महाभारत के कर्ण पर्व में कुछ प्राचीनत्तम जन-जातियों वर्णन है कि 👇
मालाव ,मद्रक , द्राविड़ ,यौधेय ( जोझे) ललित्थ, शूद्रक , (क्षुद्रक),उशीनर ,माबेल्लक,तुण्डकेर,
कम्बोज(कम्बोडिया निवासी) आवंतिका ,गांधार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त ,तंगण,शक ,पाञ्चाल ,विदेह, कुलिन्द काशी ,कौशल, सुह्म, अंग,वंग, निषाद , पुण्ड्र,चीरक (चीनक) वत्स,कलिंग, तरल, अश्मक, तथा ऋषिक,(रूस) इन सभी देशों पर तथा शबर , परहूण, प्रहूण,कारस्कर (कक्कड़) , माहिषक, केरल ,कर्कोटक और वीरक महाभारत में कुछ काल्पनिक प्रकाशन है ।
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"मालवा मद्रकाश्चैव द्राविडाश्चग्रकर्मिण: ।
यौधेयाश्च ललित्थाश्च क्षुद्रकाश्चप्युशीनरा: ।47।
माबेल्लकास्तुण्डिकेरा: सावित्रीपुत्रकाश्च ये ।
प्राच्योदीच्या:प्रतीच्याश्च दाक्षिणात्याश्च मारिष।48।
पत्तीनां निहता: संघा हयानां प्रयुतानि च।
रथव्रजाश्च निहता हताश्च वरवारणा ।49।
मालाव ,मद्रक ,भयंकर कर्म करने वाले द्राविड़ ,यौधेय ( जोझे) ललित्थ, शूद्रक , (क्षुद्रक),उशीनर ,माबेल्लक,तुण्डकेर,
सावित्रीपुत्र, प्राच्य, प्रतीच्य, उदीच्य,दक्षिणात्य,पैदल समूह ,दसलाख घोड़े ,रथोके समूह और बड़े बड़े गजराज अर्जुुन के हाथ से मारे गये 47-49।
यो८जयत् सर्वकाम्बोजानावन्त्यान् केकयै: सह ।
गान्धारान्मद्रकान्मत्स्यांस्त्रिगर्तोस्तंगणाञ्शकान्18
पाञ्चालांश्च विदेहांश्च कुलिन्दान् काशिकोसलान्।
सुह्मानंगाश्च वंगांश्च निषादान् पुण्ड्रचीरकान्
19।
वत्सान् कलिंगांस्तरलािनश्मकाननृषिकानपि।
( शबरान् परहूणांश्च प्रहूणान् सरलानपि।
म्लेच्छराष्ट्राधिपांश्चैव दुर्गानाट विकांस्तथा ।
जित्वैतान् समरे वीरश्चक्रे बलिभृत: पुरा ।20।
जिस वीर ने पहले समस्त कांबोज(कम्बोडिया निवासी) आवंतिका ,गांधार, मद्र, मत्स्य, त्रिगर्त ,तंगण,शक ,पाञ्चाल विदेह, कुलिन्द काशी ,कौशल, सुह्म, अंग,वंग, निषाद , पुण्ड्र,चीरक, वत्स,कलिंग, तरल अश्मक, तथा ऋषिक,(रूस) इन सभी देशों पर तथा शबर , परहूण, प्रहूण और सरल जाति के लोगों पर म्लेच्छ राज्यों के अधिपतियों और दुर्ग एवं वनों में रहने वाले योद्धाओं को समर-भूमि में जीतकर "कर" (टेक्स) देने वाला बना दिया था।18-20।
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महाभारत में शब्द -व्युत्पत्ति के सिद्धान्तों की किस प्रकार धज्जियाँ उड़ाई गयीं हैं; इसका अन्दाजा तो महाभारत में वर्णित इन शब्दों की व्युत्पत्ति से लगाया जा सकता है ।👇
मित्रं मिन्देर्नन्दते: प्रीयतेर्वा ।
संत्रायतेर्मिनुतेर्मोदतेर्वा ।।31।
ब्रवीमि ते सर्वंमिदं ममास्ति ।
तच्चापि सर्वे मम वेत्ति राजा ।
जबकि वाचस्पत्यम् कोश में मिद् धातु से ''मि(त्त्र)त्र' नपुंसकलिङ्ग मिद्यति स्निह्यति इति मित्र।
१- स्नेहान्विते सुहृदि,[पृष्ठ संख्या-4753-b+ 38]
शब्दकल्पद्रुमके अनुसार-
२-माययति जानाति सर्व्वं मित्रं मी कि गत्यां नाम्नीति डित्रः मित्रमजहल्लिङ्गम् ।
निपातात्तस्य द्वित्वे द्वितकारञ्च ।
इति तट्टीकायां भरतः
शत्रु: शदे, शासतेर्वा श्यतेर्वा
श्रृणातेर्वा श्वसते: सीदतेर्वा 32।
उपसर्गाद् बहुधा सूदतेश्च।
प्रायेण सर्व त्वयि तच्च मह्यम्।
मिद, नन्द,प्री, त्रा,मि,अथवा मुद् धातुओं से निपातन द्वारा मित्र शब्द की सिद्धि होती है।
मैं तुमसे सच कहता हूं इन सभी धातुओं का पूरा पूरा अर्थ मुझ में मौजूद हैं राजा दुर्योधन इन सब बातों को अच्छी तरह जानते हैं ।31।
शद्, शास् , शो, श्रृ ,श्वस् , अथवा षद् तथा नाना प्रकार की उपसर्गों से युक्त सूद धातु से भी शत्रु शब्द की सिद्धि होती है ।
मेरे प्रति इन सभी धातुओं का सारा तात्पर्य तुममें संघटित होता है।32।
विदित हो कि महर्षि पाणिनि ने भी योगज अथवा धातुज शब्दों के नियम में एक धातु का विधान किया है ;
परन्तु महाभारत कार एक साथ कई धातुओं से एक शब्द की व्युत्पत्ति कर डाली है ।
यद्यपि महाभारत भी एक काव्यात्मक उपन्यास है
जिसमें कल्पना अतिरञ्जना और अलंकात्मक वर्णन है ।
एक प्रसंग में
ब्राह्मण लोगों ने बाह्लीक जन-जाति का वर्णन
लूटेरों के रूप में किया देखें---महाभारत के कर्ण पर्व में जैसा कि ये गुर्ज्जरों और आभीरों का भी करते रहे ।
👇
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अपूपान् सक्तुपिण्डांश्च प्राश्नन्तो मथितान्वितान् ।
पथि सुप्रबला भूत्वा कदा सम्पततो ८ध्वगान्।21।
चेलापहारं कुर्वाणास्ताडयिष्याम भूयस:।
अर्थात् मार्ग में तक्र(मट्ठा) के साथ पुए और सत्तू के पिण्ड खाकर अत्यन्त प्रबल हो कब चलते हुए बहुत से राहगीरों को उनके कपड़े छीन कर हम अच्छी तरह पीटेंगे ।21।
इस प्रकार कोई बाह्लीक अपने मन्तव्य को प्रकट करता हुआ मन ही मन कहता है ।
भारतीय पुरोहितों ने बाहीक लोगें के व्यवहार का वर्णन पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित होकर ही किया है ।
और यह वर्णन मात्र ई०पू० द्वितीय सदी का है ।
इसे अधिक प्राचीनत्तम रूप देने का कोई औचित्य नहीं
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बाहीक देश के लोगों का वर्णन करते हुए ब्राह्मण कहते हैं। कि
एवं शीलेषु व्रात्येषु वाहीकेषु दुरात्मसु।22।
कशचेतयानो निवसेन्मनहूर्तमपि मानव:।
संस्कार शून्य दुरात्मा बाहीक ऐसे ही स्वभाव के होते हैं उनके पास कौन सचेत मनुष्य दो घड़ी निवास करेगा ?
ईदृशा ब्राह्मेणनोक्ता वाहीका मोघचारिण:।23
येषां षड्भागहर्ता त्वमुभयो : शुभपापयो: ।
ब्राह्मण ने निरर्थक आचार विचार वाले वाहीकों को ऐसा ही बताया जिनके पुण्य और पाप दोनों का छठा भाग हे शल्य तुम लिया करते हो।23।
बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में महाभारत आदि ग्रन्थों का निर्माण हुआ।
उस समय ईरानीयों के प्रति या अन्य जन-जातियों के प्रति ब्राह्मणों की धारणा हेय व संकुचित ही थी ।
-जैसा कि उन्होनें शाकल नगर का वर्णन करते हुए लिखा– 👇
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तत्र स्म राक्षसी गाति सदा कृष्णचतुर्दशीम् ।25।
नगरे शाकले स्फीते आहत्य निशि दुन्दुभिम् ।
कदा वाहेयिका गाथा : पुनर्गास्यति शाकले ।26।
गव्यस्य तृप्ता मांसस्य पीत्वा गौडं सुरासवम्।
गौरीभि: सह नारीभिर्बृहतीभिर् स्वलंकृता :।27।
पलाण्डु गंडूषयुतान् खादन्ती चैडकान् बहून्।
उस देश में एक राक्षसी रहती है ; जो सदा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को समृद्धशाली शाकल नगर में रात के समय दुन्दुभि बजा कर इस प्रकार गाती है ।25।
"मैं वस्त्र आभूषण से विभूषित हो ।
गौ मांस खाकर और गुड़ की बनी हुई शराब पीकर तृप्त हो ; अञ्जलि भर प्याज के साथ बहुत सी भेड़ों को खाती हुई
"गोरे रंग की लम्बी युवती स्त्रियों के साथ मिलकर इस शाकल नगर में पुनः कब इस तरह की बाहीक संबंधी गाथा का गान करुँगी ।।25-26।
अब जाट समाज को कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण जर्तिका जन-जाति से जोड़ते हैं।
परन्तु ये वर्णन एकाकी है ।
परन्तु ये भी यदु कबीले के लोग थे।♨♨♨
राजपूती काल में सूरजमल जाट के विषय में तो जानते हैं ।
जिन्हें शिलालेखों पर यादव वीर कहा गया है ।
जाट जन-जाति के लोग बहुतायत से पंजाब के पार्श्ववर्ती स्थलों में रहते थे-
कालान्तरण में जिनकी सीमाऐं पंजाब,हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में अधिक विस्तृत हुईं ।
महाभारत के कर्ण पर्व में वर्णित है कि
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पञ्च नद्यो वहन्त्येता यत्र पीलुवानान्युत।31।
शतद्रुश्च विपाशा च तृतीयैरावती तथा ।
चन्द्रभागा वितस्ता च सिन्धुषष्ठा बहिर्गिरे:।32।
आरट्टा नाम ते देशा नष्टधर्मा न तान् व्रजेत्।
पुत्रसंकरिणो जाल्मा: सर्वान्नक्षीरभोजना: ।37।
आरट्टा नाम वाहीका वर्जनीया विपश्चिता।
पञ्च नद्यो यत्र नि:सृत्य पर्वतात् ।40।
आरट्टा नाम वाहीका न तेष्वार्योद्वि अहं वसेत्।
जहां सतद्रु अर्थात् सतलज बिपाशा अर्थात् व्यास तीसरी इरावती (रावी) चन्द्रभागा (चिनाव) और वितस्ता अर्थात् झेलम ये पांच नदी सिन्धु नदी के साथ वहती हैं जहां पीलू नामक वृक्षों के कई जंगल हैं ;
वह हिमालय की सीमा से बाहर के प्रदेश "आरट्ट" नाम से विख्यात हैं वहां का धर्म-कर्म नष्ट हो गया है ।
उन देशों में कभी न जाऐं ।31-32।
वे जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले "आरट्ट" नामक बाहीक सबका अन्न खाते और सभी पशुओं का दूध पीते हैं ।
अत: विद्वान् पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिए।।37।
किसी विद्वान ने कहा कि वह जारज पुत्र उत्पन्न करने वाले नीचा "आरट्ट" नामक वाहिक सब का अन्न खाते और सभी पशुओं के दूध पीते हैं इसलिए विद्वान पुरुष को उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिए।38।
अब -जब जाटों के विषय में इन रूढ़िवादीयों ने ही अपने ग्रन्थों में जाटों को चोर तथा निम्न घोषित किया हो तो आज इनकी जाटों के प्रति भावनाऐं पवित्र कैसे हो सकती हैं ।
जहाँ पर्वत से निकल कर ये पूर्वोक्त पाँचो नदियाँ वहती हैं ।
वे "आरट्ट "नाम से प्रसिद्ध बाहीक प्रदेश हैं।
उनमें श्रेष्ठ पुरुष दो दिन भी निवास न करे ।40।
वास्तव में बाहीक शब्द बाह्लीक का तद्भव रूप है --जो कालान्तरण में ईरानी भाषा
"बल्ख" बन गया ।
परन्तु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने बाहीक को बाह्लीक से अलग मानते हुए काल्पनिक व्युत्पत्ति कर डाली 👇
कि व्यास नदी में दो पिशाच रहते हैं एक का नाम "बहि" और दूसरे का नाम "हीक" है।
इन्हीं दोनों की संताने वाहीक कहलाती हैं।
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बहिश्च नाम हीकश्च विपाशायां पिशाचकौ ।41।
तयोरपत्यं वाहीका नैषा सृष्टि: प्रजापते :।
ते कथं विविधान् धर्मान् ज्ञास्यन्ते हीनयोनय:।।
महाभारतेकर्णपर्वणि पञ्चचत्वारिंशो८ध्याय: पृष्ठ संख्यायाम् –3895 गीता प्रेस संस्करण।
क
अर्थ– बिपाशा अर्थात व्यास नदी में दो पिशाच रहते हैं एक का नाम "वही" और दूसरे का नाम "हीक" है इन्हीं दोनों की संताने वाहीक कहलाती हैं।
ब्रह्मा जी ने इनकी सृष्टि नहीं की है ; ये नीच योनि में उत्पन्न हुए मनुष्य नाना प्रकार के धर्मों को कैसे जानेंगे ?
कारस्करान्माहिषिकान् कुरण्डान् केरलांस्तथा ।
कर्कोटकान् वीरकांश्च दुर्धर्माश्च विवर्जयेत् ।43।
कारस्कर (कक्कड़) , माहिषक, केरल ,कर्कोटक और वीरक रख इन देशों के धर्म ( आचार-विचार) दूषित हैं अतः उनका त्याग कर देना चाहिए ।43।
"आरट्टा" नाम ते देशा वाहीकं नाम तज्जलम् ।
ब्राह्मणापसदा यत्र तुल्यकाला: प्रजापते :।45।
जहाँ ब्रह्मा के समकालीन वेद विरुद्ध आचरण वाले नीच ब्राह्मण निवास करते हैं 'वह आरट्ट नामक देश है ।
वहाँ के जल का नाम वाहीक है ।45।
(सम्भवत ये "आरट्ट" लोग ईरानीयों की असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे )
वेदा न तेषां वेद्यश्च यज्ञा यजनमेव च।
व्रात्यानां दासमीयानामन्नं देवा न भुञ्जते ।46।
उन अधर्मी ब्राह्मणों को न तो वेदों का ज्ञान है ; ना वहां यज्ञ की विधियां है और ना उनके यहां यज्ञ - याग ही होते हैं वह संस्कार हीन एवं दासों से समागम करने वाली कुलटा स्त्रियों की संताने हैं ।
इसलिए देवता उनका अन्न ग्रहण नहीं करते हैं।46।
प्रस्थला मद्रगान्धारा आरट्टा, नामत: खशा:।
वसातिसिन्धुसौवीरा इति प्रायो८तिकुत्सिता: 47।
प्रस्थल अर्थात "पश्तो" मद्र अर्थात मीदिया गांधार(कान्धार) आरट्ट (जाट ) खस , वसाति,सिंधु तथा सौवीर( हौविर) यह देश प्राय: अत्यंत निन्दित हैं।47।
(कर्ण पर्व चालीसवाँ अध्याय )
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अधिक क्या कहें महाभारत बुद्ध के परवर्ती काल की संस्कृतियों और घटनाओं को अंकित करता है ।
क्यों कि
महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं ।
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं?
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है ।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
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दानवांस्तु वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
महाभारत में यद्यपि कहीं कहीं उपनिषदों के बहुतायत रूप से उद्धरण प्रस्तुत हैं।
विशेषत कठोपोपनिषद के
एक स्थान पर समझने की --जो प्रवृत्ति है
उसका वर्णन किया है। -जैसे
किस देश के और किस जन-जाति के लोग कितने संप्रेषणीयता के आग्रही अर्थात् भाषा या भाव-अभिव्यक्ति को समझने वाले होते हैं।
उस विषय में 👇
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इंगितज्ञाश्च मगधा : प्रेक्षितज्ञाश्च कोसला:।34।
अर्धोक्ता: कुरुपञ्चाला : शाल्वा: कृत्स्नानुशासना:।
पर्वतीयाश्च विषमा यथैव शिबयस्तथा।35।
सर्वज्ञा यवना राजञ्शूराचैव विशेषत:।
म्लेच्छा: स्वसंज्ञानियता नानुक्तमितरे जना:।36।
प्रतिरब्धास्तु वाहीका न च केचन मद्रका: ।
अर्थ:– मगध देश के लोग इशारे से ही सब बात समझ लेते हैं ; कौसल देश निवासी नेत्रों की भाव -भंगिमा से मन का भाव जान लेते हैं ; कुरु तथा पांचाल देश के लोग आधी बात कहने पर ही पूरी बात समझ लेते हैं। शाल्व देश के निवासी पूरी बात कह देने पर उसे समझ पाते हैं।
परन्तु शिबि देश (साइबेरिया रूसी प्रान्त)के लोगों की भाँति पर्वतीय प्रान्तों के निवासी इन सबसे विलक्षण होते हैं ।
वह पूरी बात कहने पर भी नहीं समझ पाते। 34-35
यूनानीयों के विषय में भारतीय पुरोहितों की अवधारणा है कि यूनानीय वीर और बुद्धिमान दौनों ही होते हैं।
देखें---निम्न उद्धरण-👇
राजन् ! यद्यपि यवन जातीय म्लेच्छ सभी उपायों से बात समझ लेने वाले और विशेषतः शूर होते हैं।
तो भी अपने द्वारा कल्पित संज्ञाओं पर ही अधिक आग्रह रखते हैं ।
अर्थात् (वैदिक धर्म को नहीं मानते )अन्य देशों के लोग बिना कहे हुए कोई बात नहीं समझ सकते।
परन्तु वाहीक देश के लोग सब काम उल्टे ही करते हैं उनकी समझ उल्टी होती है ; और मद्र देश के कुछ निवासी तो ऐसे होते हैं ;
कि कुछ भी नहीं समझ पाते ।।26।
उपर्युक्त श्लोकों में यूनानीयों को सबसे बुद्धिमान और यौद्धा माना है ।
निश्चित सी बात है कि यह लेखन भारत में सिकन्दर आगमन के बाद के समय का है।
पुष्य-मित्र सुंग के समकालीन
परन्तु पंजाब के आरट्ट लोगें के प्रति भी ब्राह्मणों की घृणा चिर-प्राचीन है ।
और यह वर्णन भी भारत में सिकन्दर आगमन के समय का है।👇
साधो: पानं गुरुतल्पावमर्दो
भ्रूण हत्या परवित्तापहार:।
येषां धर्मस्तान् प्रति नास्त्यधर्म
आरट्टजान् पञ्चनदान् धिगस्तु ।38।
कर्ण ने शल्य ले कहा–
मदिरापान गुरुकी शय्या का उपभोग भ्रूण हत्या और दूसरों के धर्म का अपहरण यह जिनके लिए धर्म हैं उनके लिए अधर्म नाम की कोई वस्तु ही नहीं है ऐसे आरट्ट और पञ्चनद (पंजाब) देश के लोगों को धिक्कार है।38।
यद्यपि ये बातें कर्ण के माध्यम से कथन रूप में प्रस्तुत की गयीं हैं ।
महाभारत के भीष्म पर्व में समायोजित श्रीमद्भगवत् गीता उपनिषद् कठोपोपनिषद का रूपान्तरण न सही
परन्तु 'बहुत से श्लोक दोनों के समान हैं।
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महाभारत के स्त्री पर्व के अन्तर्गत सातवें अध्याय के शलोक 13-14 में वर्णन है कि " विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है ; सत्व सारथी है इन्द्रिय घोड़े हैं ।
मन लगाम है और जो पुरुष स्वेच्छा पूर्वक दौड़ते हुए घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है ।
वह तो इस संसार चक्र में पहिए के समान घूमता रहता है।13-14👇
रथ: शरीरं भूतानां सत्वामाहुस्तु सारिथिम् ।
इन्द्रियाणि हयानाहु:कर्मबुद्धिस्तु रश्मय:।13।
तेषां हयानां यो वेगं धावतामनुधावति।
स तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तते।14।
यस्तान् संयमते बुद्ध्या संयतो न नवर्तते ।
ये तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तिते।15।
भ्रममाणा न मुह्यन्ति संसारे न भ्रमन्ति ते।
किन्तु जो संयम शील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रियरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रखते हैं ।
वे फिर इस संसार में नहीं लौटते।
जो लोग चक्र की भांति घूमने वाले इस संसार चक्कर में घूमते हुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते उन्हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता।।15।
यही बात कठोपोपनिषद में भी दो चार शब्दों के अन्तर से है 👇।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन है।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का संबंध स्पष्ट करते हैं ।
संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन मुझे रोचक लगे:
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख )
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)
मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है,
जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा ।
किंतु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, सुख या दुःख के तौर पर ।
इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के उन पर नियंत्रण पर रहता है ।
इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है ।
उक्त मंत्रों के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या नहीं का निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है ।
इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धि रूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
महाभारत के स्त्री पर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्व में यादवों के विषय में लिखा
कि -जब गान्धारी कृष्ण को शाप देती है कि इस भरत कुल की स्त्रीयों के समान तुम्हारे कुल की स्त्रीयँ पुत्रों और भाई बन्धुओं के मारे जाने पर इसी तरह सगे सम्बन्धीयों की लाशों पर गिरेगी ।
तब कृष्ण गान्धारी से कहते हैं :–👇
संहर्ता वृष्णिश्चक्रस्य नान्योमद् विद्यते शुभे।
अवध्यास्ते नरैरन्यपि वा देवदानवै:।49।
परस्पर कृतं नाशमत: प्राप्स्यन्ति यादवा:।
शुभे ! वृष्णि-कुल का संहार करने वाला मेरे सिवा दूसरा कोई नहीं है ; यादव दूसरे मनुष्य तथा देवताओं और दानवों के लिए भी अवध्य हैं अतः आपस में ही लड़ कर नष्ट होंगे।49।
महाभारत के स्त्रीपर्व के अन्तर्गत स्त्रीविलापपर्वमें में
एक यौद्धा यूपध्वज की पत्नी -जब पति की लाशों पर रूदन करती है तो उसे अपने पति का कटा हुआ हाथ मिल जाता है ।
भार्या यूपध्वजस्यैषा करसम्मितमध्यमा।
कृत्वोत्संगे भुजं भर्तु: कृपणं परिदेवति।।17।
श्री कृष्ण देखो ! यूप ध्वज की पत्नी --जो पतली कमर वाली है पति की कटी हुई बाँह को गोद में लेकर बड़े दीन भाव से विलाप कर रही है।
अयं स हन्ता शूराणां मित्राणां अभयप्रद:।
प्रदाता गौसहस्राणां क्षत्रियान्तकर: कर:।।19।
तब 'वह विलाप करती हुई कहती है कि ये हाथ वही हाथ है जिसे युद्ध में अनेक शूरवीरों का वध ,मित्रों को हजारों गोदान,तथा क्षत्रियों का संहार किया।18।
अयं स रसनोत्कर्षी पीनस्तनविमर्दन:।
नाभ्यूरुजघन स्पर्शी नीवीविस्रंसन कर:।19।
यह वही हाथ है जो हमारी करधनी को खींच लेता उभरे हुए स्तनों का मर्दन करता नाभि उरू और जघन प्रदेश को छूता और नीवी का बंधन
सरका दिया करता था।।19
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समय, परिस्थिति और देश-स्थान के अनुसार
व्यवहार के सिद्धान्त भी बदलने चाहिए ।
यही जीवन की अनुकूलता है ।
क्यों कि जहाँ झँठ ही सत्य का काम करें अर्थात् किसी प्राणी को संकट से बचावे।
अथवा सत्य ही झूँठ बन जाए किसी के जीवन को संकट में डाल दे ! ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिए वहां झूठ बोलना ही उचित है झूठ बोलना ही धर्म है । वहाँ झूँठ बोलना ही उचित है।5।👇
महाभारत में भीष्म का कथन है 👇
भवेत् सत्यं न वक्तव्यं वक्तव्यं अनृतमं भवेत्।
यत्रानृतं भवेत् सत्यं सत्यं वाप्यनृतं भवेत्।5।
तादृशो बध्यते बालो यत्र सत्यमनिष्ठितम्।
सत्यानृते विनिश्चित्य ततो भवति धर्मवित्।6।
जिसमें सत्य स्थिर ना हो ऐसा मूर्ख मनुष्य ही मारा जाता है। सत्य और असत्य का निर्णय करके सत्य का पालन करने वाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है।6।
अप्यनार्यो८कृतप्रज्ञ: पुरुषो८प्यतिदारुण:।
सुमहत् प्राप्नुयात् पुण्यं बलाको८न्धवधादिव।7।
जो नीच है जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यंत कठोर स्वभाव का है वह मनुष्य की कभी अंधे पशुओं को मारने वाले बालक नामक व्याध की भांति महान पुण्य प्राप्त कर लेता है।7।
किमाश्चर्यं च यनमूढो धर्मकामो८प्यधर्मवित्।
सुमहत् प्राप्नुयात् पुण्यं गंगायामिव कौशिक: ।8।
कैसा आश्चर्य है कि धर्म की इच्छा रखने वाला मूर्ख अर्थात तपस्वी भी सत्य बोल कर भी अधर्म के फलों को प्राप्त हो जाता है ।
इसके लिए देखें कर्ण पर्व अध्याय 69 ) और गंगा के तट पर रहने वाला एक उलूक की भाँति कोई (हिंसा करके भी )महान पुण्य को प्राप्त कर लेता है।8।
दस्यु का अर्थ यद्यपि ईरानी भाषा में दह्यु के रूप पराक्रमी ,नायक आदि है ।
चौर की मर्यादाऐं भले ही नहों परन्तु
दस्युयों में भी मर्यादाऐं होती हैं । क्यों दस्यु वस्तुत वे विद्रोही थे जिन्होनें शुंग कालीन ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया।
(महाभारत के शान्ति पर्व के अन्तर्गत आपद्धर्म
एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय )
दस्युयों की नैतिकता और मर्यादाओं का वर्णन है।
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यथा सद्भि: परादानमहिंसा दस्युभि: कृता ।
अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु।।15।
दस्यु में भी मर्यादा होती है जैसे अच्छे डाकू दूसरों का धन तो लूटते हैं परंतु हिंसा नहीं करते किसी की इज्जत नहीं लूटते हैं ।
जो मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं उन लुटेरों में बहुत से प्राणी नैतिकता का पालन तथा स्नेह भी करते हैं क्योंकि उनके द्वारा बहुतों की रक्षा भी होती है।15
अयुद्ध्यमानस्य वधो दारामर्ष: कृतघ्ना।
ब्रह्मवित्तस्य चादानं नि:शेषकरणं तथा ।16।
स्त्रिया मोष: पतिस्थानं दस्युष्वेतद् विगर्हितम्।
संश्लेषं च परस्त्रीभिर्दस्युरेतानि वर्जयेत्।17।
युद्ध ना करने वालों को मारना, पराई स्त्री का बलात्कार करना, कृतघ्नता, ब्राह्मण के धन का अपरण, किसी का सर्वस्व छीन लेना ,कुमारी कन्या का अपहरण करना, तथा किसी ग्राम आदि पर आक्रमण करके स्वयं उसका स्वामी बन बैठना – यह सब बातें डाकुओं में भी निन्दित मानी गई हैं।16-17।
अभिसंदधते ये च विश्वासायास्य मानवा: ।
अशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चय:।18।
जिनका सर्वस्व लूट लिया जाता है ; वह मनुष्य और डाकुओं के साथ मेलजोल और विश्वास बढ़ाने की चेष्टा करते हैं और उनके स्थान आज का पता लगाकर फिर उनका सर्वस्व नष्ट कर देते हैं यह निश्चित बात है।18।
तस्मात् सशेषं कर्तव्यं स्वाधीनमपि दस्युभि:।
न बलस्थो८हमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् ।19।
इसलिए दस्युयों को उचित है कि वह दूसरों के धन को अपने अधिकार में पाकर भी कुछ से छोड़ दें सारा का सारा न लूट ले "मैं बलवान हूं ऐसा समझकर क्रूरता पूर्वक बर्ताव न करें।19
स शेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वश:।
नि:शेषकारिणो नित्यं नि:शेषकरणाद् भयम्।20।
जो डाकू दूसरों के धन को शेष छोड़ देते हैं वह सब ओर से अपने धन का भी अवशेष देख पाते हैं तथा जो दूसरों के धन से कुछ अवशेष नहीं छोड़ते उन्हें सदा अपने धन के भी अवशेष न रह जाने का भय बना रहता है।20।
वास्तव में डकैत और चोर में अन्तर समझना चाहिए !
यद्यपि ब्राह्मण वादी मानसिकता से ग्रस्त इतिहास कारों ने गुज्जर ,जाट,और अहीर (गोप) जन-जातियों को
दस्युओं के रूप में बहुतायत से वर्णन किया ।
अहीर जन-जाति दस्यु डकैत (Daicoit) क्यों बनी ?
यद्यपि दस्यु शब्द का ईरानीयों की भाषाओं में दह्यु रूप है । जिसका अर्थ नेता या नायक है.
परन्तु संस्कृत भाषा में दस्यु का लौकिक अर्थ लुटेरा है ।
प्रत्येक काल में इतिहास पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखा गया;
फिर हिन्दुस्तान का इतिहास चारण, भाट या सूतों ने लिखा ।
जिन्होनें अपने आश्रयदाताओं का वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण शैली में किया ।
आधुनिक इतिहास हो या प्राचीन इतिहास या पौराणिक आख्यानकों में सर्वत्र अहीरों को (Criminal tribe ) अापराधिक जन-जाति के रूप में तथा दुर्दान्त हत्यारे और लूटेरों के रूप में वर्णित किया गया है।
अमर कोश कार अमर सिंह ने आभीर शब्द की काल्पनिक व्युत्पत्ति अहीरों की तल्कालीन सामाजिक प्रवृत्ति के अनुरूप की "
आभीरः, पुल्लिंग संज्ञा रूप :-
(आ समन्तात् भियं राति ददाति।
रा दाने आत इति कः ) आभीर (गोपः) ।
इत्यमरः कोश ॥ आहिर इति भाषा ।
अमर सिंह चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (380-413) के नव रत्नों में से एक थे ।
परन्तु अहीर ब्राह्मणों की सामाजिक व्यवस्था के विद्रोही थे ।
चोर होना और डकैत होना दौनों अलग अलग बातें हैं फिर अहीरों के विषय में लिखने वाले भी रूढ़िवादी विचार धारा के अनुमोदक थे ।
पता नहीं इतिहासकारों की कौन सी भैंस अहीरों ने चुरा ली थी ।
इतिहास कार भी विशेष समुदाय वर्ग के ही थे ।
अहीरों के विषय में ऐसा ऐैतिहासिक विवरण पढ़ने वाले गधों से अधिक कुछ नहीं हैं।
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अहीर क्रिमिनल ट्राइब कदापि नही हैं अपितु विद्रोही ट्राइब अवश्य रही है ; वो भी अत्याचारी शासन व्यवस्थाओं के खिलाफ ,
क्योंकि इतिहास भी शासन के प्रभाव में ही लिखा जाता था। और कोई शासक विद्रोहियों को सन्त तो कहेगा नहीं परन्तु जनता क्यूँ सच मान लेती है ये सारी काल्पनिक बाते यही समझ में नहीं आता ?
ऐसी ऊटपटांग बातें आजादी के बाद यादवों के बारे में वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने ही पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर लिखीं ।
परन्तु यथार्थोन्मुख सत्य तो ये है कि यादवों ने ना कभी कोई अापराधिक कार्य अपने स्वार्थ या अनुचित माँगों को मनवाने के लिए किया हो !
और न
कोई तोड़ फोड़ कभी की !
और ना ही -गरीबों की -बहिन बेटीयों को सताया ।
केवल कुकर्मीयों , व्यभिचारीयों के खिलाफ विद्रोह अवश्य किया, वो भी हथियार बन्ध होकर ,
यादवों का विद्रोह शासन और उस शासक के खिलाफ रहा हमेशा से रहा , जिसने समाज का शोषण किया विशेषत: निम्न व मध्यम तबके का ;
अहीरों ने केवल इन जमींदारों के विरुध आवाज उठाई ;
ना की आम लोगों के खिलाफ !
दस्युओं के विषय में जब महाभारत -जैसे भारतीय संस्कृति के कोश ग्रन्थ वर्णन करते हैं कि दस्यु भी नैतिकता का पालन करने वाले और गरीबों के सहायक होते हैं ।👇
दस्यु का अर्थ यद्यपि ईरानी भाषा में दह्यु के रूप पराक्रमी ,नायक आदि है ।
चौर की मर्यादाऐं भले ही नहों परन्तु
दस्युयों में भी मर्यादाऐं होती हैं ।
क्यों दस्यु वस्तुत वे विद्रोही थे जिन्होनें शुंग कालीन ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया अत: समाज के विद्रोही प्रवृत्तियों के लोगों को नया नाम प्रदान किया गया दस्यु डकैट।
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प्रस्तुति-करण :– यादव योगेश कुमार "रोहि"
सम्पर्क सूत्र 8077160219
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