सोमवार, 21 जनवरी 2019

UP PGT Sanskrit Syllabus Exam Pattern

UP PGT Sanskrit Syllabus Exam Pattern साहित्य परिचय (गद्य, पद्य एवं नाटक)निम्न ग्रन्थों के निर्धारित अंको के आधार पर शब्दार्थ, सूक्तियों के भावार्थ, शब्द का व्याकरणात्मक टिप्पणणी, चरित्र चित्रण, तथा ग्रन्थकर्ता के परिचय।कादम्बरी, (कथामुखम), नलचम्पू (प्रथम उच्छ्वास), शिशुपाल बधम् (प्रथम सर्ग), अभिज्ञान शाकुन्तलम और मृच्छकटिकम, गद्यकाव्य, खण्डकाव्य, महाकाव्य एवं नाट्यकाव्य के उद्भव और विकास का सामान्यस परिचय।संस्कृत वाङमय में प्रतिविम्बित भारतीय दर्शन इस खण्ड में श्रीमद्भागवद्गीता,तर्कभाषा,साख्यकारिका तथा वेदान्तसार के अनुसार प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों का सामान्य परिचय काव्यशास्त्र(साहित्य दर्पण एवं काव्य प्रकाश के अनुसार), काव्य लक्षण, प्रयोजन, शब्दवृत्तियां, ध्वनि, रस एवं निम्नलिखित अलंकारों का परिज्ञान-अनुप्रास, यमक श्लेष, उपमा, रूपक, उत्पे्रक्षा, सन्देह, भ्रान्तिमान्, अतिशयोक्ति, स्वभोक्ति विरोभास तथा पारिसंख्या।

शैली हिन्दी शब्दकोश का एक शब्द है, जो अंग्रेज़ी के 'स्टाइल' का अनुवाद है और अंग्रेज़ी साहित्य के प्रभाव से हिन्दी में आया है। प्राचीन साहित्यशास्त्र में शैली से मिलते-जुलते अर्थ को देने वाला एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- 'रीति'। 'काव्यालंकारसूत्र' के लेखक आचार्य वामन ने रीति को 'विशिष्टपद रचना' कहकर पारिभाषित किया है। इस परिभाषा में 'विशिष्ट' शब्द का अर्थ है, गुण-युक्त।

रीतियों के रूप
आचार्य वामन 'रीति' को 'काव्य की आत्मा' मानते हैं। इनके अनुसार रीतियों के तीन रूप हैं-

वैदर्भी
गौड़ीय
पांचाली
वैदर्भी रीति में, वामन के अनुसार, ओज, प्रसाद आदि समस्त गुण रहते हैं। गौड़ी रीति के प्रधान गुण ओज और कान्ति है और पांचाली के मधुरता और सुकुमारती। वामन के मत में वैदर्भी रीति ही सर्वथा ग्राह्य है। दूसरे आचार्यों ने उक्त रीतियों के दूसरे प्रकार के वर्णन दिये हैं। कुछ आचार्यों ने यह भी निर्देश करने की कोशिश की है कि किस प्रकार के वर्णों आदि के प्रयोग से विशेष रीति अस्तित्व में आती है। रीतियों के ये व्याख्यान यह संकेत देते हैं, मानो रीतित्त्व का प्रमुख आधार विशिष्ट पदयोजना हो। यहाँ एक बात और लक्षित करने की है-वामन आदि के मत में रीति अच्छे लेखन का ही धर्म है। इसका मतलब यह हुआ कि घटिया रचना में रीति की उपस्थिति नहीं होती।

रीति संप्रदाय पर चर्चा करने से पूर्व  यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भारतीय हिन्दी साहित्य के रीति-काल में प्रयुक्त ‘रीति’ शब्द से इसका कोई प्रयोजन नहीं है I रीति-काल में लक्षण ग्रंथो के लिखने की एक बाढ़ सी आयी, जिसके महानायक केशव थे और इस स्पर्धा में कवियों के बीच आचार्य बनने की होड़ सी लग गयी I परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कवि स्वयंसिद्ध आचार्य बने और कोई –कोई कवि न शुद्ध आचार्य रह पाए और न कवि I इस समय ‘रीति ‘ शब्द का प्रयोग काव्य शास्त्रीय लक्षणों के लिए हुआ I  किन्तु, जिस रीति संप्रदाय की चर्चा यहाँ पर अभीष्ट है वह आचार्य वामन और दंडी के समय से प्रवर्तित है I प्रमुखतः आचार्य वामन ने ही आठवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ‘काव्यालंकार सूत्र’ ग्रन्थ के अंतर्गत‘रीति’ को काव्य की आत्मा माना I वामन काव्य-शास्त्र में ‘रीति-संप्रदाय’ के आदि प्रवर्तक माने जाते है I चूँकि ‘काव्यालंकार सूत्र’ मूलतः सूत्रों में रचित है अतः उसको अधिकाधिक सुबोध बनाने  के लिए स्वयं आचार्य वामन ने ही ‘कवि प्रिया ’ नाम से इसका एक भाष्य भी लिखा I रीति-संप्रदाय में ’रीति’ का अर्थ लगभग वैसा ही है जैसा अंग्रेजी साहित्य में style का है I हिन्दी में इसका निकटतम पर्याय ‘शैली’ है I इस प्रकार रीति या शैली को काव्य की आत्मा मानकर  काव्य पर विचार करने वाला संप्रदाय ही ‘रीति-संप्रदाय’ है I  अंग्रेज विद्वान कालारिज ने कहा है –

                                 Poetry the best words in the best order.

            डा0 नगेन्द्र अपनी पुस्तक ’रीति काव्य की भूमिका’ में लिखते है कि- रीति शब्द और अर्थ के आश्रित रचना चमत्कार का नाम है  जो माधुर्य ओज और प्रसाद गुणों के द्वारा चित्र को द्रवित , दीप्त और परिव्याप्त करती हुयी रस दशा तक पहुँचाती है I  रीति के अन्य परिभाषाकार कहते है कि  काव्य में रीति पदों के संगठन से रस को प्रकाशित करने में सहायक होती है I इस प्रकार रीति का काव्य में वही स्थान है जो शरीर में आंगिक संगठन का है  I जिस प्रकार अवयवो का उचित सन्निवेश शरीर के सौन्दर्य को बढाता है, शरीर को उपकृत करता है उसी प्रकार  वर्णों का यथास्थान प्रयोग शब्द रूपी शरीर और अर्थ रूपी आत्मा के लिए विशेष उपकारक है I अतः काव्य में रीति का विशेष महत्त्व है I  आचार्य वामन ने रीति के तीन भेद तय किये – वैदर्भी, गौडी, पांचाली   I आचार्य दंडी केवल दो ही भेद मानते है  I वे पांचाली का समर्थन नहीं करते I दंडी पर आचार्य भामह का प्रभाव दीखता है, क्योंकि वे भी केवल वैदर्भी और गौडी का समर्थन करते है किन्तु वह रीत्ति के स्थान पर मार्ग शब्द का प्रयोग करते है I मजे की बात यह है कि परवर्ती आचार्यो ने रीति के तीन से भी अधिक भेद स्थापित किये I लाट  देश में प्रयुक्त होने वाली एक ‘लाटी’ रीति का प्रादुर्भाव हुआ I बाद में भोज ने ‘मालवी’ और ‘अवंतिका’ नामक दो अन्य रीतियों का अविष्कार किया I आनंदवर्धन के   ‘वाक्य वाचक चारूत्व हेतुः’ के अनुसार रीति शब्द और अर्थ में सौन्दर्य का विधान करती है I आचार्य विश्वनाथ रीति को काव्य का उपकारक मानते है I ‘वक्रोक्ति जीवित’ के लेखक क्रन्तक ने रीति का खुलकर विरोध किया I आचार्य मम्मट उनके समर्थन में आये I मम्मट ने रीति को वृत्तियों से जोड़ने की वकालत की I राजशेखर ने रीति को काव्य का बाह्य तत्व बताया I  उनके अनुसार – ‘वाक्य विन्यास क्रमो रीतिः’ I  किन्तु यह सब विरोध  विद्वानों की आम सहमति नहीं पा सका और वामन की रीतियों को मान्यता मिली I
          ‘रीति’ शब्द ‘रीड’. धातु से ‘क्ति’ प्रत्यय देने पर बनता है I इसका शाब्दिक अर्थ प्रगति, पद्धति, प्रणाली या मार्ग है I परन्तु वर्तमान ‘शैली’ के रूप में यह अधिक समादृत है I
        ‘वैदर्भी’ रीति के सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ का कथन है –
                                          माधुर्य व्यंजक वर्णे:रचना ललितात्मका I
                                          आवृत्तिरल्यवृत्तिर्या  वैदर्भी रीति रिष्यते II

          अर्थात माधुर्य व्यंजक वर्णों से युक्त, समास रहित ललित पद रचना को ‘वैदर्भी’ रीति कहते है I यह रीति श्रृंगार, करुणा एवं शांत रस के लिए अधिक अनुकूल होती है I इसका प्रयोग  विदर्भ देश के कवियो ने अधिक किया है I इसी से इसका नाम वैदर्भी रीति पड़ा I इसका एक अन्य नाम ‘ललिता ‘ भी है I  मम्मट ने इसे ‘उपनागरिका’ कहा है I रुद्रट के अनुसार यह समास रहित श्लेषादि दस गुणों और अधिकांशतः चवर्ग से युक्त, अल्प प्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति है I इसमें सानुनासिक शब्द  जिन पर चन्द्र बिंदु लगा होता है या जिनका उच्चारण नाक सा होता है अधिकांशतः प्रयुक्त होता है I कालिदास इस रीति के चैंपियन कवि थे I हिदी के रीतिकालीन  कवियो ने इस रीति का भरपूर प्रयोग किया

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