महाभारत में शूद्रों के सैनिक रूपों का वर्णन कई स्थानों पर है ।
यह शूद्र शब्द यूरोपीय भाषाओं में सॉडियर अथवा सॉल्जर तथा शुट्र रूपों में विकसित हुआ।👇
अंग ,वंग, पुण्ड्र (पुण्ढ़ीर), उड्र ,चोल, द्रविड,आन्ध्र ,
सिंहल (सिंघल) , बर्बर (बरवारा) , म्लेच्छ, लंका
पह्लव, दरद, तथा सब किरात ,यवन, शक ,हार, हूण, चीन,तुषार, (कुषाण) सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड,स्त्रीराज्य, तंगण ,केकय, मालव, जाट( जर्तिका) आभीर 🐂आंध्र शक , पुलिन्द, यवन कांबोज ,बाह्लीक तथा शौर्य सम्पन्न आभीर
विदित हो कि महाभारत जिसे मूलत: "जयसंहिता" के नाम से जाना जाता है।
इसकी रचना पुष्य-मित्र सुंग ई०पू द्वितीय सदी में हुई।
और तत्कालीन समाज में प्रचलित किंवदन्तियों के आधार पर पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने महाभारत की रचना की ई०पू० नवम सदी के
आसपास महाभारत की घटना सिद्ध होती है ।
यह महात्मा तथागत बुद्ध के बाद की रचना है ।
क्यों कि इसके शान्तिपर्व महात्मा तथागत बुद्ध का वर्णन है ।👇
________________________________________
दानवांस्तु वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार का स्तुति करते हैं
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं?
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
क्यों कि मनन (Munan) के बिना श्रृद्धा भी असहाय होकर भटक जाती है।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
फिर महाभारत में बहुतायत से उन जन-जातियों का वर्णन है --जो ई०पू० तृत्तीय सदी में मौजूद हैं ।👇
द्रोणो विकर्णो८थ जयद्रथश्च भूरिश्रवा : कृतवर्मा कृपश्च।
श्रुतायु अम्बष्ठ पतिश्च राजाविन्दानुविन्दौ
च सुदक्षिणश्च ।75।
प्राच्यश्च सौवीरगणाश्च सर्वे ।
वसातय: शूद्र (क्षुद्रक)मालवाश्च।
किरीटिनं त्वरमाणा८भिसस्रर्निदेशगा:शान्तनवस्य
राज्ञ:।76।
तब द्रोण, विकर्ण, जयद्रथ ,भूरिश्रवा ,कृतवर्मा ,कृपाचार्य श्रुतायु राजा अम्बष्ठ पति विन्द ,अनुविन्दु सुदक्षिण पूर्वी नरेश गण सौवीरदेशीय क्षत्रियगढ़ ,वसाती ,व शूद्र और मालवगण यह सभी शान्तनु नन्दन भीष्म की आज्ञा के अनुसार चलते हुए तुरन्त ही किरीट धारी अर्जुन का सामना करने के लिए निकट चली आये।76।
यत्र सर्वान् महीपालाञ्छस्त्र तेजो भयार्दितान् ।
सवंगांगान् सपौण्ड्रोड्रान् सचोलद्राविडान्ध्रकान्।22।
सागरानूपकांश्चैव ये च प्रान्ताभिवासिन:।
सिंहलान् बर्बरान् म्लेच्छान् ये च लंकानिवासिन:।23
पश्चिमानि च राष्ट्राणि शतश: सागरान्तिकान्।
पह्लवान् दरदान् सर्वान् किरातान् यवनाञ्छकान् ।24
हार हूणांश्च चीनांश्च तुषारान् सैन्धवांस्तथा ।
जागुडान् रामाठान् मुण्डान् स्त्रीराज्यमथ तंगाणान् 25।
केकयान् मालवांश्चैव तथा काश्मीरकानपि ।
अद्राक्षमहमाहूतान् यज्ञे ते परिवेषकान् ।26।
अर्थात् उस समय सब भूपाल पाण्डवों के शस्त्रों के तेज से भयभीत थे ।
अंग ,वंग, पुण्ड्र (पुण्ढ़ीर), उड्र ,चोल, द्रविड,आन्ध्र , सागर तटवर्ती द्वीप तथा समुद्र के समीप निवास करने वाले ; --जो राजा थे वे सभी राजसूय यज्ञ में उपस्थित थे । सिंहल (सिंघल) , बर्बर (बरवारा) , म्लेच्छ, लंका निवासी तथा पश्चिमीय राष्ट्र सागर के विकट वर्ती सैकड़ो प्रदेश
पह्लव, दरद, तथा सब किरात ,यवन, शक ,हार, हूण, चीन,तुषार, (कुषाण) सैन्धव, जागुड़, रामठ, मुण्ड,स्त्रीराज्य, तंगण ,केकय, मालव तथा काश्मीर देश के नरेश भी यज्ञ में बुलाए गये ।
और मैंने उन सबको आपके यज्ञ में रसोई परोसते देखा गया ।22-26।
महाभारत वनपर्व नलोपाख्यान् पर्व ।(पृष्ठसं 1090 गीता प्रेस संस्करण)
निकृत्या निकृतिप्रज्ञा हन्तव्या इति निश्चय:।
न हि नैकृतिकं हत्वा निकृत्या पापमुच्यते ।।22।
शठता करने वाले या जानने वाले शत्रु को शठता द्वारा ही मारना चाहिए यह एक प्राकृतिक सिद्धान्त है ।
--जो स्वयं दूसरों पर छल -कपट का प्रयोग करता है ।
उसे छल से ही मार डालने में पाप नहीं बताया गया है ।
महाभारत वनपर्व नलोपाख्यान् पर्व बाबनवाँ अध्याय ।
न च भार्यासमं किंचिद् विद्यते भिषजां मतम्।
औषधं सर्वदु:खेषु सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ।।29।
चिकित्सकों का मत है कि समस्त दु:खों की शान्ति के लिये पत्नी के समान दूसरी कोई औषधि नहीं ।
यह 'मैं आपसे सत्य कहती हूँ।
महाभारत वनपर्व नलोपाख्यान् पर्व इकसठवाँ अध्याय _________________________________________
विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् ।
बहवो म्लेच्छ राजान: पृथिव्यां मनुजाधिप ।।34।
मृषानुशासिन: पापा मृषावाद परायणा: ।
आन्ध्रा: शका: पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपा ।।35।
कम्बोजा बाह्लीका: शूरास्तथा आभीरा नरोत्तम।
न तदा ब्राह्मण: कश्चित् स्वधर्ममुपजीवति ।।36।
अर्थात् नरेश्वर ! इस प्रकार जब लोगों के विचार और व्यवहार विपरीत हो जाते हैं ; तब पहले का पूर्व रूप आरंभ हो जाता है उस समय इस पृथ्वी पर बहुत से म्लेच्छ राजा राज्य करने लगते हैं।
छल से शासन करने वाले पापी और असत्यवादी आंध्र शक , पुलिन्द, यवन कांबोज ,बाह्लीक तथा शौर्य सम्पन्न आभीर इस देश के राजा होंगे ।
आभीर सातवाहनों के उत्तराधिकारी हैं।और यह समय तृत्तीय सदी है ।
नर श्रेष्ठ ! उस समय कोई ब्राह्मण अपने धर्म के अनुसार जीविका चलाने वाला ना होगा 35-36 ।
महाभारत वनपर्व मार्कण्डेय समस्यापर्व पृष्ठ 1489
गोप नारायणी सेना वो यौद्धा थे जिनकी संख्या उस समय दस करोड़ थी ।👇
जब दुर्योधन और अर्जुन कृष्ण के पास सहायता के लिए जाते हैं तो कृष्ण स्वयं को अर्जुन के लिए और अपने नारायणी सेना जिसकी संख्या 10 करोड़ थी ! उसे दुर्योधन को युद्ध सहायता के लिए देते हैं।
कृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि नारायणी सेना के गोप (आभीर)सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।
कृष्ण ने ऐसा दुर्योधन से कहा उन सब की नारायणी संज्ञा है वह सभी युद्ध में बैठकर लोहा लेने वाले हैं ।17
एक और तो वे 10 करोड़ सैनिक युद्ध के लिए उद्धत रहेंगे और दूसरी ओर से मैं अकेला रहूंगा ।
परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा और ना कोई शस्त्र ही धारण करूंगा ।18।
हे अर्जुन इन दोनों में से कोई एक वस्तु जो तुम्हारे मन को अधिक रुचिकर लगे !
तुम पहले उसे चुनो क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने के अधिकारी हो ।19👇
मत्संहननतुल्यानां गोपानां अर्बुदं महत् ।
नारायणा इतिहास ख्याता : सर्वे संग्रामयोधिन:।18
ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिका:।
अयुध्यमान: संग्रामे न्यस्तशस्त्रो८हमेकत:।19।
आभ्यान्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मतम्।
तद् वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं धर्मत:।20।
भागवत पुराण में वर्णित अर्जुुन को परास्त करने वाले यही गोप थे ।👇
आदिपर्व प्रथमो८ध्याय ( अनुक्रमणिका पर्व)
यद्यपि आभीर शब्द गोपोंं का ही विशेषण है
परन्तु महाभारत में अहीरों को गोप शब्द से भी पृथक करने की दुश्चेष्टा की गयी है।
एक स्थान पर सरस्वती नदी के नष्ट या अदृश्य
होने का कारण अहीरों और शूद्रों को बता दिया है ।
महाभारत में परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न बातें होना सिद्ध करता है कि यह अनेक पुरोहितों की रचना है ।
गणेश देवता को इसका लेखक घोषित कर दिया गया।
वैशम्पायन उवाच 👇
ततोविनशनं राजन् जगामाथ हलायुध:
शूद्राभीरान् (शूद्र-आभीरान्) प्रति द्वेषाद् यत्र नष्टा सरस्वती ।1।
तस्मात् तु ऋषयो नित्यं प्राहुर्विनशनेति च।
महाभारत शल्यपर्व के अन्तर्गत गदापर्व पृष्ठ संख्या 4233,37वाँ अध्याय ।
वैशम्पायन जी कहते हैं हे राजन् ! उद्पानतीर्थ से चलकर हलधारी बलराम विनशन तीर्थ आये।
जहाँ शूद्रों और अहीरों के प्रति द्वेष होने से सरस्वती नदी वहाँ से चली गयी ।
इसलिए ऋषिगण उसे विनशन तीर्थ कहते हैं
ब्राह्मणों ने कल्पना की कि गायत्री देवी जो ब्रह्मा की पत्नी है आभीरों की कन्या है 'वह सरस्वती को सहन नहीं हुआ और 'वह अहीरों से द्वेष करते हुए वहाँ से अदृश्य हो गयी ।
पद्म-पुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री देवी का वर्णन है
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है । _______________________________________
" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८। ______________________________________
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८। _______________________________________
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।
अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं । जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह _______________________________________
गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें--- देवीभागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और अपनी भार्य वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है । _______________________________________________
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४०। एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४।
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है । और सुनो ! गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक ।
मयैव प्रोच्यामानस्य मनसा कल्पिततस्य च।।77।
श्रुत्वैतत् प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्।
लिखतो नावतिष्ठेत तदा स्यां लेखको हि अहम्।78।
व्यासो८प्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित् ।
ओमित्युक्त्वा गणेशो८पि बभूव किस लेखक:।79।
महाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत भीष्म वधपर्व में
काम्बोज राज सुदक्षिण के साथ गोपायन नामक के हजारों यौद्धा सैनिकों का वर्णन है👇
अथ कम्बोजजैरश्वैर्महद्भि: शीघ्रगामिभि:।
गोपानां बहुसाहस्रैर्बलैर्गोपायनैर्वृत:।।13।
तत्पश्चात कंबोज राज दक्षिण कंबोज देशीयविशाल एवं शीघ्र गामी घोड़ों पर आरूढ़ हो युद्ध के लिए चले उनके साथ गोपालन नाम वाले कई हजार गोप योद्धा अर्थात् सैनिक थे।13।
अर्थात् गणनायक आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थ के लेखक बन जाइये ; 'मैं बोलकर सिखाता जाऊँगा मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है ।77।
यह सुनकर विघ्नराज गणेश जी ने कहा –व्यास जी !
यदि क्षण भर के लिए भी मेरी लेखनी न रुके तो 'मैं इस ग्रन्थ का लेखक बन सकता हूँ।78।
व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा –बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी मत लिखिएगा । गणेश जी ने "ऊँ" कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये ।।79।
महाभारत में वर्णित जन जातियाँ
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकै:।
क्षेप युक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमत:। २८४।
प्रजाति समुत्थितो यत्रधार्तराष्ट्रो८त्यमर्षण:।
भीमेन गदया युद्धं तत्रासौ कृतवान् सह ।।२८५।
(महाभारत आदि पर्व)
किन्तु लोधों ने भीमसेन से दुर्योधन की यह चेष्टा बतला दी ।तब धर्म राज के आक्षेप युक्त वचनों से अत्यधिक क्रोध में भर कर धुर्योधन सरोवर से बाहर निकला और भीम से गदा युद्धं किया ।
यह प्रसंग सल्य पर्व में है ।
कलश:( सागर )।
बलं ददामि सर्वेषां कमैर्तद् ये समास्थिता:।
क्षोभ्यतामं कलश: सर्वैर्मन्दर: परिवर्त्यताम् ।३१।
महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय।
जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं मैं उनको शक्ति देरहा हूँ। सभी -पूरी शक्ति से मन्दरांचल को घुमावैं और सागर को क्षुब्ध करदें ।
मेकला द्राविडा लाटा : पौण्ड्रा: कान्वशिरास्तथा ।
शौण्डिका दरदा दार्वाश्चौरा : शबराबर्बरा :।१७।
किराता यवनाश्चैव तास्ता: क्षत्रिय जातय: ।
वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानाम् अमरषणात्।१९।
मेकला द्राविडा लाटा पौण्ड्रा कान्वशिरा शौण्डिका दरदा दार्वाश्चौरा शबराबर्बरा किरात यवन ये सब पहले क्षत्रिय थे ।परन्तु ब्राह्मणों से वैर करने से शूद्र हो गये ।
महाभारत अनुशासन पर्व दानधर्म पर्व ३५ वाँ अध्याय
चार: सुविहित: कार्य आत्मनश्च परस्य वा ।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रेषु योजयेत् ।63।
(सम्भव पर्व )139 वाँ अध्याय
भलीभाँति जाँच परख कर अपने तथा शत्रु को राज्य में गुप्तचर रखें ।शत्रु के राज्य में ऐसे गुप्तचर नियुक्त करें
--जो पाषण्ड वेश धारी अथवा तपस्वी हों ।
महाभारत में यूनानी राजा का वर्णन 👇
त्रिवर्षकृतयज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपल्वे ।
अर्जुप्रमुखै: पार्थै: सौवीर समरे हत :।20।
न शशाक वशे कर्तुं यं पाण्डुरपि वीर्यवान् ।
सो८र्जुनेन वशं नीतो राजा ८८सीद् यवनाधिप:।21
सौवीर देश को राजा , --जो गन्धरवों के उपद्रव करने पर भी लगातार तीन वर्षों तक बिना किसी बिघ्न-बाधा के यज्ञ करता रहा ।
युद्ध में अर्जुुन आदि पाण्डवों के हाथ मारा गया । पराक्रमी राजा पाण्डु भी जिसे वश में नहीं ला सकते थे उस यूनान के राजा (दत्तमित्र)को भी जीत कर अर्जुुन ने अपने अधीन कर लिया ।20-21।
राजा सुदास या कल्माषपाद --जो अयोध्या के राजा थे
उनकी पत्नी दमयन्ती राजा की आज्ञा के अनुसार
पुत्र की कामना से वशिष्ठ के पास गयी और वशिष्ठ ने उसके साथ नियोग कर अशमक नामक पुत्र उत्पन्न किया ।👇
तत: प्रविष्टे राजर्षौ तस्मिंस्तत् परमुत्तमम् ।
राज्ञस्तस्याज्ञया देवी वसिष्ठमुपचक्रे ।। 43।
ऋतावथ महर्षि: स सम्बभूव तया सह ।
देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठ: श्रेष्ठ भागृषि:।44।
ततस्तस्यां समुत्पन्ने गर्भे स मुनिसत्तम:
राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम मुनिराश्रमम् ।45।
अर्थात् राजर्षि कल्माषपाद के उस उत्तम नगर में प्रवेश करने पश्चात् उक्त महाराज की आज्ञा के अनुसार महारानी दमयन्ती महर्षि वसिष्ठ के समीप गयीं।43।
तत्पश्चात् महर्षि वसिष्ठ ने ऋतुकाल में शास्त्र की देवीय विधि के अनुसार महारानी के साथ नियोग किया 44।
उसके बाद रानी की कोख में गर्भ स्थापित हो जाने पर
राजा से पूजित होकर वसिष्ठ
अपने आश्रम को लौट गये ।45।
महाभारत आदिपर्व चैत्ररथपर्व छिहत्तरवाँ अध्याय
महाभारत बौद्ध काल की रचना है 👇
इसके लिए प्रमाण यह श्लोक है ।
कच्चित् स्वनुष्ठिता तात वार्ता ते साधुभि: जनै:।
वार्तायां संश्रितस्तात लोको८यं सुखमेधते ।।80।
तात तुम्हारे राज्य में अच्छे पुरुषों ( साधुओं) द्वारा वार्ता( ) – कृषि , गोरक्षा, तथा व्यापार का काम अच्छी तरह किया जाता है न ?
क्यों कि उपर्युक्त वार्ता वृत्ति पर रहने वाले लोग ही सुख-पूर्वक उन्नति करते हैं ।
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धर्म-मर्यादाओं में स्त्रीयों को बाँधने वाले मनुष्य ने
कभी भी महिलाओं को विश्वास और श्रृद्धा की दृष्टि से नहीं देखा हमेशा उसे उपभोग की वस्तु ही समझा 👇
कच्चित् स्त्रिय:सान्त्वयसि कच्चित् ताश्च सुरक्षिता:
कच्चित् श्रद्दधास्यासां कच्चिद् गुह्यं न भाषसे ।84।
सभापर्व- (लोकपालसभाख्यानपर्व) पञ्चम् अध्याय
अर्थात् तुम स्त्रीयों को सान्त्वना देकर संतुष्ट रखते हो न? क्या वे तुम्हारे यहाँं पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं ?
तुम उनपर पूर्ण विश्वास तो नहीं करते ? और विश्वास करके उन्हें कोई गुप्त बात तो नहीं बता देते ? ।84।
ईप्सितश्च गुण: स्त्रीणामेकस्या बहुभर्तृता ।
तं च प्राप्तवती कृष्णा न सा भेदययितुं क्षमा ।।8।
स्त्रीयों का यह अभीष्ट गुण है कि एक स्त्री में अनेक पुरुषों से सम्बन्ध स्थापित करने की रुचि होती है । पाण्डवों के साथ द्रोपदी (कृष्णा) को यह लाभ स्वत: प्राप्त है । अत: उसके मन में भेद उत्पन्न नहीं किया जा सकता ।8।
महाभारत विदुरागमन राज्यलम्भपर्व
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रामठान् हारहूणांश्च प्रतीच्याश्चैव ये नृपा:।12
तान् सर्वमान्य सवशे चक्रे शासनादेव पाण्डव:।
तत्रस्थ : प्रेषयामास वासुदेवाय भारत ।।13।
सभापर्व-(राजसूयपर्व) बत्तीसवाँ अध्याय
रामठ हार, हूण तथा --जो पश्चिमीय नरेश थे ।उनसबको पाण्डु कुमार नकुल ने आज्ञा मात्र से ही अपने अधीन कर लिया ।
भारत वहीं रहकर उन्होनें वसुदेव नन्दन कृष्ण के पास गयी भेजा ।।
महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत अर्घाभिहरण पर्व में वर्णन है कि परशुराम ने काश्मीर ,दरद, कुन्तिभोज,क्षुद्रक(शूद्र),,मालव, शक,चेदि, काशि, करुष,ऋषिक, क्रथ, कैशिक,अंग, वंग कलिंग ,मागध, काशी, कौसल, रात्रायण ,वीतिहोत्र , किरात, तथा मार्तिकावत् ,–इनको तथा अन्य हजारों राजेश्वरों को प्रत्येक देश में तीखे वाणों से मार कर यम लोक भेज दिया ।👇
काश्मीरान् दरदान् कुन्तीन् क्षुद्रकान् मालवान् शकान् ।
चेदि, काशि, कारुषांश्च ऋषिकान् क्रथकैशिकान् ।।
अंगान् वंगान् कलिंगांश्च मागधान् काशिकोसलान्
रात्रायणान् वीतिहोत्रान् किरातान् मातिकावतान्
एतानन्यांश्च राजेन्द्रान् देशे देशे सहस्रश:
निकृत्त्यनिशितैर्बाणै: सम्प्रदाय विवस्वते।।
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युद्ध काल में राजा लोग अपने जोश उत्पादन के लिए
नग्न नर्तकियों को नचाते और उनपर गीत गबाते थे ।जिन्हें आधुनिक भाषा में चीयरस्गर्ल कहते हैं ।👇
सुबन्धुरं रथं राजन्नास्थाय भरतर्षभ ।।
नग्निकानां कुमारीणां गायन्तीनामुपाश्रृणोत् ।।
भरत-श्रेष्ठ युधिष्ठर तदन्तर सुन्दर रथ पर सौभविमान के साथ युद्ध करने वाले ।
शक्तिशाली वीर परशुराम ने गीत गाती हुई नग्निका कुमारियों के मुख से यह सुना ।
महाभारत में भी अन्य पुराणों की तरह कल्कि अवतार का वर्णन है ।
--जो बौद्ध मतावलम्बी पाषण्ड मत के अनुयायीयों का वध करेंगे ।👇महाभारत सभापर्व- अर्घाभिहरण पर्व
कल्की विष्णु यशा नाम भूयश्चोत्पत्स्यते हरि :।
कलेर्युगान्ते सम्प्राप्ते धर्मे शिथिलतां गते।।
पाखण्डिनां गणानां हि वधार्थे भरतर्षभ:।
धर्मस्य च विवृद्धि अर्थ विप्राणां हितकाम्यया ।।
कलियुग के अन्त में जब धर्म शिथिल हो जाएगा ।उस समय भगवान् विष्णु पाखण्डीयों के वध और धर्म की वृद्धि के लिए ब्राह्मणों के हित की कामना से पुन: कल्कि अवतार लेंगे ।
मौर्य वंश का सूत्रपात मुर दैत्य से हुआ 👇
प्रागज्योतिषपुर का राजा मुरस्य दश चात्मजा:।
नैर्ऋताश्च यथा मुख्या: पालयन्त उपासते ।।
प्रागज्योतिषपुर का राजा भौमासुर ,मुर के दशपुत्र तथा प्रधान-प्रधान राक्षस उस अन्त पुर की रक्षा करते हुए सदा उसके समीप ही रहते ।
महाभारत सभापर्व-अर्घाभिहरण पर्व अड़तालीस वाँ अध्याय ( दक्षिणात्यपाठ)
कैराता दरदा दर्वा: शूरा वै यमकास्तथा ।
औदुम्बरा दुर्विभागा: पारदा बाह्लिकै: सह ।13।
काश्मीराश्च कुमाराश्च घोरका हंसकायना:।
शिबित्रिगर्त यौधेया राजन्या भद्रकेकया :।14।
अम्बष्ठा: कौकुरास्तार्क्ष्या वस्रपा: पह्लवै: सह।
वशातलाश्च मौलया: सह क्षुद्रकमालवै:।15।
शौण्डिका: कुकुराश्चैव शकाश्चैव विशाम्पते।
अंगा वंगाश्च पुण्ड्राश्च शाणवत्या गयास्तथा।16।
अहार्षु: क्षत्रिया वित्तं शतशजो८जात शत्रवे ।17।
(महाभारत सभापर्व-द्यूतपर्व )
किरात, दरद,दर्व,शूर, यमक,औदुम्बर,दुर्विभाग, पारद, बाह्लीक,काश्मीर , कुमार ,घोरक,हंसकायन ,शिबि, त्रिगर्त,यौधेय, भद्र , कैकय ,अम्बष्ठ ,कौकुर ,तार्क्ष्य,वस्रप, पह्लव,वशातल ,मौलेय, क्षुद्रकमालवै,मालव, शौण्डिक, कुक्कर,शक, अंग,वंग ,औड्र, शाणवत्या और गय –ये उत्तम कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ एवं शस्त्रधारी क्षत्रिय राजकुमार सैकड़ों की संख्या में युधिष्ठर को 'बहुत सी धन समर्पित कर रहे थेेेे ।
तत्रेमे कुरुपाञ्चाला: शाल्वा माद्रेय जांगला :।
शूरसेना: पुलिन्दाश्च बोधा मालास्तथैव च।। 39।
मतस्या : कुशल्या: सौशल्या: कुन्तय: कान्तिकौसला:।
चेदि मत्स्यकरूषाश्च भोजा: सिन्धु पुलिन्दका: ।40।
उत्तमाश्व दशार्णाश्च मेकलाश्चोत्कलै: सह ।
पञ्चाला : कोसलाश्चैव नैकपृष्ठा धुरन्धरा:।41।
गोधामद्रकलिंगाश्च कीशयो८परकाशय:।
जठरा: कुकुराश्चैव शदशाणाश्च भारत ।42।
कुन्तयो८वन्तयश्चैव तथैवापरकुन्तय: ।।
गोमन्ता मण्डका: सण्डा विदर्भा
रूप वाहिका:।43।
अश्मका: पाण्डुराष्ट्रश्च गोपराष्ट्रा करीतय:।
अधिराज्य कुशाद्याश्च मललराष्ट्रं च केवलं ।44।
वारवास्यायवाहाश्च चक्राश्चक्रातय: शका:।
विदेहा मगधा स्वक्षा मलजा विजयास्तथा ।45।
अंगा वंगा: कलिंगाश्च यकृल्लोमान एव च ।
मल्ला सुदेष्णा : प्रह्लादा माहिका:
शशिकास्तथा ।46।
बाह्लीका वाटधानाश्च आभीरा कालतोयका :
अपरान्ता: परान्ताश्च पञ्चालाश्चर्म मण्डला:।47।
अटवी शिखराश्चैव मेरुभूताश्च मारिष ।
उपावृत्तानुपावृत्ता : स्वराष्ट्रा: केकयास्तथा।48।
कुन्दापरान्ता माहेया: कक्षा: सामुद्रनिष्कुटा:।
अन्ध्राश्च बहवो राजन्नन्तर्गिर्यास्तथैव च।49।
बहिर्गिर्यांगमलजा मगधा मानवर्जका:।
समन्तरा: प्रावृषेया भार्गवाश्च जनाधिप ।50।
पुण्ड्रा भर्गा: किराताश्च सद्दृष्टा यामुनास्तथा ।
शका निषादा निषधास्तथैव आनर्त नैर्ऋता :।।51।
दुर्गाला: प्रतिमत्स्याश्च कुन्तला : कोसलास्था ।
तीरग्रहा: शूरसेना ईजिका: कन्याकागुणा ।52।
तिलभारा मसीराश्च मधुमन्ता सुकन्दका ।
काश्मीरा : सिन्धुसौवीरा गान्धारा
दर्शकास्तथा 53।
अभीसारा उलूताश्च शैवला बाह्लीकास्तथा ।
दार्वी च वानवा वातजामरा थोरगा । 54।
बहुवद्याश्च कौरव्य सुदामना सुमल्लिका:
वध्रा : करीषकाश्चापि कुलिन्दो८पत्यकास्तथा ।55।
वनायवो दशापार्श्वरोमाण : कुशविन्दव: ।
कच्छा गोपाल कक्षाश्च जांगला कुरुवर्णका:।56।
किराता बर्बरा सिद्धा वैदेहास्ताम्रलिप्तिका :।
ओड्रा म्लेच्छा: सैसिराध्रा: पार्वतीयाश्व मारिष।57।
अथापरे जनपदा दक्षिणा भरतर्षभ।
द्रविड: केरला : प्राच्या भूषिका वनवासिका :।58।
कर्णाट महिषका विकल्पा मूषकास्तथा ।
झिल्लिका: कुन्तलाश्चैव सोहृदा नभकानना ।59।
कौकुट्टकास्तथा चोला कोंकणा मालवा नरा ।
समंगा करकाश्चैव कुकुरांगारमारिषा:।60।
ध्वजिन्युत्सव संकेतास्त्रिगर्ता शाल्शसेनय:।
व्यूका, कोक, बका पश्तो:/प्रोष्ठा:समवेगवशास्तथ
सामवेगस्तथा ।61।
तथैव विन्ध्यचुलिका: पुलिन्दा वल्कलै सह ।
मालवा वल्लवाश्चैवतथैवपर बल्लभवाश्चैव तथैवापरबल्लवा ।62।
कुलिन्दा : कालदाशचैव कुण्डला: करटास्तथा ।
मूषका: स्तनबालाश्च सनीपा घटसृंजया ।।63।
अठिदा : पाशिवाटाश्च तनया : सुनयास्तथा ।
ऋषिका विदभा : काकास्तंगणा: परतंगणा ।64।
उत्तराश्चपरम्लेच्छा : क्रूराभारतसत्तम् ।
यवनाश्चीनकाम्बोजा दारुण म्लेच्छजातय:।65।
सकृद ग्रहा कुलत्थाश्च हूणा पारसिकै: सह ।
तथैव रमणाश्चीनास्तथैव दशमालिका: ।66।
क्षत्रियोपनिवेशाश्च वैश्यशूद्रकुलानि च।
शूद्र आभीरश्च दरदा : काश्मीरा पशुभि: सह ।67।
खाशीराश्चान्त चाराश्च पह्लवा गिरिगह्वरा: ।
आत्रेया : स भरद्वाजास्तथैव स्तनपोषिका:।
प्रोषकाश्च कलिंगांश्च किरातानां च जातय: ।
तोमरा हन्यमानाश्च तथैव करभञ्जका:।
(महाभारत
भीष्म पर्व भूमिपर्व)जम्बूखण्ड निर्माण पर्व )
नवाँ अध्याय ।
भारत में यह कुरु पांचाल शाल्व माद्रेय जांगल ,शूरसेन पुलिन्द बोध माल मत्स्य कुशल सौशल्य कुन्ती कान्ति कौशल चेदि मत्स्य करुष भोज सिन्धु पुलिन्द उत्तमाश्व दाशार्ण
मेकल उत्कल पंचाल कौशल नेकपृष्ठ धुरंधर गोधा मद्रकलिंग काशि अपरकाशि जठर कुक्कुर दशार्ण कुन्ति अवन्ति अपरकुन्ति गोमन्त मंदक शंड विदर्भ रूप वाहक अशमक पांडूराष्ट्र गोपराष्ट्रा करिती अधिराज्य कुषाद्य तथा मल्लराष्ट्र 39-44।
वारवस्य अयवाह चक्र चक्रति शक विदेह मगध स्वक्ष मलाज विजय अंग बंग कलिंग यकृल्लोमा मल्ल,सुदेष्ण प्रहलाद माहिक शशिक बाह्लीक वाटधान अाभीर यानी (अहीर )कालतोयक अपरान्त ऑफ वर्क पोस्ट संवेग बस डेंजर चुंक पुलिंग वल्कल नाला बल्लभ अप वल्लभ कुल हिंद काला कुंडल कट मूषक स्तन बाल सनी भट्ट संजय पासवर्ड तले सुनो रिसीव विदाई का पनगढ़ बर्तन और उत्तर और विलेज यवन चीन तथा जहां भयानक मिक्स जाति के लोग निवास करते हैं वह कंबोज पाँचाल चर्ममण्डल अटवीशिखर मेरुभूत उपावृत अनुपावृत्त अनुव्रत स्वराष्ट्र केकय कुंदाप्रांत माहेय कक्ष समुंद्र निष्कुट बहुसंख्यक अन्ध्र अंतर्गिरी बहिर्गिरी अंगमलज मगध मानवर्जक, समन्तर प्रावृषेय तथा भार्गव।45-50।
पुण्ड्र ,भर्ग, किरात, सुद्दृष्ट, जामुन शक, निषाद ,निषध, आनर्त नैर्ऋत दुर्गाल, प्रतिमत्स्य ,कुंतल ,कौशल तीर ग्राह ,शूरसेन ईजिक, कन्याकागुण, तिलभार ,मसीर,मधु मान् ,सुकंदक, कश्मीर सिंधुसौवीर, गांधार दर्शक अभिसार उलूत,शैवाल, वाह्लिक, दार्वी ,वानव,दर्व,वातज, आमरथ ,उरग,बहुवाद्य सुदाम,सुमल्लिक , वध्र,करीषक, कुलिन्द, उपत्यक,वनायु, दश,पार्श्वरोम,कुशबिन्दु, कच्छ, (काछी) गोपालकक्ष, जांगल, करुवर्णक, किरात, बर्बर ,सिद्ध ,वैदेह, ताम्रलिप्तक, औड्र, म्लेच्छ,सैसिरिध्र,और पार्वतीय इत्यादि।
भरत श्रेष्ठ ! अब जो दक्षिण दिशा के अन्य अन्य जनपद हैं ; उनका वर्णन सुनिए द्रविड़ ,केरल, प्राच्य, भूषिक ,वनवासिक ,कर्नाटक महिषक, विकल्प, मूषक,झिल्लिक, कुंतल, सुहृद, नभकानन ,कौकुट्टक चोल, कोंकण ,मालव ,नर समंग, करक, कुकुर ,अंगार मारिस, ध्वजनी,उत्सव-संकेत ,त्रिगर्त शाल्वसेनि ,व्यूक कोकबक, प्रोष्ठ, समवेगवश, विन्ध्यचुलिक,पुलिन्द,वल्कल, मालव,वल्लव, अपरवल्लव, कुलिन्द, कालद, कुण्डल , करट, मूषक, स्तनबाल,सनीप, घट, सृंजय, अठिद, पाशिवाट,
तनय, सुनय, ऋषिक, विदभ, काक, तंगण,परतंगण, उत्तर और क्रूर, अपरम्लेच्छ ,यवन,चीन,तथा जहाँ भयानक म्लेच्छ जाति के लोग निवास करते हैं 'वह कम्बोज।58-65
सकृद्ग्रह, कुलत्थ, हूण, पारसीक,रमण-चीन, दशमालिक, क्षत्रियों के उपनिवेश,वैश्यों और शूद्रों के जनपद, शूद्र, आभीर,दरद, काश्मीर, पशु, खाशीर,अन्तचार,पह्लव,गिरिगह्वर,आत्रेय, भरद्वाज,स्तनपोषिक,प्रोषक, कलिंग, किरात जातियों के जनपद तोमर, हन्यमान,करभञ्जक, इत्यादि ।67-69
(महाभारत भीष्म पर्व के अन्तर्गत जम्बूखण्ड विनिर्माणपर्व में भारतीय नदियोंऔर देश आदि का वर्णन विषयक नवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
तुषारा यवनाश्चैव शकाश्च सह चूचुपै:।
दक्षिणं पक्षमाश्रित्य स्थिता व्यूहस्य भारत ।21।
भारत तुषार यवन सक और चू चुप देश के सैनिक व्यूह के दाहिने पक्ष का आश्रय लेकर स्थित हुए।21।
(महाभारत भीष्म पर्व भाष्मवधपर्व 75 वाँ अध्याय)
त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं तयजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वी त्यजेत् ।।11।
(महाभारत सभापर्व-द्यूतपर्व)
वासुदेव और विष्णु शब्द की व्युपत्ति असंगत व काल्पनिक है ।👇
( महाभारत उद्योगपर्व- यानसन्धिपर्व) सत्तर वाँ अध्याय
वसनात् सर्वभूतानां वसुत्वाद् देवयोनित:।
वासुदेवस्ततो वेद्यो बृहत्त्वाद् विष्णुरुच्यते ।।3।
भगवान समस्त प्राणियों के निवास स्थान हैं तथा वे सब भूतों में निवास करते हैं इसलिए वसु हैं ।
एवं देवताओं की उत्पत्ति के स्थान होने से और समस्त देवता उनमें वास करते हैं इसलिए उन्हें देव कहा जाता है अतः उनका नाम वासुदेव है ऐसा जानना चाहिए बृहद् अर्थात व्यापक होने के कारण वह विष्णु कहलाते हैं ।
महाभारत में व्युत्पत्ति सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ाकर व्युत्पत्तियाँ-की गयी हैं ।
मौनाद् ध्यानाच्च योगाच्च विद्धि भारत माधवम् ।
सर्वतत्वमयत्वाच्च मधुहा मधुसूदन:।4।
कृषिर्भूवाचक: शब्दो णश्च निर्वृतिवाचक:।
विष्णुस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्वत:।5।
दस्युत्रासाज्जनार्दन:।6। दस्यु का त्रास कराने से वह जनार्दन है
न जायते जनित्रायमजस्तस्मादनीकजित्।
देवानां स्वप्रकाशत्वाद् दमाद् दामोदरो विभु:।।8।
पूरणात् सदनाच्चापि ततो८सौ पुरुषोत्तमः।11
वे सर्वत्र परिपूर्ण है तथा सब के निवास स्थान है इसलिए पुरुष है और सब पुरुषों में उत्तम होने के कारण उस उत्तम उनकी संज्ञा है।11।
गोविन्दो वेदनाद् गवाम् ।13।
गो (इंद्रिय) के ज्ञाता और प्रकाशक होने के कारण वह कृष्ण गां विन्दति इस व्युत्पत्ति के अनुसार गोविन्द कहलाते हैं।13।
भारत मोनू ध्यान और योग से उनका भूत अथवा साक्षात्कार होता है इसलिए आप उन्हें माधव समझें मधु शब्द से प्रतिपादित पृथ्वी याद संपूर्ण तत्वों के उपादान एवं अधिष्ठान होने के कारण मधुसूदन श्री कृष्ण को मथुरा कहा गया है 4।
कृष् धातु का अर्थ सत्ता का वाचक है और "ण" शब्द आनंद का बोध कराता है इन दोनों भागों से युक्त होने के कारण यदुकुल में उत्तीर्ण हुए नित्य आनंद स्वरूप श्री विष्णु कृष्ण कहलाते हैं ।5।
शत्रु सेनाओं पर विजय पाने वाले यह भगवान श्री कृष्ण किसी जन्मदाता के द्वारा जन्म ग्रहण नहीं करते हैं इसीलिए "अज" कहलाते हैं देवता स्वयं प्रकाश रूप होते हैं अतः उत्कृष्ट रूप से प्रकाशित होने के कारण भगवान श्री कृष्ण को उदर कहा गया है ।
और दम (इंद्रियसंयम) नामक गुण से संपन्न होने के कारण उनका नाम दाम है
इस प्रकार दाम और उदर इन दोनों शब्दों के सहयोग से वे दामोदर कहलाते हैं ।8।
महाभारत में उद्योगपर्व-भगवद् यानपर्व के निन्नयानबें वें
अध्याय में
पाताल शब्द की आनुमानिक व्युत्पत्ति की है 👇
यस्मादलं समस्तास्ता: पतन्ति जलमूर्तय: ।
तस्मात् पातालमित्येव ख्यायते पुरमुत्तमम् ।6।
जल स्वरूप जितनी भी वस्तुएं हैं वह सब वहां पर्याप्त रूप से गिरती है इसलिए "पतन्ति अलम्" के इस व्युत्पत्ति के अनुसार पात अलम् इन दोनों शब्दों के योग से यह उत्तम नगर पाताल कहलाता है।6।
महाभारत में उद्योगपर्व-यानसन्धिपर्व बहत्तरवाँ अध्याय
शूद्र: करोति शुश्रुषां वैश्या वै पण्यजीविका:।
वयं वधेन जीवाम: कपालं ब्राह्मणैर्वृतम् ।।47।
शुद्र सेवा का कार्य करता है वैश्य व्यापार से जीविका चलाते हैं हम क्षत्रिय युद्ध में दूसरों का वध करके जीवन निर्वाह करते हैं और ब्राह्मण ने अपनी जीविका के लिए भिक्षा पात्र चुन लिया है।
हिन्दू धर्म ब्राह्मण धर्म का पर्याय है ।
ब्राह्मण स्वयं इस धर्म का निर्माता है
अत: उसके लिएहर कार्य करने में स्वातन्त्र्य अथवा आजादी है ।
महाभारत में वर्णन है कि👇
अन्यत्र ब्राह्मणात् तात सर्वपापेष्ववस्थितात्।
गुरुर्हि सर्ववर्णानां ब्राह्मण:प्रसृताग्रभुक्।।17।
तात ब्राह्मण के सिवा दूसरे वर्णों पर यह नियम लागू होता है ब्राह्मण सब पापों में डूबा हो तब भी उसे प्राण दंड नहीं देना चाहिए !
क्योंकि हम सबका गुरु तथा दान में दी हुई वस्तुओं का सर्वप्रथम भोक्ता है अर्थात पहला पात्र
महाभारत काल में कन्यायों को चिन्तामणि' माना जाता
इनका जन्म ही अशुभ था ।
महाभारत के इस कन्या विरोधी वर्णन से आप अन्दाजा लगा सकते हो कि कन्यायों के प्रति उस समय की क्या प्रवृत्ति या धालणा थी ।👇
(उद्योगपर्व-भगवद् यानसन्धिपर्व सत्तानबेवाँ अध्याय)
धिक् खल्वलघु शीलानामुच्छ्रितानां यशस्विनाम् ।
नराणां मृदुसत्वानां कुले कन्याप्ररोहणम् ।15।
मातु: कुलं पितृकुलं यत्र चैव प्रदीयते ।
कुलत्रयं संशयितं कुरुते कन्यका सताम्।16।
जिन का शील स्वभाव श्रेष्ठ हैं जो ऊंचे कुल में उत्पन्न हुए यशस्वी तथा कोमल अंतःकरण वाले हैं ऐसे लोगों के कुल में कन्या का उत्पन्न होना दुख की बात है।15।
कन्या मातृ कुल को ,पितृ कुल को तथा जहां वह ब्याही जाती है उस कुल को सत पुरुषों के इन तीनों कुलों को संशय में डाल देती है ।16।
दक्षिण दिशा का वर्णन👇
उद्योगपर्व-भगवद् यानपर्व गालव चरत्रविषयक एकसौनोवाँ अध्याय।
_________________________________________इयं विवस्वता पूर्वं श्रौतेन विधिना किल ।
गुरवे दक्षिणा दत्ता दक्षिणेत्युच्यते च दिक्।1।
गरुड़ कहते हैं ! गालव यह प्रसिद्ध है कि पूर्व काल में भगवान सूर्य ने वेदोक्त विधि के अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यप को दक्षिणा रूप से इस दिशा का दान किया इसलिए इसे दक्षिण दिशा कहते हैं।1।
अत्र लोकत्रयस्यास्य पितृपक्ष: प्रतिष्ठित: ।
अत्र उष्मपाणां देवानां निवास : श्रूयते द्विज।।2।
ब्राह्मन् तीनों लोगों के पितृगण इसी दिशा में प्रतिष्ठित हैं तथा ऊष्मप नामक देवताओं का निवास भी इसी दिशा में सुना जाता है।2।
एषा दिक् सा द्विजश्रेष्ठ यां सर्व: प्रतिपद्यते ।
वृता त्वनवबोधेन सुखं तेन न गम्यते।।7।
विप्रो ! यह वह दिशा है जिसमें मृत्यु के पश्चात सभी प्राणियों को जाना पड़ता है ; यह सदा अज्ञान अंधकार से आवृत रहती है इसलिए इसमें सुख पूर्व यात्रा संभव नहीं हो पाती है।7।
नैर्ऋतानां सहस्राणि बहून्यत्र द्विजर्षभ।
सृष्टानि प्रतिकूलानि द्रष्टव्यान्यकृतात्मभि:।।8।
द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मा जी ने इस दिशा में प्रतिकूल स्वभाव एवं आचरण वाले हजारों राक्षसों की सृष्टि की है जिनका दर्शन अशुद्ध अन्तः करण वाले पुरुषों को ही होता है ।8।
अत्र दुष्कृतकरमाणो नरा: पच्यन्ति गालव!
अत्र वैतरणी नाम नदी वितरणैर्वृता ।14।
गालव इसी दिशा में पापा चारी मनुष्य नरकों की आग में पकाए जाते हैं ।
दक्षिण में ही वह वैतरणी नदी है जो वैतरणी नरक के अधिकारी पापियों से घिरी रहती है।14।
अत्र निर्याण काले८पि तम: सम्प्राप्यते महत् ।20।
अभेद्यं भास्करेणापि स्वयं वा कृष्ण वर्त्मना।।
मृत्यु के पश्चात इस दिशा में जाने वाले प्राणियों को ऐसे घोर अंधकार का सामना करना पड़ता है जो साक्षात् अग्नि एवं सूर्य के लिए भी अभेद्य है।20।
दिशाओं के विषय में भारतीय पुराणों में उसी मान्यताऐं का दिग्दर्शन होता है ।जो स्वीडन वासी सुर (स्वेयर) Sviar जर्मनिक जन-जातियाें में है ।
उत्तर दिशा का वर्णन-👇
(उद्योगपर्व-भगवद यानपर्व एकसौ ग्यारहवाँ अध्याय)
यस्मादुत्तार्यते पापाद् यस्मान्नि:श्रेयसो८श्नुते ।
अस्मादुत्तारणबलादुत्तरेत्युच्यते द्विज ।।1।
गालव इस मार्ग से जाने पर मनुष्य का पाप से उद्धार हो जाता है और वह कल्याण में स्वर्गीय सुखों का उपयोग करता है अतः इस उत्तारण ( संसार सागर से पार उतारने के बल से इस दशा को उत्तर दिशा कहते हैं।1।
__________________________________________
यद्यपि ब्राह्मणों द्वारा लिखे गये पुराण, महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि -ग्रन्थों पर सभी पुष्यमित्र सुंग की रूढ़ि वादी परम्पराओं के अनुयायी ब्राह्मणों ने ठप्पा (मौहर) लेखन की व्यास जी की लगाई है।
जैसे कि कृष्ण द्वैपायन व्यास ने सारे ग्रन्थ लिखे हों।
झूँठ अस्वाभाविक व प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
परन्तु पुराणों तथा महाभारत का लेखन अनेक व्यक्तियों द्वारा किया गया है।
ये किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं क्यों कि इनमें विरोधाभास है ।
कोई एक व्यक्ति यथार्थ के धरातल पर खड़ा होकर
परस्पर विरोधी व भिन्न-भिन्न बातें नहीं कहेगा।
सत्य केवल एक रूप है उसका कोई विकल्प नहीं
जबकि झूँठ ( मिथ्या) है 'वह अनेक रूप धारणाओं करने वाला बहुरूपिया है ।
केवल ऋग्वेद प्रथम और दशम मण्डल को छोड़कर अन्य सभी मण्डल प्राचीनत्तम हैं।
इसी लिए इनकी कथाओं में परस्पर विरोधाभासी रूप भी होने से असत्य हैं।
पुराण इत्यादि किंवदन्तियों पर आधारित रचनाऐं हैं।
भाषाओं के शब्दों का ऐैतिहासिक व्युत्पत्ति मूलक विश्लेषण भी इतिहास का सम्पूरक रूप है।
अब हिन्दु धर्मावलम्बी महाभारत को गणेश जी के द्वारा लिखित रचना मानते हैं ।
परन्तु महाभारत में यूनानी शब्दों का प्रयोग है ।👇
महाभारत में सुरंग शब्द का आगमन ई०पू० 323 में आगत यूनानीयों की भाषा से है ।
महाभारत में सुरुंगा शब्द यूनानीयों का-- तथा पाषण्ड शब्द बौद्ध कालीन शब्द है ।
बाद में पाषण्ड का रूप पाखण्ड होगया ।
नीचे सुरंग शब्द का व्युत्पत्ति विश्लेषण करेंगे👇
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पुरोचनाद् रक्षमाणा : संवत्सरमतन्द्रिता:।
सुरुंगां कारयित्वा तु विदुरेण प्रचोदिता : ।२२।
पुरोचन से रक्षित हो सदा सजग रहकर उन्होंने एक वर्ष तक वहाँ निवास किया ।
फिर विदुर की प्रेरणा से पाण्डवों ने एक सुरंग खुदवाई ।
(महाभारत आदि पर्व ६१ वाँ अध्याय )
सुरुंगां विविशुस्तूर्णं मात्रा सार्धम् अरिंदमा: ।१२।
(महाभारत आदि पर्व सम्भव पर्व १४७ वाँ अध्याय)
यदु शिष्यो८सि मे वीर वेतनं दीयताम् मम ।५४।
(महाभारत में वेतन शब्द प्रयोग)
यह शब्द भी संस्कृत भाषा में आगत है ।
क्यों कि संस्कृत भाषा में इसकी व्युत्पत्ति अनिश्चत है ।👇
वेतन= अज--तनन् वीभावः ।
१ कृतकर्मणोमृतौ (अमरः कोश)।
मृतिशब्दे दृश्यम् । २ जीवनोपाये (हेमचन्द्र कोश ) ।
महाभारत आदि पर्व सम्भव पर्व१३१वाँ अध्याय
त्रि वर्ष कृत यज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपप्लवे ।
अर्जुन प्रमुखै: पार्थै: सौवीर : समरे हत:।२०।
न शशाक वशे कर्तुं यं पाण्डुरपि वीर्यवान् ।
सो८र्जुनेन वशं नीतो राजा८८सीद् यवनाधिप: ।२१।
महाभारत आदि पर्व सम्भव पर्व १३८वाँ अध्याय।
सौवीर देश का राजा , जो गन्धर्वों के उपद्रव के बाद भी तगातार -तीन वर्षों तक यज्ञ करता रहा।
वह युद्ध मे अर्जुन के साथ मारा गया।
पाण्डु भी जिसे न जीत सके
उस यवन देश (यूनान) के राजा को जीत कर अर्जुन ने अपनी अधीन कर लिया।
यह वर्णन ई०पू० 323 बाद का है ।
चार : सुविहित: कार्य आत्मनश्च परस्य वा ।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रेषु योजयेत् ।६३।
महाभारत आदि पर्व सम्भव पर्व १३८वाँ १४९ अध्याय
( पाषण्ड शब्द अशोक कालीन बौद्धों का पवित्र सम्प्रदाय था ।
--जो कालान्तरण में बौद्ध मत के पतन के बाद दिखावे के अर्थ में रूढ़ हो जाता है।
प्रमाण तो यह मिलता है कि यूनानीयों ने सुरंग शब्द का प्रयोग चौदहवीं शताब्दी से किया है।
और महाभारत में यह इसी समय सम्पादित हुआ।
ग्रीक पुरातन कथाओं में सुरंग एक अप्सरा विशेषः है
भाषाविज्ञानी संस्कृत के सुरंग शब्द का विकास ग्रीक भाषा के सिरिंक्स (syrinx) से ही मानते हैं।
प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की धातु (swer)से बने सिरिंक्स का अर्थ होता है:- ट्यूब, नलिका या पाईप जैसी रचना।
ग्रीक में ही सिरिंक्स का रूपान्तरण सिरिंग (syringe) में हुआ।
लैटिन में भी इसका यही रूप रहा जिसने अंग्रेजी में सिरिंज (Syringe) का रूप लिया जिसका मतलब भी पाईप या नलिका होता है।
आधुनिक चिकित्सा में इञ्जेक्शन लगाने के उपकरण को सिरिञ्ज कहा जाता है ;
जो एक खोखली, पतली ट्यूब जैसी रचना होती है।
ग्रीक भाषा के सिरिंक्स में मूलतः बांस के पोले पाईप का भाव था जिसे फूंक मारकर बजाया जाता है।
किसी नलिका को फूंकने पर वायु तरंगे उसकी दीवारों से टकराती हैं जिससे स्वर पैदा होता है।
(स्वर+अञ्ज)= स्वर उत्पादक।
भाषा विज्ञानियों का मानना है ग्रीक का सिरिंक्स शब्द मूल रूप से हिब्रू से आया है।
हिब्रू में एक त्र्यक्षर मूलक धातु है s-r-k या s-r-q जिसमें फुसफुसाने, फूंकने का भाव है ।
जो सीधे सीधे पाईप जैसी संरचना से जुड़ता है।
हिब्रू में मेस्रोकिता और स्रीका जैसे वाद्य हैं जो संस्कृत सुषिर वाद्यों की श्रेणी में आते हैं।
और फूंक से बजते हैं।
स्पष्टत: सिरिंक्स में जो पाईप या नलिका का भाव है । वह हिब्रू मूल से आ रहा है।
जल प्रबन्धन प्रणाली के रूप में सिरिंक्स ने ही सेमिटिक परिवार की भाषाओं जैसे सीरियक, अरबी आदि में स्थान बनाया।
ग्रीक भाषा में भी इसकी व्युत्पत्ति- दृष्टव्य है।👇
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ΕΤΥΜΟΛΟΓΙΑ-- etymology
From Greek mythology, as recorded by Ovid.
(Syrinx was a nymph,)
who when pursued by the god Pan,
fled to the river edge.
Calling on help from the river nymphs, she was transformed in a hollow water reed (which were later to become Pan's pipes).
Syringos was therefore the term for a hollow tube and later became used for medical syringes which are also essentially hollow tubes.
The spinal cord abnormality, syringomyelia derives from this same root.
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( Medical Dictionary )
syringe (noun.)
"narrow tube for injecting a stream of liquid," early 15th century (earlier suringa, late 14th century), from Late Latin syringa, from Greek syringa, accusative of syrinx "tube, hole, channel, shepherd's pipe," related to syrizein "to pipe, whistle, hiss," from PIE root *swer- Sanskrit स्वर् (see susurration).
Originally a catheter for irrigating wounds; the application to hypodermic needles is from 1884. Related: Syringeal.
susurration (noun)
"a whispering, a murmur," century 1400, from Latin susurrationem (nominative susurratio), from past participle stem of susurrare "to hum, murmur,"
स्वर करना ,भिनभिनाना।
from susurrus "a murmur, whisper," a reduplication of the PIE (Proto-Indo-europian) imitative *swer- "to buzz, whisper"
(source also of Sanskrit (svarati) "sounds, resounds," Greek (syrinx )"flute," Latin (surdus) "dull, mute," Old Church (Slavonic svirati )"to whistle," (Lithuanian surma) "pipe, shawm," German (schwirren) "to buzz," Old English (swearm) "a swarm").
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अर्थात् ग्रीक पौराणिक कथाओं से सिरिञ्ज का यह सन्दर्भ उद्धृत है ।
जो कि माथॉलिष्ट (पुराण शास्त्री) ओविड द्वारा दर्ज किया गया था।
सिरिंक्स एक अप्सरा थी ;
जिसका भगवान पान द्वारा पीछा किया, वह नदी किनारे से भाग गयी नदी नालों से सहायता के लिए पुकारने से, उसे खोखले पानी के रीड (जो बाद में पान की पाइप बनने के लिए प्रयुक्त हुआ) सिरिञ्ज में बदल दिया गया
इसलिए सिरिञ्ज एक खोखले ट्यूब के लिए रूढ़ शब्द होगय था।
और बाद में मेडिकल सिरिञ्ज के लिए भी उपयोग किया जाता है ;जो कि वास्तव में खोखले ट्यूब हैं ।
रीढ़ की हड्डी की असामान्यता, (syringomyelia) इसी मूल से निकला शब्द है ।
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(चिकित्सा शब्दकोश )
सिरिंज (संज्ञा)
"तरल की एक धारा इंजेक्शन के लिए संकीर्ण ट्यूब," जल्दी 15 वीं सदी (पूर्व स्वरण ,14 सदी), ग्रीक सिरिञ्ज से, लैटिन सिरिञ्ज से, सिरिंक्स "ट्यूब, छेद, चैनल, चरवाहा के पाइप" के अनुक्रियात्मक, "पाईप, सीटी, हील, मूल-भारोपीय रूप से"
(Susurration )। मूल रूप से सिंचाई के लिए एक कैथेटर;।
सशक्तिकरण (संज्ञा)
"एक फुसफुसाते हुए, एक बड़बड़ाहट," सदी 1400 वीं, लैटिन ससुरात्रेम (नामित संसूर्य) से, पिछले कृत्रिम श्वास से "स्वर सोर , बड़बड़ाहट" के सूसुर "एक बड़बड़ाहट, कानाफूसी" से, मूल-भारोपीय रूप अानुकरणिक * स्वेरेयर "बज़, कानाफूसी" (स्रोत से भी) संस्कृत (svarati)स्वरयति "की आवाज़, (resounds," ग्रीक( syrinx) "बांसुरी," लैटिन (surdus )"सुस्त, मूक," पुराने चर्च स्लाविक श्वेरटी "सीटी," लिथुआनियाई (surma) "पाइप, शाम," जर्मन (schwirren) "buzz करने के लिए," पुराने अंग्रेजी swearm "एक झुंड")।
संस्कृत भाषा में सृ--अङ्गच् नि० (सिँध) सन्धो हला० । २ कैवर्त्तिकायाम् राजनि० ।
सुरङ्गा ।
सीँध इति सुरङ्ग इति च भाषा ।
तत्पर्य्यायः ।
सन्धिला २ सन्धिः ३ ।
इति जटाधरः ॥
(यथा महाभारते । १। १४९ । ११।
“ ज्ञात्वा तु तद्गृहं सर्व्वमादीप्तं पाण्डु नन्दनाः।
सुरुङ्गां विविशुस्तूर्णं मात्रा सार्द्ध मरिन्दमाः ॥ “
हिन्दी में सुरंग शब्द का अर्थ भूमिगत मार्ग, खोखला स्थान, नाली, आदि होता है।
सुरंग शब्द का रूढ़ अर्थ भूमिगत मार्ग या मानव निर्मित गुफा-कन्दरा से ही लगाया लगाया जाता रहा है । जबकि पश्चिमी एशिया में सुरंग एक सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक रूप से विकसित जलप्रबंध व्यवस्था का नाम है।
भूमध्यसागरीय देशों में लगभग सभी स्थानों पर यह -व्यवस्था है।
इसका प्रारम्भ सीरिया से माना जाता है; विद्वानों की एेसी मान्यता है ।
भारत के कर्नाटक में ही सुरंगम् नाम की जलप्रबंध व्यवस्था उसी तरह स्थिर है जैसी पश्चिम एशिया में है।
वैसे राजस्थान और मध्यप्रदेश में भी कुछ स्थानों पर यह व्यवस्था है।
सुरंग शब्द भारोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध है ।
और सेमिटिक भाषा परिवार में भी है।
विभिन्न भाषा परिवारों में बोली जाने वाली भाषाओं की प्रकृति में चाहे भिन्नता कितनी भी होती हो परन्तु उनमें शब्द निर्माण की प्रकृति और स्थितियां समान होती हैं।
नहर, कैनाल जैसे शब्दों में यह साफ हो चुका है ।
प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की (swer) धातु जिसका संस्कृत रूप है स्वृ जिससे स्वर शब्द बना है।
स्वृ :--शब्द,उपतापयोः
- स्वरति समो गम्यृछि (1329)
तङ्-संस्वरते सवरतिसूति (7244) इति वेट्-स्वरिता स्वर्ता सनीवन्तर्ध (7249) इति सिस्वरिषति सुस्वूर्षति स्वरः शॄस्वृस्निहि (उ0 111) इत्युः-स्वरुर्वज्रम् स्वारयति चुरादौ स्वर आक्षेपे (10251)
अदन्तः [ स्वरयति ] 901
है। बाद में इसमें नाली, पोला स्थान, भूमिगत मार्ग, खदान या गुहा जैसे भाव उद्भूत हुए।
गुफा, सुरंग आदि में संकीर्ण और समानान्तर भित्तियों के कारण ध्वनि गुञजायमान होती है ।
भाषाविज्ञानी संस्कृत के सुरंग शब्द का विकास ग्रीक भाषा के सिरिंक्स syrinx से भी मानते हैं। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की धातु swer बने सिरिंक्स का अर्थ होता है ट्यूब, नलिका या पाईप जैसी रचना। ग्रीक में ही सिरिंक्स का रूपांतर सिरिंग syringe में हुआ। लैटिन में भी इसका यही रूप रहा जिसने अंग्रेजी में सिरिंज Syringe का रूप लिया जिसका मतलब भी पाईप या नलिका होता है।
आधुनिक चिकित्वा में इंजेक्शन लगाने के उपकरण को सिरिंज कहा जाता है जो एक खोखली, पतली ट्यूब जैसी रचना होती है।
ग्रीक भाषा के सिरिंक्स में मूलतः बांस के पोले पाईप का भाव था जिसे फूंक मारकर बजाया जाता है।
किसी नलिका को फूंकने पर वायु तरंगे उसकी दीवारों से टकराती हैं जिससे ध्वनि पैदा होती है।
महाभारत,पुराण रामायण आदि ग्रन्थ इसी काल में लिखे गये।
प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
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इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि से बता डाली है।👇
असृजत् पह्लवान् पुच्छात्
प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।
योनिदेशाच्च यवनान् शकृत: शबरान् बहून् ।३६।
मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान्
सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७।
यवन, शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ-
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नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
तथा धनों से द्रविड और शकों को।
यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए।
कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की -सृष्टि ।३७।
ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनके विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते ।
अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।
इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।
तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।
महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय ।
यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ
बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है।
कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.
माना जाता है कि वी बोयांग ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली. बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.
300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया. इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।
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प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
इतना ही नहीं हिन्दु शब्द की व्युत्पत्ति भी
रूढ़िवादी लेखकों ने काल्पनिक रूप ये कर दी है ।
वस्तुतः वैदिक शब्द सिंधु से बना है। हिन्दु शब्द संस्कृत मे प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति के पीछे एक धातु है
सिन्ध स्यन्द् है, जिसे शब्द व्युत्पत्ति कहते हैं।
जैसे जैसे सरित(नदी) शब्द की उत्पत्ति हरित शब्द से हुई है।
“हरितो न रह्यॉ”( अथर्ववेद 20.30.4) की व्याख्या मे निघंटु मे स्पष्ट है “सरितों हरितो भवन्ति”॥
वैदिक व्याकरण के संदर्भ में निघंटु का निर्देश (विधान) है कि “स” कई स्थानों पर “ह” ध्वनि में परिवर्तित हो जाता है।
इस प्रकार अन्य स्थानों मे भी “स” को “ह” व “ह” को “स” लिखा गया है। .
सरस्वती को हरस्वती- “तं ममर्तुदुच्छुना हरस्वती” (ऋग. 2।23।6),
क्यों श्री को ह्री- “ह्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ” आदि-आदि॥ इसी प्रकार हिन्दू शब्द वैदिक सिंधु शब्द की उत्पत्ति है क्योंकि सिंधु शब्द से हिंदुओं का सम्बोधन विदेशी आरंभ नहीं है जैसा कि इतिहास मे बताने का प्रयास होता है वरन वैदिक सम्बोधन है।
“नेता सिंधूनाम” (ऋग 7.5.2), “सिन्धोर्गभोसि विद्दुताम् पुष्पम्”(अथर्व 19.44.5) फारसी मे हिन्दू शब्द का अर्थ काफिर चोर कालान्तर में किया गया है, ऐसा नहीं कि हिन्दू फारसी का मूल शब्द इसी भाव में है।
फारसी में “स” के स्थान पर “ह” प्रचलन में आ गया, संभवतः संस्कृत व्याकरण के उपरोक्त नियम ने फारसी में नियमित स्थान बना लिया होगा। भाषाविज्ञान जानने वाले लोग जानते हैं कि “इंडो-यूरोपियन” परिवार की सभी भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से ही मानी जाती है अथवा संस्कृत के किसी पूर्व प्रारूप से!
वास्तव में फारसी में हिन्दू का भ्रष्ट अर्थ घृणा के आधार पर काफी बाद में किया गया जैसे कि यहूदियों के लिए कुरान में कई जगह काफिर, दोज़ख़ी जैसे शब्द प्रयुक्त हुए हैं। फारसी मे हिन्दू शब्द का ऐसा ही अर्थ “गयास-उल-लुगत” शब्दकोश के रचनाकार मौलाना गयासुद्दीन की देन है।
इसी तरह राम और देव जैसे संस्कृत शब्दों का अन्य शब्दकोशों मे एकदम उल्टा अर्थ लिखा है। राम का अर्थ कई स्थानों पर चोर भी किया गया है। क्या हमारे लिए राम के अर्थ बादल जाएंगे?
हिन्दू शब्द मुसलमानों की अपमानपूर्ण देन है कहना नितांत अनभिज्ञता है, यह शब्द मुसलमान धर्म के आने से बहुत पहले से ही सम्मानपूर्ण तरीके से हमारे लिए प्रयोग होता रहा है।
मुसलमानों से काफी समय पूर्व भारत आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तान्त मे भारत के लिए हिंदुस्थान शब्द प्रयोग किया है।
कुछ मध्यकालीन शब्दकोशों जैसे रामकोश, मेदिनीकोश, अद्भुतकोष, शब्दकल्पद्रुम में भी हिन्दू शब्द प्राप्त होता है,- “
हिन्दुहिन्दूश्च हिन्दव:” (मेदिनी कोश)
प्राचीन ग्रन्थ बृहस्पति आगम में हिन्दू शब्द को व्यापक अर्थ में हिमालय व इन्दु सागर (हिन्द महासागर) के परिक्षेत्र से परिभाषित किया गया है- हिमालयात् समारंभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।
तद्देव निर्मितम् देशम् हिंदुस्थानम् प्रचक्षते॥
अर्थात, उत्तर में हिमालय से आरम्भ कर के दक्षिण में इन्दु सागर (हिन्द महासागर) तक का जो क्षेत्र है उस देव निर्मित देश को हिंदुस्थान कहते हैं।
. वास्तव में शब्द हिन्दू धर्म ब्राह्मण धर्म का विशेषण है
ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है - वो भूमि जहाँ देव-संस्कृति के अनुयायी सबसे पहले ई०पू० १२०० के लगभग बसे थे।
भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषा ओं की "स्" ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन "स्") ईरानी भाषाओं की "ह्" ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दु में परिवर्तित हो गया
(अवेस्ता ए झेन्द के वेन्दीदाद,के फ़र्गर्द 1.18)में हफ्तहिन्दव शब्द इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया।
जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया।
चारों वेदों में, पुराणों में, महाभारत में, स्मृतियों में इस धर्म को हिन्दु धर्म नहीं कहा है,
अपितु वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म कहा है।
--जो ब्राह्मण धर्म का पर्याय है।
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प्रस्तुति-करण:-यादव योगेश कुमार "रोहि"
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