अथर्ववेद , कुन्ताप सूक्त के ऋचा का अर्थ और भावार्थ
उष्ट्रा यस्य प्रवाहणो वधूमन्तो द्विर्दश ।
वर्ष्मा रथस्य नि जिहीडते दिव ईषमाणा
उपस्पृश:।।2॥
(अथर्ववेद काण्ड २० अनुवाक ९ , सूक्त १२७ , मन्त्र २)
ऊँटनी जिसका वाहन है और --जो बारह पत्नीयाें का पति है।
जिस वधू वाले रथ को बारह ऊंट खींचते हैं वह आकाश का स्पर्श करते हुए चलता हैं ।
संज्ञा पुं० [सं० वर्ष्मन्] १. शरीर। २. प्रमाण। ३. इयत्ता। ४. जलरोधक बाँध या (मरुस्थल)५. नाप। उँचाई (को०)। ६. अत्यंत सुंदर या कोमल आकृति। ७. वर्षीयान्। अत्यंत वृद्ध ।
१) मरुस्थल (रेगिस्तान) – मरुस्थल से यहाँ तात्पर्य ऐसी भूमि हैं जल के अभाव में जहां पर मानव जीवन का निर्वाह संभव नहीं हैं अथवा वह स्थान जहां प्रकृति(वन ,पर्वत , नदियाँ) का नितांत अभाव हैं ।
प्रकृति अर्थात् ईश्वर । यहाँ मरुस्थल से तात्पर्य ऐसे स्थल से हैं जो ईश्वरत्व से रहित हो अथवा दूर हो अर्थात सत्य से परे अथवा माया के आवरण में ।
२) बारह ऊंट – यहाँ ऊंट से तात्पर्य हमारी इन्द्रियों से हैं । हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्रेन्द्रिय(कान) सुनने के लिए , त्वक्(त्वचा) स्पर्श के लिए , घ्राण(नाक) गंध के लिए , चक्षु(आँख) देखने के लिए और जिव्हा(जीभ) रस(स्वाद) के लिए) , पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक् भाषण(बोलने) के लिए , हाथ आदान-प्रदान के लिए , पैर गमनागमन के लिए , वायु मलत्याग करने के लिए और उपस्थ विषयोपभोग के लिए) और अंत:करण चतुष्टय की दो विभूतियाँ एक मन(जो संकल्प-विकल्प करता हैं) और दूसरा बुद्धि(जो निश्चय करती हैं); ये पांच ज्ञानेन्द्रिय , पांच कर्मेन्द्रिय , मन और बुद्धि मिलाकर बारह ऊंट हुए ।
३) रथ - अंत:करण चतुष्टय की विभूति चित्त जिसे की दर्पणस्वरूप माना गया हैं , जो की प्रतिबिम्ब ग्रहण करता हैं । चित्त को रथ इसलिए माना गया हैं क्योंकि चित्त चैतन्य हंप , चंचल हैं , चलायमान हैं ।
४) वधू – वधू अर्थात् हमारी “आत्मा” । “आत्मा” को यहाँ वधू की संज्ञा इसलिए दी गई हैं क्योंकि आत्मा ने ऊपर वर्णित तेरह तत्वों (पांच ज्ञानेन्द्रिय , पांच कर्मेन्द्रिय , मन , बुद्धि और चित्त) और अंत:करण चतुष्टय की चौथी वृत्ति अहंकार को स्वयं में इस प्रकार लिप्त कर रखा हैं जैसे की पति-पत्नी(हमारे यहाँ पति और पत्नी परस्पर अभिन्न मने जाते हैं) । जैसे पत्नी को पति का अवलम्ब(सहारा) होता हैं वैसे ही आत्मा ने भी इन चौदह तत्वों का सहारा ले रखा हैं ।
हमारे यहाँ २४ तत्व बताएं गए हैं (पञ्च तन्मात्राएँ , पञ्च महाभूत , पञ्च ज्ञानेन्द्रिय , पञ्च कर्मेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) । यहाँ १४(चौदह) तत्वों (जिनका की देहधारियों से सीधा सम्बन्ध होता हैं) से आच्छादित आत्मा की गति का वर्णन किया गया हैं ।
इस मन्त्र में बताया गया हैं की “आत्मा” चित्तरुपी रथ में सवार हैं । इस रथ को बारह ऊंट (पांच ज्ञानेन्द्रिय , पांच कर्मेन्द्रिय , मन और बुद्धि) मिलकर खींचते हैं । जब रथ को ऊंट खीच रहे हो(सामान्यतः तो घोड़े खींचते हैं) तो समझ लेना चाहिए की रथ मरुस्थल(माया के आवरण) में भ्रमण कर रहा हैं । “आत्मा” अहंकार (मैं अथवा मेरा की भावना) से लिप्त हैं इसीलिए रथ आकाश को छू रहा हैं ।
“यदि मात्र कुंताप सूक्त पर ही लिखने लग जाएँ तो एक वर्ष से अधिक लग सकता हैं । यहाँ बच्चे ने प्रश्न किया था सो उसके संतोषार्थ सरल व्याख्या दे रहा हूँ ।“
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