शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

{लोकाचरण-खण्ड}- अध्याय -पञ्चम- कृष्ण अस्तित्व के ऐतिहासिक साक्ष्य-•

      

  •{लोकाचरण-खण्ड}-

  अध्याय -पञ्चम- कृष्ण अस्तित्व के ऐतिहासिक साक्ष्य-•




वासुदेव नामांकित शिलालेखों से पता चलता है कि उसका शासनकाल कम से कम 191 से 232 ईस्वी तक था। एक यूट्यूबर जो  पूर्वदुराग्रही और वैदिक साहित्य और भाषा विज्ञान से पूर्णत: अनभिज्ञ या अनजान ही है उसका कहना है कि कृष्ण शब्द सस्कृत का है और संस्कृत का जन्म आठवीं  ईस्वी सदी है।

हम यादव योगेश कुमार रोहि"  साइन्स  जर्नी के कुतर्कों का समाधान कर करते हुए प्रमाण और साक्ष्य प्रस्तुत कर रहे हैं।

हम बतादें- कि 
भारत में कुषाण वंश की स्थापना "कुजुल कडफिसेस" ने की। 
कुजुल कडफिसेस एक कुषाण राजकुंवर था जिसने पहली सदी ईस्वी में "युएझ़ी परिसंघ को संगठित किया और वह पहला कुषाण सम्राट बना।

अफ़ग़ानिस्तान के बग़लान प्रान्त में सुर्ख़ कोतल नामक पुरातन स्थल में पाए गए ।
रबातक शिलालेख के अनुसार कुजुल कडफिसेस प्रसिद्ध कुषाण सम्राट कनिष्क का पर-दादा था। 

कनिष्क का सम्बन्ध कुषाण के चीन की "यू-ची जाति से थे  जो तुषारी लोग कहे जाते थे। तुषारों का वर्णन भारतीय पुराणों में है।

यूची का परिचय:- कुछ इतिहास कार कुषाणों को यूची कबीले का कहते हैं। जिनका मिलान इतिहास कारो ने गूजर "अहीर और जाटों के कुछ कबीलों से किया गया। 

पौराणिक कालगणना के अनुसार भी कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 वर्ष पूर्व हुआ था। 

कई वैज्ञानिकों तथा पुराणों का यही मानना है, जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है। भगवान कृष्ण के जन्म का सटीक अंदाजा शायद ही कोई लगा पाए। इस विषय पर कई मतभेद हैं परंतु सारगर्भित तथ्यों पर ध्यान डालें तो सारे परिणाम अपने स्थान पर सत्य हैं।

भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के संदर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकंड पर हुआ था। 

पुराणों में बताया गया है कि जब श्रीकृष्ण का देहावसान हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ। इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ईसा पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।

 इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। 
अर्नेस्ट मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बालक का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर संकेत करता है।

_______    
इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 3000 ईसा पूर्व हुआ होगा, जो पुराणों की गणना में सटीक बैठता है।

श्रीकृष्ण का रूपवर्णन:-
श्रीकृष्ण की बारंबार वर्णित छवि के अनुसार उनकी अंगकांति श्याम (सांवली)थी। वे नित्य तरुण पीताम्बरधारी और विभिन्न् वनमालाओं से विभूषित थे। 

वे रत्नमय आभूषणों से विभूषित थे। शारंगधनुष धारण किए हुए थे। कौस्तुभ मणि उनके वक्षस्थल की शोभा बढ़ा रही थी। श्रीवत्सभूषित वक्ष में लक्ष्मी का निवास था। शरत्काल की पूर्णिमा के चंद्रमा की प्रभा से वे मनोहर जान पड़ते थे।

इतिहास और पुरातत्त्व में श्रीकृष्ण
सुविख्यात इतिहासकार दामोदर धर्मानन्द कोशाम्बी के अनुसार कृष्ण के बारे में एकमात्र पुरातात्विक प्रमाण है उनका पारम्परिक शस्त्र : चक्र है।

यह शस्त्र वैदिक नहीं है और बुद्ध के पहले ही इसका चलन बंद हो गया था; परंतु मिर्जापुर जिले (दरअसल, बौद्ध दक्षिणागिरि) के एक गुफाचित्र में एक रथारोही को ऐसे चक्र से दैत्यों पर  (जिन्होंने यह चित्र बनाया है) आक्रमण करते दिखाया गया है।

अत: इसका समय होगा लगभग 800 ई पू, जबकि मोटे तौर पर, वाराणसी में पहली बस्ती की नींव पड़ी थी। दूसरी ओर, ऋग्वेद में कृष्ण को इंद्र का शत्रु बताया गया है, 

और उनका नाम श्यामवर्ण देव संस्कृति के अनुयायी  लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वे एक वीर योद्धा थे और यदु कबीले के नर-देवता (प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पांच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है, उनमें से यदु कबीला एक था); परंतु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।
____________    

अंत का इतिहास वास्तव में यादव गणतंत्र के अंत का इतिहास है।
महाभारत का एक पर्व है-भीष्म पर्व। भीष्म पर्व का अध्याय पच्चीस से लेकर अध्याय बयालीस तक वस्तुत: गीता का क्रमश: अध्याय एक से लेकर अध्याय अठारह है। महाभारत में भीष्म पर्व और भीष्म पर्व में रखी हुई है गीता। ऐसा लगता है वेदव्यास गीता रत्न को महाभारत के अंतर्गत बहुत सहेजकर रखना चाहते थे। जैसे संदूक के अंदर छोटा संदूक और छोटे संदूक में रखा गया मूल्यवान रत्न।

_____________________
जैन और बौद्ध साहित्य में कृष्ण
कम ही लोगों को जानकारी होगी कि तीर्थंकर नेमिनाथ श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। संन्यास लेने से पूर्व उनका नाम अरिष्टनेमि था। जैन साहित्य एवं आगमिक कृतियों में कृष्ण को अति विशिष्ट पुरुष के रूप में चित्रित किया गया है।

 'उत्तराध्ययन' के अनुसार कृष्ण का जन्मनाम केशव था। उन्हें 'कण्ह' या कृष्ण संभवत: श्यामवर्णी होने के कारण कहा जाता रहा होगा।

उनके पितामह का नाम अंधकवृष्णि बताया गया है, जिनके पुत्र हुए वसुदेव और उन्हीं के पुत्र वासुदेव कहलाए। 

कृष्ण की नगरी का नाम उत्तराध्ययन में (वारगापुरी) मिलता है, जो नौ योजन पर्यंत थी। नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में रैवतक पर्वत था, जिस पर नंदनवन था। कृष्ण की सभा का नाम सुधर्मा था। दूसरे महत्वपूर्ण जैनागम 'निरयावलिका' में आए वर्णन के अनुसार कृष्ण की इस सभा में तीन तरह की भेरियां थीं : कौमुदी, सामुदायिन और सन्‍नाहिका, जिन्हें विभिन्न अवसरों पर बजाया जाता था। कृष्ण का राज्य वैताढ्य पर्वत से लेकर द्वारावती तक फैला हुआ बताया गया है। 

इसी प्रकार कण्ह जातक नाम से एक बौद्ध ग्रंथ उपलब्ध है। 
उसमें कृष्‍ण कुमार का विवाह महरूपी नामक कन्या से करवाया गया है। यहां कृष्ण कुमार को ओक्काक यानी इक्ष्वाकु वंशी कहा गया है। 
परन्तु यह इक्ष्वाकु यदुवंश के अन्तर्गत एक पूर्वज का नाम है।
घतजातक में कृष्ण की कहानी दूसरे ढंग से कही गई है। कृष्ण चर्चा बौद्ध गाथाओं में भी है, मगर बिलकुल अपनी निजी भंगिमा के साथ।


____________________________________

     "उत्तर- समाधान -

उत्तर-१ 

सबसे पहले तो यह मानना भी युक्ति युक्त नहीं कि कुषाण वंशी वासुदेव ही कृष्ण का रूपान्तरण है। 

हाँ इतना कहा जा सकता है कि सम्भवत: वासुदेव कनिष्क के उत्तराधकारी मध्य एशिया( तुर्की और  चीनी यू-ची कबीले के थे जो चरावाहे थे। कृष्ण का स्वतन्त्र उल्लेख ऋग्वेद से लेकर छान्दोग्य
उपनिषद में भी मिलता है जो  पुराणों और रामायण, महाभारत से प्राचीनतम हैं। 

सिन्धु सभ्यता की मोहन-जादारो की खुदाई में भी कृष्ण चरित्र से सम्बंधित ओखल बन्धन और यमलार्जुन वृक्षों के दृश्य अंकित पत्थर मिले हैं।

मोहनजो-दारो  सिंधी  शब्द है। जिसका अर्थ है 'मृतकों का टीला'  और कभी-कभी इसका अर्थ  'मोहन का टीला' भी होता है। 

 पाकिस्तान के सिंध प्रांत में एक पुरातात्विक स्थल है । लगभग 2500 ईसा पूर्व निर्मित, यह प्राचीन काल की सबसे बड़ी बस्ती थी सिंधु घाटी सभ्यता , और दुनिया के शुरुआती प्रमुख शहरों में से एक, प्राचीन मिस्र , मेसोपोटामिया ,  यूनान की मिनोअन क्रेते और नॉर्टे चिको की सभ्यताओं के समकालीन है । 
कम से कम 40,000 लोगों की अनुमानित आबादी के साथ, मोहनजो-दारो लगभग 1700 ईसा पूर्व तक समृद्ध रहा। 

सिन्धु घाटी की सभ्यता सम्भवतः ईसा पूर्व नवम सदी तक जीवन्त रही होगी ।
कृष्ण, शिव, दुर्गा, जैसे पौराणिक पात्रों की प्रतिमाएँ यहाँ भी मिली हैं।

यह मोहनजो-दारो, लरकाना जिले, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से खोदी गई एक साबुन की गोली है।

विशेष:-

सोपस्टोन (जिसे स्टीटाइट या सोपरॉक के नाम से भी जाना जाता है) एक टैल्क-शिस्ट है, जो एक प्रकार की रूपांतरित चट्टान है। यह मुख्य रूप से मैग्नीशियम से भरपूर खनिज टैल्क से बना है। यह डायनेमोथर्मल मेटामोर्फिज्म और मेटासोमैटिज्म द्वारा निर्मित होता है, जो उन क्षेत्रों में होता है जहां टेक्टोनिक प्लेटें नीचे जाती हैं, गर्मी और दबाव से, तरल पदार्थ के प्रवाह के साथ, लेकिन पिघले बिना चट्टानों को बदलती हैं। यह हजारों वर्षों से नक्काशी का एक माध्यम रहा है


यह भगवान कृष्ण के जीवन की एक महत्वपूर्ण कहानी के साथ अद्भुत समानता दर्शाता है।

टैबलेट में एक युवा लड़के को दो पेड़ों को उखाड़ते हुए दिखाया गया है। इन दोनों पेड़ों से दो मानव आकृतियाँ निकल रही हैं और कुछ पुरातत्वविदों ने इसे भगवान कृष्ण से जुड़ी तारीखें तय करने के लिए एक दिलचस्प पुरातात्विक खोज करार दे रहे हैं।

यह छवि यमलार्जुन प्रकरण- (भागवत और हरिवंश पुराण दोनों में उल्लिखित) से मिलती जुलती है।

 टैबलेट पर मौजूद युवा लड़के के भगवान कृष्ण होने की बहुत संभावना है, और पेड़ों से निकलने वाले दो इंसान दो शापित गंधर्व हैं, जिन्हें नलकूबर और मणिग्रीव के रूप में पहचाना जाता है।

ऊपर: मोहेंजो-दारो, लरकाना जिला, सिंध (अब पाकिस्तान में) के पुरातात्विक स्थल से सोपस्टोन टैबलेट की खुदाई की गई। स्रोत - मैके की रिपोर्ट, भाग 1, पृष्ठ 344-45, भाग 2, प्लेट 90, वस्तु संख्या। डीके 10237.

दिलचस्प बात यह है कि मोहनजो-दारो में खुदाई करने वाले डॉ. ईजेएच मैके ने भी इस छवि की तुलना यमलार्जुन प्रकरण से की है। इस विषय के एक अन्य विशेषज्ञ प्रो. वीएस अग्रवाल ने भी इस पहचान को स्वीकार किया है। इसलिए, यह काफी संभव है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भगवान कृष्ण की कहानियों से अवगत थे। बेशक, इस तरह का एक और पृथक साक्ष्य तथ्यों को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। हालाँकि, सबूतों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में और अधिक अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है।

द्वारका के साथ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों (पूरे उपमहाद्वीप में) की भौगोलिक निकटता को देखते हुए, इस कोण को भी ध्यान में रखते हुए अनुसंधान किया जाना चाहिए। 

जबकि मोहनजो-दारो शब्द का आम तौर पर स्वीकृत अर्थ 'मुर्दों का टीला' है, इसके समानांतर अर्थ - 'मोहन का टीला' की जांच की भी कुछ गुंजाइश है। समानता एक संयोग से भी अधिक हो सकती है!

रुचि रखने वालों के लिए मोहनजो-दारो की पृष्ठभूमि की जानकारी (स्रोत:www.harappa.com)
मोहनजो-दारो की खोज मूल रूप से 1922 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के एक अधिकारी आरडी बनर्जी ने की थी, हड़प्पा में प्रमुख खुदाई शुरू होने के दो साल बाद। 

बाद में, 1930 के दशक के दौरान जॉन मार्शल, केएन दीक्षित, अर्नेस्ट मैके और कई अन्य लोगों के निर्देशन में साइट पर बड़े पैमाने पर खुदाई की गई।
हालाँकि उनके तरीके उतने वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से अच्छे नहीं थे जितने होने चाहिए थे, फिर भी वे बहुत सारी जानकारी लेकर आए जिसका अभी भी विद्वानों द्वारा अध्ययन किया जा रहा है।
इस स्थल पर अंतिम प्रमुख उत्खनन परियोजना 1964-65 में स्वर्गीय डॉ. जीएफ डेल्स द्वारा की गई थी, जिसके बाद मौसम से उजागर संरचनाओं को संरक्षित करने की समस्याओं के कारण खुदाई रोक दी गई थी।
1964-65 के बाद से साइट पर केवल बचाव उत्खनन, सतह सर्वेक्षण और संरक्षण परियोजनाओं की अनुमति दी गई है।

इनमें से अधिकांश बचाव अभियान और संरक्षण परियोजनाएं पाकिस्तानी पुरातत्वविदों और संरक्षकों द्वारा संचालित की गई हैं।
1980 के दशक में व्यापक वास्तुशिल्प दस्तावेज़ीकरण, विस्तृत सतह सर्वेक्षण, सतह स्क्रैपिंग और जांच के साथ मिलकर जर्मन और इतालवी सर्वेक्षण टीमों द्वारा डॉ. माइकल जानसन (आरडब्ल्यूटीएच) और डॉ. मौरिज़ियो तोसी (आईएसएमईओ) के नेतृत्व में किया गया था।

हड़प्पा सभ्यता की तिथि कार्बन डेटिंग पद्धति द्वारा 2500 ई०पूर्व से (1750) ई० पूर्व तक निर्धारित की जती है।



शिलापट पर श्रीकृष्ण जन्म के प्रमाण-

भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा में जन्म लेने को लेकर यूं कोई संदेह नहीं। धर्मग्रंथों में उनकी न जाने कितनी लीलाओं का वर्णन है। इसके पुरातात्विक प्रमाण भी मौजूद हैं, लेकिन आमतौर पर जानकारी में नहीं हैं। सत्तानवे साल पहले गताश्रम टीला से मिली मूर्ति को भगवान कृष्ण के जन्म का पुरातत्व में पहला प्रमाण है। धर्मग्रन्थ

Publish:Sun, 17 Aug 2014 02:37 PM (IST)Updated:Sun, 17 Aug 2014 02:58 PM (IST)




 इस क्रम में पहले  हम तमिलनाडु के ऐतिहासिक नगर महाबलिपुरम् से सम्बन्धित तथ्यों का विश्लेषण करते हैं।

जिसमें प्राप्त शिलाओं पर कृष्ण बांसुरी बजाते हुए अंकित हैं।
यह ऐतिहासिक सन्दर्भ है-


महाबलिपुरम के तट मन्दिर को दक्षिण भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में माना जाता है जिसका सम्बन्ध आठवीं शताब्दी से है। 

महाबलिपुरम् (Mahabalipuram) या कहें  मामल्लपुरम् (Mamallapuram) भारत के तमिलनाडु राज्य के चेंगलपट्टु ज़िले में स्थित एक प्राचीन नगर (शहर) है।

यह मंदिरों का शहर राज्य की राजधानी, चेन्नई, से 55 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी से तटस्थ है।
चैन्नई का पुराना नाम मदुरैई है जिसका शुद्ध रूप मथुरा है।
स्थानीय लोग इसे (तेन मदुरा) कहते हैं, यानि दक्षिणी मथुरा - उत्तर भारत के मथुरा की उपमा में यह नाम है।
क्योंकि यहाँ ऐतिहासिक रूप से पांड्य राजाओं का शासन रहा है, चोळों के साम्राज्य में भी यहाँ पांड्यों की उपस्थिति रही है। 
याद रहे कि तमिळ लिखावट को देखकर यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि इसका नाम और उच्चारण मथुरा था या मतुरा या मदुरा या मधुरा - तमिळ उच्चारण में भी यह अन्तर स्पष्ट नहीं होता।
________
पल्लव राजाओ की विरासत 
महाबलिपुरम प्राचीन शहर अपने भव्य मंदिरों, स्थापत्य और सागर-तटों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। सातवीं शताब्दी में यह शहर पल्लव राजाओं की राजधानी था। 

द्रविड वास्तुकला की दृष्टि से यह शहर अग्रणी स्थान रखता है। यहाँ पर पत्थरो को काट कर मन्दिर बनाया गया। पल्लव वंश के अंतिम शासक अपराजित थे।

यह मंदिर द्रविड वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। यहां तीन मंदिर हैं। बीच में भगवान विष्णु का मंदिर है जिसके दोनों तरफ से शिव मंदिर हैं। मंदिर से टकराती सागर की लहरें एक अनोखा दृश्य उपस्थित करती हैं। 
इसे महाबलीपुरम् का रथ मंदिर भी कहते है। इसका निर्माण "नरसिंह वर्मन्" प्रथम ने कराया था। 

प्रांरभ में इस शहर को "मामल्लपुरम" कहा जाता था।
महाबलिपुरम के लोकप्रिय रथ दक्षिणी सिर पर स्थित हैं।
 महाभारत के पांच पांडवों के नाम पर इन रथों को पांडव रथ कहा जाता है। पांच में से चार रथों को एकल चट्टान पर उकेरा गया है।

 द्रौपदी और अर्जुन रथ वर्ग के आकार का है जबकि भीम रथ रेखीय आकार में है। 
धर्मराज रथ सबसे ऊंचा है।

इसमे दौपदी के पांच रथमंदिर हुए। क्योंकि उसके पांच पति थे। इस लिए उसके पांच रथमंदिर हुए।
________________________________________
कृष्ण मण्डपम्-
यह मंदिर महाबलिपुरम के प्रारंभिक पत्थरों को काटकर बनाए गए मंदिरों में एक है। मंदिर की दीवारों पर ग्रामीण जीवन की झलक देखी जा सकती है। एक चित्र में भगवान कृष्ण को गोवर्धन पर्वत को उंगली पर उठाए तथा बाँसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।


यमुना में कृष्ण और गोपिकाओं का सबसे पहला उल्लेख-

निम्नलिखित पंक्तियों का अनुवाद डॉ. कामिल ज़्वेलेबिल द्वारा किया गया है।

नर हाथी अपनी मादा के खाने के लिए कोमल टहनियों को नष्ट कर देता है, उसकी तुलना "माल" से की जाती है, जो कपड़े पहनने के लिए पेड़ों की शाखाओं (यानी कुरुंतमारम, कन्नन द्वारा काटा गया जंगली चूना) पर चलते हुए रौंदता (चलता, कूदता, मिटिट्टु) बनाता है। पानी से भरी तोलुनाई नदी के दूर-दूर तक फैले रेत वाले चौड़े घाट के [किनारों पर] ग्वालों अंतर- (आयर) समुदाय की युवा महिलाओं (मकलिर) को ठंड  लगती है।

और डॉ. ज़्वेलेबिल के अनुसार, किंवदंती का यह संस्करण किसी भी संस्कृत स्रोत को ज्ञात नहीं है। सबसे पहला संस्कृत स्रोत या तो भागवतपुराण या विष्णुपुराण प्रतीत होता है


 इसलिए ऐसा लगता है कि "मटुरै मरुतानिलनकन" की यह अकाम 59 कविता भारत में कृष्ण की आकृति और यमुना नदी के तट पर अहीरो का उल्लेख करने वाली सबसे पुरानी कविता प्रतीत होती है।


साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  "कृष्ण" शब्द को सातवीं आठवीं सताब्दी का मानता है । जबकि
कृष्ण का सबसे पहला उल्लेख वेद में हैं और ऋग्वेद का समय  ईसा पूर्व नवम सदी से पन्द्रह वीं सदी तक है।
_________________________________
ऋग्वेद की सबसे पुरानी प्रति भोजपत्र पर लिखी हुई है, जिसे पुणे के भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (BORI) में रखा गया।
इनमें से एक पांडुलिपि शारदा स्क्रिप्ट ( लिपि) में लिखी हुई है।

 जबकि बाकी 29  मेनुस्क्रिप्ट (पाण्डुलिपि) देवनागरी लिपि में भी हैं.

इनमें बहुत से ऐसे फीचर हैं, शब्दों के ऐसे उच्चारण हैं, जो फिलहाल आधुनिक प्रतियों में कहीं नहीं दिखते हैं।.
शारदा लिपि का व्यवहार ईसा की दसवीं शताब्दी से उत्तर-पूर्वी पंजाब और कश्मीर में देखने को मिलता है

ब्यूह्लर का मत था कि शारदा लिपि की उत्पत्ति गुप्त लिपि की पश्चिमी शैली से हुई है, और उसके प्राचीनतम लेख (8) वीं शताब्दी से मिलते हैं।

"ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोत-

एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले ऋग्वेद और उसके बाद छान्दोग्योपनिषद में मिलता है।

फिर बहुत बाद में  महाकाव्य महाभारत में कृष्ण के विषय में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। जबकि महाभारत से पूर्व लिखित ग्रन्थ ब्रह्म वैवर्तपुराण में कृष्ण को विष्णु का भी मूल कहा गया है। 

महाभारत के बाद के परिशिष्ट हरिवंशपुराण में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। इसके अतिरिक्त 

भारतीय-यूनानी मुद्रण में भी कृष्ण चरित्र अंकित हैं।-

180  ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। 

भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है।   सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम -( संकर्षण) के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।

प्राचीन संस्कृत व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है।

 पाणिनी की श्लोक- (३/१/२६) पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी उल्लेख करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदन्तियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। 

पाणिनि का समय भी ईसा पूर्व 800 से 400 के मध्य है, विद्वान् पाणिनि का समय भगवान बुद्ध से पूर्व बताते हैं,। पाणिनी पणि ( फोनीशियन ) जाति से सम्बन्धित थे जिन्होंने भाषा और लिपि पर कार्य किया।

दुनिया की प्रथम लिपि फोनेशियन पति लोगो की देन है  जिससे कालांतर में दुनियाभर की अन्य लिपियाँ विकसित हुई ।

___________________

बौद्ध ग्रन्थ पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गये हैं। 

ब्राह्मी लिपि के विषय में नीचे कुछ विश्लेषण है। जिसमें कृष्ण चरित्र को लिखा गया है।

हेलीडियोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख-

मध्य भारतीय राज्य मध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे १२५ और १०० ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया कि यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एण्टिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परम्परा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है कि इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख है, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)।

इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल हैं महाभारत के अध्याय ११/७ का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )

हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो कि राजस्थान राज्य में स्थित हैं।  और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19 वीं  सदी ईसा पूर्व है उनमें भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (बलराम का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक है 

हाथीबाड़ा घोसुण्डी शिलालेख (या, घोसुंडी शिलालेख, या हाथीबाड़ा शिलालेख), राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के पास प्राप्त शिलालेख हैं जिनकी भाषा संस्कृत है और लिपि ब्राह्मी है

__________________

ये ब्राह्मी लिपि में, संस्कृत के प्राचीनतम शिलालेख हैं।  हाथीबाड़ा शिलालेख, नगरी गाँव से प्राप्त हुए थे जो चित्तौड़गढ़ से 8 किलोमीटर उत्तर में है।

घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)

यह लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है। इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं। इसमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।

घोसुण्डी का शिलालेख नगरी चित्तौड़ के निकट घोसुण्डी गांव में प्राप्त हुआ था इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है। घोसुंडी का शिलालेख सर्वप्रथम डॉक्टर डी० आर० भण्डारकर द्वारा पढ़ा गया यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत संप्रदाय से संबंधित सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख है इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस समय तक राजस्थान में भागवत धर्म लोकप्रिय हो चुका था।

इसमें भागवत की पूजा के निमित्त शिला प्राकार बनाए जाने का वर्णन है

इस लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजागृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख है। इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन आदि में है।

________________________

कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है ।


           "ब्राह्मी लिपि का परिचय-


  • ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक (असोक) द्वारा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में बनवाये गये शिलालेखों के रूप में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। नये अनुसंधानों के आधार 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के लेख भी मिले है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी।
  • अशोक ने अपने लेखों की लिपि को 'धम्मलिपि' का नाम दिया है; उसके लेखों में कहीं भी इस लिपि के लिए 'ब्राह्मी' नाम नहीं मिलता। लेकिन बौद्धोंजैनों तथा ब्राह्मण-धर्म के ग्रंथों के अनेक उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इस लिपि का नाम 'ब्राह्मी' लिपि ही रहा होगा।
  • बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' में 64 लिपियों के नाम दिए गए हैं। इनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' है और दूसरा 'खरोष्ठी' है । 
  • जैनों के 'पण्णवणासूत्र' तथा 'समवायांगसूत्र' में 16 लिपियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें से पहला नाम 'बंभी' (ब्राह्मी) का है।
  • 'भगवतीसूत्र' में सर्वप्रथम 'बंभी' (ब्राह्मी) लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का आरंभ किया गया है।
  • 668 ई. में लिखित एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-शु-लिन्' में ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। इसमें लिखा है कि, 'लिखने की कला का शोध दैवी शक्ति वाले तीन आचार्यों ने किया है; उनमें सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा है, जिसकी लिपि बाईं ओर से दाहिनी ओर को पढ़ी जाती है।'
  • इससे यही जान पड़ता है कि ब्राह्मी भारत की सार्वदेशिक लिपि थी और उसका जन्म भारत में ही हुआ किंतु बहुत-से विदेशी पुराविद मानते हैं कि किसी बाहरी वर्णमालात्मक लिपि के आधार पर ही ब्राह्मी वर्णमाला का निर्माण किया गया था।
  • ब्यूह्लर जैसे प्रसिद्ध पुरालिपिविद की मान्यता रही कि ब्राह्मी लिपि का निर्माण फिनीशियन लिपि के आधार पर हुआ। इसके लिए उन्होंने एरण के एक सिक्के का प्रमाण भी दिया था।
  • एरण (सागर ज़िला, म.प्र.) से तांबे के कुछ सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक पर 'धमपालस' शब्द के अक्षर दाईं ओर से बाईं ओर को लिखे हुए मिलते हैं। चूंकि, सेमेटिक लिपियां भी दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थीं, इसलिए ब्यूह्लर ने इस अकेले सिक्के के आधार पर यह कल्पना कर ली कि आरंभ में ब्राह्मी लिपि भी सेमेटिक लिपियों की तरह दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। ओझा जी तथा अन्य अनेक पुरालिपिविदों ने ब्यूह्लर की इस मान्यता का तर्कयुक्त खंडन किया है। उस समय ओझा जी ने लिखा था, 'किसी सिक्के पर लेख का उलटा आ जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सिक्के पर उभरे हुए अक्षर सीधे आने के लिए सिक्के के ठप्पे में अक्षर उलटे खोदने पड़ते हैं, अर्थात् जो लिपियां बाईं ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती हैं उनके ठप्पों में सिक्कों की इबारत की पंक्ति का आरंभ दाहिनी ओर से करके प्रत्येक अक्षर उलटा खोदना पड़ता है, परंतु खोदनेवाला इसमें चूक जाए और ठप्पे पर बाईं ओर से खोदने लग जाए तो सिक्के पर सारा लेख उलटा आ जाता है, जैसा कि एरण के सिक्के पर पाया जाता है।' साथ ही, ओझा जी ने लिखा था, 'अब तक कोई शिलालेख इस देश में ऐसा नहीं मिला है कि जिसमें ब्राह्मी लिपि फ़ारसी की नाईं उलटी लिखी हुई मिली हो।'
  • यह 1918 के पहले की बात है।


_

पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। 

यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। 

पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु उसका उत्पत्ति मिलान वेदों की भाषा से बैठता है।

 उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं।

अकारान्त संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेभिर्, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।

वैदिक भाषा में देवेभिर्- और दैवै: दोनों शब्द प्रचलन में रहे परन्तु पूर्व शब्द देवेभिर् ही है परन्तु लौकिक भाषा संस्कृत में देवै: ही प्रचलित है।

अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उत्पन्न मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।

पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। 

पालि के कच्चानमोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।

"पालि भाषा का उद्भव:-

पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाहरी देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंकाबर्मा तिब्बत आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। 

इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। परन्तु अश्व घोष ने बुद्ध चरित संस्कृत भाषा में लिखा-

 वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने पालि शब्द -दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद(थेरवाद)-बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। मगध आधुनिक समय में विहार का दक्षिणी भाग ही पहले मगध था "अधुना वेहाराख्यदेशस्य दक्षिण- भागः"

वा हार की पालि भाषा के  उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 

मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चोल वंश के परिच्छेद 37 की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है।

____________________________________

"पालि भाषा ब्राह्मी लिपि में है जिस लिपि की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।-

  • यह बाँये से दाँये की तरफ लिखी जाती है।
  • यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
  • कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये 'संयुक्ताक्षर' का प्रयोग (जैसे प्र= प् + र)
  • वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय लिपियों में है।

ब्राह्मी लिपि के अभिलेख-

सम्राट अशोक के ब्राह्मी लिपि में अंकित प्रमुख अभिलेख
  • रुम्मिनदेई - स्तम्भलेख
  • गिरनार - शिलालेख
  • बराबर - गृहालेख
  • मानसेहरा - शिलालेख
  • शाहबाजगद्री - शिलालेख
  • दिल्ली - स्तम्भलेख
  • गुर्जर - लघु-शिलालेख
  • मस्की- शिलालेख
  • कान्धार - द्विभाषी शिलालेख

ब्राह्मी की संतति-

ब्राह्मी लिपि से उद्गम हुई कुछ लिपियाँ और उनकी आकृति एवं ध्वनि में समानताएं स्पष्टतया देखी जा सकती हैं। इनमें से कई लिपियाँ ईसा के समय के आसपास विकसित हुई थीं। इन में से कुछ इस प्रकार हैं-

१-देवनागरी, २-बांग्ला लिपि, ३-उड़िया लिपि, ४-गुजराती लिपि, ५-गुरुमुखी, ६-तमिल लिपि, ७-मलयालम लिपि, ८-सिंहल लिपि, ९-कन्नड़ लिपितेलुगु लिपि, १०तिब्बती लिपि, ११-रंजना, प्रचलित १२-नेपाल, १३-भुंजिमोल, १४-कोरियाली, १५-थाई, १६-बर्मेली, १७-लाओ, १८-ख़मेर, १९-जावानीज़, २०-खुदाबादी लिपि आदि।

___________________________________
 जबकि वेद शब्द भारोपीय होने अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।
परन्तु यह वैदिक शब्द ही है जो संस्कृत में  विद धातु में + ल्युट्( अन.) + टाप्) प्रत्यय जोड़ने से बनता है  जिसका रूप अर्थ- ज्ञान - तथा  सुख-दुःख का अनुभव ( बोध) और विवाह है ।
 
विद -धातु भारोपीय परिवार ही नही अपितु सैमेटिक और हैमेटिक भाषाओं में भी है ।

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: 
१-Vedic language- veda "I know;" 
२-Avestan vaeda "I know;"
३-Greek oida,
४- Doric woida "I know,"
 ५-idein "to see;"

 ६-Old Irish fis "vision," find "white," i.e. "clearly seen," fiuss "knowledge;" 

७-Welsh gwyn,

 ८-Gaulish vindos,

 ९-Breton gwenn "white;"

 १०-Gothic, 

११-Old Swedish, Old English witan "to know;"

 १२-Gothic weitan "to see;" 

१३-English wise, German wissen "to know;"

१४- Lithuanian vysti "to see;" 

१५-Bulgarian vidya "I see;" 

१६-Polish widzieć "to see," wiedzieć "to know;" 

१७-Russian videt' "to see," vest' "news
१८- Old Russian vedat' "to know."

wed (v.)
Old English weddian "to pledge oneself, covenant to do something, vow; betroth, marry,"
 also "unite (two other people) in a marriage, conduct the marriage ceremony," from Proto-Germanic *wadja (source also of Old Norse veðja, Danish vedde "to bet, wager," Old Frisian weddia "to promise," Gothic ga-wadjon "to betroth"), from PIE root *wadh- (1) "to pledge, to redeem a pledge" (source also of Latin vas, genitive vadis "bail, security," 
Lithuanian vaduoti "to redeem a pledge"), which is of uncertain origin.

पुरानी अंग्रेजी विवाह wed- "स्वयं को प्रतिज्ञा करना, कुछ करने की प्रतिज्ञा करना, प्रतिज्ञा करना; सगाई करना, विवाह करना,इसके अलावा "एक विवाह में (दो अन्य लोगों को) एकजुट करें, विवाह समारोह का संचालन करें," प्रोटो-जर्मनिक *वाडजा (पुराने नॉर्स वेजा का भी स्रोत, डेनिश वेड्डे "शर्त लगाना, दांव लगाना," ओल्ड फ़्रिसियाई वेडिया "वादा करना," गोथिक) गा-वाडजॉन "टू बीट्रोथ"), पीआईई रूट से *वाध- (1) "प्रतिज्ञा करना, प्रतिज्ञा चुकाना" (स्रोत)लैटिन का भी वास, जननेटिव वादीस "जमानत, सुरक्षा,"लिथुआनियाई वाडुओटी "प्रतिज्ञा भुनाने के लिए"), जो अनिश्चित मूल का है।
 _______________

The sense has remained closer to "pledge" in other Germanic languages (such as German Wette "a bet, wager"); development to "marry" is unique to English. "Originally 'make a woman one's wife by giving a pledge or earnest money', then used of either party" [Buck]. Passively, of two people, "to be joined as husband and wife," from c. 1200. Related: Wedded; wedding.
__________________________________
वेदाना (वेदना)। अर्थ भारतीय पुराणों में—एक देवी जो जीवित प्राणियों को पीड़ा पहुँचाती थी। अधर्म ने हिंसा से विवाह किया। उनकी नृता और निऋति नाम की दो बेटियाँ पैदा हुईं। उनसे भय, नरक, माया और वेदना का जन्म हुआ। मृत्यु माया की पुत्री थी। दुख वेदना का पुत्रब॒छपनव था। (अग्नि पुराण, अध्याय 20)।
___________________
बौद्ध धर्म में
थेरवाद (बौद्ध धर्म की प्रमुख शाखा)
थेरवाद शब्दावली में वेदना
स्रोत : विज्डम लाइब्रेरी: धम्मसंगनी
वेदना बहुत सामान्य अर्थ वाला शब्द है, जिसका अर्थ है संपर्क या प्रभाव पर शारीरिक या मानसिक, भावना या प्रतिक्रिया। अनुभूति शायद ही भावना के रूप में इतनी वफादार प्रस्तुति है,!

 हालांकि वेदना को अक्सर इंद्रिय-गतिविधि में "संपर्क से पैदा हुआ" के रूप में जाना जाता है, इसे हमेशा आम तौर पर तीन प्रजातियों से मिलकर परिभाषित किया जाता है -

आनंद (ख़ुशी),दर्द (बीमार),और तटस्थ भावना
- एक सुखवादी पहलू जिसके लिए 'भावना' शब्द ही पर्याप्त है। इसके अलावा, यह प्रतिनिधि भावना को समाहित करता है।

वेदना का यह सामान्य मानसिक पहलू, शारीरिक रूप से स्थानीय संवेदनाओं से अलग है - उदाहरण के लिए, दांत दर्द - संभवतः उत्तर में "मानसिक" (सीटासिकम) शब्द द्वारा जोर दिया गया है। साइ. बताते हैं कि इस अभिव्यक्ति (= सीतानिसिटट्टम) से "शारीरिक सुख समाप्त हो जाता है" (असल. 139)।

(ऋग्वेद 1.176.4)
असुन्वन्तं समं जहि दूणाशं यो न ते मयः ।
अस्मभ्यमस्य वेदनं दद्धि सूरिश्चिदोहते ॥४॥

अनुवाद:-
हे इन्द्र ! सोमरस न निचोड़ ने वाले दु: साध्य विनाश वालों और सुख न पहुँचाने वालों का विनाश करो। ऐसे लोगों का धन हमें दो । तुम्हारी स्तुति करने वाला ही धन पाता है ।४। ऋग्वेद-(१/१७६/४)
वेदनं= धनम्।vedanaṃ < vedanam < vedana[noun], accusative, singular, neuter “property; marriage; obtainment.”
= अनुवाद:

 (असुन्वन्तम्)= अभिषवादिनिष्पादनपुरुषार्थरहितम् (समम्)= सर्वम् (जहि)= मारो- हन् धातु लोटलकार । (दूणाशम्)= दुःखेन नाशनीयम् (यः)=जो (न)= निषेधे (ते)= तव (मयः)= सुखम् (अस्मभ्यम्) (अस्य) (वेदनम्)= धनम् (दद्धि) धर । अत्र दध धारण इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति शपो लुक् व्यस्ययेन परत्मैपदञ्च । (सूरिः) =विद्वान् (चित्) इव (ओहते) व्यवहारान् वहति । अत्र वाच्छन्दसीति संप्रसारणं लघूपधगुणः ॥ ४ ।

(असुन्वन्तम्) पदार्थों के सार खींचने आदि पुरुषार्थ से रहित (दूणाशम्) दुःख से विनाशने योग्य (समम्) समस्त को (जहि) मारो (यः) जो (सूरिः) विद्वान्  (चित्) समान (ओहते) व्यवहारों की प्राप्ति करता है (ते) तुम्हारे (मयः) सुख को (न) नही (अस्य) इसके (वेदनम्) धन को (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (दद्धि) याच्ञायाम् निघण्टुः । अयं धातुरित्यन्ये । दे दो ॥ ४ ।

(ऋग्वेद 4.30.13)

उत शुष्णस्य धृष्णुया प्र मृक्षो अभि वेदनम्। पुरो यदस्य सम्पिणक् ॥१३॥

 अनुवाद:-
"तूने वीरता से शूष्ण का धन छीन लिया , जब तुमने उसके नगरों को ध्वस्त कर दिया था।"

अक्सर बौद्धवादी अपने पूर्वदुराग्रह द्वारा कहा करते हैं।

कि पालि भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषा है। जिसे भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात लिपि धम्म लिपि में लिखा जाता था। जिसका प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेख और स्तंभ से प्राप्त होता है।पाली भाषा भारत के जनमानस की भाषा थी।

 कुछ इतिहासकार संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा मानते है पर ये प्रमाणित नहीं है वेदिक भाषा प्राचीन है। क्योंकि पाली भाषा में (ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, ऐ, औ) अक्षर नही है। इन अक्षरों की उत्पत्ति बाद के समय में हुई।

 संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में ऋ से ये आसानी से समझा जा सकता है की पाली भाषा ही भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। 
पालि की प्रवृति साधारण जन के अनुरूप है अत: (ऋ) वर्ण का उच्चारण (र) रूप में ही होता है।

"पालि व्याकरण परंपरा-पालि व्याकरण में पाच व्याकरण परंपरा प्रसिद्ध है –

1.बोधिसत्त

2.सब्बगुणाकार

3.कच्चान

4.मोग्गल्लान

5.सद्दनीति

बोधिसत्त  और  सब्बगुणाकार अधिक प्राचीन व्याकरण है, जो  वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

पालि भाषा में कच्चायन  व्याकरण में अक्खरापादयो एकचत्तालिसं अर्थात  41 वर्ण माने गए है तथा मोग्गल्लान

व्याकरण में तेचत्तालीस-क्खरा वण्णा अर्थात  43 वर्ण माने जाते है। पाली भाषा में मोग्गल्लान व्याकरण

अधिक प्रचलित है। प्रस्ततु  लेख में  मोग्गल्लान व्याकरण का  आधार लिया गया है।

स्वर

पालि भाषा में दसादो सरा अर्थात 10 स्वर है।

अ,आ, इ, ई, उ, ऊ, एँ, ऐ , ओँ, ओ।

    द्वेद्वे सवण्णा  अर्थात दो-दो स्वर सवर्ण कहे गए है। पुब्बो रस्सो  अर्थात पूर्व स्वर र्हस्व माना जाता है और परो

दीघो  अर्थात बाद का स्वर दीर्घ  माना जाता है।

व्यञ्जन

 पालि भाषा में  (33)  व्यञ्जन है।

ङ्
अं

    

पञ्‍च पञ्‍चका वग्गा का तात्पर्य  पाच- पाच वण्ण के  पाच वग्ग  है-जसे कवग्ग, चवग्ग, टवग्ग,तवग्ग,पवग्ग. बिन्दु  निग्गहीतं अर्थात ‘अं’ को निग्गहित (अनुस्वार) कहते है।

जो वर्ण पालि भाषा में नहीं है उसके लिए प्रयुक्त वर्ण

  • लृ ऐ, औ पालि भाषा में नहीं है.
  • रेफ भी पालि भाषा में नहीं है। कभी कभी रेफ का लोप होता है तो कभी  कभी ‘र’ होता है।

जैसे-

कर्म = कम्म

महार्ह = महारहो

  •  के स्थान पर अ, इ ,उ का प्रयोग करते है।

जैसे-

गृहं= गहं

ऋणं= इणं

ऋतु= उतु

  •  के स्थान पर ए, इ, ई का प्रयोग करते है।

जैसे-

ऐरावण = एरावण

ग्रैवेयं = गीवेय्यं

सैन्धव = सिन्धव

  •  के स्थान पर ओ, उ का प्रयोग करते है।

जैसे-

दौवारीक =दोवारीक

मौक्तिक =मुत्तिकं

  • श,ष के स्थान पर  का प्रयोग करते है।

जैसे-

ऋषि =इसि

शाखा=साखा

_____________________________________

तथागत बुद्ध ने अपने उपदेश पाली में ही दिए है। धम्म ग्रंथ त्रिपिटक की भाषा भी पाली ही हैl

संस्कृत में 13 स्वर, पालि भाषा में 10 स्वर, प्राकृत में 10 स्वर, अपभ्रंश में 8 तथा हिन्दी में 11 स्वर होते है।

'पालि' शब्द का निरुक्त:-
पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के नाना मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे पाठ शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। एक जर्मन विद्वान् मैक्स वैलेसर ने पालि को 'पाटलि' का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है।
इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं॰ विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि, पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। पंक्ति को मराठी में पाळी बोलते है और मराठी में और संस्कृत में पालन शब्द भी है जिसका अर्थ है जिसको लोग पाल पोसकर बड़ा करते है या पालन का अर्थ जिसका नियम के अनुसार अवलंब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है,

क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है। 
बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति "पालेति रक्खतीति पालि", इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु "पालि महाव्याकरण" के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त 'परीयाय' (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के 'धम्मपरियाय' शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार 'धम्म पलियाय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बुद्ध-उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।


भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
_____
ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से
_______
संज्ञा एवं क्रिया के रूपों में द्विवचन का अभाव,
पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
हलन्त रूपों का अभाव,
कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं !

जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।

काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा अनेक भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
___________
पाली भाषा का इतिहास-
प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
_________
इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है।
 द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।

देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों( ब्राह्मी) में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। 
पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें (र) वर्ण के स्थान पर (ल ) तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति (ए )सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर (श्) का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर (स् )ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है।

पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों में गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें (र) और (ल) का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर (स् )का प्रयोग है तथा अकारान्त कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अन्त होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है।
पालि शब्द भी पल्लि शब्द से विकसित हुआ - पल्ली का अर्थ गाँव होता है ।
यानि पाली ग्रामीणों की स्वाभाविक भाषा-
 
पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: (श्, ष्, स्) ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रंञ, का प्रयोग (जैसे रंञो ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।

पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किंतु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा संबंधी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है और इसी कारण पालि मूलतः पूर्वदेशीय नहीं, किन्तु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है (द्वितीय स्तर की नही), वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यंजनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
____________________
पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय- आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है।

पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है। उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारांत संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:।
अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई।
 पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।
वैदिक भाषा का वह रूप जिसको संस्कार अथवा सुधार कर नगरीय व्यवस्था के वाग्व्यवहार सञ्चालन हेतु निश्चित किया गया था वही भाषा संस्कृत थी।
जबकि पालि सीधे वैदिक रूपों को स्वाभाविक रूप में ग्रहण करती है जो जन साधारण के अनुरूप थे।
पालि एक नदी के समान प्रवाहित हुई तो संस्कृत नहर के समान - 
यही क्रिया दोनों के भिन्न भिन्न होने का कारण बनी-
जबकि पालि और संस्कृत दौंनो का एक ही श्रोत है वैदिक भाषा!

पालि भाषा का उद्भव-
पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाह्य देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।

‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।

‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का त्रिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। इसके उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। 
मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चूल वंश के परिच्छेद 37की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि।

 निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है। यह बाते हम पूर्व में कह चुके हैं। पालि भाषा की लिपि का विकास वेदों में वर्णित पणियों की लिपि फोनेशियन( प्यूनिक) लिपि से हुआ है।

 


फेनिशिया (1200-500 ईसा पूर्व) पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में आधुनिक लेबनान और सीरिया के तट पर रहने वाले सेमिटिक-भाषी कनानियों की सभ्यता थी। टायर और सिडोन जैसे प्रमुख शहरों से , फोनीशियन व्यापारियों और नाविकों ने भूमध्य सागर की खोज की , व्यापक वाणिज्य में लगे, और पश्चिमी भूमध्य सागर में कार्थेज और अन्य उपनिवेशों की स्थापना की।

इतिहास :-जब इसराइली एक संयुक्त राज्य का गठन कर रहे थे,तब  फोनीशियन (जो खुद को "कैनानी"/कनानी कहते थे) 1200 ईसा पूर्व में सीरिया-फिलिस्तीन के क्षेत्र में बस गए थे। 1100 ईसा पूर्व तक कनानी क्षेत्र सिकुड़ कर पहाड़ों और समुद्र के बीच वर्तमान लेबनान की एक संकीर्ण पट्टी में सिमट गया था, क्योंकि इस्राएलियों और पलिश्तियों ने उनकी भूमि पर विजय प्राप्त कर ली थी। फोनीशियनों ने तट पर छोटे शहर-राज्य ,बाइब्लोस , बेरिटस , सिडोन और टायर बसाए। 
1000 ईसा पूर्व से पहले, बाइब्लोस सबसे महत्वपूर्ण फोनीशियन शहर-राज्य था, जो माउंट लेबनान की ढलानों से देवदार की लकड़ी और पपीरस का वितरण केंद्र था। मिस्र से . राजा हीराम , जो 969 ईसा पूर्व में सत्ता में आए थे, टायर की प्रमुखता में वृद्धि के लिए जिम्मेदार थे, उन्होंने राजा सोलोमन के साथ घनिष्ठ गठबंधन बनाया और यरूशलेम में पहले मंदिर के निर्माण के लिए कुशल फोनीशियन कारीगरों और देवदार की लकड़ी प्रदान की । 800 ईसा पूर्व में टायर ने पास के सिडोन पर कब्ज़ा कर लिया और भूमध्यसागरीय तटीय व्यापार पर हावी हो गया। टायर व्यावहारिक रूप से अभेद्य था, जिसमें एक नहर से जुड़े दो बंदरगाह, एक बड़ा बाज़ार, राजकोष और अभिलेखागार के साथ एक शानदार महल, और देवताओं मेलकार्ट और एस्टार्ट के मंदिर थे । 30,000 निवासियों में से कुछ मुख्य भूमि पर उपनगरों में रहते थे।

900 ईसा पूर्व के बाद टायर ने अपना ध्यान पश्चिम की ओर लगाया और सीरियाई तट से 100 मील दूर तांबे से समृद्ध द्वीप साइप्रस पर उपनिवेश स्थापित किए । 700 ईसा पूर्व तक पश्चिमी भूमध्य सागर में बस्तियों की एक श्रृंखला ने एक " फोनीशियन त्रिभुज " का निर्माण किया, जो पश्चिमी लीबिया से मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीकी तट , स्पेन के दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी तट से बना था, जिसमें जिब्राल्टर जलडमरूमध्य पर गेड्स (आधुनिक कैडिज़) शामिल थे , जो नियंत्रित करते थे । भूमध्य सागर और अटलांटिक महासागर के बीच का मार्ग ; और सार्डिनिया , सिसिली और माल्टा के तट से दूर द्वीप इटली . टायर ने असीरियन( असुर) राजाओं को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।

को श्रद्धांजलि देकर 701 ईसा पूर्व तक अपनी
स्वायत्तता बनाए रखी। उस वर्ष अंततः यह असीरियन सेना के हाथों गिर गया जिसने इसके अधिकांश क्षेत्र और आबादी को छीन लिया, जिससे सिडोन फोनीशिया में अग्रणी शहर बन गया।
________________________________

तूनिशिया से मिली फ़ोनीशियाई में लिखी
(बाल हम्मोन) और तनित नामक देवताओं की प्रार्थना का प्रमाणित दस्तावेज है।

बाल ऋग्वेद में वर्णित बल है जो इन्द्र और बृहस्पति का प्रतिद्वन्

तूनिसीया उत्तरी अफ़्रीक़ा महाद्वीप में एक अरब राष्ट्र है जिसका अरबी भाषा में नाम अल्जम्हूरीयाह अत्तूनिसीयाह (الجمهرية التونسية) या तूनिस है। यह भूमध्यसागर के किनारे स्थित है, इसके पूर्व में लीबिया और पश्चिम मे अल्जीरिया देश हैं। देश की पैंतालीस प्रतिशत ज़मीन सहारा रेगिस्तान में है जबकि बाक़ी तटीय जमीन खेती के लिए इस्तमाल होती है। रोमन इतिहास मे तूनिस का शहर कारथिज एक आवश्यक जगह रखता है और इस प्रान्त को बाद में रोमीय राज्य का एक प्रदेश बना दीया गया जिस का नाम अफ़्रीका यानी गरम प्रान्त रखा गया जो अब पूरे महाद्वीप का नाम है।

तूनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी !

जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे।

 इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं। और फिर अनेक समानान्तर लिपियों का विकास हुआ।

माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ( लिपियाँ) इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। 

 "ब्राह्मी , देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।


इसका विकास लगभग (1050) ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था । 

और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया। परन्तु यूनानी लिपि भी फोनेशियन लिपि से विकसित हुई।

 वर्णमाला की दृष्टि से-फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। 

__________

अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।

पहले हम अलिफ की कुण्डली निकालते हैं

Aleph-First letter of many Semitic abjads

"Alef" redirects here. For other uses, see Aleph (disambiguation) and Alef (disambiguation).

Aleph (or alef or alif, transliterated ʾ) is the first letter of the Semitic abjads, including Phoenician ʾālep 𐤀, Hebrew ʾālef א, Aramaic ʾālap 𐡀, Syriac ʾālap̄ ܐ, Arabic ʾalif ا, and North Arabian 𐪑. It also appears as South Arabian 𐩱 and Ge'ez ʾälef አ.

Quick Facts Bet →, Phoenician ...

These letters are believed to have derived from an Egyptian hieroglyph depicting an ox's head to describe the initial sound of *ʾalp, the West Semitic word for ox (compare Biblical Hebrew אֶלֶף‎ ʾelef, "ox"). 


संस्कृत में अलीक: का अर्थ मस्तक है।

_______

The Phoenician variant gave rise to the Greek alpha (Α), being re-interpreted to express not the glottal consonant but the accompanying vowel, and hence the Latin A and Cyrillic А.

Phonetically, aleph originally represented the onset of a vowel at the glottis. 

In Semitic languages, this functions as a prosthetic weak consonant, allowing roots with only two true consonants to be conjugated in the manner of a standard three consonant Semitic root. In most Hebrew dialects as well as Syriac, the aleph is an absence of a true consonant, a glottal stop ([ʔ]), the sound found in the catch in uh-oh. In Arabic, the alif represents the glottal stop pronunciation when it is the initial letter of a word. In texts with diacritical marks, the pronunciation of an aleph as a consonant is rarely indicated by a special marking, hamza in Arabic and mappiq in Tiberian Hebrew. In later Semitic languages, aleph could sometimes function as a mater lectionis indicating the presence of a vowel elsewhere (usually long). When this practice began is the subject of some controversy, though it had become well established by the late stage of Old Aramaic (ca. 200 BCE). Aleph is often transliterated as U+02BE ʾ , based on the Greek spiritus lenis ʼ; for example, in the transliteration of the letter name itself, ʾāleph.

Origin-The name aleph is derived from the West Semitic word for "ox" (as in the Biblical Hebrew word Eleph (אֶלֶף) 'ox'), and the shape of the letter derives from a Proto-Sinaitic glyph that may have been based on an Egyptian hieroglyph, which depicts an ox's head.

More information Hieroglyph, Proto-Sinaitic ...

In Modern Standard Arabic, the word أليف /ʔaliːf/ literally means 'tamed' or 'familiar', derived from the root ʔ-L-F, from which the verb ألِف /ʔalifa/ means 'to be acquainted with; to be on intimate terms with'. In modern Hebrew, the same root ʔ-L-P (alef-lamed-peh) gives me’ulaf, the passive participle of the verb le’alef, meaning 'trained' (when referring to pets) or 'tamed' (when referring to wild animals).

Ancient Egyptian

Further information: Transliteration of Ancient Egyptian § alef

More information "Aleph" in hieroglyphs ...

The Egyptian "vulture" hieroglyph (Gardiner G1), by convention pronounced [a]) is also referred to as aleph, on grounds that it has traditionally been taken to represent a glottal stop ([ʔ]), although some recent suggestions tend towards an alveolar approximant ([ɹ]) sound instead. Despite the name it does not correspond to an aleph in cognate Semitic words, where the single "reed" hieroglyph is found instead.

The phoneme is commonly transliterated by a symbol composed of two half-rings, in Unicode (as of version 5.1, in the Latin Extended-D range) encoded at U+A722 Ꜣ LATIN CAPITAL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF and U+A723 ꜣ LATIN SMALL LETTER EGYPTOLOGICAL ALEF. A fallback representation is the numeral 3, or the Middle English character ȝ Yogh; neither are to be preferred to the genuine Egyptological characters.

Aramaic-

The Aramaic reflex of the letter is conventionally represented with the Hebrew א in typography for convenience, but the actual graphic form varied significantly over the long history and wide geographic extent of the language. Maraqten identifies three different aleph traditions in East Arabian coins: a lapidary Aramaic form that realizes it as a combination of a V-shape and a straight stroke attached to the apex, much like a Latin K; a cursive Aramaic form he calls the "elaborated X-form", essentially the same tradition as the Hebrew reflex; and an extremely cursive form of two crossed oblique lines, much like a simple Latin X.

More information Cursive Aramaic, Lapidary Aramaic ...

Hebrew

"א" redirects here. For the Biblical manuscript, see Codex Sinaiticus.

Hebrew spelling: אָלֶף ‎

____________

In Modern Israeli Hebrew, the letter either represents a glottal stop ([ʔ]) or indicates a hiatus (the separation of two adjacent vowels into distinct syllables, with no intervening consonant). It is sometimes silent (word-finally always, word-medially sometimes: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first"). The pronunciation varies in different Jewish ethnic divisions.

_____

In gematria, aleph represents the number 1, and when used at the beginning of Hebrew years, it means 1000 (e.g. א'תשנ"ד‎ in numbers would be the Hebrew date 1754, not to be confused with 1754 CE).

Aleph, along with ayin, resh, he and heth, cannot receive a dagesh. (However, there are few very rare examples of the Masoretes adding a dagesh or mappiq to an aleph or resh. The verses of the Hebrew Bible for which an aleph with a mappiq or dagesh appears are Genesis 43:26, Leviticus 23:17, Job 33:21 and Ezra 8:18.)

In Modern Hebrew, the frequency of the usage of alef, out of all the letters, is 4.94%.

Aleph is sometimes used as a mater lectionis to denote a vowel, usually /a/. That use is more common in words of Aramaic and Arabic origin, in foreign names, and some other borrowed words.

More information Orthographic variants, Various Print Fonts ...

Rabbinic Judaism–

Aleph is the subject of a midrash that praises its humility in not demanding to start the Bible. (In Hebrew, the Bible begins with the second letter of the alphabet, bet.) In the story, aleph is rewarded by being allowed to start the Ten Commandments. (In Hebrew, the first word is אָנֹכִי‎, which starts with an aleph.)

In the Sefer Yetzirah, the letter aleph is king over breath, formed air in the universe, temperate in the year, and the chest in the soul.

Aleph is also the first letter of the Hebrew word emet (אֶמֶת‎), which means truth. In Judaism, it was the letter aleph that was carved into the head of the golem that ultimately gave it life.

Aleph also begins the three words that make up God's name in Exodus, I Am who I Am (in Hebrew, Ehyeh Asher Ehyeh אהיה אשר אהיה), and aleph is an important part of mystical amulets and formulas.

Aleph represents the oneness of God. The letter can be seen as being composed of an upper yud, a lower yud, and a vav leaning on a diagonal. The upper yud represents the hidden and ineffable aspects of God while the lower yud represents God's revelation and presence in the world. The vav ("hook") connects the two realms.

Judaism relates aleph to the element of air, and the Scintillating Intelligence (#11) of the path between Kether and Chokmah in the Tree of the Sephiroth [citation needed].

Yiddish–

In Yiddish, aleph is used for several orthographic purposes in native words, usually with different diacritical marks borrowed from Hebrew niqqud:

With no diacritics, aleph is silent; it is written at the beginning of words before vowels spelled with the letter vov or yud. For instance, oykh 'also' is spelled אויך. The digraph וי represents the initial diphthong [oj], but that digraph is not permitted at the beginning of a word in Yiddish orthography, so it is preceded by a silent aleph. Some publications use a silent aleph adjacent to such vowels in the middle of a word as well when necessary to avoid ambiguity.

An aleph with the diacritic pasekh, אַ, represents the vowel [a] in standard Yiddish.

An aleph with the diacritic komets, אָ, represents the vowel [ɔ] in standard Yiddish.

Loanwords from Hebrew or Aramaic in Yiddish are spelled as they are in their language of origin.

Syriac–

More information Alaph ...

In the Syriac alphabet, the first letter is ܐ, Classical Syriac: ܐܵܠܲܦ, alap (in eastern dialects) or olaph (in western dialects). It is used in word-initial position to mark a word beginning with a vowel, but some words beginning with i or u do not need its help, and sometimes, an initial alap/olaph is elided. For example, when the Syriac first-person singular pronoun ܐܸܢܵܐ is in enclitic positions, it is pronounced no/na (again west/east), rather than the full form eno/ana. The letter occurs very regularly at the end of words, where it represents the long final vowels o/a or e. In the middle of the word, the letter represents either a glottal stop between vowels (but West Syriac pronunciation often makes it a palatal approximant), a long i/e (less commonly o/a) or is silent.

South Arabian/Ge'ez

In the Ancient South Arabian alphabet, 𐩱 appears as the seventeenth letter of the South Arabian abjad. The letter is used to render a glottal stop /ʔ/.

In the Ge'ez alphabet, ʾälef አ appears as the thirteenth letter of its abjad. This letter is also used to render a glottal stop /ʔ/.

More information South Arabian, Ge'ez ...

Arabic–

Written as ا or 𐪑, spelled as ألف or 𐪑𐪁𐪐 and transliterated as alif, it is the first letter in Arabic and North Arabian. Together with Hebrew aleph, Greek alpha and Latin A, it is descended from Phoenician ʾāleph, from a reconstructed Proto-Canaanite ʾalp "ox".

Alif is written in one of the following ways depending on its position in the word:

More information Position in word, Isolated ...

More information North Arabian ...

Arabic variants

Alif mahmūza: أ and إ

Main article: Hamza

The Arabic letter was used to render either a long /aː/ or a glottal stop /ʔ/. That led to orthographical confusion and to the introduction of the additional marking hamzat qaṭ‘ ﺀ to fix the problem. Hamza is not considered a full letter in Arabic orthography: in most cases, it appears on a carrier, either a wāw (ؤ), a dotless yā’ (ئ), or an alif.

More information Position in word, Isolated ...

The choice of carrier depends on complicated orthographic rules. Alif إ أ is generally the carrier if the only adjacent vowel is fatḥah. It is the only possible carrier if hamza is the first phoneme of a word. Where alif acts as a carrier for hamza, hamza is added above the alif, or, for initial alif-kasrah, below it and indicates that the letter so modified is indeed a glottal stop, not a long vowel.

A second type of hamza, hamzat waṣl (همزة وصل) whose diacritic is normally omitted outside of sacred texts, occurs only as the initial letter of the definite article and in some related cases. It differs from hamzat qaṭ‘ in that it is elided after a preceding vowel. Alif is always the carrier.

More information Position in word, Isolated ...

Alif mamdūda: آ

The alif maddah is a double alif, expressing both a glottal stop and a long vowel. Essentially, it is the same as a أا sequence: آ (final ـآ) ’ā /ʔaː/, for example in آخر ākhir /ʔaːxir/ 'last'.

More information Position in word, Isolated ...

"It has become standard for a hamza followed by a long ā to be written as two alifs, one vertical and one horizontal." (the "horizontal" alif being the maddah sign).

Alif maqṣūrah: ى

The ى ('limited/restricted alif', alif maqṣūrah), commonly known in Egypt as alif layyinah (ألف لينة, 'flexible alif'), may appear only at the end of a word. Although it looks different from a regular alif, it represents the same sound /aː/, often realized as a short vowel. When it is written, alif maqṣūrah is indistinguishable from final Persian ye or Arabic yā’ as it is written in Egypt, Sudan and sometimes elsewhere.

The letter is transliterated as y in Kazakh, representing the vowel /ə/. Alif maqsurah is transliterated as á in ALA-LC, ā in DIN 31635, à in ISO 233-2, and ỳ in ISO 233.

In Arabic, alif maqsurah ى is not used initially or medially, and it is not joinable initially or medially in any font. However, the letter is used initially and medially in the Uyghur Arabic alphabet and the Arabic-based Kyrgyz alphabet, representing the vowel /ɯ/: (ىـ ـىـ‎).

More information Position in word, Isolated ...

Numeral As a numeral, alif stands for the number one. It may be modified as follows to represent other numbers.[citation needed]

More information Modification to alif, Number represented ...

Other uses

Mathematics

In set theory, the Hebrew aleph glyph is used as the symbol to denote the aleph numbers, which represent the cardinality of infinite sets. This notation was introduced by mathematician Georg Cantor. In older mathematics books, the letter aleph is often printed upside down by accident, partly because a Monotype matrix for aleph was mistakenly constructed the wrong way up.

Aleph

कई सेमेटिक( अबजदों  वर्णमालाओं)का पहला अक्षर-

एलेफ़ (या एलेफ़ या अलिफ़, लिप्यंतरित ʾ) सेमेटिक अबजादों का पहला अक्षर है, जिसमें 

1-फ़ोनीशियन ʾalep 𐤀, 

2-हिब्रू ʾalef א, 

3-अरामी ʾalap 𐡀, 

4-सिरिएक ʾalap̄ ̄, 

5-अरबी ʾalif ا, और 

6-उत्तरी अरब 𐪑 शामिल हैं। 

यह साउथ अरेबियन 𐩱 और गीज़ ʾälef አ के रूप में भी दिखाई देता है।

त्वरित तथ्य शर्त →, फोनीशियन ...

ऐसा माना जाता है कि ये अक्षर मिस्र के एक चित्रलिपि से लिए गए हैं, जिसमें एक बैल के सिर को दर्शाया गया है, जो बैल के लिए पश्चिमी सेमिटिक शब्द *ʾalp की प्रारंभिक ध्वनि का वर्णन करता है (बाइबिल के हिब्रू אֶלֶף‎ ʾelef, "बैल" की तुलना करें)।


_______

फोनीशियन संस्करण ने ग्रीक अल्फा (Α) को जन्म दिया, जिसे ग्लोटल व्यंजन नहीं बल्कि साथ वाले स्वर को व्यक्त करने के लिए दोबारा व्याख्या की गई, और इसलिए लैटिन ए और सिरिलिक ए।

ध्वन्यात्मक रूप से, एलेफ़ मूल रूप से ग्लोटिस पर एक स्वर की शुरुआत का प्रतिनिधित्व करता था।

सेमिटिक भाषाओं में, यह एक कृत्रिम कमजोर व्यंजन के रूप में कार्य करता है, जिससे केवल दो सच्चे व्यंजन वाली जड़ों को मानक तीन व्यंजन सेमिटिक रूट (धातु)के तरीके से संयुग्मित किया जा सकता है। अधिकांश हिब्रू बोलियों के साथ-साथ सिरिएक में, एलेफ एक सच्चे व्यंजन, एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) की अनुपस्थिति है, जो ध्वनि उह-ओह में पकड़ में पाई जाती है।

अरबी में, अलिफ़ ग्लोटल स्टॉप उच्चारण का प्रतिनिधित्व करता है जब यह किसी शब्द का प्रारंभिक अक्षर होता है। 

विशेषक चिह्नों वाले ग्रंथों में, व्यंजन के रूप में एलेफ़ का उच्चारण शायद ही कभी एक विशेष चिह्न द्वारा दर्शाया जाता है, अरबी में हम्ज़ा और तिबेरियन हिब्रू में मप्पिक। बाद की सेमेटिक भाषाओं में, एलेफ़ कभी-कभी मेटर लेक्शनिस के रूप में कार्य कर सकता है जो कहीं और स्वर की उपस्थिति (आमतौर पर लंबा) का संकेत देता है।

 यह प्रथा कब शुरू हुई यह कुछ विवाद का विषय है, हालाँकि यह पुराने अरामाइक के अंतिम चरण (लगभग 200 ईसा पूर्व) तक अच्छी तरह से स्थापित हो गई थी। 

एलेफ़ को अक्सर ग्रीक स्पिरिटस लेनिस ʼ के आधार पर U+02BE ʾ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है; उदाहरण के लिए, अक्षर नाम के लिप्यंतरण में ही, āleph.

मूल

एलेफ नाम पश्चिमी सेमिटिक शब्द "बैल" से लिया गया है (जैसा कि बाइबिल के हिब्रू शब्द एलीफ (אֶלֶף) 'बैल') में है, और अक्षर का आकार एक प्रोटो-सिनाईटिक ग्लिफ़ से लिया गया है जो शायद एक पर आधारित हो सकता है मिस्र का चित्रलिपि, जो एक बैल के सिर को दर्शाता है।

आधुनिक मानक अरबी में, शब्द أليف /ʔaliːf/ का शाब्दिक अर्थ है 'पालित' या 'परिचित', है।

जो मूल ʔ-L-F से लिया गया है, जिससे क्रिया ألِف /ʔalifa/ का अर्थ है 'परिचित होना; 'के साथ घनिष्ठ संबंध रखना।प्रेमी-आदि 

 आधुनिक हिब्रू में, वही मूल ʔ-L-P (एलेफ़-लैमेड-पेह) मी'उलाफ़ देता है, जो क्रिया ले 'एलेफ़ का निष्क्रिय कृदन्त है, जिसका अर्थ है 'प्रशिक्षित' (पालतू जानवरों का संदर्भ देते समय) या 'पालतू' (जब सन्दर्भित किया जाता है) जंगली जानवर)।

पौराणिक मिश्र:-

अधिक जानकारी: प्राचीन मिस्र का लिप्यंतरण § एलेफ़

इब्रानी:-

सुविधा के लिए टाइपोग्राफी में अक्षर के अरामी रिफ्लेक्स को पारंपरिक रूप से हिब्रू א के साथ दर्शाया जाता है, लेकिन वास्तविक ग्राफिक रूप भाषा के लंबे इतिहास और व्यापक भौगोलिक विस्तार के कारण काफी भिन्न होता है। 

मराकटेन पूर्वी अरब के सिक्कों में तीन अलग-अलग एलेफ़ परंपराओं की पहचान करता है: एक लैपिडरी अरामी रूप जो इसे वी-आकार के संयोजन और शीर्ष से जुड़े एक सीधे स्ट्रोक के रूप में महसूस करता है, लैटिन के की तरह; एक घसीट अरामी रूप को वह "विस्तृत एक्स-फॉर्म" कहते हैं, मूलतः वही परंपरा हिब्रू प्रतिवर्त के रूप में; और दो पार की गई तिरछी रेखाओं का एक अत्यंत घसीट रूप, एक साधारण लैटिन एक्स की तरह।


यहूदी

"א" यहां पुनर्निर्देश करता है। बाइबिल पांडुलिपि के लिए, कोडेक्स साइनेटिकस देखें।

हिब्रू वर्तनी: אָלֶף ‎

आधुनिक इज़राइली हिब्रू में, अक्षर या तो एक ग्लोटल स्टॉप ([ʔ]) का प्रतिनिधित्व करता है या एक अंतराल को इंगित करता है (दो आसन्न स्वरों को अलग-अलग अक्षरों में अलग करना, बिना किसी हस्तक्षेप वाले व्यंजन के)।

यह कभी-कभी मौन होता है (शब्द-अंततः हमेशा, शब्द-मध्यवर्ती रूप से कभी-कभी: הוּא‎ [hu] "he", רָאשִׁי‎ [ʁaˈʃi] "main", רֹאשׁ‎ [ʁoʃ] "head", רִאשׁוֹן‎ [ʁiˈʃon] "first " ). विभिन्न यहूदी जातीय प्रभागों में उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है।

जेमट्रिया में, एलेफ संख्या 1 का प्रतिनिधित्व करता है, और जब हिब्रू वर्षों की शुरुआत में उपयोग किया जाता है, तो इसका मतलब 1000 होता है (उदाहरण के लिए א'תשנ"ד‎ संख्या में हिब्रू तारीख 1754 होगी, 1754 सीई के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए)।

अलेफ, अयिन, रेश, हे और हेथ के साथ, दागेश प्राप्त नहीं कर सकता। (हालाँकि, मासोरेट्स द्वारा अलेफ या रेश में दागेश या मप्पिक जोड़ने के कुछ बहुत ही दुर्लभ उदाहरण हैं। 

हिब्रू बाइबिल के छंद जिनके लिए मप्पिक या दागेश के साथ अलेफ दिखाई देता है, उत्पत्ति 43:26, लेविटस 23:17 हैं, अय्यूब 33:21 और एज्रा 8:18.)

आधुनिक हिब्रू में, सभी अक्षरों में से, एलेफ़ के उपयोग की आवृत्ति 4.94% है।

एलेफ का उपयोग कभी-कभी स्वर को दर्शाने के लिए मेटर लेक्शनिस के रूप में किया जाता है, आमतौर पर /ए/। यह प्रयोग अरामी और अरबी मूल के शब्दों, विदेशी नामों और कुछ अन्य उधार लिए गए शब्दों में अधिक आम है।

रब्बीनिक यहूदी धर्म:-

एलेफ एक मिड्रैश का विषय है जो बाइबिल शुरू करने की मांग न करने की अपनी विनम्रता की प्रशंसा करता है। (हिब्रू में, बाइबल वर्णमाला के दूसरे अक्षर से शुरू होती है।कहानी में, एलेफ़ को दस आज्ञाएँ शुरू करने की अनुमति देकर पुरस्कृत किया जाता है। (हिब्रू में, पहला शब्द אָנֹכִי‎ है, जो एलेफ से शुरू होता है।)

सेफ़र यत्ज़िराह में, अक्षर एलेफ़ सांस पर राजा है, ब्रह्मांड में वायु का निर्माण होता है, वर्ष में शीतोष्ण होता है, और आत्मा में छाती होती है।

एलेफ़ हिब्रू शब्द एमेट (אֶמֶת‎) का पहला अक्षर भी है, जिसका अर्थ सत्य है। यहूदी धर्म में, यह अक्षर एलेफ़ था जिसे गोलेम के सिर में उकेरा गया था जिसने अंततः इसे जीवन दिया।

एलेफ उन तीन शब्दों की भी शुरुआत करता है जो निर्गमन में भगवान का नाम बनाते हैं, मैं वही हूं जो मैं हूं (हिब्रू में, एहयेह आशेर एहयेह אהיה אשר אהיה), और एलेफ रहस्यमय ताबीज और सूत्रों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

___                  

अलेफ ईश्वर की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। पत्र को एक ऊपरी युद, एक निचले युद और एक विकर्ण पर झुके हुए वाव से बना देखा जा सकता है। 

ऊपरी युद ईश्वर के छिपे और अवर्णनीय पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है जबकि निचला युद दुनिया में ईश्वर के रहस्योद्घाटन और उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करता है। वाव ("हुक") दो क्षेत्रों को जोड़ता है।

यहूदी धर्म एलेफ को हवा के तत्व से जोड़ता है, और सेफिरोथ के पेड़ में केथर और चोकमा के बीच के पथ की स्किंटिलेटिंग इंटेलिजेंस (#11) [उद्धरण वांछित]।

यहूदी

यिडिश में, एलेफ़ का उपयोग मूल शब्दों में कई वर्तनी संबंधी उद्देश्यों के लिए किया जाता है, आमतौर पर हिब्रू निक्कुड से उधार लिए गए विभिन्न विशेषक चिह्नों के साथ:

बिना किसी विशेषक चिह्न के, एलेफ़ चुप है; यह शब्दों की शुरुआत में वोव या युड अक्षर से लिखे गए स्वरों से पहले लिखा जाता है। उदाहरण के लिए, oykh 'भी' को אויך लिखा जाता है। डिग्राफ וי प्रारंभिक डिप्थॉन्ग [ओजे] का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन यिडिश ऑर्थोग्राफी में किसी शब्द की शुरुआत में उस डिग्राफ की अनुमति नहीं है, इसलिए यह एक साइलेंट एलेफ से पहले होता है। कुछ प्रकाशन अस्पष्टता से बचने के लिए आवश्यक होने पर शब्द के बीच में ऐसे स्वरों से सटे एक साइलेंट एलेफ़ का भी उपयोग करते हैं।

विशेषक पसेख,( אַ )के साथ एक एलेफ, मानक यिडिश में स्वर [ए] का प्रतिनिधित्व करता है।

विशेषक कोमेट्स, אָ के साथ एक एलेफ़, मानक यिडिश में स्वर [ɔ] का प्रतिनिधित्व करता है।

यिडिश में हिब्रू या अरामी भाषा के ऋणशब्दों की वर्तनी वैसे ही की जाती है जैसे वे उनकी मूल भाषा में हैं।

______

सिरिएक

अधिक जानकारी अलफ़...

सिरिएक वर्णमाला में, पहला अक्षर Ԑ है, शास्त्रीय सिरिएक: ԐֵԵԠֲ֦, अलाप (पूर्वी बोलियों में) या ओलाफ़ (पश्चिमी बोलियों में)। इसका उपयोग स्वर से शुरू होने वाले शब्द को चिह्नित करने के लिए शब्द-प्रारंभिक स्थिति में किया जाता है, लेकिन i या u से शुरू होने वाले कुछ शब्दों को इसकी सहायता की आवश्यकता नहीं होती है, और कभी-कभी, प्रारंभिक अलाप/ओलाफ हटा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, जब सिरिएक प्रथम-व्यक्ति एकवचन सर्वनाम ԐԸԢԵԐ enclitic स्थिति में होता है, तो इसका उच्चारण पूर्ण रूप eno/ana के बजाय no/na (फिर से पश्चिम/पूर्व) किया जाता है। यह अक्षर शब्दों के अंत में बहुत नियमित रूप से आता है, जहां यह लंबे अंतिम स्वरों ओ/ए या ई का प्रतिनिधित्व करता है। शब्द के मध्य में, अक्षर या तो स्वरों के बीच एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है (लेकिन पश्चिम सिरिएक उच्चारण अक्सर इसे एक तालव्य सन्निकटन बनाता है), एक लंबा आई/ई (कम सामान्यतः ओ/ए) या मौन होता है।

साउथ अरेबियन/गीज़

प्राचीन दक्षिण अरब वर्णमाला में, 𐩱 दक्षिण अरब अबजद के सत्रहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए किया जाता है।

गीज़ वर्णमाला में, ʾälef አ इसके अबजद के तेरहवें अक्षर के रूप में प्रकट होता है। इस अक्षर का उपयोग ग्लोटल स्टॉप /ʔ/ प्रस्तुत करने के लिए भी किया जाता है।

अधिक जानकारी साउथ अरेबियन, गीज़...

अरबी

ا या 𐪑 के रूप में लिखा जाता है, ألف या 𐪑𐪁𐪐 के रूप में लिखा जाता है और अलिफ़ के रूप में लिप्यंतरित किया जाता है, यह अरबी और उत्तरी अरब में पहला अक्षर है। हिब्रू एलेफ़, ग्रीक अल्फ़ा और लैटिन ए के साथ, यह फ़ोनीशियन सेलेफ़ का वंशज है, एक पुनर्निर्मित प्रोटो-कैनानाइट एल्प "बैल" से।

अलिफ़ को शब्द में उसकी स्थिति के आधार पर निम्नलिखित में से किसी एक तरीके से लिखा जाता है:

यद्यपि यूरोपीय भाषाओं में "Axe" ( तलवार या कुलाड़ी) के लिए वैदिक तथा संस्कृत में असि: शब्द है।

असिः, पुंल्लिंग-(असतीति । अस दीप्तौ इनि ।) अस्त्र- भेदः । खा~डा तरवाल इत्यादि भाषा । तत्प- र्य्यायः । खड्गः २ निस्त्रिंशः ३ चन्द्रहासः ४ रिष्टिः ५ कौक्षेयकः ६ मण्डलाग्रः ७ करपालः ८ कृपाणः ९ इत्यमरः ॥ प्रबालकः १० भद्रात्मजः ११ रिष्टः १२ ऋष्टिः १३ धाराविषः १४ कौक्षेयः १५ तरवारिः १६ तरवाजः १७ कृपाणकः १८ करवालः १९ कृपाणी २० शस्त्रः २१ । इति शब्दरत्नावली ॥ विषसनः २२ । इति त्रिकांण्ड- शेषः ॥ (“पर्णशालामथ क्षिप्रं विकृष्टासिः प्रविश्य सः । वैरूप्यपौनरुक्तेन भीषणां तामयोजयत्” ॥ इति रघवंशे १२ । ४० ॥ “स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा । वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्म्मायुधैः स्थले ॥” इति मनौ ७ । १९२ ॥) तस्य स्तुतिर्यथा । “असिर्व्विषसनः खड्गस्तीक्ष्णधारो दुरासदः । श्रीगर्भो विजयश्चैव धर्म्मपालो नमोऽस्तु ते ॥ इत्यष्टौ तव नामानि स्वयमुक्तानि वेधसा । नक्षत्रं कृत्तिका ते तु गुरुर्देवो महेश्वरः ॥ हिरण्यञ्च शरीरन्ते धाता देवो जनार्द्दनः । पिता पितामहो देवस्त्वं मां पालय सर्व्वदा ॥ नीलजीमूतसङ्काशस्तीक्ष्णदंष्ट्रः कृशोदरः । भावशुद्धोऽमर्षणश्च अतितेजास्तथैव च ॥ इयं येन धृता क्षौणी हतश्च महिषासुरः । तीक्ष्णधाराय शुद्धाय तस्मै खड्गाय ते नमः” ॥ इति वृहन्नन्दिकेश्वरपुराणीयदुर्गोत्सवपद्धतिधृत- वाराहीतन्त्रं ॥

मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व आ तिष्ठिपत्ते ।
मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राणि असिना मिथू कः ॥२०॥( ऋग्वेद  १/१६२/२०)

अक्रीळन्क्रीळन्हरिरत्तवेऽदन्वि पर्वशश्चकर्त गामिव -असिः ॥६॥( ऋग्वेदः सूक्तं १०/७९/६)



माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का प्रथम आधार माना जाता है।

  • पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम- (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पद- (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात-(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।

अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं । व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में किया है।

जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।

तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।

  • विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ यद्यपि संस्कृत की शब्दावली वैदिक भाषा की ही थी। ।
  • तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी । यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। ये ही भाषाऐं गाँव( पल्लि) से सम्बन्धित होने से पालि और साधारण जन प्रकृति से सम्बन्धित होने से प्राकृत कह लायी गयीं।

_____________________________________

व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए पाणिनी ने सूत्र शैली की सहायता ली है।

  • पुनः विवेचन को अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का निर्माण करके प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति-----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है। जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।

रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇

  • नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान्एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ॥

अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) रूप में प्रकट हुया। " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।

  • इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।
  • वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है ।
  • उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।

उमा शब्द की व्युत्पत्ति -

  • (उ- भो मा तपस्यां कुरुवति -अरे तपस्या मत करो- यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । जब उमा की माता ने तपस्या का निषेध ( मनाही) की तब इसके बाद इस सुमुॉखी का नाम उमा हुआ।

इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)।

  • यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः । अजादित्वात् टाप् ।
  • अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
  • दुर्गा का विशेषण ।

परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है जिसमें संशोधन और भी अपेक्षित है।

  • यादव योगेश कुमार रोहि ने इसका विश्लेषण किया है।

  • यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश कभी नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी माहेश्वर सूत्र में सम्मिलित न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं मौलिक नहीं।
  • इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण प्रस्तुत है

________________________________________

पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ;जो निम्नलिखित हैं: 👇__________________________________________

  • १. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से संयोजित किया गया है।

  • फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों या प्रत्याहारों (एक से अधिक वर्णों) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
  • माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
  • प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण में उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
  • इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
  • प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।
  • संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
  • अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
  • प्रत्याहार की अवधारणा :---प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।

अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

  • उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
  • यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
  • अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
  • इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
  • फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
  • उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
  • (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है।
  • इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
  • अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

________________________________

  • (अ"इ"उ ऋ"लृ मूल स्वर ।
  • (ए ,ओ ,ऐ,औ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
  • जैसे क्रमश: अ+ इ = ए तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
  • अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
  • । अ" इ" उ" । और ये परवर्ती (इ) तथा (उ) स्वर भी केवल
  • (अ) स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ ।
  • तथा अनुदात्त-(निम्न गामी) इ । के रूप में हैं ।
  • ___________
  • ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
  • जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
  • अब (ह)वर्ण महाप्राण है ।
  • जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।👉👆👇
  • मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
  • परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
  • पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप
  • इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
  • क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
  • _________________________
  • और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
  • कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
  • तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ )
  • ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ )
  • अनुस्वार तथा विसर्ग अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
  • पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।

स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।

अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇

_________________________________________

1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।

2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

क. नासा ग्रसनी (nasopharynx), ख. ग्रसनी (pharynx),

ग. मुख (mouth),

घ. स्वरयंत्र (larynx),

च. श्वासनली और श्वसनी

(trachea and bronchus)

छ. फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),

ज. वक्षगुहा (thoracic cavity)।

3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

क. जिह्वा (tongue),

ख. दाँत (teeth),

ग. ओठ (lips),

घ. कोमल तालु (soft palate),

च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)।

__________________________________________

स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :

जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।

इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वरयंत्र---

अवटु (thyroid) उपास्थि

वलथ (Cricoid) उपास्थि

स्वर रज्जुऐं

ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।

यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।

देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।

इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।

इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)----

श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।

श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।

बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।

जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है।

__________________________________________

स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।

स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।

इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है

और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।

_________________________________________

स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --

उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।

यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।

ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।

स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇

________________________________________

1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।

2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।

3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।

  1. अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
  2. _________________________________________
  3. नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
  4. जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है ।
  5. "अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
  6. अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
  7. अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
  8. अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
  9. अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
  10. य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
  11. क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण
  12. क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
  13. जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए
  14. उ+अ = व अ+उ= ओ ______________________________________
  15. ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
  16. स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
  17. ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
  18. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
  19. शषसर्।
  20. उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
  21. जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
  22. यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
  23. टवर्ग के साथ मूर्धन्य (ष) उष्म वर्ण है ।
  24. तथा तवर्ग के साथ दन्त्य (स) उष्म वर्ण है ।
  25. ___________________________________👇💭
  26. यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है।
  • अतः त थ द ध तथा स वर्णो को यूरोपीय अंग्रेजी आदि भाषाओं में नहीं लिख सकते हैं ।
  • क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के (S )वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।

_________________________________________

  • १४. हल्।
  • तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
  • इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं ।
  • मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं ।
  • जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं ।

_________________________________________

1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)

2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)

3. दन्त्य (dental)

4. वर्त्स्य (alveolar)

5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)

6. प्रतालव्य( prä-palatal )

7. तालव्य (palatal)

8. मृदुतालव्य (velar)

9. अलिजिह्वीय (uvular)

10.ग्रसनी से (pharyngal)

11.श्वासद्वारीय (glottal)

12.उपजिह्वीय (epiglottal)

13.जिह्वामूलीय (Radical)

14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)

15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)

16.जिह्वापाग्रीय (laminal)

17.जिह्वाग्रीय (apical)

18.उप जिह्विय( sub-laminal)

_________________________________________

स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।

उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।

मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि हैं।

व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:-

(तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।

  1. इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है। तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
  2. हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण----
  3. व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
  4. व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
  5. इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
  6. उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇
  7. द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म
  8. दन्त्योष्ठ्य :-, फ़
  9. दन्त्य :-,त, थ, द, ध
  10. वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ
  11. मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष
  12. कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ
  13. कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़
  14. पश्च-कोमल-तालव्य:- क़ वर्ण है।
  15. स्वरयन्त्रामुखी:-. ह वर्ण है ।
  16. "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का
  17. जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
  18. "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
  19. काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि ।
  20. उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
  21. उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
  22. स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
  23. विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
  24. क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
  25. च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
  26. इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
  27. मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
  28. हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
  29. और अनुनासिक भी --
  30. इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
  31. वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
  32. परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में अाकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
  33. जैसे :-
  34. कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  35. अङ्क , सङ्ख्या अङ्ग , लङ्घ।
  36. चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  37. चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
  38. टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  39. कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
  40. तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  41. तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
  42. पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
  43. पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।
  • ________________________________________
  • इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
  • उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
  • वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
  • तवर्ग - (त थ द ध न) का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
  • और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
  • जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
  • इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
  • जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
  • चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
  • जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
  • इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
  • उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
  • ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
  • _____________________________________
  • पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
  • 'ल' ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है।
  • अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
  • हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
  • लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
  • उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
  • ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
  • जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
  • घोष और अघोष वर्ण---
  • व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
  • इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
  • विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
  • जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
  • दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
  • स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।
  • _________________________________________
  • घोष अघोष
  • ग, घ, ङ,क, ख
  • ज,झ, ञ,च, छ
  • ड, द, ण, ड़, ढ़,ट, ठ
  • द, ध, न,त, थ
  • ब, भ, म, प, फ
  • य, र, ल, व, ह ,श, ष, स ।
  • प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
  • प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
  • जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
  • पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
  • हिन्दी के ;- ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
  • वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
  • क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।

वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है

परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।

(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)

_______________________________________

भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।

किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।

शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।

उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।

यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।

अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')। कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

  • अंग्रेजी भाषा में न, र, ल, जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
  • अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
  • __________________________________________
  • ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त-----
  • मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं? -- ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
  • श्रवण तंत्रिकाएँ, (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है ।
  • भौतिक विज्ञान में -
  • ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है। किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
  • ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ---
  • ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
  • ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
  • निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
  • द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
  • अनुदैर्घ्य तरंग:---
  • जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!
  • अनुप्रस्थ तरंग:-
  • जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
  • सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग 343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
  • बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
  • मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
  • बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं। जैसे चमकाधड़
  • एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।
  • माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
  • किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
  • {\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}}
  • जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
  • आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर---
  • अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती,
  • श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
  • पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती,
  • अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
  • ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
  • ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
  • ______________________________________
  • सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ --
  • ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति----
  • एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं
  • ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है
  • वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे । क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
  • द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology)
  • के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
  • ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
  • कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था !
  • कि उनका विश्वास था ! कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
  • और उनका मान्यता भी थी..
  • प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है
  • इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था ।
  • जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं।
  • ..ब. वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है .
  • जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
  • आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
  • सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अोमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
  • तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।
  • मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए
  • .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,।
  • मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!
  • इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन ?


पणि कौन थे ? यह जानना भी आवश्यक है क्योंकि पणियों को यूरोपीय ग्रीक, लैटिन और डच इत्यादि पुराणों में वर्णन है।
राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।
इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है।
लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है।
ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे।

इनके लिए 
दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है।
ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं।
हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है।
जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था।
फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए।

_______________________________________

पणि के संस्कृत में अर्थ ,
व्यवहारो द्यूतं स्तुतिर्वा पणः अस्त्यर्थे इनि पणिन्।
१ क्रयादिव्यवहारयुक्ते
२ स्तुतियुक्ते च
३ ऋषिभेदे पु० । तस्यापत्यम् अण् “गाथिविदथीत्यादि” पाणिनि  ।
पाणिन तस्यापत्ये यूनि ततः इञ् पाणिनिः ।

सरमा तथा पणि संवाद–
सरमा शब्द निर्वचन प्रसंग में उद्धृत ऋग्वेद 10/108/01 के व्याखयान में प्राप्त होता है। आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रहित देवशुनी सरमा ने पणियों से संवाद किया।
पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी।
इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण के लिए भेजा था।
यह एक प्रसिद्ध आख्यान है।

आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है। वे उसे शीघ्रगामिनी होने से सरमा मानते हैं।
वस्तुतः मैत्रायणी संहिता के अनुसार भी सरमा वाक् ही है। गाय रश्मियाँ हैं  इस प्रकार यह आख्यान सूर्य रश्मियों के अन्वेषण का आलंकारिक वर्णन है।
निरुक्त शास्त्र के अनुसार
‘‘ऋषेः दृष्टार्थस्य प्रीतिर्भवत्यायानसंयुक्ता’’
अर्थात् सब जगत् के प्रेरक परमात्मा अद्रष्ट अर्थों को आख्यान के माध्यम से उपदिष्ट करते हैं।

क्रमशः एक-एक शब्द पर विचार करते हैं।

पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है।
पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय कर के सिद्ध होता है।
यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवहियते सा पणिः’’।
अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।

पणिक भाषा , जिसे कार्थागिनीन  या फोएनिसियो-पूनिक भी कहा जाता है!
यह सेमेटिक परिवार की कनानी भाषा  , फिनिशियन भाषा की एक विलुप्त विविधतामयी भाषा है।
यह 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से 5 वीं शताब्दी ईस्वी तक, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका में कार्तगिनियन साम्राज्य और शास्त्रीय पुरातनता में पणिक लोगों द्वारा कई भूमध्य द्वीपों में बोली जाती थी

ट्यूनीशिया और (तटीय हिस्सों), जैसे मोरक्को , अल्जीरिया  , दक्षिणी इबेरिया , लीबिया , माल्टा , पश्चिमी सिसिली आदि देशों में यह लोग भ्रमण करते थे
800 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी तक का समय --
भाषा परिवार-
अफ्रीकी-एशियाई
यहूदी
पश्चिम सेमिटिक
केंद्रीय सेमिटिक
नॉर्थवेस्ट सेमिटिक
कैनेनिटी( कनानी)

इतिहास के दृष्टि कोण से -
पेनिक्स या वैदिक सन्दर्भों में वर्णित पणि  146 ईसा पूर्व रोमन गणराज्य द्वारा कार्थेज के विनाश तक फेनेशिया के संपर्क में रहे।
फोनिशियन नामकरण पणिस् अथवा पणिक से सम्बद्ध है ।

नियो-पुणिक शब्द को दो इंद्रियों में प्रयोग किया जाता है: एक फीनशियन वर्णमाला से संबंधित है और दूसरा भाषा में ही है।  वर्तमान सन्दर्भ में, नियो-पुणिक ने कार्तेज के पतन के बाद और 146 ईसा पूर्व पूर्व पुणिक क्षेत्रों के रोमन विजय के बाद पूनिक की बोली को संदर्भित किया है।
बोली पहले की पंचिक भाषा से भिन्न थी, जैसा कि पहले के पंख की तुलना में अलग-अलग वर्तनी से और गैर-सेमिटिक नामों के उपयोग से स्पष्ट रूप से लिबिको-बर्बर मूल के उपयोग से स्पष्ट है।
अंतर द्विपक्षीय परिवर्तनों के कारण था कि पुणिक उत्तर-अफ्रीकी लोगों के बीच फैल गया था।
नव-पुणिक कार्यों में लेपिस मैग्ना एन 1 9 (9 2 ईस्वी) शामिल है।

चौथी शताब्दी ईस्वी तक, पुणिक अभी भी ट्यूनीशिया, उत्तर पश्चिमी अफ्रीका के अन्य हिस्सों और भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में बोली जाती थी।
नव-पुणिक वर्णमाला भी Punic (प्यूनिक)भाषा से निकली। लगभग 400 ईस्वी  तक, पुणिक का पहला अर्थ मुख्य रूप से स्मारक शिलालेखों के लिए उपयोग किया जाता था, जो कहीं और कर्सर नव-पुणिक वर्णमाला द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
पुणिक साहित्यिक कार्यों के उदाहरणों में मागो के विषय को शामिल किया गया है, जो महान कुख्यातता के साथ एक पुणिक जनरल है, जिसने लड़ाई के दौरान किताबों के लेखन के माध्यम से कार्थेज के प्रभाव को उतना ही फैलाया।
__________________________________________

रोमन सीनेट ने इतने कामों की सराहना की कि कार्थेज लेने के बाद, उन्होंने उन्हें बर्बर राजकुमारों को प्रस्तुत किया, जिनके पास पुस्तकालयों का स्वामित्व था।
मैगो का काम ग्रीक में यूटिका के कैसियस डायनीसियस द्वारा अनुवादित किया गया था।
लैटिन संस्करण का शायद ग्रीक संस्करण से अनुवाद किया गया था। साहित्य के पुणिक कार्यों के और उदाहरणों में हनो नेविगेटर के काम शामिल हैं, जिन्होंने अफ्रीका के आसपास नौसेना के दौरान और नई उपनिवेशों के निपटारे के दौरान अपने मुठभेड़ों के बारे में लिखा था।

Punic का एक तीसरा संस्करण लैटिनो-Punic होगा, लैटिन वर्णमाला में लिखा एक Punic, लेकिन सभी वर्तनी उत्तर पश्चिमी अफ्रीकी उच्चारण का पक्ष लिया। लैटिनो-पुनीक को तीसरी और चौथी शताब्दी तक बोली जाती थी और सत्तर बरामद ग्रंथों में दर्ज की गई थी। रोमन शासन के तहत पुणिक का आश्चर्यजनक अस्तित्व इसलिए था क्योंकि बोलने वाले लोगों के पास रोम के साथ बहुत अधिक संपर्क नहीं था, और इसलिए लैटिन सीखने की आवश्यकता नहीं थी।
सन्दर्भ तालिका -
__________________________________________
लैटिनो- Punic ग्रंथों में पहली शताब्दी Zliten एलपी 1, या दूसरी शताब्दी Lepcis Magna एलपी 1 शामिल हैं। [ स्पष्टीकरण की आवश्यकता ] उन्हें चौथी शताब्दी के अंत में भी लिखा गया था, बीर एड-ड्रेडर एलपी 2 । शास्त्रीय स्रोत जैसे स्ट्रैबो (63/4 ईसा पूर्व - एडी 24), लिबिया के फोनीशियन विजय का जिक्र करते हैं।

सलस्ट (86 - 34 ईसा पूर्व) के अनुसार 146 ईसा पूर्व के बाद पुणिक के हर रूप में परिवर्तन हुआ है, जो दावा करते हैं कि पुणिक को " न्यूमिडियन के साथ उनके विवाहों में बदल दिया गया था"। यह खाता पुणिक पर उत्तर-अफ्रीकी प्रभाव का सुझाव देने के लिए पाए गए अन्य सबूतों से सहमत है, जैसे यूनेबियस के ओनोमास्टिक में लिबिको-बर्बर नाम। [ संदिग्ध ] आखिरी ज्ञात साक्ष्य रिपोर्टिंग एक जीवित भाषा के रूप में Punic है हिप्पो के अगस्तिन (डी। 430) की है।
________________________________________

पणियों का देवता (ईश्वरीय सत्ता) वल
का सेमैेटिक पुराणों में रूप -बाल ठीक से Ba'al , पुरातनता के दौरान Levant में बोली जाने वाली उत्तर पश्चिमी सेमेटिक भाषाओं में एक शीर्षक और सम्मानित अर्थ " भगवान " था। लोगों के बीच इसके उपयोग से, यह देवताओं पर लागू किया गया था।  विद्वानों ने पहले सौर संप्रदायों के साथ और विभिन्न असंबद्ध संरक्षक देवताओं के साथ नाम से जुड़ा हुआ था, लेकिन शिलालेखों से पता चला है कि बाल नाम विशेष रूप से तूफान और प्रजनन भगवान हदाद और उनके स्थानीय अभिव्यक्तियों से जुड़ा हुआ था। [8]

Ba'al
प्रजनन , मौसम , बारिश , हवा , बिजली , ऋतु , युद्ध , नाविकों के संरक्षक और समुद्री व्यापारियों के देवता , रेफाईम (पैतृक आत्माओं) के नेता
बाद के विचार: देवताओं के राजा

उगलिट के खंडहर में पाए गए थंडरबॉल्ट के साथ बाल का स्टील
प्रतीक
बुल , भेड़
क्षेत्र
कनान के पास और पास
पास, आसपास और उगारिट में
मिस्र (मध्य साम्राज्य)
व्यक्तिगत जानकारी
पत्नी के
अनाट , अथतर्ट, आर्से, तलेय, पिड्रे
माता-पिता
डगन (सामान्य लोअर) एल  (कुछ उगारिटिक ग्रंथ)
एक माँ की संताने
Anat
सदियों की अवधि में संकलित और क्यूरेटेड हिब्रू बाइबिल में विभिन्न लेवेंटाइन देवताओं के संदर्भ में शब्द का सामान्य उपयोग शामिल है, और आखिरकार हदाद की ओर इशारा करते हुए आवेदन, जिसे झूठे भगवान के रूप में अस्वीकार कर दिया गया था। उस प्रयोग को ईसाई धर्म और इस्लाम में ले जाया गया था, कभी-कभी दानव में बेल्जबूब के अपमानजनक रूप के तहत।

एटिमोलॉजी -
अंग्रेजी शब्द "बाल" की वर्तनी ग्रीक बाल ( Βάαλ ) से निकली है, जो नए नियम [9] और सेप्टुआजिंट , [10] में दिखाई देती है और इसके लैटिनयुक्त रूप बाल से , जो वल्गेट में दिखाई देती है। [10] ये रूप स्वर में कम-से-कम नॉर्थवेस्ट सेमेटिक फॉर्म बीएल से निकलते हैं। फोएनशियन देवता और झूठे देवताओं के रूप में शब्द की बाइबिल की  इंद्रियों को आम तौर पर प्रोटेस्टेंट सुधार के दौरान किसी भी मूर्तियों , संतों के प्रतीक , या कैथोलिक चर्च को दर्शाने के लिए बढ़ाया गया था। [11] इस तरह के संदर्भों में, यह anglicized उच्चारण का पालन करता है और आमतौर पर इसके दो As के बीच किसी भी निशान को छोड़ देता है। [1] सेमिटिक नाम के करीबी लिप्यंतरण में, आयन का प्रतिनिधित्व बाल के रूप में किया जाता है।

नॉर्थवेस्ट सेमेटिक भाषाओं में - यूगारिटिक , फोएनशियन , हिब्रू , एमोरिट , और अरामासिक- शब्द बाल ने " मालिक " और विस्तार से, "भगवान", [10] एक "मास्टर" या "पति" का संकेत दिया। [12] [13] संज्ञेयों में अक्कडियन बेल्लू ( 𒂗 ), [सी] अम्हारिक बाल ( ባል ), [14] और अरबी बाल ( بعل ) शामिल हैं। बाल ( बेथेल ) और बाल अभी भी आधुनिक हिब्रू  और अरबी में "पति" के शब्दों के रूप में कार्य करते हैं। वे चीजों के स्वामित्व या गुणों के कब्जे से संबंधित कुछ संदर्भों में भी दिखाई देते हैं।

स्त्री का रूप ba'alah है ( हिब्रू : בַּעֲלָה ; [15] अरबी : بعلة  ), जिसका अर्थ है मादा मालिक या घर की महिला [15] के अर्थ में "मालकिन" और अभी भी " पत्नी " के लिए दुर्लभ शब्द के रूप में सेवा करना । [16]

प्रारंभिक आधुनिक छात्रवृत्ति में सुझावों में सेल्टिक भगवान बेलेनस के साथ तुलना भी शामिल है। [17]

सेमिटिक धर्म -
यह भी देखें: प्राचीन निकट पूर्व के धर्म , प्राचीन सेमिटिक धर्म , कनानी धर्म , और कार्थागिनी धर्म

एक बाल का कांस्य मूर्ति, 14 वीं x 12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, फीनशियन तट के पास रस शमरा (प्राचीन उगारिट ) में पाया गया। Musée du Louvre ।
जेनेरिक -
यह भी देखें: बेल , ज़ीउस बेलोस , और बेलस नाम के अन्य आंकड़े
सुमेरियन में एन की तरह, अक्कडियन बेल्लू और नॉर्थवेस्ट सेमिटिक बाल (साथ ही साथ इसकी स्त्री रूप बालाह ) मेसोपोटामियन और सेमिटिक पैंथियंस में विभिन्न देवताओं के शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता था। केवल एक निश्चित लेख , जननांग या उपकला , या संदर्भ स्थापित कर सकता है कि कौन सा विशेष भगवान था। [18]

हदाद -
मुख्य लेख: हदाद और अदद
बायल को तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व द्वारा उचित नाम के रूप में भी इस्तेमाल किया गया था, जब वह अबू सलाबीख  में देवताओं की एक सूची में प्रकट होता है। [10] अधिकांश आधुनिक छात्रवृत्ति का दावा है कि यह बाल-आमतौर पर "भगवान" के रूप में प्रतिष्ठित है ( हे बहेल , हा बाल ) - तूफान और प्रजनन देवता हदाद के समान है; [10] [1 9] [12] यह बाल हडु के रूप में भी प्रकट होता है। [13] [20]विद्वानों ने प्रस्ताव दिया कि, हदाद की पंथ महत्त्व में बढ़ी है, इसलिए उसका सच्चा नाम किसी के लिए बहुत पवित्र माना गया है, लेकिन महायाजक जोर से बोलने के लिए और उपनाम "भगवान" ("बाल") था इसके बजाए, " बेल " का इस्तेमाल बाबुलियों के बीच मर्दुक और इस्राएलियों के बीच यहोवा के  लिए " अदोनी " के लिए किया गया था। एक अल्पसंख्यक प्रस्ताव करता है कि बाल एक देशी कनानी देवता था जिसकी पंथ की पहचान अदद के पहलुओं के साथ की गई थी या अवशोषित की गई थी। [10] पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक , उनके मूल संबंधों के बावजूद, दोनों अलग थे: हदाद की पूजा अरामियों और बाल ने फीनशियनों और अन्य कनानियों  द्वारा की थी। [10]

एल -
मुख्य: एल
फोएनशियन बायल आमतौर पर एल या डगन के साथ पहचाना जाता है। [21]

Ba'al बाल ( वैदिक -बल)
Ba'al शिलालेखों में जीवित रहने के लिए अच्छी तरह से प्रमाणित है और लेवेंट [22] में अलौकिक नामों में लोकप्रिय था, लेकिन आमतौर पर अन्य देवताओं के साथ उनका उल्लेख किया जाता है, "कार्रवाई के अपने क्षेत्र को शायद ही कभी परिभाषित किया जा रहा है"। [23] फिर भी, उगारिटिक रिकॉर्ड उन्हें मौसम देवता के रूप में दिखाते हैं, विशेष रूप से बिजली , हवा , बारिश और प्रजनन क्षमता पर शक्ति। [23] [डी] क्षेत्र के सूखे गर्मियों को अंडरवर्ल्ड में बाल के समय के रूप में समझाया गया था और शरद ऋतु में उनकी वापसी ने तूफान का कारण बनने के लिए कहा था। [23] इस प्रकार, कनान में बालल की पूजा - जहां उन्होंने अंततः देवताओं के नेता और राजा के संरक्षक के रूप में एल को आपूर्ति की- मिस्र और मेसोपोटामिया के विपरीत, इसकी खेती के लिए वर्षा पर क्षेत्रों की निर्भरता से जुड़ा हुआ था, जो सिंचाई पर केंद्रित था उनकी प्रमुख नदियों से। फसलों और पेड़ों के लिए पानी की उपलब्धता के बारे में चिंता ने अपनी पंथ के महत्व को बढ़ाया, जिसने वर्षा देवता के रूप में अपनी भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया। [12] युद्ध के दौरान उन्हें भी बुलाया गया था, जिसमें दिखाया गया था कि उन्हें मनुष्यों की दुनिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करने का विचार किया गया था, [23] एल के अधिक अलगाव के विपरीत। बालाबेक के लेबनानी शहर का नाम बाल के नाम पर रखा गया था। [26]

उगारिट का बाल हदाद का प्रतीक था, लेकिन समय बीतने के बाद, यह सिद्धांत भगवान का नाम बन गया, जबकि हदाद महाकाव्य बन गया। [27] बायल को आमतौर पर दगान का पुत्र कहा जाता था, लेकिन यूगारिटिक स्रोतों में एल के पुत्रों में से एक के रूप में दिखाई देता है। [22] [13] [ई] बालाल और एल दोनों यगारिटिक ग्रंथों में बैल से जुड़े थे, क्योंकि यह ताकत और प्रजनन दोनों का प्रतीक था। [28] कुंवारी देवी ' अनाथ उसकी बहन थीं और कभी-कभी उसके माध्यम से एक बच्चे के साथ श्रेय दिया जाता था। [ उद्धरण वांछित ] उन्होंने सांपों के खिलाफ विशेष दुश्मन आयोजित किया, दोनों स्वयं और यमू के प्रतिनिधियों ( lit. "सागर"), कनानी समुद्र देवता और नदी देवता के रूप में । [2 9] उन्होंने टैनिन ( तुन्नानु ), "ट्विस्ट सर्प" ( बान'क्लटन ), " लिटन द फ्यूजिटिव सर्पेंट" ( लेट्टन बान ब्र , बाइबिल लीविथान ), [2 9] और " सात प्रमुखों के साथ ताकतवर " ( Šlyṭ D.šb't Rašm )। [30] [एफ] बाम के यमू के साथ संघर्ष अब आम तौर पर बाइबिल की पुस्तक डैनियल के 7 वें अध्याय में दर्ज दृष्टि के प्रोटोटाइप के रूप में माना जाता है। [32] समुद्र के विजेता के रूप में, बालल को कनानी और फोएनशियनों ने नाविकों और समुद्री व्यापारियों के संरक्षक के रूप में माना था। [2 9] मोना के विजेता के रूप में, कनानी मृत्यु देवता , उन्हें बाल रापूमा ( बीएल आरपीयू ) के नाम से जाना जाता था और विशेष रूप से सत्तारूढ़ राजवंशों के पूर्वजों, रेफैम ( आरपीयूएम ) के नेता के रूप में जाना जाता था। [29]

कनान से, पूर्व साम्राज्य बीसीई में फोएनशियन उपनिवेशवाद  की लहरों के बाद, मध्य साम्राज्य और भूमध्यसागरीय इलाकों  में बाल की पूजा मिस्र में फैल गई। [22] उन्हें विभिन्न उपहासों के साथ वर्णित किया गया था और, यूगारिट को फिर से खोजने से पहले, यह माना जाता था कि इन्हें अलग-अलग स्थानीय देवताओं के लिए संदर्भित किया गया था। हालांकि, जैसा कि दिन द्वारा समझाया गया है, उगारिट के ग्रंथों से पता चला है कि उन्हें "विशेष देवता के स्थानीय अभिव्यक्तियों" के रूप में माना जाता था, जो रोमन कैथोलिक चर्च में वर्जिन मैरी के स्थानीय अभिव्यक्तियों के समान थे। " [1 9] उन शिलालेखों में, उन्हें अक्सर "विक्टोरियस बाल" ( अलीिन या आलिन बाल ) के रूप में वर्णित किया जाता है, [13] [10] "


Phoenicia में


सीथियन साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार पश्चिम एशिया एवं पूर्वी यूरोप में था
एशिया माइनर / अनातोलिया के शास्त्रीय क्षेत्रों के भीतर फेनिशिया का स्थान

फेनिशिया एक प्राचीन सेमिटिक सभ्यता थी जिसकी उत्पत्ति पूर्वी भूमध्य सागर और उपजाऊ वर्धमान के पश्चिम में हुई थी । उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी, जिनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अरवाड , बेरिटस , बायब्लोस , त्रिपोलिस , एको या टॉलेमाइस और कार्थेज ।


फेनिशिया का स्थान

विद्वान आम तौर पर इस बात से सहमत हैं कि इसमें आज के लेबनान , उत्तरी इज़राइल और दक्षिणी सीरिया के तटीय क्षेत्र शामिल हैं जो उत्तर में अरवाड तक पहुँचते हैं, लेकिन इस बात पर कुछ विवाद है कि यह दक्षिण में कितनी दूर तक गया, सबसे दूर सुझाया गया क्षेत्र अश्कलोन है । [5] इसके उपनिवेश बाद में पश्चिमी भूमध्य सागर (विशेष रूप से कार्थेज) और यहां तक ​​कि अटलांटिक महासागर तक पहुंच गए। यह सभ्यता 1500 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के बीच भूमध्य सागर में फैली थी ।

शब्द-साधन(शब्द व्युत्पत्ति

फोनीशियन नाम , लैटिन पोएनी (विशेषण पोएनिकस, बाद में प्यूनिकस) की तरह, ग्रीक Φοίνικες ( फोनिकेस ) से आया है। शब्द φοῖνιξ फ़ोनिक्स का अर्थ भिन्न-भिन्न रूप से " फोनीशियन व्यक्ति", "टायरियन पर्पल, क्रिमसन" या "खजूर" है और होमर में पहले से ही तीनों अर्थों के साथ प्रमाणित है । [6] (पौराणिक पक्षी फ़ीनिक्स का भी यही नाम है, लेकिन यह अर्थ सदियों बाद तक प्रमाणित नहीं हुआ है।) यह शब्द φόοινός phoinós "रक्त लाल" से लिया गया है, [7] स्वयं संभवतः φόνος फ़ोनोस "हत्या" से संबंधित है . यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन सा अर्थ पहले आया, लेकिन यह समझ में आता है कि यूनानी कैसे थेखजूर और डाई के लाल या बैंगनी रंग का संबंध उन व्यापारियों से हो सकता है जो दोनों उत्पादों का व्यापार करते थे। रॉबर्ट एसपी बीकेस ने जातीय नाम की पूर्व-ग्रीक उत्पत्ति का सुझाव दिया है। [8] ग्रीक में शब्द का सबसे पुराना प्रमाणित रूप माइसेनियन पो-नी-की-जो , पो-नी-की हो सकता है , जो संभवतः मिस्र के fnḫw (फेनखु) से उधार लिया गया है। [9]

फेनिशिया एक प्राचीन यूनानी शब्द है जिसका उपयोग क्षेत्र के प्रमुख निर्यात को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, म्यूरेक्स मोलस्क से टायरियन बैंगनी रंगे कपड़े, और प्रमुख कनानी बंदरगाह कस्बों को संदर्भित किया जाता है; समग्र रूप से फोनीशियन संस्कृति के अनुरूप नहीं है क्योंकि इसे मूल रूप से समझा गया होगा। उनकी सभ्यता प्राचीन ग्रीस के समान शहर-राज्यों में संगठित थी , [28] शायद उनमें से सबसे उल्लेखनीय थे टायर , सिडोन , अर्वाड , बेरिटस , बायब्लोस और कार्थेज । [29]प्रत्येक शहर-राज्य एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र इकाई थी, और यह अनिश्चित है कि फोनीशियन किस हद तक खुद को एक राष्ट्रीयता के रूप में देखते थे। पुरातत्व, भाषा, जीवनशैली और धर्म के संदर्भ में फोनीशियनों को अलग करने के लिए कुछ भी नहीं था क्योंकि वे लेवांत के अन्य निवासियों, जैसे उनके करीबी रिश्तेदारों और पड़ोसियों, इज़राइलियों से स्पष्ट रूप से भिन्न थे। [30]

लगभग 1050 ईसा पूर्व, फोनीशियन भाषा लिखने के लिए फोनीशियन वर्णमाला का उपयोग किया जाता था। [31] यह सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली लेखन प्रणालियों में से एक बन गई, जिसे फोनीशियन व्यापारियों ने भूमध्यसागरीय दुनिया भर में फैलाया, जहां यह विकसित हुई और कई अन्य संस्कृतियों द्वारा इसे आत्मसात किया 

अगाथोकल्स के सिक्के पर देवता


अगाथोकल्स ( लगभग  180 ईसा पूर्व ) के सिक्के में ब्राह्मी लिपि और भारत के कई देवताओं को शामिल किया गया था, जिनकी व्याख्या विष्णु , शिव , वासुदेव , बलराम या बुद्ध के रूप में की गई है । [9] [10]

1. ज़ीउस देवी हेकेट के साथ खड़ा है । [11] ग्रीक: "किंग अगाथोकल्स"।
2. देवता सिर पर आयतन के साथ एक लंबा हेमेशन पहने हुए, हाथ आंशिक रूप से मुड़े हुए और कॉन्ट्रापोस्टो मुद्रा में हैं। ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [11] यह सिक्का कांसे का है । [12]
3. हिंदू भगवान बलराम - गुणों के साथ संकर्षण । ग्रीक: "राजा अगाथोकल्स"। [13]
4. हिंदू भगवान वासुदेव - गुणों के साथ कृष्ण । [13] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

5. देवी लक्ष्मी , अपने दाहिने हाथ में कमल धारण करती हैं। [14] ब्राह्मी : "राजने अगाथुक्लेयासा", "राजा अगाथोकलेस"।

1880 में, इसी तरह का एक सिक्का अगाथोकल्स द्वारा चलाया गया था, लेकिन फिलिप के बेटे अलेक्जेंडर की "स्मृति" में ब्रिटिश संग्रहालय के पर्सी गार्ंडर द्वारा प्रकाशित किया गया था। [4] अगाथोकल्स के लिए किसी ऐसे व्यक्ति का उप-राजा बनना असंभव था जिसने लगभग दो सौ साल पहले शासन किया था, ड्रॉयसन के स्पष्टीकरण को सैलेट के पक्ष में सरसरी तौर पर खारिज कर दिया गया था। [4] [ई] गार्डनर ने प्रस्तावित किया कि ये सिक्के यूक्रेटाइड्स प्रथम द्वारा (अंततः सफल) चुनौती की पूर्व संध्या पर अपनी जनता को बढ़ाने के लिए जारी किए गए थे । [15] 1900 के मध्य की शुरुआत में, ह्यूग रॉविन्सन और विलियम टार्नएक भव्य हेलेनिस्टिक अतीत के अपने दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के लिए गार्डनर के विचारों का विस्तार करेगा जहां अगाथोकल्स ने अपनी वंशावली को नकली बना दिया था और यूक्रेटाइड्स I सेल्यूसिड नियंत्रण को फिर से स्थापित करने के लिए एंटिओकस IV के आदेशों का पालन कर रहा था । [16] [15] अन्य विद्वान आम तौर पर इन "पूर्वज सिक्कों" को बहुत अधिक महत्व देने से बचते हैं। [17]

इन सिक्कों की और भी किस्में बाद में खोजी जाएंगी। [4] इनमें डायोडोटस द्वितीय , डेमेट्रियस द्वितीय और डेमेट्रियस का उल्लेख है । [4] [6] [18] [17] पिछले कुछ दशकों में, ऐसे सिक्के अधिक संख्या में खोजे गए हैं लेकिन इन सिक्कों की सटीकता इस तथ्य से प्रभावित है कि ये नियंत्रित उत्खनन से नहीं बल्कि नीलामी नेटवर्क से आए थे। [4] महाद्वीपों की यात्रा करने और कई हाथों से गुजरने के बाद ही विद्वानों द्वारा उनका मूल्यांकन किया गया। [4]

तब से यह स्वीकार कर लिया गया है कि ये सिक्के वास्तव में अगाथोकल्स के पूर्ववर्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। [19] ढलाई और महत्व का सटीक संदर्भ अभी भी स्पष्ट नहीं है। [6]


भारत देवताओं के साथ अगाथोकल्स का सिक्का ।
ओबीवी बलराम - ग्रीक किंवदंती के साथ संकर्षण : ΒΑΣΙΛΕΩΣ ΑΓΑΘΟΚΛΕΟΥΣ ( बेसिलोस अगाथोक्लिअस )। ब्राह्मी कथा के साथ
रेव वासुदेव-कृष्ण :𑀭𑀚𑀦𑁂 𑀅𑀕𑀣𑀼𑀼𑀓𑁆𑀮𑁂𑀬𑁂𑀲 राजने अगाथुक्लेसा "राजा अगाथोकल्स"।

3 अक्टूबर 1970 को, फ्रांसीसी पुरातत्वविदों की एक टीम द्वारा एक तीर्थयात्री के पानी के जहाज से ऐ-खानौम के प्रशासनिक क्वार्टर में छह भारतीय-मानक चांदी के ड्रैकमास की खोज की गई थी। [26] ये सिक्के वैदिक देवताओं का पहला मुद्राशास्त्रीय प्रतिनिधित्व हैं और प्रारंभिक भारत में भगवतीवाद के वैष्णववाद का पहला रूप होने के प्रमुख साक्ष्य के रूप में काम करते हैं। [27] [28]

सिक्के विष्णु के शुरुआती अवतारों को प्रदर्शित करते हैं : बलराम - संकर्षण , पीछे मूसल और हल की विशेषताओं के साथ , और वासुदेव - कृष्ण , सामने शंख और सुदर्शन चक्र की विशेषताओं के साथ । [27] [28] [जी] सिक्कों के आधार पर भारतीय मूर्तिकला के विशिष्ट ट्रेडमार्क - तीन-चौथाई के विपरीत ललाट मुद्रा, पर्दों में कठोर और स्टार्चयुक्त सिलवटें, अनुपात की अनुपस्थिति, और पैरों का बग़ल में स्वभाव - ऑडोइन और बर्नार्ड ने अनुमान लगाया कि नक्काशी भारतीय कलाकारों द्वारा की गई थी। [27]बोपेराच्ची निष्कर्ष पर विवाद करते हैं और वासुदेव-कृष्ण के छत्र के साथ टोपी और ऊंची गर्दन वाले फूलदान के साथ शंख के गलत चित्रण की ओर इशारा करते हैं ; उनका अनुमान है कि एक यूनानी कलाकार ने अब लुप्त हो चुकी (या अनदेखी) मूर्ति से सिक्का उकेरा था। [27]

अगाथोकल्स के कुछ कांस्य सिक्कों के अग्रभाग पर पाई गई एक नाचती हुई लड़की को सुभद्रा का प्रतिनिधित्व माना जाता है । [27]

साइन्स जर्नी चैनल का यूट्यूबर  कृष्ण शब्द को पाली  और प्राकृत भाषाओं में  नही   मानता है जबकि वेद शब्द भारोपीय होने अनेक भाषाओ में  है जिसका कुछ विवरण नीचे है।

प्राकृत- में कृष्ण का रूप (काण्ह) है और पाली की पूर्व लिपि ब्राह्मी थी  ।

बौद्ध ग्रन्थ तो महावीर स्वामी का वर्ण निगंठ ( निर्ग्रन्थ तथा ज्ञान पुत्र के रूप में वर्णन करते हैं 

 परन्तु जैन ग्रन्थों में किसी भी बुद्ध का वर्णन नहीं है। अत: जैन धर्म बौद्ध धर्म से पुराना  है ।

सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद
में असुर अर्थात् अदेव कहा है ।
--- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं 
मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था ।
जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ । और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं ।

अथर्ववेद-(20/137/7)
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
(इयानः) चलता हुआ (अंशुमतीम्) विभागवाली [सीमावाली नदी-म० ८]  पर (अव अतिष्ठत्) ठहरा है। (नृमणाः) नरों के समान मनवाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-
लङ्(अनद्यतन भूत)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
 युद्ध किया  और (स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
टिप्पणी:-
 (धमन्तम्) उच्छ्वसन्तम्। पराभवेन दीर्घं श्वसन्तम् (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) दूरे धारितवान् निवर्तितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
कुत्स आङ्गिरसः
दे. इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

"प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥

यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                         इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
:32
वैरूपम्.

वैरूपम्.
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

(३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
________
यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
___________

यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

{सायण-भास्यम्}
प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
____________________
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा  ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
____
  . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
_________________
"द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।

अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
पद पाठ:-
त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
_________________________

drip (v.)
c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।


"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
_______________________________________
क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 

विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै: परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।
________________________________
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।

नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो 
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
_______________    

शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)    'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
___________________________________

अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
______________
अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दुअंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः=गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार (अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) । शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे 

हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
 २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे। परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है । जो सरासर कृष्ण चरित्र की धज्जीयाँ पीटना है
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। धर्म के नाम परसुरापान करना  कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
_______________
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
__________
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

वेदों में कृष्ण और इन्द्र के युद्ध सम्बन्धी तथ्य-

भारतीय भाषाओं में इन्द्र" नाम की कोई निश्चित व्युत्पत्ति नहीं है। सबसे प्रशंसनीय रूप से यह एक प्रोटो-इण्डो-यूरोपियन मूल का शब्द है।

यूरोपीय भाषाओं में एण्डरो-(andró) शब्द ग्रीक भाषा के Aner से विकसित हुआ है। Aner का सम्बन्ध कारक रूप एण्डरो- है। मूल भरोपीय भाषाओं में (H- Ner) हनर-

ओस्कैन में  (ner)- "पुरुषों का"), अल्बानियाई में  नजेरी "आदमी, मानव," वेल्स- नर । मितन्नी में  इन-द-र- शब्द है। यद्यपि अवेस्ता में इन्द्र एक दुष्ट शक्ति है। क्योंकि देव शब्द ही अवेस्ता में दुष्ट का वाचक है। पारसी मिथ को के सम्बन्ध में इन्द्र और देव शब्द पर आगे यथा क्रम विचार किया जाएगा ।

संस्कृत(Sanskrit) एक वैदिक भाषा परिनिष्ठित व संशोधित रूपान्तरण है. कुछ लोगों का मानना है कि ये दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है, जो लगभग 5000 साल पुरानी है. ऋग्वेद जिस भाषा में लिखा गया है वो इसका यानी संस्कृत का प्रथम स्वरूप है, लेकिन कुछ इतिहासकारों का मानना है कि संस्कृत ऋग्वेद से भी पहले इस्तेमाल होती थी. इस भाषा का इस्तेमाल आज से लगभग 3500 साल पहले सीरिया का एक राजवंश किया करता था. आज हम उसी राजवंश के बारे में आपको आगे यथाक्रम बताएंगे.

भारतीय वेदों में इन्द्र की सबसे अधिक स्तुति वैदिक ब्राह्मणों ने की है। और इन्द्र को वेदों में सबसे वड़ा देव घोषित किया गया है ।

परन्तु वैदिक पुरोहित भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र आदि देवताओं का योजन( यज्ञ) आदि किया करते थे। देवताओं की उपासना से आध्यात्मिक ज्ञान अथवा मोक्ष तो मिन नहीं सकता और न ही यज्ञों के सम्पादन से न ईश्वर की अनुभूति हो सकती है और नहीं आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

 यज्ञ केवल देवों की प्रसन्नता के लिए किए जाते थे और ये यज्ञ भी निर्दोष पशुओं पक्षीयों की हत्या के बिना सम्पन्न नहीं माने जाते थे। इन्द्र स्वयं यज्ञ में पशुमेध का समर्थ था।

वेदों में तथा पुराणों में इन्द्र का चरित्र पूर्णतया राजसिक है । वह पुराणों में तो अपनी कामुक प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। वेदों वनो  भी उसका विलासी चरित्र उभर कर आता है। उसमें सत्व गण का कोई भाव नहीं है। भोग विलास में निरन्तर लगा हुआ इन्द्र आध्यात्मिक ज्ञान से विमुख और परे है।

____________

महाभारत के आदि पर्व में इन्द्र का यज्ञ भूमि में सोम पीकर उन्मत्त होने का वर्णन है।

सोम एक नशीला पदार्थ था जिसे पारसी धर्म ग्रन्थों में होम कहा गया है क्योंकि फारसी में प्राय: वैदिक भाषा के " स" वर्ण का उच्चारण "ह"वर्ण के रूप में होता है"

प्राचीन भारत में सुर, सुरा, सोम और मदिरा आदि का बहुत प्रचलन था। कहते हैं कि इंद्र की सभा में सुंदरियों के नृत्य के बीच सुरों के साथ सुरापान होता था। 
सोम रस : सभी देवता लोग सोमरस का सेवन करते थे। प्रमाण- 'यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्रदेव को प्राप्त हो।-

सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
सोमासो दध्याशिरः ॥५॥

सुतऽपाव्ने । सुताः । इमे । शुचयः । यन्ति । वीतये।सोमासः । दधिऽआशिरः ॥५।

सायणभाष्य:-

“इमे "सोमासः अस्मिन् कर्मणि संपादिताः सोमाः "सुतपाव्ने= अभिषुतस्य सोमस्य पानकर्त्रे । षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तस्य पातुः =“वीतये भक्षणार्थं "यन्ति तमेव प्राप्नुवन्ति । कीदृशाः सोमाः । "सुता:= अभिषुताः । “शुचयः =दशापवित्रेण शोधितत्वात् शुद्धाः । "दध्याशिरः =अवनीयमानं दधि आशीर्दोषघातकं येषां सोमानां ते दध्याशिरः ।। सुतपाव्ने । सुतं पिबतीति सुतपावा । वनिप: पित्त्वात् धातुस्वर एव शिष्यते । समासे द्वितीयापूर्वपदप्रकृतिस्वरं बाधित्वा कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । शुचयः । शुच दीप्तौ'। ‘इन्' इत्यनुवृत्तौ ‘इगुपधात्कित्' (उ. सू. ४. ५५९) इति इन् । कित्त्वाल्लघूपधगुणाभावः। नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । वीतये । ‘ वि गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु' इत्यस्मात् ' मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ' ( पा. सू. ३, ३. ९६ ) इति क्तिन् उदात्तः । सोमासः । ‘ षुञ् अभिषवे'। ‘ अर्तिस्तुसुहुसृधृक्षि° ' ( उ. सू. १. १३७ ) इत्यादिना मन् । नित्त्वादाद्युदात्तः । ‘ आज्जसेरसुक्' (पा. सू. ७. १. ५० } इत्यसुगागमः । दध्याशिरः । दधाति पुष्णातीति दधि । ‘डुधाञ् धारणपोषणयोः । ‘ आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च ' ( पा. सू. ३. २. १७१ ) इति किन् । लिङ्वद्भावात् द्विर्भावः । कित्त्वादाकारलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् ।शॄ ‘हिंसायाम् ' । शृणाति हिनस्ति सोमेऽवनीयमानं सत् सोमस्य स्वाभाविकं रसम् ऋजीषत्वप्रयुक्तं नीरसं दोषं वा इत्याशीः । क्विपि ‘ ऋत इद्धातोः ' ( पा. सू. ७, १. १०० ) इति इत्वं रपरत्वं च । दध्येव आशीर्येषां सोमानां ते दध्याशिरः। बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ।९ ॥ (ऋग्वेद-1/5/5).

तीव्राः सोमास आ गह्याशीर्वन्तः सुता इमे ।
वायो तान्प्रस्थितान्पिब ॥१॥

"शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।। 

(ऋग्वेद-1/23/1).. 

शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम् ।
एदु निम्नं न रीयते ॥२॥

(ऋग्वेद-1/30/2) 

इन्द्रा य गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु” (ऋग्वेद- ८/, ५८,/ ६ )

इमे त इन्द्र सोमास्तीव्रा अस्मे सुतासः ।
शुक्रा आशिरं याचन्ते ॥१०॥

ताँ आशिरं पुरोळाशमिन्द्रेमं सोमं श्रीणीहि ।
रेवन्तं हि त्वा शृणोमि ॥११॥

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥

सुरापान : प्राचीन काल में सुरा एक प्रकार से शराब ही थी कहते हैं कि सुरों द्वारा ग्रहण की जाने वाली हृष्ट (बलवर्धक) प्रमुदित (उल्लासमयी) वारुणी (पेय) इसीलिए सुरा कहलाई। कुछ देवता सुरापान करते थे। 

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।
ऊधर्न नग्ना जरन्ते ॥१२॥ (ऋग्वेदः सूक्तं 8/2/12)

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग समुद्र मंथन.

विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः 
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये 
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को   ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"

धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक भी  है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

परन्तु लौकिक संस्कृत में सुर के विपरीत असुर हैं।

वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।

वाल्मीकि रामायण-
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
 सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
"सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।
और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

"असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः। (३८)
 ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।
________
ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
इन्द्र एक व्यभिचारी देव था। कृष्ण ने सर्वप्रथम इन्द्र के इस कुत्सित कर्म को दृष्टिगत करते हुए उसकी पूजा पर रोक लगाई।
तो इन्द्रोपासक पुरोहितों ने षड्यन्त्र पूर्वक कृष्ण के चरित्र को इन्द्र से भी अधिक दूषित करके चित्रित किया गया। और जो देवसंस्कृति के समर्थन में कृष्ण ने काम नहीं किया उसे भी कृष्ण के नाम पर जोड़कर कृष्ण के विचारों के साथ भी षड्यन्त्र कर दिया।

इन्द्र सुरापान करके उन्मत्त रहता था । और सुरापान करने वाला ही कामुक और उन्मत्त होकर व्यवहार करता है।

अर्थात : सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर नंगे  होकर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात ही मचाया करते हैं।

हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो  सुरायाम्  ऊधर्न नग्ना जरन्ते (ऋग्वेद -8/2./12)

पदान्वय:-सुरायाम्- पीतासो= सुरा पीने वाले।दुर्मदासो= बुरी तरह उन्मत्त होकर। नग्ना हृत्सु:- नंगे होकर छाती या हृदय में स्थित । ऊध: - स्तनो को  । जरन्ते - जारके समान मसलते या जीर्ण करते हैं।

(न ) जिस प्रकार- (दुर्मदास:- दूषित मद से उन्मत्त लोग। युध्यन्ते-युद्ध करते हैं। हृत्सु- हृदयों में। सुरायाम्- पीतास:- सुरा पीने वाले लोग। नग्ना: - नंगे लोग।ऊध:-स्तन या छाती। जरन्ते- जारों की तरह मसलते रहते हैं। जीर्ण करते रहते हैं।

_____

इन्द्र भी इसी प्रकार का चरित्र व्यवहार करता है।

"व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः ।पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोर्वंशविवर्धनः ।७।

तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि।उपागमंस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः।८।

अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः ।व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः।९।

महाभारत आदिपर्व- (1/120/ 7-8-9-10)

  "अनुवाद :-एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश व्युषिताश्व जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे !थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे।

इन्द्रोपासक पुरोहित भी केवल भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए इन्द्र की स्तुति करते हैं। इन्द्र के उपासक केवल स्वर्ग" सुन्दर स्त्री और भौतिक कामनाओं की आपूर्ति के लिए ही इन्द्र की उपासना करते है।

इन्द्र बहुत से बैलों( उक्षण) को खाने वाला और अपनी यज्ञों में पशु बलि माँगता है।

ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूक्त-(86) जो वृषाकपि के नाम से है   उसकी समस्त ऋचाऐं इन्द्र के विलासी चरित्र का दिग्दर्शन करती हैं।

ऋग्वेदः सूक्तं १०/८६/

                " वृषाकपिसूक्तम्

"तैइस ऋचाओं का यह वृषाकपि सूक्त है जिसमें  वृषाकपि नामक इन्द्र अन्य पत्नू से उत्पन्न एक पुत्र था इन्द्र और इन्द्राणी( शचि) का परस्पर संवाद है

वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।

यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥१॥ 

"सोम-अभिषव करने के लिए यज्ञ में मुझ इन्द्र द्वारा आज्ञा दिए हुए स्तोताओं ने वृषाकपि का पूजन किया। वहाँ उपस्थित दैदीप्मीन मुझ  इन्द्र की मेरे द्वारा प्रेरित होकर भी उन स्तोताओं ने स्तुति नहीं की किन्तु मेरे पुत्र वृषाकपि की ही स्तुति की जिस सोम से बढ़े हुए यज्ञो में स्वामी वृषाकपि मेरा पुत्र और मेरा मित्र होकर सोमपान में हालांकि हर्षित हुआ। तो भी उन यज्ञों में मैं इन्द्र सम्पूर्ण जगत में श्रेष्ठतर हूँ। आचार्य माधव भट्ट के अनुयायी इस ऋचा को इन्द्राणी का वचन मानते हैं। उनका कहना है कि इन्द्राणी के लिए अर्पित हवि को वृषाकपि के स्थान में विद्यमान किसी अन्य मृग ( पशु ) ने दूषित कर दिया है। वहाँ इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। उस पक्ष में तो इस ऋचा का यह अर्थ है।)सोमाभिषव करने के लिए आज्ञा दिए गये  यजमान सोनाभिषव की प्रक्रिया से अलग हो गये और मेरे पति इन्द्रदेव की   स्तोता उस जनपद में स्तुति नहीं करते हैं। जिस जनपद में बढ़े हुए धनों  में स्वामी वृषाकपि  हर्षित होता है। मेरे मित्र और मेरे प्रिय इन्द्र देव सब जगत् में श्रेष्ठतर हैं।१।

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः। नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥२॥

  "अनुवाद :- हे इन्द्र तुम अत्यन्त चलकर वृषाकपि के पास जाते हो। अर्थात् अन्यत्र सोम पीने के लिए नहीं जाते हो। वही इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर है।२।

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः। यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्रप उत्तरः ॥३॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र हरित वर्ण वाले वृषाकपि ने तुम्हारा क्या प्रिय कार्य किया ? क्यों कि वृषाकपि मृग पशु) जाति का है। जिस वृषा कपि के तुम इन्द्र उदार होकर पुष्टिकर धन शीघ्र न करते हो। जो इन्द्र समस्त जगति में श्रेष्ठतर है।३।

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि । श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

  "अनुवाद :-  हे इन्द्र तुम जिस अभिलाषित   वृषाकपि का पालन करते हो उस वृषाकपि को सूकर  खाने की इच्छाकरने वाला कुत्ता शीघ्र भक्षण करे।और उसके कान को पकड़े । क्योंकि कुत्ता सूअर को खाना चाहता है। इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठतर है।४।

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

  "अनुवाद :-  मुझ इन्द्राणी के लिए यजमानों द्रारा अर्पितप्रिय और  विशेषरूप से घृतयुक्त  हवियोंं को वृषाकपि के स्थान में विद्मान किसी कपि ने दूषित कर दिया। तत्पश्चात् मेरी इच्छा गै कि उस कि स्वामी वृषाकपि का शिर शीघ्र काट दूँ। मैं इस दुष्ट कर्म करने वाले वृषाकपि के लिए सुखकर न होऊँ। इस मुझ इन्द्राणी के पति इन्द्र समस्त जगत् में श्रेष्ठतर हैं।५।

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥६॥

  "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ स्वनय राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में लीन अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्टतर हैं।६।

_____________

वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

______________

इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

 "अनुवाद :-"इस प्रकार इन्द्राणी द्रारा बुरा भला कहा हुआ वृषाकपि कहता है कि हे माता ! सुन्दर लाभभ मे जिस प्रकार से तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाये । तुम्हारे इस प्रेम करने को स्वीकार करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिए तुम्हारी यौनि उपयुक्त हो ।और मेरे पिता के लिए तुम्हीरी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता इन्द्र को आपका शिर प्रेमालाप करने में कोयल आदि पक्षी  की तरह हर्षिकत करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।७।

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों में ही जीवन का आनन्द खोजता है । इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

 "अनुवाद :- इन्द्र  क्रोधित इन्द्राणी को शान्त करते हुए कहता है कि हे सुन्दर भुजाओं वाली ,सुन्दर अंगुरियों वाली बड़े बालों वाली चौड़ी जाँघो वाली  तथा वीर पत्नी इन्द्राणी! तुम हमारे पुत्र वृषाकपि पर क्यो क्रोध कर रही हो।जिसका पिता मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।८।


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।नह्यस्या अपरं चन साकं मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

_____________   

वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे । घसत्ते इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

 "अनुवाद :-

मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी सौभाग्य शाली नहीं  है । कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल)को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

__________________

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

 "अनुवाद :-

इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।


वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

 "अनुवाद :- इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् । सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

 "अनुवाद :- 

हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग जम्हाई लेता हो । इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमों  वाला अङ्ग लिंग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग लम्बा होता है, वह ही स्त्रीयों पर अधिकार कर पाता है॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं=संगृहीतं "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

अनुवाद :-

सायण- भाष्य-−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य- कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः)- पकाने के लिये ईंधन के भरे अन:-छकड़े को (इन हत्या के साधनों को) चयनित कर लिया ॥१८॥


अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् । पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

अनुवाद :-

तत्पश्चात इन्द्र कहता है। मैं इन्द्र यजमानों को देखता हुआ। दास और आर्य को अलग करता हुआ यज्ञ में जाता हूँ।तथा हवि पकाने वाले औरसोम अभिषव करने वाले यजमान का  परिपक्व मन से सोम अभिषव करने वाले यजमान का सोम पीता हूँ। तथा बुद्धि मान यजमान को मैं इन्द्र देखता हूँ। जो मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१९।

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

अनुवाद :-जल शून्य और जल विहीन देश धन्व होता है। काटने योग्य वन कृन्तत्र होता है।जो जल शून्य और वन विहीन देश होता है। ऐसा वन मृगों के निर्वासन वाला होता है। किन्तु सघन जल नहीं होता है उस शत्रु गृह और हमारे घर के बीच कितने योजनों की दूरी है। अर्थात वह हमारा घर अत्यन्त दूर नहीं हैं।अत: निकटवर्ती शत्रुगगृह से ही हे वृषाकपि ! तुम हमारे घर में विशेष रूप में चले आओ और आकर यज्ञ गृहों के समीप जाओ । क्योंकि मैं इन्द्र सबसे अधिक श्रेष्ठ हूँ।२०।


पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै । य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

अनुवाद :-आकर वापिस गये हुए वृषाकपि से इन्द्र कहते हैं। हे वृषाकपि तुम फिर हमारी ओर आओ!और तुम्हारे आने पर तुम्हारे चित को प्रसन्न करने वाले कर्मों को इन्द्राणी और मैं इन्द्र हम दोनों  विचार कर पूर्ण करें ! उदय होकर सब प्राणियों की नींद के नाशक जो सूर्य हैं जैसे वे अस्त होते हैं वैसे ही तुम मार्ग में अपने आवास को जाते हो। क्योंकि मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२१।


यदुदञ्चो वृषाकपे ! गृहमिन्द्राजगन्तन । क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

अनुवाद :-जाकर फिर आये हुए वृषाकपि से इन्द्र पूछते हैं। हे परम ऐश्वर्य शाली वृषाकपि ! तुम सीधे खड़े़ होकर मेरे घर में आओ ! एक वृषाकप् के लिए बहुवचन पद पूजा-( सम्मान) के लिए प्रयुक्त है। हे वृषाकपि वहाँ आप से सम्बन्धित बहुत से पाथिक( मार्गसम्बन्धी) रसों का उपभोक्ता वह मृग कहाँ रह गया अथवा मनुष्यों को हर्षित करने वाला मृग किस देश को चला गया। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ ।२२।


पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् । भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

अनुवाद :-

इन्द्र के द्वारा छोड़े जाते हुए वाण से  इस मन्त्र के द्वारा वषाकपि आश करते हैं। कि हे इन्द्र द्वारा छोड़े हुए वाण पर्शु नाम की मृगी थी इस मनु पुत्री पर्ष़शु ने एक साथ बीस पुत्रों को जन्म दिया उसका उदर गर्भ में स्थित बीस पुत्रों से पुष्ट हो गया था। उस पर्शु का कल्याण हो मेरे पिता इन्द्र जगत में सबसे श्रेष्ठ हैं।२३।

सायणभाष्यम्: - मूल संस्कृत रूप-

"यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥

अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते । तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् ।

_____________________

वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ पराहीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पाङ्तम् ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।। 

"अनुवादभाष्य :-

 ॥१।।सोतोः =सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो= वृषाकपेर्यष्टारः । “हि= इति पूरणः । तत्र "देवं= द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः= स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः =उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः= सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।

"अनुवाद भाष्य :-

॥२।हे “इन्द्र त्वम् "अति {अत्यन्तं “व्यथिः= चलितः "वृषाकपेः =वृषाकपिं “परा “धावसि= प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।

"अनुवाद भाष्य :-


॥३।हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः= हरितवर्णः "मृगः= मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि =वृषाकपि। "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत्= पोषयुक्तं "वसु= धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद भाष्य :-


५=“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत्= दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै {"सुगं= सुखं} न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१।

"अनुवाद :-भाष्य

6-“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी =याशूनां =भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं!

अयं शरारु:) यह घातक  (माम्) मुझको (अवीराम् इव) अबला की भाँति (अभि मन्यते) मानता है ।(वीरिणी अस्मि) वीराङ्गना हूँ (इन्द्रपत्नी) मैं इन्द्र की पत्नी हूँ (मरुत् सखा)  मरुत जिनके मित्र है। (इन्द्रः)  (विश्वस्मात् उत्तर:) संसार में सबसे श्रेष्ठ है।

"अनुवाद :-भाष्य

मुझ इन्द्राणी से दूसरी कोई नारी अत्यन्त सौभाग्य वती नहीं है। मुझ इन्द्राणी से दूसरी नारी अत्यन्त सुखी अथवा सुपुत्रों वाली नहीं है। जैसा कि यह ऋचा कहती है ।६।

"यह बहुत रज वाली रमणी मुझ सुना राजा को बहुत बार भोग( संभोग) प्रदान करती है। मेरे से दूसरी नारी पुरुषो को अत्यधिक रूप से अपना शरीर समर्पित करने वाली नहीं है। मेरी तुलना में दूसरी स्त्री संभोग में अपनी दौंनों जाघों को ऊपर उठाने वाली नहीं है। मेरे पति समस्त जगत में उत्कृष्ट हैं।६।

______________

वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

______________


"इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है!

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

"नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘

_________________________ 

ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 

सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 

अथर्ववेदः/ काण्डं २०/सूक्तम् १२६-


अथर्ववेदः - काण्डं २०
सूक्तं २०.१२६
वृषाकपिरिन्द्राणी च।

दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिः
वृषाकपिसूक्तम्

          (अथर्ववेद  20/126)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥

अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥

संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥

इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

____________________________________
नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥

वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥

वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥

न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥

अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥

धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥

पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥

यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥

पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥

_________    

॥७-एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब= मातः “सुलाभिके= शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

"अनुवाद :-

इस प्रकार इन्द्राणी के द्वारा बुरा भला कहा गया वृषाकपि कहता है। हे माता ! सुन्दर लाभ में जिस प्रकार तुमने कहा है। वैसा ही अंग शीघ्र हो जाए तुम्हारे इस प्रेम करने में मेरा क्या प्रयोजन है। मेरे पिता के लिये तुम्हारी यौनि  उपयुक्त हो। और मेरे पिता के लिए तुम्हारी जंघा उपयुक्त हो। मेरे पिता को तुम्हारा सिर प्रेमालाप से कोयल आदि पक्षीयों की भाँति  हर्षित करे। मेरे पिता इन्द्र समस्त जगत में उत्तम है।७।

 ।८-क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे =शोभनबाहो{ "स्वङ्गुरे= शोभनाङ्गुलिके} “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

"अनुवाद :-

॥९-पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति ।“शरारुः= घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती " *मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि ।*

अनुवाद:

“[ इन्द्राणी बोलती है]: यह क्रूर जानवर ( वृशाकापि ) मुझे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में तुच्छ जानता है जिसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं , मरुतों की मित्र  ; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य (ऋग्वेद 10/86/9)

[इंद्राणी बोलती है]: यह जंगली जानवर (वृषाकपि) मुझे ऐसे तुच्छ समझता है जैसे कि उसका कोई नर (रक्षक) नहीं है, और फिर भी मैं नर संतानों की मां हूं, इंद्र की पत्नी हूं, मरुतों की मित्र हूं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।

"अनुवाद :-

१०-नारी= स्त्री “ऋतस्य= सत्यस्य "वेधाः= विधात्री “वीरिणी= पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं= संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥

"अनुवाद :-

 ॥११-अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा =वयोहान्या ("नहि "मरते न खलु म्रियते )

। यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥

"अनुवाद :-

______________________

१३-हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम्

___________________

"इन्द्रः {"उक्षणः= Oxen सेचन समर्थान् “आदु= अद् भक्षणे) अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून्- “घसत्= प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं= सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन {सुस्नुषे}  पुत्रवधू-

माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति

"अनुवाद :-कामनाओं की वर्षा करने से वृषभ अभीष्टदेश को जाने से इन्द्र वृषाकपि है। हे धनवाली और उत्तम पुत्र वाली और पुत्र वधू वाली शचि ! तुम्हारे ये पति इन्द्र वीर्य दान करने नें समर्थ पशु ( बैल) को शीघ्र खाऐं। और तुम्हें सुख कर हवि प्रदान करें । तुम्हारे पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं।१३ ।

॥१४-अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः= वृषभान् "साकं= सह मम भार्ययेन्द्राण्या। प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति =। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव =“इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा= उभौ “कुक्षी “पृणन्ति= सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥

इसके बाद इन्द्र कहता है।  मेरी पत्नी इन्द्राणी द्वारा भेजे हुए याज्ञिक   पन्द्रह से बीस बैलों( वृषभों) को एक साथ पकाते हैं। और उन्हें  मैं  इन्द्र खाता हूँ । तथा उन्हें खाकर मोटा होता हूँ।मेरी मैंने कोशों को यज्ञ करने वाले सोम रस से भरते हैं। वह मैं इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हूँ।१४।

१५-अथेन्द्राणी ब्रवीति ।"{तिग्मशृङ्गः =तीक्ष्णशृङ्गः शेप: वा} "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः =मध्ये “रोरुवत्= शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति- (मैथुन करोति) तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमय इति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते =तव "हृदे हृदयाय "मन्थः =दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥१५ ॥

"अनुवाद :-

इसके बाद इन्द्राणी कहती है कि हे  इन्द्र! जैसे तेज लिंग या सींगों वाला वृषभ गायों के समूह के बीच  में आवाज करता हुआ प्रसन्न होता है। वैसे ही तुम मेरे साथ रमण( सैक्स ) करो । तुम्हारे हृदय के लिए दधिमन्थन के सयय में शब्द करता हुआ  कल्याण कारी हो। तुम्हारे लिए इन्द्राणी भावाभिलाषिणी जिस सोम को अभिषुत करती है। वह सोम भी कल्याण कारी हो । मेरे पति समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१५।

१६- हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् =शेपः “सक्थ्या= सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते= लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे =मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "=विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥

अश्लील अर्थ-

"अनुवाद :-

हे इन्द्र वह मनुष्य  कभी मैथुन नहीं कर सकता  , जिस पुरुष का लिंग जंघाओं के बीच में लम्बा होकर लटक जाता है। वही पुरुष स्त्री के साथ मैथुन कर सकता है  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग विस्तृत हो जाता है। इन्द्राणी का पति इन्द्र समस्त जगत में श्रेष्ठ हैं ।१६।

न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते । सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥

(अथर्ववेद में भी  - काण्ड » 20; सूक्त » 126; ऋचा » 16 है।

सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) लिंग (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए  हुए]पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला लिंग।(विजृम्भते) जम्हाई लेता है फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥

सक्थि= उरु( जाँघ) (सज्यते इति । सन्ज सङ्गे + “ असिसञ्जिभ्यां क्थिन् ।  “ उणा० ३ । १५४ । क्थिन् । )  ऊरुः ।  इत्यमरः कोश ॥  (यथा   मार्कण्डेये ।  १८ ।  ४९ । “ नृणां पदे स्थिता लक्ष्मीर्निलयं संप्रयच्छति । सक्थ्नोश्च संस्थिता वस्त्रं तथा नानाविधं वसु ॥ ) शकटावयवविशेषः । इत्युणादिकोषः ॥

सक्थि शब्द यूरोपीय तथा ईरानी ईराकी भाषाओं में भी है।

Etymology-

From Proto-Indo-Iranian *sáktʰiš,(सक्थि) from Proto-Indo-European *sokʷHt-i-s (“thigh”). Cognate with Avestan 𐬵𐬀𐬑𐬙𐬌‎ (haxti, “thigh”), Old Armenian ազդր (azdr), Middle Persian [script needed] (h(ʾ)ht' /⁠haxt⁠/, “thigh”), Ossetian агъд (aǧd), Hittite [Term?] (/⁠šakuttai⁠/).

Noun-

सक्थि  (sákthin

  1. the thigh, thigh-bone quotations 
  2. the pole or shafts of a cart
  3. (euphemistic, in the dual) the female genitals quotations 

Declension-

Neuter i-stem declension of सक्थि (sákthi)

Further reading

कपृत्- लिंग![संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "लिंग।"
 < रोमश[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, नपुंसकलिंग"वल्व =गर्भे (उल्व- यौनि भग)
"अनुवाद :-वह मनुष्य मैथुन नहीं कर सकता  जिस लेटे हुए पुरुष का लिंग लटक जाता है।किन्तु वही मनुष्य मैथुन कर सकता है जिस मनुष्य का लिंग जंघाओं के बीच में  अकड़ता जम्हाई लेता है।

शेष अर्थ पूर्ववत् है। यहाँ पूर्वोक्त का अन्तर  देखने योग्य है। पहली ऋचा में इन्द्राणी इन्द्र से कहती है। और उस दूसरी ऋचा में इन्द्र इन्द्राणी से कहता है। इस प्रकार दौंनों में कोई विरोध नहीं है।१७। कामशास्त्र की खुलकर वार्ता है।

अर्थ:- (वृषभः-न तिग्मशृङ्गः) जैसे तीक्ष्ण शृङ्गवाला वृषभ-साँड (यूथेषु-अन्तः-रोरुवत्) गोसमूहों के अन्दर बहुत शब्द करता है, तथा वैसे (इन्द्र) हे इन्द्र  (ते मन्थः) तेरा मन्थन व्यापार  (हृदे शम्) हृदय के लिये कल्याणकारी हो (तं यं भावयुः-सुनोति) उस जिस पुत्र को आत्मभाव चाहनेवाली अपनानेवाली इन्द्राणी उत्पन्न करती है (न सः-ईशे) वह नहीं स्वामित्व करता है, न ही (यस्य कपृत्) जिसका लिंग (सक्थ्या-अन्तरा लम्बते) दोनों  जङ्घाओं के मध्य में लम्बित होता लटकता है (स-इत्-ईशे) वह ही समर्थ होता है (यस्य निषेदुषः) जिस निकट शयन करते हुए का (रोमशं विजृम्भते) रोमोंवाला लिंग  विजृम्भन करता है-फड़कता है (न सः-ईशे) वह मैथुन  नहीं कर सकता है (यस्य निषेदुषः-रोमशं विजृम्भते) जिसके निकट शयन किये हुए रोमोंवाला अङ्ग फड़कता है (सः-इत्-ईशे) वह ही गृहस्थकर्म पर अधिकार रखता है (यस्य सक्थ्या-अन्तरा कपृत्-लम्बते) जिसके निकट शयन करने पर -जङ्घाओं के बीच में लिंग विजृम्भित होता है, वह ही स्त्रीयोंपर अधिकार कर पाता  है ॥१७॥

शृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः शृङ्गार इष्यते ॥

शृङ्ग= न॰ शॄ--गन् पृषो॰ मुम् ह्रस्वश्च।
१ पर्वतोपरिभागेसातौ अमरः कोश।
२ प्रभुत्वे
३ चिह्ने
४ जलक्रीडार्थयन्त्रभेदे(पिचकारी) लिङ्गे च। यूरोपीय  रूप सिरञ्ज- syringe से साम्य- दीनां विषाणे (शृङ्गा)
६ उत्कर्षे चमेदि॰।
७ ऊर्ये
८ तीक्ष्णे
९ पद्मे च शब्दर॰
१० महिष- शृङ्गनिर्मितवाद्यभेदे (शिङ्ग)
११ कामोद्रेके साहित्यदर्पण- शृङ्गार शब्दे दृश्यम्।
१२ कूर्चशीर्षकवृक्षे पु॰ मेदिनीकोश।

syringe (noun) (latin-suringa)  (Greek-syringa,)

सिरिंज (संज्ञा) संकीर्ण ट्यूब," जो"तरल  धारा इंजेक्ट करने के लिए 15-वीं सदी की शुरुआत में.प्रयोग होता था (पहले यह  सुरिंगा, 14वीं सदी के अंत में था), जो लेट लैटिन के (सिरिंज,)(श्रृंगा-) से ग्रीक के  (सिरिंज,) सिरिंक्स से आया।

"ट्यूब, होल, चैनल, शेफर्ड पाइप," सिरिजिन से संबंधित "पाइप, सीटी, फुसफुसाहट के लिए" ,'' श्रृँग - सींग -से सम्बन्धित हैं।

१८ हे  “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं= हिंसितं “विदत् =विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं =शस्त्रं "सूनाम्= उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं =भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “{एधस्य काष्ठस्य} “आचितं पूर्णम् "अनः =शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥

बैल पकाने का जिक्र-

−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (अयं वृषाकपिः) यह वृषाकपि-है।(परस्वन्तं हतं विदत्) वराहयु-वन्य कुत्ते को मार सका (असिम्) काटनेवाले शस्त्र तलवार को (सूनाम्) वधस्थान को (नवं चरुम्)  नव अन्न हवि को (आत्) अनन्तर और (एधस्य-आचितम्-अनः) जलाने के लिये ईंधन के भरे शकट-छकड़े को इन हत्या के साधनों को अपने अधीन कर लिया, ॥१८॥

______________________

"अनुवाद : भाष्य-

 ॥१९-अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम्= उपक्षपयितारम् {सुरम्= "आर्यम् }अपि च "विचिन्वन् = पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि= यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति =पाकः । सुनोतीति =सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम्= अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः॥

"अनुवाद :-भाष्य-

॥२०"धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः-- ‘यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


२१-आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२२-गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र= परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन =आगच्छ ।

एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् =अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

२३-इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । ("पर्शुः "नाम मृगी) । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं= सह "ससूव= अजीजनत् । "त्यस्यै =तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् =भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या

 "उदरमामयत्= गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

"अनुवाद :-भाष्य-

Yima (Yama) – the first mortal king to have ruled. He was favored by the gods and given supernatural powers. When the population grew too large, he enlarged the world and also saved the world when the gods informed him a bitter winter was coming and he enclosed animals, vegetation, and seeds in a giant barn (a tale preceding the biblical narrative of Noah and his Ark) to preserve life. He fell from divine grace when he began to think more highly of himself than he should have. Even so, for his virtuous service, he was made Lord of the Dead, and the afterlife was initially known as Yima's Realm.


Jamshid (Jam, Yima Kshaeta) – the fourth king of the world who brought civilization to its greatest height, initiated the construction of cities, established social hierarchy, and introduced winemaking. According to one part of his legend, Jamshid banished a woman of his harem who, in attempting to commit suicide afterwards, drank a bottle of fermented grape juice thinking it was poison. When she found it produced pleasing sensations, she brought the rest to Jamshid who reinstated her and decreed that grapes should be used in making wine.

Indar – the early god of courage, bravery, heroism, and warfare.

Indra – the demon of apostasy who encouraged the abandonment of religious practice and true faith.

Haoma सोम:– god of the harvest, health, strength, and vitality; personification of the haoma plant whose juices brought enlightenment and of which Gaokerena was the greatest and largest.

Daevas व- – the mostly male demons in the service of Angra Mainyu who spread lies and disorder in the world. They are the sworn enemies of the Amesha Spentas and all that is good and work closely with the drujs who are mostly female demons.

Dev – demon of war and the terror of war, one of the most powerful daevas, completely lacking in morality or compassion.

Atar अत्रि- – the god of fire who is also the personification of fire and physically present when fires are lighted. He is associated with light, righteousness, and purity.


 
 हित्ती पौराणिक कथा - , हुर्रियन और हित्ती प्रभावों का मिश्रण है । मेसोपोटामिया( ईरान ईराॐ और कनानी प्रभाव हुर्रियन पौराणिक कथाओं के माध्यम से अनातोलिया की पौराणिक कथाओं में प्रवेश करता हैं। हित्ती निर्माण मिथक क्या रहा होगा, इसका कोई ज्ञात विवरण नहीं है, लेकिन विद्वानों का अनुमान है कि हिट्टियन मातृ देवी, जिसे नवपाषाण स्थल कैटालहोयुक से ज्ञात "महान देवी" अवधारणा से जुड़ा माना जाता है , अनातोलियन तूफान की पत्नी हो सकती है। भगवान (जो थोर , इंद्र और ज़ीउस जैसी अन्य परंपराओं के तुलनीय देवताओं से संबंधित माना जाता है )।

यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को "एण्ड्रीज" (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है । जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।

  🌅⛵ 

Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia।

Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros .... 

अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था । जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ 

पेनिस - लिंगेन्द्रीय का वाचक है। _____________________________

"डायोडॉरस के अनुसार .." ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas) रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था । रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था । 

ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus) के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण करता है।

जो अपॉलो का पुजारी था  परन्तु पूर्व कथन सत्य है । ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ शक्ति-शाली पुरुष है । जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner) शब्द से हुई है ।

जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है। संस्कृत भाषा में{ अन् =श्वसने प्राणेषु च }के रूप में  वैदिक कालीन धातु विद्यमान है ।

जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ है।

कालान्तरण में वैदिक  भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ .... वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है । फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।

परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है  इनदर है। वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है।यह सर्व विदित है।

वृत्र को केल्टिक माइथॉलॉजी मे (ए-बरटा) ( Abarta ) कहा है । जो वहाँ दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है । 

इन्द्रस् देवों का नायक अथवा यौद्धा था ।

भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है।

 शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु का पुत्र कहा है । जिसे इन्द्र मारता है । ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं । यद्यपि कालान्तरण में सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ।

अत: कालान्तरण में भी जब देवोपासक  भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी।

 भारत में भी यूरोप से आगत सुरों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है । और नरक दक्षिण में है ।

स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ... और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ।

नॉर्स माइथॉलॉजी के ग्रन्थ प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है। 

यमीर यम ही यूरोपीय रूपान्तरण है । हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए आज भी यथावत है। 

नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" _______________________________

 (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है। यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए .. ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी । वहाँ यम को यम रूप में ही नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है। 

जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी 

बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाऐं करते रहे .

पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था । आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ।

मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे ! मेन्नुस mannus( थौथा) (त्वष्टा)--(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे ! 

मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस (tacitus) के अनुसार---- Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones .... ____________________________________ in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations- Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania ____________________________________________

Chapter 2 ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था । जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch) था । जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव ही है ।

 टेकिटिस लिखता है , कि Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples...... ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto--- The Core meaning -- double अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में  मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था । ____________________________________

आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे । यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए 

इन्हीं की उपशाखाऐं  वेल्स (wels) केल्ट (celt )तथा ब्रिटॉन (Briton )के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र  का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है। जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .

Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।

 वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।

जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।

 क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है । यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है । 

बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ । 

आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।

भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है। 

और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के ऐंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे। जिसके नाम से भारत शब्द बना।

इस लिए द्रविड और शूद्र शब्द भी यूरोपीय मूल के हैं।

आर्य द्रविड और शूद्र थ्योरी सत्यनिष्ठ नहीं है।

दिया. इसलिए अधिकतर लोग संस्कृत भाषा बोलने लगे.

संस्कृत बोलने वाले सीरिया के इस साम्राज्य के बारे में पहले जानते थे।

इंडो-आर्यन परम्परा में . इन्द्र नाम की सबसे पुरानी तारीख़ी घटना 14-वीं सदी ईसापूर्व की बोगाज़कोय की प्रसिद्ध हित्ती-मितानी संधि में है। हां मितन्नी( मितज्ञु) दैवीय गवाहों के रूप में मित्र-वरुण, इंद्र और नासत्य का आह्वान करते हैं 

यह सन्देश कीलाक्षर लिपि में है। जो उस समय सुमेर की लिपि थी।

मितन्नी "एमोराइट-(मरुत) तथा हित्ती ये सुमेरियन जातियाँ थी।

यदु और तुर्वसु को जब पुरोहितों ने नहीं छोड़ा तो उनके वंशज कृष्ण को कैसे छोड़ के।

वेदों में यदु और तुर्वसु का नकारात्मक वर्णन-
स॒त्यं तत्तु॒र्वशे॒ यदौ॒ विदा॑नो अह्नवा॒य्यं ।  व्या॑नट् तु॒र्वणे॒ शमि॑ ॥२७।
(ऋग्वेद 8/45/27) 
(पद-पाठ)
स॒त्यम् । तत् । तु॒र्वशे॑ । यदौ॑ । विदा॑नः । अ॒ह्न॒वा॒य्यम् ।
वि । आ॒न॒ट् । तु॒र्वणे॑ । शमि॑ ॥२७।।
(सायण-भाष्य)
“तुर्वशे राज्ञि “यदौ च यदुनामके च राज्ञि “तत् प्रसिद्धं यागादिलक्षणं “शमि कर्म  शची शमी' इति कर्मनामसु पाठात् । "सत्यं परमार्थं "विदानः जानंस्तयोः प्रीत्यर्थम् अह्नवाय्यम् अह्नवाय्यनामकं तयोः शत्रुं 
“तुर्वणे= संग्रामे “व्यानट्= व्याप्तवान् ।।
(पद का अर्थान्वय)
_________
अग्निना । तुर्वशम् । यदुम् । पराऽवतः । उग्रऽदेवम् । हवामहे ।   अग्निः । नयत् । नवऽवास्त्वम् । बृहत्ऽरथम् । तुर्वीतिम् । दस्यवे । सहः ॥१८।।
(सायण-भाष्य)
“अग्निना सहावस्थितान् तुर्वशनामकं यदुनामकम् उग्रदेवनामकं च राजर्षीन् "परावतः =दूरदेशात् "हवामहे =आह्वयामः ।                                  स च "अग्निः नववास्तुनामकं बृहद्रथनामकं तुर्वीतिनामकं च राजर्षीन् "नयत्= इहानयतु । कीदृशोऽग्निः ।                                       "दस्यवे "सहः अस्मदुपद्रवहेतोश्चोरस्याभिभविता ॥{ नयत् । ‘णीञ् प्रापणे'। लेटि अडागमः  इतश्च लोपः' इति इकारलोपः  } नववास्त्वम् । नवं वास्तु यस्यासौ नववास्तुः । ‘ वा छन्दसि' इत्यनुवृत्तेः अमि पूर्वत्वाभावे यणादेशः । बृहद्रथम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥
________________________________
प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः । नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
 हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण  करने वाले उनका नाश करने  बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद-7/19 /8)

हे "मघवन्= धनवन्निन्द्र “ते =तव "अभिष्टौ =अभ्येषणे "नरः =स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः =प्रियाश्च सन्तः “शरणे ="इत् गृह एव “मदेम= मोदेम ।                    किञ्च “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । 

तस्मै सुदासे दिवोदासाय= वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं= शंसनीयं सुखं "करिष्यन् =कुर्वन् 
"तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि =वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

सायण-भाष्यम् :-
तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र ‘अया वीती' इति त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अमहीयुर्नामाङ्गिरस ऋषिः । गायत्री छन्दः । पवमानः सोमो देवता । तथा चानुक्रान्तम्- अया वीती त्रिंशदमहीयुः' इति । उक्तो विनियोगः ॥

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इंदो॒ मदे॒ष्वा ।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ ॥१।।
पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
(ऋग्वेद9/61/1-2)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।
पदपाठ-
अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ ।
अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥१।।

(सायण-भाष्य)
हे “इन्दो= सोम “अया =अनेन रसेन “वीती= वीत्या इन्द्रस्य भक्षणाय “परि “स्रव =परिक्षर । कीदृशेन रसेनेत्यत आह । “ते= तव “यः रसः “मदेषु= संग्रामेषु “नवतीर्नव इति नवनवतिसंख्याकाश्च शत्रुपुरीः “अवाहन =जघान  अमुं सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्र उक्तलक्षणाः शत्रुपुरीर्जघानेति कृत्वा रसो जघानेत्युपचारः ॥

_____________________________________
पुरः॑ स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शंब॑रं ।अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदुं॑ ॥२।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तानों तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन अथवा (वश) में किया ।२।

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒त्थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् ।
अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥२।
(पद का अर्थान्वय)
 (इत्थाधिये दिवोदासाय) दिवोदास के लिए(शम्बरम्) शम्बर को (त्यम् तुर्वशम् यदुम्) और यदु और तुर्वसु को (अध) (पुरः) पुर को ध्वंसन करो ॥२॥

(ऋग्वेद9/61/1-2)

“सद्यः एकस्मिन्नेवाह्नि “पुरः =शत्रूणां पुराणि सोमरसोऽवाहन् । “इत्थाधिये सत्यकर्मणे “दिवोदासाय राज्ञे “शम्बरं शत्रुपुराणां स्वामिनम् "अध अथ =“त्यं तं “तुर्वशं तुर्वशनामकं राजानं दिवोदासशत्रुं “यदुं यदुनामकं राजानं च वशमानयञ्च । 

अत्रापि सोमरसं पीत्वा मत्तः सन्निन्द्रः सर्वमेतदकार्षीदिति सोमरसे कर्तृत्वमुपचर्यते ॥

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों के रूप में सम्भवत: वैदिक सन्दर्भ में दास - दाता का वाचक रहा परन्तु लोकिक संस्कृत में दास पराधीन और गुलाम का वाचक रहा जो शूद्र वर्ण में सम्मिलित किए गये।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी   " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

(ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ   नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि   अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७

हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन (शमन) कर डाला ।

अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो 

_____________________________

शतमहं तिरिन्दिरे सहस्रं पर्शावा ददे ।
राधांसि याद्वानाम् ॥४६॥(ऋग्वेद ८/६/४६)

(सायण-भाष्य)
इदमादिकेन तृचेन तिरिन्दिरस्य राज्ञो दानं स्तूयते । “पर्शौ परशुनाम्नः पुत्रे । उपचारज्जन्ये जनकशब्दः । “तिरिन्दिरे एतत्संज्ञे राजनि “याद्वानाम् । यदुरिति मनुष्यनाम । यदव एव याद्वाः । स्वार्थिकस्तद्धितः । तेषां मध्ये “अहं “शतं शतसंख्याकानि “सहस्रं सहस्रसंख्याकानि च “राधांसि धनानि “आ “ददे स्वीकरोमि । यद्वा । याद्वानां यदुकुलजानामन्येषां राज्ञां स्वभूतानि राधांसि बलादपहृतानि तिरिन्दिरे वर्तमानान्यहं प्राप्नोमि ।।

त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ।
ददुष्पज्राय साम्ने ॥४७॥ऋग्वेद ८/६/
_______________________________
त्रीणि॑ श॒तान्यर्व॑तां स॒हस्रा॒ दश॒ गोना॑म् ।
द॒दुष्प॒ज्राय॒ साम्ने॑ ॥४७।।

सायण-भाष्य-
पूर्वस्यामृचि स्वसंप्रदानकं दानमुक्तम् । अधुनान्येभ्योऽप्यृषिभ्यस्तिरिन्दिरो बहु धनं दत्तवानित्याह । 

“अर्वतां गन्तॄणामश्वानां “त्रीणि "शतानि "गोनां गवां “दश दशगुणितानि "सहस्रा सहस्राणि च "पज्राय स्तुतीनां प्रार्जकाय “साम्ने एतत्संज्ञायर्षये । यद्वा । साम्ने । साम स्तोत्रम् । तद्वते पज्राय पज्रकुलजाताय कक्षीवते । “ददुः तिरिन्दिराख्या राजानो दत्तवन्तः ।।

उदानट् ककुहो दिवमुष्ट्राञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ॥४८॥(ऋग्वेद ८/६/४८)

उत् । आ॒न॒ट् । क॒कु॒हः । दिव॑म् । उष्ट्रा॑न् । च॒तुः॒ऽयुजः॑ । दद॑त् ।
श्रव॑सा । याद्व॑म् । जन॑म् ॥४८।।
सायण-भाष्य-
अयं राजा “ककुहः उच्छ्रितः सन् “श्रवसा कीर्त्या “दिवं स्वर्गम् "उदानट् उत्कृष्टतरं व्याप्नोत् । किं कुर्वन् । "चतुर्युजः चतुर्भिः स्वर्णभारैर्युक्तान् “उष्ट्रान् “ददत् प्रयच्छन् । तथा “याद्वं “जनं च द्रासत्वेन प्रयच्छन् ॥ ॥ १७ ॥
__________   

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
___________________________________
त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीरृ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः ।
प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२।।

पदपाठ-
त्वम् । धुनिः । इन्द्र । धुनिऽमतीः । ऋणोः । अपः । सीराः । न । स्रवन्तीः ।
प्र । यत् । समुद्रम् । अति । शूर । पर्षि । पारय । तुर्वशम् । यदुम् । स्वस्ति ॥१२

हे "इन्द्र “धुनिः शत्रूणां कम्पयिता “त्वं “धुनिमतीः धुनिर्नामासुरो यासु निरोधकतया विद्यते ताः “अपः उदकानि "सीरा “न नदीरिव “स्रवन्तीः प्रवहन्तीः “ऋणोः अगमयः ।
धुनिं हत्वा तेन निरोधितान्युदकानि प्रवाहयतीत्यर्थः ।
______________________
 हे “शूर वीरेन्द्र “यत् यदा “समुद्रम् “अति अतिक्रम्य “प्र “पर्षि प्रतीर्णो भवसि तदा समुद्रपारे तिष्ठन्तौ “तुर्वशं “यदुं च "स्वस्ति क्षेमेण “पारय अपारयः । समुद्रमतारयः ।।
अनुवाद:-
हमारे कल्याण के लिए यदु और तुर्वसु को समुद्र के दूसरी पार करते हो। अर्थात्  क्यों पुरोहितों को आशंका है कि ये दौंनों कहीं आँखों के सामने न रहें।

__________________________________

"य आनयत्परावतः सुनीती तुर्वशं यदुम् ।
इन्द्रः स नो युवा सखा ॥१॥

 (ऋग्वेद-6/45/1)
इन्द्रः॑। सः। नः॒ । युवा॑। सखा॑ ॥१
यः । आ । अनयत् । पराऽवतः । सुऽनीती । तुर्वशम् । यदुम् ।
यः इन्द्रः "तुर्वशं “यदुं चैतत्संज्ञौ राजानौ शत्रुभिर्दूरदेशे प्रक्षिप्तौ “सुनीती सुनीत्या शोभनेन नयनेन “परावतः तस्माद्दूरदेशात् “आनयत् अनीतवान् “युवा तरुणः “सः “इन्द्रः “नः अस्माकं “सखा भवतु ।।

पदों का अर्थ:-(यः) जो (युवा) जवानी युक्त (इन्द्रः) इन्द्र देव (सुनीती) सुन्दर न्याय से (परावतः)- दूरदेशात्  दूर देश से भी  -परा+अव--वा० अति । १ दूरदेशे निघण्टुः (तुर्वशम्)  तुर्वसु को  (यदुम्) यदु को (आ) सब प्रकार से (अनयत्) लङ्(अनद्यतन भूत) वह इन्द्र ले गया । (सः) वह (नः) हम लोगों का (सखा) मित्र हो ॥१॥

ऋग्वेद 6.45.1 व्याकरण का अंग्रेजी विश्लेषण]

य < यः < यद्[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"
अनयत ्<  < √ नी [क्रिया], एकवचन, अपूर्ण" वापस करना; निकालना; निकालना।"

परावतः < परवत्[संज्ञा], विभक्ति, एकवचन, स्त्रीलिंग"दूरी; ।"
सुनीति < सुनीति [संज्ञा], अच्छी नीति, एकवचन, स्त्रीलिंग“सुनीति।”
तुर्वश< तुर्वशुम्< 

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

यदुम् < यदु

[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“यदु; यदु।” इंद्रः < इंद्र

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

सा < तद् [संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग

"यह; वह, वह, यह (निरर्थक सर्वनाम); संबंधित(ए); वह; कर्तावाचक; तब; विशेष(ए); संबंधकारक; वाद्य; आरोपवाचक; वहाँ; बालक [शब्द]; संप्रदान कारक; एक बार; वही।"

नहीं < नः <हमको

[संज्ञा], संबंधवाचक, बहुवचन"मैं; मेरा।"

युवा < युवान[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग "युवा; युवा।”
सखा < सखी

[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग; साथी; सखी [शब्द]।”

"उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥
हे इन्द्र ! उन दौंनों यदु और तुर्वसु को तुमने बन्धी बनाया और दूर समुद्र पार कर दिया। विद्वान इसे जानते हैं।१७।
पदों के अर्थ:-
उत अपि च "अस्नातारा= अस्नातारौ।  इन्द्रेण परिबद्धौ "त्या =त्यौ तौ= तौ द्वे । “तुर्वशायदू तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ “शचीपतिः= शचीन्द्रस्य भार्या । 
तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् -सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत्=  पारे दूरे अकरोत् - पार दूर कर दिया।
____________________
ऋग्वेदः सूक्तं ४,/३०/१७

ष्णै- धातु के रूप द्विवचन वैदिक रूप अस्ना तारा- दौंनों  को बाँध दिया।
जबकि ष्ना- स्ना धातु का भी यही समान  अनद्यतन भूत काल का रूप  सेना धातु का वैदिक है।
अत: अनुवादक भ्रमित हैं कि स्नातारा- स्नान अर्थ में है। जबकि ष्णै- बन्धने वेष्टने वा। वेष्टन= घेरने या लपेटने की क्रिया या भाव है।

क्यों कि पूर्वी ऋचाओं में यदु और तुर्वसु को अपने वश में करने लिए ब्राह्मण पुरोहित इन्द्र से निरन्तर प्रार्थना करते हैं ।
फिर इन्द्र कि द्वारा यदु और तुर्वशु में एक का ही राज्याभिषेक होना चाहिए । परन्तु यहाँ यदु-तुर्वसु दौंनों का राज्याभिषेक कैसे हो सकता है ? अत: अस्नातारा= ष्णै = वैष्टने धातु का  लङ्(अनद्यतन भूत)का वैदिक द्विवचन रूप है। जिसका अर्थ है दौंनों को बाँध लिया लपेट लिया।

लुट्(अनद्यतन भविष्यत् ष्णै=बन्धने वेष्टने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

दोनों धातुओं के समान रूप होने से अर्थ भ्रान्ति होना स्वाभाविक ही है।
लुट्(अनद्यतन भविष्यत् - ष्ना= शुचौ स्नाने वा" )
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःस्नातास्नातारौस्नातारः
मध्यमपुरुषःस्नातासिस्नातास्थःस्नातास्थ
उत्तमपुरुषःस्नातास्मिस्नातास्वःस्नातास्मः

कृष्ण की अवधारणा भारत है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के मोहन -जोदारो में कृष्ण की बाल लीला सम्बन्धी भित्ति चित्र है।

वेदों में इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णित है।

अथर्ववेद-(20/137/7)
ऋषिः - तिरश्चीराङ्गिरसो द्युतानो वा
देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् । सूक्तम् - (१३७)
"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः। आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥
(इयानः) =चलता हुआ (अंशुमतीम्)=  यमुना नदी को । अव अतिष्ठत्= ठहरा है। (नृमणाः= नर  के समान मन वाले (इन्द्रः) इन्द्र  ने (तम् धमन्तम्) उस हाँफते हुए को (शच्या) शचि के साथ  (आवत्)-युद्ध किया ।
लङ्(अनद्यतन भूत)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःआवत्=युद्ध किया 
(स्नेहितीः) स्नेहयुक्त (अप अधत्त) हटा लिया है ॥७॥
टिप्पणी:-
(धमन्तम्) =उच्छ्वसन्तम्।  पराभवेन दीर्घंश्वसन्तम्- उसास लेते हुए को।  (स्नेहितीः) स्नेहतिः स्नेहतिर्वधकर्मा-निघ० २।१९। स्वकीया मारणशीलाः सेनाः (नृमणाः) नेता के समान मन वाले- नेतृतुल्यमनस्कः (अप अधत्त) -दूर हटा दिया-दूरे धारितवान् -निवर्तितवान् ॥

ऋग्वेद प्रथम एवम् अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन सायण भाष्य सहित-

ऋग्वेदः सूक्तं १.१०१
कुत्स आङ्गिरसः
देवता- इन्द्रः( १ गर्भस्राविण्युपनिषद्)। जगती, ८-११ त्रिष्टुप्

"प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥(ऋ०१/१०१/१)
_________________________________
सायण का अर्थ-
हे ऋत्विजो ! स्तुति योग्य उन इन्द्र के लिए हवि रूप अन्न से युक्त स्तुति रूप वचन का उत्कृष्टता से उच्चारण करो !  जिन इन्द्र ने ऋजिश्वा नामक मित्र राजा के साथ कृष्ण नानक असुर के द्वारा गर्भवती उसकी स्त्रीयों का वध  किया था। अर्थात् कृष्ण नामक असुर को मारकर  उसके पुत्रों का जन्म न होने देने के लिए ही उसकी गर्भवती स्त्रियों का भी इन्द्र ने बध कर दिया था । रक्षा पाने के इच्छुक हम कामनाओं की वर्षा करने वाले और वज्र युक्त दक्षिण हाथ वाले मरुतों से युक्त उन इन्द्र का मित्रता के लिए आह्वान करते हैं।यहाँ मूल ऋचा में कृष्ण के लिए असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने असुर विशेषण अपनी तरफ से जोड़ दिया है।

आंध्र " को " इंद्र " से लिया जाना चाहिए, जैसा कि फ़्रेंच में " आंद्रेई " है।
वह वज्र के नाम से जाना जाने वाला बिजली का वज्र धारण करता है और ऐरावत नामक सफेद हाथी पर सवार होता है। इंद्र सर्वोच्च देवता हैं और अग्नि के जुड़वां भाई हैं और उनका उल्लेख अदिति के पुत्र आदित्य के रूप में भी किया गया है। उनका घर स्वर्ग में मेरु पर्वत पर स्थित है।

इंद्र पारसी धर्म में एक देवता के नाम के रूप में प्रकट होता है । उन्हें बर्मीज़ में ðadʑá mɪ́ɴ , थाई में พระอินทร์ (Phra In), मलय में Indera, तेलुगु में ఇంద్రుడు (Indrudu), तमिल में இந்தி के नाम से जाना जाता है। ரன் (इंथिरन), चीनी में 帝释天 (दिशितिआन), और में जापानी के रूप में 帝釈天 (ताईशाकुटेन)।
वह वज्रपाणि से जुड़े हैं - मुख्य धर्मपाल या बुद्ध, धर्म और संघ के रक्षक और रक्षक जो पांच ध्यानी बुद्ध की शक्ति का प्रतीक हैं।

एक देवता के रूप में इंद्र अन्य इंडो-यूरोपीय देवताओं के सजातीय हैं; वे या तो थोर, पेरुन और ज़ीउस जैसे गरजने वाले देवता हैं, या डायोनिसस जैसे नशीले पेय के देवता हैं। मितन्नी के देवताओं में इंद्र (इंदारा) के नाम का भी उल्लेख किया गया है, जो एक हुरियन-भाषी लोग थे जिन्होंने लगभग 1500BC-1300BC तक उत्तरी सीरिया पर शासन किया था।

ऋग्वेद संहिता की ऋचाएँ वैदिक साहित्य के सबसे पुराने और जटिल साहित्य का प्रतिनिधित्व करती हैं। 
(ऋग्वेद 1.101.1)

"प्र मंदिने पितुमद अर्चता वाको यः कृष्णगर्भा निर्हन्न ऋषिस्वना | अवस्यावो विष्वाणं वज्रदक्षिणं मारुतवन्तं सख्यय हवामहे। (ऋग्वेद १/१०१/१)
अनुवाद:-
“जो प्रसन्न है (प्रशंसा के साथ), उसे आहुतियों के साथ प्रणाम करो, जिसने ऋषिस्वन के साथ, कृष्ण की मूर्ति को नष्ट कर दिया ; सुरक्षा की इच्छा से, हम अपने मित्र बनने के लिए उसकी मांग करते हैं, जो (लाभों का) दाता है, जो अपने दाहिने हाथ में वज्र रखता है , उसकी देखभाल मारुति करता है।

सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य-
ऋजिश्वान एक राजा और इंद्र का मित्र था ; कृष्ण एक असुर थे, जिनमें उनके स्त्रियों की भी हत्या कर दी गई थी, ताकि उनका कोई भी संतान जीवित न रह सके। 

व्याकरणिक टिप्पणी:-
 प्र=
[विशेषक्रिया]
"की ओर; आगे।"
मंदिने=
[संज्ञा], मूलवाचक, एकवचन, पुल्लिंग
“नशीला पदार्थ; ताज़ा करने वाला।”

पितुमद < पितुमत्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग
"आहार।"

अर्चता= अर्च्-स्तुतौ-
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान अनिवार्यता

"गाओ; पूजा करना; सम्मान; प्रशंसा; स्वागत।"

वचो < वाचः < वचस्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"कथन; आज्ञा; भाषण; शब्द; सलाह; शब्द; आवाज़।"

यः < यद्
[संज्ञा], कर्तावाचक, एकवचन, पुल्लिंग
"कौन; कौन सा; यत् [सर्वनाम]।"

कृष्ण < कृष्ण
[संज्ञा]

कृष्णगर्भ < गर्भः < गर्भ
[संज्ञा], कर्मवाचक, बहुवचन, स्त्रीलिंग

“भ्रूण; गर्भ; अंदर; गुला; भ्रूण; गर्भ; बच्चा; ; गर्भाद्रुति; उत्तर; गर्भावस्था; यार; पेट; निशेचन; अंदर; उधेड़; बच्चा; द्रवपुंज; बीच" स्त्री

निर्हन्न < निर्हन्न < निर्हन्न < √हन्
[क्रिया], एकवचन, मूल सिद्धांतकार (इंड.)

ऋजिस्वान < ऋजिस्वान
[संज्ञा], वाद्य, एकवचन, पुल्लिंग

ऋजिस्वान्।”

अवस्यावो < अवस्यावः < अवस्यु
[संज्ञा], कर्तावाचक, बहुवचन, पुल्लिंग

“सुरक्षा की मांग करना; मजबूरन

विश्णम् < विश्णम् < विश्णम्
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

"साँड़; इंद्र; घोड़ा; विश्णु; आदमी।"

वज्रदक्षिणम् < वज्र
[संज्ञा], पुल्लिंग

“वज्र; वज्र; वज्र; वज्र; बिजली चमकाना; अभ्र; वज्रमुषा; हीरा; वज्र [शब्द]; वज्रकपात; वज्र; वैक्रान्त।"

वज्रदक्षिणम् < दक्षिणम् < दक्षिणा
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“दक्षिणी; सही; दक्षिण; दक्षिण दिशा में; दक्षिणा [शब्द]; ईमानदार; दक्षिणवर्त; चतुर्।"

मरुतवंतं < मरुतवंतम् < मारुतवंत
[संज्ञा], कर्म कारक, एकवचन, पुल्लिंग

“इंद्र; मेरुवंत [शब्द]।"

साख्य < साख्य
[संज्ञा], संपुष्टकारक, एकवचन, नपुंसकलिंग

"दोस्ती; सहायता; कंपनी।"

हवामहे < ह्वा
[क्रिया], बहुवचन, वर्तमान सूचक
"उठाना; अपील करना; बुलाना; बुलाओ।"

यो व्यंसं जाहृषाणेन मन्युना यः शम्बरं यो अहन्पिप्रुमव्रतम्।                                        इन्द्रो यः शुष्णमशुषं न्यावृणङ्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥२॥

यस्य द्यावापृथिवी पौंस्यं महद्यस्य व्रते वरुणो यस्य सूर्यः ।                                              यस्येन्द्रस्य सिन्धवः सश्चति व्रतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥३॥
सामवेदः -कौथुमीया/संहिता -ग्रामगेयः-प्रपाठकः १०-वैरूपम्

सामवेदः‎ - कौथुमीया‎ - संहिता‎ - ग्रामगेयः‎ - प्रपाठकः १०
:32 वैरूपम्.-
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना ।
अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हुवेमहि ।। ३८० ।। तथा  ऋग्वेद १/१०१/१

(३८०।१) ।। वैरूपम् । विरूपो जगतीन्द्रो मरुत्त्वान्।
प्रमंदाऽ२३४इने ।। पितुमदाऽ३र्च्चाऽ३तावचः । यःकाऽ३ओऽ२३४वा ।
कृष्णगर्भानिरहन्नृजिश्वनाऽ३ । अवस्याऽ२३४वाः। वृषणंवा । ज्रादक्षाऽ२३४इणाम् ।
मारौवाओऽ२३४वा ।। त्वन्तꣳसख्यायहुवाऽ५इमहाउ ।। वा ।।
( दी ३ । प० १० । मा० ९ )२३ ( णो । ६५१)

द्र. पञ्चनिधनं वैरूपम्
वैरूपोपरि वैदिकसंदर्भाः

अस्मिन् जगति अस्माकं इन्द्रियाणि यत्किंचित् संवेदनं प्राप्नुवन्ति, तत् सर्वं असत्यं तु नैवास्ति, किन्तु विरूपितं अवश्यमस्ति। यदा वयं वैराजपदं प्राप्नुवन्ति, तदा अस्माकं दृष्टिः सत्यस्य दर्शने समर्था भवति।"
________
यो अश्वानां यो गवां गोपतिर्वशी य आरितः कर्मणिकर्मणि स्थिरः।                        वीळोश्चिदिन्द्रो यो असुन्वतो वधो मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥४॥
___________

यो विश्वस्य जगतः प्राणतस्पतिर्यो ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत् ।  इन्द्रो यो दस्यूँरधराँ अवातिरन्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥५॥

यः शूरेभिर्हव्यो यश्च भीरुभिर्यो धावद्भिर्हूयते यश्च जिग्युभिः ।                                                इन्द्रं यं विश्वा भुवनाभि संदधुर्मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥६॥

रुद्राणामेति प्रदिशा विचक्षणो रुद्रेभिर्योषा तनुते पृथु ज्रयः ।                                                इन्द्रं मनीषा अभ्यर्चति श्रुतं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥७॥

यद्वा मरुत्वःपरमे सधस्थे यद्वावमे वृजने मादयासे।अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा त्वाया हविश्चकृमा सत्यराधः ॥८॥

त्वायेन्द्र सोमं सुषुमा सुदक्ष त्वाया हविश्चकृमा ब्रह्मवाहः।                                                अधा नियुत्वः सगणो मरुद्भिरस्मिन्यज्ञे बर्हिषि मादयस्व ॥९॥

मादयस्व हरिभिर्ये त इन्द्र विष्यस्व शिप्रे वि सृजस्व धेने ।                                              आ त्वा सुशिप्र हरयो वहन्तूशन्हव्यानि प्रति नो जुषस्व ॥१०॥

मरुत्स्तोत्रस्य वृजनस्य गोपा वयमिन्द्रेण सनुयाम वाजम् ।                                                  तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः ॥११॥

{सायण-भास्यम्}
प्र मन्दिने' इति एकादशर्चमष्टमं सूक्तमाङ्गिरसस्य कुत्सस्यार्षम् । अष्टम्याद्याश्चतस्रस्त्रिष्टुभः शिष्टाः सप्त जगत्यः । इन्द्रो देवता । तथा चानुक्रान्तं - ' प्रमन्दिन एकादश कुत्स आद्या गर्भस्राविण्युपनिषच्चतुस्त्रिष्टुबन्तम्' इति । दशरात्रस्य नवमेऽहनि मरुत्वतीये एतत्सूक्तम् । विश्वजितः' इति खण्डे सूत्रितं- ‘प्र मन्दिन इमा उ त्वेति मरुत्वतीयम्' (आश्व. श्रौ. ८.७.) इति ॥
____________________
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥
अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष=असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं  होकर अदेव पद है ।
____
  . १०९-११५ ) । एतदनार्षत्वेनानादरणीयं भवति । एषोऽर्थः क्रमेणर्क्षु वक्ष्यते । तथा चास्या ऋचोsयमर्थः । 1“द्रप्सः =। द्रुतं सरति गच्छतीति द्रप्सः । पृषोदरादिः । द्रुतं गच्छन् "दशभिः “सहसैः दशसहस्रसंख्यैरसुरैः “इयानः= “कृष्णः एतन्नामकोऽसुरः "अंशुमतीं नाम नदीम् “अव “अतिष्ठत् =अवतिष्ठते । ततः 2-“शच्या= कर्मणा प्रज्ञानेन वा 3-“धमन्तम्= उदकस्यान्तरुच्छ्वसन्तं यद्वा जगद्भीतिकरं शब्दं कुर्वन्तं “तं =कृष्णमसुरम् “इन्द्रः मरुद्भिः सह 5-“आवत् =प्राप्नोत् । पश्चात्तं कृष्णमसुरं तस्यानुचरांश्च हतवानिति वदति । “नृमणाः नृषु मनो यस्य सः । यद्वा । कर्मनेतृष्वृत्विक्ष्वेकविधं मनो यस्य स तथोक्तः । तादृशः सन् “स्नेहितीः । स्नेहतिर्वधकर्मसु पठितः । सर्वस्य हिंसित्रीस्तस्य सेनाः “अप “अधत्त ।6- अपधानं =हननम् । अवधीदित्यर्थः । ‘ अप स्नीहितिं नृमणा अधद्राः' (सा. सं. १. ४. १.४.१) इति छन्दोगाः पठन्ति । तस्यानुचरान् हत्वा तं द्रुतं गच्छन्तमसुरमपाधत्त । हतवान् ॥
_________________
"द्र॒प्सम॑पश्यं॒ विषु॑णे॒ चर॑न्तमुपह्व॒रे न॒द्यो॑ अंशुमत्या:।
नभो॒ न कृ॒ष्णम॑वतस्थि॒वांस॒मिष्या॑मि वो वृषणो॒ युध्य॑ता॒जौ ॥१४
द्रप्सम् । अपश्यम् । विषुणे । चरन्तम् । उपऽह्वरे । नद्यः । अंशुऽमत्याः ।
नभः । न । कृष्णम् । अवतस्थिऽवांसम् । इष्यामि । वः । वृषणः । युध्यत । आजौ ॥१४

तुरीयपादो मारुतः । मरुतः प्रति यद्वाक्यमिन्द्र उवाच तदत्र कीर्त्यते । हे मरुतः “द्रप्सं द्रुतगामिनं कृष्णमहम् “अपश्यम् =अदर्शम् । कुत्र वर्तमानम् । “विषुणे= विष्वगञ्चने सर्वतो विस्तृते देशे । यद्वा । विषुणो विषमः । विषमे परैरदृश्ये गुहारूपे देशे। “चरन्तं =परितो गच्छन्तम् । किंच “अंशुमत्याः एतन्नामिकायाः “नद्यः =नद्याः “उपह्वरे= अत्यन्तं गूढे स्थाने “नभो “न नभसि यथादित्यो दीप्यते तद्वत्तत्र दीप्यमानम् “अवतस्थिवांसम् उदकस्यान्तरवस्थितं “कृष्णम् एतन्नामकमसुरमपश्यम् । तस्मिन् दृष्टे सति हे “वृषणः कामानामुदकानां वा सेक्तारो मरुतः “वः युष्मान् युद्धार्थम् “इष्यामि अहमिच्छामि । ततो यूयं तमिमं कृष्णम् "आजौ । अजन्ति गच्छन्त्यत्र योद्धार आयुधानि प्रक्षेपयन्तीति वाजिः संग्रामः । तस्मिन् "युध्यत संहरत । वाक्यभेदादनिघातः । केचित् इष्यामि वो मरुतः इति पठन्ति । तत्र हे मरुतः वो युष्मानिच्छामीत्यर्थो भवति ॥

अध॑ द्र॒प्सो अं॑शु॒मत्या॑ उ॒पस्थेऽधा॑रयत्त॒न्वं॑ तित्विषा॒णः।विशो॒ अदे॑वीर॒भ्या॒३॒॑चर॑न्ती॒र्बृह॒स्पति॑ना यु॒जेन्द्र: ससाहे ॥१५।अध । द्रप्सः । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः ।
विशः। अदेवीः ।अभि। आऽचरन्तीः ।बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५।

1-“अध= अथ 2-“द्रप्सः =द्रुतगामी कृष्णः 3-“अंशुमत्याः= नद्याः 4-“उपस्थे =समीपे 5-“तित्विषाणः= दीप्यमानः सन् 6-“तन्वम् =आत्मीयं शरीरम् 7-“अधारयत् । =परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन 8-“युजा= सहायेन 9-“अदेवीः =अद्योतमानाः । कृष्णरूपा इत्यर्थः । यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । 10-“आचरन्तीः= आगच्छन्तीः 11-“विशः= असुरसेनाः "अभि 12-"ससहे =जघान । तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ३४ ॥ 

त्वं ह॒ त्यत्स॒प्तभ्यो॒ जाय॑मानोऽश॒त्रुभ्यो॑ अभव॒ः शत्रु॑रिन्द्र ।
गू॒ळ्हे द्यावा॑पृथि॒वी अन्व॑विन्दो विभु॒मद्भ्यो॒ भुव॑नेभ्यो॒ रणं॑ धाः ॥१६
पद पाठ:-
त्वम् । ह । त्यत् । सप्तऽभ्यः । जायमानः । अशत्रुऽभ्यः । अभवः । शत्रुः । इन्द्र ।
गूळ्हे इति । द्यावापृथिवी इति । अनु । अविन्दः । विभुमत्ऽभ्यः । भुवनेभ्यः । रणम् । धाः ॥१६

हे “इन्द्र “त्वं खलु “त्यत् तत् कर्म कृतवानसि। किं तत् उच्यते । "जायमानः त्वं प्रादुर्भवन्नेव । “अशत्रुभ्यः स्तुरहितेभ्यः “सप्तभ्यः कृष्णवृत्रनमुचिशम्बरादिसप्तभ्यो बलवद्भ्यः शत्रुभ्यः तदर्थं “शत्रुः “अभवः । यद्वा । सप्तभ्यः । ससैवाङ्गिरसः । सप्तभ्योङ्गिरोभ्यो गवानयनार्थं प्रादुर्भवन्नेवाशत्रुभ्यो बलवद्भ्यः पणिभ्यः शत्रुरभवः । किंच हे इन्द्र त्वं “गूळ्हे तमसा गूढे संवृते “द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ सूर्यात्मना ते प्रकाश्यानुक्रमेण "अविन्दः अलभथाः । तथा “विभुमद्भ्यः महत्त्वयुक्तेभ्यः "भुवनेभ्यः लोकेभ्यः "रणं रमणं “धाः धारयसि । विदधासीत्यर्थः ॥
_________________________

drip (v.)
c. 1300, drippen, "to fall in drops; let fall in drops," from Old English drypan, also dryppan, from Proto-Germanic *drupjanan (source also of Old Norse dreypa, Middle Danish drippe, Dutch druipen, Old High German troufen, German triefen), perhaps from a PIE root *dhreu-. Related to droop and drop. Related: Dripped; dripping.

drip (n.)
mid-15c., drippe, "a drop of liquid," from drip (v.). From 1660s as "a falling or letting fall in drops." Medical sense of "continuous slow introduction of fluid into the body" is by 1933. The slang meaning "stupid, feeble, or dull person" is by 1932, perhaps from earlier American English slang sense "nonsense" (by 1919).

विषुण-अनेक रूप का। बहुरूपी। २. सर्वग। सर्वगत। ३. विप्रकीर्ण। बिखरा हुआ। ४. पराङमुख [को०]।

अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
_______________________________________
क्रमशः उपर्युक्त तीनों ऋचाओं का पदपाठ-

"अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियानः कृष्णो दशभिः सहस्रैः ।
आवत्तमिन्द्रः शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ॥१३॥

पद का अन्वय= अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
२-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धम आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार(अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।
भाष्य-
कृष्णो दशसहस्रैर्गोपै:परिवृत: सन्  अँशुमतीनामधेयाया नद्या:  यमुनाया: तटेऽतिष्ठत् तत्र कृष्णस्य नाम्न: प्रसिद्धं  तं गोपं नद्यार्जलेमध्ये   स्थितं इन्द्रो ददर्श स इन्द्र: स्वपत्न्या शच्या सार्धं आगत्य  जले स्निग्धे तं गोपं कृष्णं तस्यानुचरानुपगोपाञ्च अतीवानि धनानि अदात्।

हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप कृष्ण को यमुना नदी के जल में स्थित देखा।

________________________________
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पद का अन्वय= द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।

हिन्दी अर्थ-इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं देखना चाहूँगा । अर्थात यह साँड अपने स्थान पर अडिग खडे़  कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं देखना चाहूँगा। जहाँ जल और- ( नभ) बादल भी न हो ऐसे स्थान पर-
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
_______________    
शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________

२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]  सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :-"विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद 'कु(कखगघड•)     'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु। हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।__________________________

विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
___________________________________

"अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
______________
अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया  जो इनके गोपों - विशों (गोपालन आदि करने वाले -वैश्यवृत्ति सम्पन्न) थे ।  चारो ओर चलती हुई गायों के साथ रहने वाले गोपों को इन्द्र ने बृहस्पति की  सहायता से दमन किया ।
पदपाठ-विच्छेदन :-
। द्रप्स:। अंशुऽमत्याः। उपऽस्थे ।अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः। विशः। अदेवीः ।अभि । आऽचरन्तीः। बृहस्पतिना। युजा । इन्द्रः। ससहे॥१५।
“अध =अथ अधो वा “द्रप्सः= द्रव्य अथवा जल बिन्दु: “अंशुमत्याः= यमुनाया: नद्याः“(उपस्थे=समीपे “(  त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे  तित्विषाणः= दीप्यमानः)( सन् =भवन् ) “(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “(अधारयत्  = शरीर धारण किया)। परैरहिंस्यत्वेन बिभर्ति । यद्वा । बलप्राप्त्यर्थं स्वशरीरमाहारादिभिरपोषयत् । तत्र “इन्द्रः गत्वा “बृहस्पतिना एतन्नामकेन देवेन “युजा =सहायेन “अदेवीः = देवानाम्  ये न पूजयन्ति इति अदेवी:। कृष्णरूपा इत्यर्थः । 
यद्वा । पापयुक्तत्वादस्तुत्याः । “आचरन्तीः =आगच्छन्तीः “विशः= गोपालका:"अभि "ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे - चारो और से सख्ती की ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह अधेः प्रसहने (1333) इत्यत्र सह्यतेः सहतेर्वा निर्देश इति शक्तावुपेक्षायाञ्च उदाहृतं तमधिचक्रे इति (7) 22  तमवधीदित्यर्थः प्रसङ्गादवगम्यते ॥ ॥ ३४ ॥ 

ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने "उपस्थ' का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है । जैसे 
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥देखे हे अध्वर्यवो जघन्वान् पूर्वं शत्रून् हतवान् य इंद्रः शतं सहस्रमसुरान् भूम्या उपस्थ उत्संगेऽवपत् । एकैकेन प्रकारेणापातयत् । किंच यः कुत्सस्यैतन्नामकस्य राजर्षेः । आयोः पौरूरवसस्य राजर्षेः। अतिथिग्वस्य दिवोदासस्य । एतेषां त्रयाणां वीरानभिगंतॄन्प्रति द्वंद्विनः शुष्णादीनसुरान् न्यवृणक् । वृणक्तिर्हिंसाकर्मा । अवधीत् । तथा च मंत्रवर्णः । त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारंधयोऽतिथिग्वाय शंबरं ।१. ५१. ६.। इति । तादृशायेंद्राय सोमं भरत ॥
 
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

१-तस्मिन् -उसमें ।
 २-रमते लट्लकार अन्य पुरुष एक वचन - क्रीडा करते हैं रमण करते हैं । रम्=क्रीडायाम्
३-देव:(प्रथमा विभक्ति एक वचन कर्ताकारक।
स्त्रीभि:=  तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप स्त्रीयों के साथ।
परिवृत:= चारों ओर से घिरे हुए।

हारनूपुरकेयूररशना आद्यै: तृतीया विभक्ति वहुवचन = हार नूपुर(घँघुरू) केयूर(बाँह में पहनने का एक आभूषण  ,बिजायठ  बजुल्ला ,अंगद , बहुँठा अथवा भुजबंद भी जिसकी हिन्दी नाम हैं  आदि के द्वारा । 
तदा= तस्मिन् काले -उस समय में।
भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः ।
ताभिः सम्पीयते पानं शुभगन्धान्वितं शुभम् । २१।
भूषितानां= भूषण पहने हुओं का (षष्ठी वहुवचन रूप सम्बन्ध बोधक रूप)
वरस्त्रीणां=श्रेष्ठ स्त्रीयों का ।
चारु=सुन्दर । अङ्गीनाम्= अंगों वाली का षष्ठी विभक्ति वहुचन रूप ।
विशेषत:=विशेष से पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।
शुभम्- जल जैसा राजनिघण्टु में शुभम् नपुँसक रूप में जल अर्थ उद्धृत किया है । अत: उपर्युक्त श्लोक में 'शुभम् शुभगन्धान्वितं' विशेषण का विशेष्य पद है ।
शुभगन्धान्वितं= शुभ (कल्याण कारी) गन्धों से युक्त को द्वितीया विभक्ति  कर्म कारक पद रूप ।

कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान भी नहीं किया ।
सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते रहे होंगे । परन्तु  सुरापान यादवों की सांस्कृतिक परम्परा या पृथा नहीं थी।
जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।
इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में कृष्ण को असुर अथवा अदेव"  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।
राजनिर्घण्टः।। शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १।१२।
सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते ( सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है।
स्त्रियों के साथ दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा करना। ये कृष्ण ने नहीं किया।
______
जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।9/23।
_______________
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक
अर्थ: –हे अर्जुन ! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।
कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आजा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
__________
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।18.66। 
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
 कृष्ण के सन्दर्भ में कुछ तथाकथित नव बौद्ध कहते हैं कि कृष्ण शब्द संस्कृत का है और पाली भाषा में नहीं है।

परन्तु उनको पता होना चाहिए कि( र) वर्ण पाली भाषा में है।
जो कि (ऋ+ अ = र) का सन्ध्यक्षर संक्रमण का नवीन रूप है।
___________    

"दातव्यं दानं तु दीयते दीनं दयनीयं वा।
उच्च दानं दातुः इच्छानुरूपं सुप्रभा।
भिक्षितव्य भिक्षा भिक्षुकस्य इच्छानुरूपा
पुण्यरहिता तुच्छा हीना  इयं  किंवा ।१।
अनुवाद:-
"दान देना ही कर्तव्य है" - तो दान दीन को देना चाहिए जो दया का पात्र होता है यह दान उच्च और दाता की इच्छा के अनुसार होता है।
भीख भिखारी की इच्छा के अनुसार और दान की अपेक्षा तुच्छ व हीन होती है इसका कोई पुण्य नही होता है।१।
  आभीर संहिता-
यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।
(श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) 
अनुवाद:-
देवताओं का पूजन करनेवाले  देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं।
परन्तु  हे अर्जुन!  मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।




                   इति - समापनम्★•


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें