसुरी माया को जानते हैं जिन की आकृति अत्यंत भयंकर है तथा जो भयानक नेत्रों से युक्त हैं एवं जो कौवे के समान काले दुराचारी, स्त्री लंपट और कलहप्रिय होते हैं वे यवन पारद, शक ,और बाह्लीक भी वहां युद्ध के लिए उपस्थित हुए।41-42।
मतवाले हाथियों के समान पराक्रमी द्रविड़ तथा नन्दनी "गाय की योनि से उत्पन्न हुए" काल के समान प्रहार -कुशल म्लेच्छ भी वहां युद्ध के लिए उपस्थित हुए।43।
ये काल्पनिक तथ्य उद्धृत हैं!
(महाभारत के द्रोणपर्व के अन्तर्गत अभिमन्युवधपर्व उनसठवें अध्याय में राम के विषय में क्या वर्णन है देखें--- )👇
गीता प्रेस संस्करण पृष्ठ 3258 पर
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अब राम के विषय में भी किंवदन्तियों पर आधारित ग्रन्थों का प्रणयन हुआ ।
क्यों राम की कथाऐं सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में भी प्राप्त होती है ।
सुमेरियन शहर( एजेद ) का रूपान्तरण अयोध्या है ।
और थाइलेण्ड मे अजोदा है ।जिसकी एकरूपता अयोध्या से है ।
महाभारत या भारतीय रामायण आदि ग्रन्थों में राम का वर्णन किंवदन्तियों पर आधारित है ।
राम के विषय में अस्वाभाविक व कल्पना पूर्ण
वर्णन भारतीय पुराणों व महाभारत आदि में हैं
-जैसे महाभारत में राम के विषय में वर्णन है कि
सहस्रपुत्रा पुरुषा दशवर्षशतायुष:।19।
न च ज्येष्ठा निष्ठेभ्यस्तदा श्राद्धन्कारयन्।।
श्री राम के राज्य काल में एक एक मनुष्य के हजार हजार पुत्र होते थे;
और उनकी आयु भी एक एक हजार (1000) वर्षों की होती थी बड़ों को अपने से छोटो का श्राद्ध नहीं करना पड़ता था।19।
अब इस प्रकार से तो जनसंख्या विस्फोट हो जाता ।
दशवर्ष सहस्राणि दशवर्षशतानि च।21।
सर्वभूत मन:कान्तो रामो राज्यमकारयत्।
राम की कांति समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली थी उन्होंने ग्यारह हजार वर्ष (11000) वर्षों तक राज्य किया था।21।
अब राम ग्यारह हजार वर्ष राज्य करना भी अस्वाभाविक व कल्पना पूर्ण है।
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महाभारत के शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या –4278 ।
पर मछलीयाँ खाने का विधान बनाने की दैवीय कल्पना कर डाली अब वे मछलीयाँ सरस्वती के वरदान से खा सकते हैं 👇
🐬🐋🐬🐠.....
अथ काले व्यतिक्रान्ते महत्यतिभयंकरे ।36।
अनावृष्टिरनुप्राप्ता राजन् द्वादश वार्षिकी ।
तस्यां द्वादश वार्षिक्यामनावृष्टयां महर्षय:।।37।
वृत्यर्थं प्राद्रवन राजन् क्षुधार्ता: सर्वतोदिशम्।
दिग्भ्यस्तान् प्रदुतान् दृष्ट्वामुनि: सारस्ववतस्तदा।38।
गमनाय मतिं चक्रे तं प्रोवाच सरस्वती ।
न गन्त्वयमित: पुत्र तवाहारमहं सदा ।39।
दास्यामि मत्स्य प्रवरानुप्यतामिह भारत ।
राजन् ! तदन्तर सुदीर्घ काल व्यतीत होने पर जगत में 12 वर्षों तक स्थित रहने वाली अत्यंत भयंकर अनावृष्टि प्राप्त हुई ।36।
नरेश्वर 12 वर्षों की उस अनावृष्टि में सब महर्षि भूख से पीड़ित हो जीविका के लिए संपूर्ण दिशाओं में दौड़ने लगे ।37।
संपूर्ण देशों से भागकर इधर उधर जाते हुए महर्षि को देख कर सारस्वत मुनि ने भी वहां से अन्यत्र जाने का विचार किया ; तब सरस्वती देवी ने उनसे कहा ।38।
बेटा सारस्वत तुम्हेें यहां से कहीं नहीं जाना चाहिए मैं सदा तुम्हें भोजन के लिए उत्तम से उत्तम मछलियां दूंगी इसलिए तुम यहीं रहो !।39।
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एक बात मन तो शंका से ग्रस्त करती रही है कि
-जब ऋषि महर्षि अखण्ड ब्रह्मचारी और जितेन्द्रिय हते थे ;तो महिलाओं में नग्न देखने मात्र से स्खलित हो जाते थे ।
इस प्रकार तो कोई भी साधारण व्यक्ति स्खलित हो सकता है ।
फिर दौनों में अन्तर ही क्या ?
कामावेग को ब्रह्मचारी मुनि भी नहीं रोक पीते थे ।
महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व पृष्ठ संख्या 4239।38 वाँ अध्याय👇
'
दृष्टवा यद्य्च्छया तत्र स्त्रियमभसि भारत ।33।
जायन्तीं रुचिरापांगीं दिग्वाससमनिन्दिताम्।
सरस्वत्यां महाराज चस्कन्दे वीर्यम्भसि ।34।
भरत नंदन महाराज एक समय की बात है कोई सुंदर नेत्र वाली अनिद्य सुंदरी रमणी सरस्वती के जल में नग्न होकर नहा रही थी ;
देव लोक से मंकणक मुनि की दृष्टि उस पर पड़ गई और उनका वीर्य स्खलित होकर जल में गिर पड़ा ।34।
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महाभारत की रचना ई०पू० द्वितीय सदी के लगभग हुई
क्यों कि भारत में शकों और यूनानीयों तथा हूणों के आगमन का यही काल है ।
और -परोक्षत तथा प्रत्यक्ष रूप से भी बुद्ध तथा उनके पाषण्ड सम्प्रदाय का वर्णन है।
महाभारत में अहीरों और जाटों का भी वर्णन भी है ।
परन्तु गुर्ज्जरः जन-जाति का वर्णन नहीं !
क्यों कि इनका समावेश अहीरों मे ही हो गया है ।
महाभारत में वर्णन है कि "जाट" "वाहीक" अथवा बाह्लीक देश के निवासी थे जिन्हें महाभारत में "जर्तिका" कहा ।
इसी सन्दर्भ में जट्ट जन-जाति का उल्लेख भी है जिसे जर्तिका नाम से अभिहित किया है ।
जट्टिया चमारों का आह्वावान प्राचीन भारत के के इतिहास कार देवी दास ने दिल्ली के एक सामाजिक सम्मेलन में किया और उन्हें जाटव नाम दिया ।
यह समय सन 1922 ईस्वी का है ।
यद्यपि जाट और जट्ट अलग अलग थे ।
जाटों का सम्बन्ध यदुवंश से रहा परन्तु जट्ट अपने को ईरानीयों से ही सम्बद्ध मानते रहे ।
-जैसे गौश्चर और जोर्जियस् --जो बाद में गुर्ज्जरः या गूजर कहलाए ।
परन्तु गूजर अहीरों की शाखा के रूप में आठवीं सदी से पूर्व थे ।
कालान्तरण में गूजरों का अलग इतिहास बनने लगा ।
और अहीरों का अलग ..
ऐसे ही जाट और जट्ट (जर्तिका) जन-जाति का सम्बन्ध रहा है ।
सम्भवत: ये पूर्व में समानार्थक नस्ल के हों !
जाटों को भारतीय संस्कृत कोश कार तथा मध्यकालीन इतिहास कार यादवों का एक समुदाय मानते हैं ।
अब महाभारत के लेखक ने ई०पू० पञ्चम् सदी का वर्णन किया है कि वाहीकों के रूप में
अधिकतर जट्ट (जर्तिका) जन-जाति का
जाट यद्यपि 36 राज्यकुलों की सूची में जित वा जाट ने भी स्थान पाया है परंतु न तो कोई इन्हें राजपूत मानता है और ना इनका किसी राजपूत जाति के साथ विवाह होना पाया जाता है या भारत भर में फैले हुए हैं इनमें भरतपुर के राजा प्रसिद्ध है ।
शेष लोग खेती बाड़ी का काम करते हैं उनके संस्कार भी लोप हो गए हैं तथा इनमें कण्व भी होता है इस कारण उत्तम कक्षा से गिर जाते हैं ।
पंजाब में ये जिट कहे जाते हैं इनकी जाति व आदि निवास स्थान सिंध नदी के पश्चिम तरफ के देश माने गए हैं ।
महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका नाम की जाति ही आज कल के जाट हैं।
यह आभीरों की ही शाखा है --जो शॉलोमन( शल्य) के साथ उनकी सेना में यौद्धा थे ।
और इनको यदुवंश से निकला हुआ मानते हैं अंग्रेज विद्वान टाड साहब इनको मध्य-एशिया तथा चीन की यूची या यूटी शाखा में मानते हैं यह तक्षक की शाखा भी माने जाते हैं तथा दन्तकथा से महादेव जी की जटा से कोई इनकी उत्पत्ति मानते हैं ।
--जो कि कल्पना प्रसूत है ।
पर एक शिलालेख में पाया जाता है कि जिटवंशी राजा की माता यदुकुल की थी जिसके कारण इनको 36 राजकुलों में भव्य स्थान मिला है ।
ईसा की पांचवी शताब्दी में यह पंजाब में बस गए थे ।
और सन 440 ईसवी में राज करना भी पाया जाता है।
टाडसाहब का कहना है कि "जब यादव लोग शालिवाहन पुर से बाहर हुए तब सतलज नदी उतरकर मरुस्थल में दाहिया और जोहिया जन-जातियों के सहवर्ती हुए वहां देरावल राजधानी स्थापित की और यहीं से किसी दबाव के कारण उन्होंने यदु नाम छोड़कर जाट नाम धारण कर लिया ""
यदुकुल के इतिहास में जाटों की बीस शाखा पाई जाती हैं यह लोग बड़े वीर होते हैं इन्होंने महमूद गजनवी का मुकाबला भी किया।
ईस्वी सन 971-1020 के समय में इनका निवास सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे पर था महाराज रणजीतसिंह इसी वंश में थे इस जाति के अकाली नाम धारियों में अभी तक चक्र धारण किया जाता है जिसका व्यवहार भगवान कृष्ण चंद्र जी ने स्वयं किया।
चौधरी का तत्सम चक्रधारि चक्कधारि चौधारी-है।
यदुवंशीयों में जाटों और अहीरों में चौधरी उपाधि
उनके चक ( भू-खण्डों) के धारक होने से भी है
चौधरी उपाधि जमींदारों की है ।
वास्तव में ब्राह्मणों ने जाटों और जटों को शूद्र और हेय वर्णित किया है।
जैसा कि आपने अभी महाभारत के कर्ण पर्व में देखा-
गुरू नानक के सिख धर्म को अपनाया और ये पंजाब, पाकिस्तान में बहुतायत से हैं ।
ज्यादातर जट्ट इस्लामीय शरीयत के परस्तिश हो गये
ये जट्ट स्वतन्त्र विचारों के होते हैं ।
इनकी स्त्रीयाँ सुन्दर डील डौल वाली, लम्बी और सुन्दर ईरानी नस्ल की होती हैं ।
महाभारत में ईरानी प्रदेश मीदिया (मद्रदेश) के शासक शल्य के शासन में थे ।
वास्तव में शल्य शोलोमन का रूपान्तरण है ।
जिसकी सेना में इज़राएल के अहीर यौद्धा होते थे ।
महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका जन-जाति का वर्णन है जिनका तादात्म्य-एकरूपता जट्ट जन-जाति से है ।👇
बहष्कृता हिमवता गङ्गया च बहिष्कृता ।
सरस्वत्या यमुनयाकुरुक्षेत्रेण चापि ये ।6।
पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां ये८न्तराश्रिता :।
तान् धर्मबाह्यानशुचीन् वाहीकानपि वर्जयेत्।7।
गोवर्धनो नाम वट: सुभद्रं नाम चत्वरम् ।
एतद् राजकुलद्वारमाकुमारात् स्मराम्यहम् ।।8।
कार्येणात्यर्थगूढेन वाहीकेषूषितं मया ।
तत एषां समाचार: संवासाद् विदितो मम ।।9।
शाकलं नाम नगरमापगा नाम निम्नगा ।
जर्तिका नाम वाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम् ।।10।
धाना गौड्यासवं पीत्वा गोमांसं लशुनै: सह ।
अपूप मांस वाट्यानामाशिन शीलवर्जिता : ।11।
गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवासस: ।
नगरागारवप्रेषु बहिर्माल्यानुलेपना: ।12।
मत्तावगीतैर्विविधै: खरोष्ट्रनिनपदोपमै:।
अनावृता मैथुने ता: कामाचाराश्च सर्वश:।13।
आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कटा:।
हे हते हे हतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च ।14।
आक्रोशन्त्य: प्रनृत्यन्ति व्रात्या: पर्वस्वसंयता:।
तासां किलावलिप्तानां निवससन् कुरुजांगले ।15।
कश्चिद् वाहीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ।
सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।16।
मामनुस्मरती शेते वाहीकं कुरुजांगले।
शतद्रुकामहं तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम् ।17।
गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलशंखा शुभा : स्त्रिय:।
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(महाभारते कर्णपर्वणि चतुश्चत्वारिंशो८ध्याय:)
(महाभारत कर्णपर्व चबालीसवाँ अध्याय)
" जो प्रदेश हिमालय ,गंगा ,सरस्वती ,यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर है।
तथा जो सतलज, ब्यास ,रावी, चिनाव ,और झेलम इन पाँचो एवं छठी सिंध नदी के बीच में स्थित है ।
उन्हें बाहीक कहते हैं वह धर्म से बाहर और अपवित्र हैं उन्हें त्याग देना चाहिए ।6-7।
गोवर्द्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा यह दोनों वहां के राज भवन के द्वार पर स्थित हैं।
जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ।8।
कर्ण कहता है शल्य से कि मैं अत्यन्त गुप्त कार्य बस कुछ दिनों तक बाल्हीक देश में रहा था ;
इससे वहां के निवासियों के संपर्क में आकर मैंने उनके आचार विचार की बहुत सी बातें जान ली थी।9 ।
वहां (साकल) स्यालकोट- नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है जहां जर्तिका( जट्ट) नाम वाले वाहीक निवास करते हैं उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है ।10।
वह भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं।
पुआ ,मांस और बाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार से शून्य हैं ।11।
वहां की स्त्रियां बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करने वाली मतवाली और नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदीवारीयों के पास गाती और नाचती हैं ।12।
गधों के रैंकने और ऊंटों के बलबलाने की सी आवाजों से मतवाले पन में ही भाँति भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन काल में भी पर्दे के भीतर नहीं रहती हैं।
वह सब की सब सर्वथा स्वैच्छाचारिणी होती हैं।13।
मद से उन्मत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वो एक दूसरे को कहती हैं मजाक करते हुए "घायल की हुई " किसी की मारी हुई"
हे पति मर्दते !
-जैसे मजाक में
इत्यादि कह कर पुकारती और नृत्त करती हैं पर्व और त्योहारों के अवसर पर तो उन नृत्य करती हुई संस्कार हीन रमणियों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है।।।14।
उन्हीं वाहिक देशीय मदमस्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई संबंधी वहां से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था ।
वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था ।15।
निश्चय ही वह लम्बी गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ वाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी ।16।
मैं कब सतजल और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुंचकर शंख की बनी हुई मोटी मोटी चूड़ियों को धारण करने वाली वहां की सुंदर स्त्रियों को देखूंगा ।17।
जिनके नेत्रों के प्रांत भाग मैनसिल के आलेपन से उज्जवल हैं दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिन के सारे अंग कंबल और मृग चरम से अावृत हैं वे गोरे रंग वाली प्रियदर्शना और मृदंग ,ढोलक ,और शंख,और मर्दल बाजों की धुन के साथ साथ कब नृत्य करती दिखाई देगी ।18।
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बाह्लीक:– कांबोज के उत्तरीय प्रान्त का प्राचीन नाम जहाँ आजकल बलख है।
बाह्लीक को कुछ विद्वान कुरू वंशी यादवों कुरुष मानते हैं ।
विशेष—यह स्थान काबुल से उत्तर की ओर पड़ता है। इसका प्राचीन पारसी नाम बक्तर है ।
जिससे यूनानी शब्द बैक्ट्रिया बना है।
वाहीक महाभारत काल में पंजाब के आरट्ठ देश का ही एक नाम था।
यहाँ के निवासियों को महाभारत, कर्णपर्व में भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात बताया गया है।
वाहीक नाम की उत्पत्ति नमहा इस प्रकार कही गई है-
'वहिश्चनाम हीकश्च विपााशायां पिशाचकौ तयोरप्यं वाहीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।'
अर्थात "विपाशा नदी में दो पिशाच रहते थे, 'वहि' और 'हीक'। इन्हीं दोनों की संतान 'वाहीक' कहलाती है।"
पिशाच जाति का प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है।
पैशाची भाषा में ग्रंथों की रचना भी हुई है।
जैसे-गुणाढ्य की वृहदकथा ।
यह भी माना जाता है कि देव-संस्कृति अनुयायीयों के आने के पूर्व कश्मीर में पिशाच और नाग जातियों (नागालेण्ड के मूल नवासी )का निवास था।
जान पड़ता है कि वाहीक, 'बाह्लिक' या 'बाह्लीक' का ही रूपान्तरण है, जो मूल रूप से बल्ख या बेक्ट्रिया का प्राचीन भारतीय नाम था।
यहीं के लोग कालांतर में पंजाब और निकटवर्ती क्षेत्रों में आकर बस गये थे।
ईरानीयों की संस्कृतियों से ये प्रभावित थे
ये अपने रीति रिवाजों के कारण उस समय -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों में अनादर की दृष्टि से देखे जाते थे।
✍✍✍✍
वाहीकों का मुुख्य नगर शाकल (श्यालकोट)था, जहां 'जर्तिक' (जट्ट) नाम के वाहीक रहते थे-
'शाकलं नाम नगरमापगाा नाम निम्नगा, जर्तिकानामवाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।'
(महाभारत)
सियालकोट वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के उत्तर-पूर्व में स्थित सियालकोट जिले का मुख्यालय एवं सैनिक छावनी है।
नगर उत्तरी-पश्चिमी रेलमार्ग पर लाहौर से १०० किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है।
यह नगर अनेक व्यवसायों एवं उद्योगों का केंद्र है।
नगर में १०वीं शताब्दी के एक किले के भग्नावशेष हैं जो एक टीले पर खड़े हैं।
वाहीक का अर्थ बाह्य या विदेशी भी हो सकता है, किंतु अधिक संभव यही जान पड़ता है कि यह शब्द, जिसकी काल्पनिक या लोक प्रचलित व्युत्पत्ति महाभारत के उपर्युक्त उद्धरण में बताई गई है, वस्तुतः बाह्लिक या फ़ारसी बल्ख का ही रूपान्तरण है।
फ़ारसी एक भाषा है जो ईरान, ताज़िकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और उज़बेकिस्तान में बोली जाती है। यह तीन देशों की राजभाषा है और इसे क़रीब 7.5 करोड़ लोग इस्तेमाल करते हैं।
यह हिन्द यूरोपीय भाषाई परिवार की हिन्द ईरानी (इण्डो ईरानियन) शाखा की ईरानी उपशाखा का सदस्य है और इसमें क्रियापद वाक्य के अंत में आता है।
फ़ारसी संस्कृत से क़ाफ़ी मिलती-जुलती है, और उर्दू (और हिन्दी) में इसके कई शब्द प्रयुक्त होते हैं।
ये फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है।
अंग्रेज़ों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी भाषा का प्रयोग दरबारी कामों तथा लेखन की भाषा के रूप में होता है।
संस्कृत से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
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प्रस्तुति-करण:-यादव योगेश कुमार "रोहि"
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