मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

त्रेता युग में यज्ञ में पशुबलि की इन्द्र द्वारा स्थापित प्रथा-

त्रेतायुगे यज्ञविधिप्रवृत्तिः।

ऋषय ऊचुः।
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।। 143.1 ।।

अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।। 143.2 ।।

औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।143.3 ।।

वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्।। 143.4 ।।

सूत उवाच।
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।143.5।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।143.6 ।।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।। 143.7 ।।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।143.8 ।।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।। 143.9 ।।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये। 143.10 ।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा।
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।। 143.11 ।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।143.12 ।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। 143.13 ।।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।143.14 ।।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।। 143.15 ।।

तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।। 143.16 ।।

ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।
सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। 143.17 ।।
________
ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप!।
औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!।। 143.18 ।।

सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।
वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।। 143.19 ।।

यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।
यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।143.20।

हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21।

दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।
तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।। 143.22 ।

यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।
तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।। 143.23।

एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।
अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।। 143.24 ।।

इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
ऊद्‌र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।। 143.25 ।।


वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।
धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।। 143.26 ।।

तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।
बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।। 143.27 ।।

तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।
देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।। 143.28।

तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।
ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.29 ।।

तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।
उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।। 143.30 ।।

एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।
अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।। 143.31।

ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।
सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।। 143.32।

द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।। 143.33।

ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।। 142.34 ।

एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।
ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।। 142.35 ।।

ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।
वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।। 143.36 ।।

गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।
श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।। 143.37 ।।

प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।
सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।। 143.38 ।

प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।
एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.39 ।।

राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।
तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।। 143.40 ।।

ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।
तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।। 143.41।

यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।
तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।।
 143.42 ।।

मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)

अध्याय 143 - 

यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधिका वर्णन-

ऋषियोंने पूछ— सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुवमनुके कार्य कालमें त्रेतायुगके प्रारम्भमें किस प्रकार यज्ञकी प्रवृत्ति हुई थी ?जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई। उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरोंमें वार्ता वृत्तिकी स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओंको एकत्रकर यज्ञकी प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई? हमलोगोंके प्रति इसका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजीने कहा 'आपलोगोंके प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥ 14॥

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्रने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमोंमें मन्त्रोंको प्रयुक्तकर देवताओंके साथ सम्पूर्ण साधनोंसे सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रियाको आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्निमें अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे। पशुओंका समूह मण्डपके मध्यभागमें लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे। इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलिका उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नामके विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है? आप धर्म-प्राप्तिकी अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करनेके लिये अधर्म करनेपर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये। सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है।इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातोंको अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे। फिर तो इन्द्र और उन महर्षियोंके बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ । यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवादसे खिन्न होकर इन्द्रके साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया ।। 5- 17 ॥



ऋषियोंने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकारकी यज्ञ विधि देखो है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये ॥ 18 ॥

सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न | सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है। मेरे देखनेमें तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियोंने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है। उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। द्विजवरो! यदि आप लोगोंको वेदोंके मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।' विसुद्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषयको जानकर राजा वसुको विमानसे नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया। ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये। ऋषियोंके शापसे उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करनेवाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए । 19 - 26 ॥ इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशयका निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्मऔर दुर्गम है। अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्मके विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता। इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यहमें जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निलभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा | और धैर्य— ये सनातन धर्मके मूल ही हैं, जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञोंसे देवताओंकी तथा तपस्यासे विराट् ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं ॥ 27-34 ll


पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रियनरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी। प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं, जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणोंसे सभी प्रकार यज्ञसे बढ़कर है। पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्‌को सृष्टि की थी, अतः यद्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्तिका मूल कारण तपही कहा गया है। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगोंक साथ प्रवर्तित हुआ || 35 - 42 ॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें