(शनिवार, 29 दिसम्बर 2022)
संस्कृत व्याकरण में सन्धि-विधान और वर्णमाला की व्युत्पत्ति के भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के साथ ही पदों का पारिभाषिक विवेचन- प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
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"यादव योगेश कुमार "रोहि"
"संस्कृत-वर्णमाला-में सन्धि-विधान और वर्णों की-उत्पत्ति-प्रक्रिया-का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण "
भाषा की उत्पत्ति•
"आज हम भाषा उत्पत्ति के विषय पर किए गए अनुमानों पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धान्त रूप में परिणति किया गया।
"परन्तु तथ्य सैद्धांतिक तब कहलाता है जब वह नियमों के द्वारा सिद्ध होकर एक निश्चित परिणाम को प्राप्त होता हो "
★-दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त-"The principle of divine origin"
"दे॒वीं वाच॑मजनयन्त दे॒वास्तां वि॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति। सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्जं॒ दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥११।।★-
सायण भाष्य-(ऋग्वेद-8.100.11)
एषा माध्यमिका वाक् सर्वप्राण्यन्तर्गता धर्माभिवादिनी भवतीति विभूतिमुपदर्शयति ।
यां “देवीं =द्योतमानां माध्यमिकां =“वाचं “देवाः माध्यमिकाः “(अजनयन्त =जनयन्ति“तां वाचं “(विश्वरूपाः =सर्वरूपा) व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च “पशवो “वदन्ति । तत्पूर्वकत्वाद्वाक्प्रवृत्तेः । “सा “वाक् देवी “मन्द्रा= मदना स्तुत्या हर्षयित्री वा वृष्टिप्रदानेनास्मभ्यम् (“इषम् =अन्नम् )“ऊर्जं पयोघृतादिरूपं रसं च “दुहाना क्षरन्ती “धेनुः =धेनुभूता “सुष्टुता (अस्माभिः स्तुता “=अस्मान् नेमान् ) (“उप “ऐतु =उपगच्छतु) । वर्षणायोद्युक्तेत्यर्थः ।
तथा च यास्कः- ‘ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च सा नो मदनान्नं च रसं च दुहाना धेनुर्वागस्मानुपैतु सुष्टुता' (निरु. ११. २९) इति ॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। (ऋग्वेद-8.100.11)
अर्थात् देवलोग जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं।
यहाँ पर पशु का अर्थ मनुष्य है। वेद में पशु शब्द मनुष्य-प्रजा का भी वाचक है।
अथर्ववेद (14.2.25) में वधू के प्रति आशीर्वाद मन्त्र में पशु का अर्थ मनुष्य है--
वि तिष्ठन्तां मातुरस्या उपस्थान् नानारूपाः पशवो जायमानाः ।
सुमङ्गल्युप सीदेममग्निं संपत्नी प्रति भूषेह देवान् ॥२५॥
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तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोैभा॥१।
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहंदधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।२।
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्।३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तंब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्।५।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे
ततो वितिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि।७।
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि ।विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥
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★-सांकेतिक उत्पत्ति वाद अथवा निर्णय सिद्धान्त (Agreement Theory Conventional or Symbolic Origin-
(Guessial theory)-आनुमानिक सिद्धांत)
"वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥१.१॥
★-हाव-भाव सिद्धांत-(gesture-theory ) :
हाव-भाव दिखलाना भी भाषा कि उत्पत्ति में सहायक हैै। यह सांकेतिक सिद्धान्त है।
भारोपीय भाषा परिवार-
इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है।
इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेख, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है।
मेसोपोटेमिया- ( प्रचीन ईरान और ईराक) की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं।
दूसरी अवस्था में ऐसी भी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है।
जैसे बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं।
तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। जैसे ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं।
वर्गीकरण के आधार-
भाषा के वर्गीकरण के मुखयतः दो आधार हैं–
आकृति -मूलक और अर्थतत्व-मूलक
आकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी वर्गीकरण मुख्य भेद है ।
प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। और दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैं–आकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। ऐतिहासिक वर्गीकरण के आधारों में आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए।
१-भौगोलिक समीपता - भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है।
इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खंड़ों में विभाजित की गयी हैं।
किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं जैसे संस्कृत और तमिल भाषाऐं।
और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। जैसे ग्रीक और संस्कृत ।
भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं।
२- शब्दानुरूपता- समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और यह दो तरह से सम्भव होती है।
★-जैसे-एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से भी समानता आ जाती है।
★-इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक उद्देश्य के हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता आ जाती है।
पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही आवश्यक होती है।
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क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं।
इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है।
इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है।
३- ध्वनिसाम्य- प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती है और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की ।क़,। ख़। फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है।
अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक बना देती हैं।
आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं। परन्तु तवर्ग का रूपान्तरण ही तट वर्ग के रूप में है । जो फौनिशियन ताओ(𐤕 ) का ही रूप है । फोनिशियन लोग वैदिक सूक्तों में वर्णित पणि: लोग ही थे । ऋग्वेद मे देवों की कि किया सरमा और सैमेटिक फोनिशियनों का वर्ण पणि रूप में है ।
सरमा-पणि संवाद सूक्त-
सरमा-पणि-संवाद सूक्त ऋग्वेद के 10वें मंडल का 108 वां सूक्त है। इसके ऋषि पणि हैं और देवता सरमा, पणि हैं। छन्द त्रिष्टुप एवं स्वर धैवत है।
"इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिऽस्कदः । भियसा । तम् । नः । आवत् । तथा । रसायाः । अतरम् । पयांसि ॥२।
ऋग्वेद १०/१०८/१-२
आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रेषित देवशुनी सरमा ने पणियों से दूती बनकर संवाद किया।
देखें-सायण भाष्य - अनया तान् सरमा प्रत्युवाच । हे “पणयः एतन्नामका असुराः। सरमा “इन्द्रस्य “दूतीः ।
‘ सुपां सुलुक्' इति प्रथमैकवचनस्य सुश्छान्दसः । अहम् “इषिता तेनैव प्रेषिता सती “चरामि । युष्मदीयं स्थानमागच्छामि । किमर्थम् । “वः युष्मदीयान् युष्मदीये पर्वतेऽधिष्ठापितान् “महः महतः “निधीन् बृहस्पतेर्गोनिधीन “इच्छन्ती कामयमाना सती चरामि । किंच “अतिष्कदः ॥ ‘ स्कन्दिर्गतिशोषणयोः '। भावे क्विप् । अतिष्कन्दनादतिक्रमणाज्जातेन “भियसा भयेन “तत् नदीजलं “नः । पूजायां बहुवचनम् । माम् “आवत् अरक्षत् । “तथा तेन प्रकारेण “रसायाः नद्याः “पयांसि उदकानि “अतरं तीर्णवत्यस्मि ॥
पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण ( गाय खोजने के लिए )को भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आख्यान है। आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है।
वे उसे शीघ्रगामिनी होने से "सरमा" मानते हैं।
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पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है।
यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवह्रियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।
वह जो वाणिज्य के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करता हो। रोजगार करनेवाला। वैश्य। बनिया।
ऋग्वेद -१/११२/११ पर वणिज् शब्द भी देखें यही यूनानी प्यूनिक है ।-
वणिज शब्द भी है । । परस्मैपदीय धातु वण्=शब्द भी इन्हीं पहियों के द्वारा भाषा -वाणी के अर्थ में प्रसिद्ध हुई ।ग्रीक और फ्रेंच में 'Phone' शब्द भी फौनेशियन से सम्बद्ध है ।
पद पाठ-
याभिः ।सुदानू इति सुऽदानू । औशिजाय । वणिजे । दीर्घऽश्रवसे । मधु । कोशः । अक्षरत् ।
कक्षीवन्तम् । स्तोतारम् । याभिः । आवतम् । ताभिः । ऊं इति । सु । ऊतिऽभिः । अश्विना । आ । गतम् ॥११।
सायण भाष्य- उशिक्संज्ञा दीर्घतमसः पत्नी तस्याः पुत्रो दीर्घश्रवा नाम कश्चिदृषिरनावृष्टयां जीवनार्थमकरोत् `वाणिज्यम् । स च वर्षणार्थमश्विनौ तुष्टाव । तौ च अश्विनौ मेघं प्रेरितवन्तौ। अयमर्थः पूर्वार्धे प्रतिपाद्यते । हे सुदानू शोभनदानावश्विनौ "औशिजाय उशिक्पुत्राय "वणिजे वाणिज्यं कुर्वते दीर्घश्रवसे एतत्संज्ञाय ऋषये “याभिः युष्मदीयाभिः ऊतिभिः हेतुभूताभिः "कोशः मेघः "मधु माधुर्योपेतं वृष्टिजलम् "अक्षरत् असिञ्चत् युष्मत्प्रसादादपेक्षिता वृष्टिर्जातेत्यर्थः । अपि च उशिजः पुत्रं "स्तोतारं कक्षीवन्तम् एतत्संज्ञमृर्षि "याभिः ऊतिभिः "आवतम् अरक्षतम् । “ताभिः सर्वाभिः “ऊतिभिः सहास्मानप्यागच्छतम् ॥ कक्षीवन्तम् । कक्ष्या रज्जुरश्वस्य । तया युक्तः कक्षीवान् । ‘आसन्दीवदष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीवत्' इति निपातनात् मतुपो वत्वम् । संप्रसारणम् ॥
इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती सरमा भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी देवों की कुत्ता है ।
४- व्याकरणगत समानता- भाषा के वर्गीकरण का व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण, शब्दों से पदों की रचना प्रक्रिया तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है।
यह साम्य-वैषम्य भी सापेक्षिक होता है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं।
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Etymology- Origin of 'T' class characters-
'T' letter is derived From the Etruscan letter 𐌕 (t, “te”),it is too from the Ancient Greek letter Τ (T, “tau”),
it is too derived from the Phoenician letter 𐤕 (t, “taw”), and it is too from the Egyptian hieroglyph 𓏴.
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"वस्तुत: टवर्ग शीत जलवायु के प्रभाव का ही तवर्गीय का रूपान्तरण है । और तवर्ग वैदिक कालिक कवर्ग का रूपान्तरण है "
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Stambha,''' ‘pillar,’ is found in the [[काठक|Kāṭhaka]] Saṃhitā, and often in the Sūtras. Earlier Skambha
"मधुवाहने मधुरद्रव्याणां नानाविधखाद्यादीनां वहनेन युक्तेऽश्विनोः संबन्धिनि “रथे "पवयः वज्रसमाना दृढाश्चक्रविशेषाः “त्रयः त्रिसंख्याकाः सन्ति । “इत् इत्थं चक्रत्रयसद्भावप्रकारं “विश्वे सर्वे देवाः “सोमस्य चन्द्रस्य "वेनां कमनीयां भार्यामभिलक्ष्य यात्रायां “विदुः जानन्ति । यदा सोमस्य वेनया सह विवाहस्तदानीं नानाविधखाद्ययुक्तं चक्रत्रयोपेतं प्रौढं रथमारुह्य अश्विनौ गच्छत इति सर्वे देवा जानन्तीत्यर्थः। तस्य रथस्योपरि (“स्कम्भासः स्तम्भविशेषाः) “त्रयः त्रिसंख्याकाः स्कभितासः स्थापिताः। किमर्थम् । “आरभे आरब्धुम् अवलम्बितुम् । यदा रथस्त्वरया याति तदानीं पतनभीतिनिवृत्त्यर्थं हस्तालम्बनभूताः स्तम्भा इत्यर्थः । हे “अश्विना युवां तादृशेन रथेन “नक्तं रात्रौ “त्रिः “याथः त्रिवारं गच्छथः। तथा “दिवा दिवसेऽपि “त्रिः याथः । रात्रावहनि च रथमारुह्य पुनःपुनः क्रीडथ इत्यर्थः ॥ मधुवाहने। मधु वाह्यतेऽनेनेति मधुवाहनः। करणे ल्युट्। विदुः । वेत्तेर्लटि ‘विदो लटो वा' इति झेः उसादेशः। स्कम्भासः। ‘ष्टभि स्कभि गतिप्रतिबन्धे'। स्कम्भन्ते प्रतिबद्धा भवन्तीति स्कम्भाः । पचाद्यच् । स्कभितासः। स्कम्भुः सौत्रो धातुः । अस्मात् निष्ठायां यस्य विभाषा' इति इट्प्रतिषेधे प्राप्ते ' ग्रसितस्कभित° ' इत्यादिना इडागमो निपातितः । आरभे । ‘रभ राभस्वे'। अस्मात् आङ्पूर्वात् संपदादिलक्षणो भावे क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्
(फोनिशियन लिपि और भाषा) - (वर्णमाला की उत्पत्ति)
(चीनी में: Chinese字母表 字母表(लियू यू द्वारा अनुवादित)
भारोपीय भाषाओं की मूल वर्णमाला को मिस्र में या उसके आसपास रहने वाले एक सेमिटिक लोगों ने विकसित किया था।
'एलेफ (।)= यह वर्ण बैल के सिर की छवि के रूप में शुरू हुआ। संस्कृत का अलक =माथा। ।शेष यह एक स्वर से पहले एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है। यूनानी, स्वर प्रतीकों की आवश्यकता, इसे अल्फा (ए. A) के लिए इस्तेमाल किया । रोमनों ने इसे ए a के रूप में इस्तेमाल किया । | ||
बेथ =, घर, एक ईख आश्रय (लेकिन जो ध्वनि एच के लिए खड़ा था) के एक अधिक आयताकार मिस्र के अल्फ़ाबेटिक ग्लिफ़ से प्राप्त हो सकता है। यूनानियों ने इसे बीटा (बी) कहा, और इसे रोमन के रूप में बी पास किया गया । | ||
गिमेल= , ऊंट, मूल रूप से बूमरैंग-जैसे फेंकने वाली छड़ी की छवि हो सकता है। यूनानियों ने इसे (गामा (gam) कहा। Etruscans - जिनके पास कोई ध्वनि नहीं थी - ने k ध्वनि के लिए इसका उपयोग किया, और इसे रोमन के लिए C के रूप में पारित किया । उन्होंने इसे G के रूप में दोहरा कर्तव्य बनाने के लिए इसमें एक छोटी पट्टी जोड़ी । | ||
दलेथ ,= दरवाजा, मूल रूप से एक मछली हो सकता है! यूनानियों ने इसे डेल्टा (Δ) में बदल दिया , और इसे रोमन को डी Dxके रूप में पारित कर दिया । | ||
वह खिड़की का मतलब हो सकता है, लेकिन मूल रूप से एक आदमी का प्रतिनिधित्व किया, हमें उठाया हथियारों के साथ सामना करना, बाहर बुलाना या प्रार्थना करना। यूनानियों ने इसका उपयोग स्वर एप्सिलॉन (ई, "सरल ई") के लिए किया था। रोमन लोगों ने इसे ई के रूप में इस्तेमाल किया । | ||
वाव ,™ हुक, मूल रूप से एक गदा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यूनानियों ने waw के एक संस्करण का उपयोग किया, जो कि हमारे F जैसा दिखता था, जिसे उन्होंने डिगामा कहा, संख्या 6 के लिए। इसका उपयोग Etruscans द्वारा v के लिए किया गया था, और उन्होंने इसे रोमन के रूप में F के रूप में पारित किया । यूनानियों एक दूसरा संस्करण था - upsilon (Υ) - जो वे अपने वर्णमाला के वापस करने के लिए ले जाया गया। रोमनों ने वी (B )के लिए अपसिलॉन के एक संस्करण का उपयोग किया , जिसे बाद में (यू )भी लिखा जाएगा , फिर वाई के रूप में ग्रीक रूप अपनाया । 7 वीं शताब्दी में इंग्लैंड, डब्ल्यू - "डबल-यू" - बनाया गया था। | ||
ज़ायिन का मतलब तलवार या किसी और तरह का हथियार हो सकता है। यूनानियों ने इसका उपयोग जेटा (जेड) के लिए किया था। रोमनों ने इसे बाद में जेड के रूप में अपनाया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा। | ||
H. (eth) , बाड़, एक "गहरा गला" (ग्रसनी) व्यंजन था। यूनानियों ने इसे स्वर एटा (एच) के लिए इस्तेमाल किया था, लेकिन रोमियों ने एच ऑ(H)के लिए इसका इस्तेमाल किया । | ||
टेथ ने मूल रूप से एक धुरी का प्रतिनिधित्व किया हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल थीटा (Θ) के लिए किया था, लेकिन रोमन, जिनके पास था(च) साउंड नहीं था, ने इसे गिरा दिया। | ||
हाथ, योध , पूरे हाथ के प्रतिनिधित्व के रूप में शुरू हुआ। यूनानियों के लिए इसके बारे में एक अति सरलीकृत संस्करण इस्तेमाल किया जरा (Ι)। रोमन ने इसे I के रूप में उपयोग किया , और बाद में J के लिए एक भिन्नता जोड़ी । | ||
हाथ के खोखले या हथेली वाले कप को यूनानियों ने कप्पा (के k) के लिए अपनाया था और इसे रोम के लोगों को के k। | ||
ऑम स्टिक या बकरी की तस्वीर के रूप में लैमेड शुरू हुआ। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता लैम्ब्डा (Λ)। रोमनों ने इसे एल(L) में बदल दिया । | ||
मेम , पानी, ग्रीक म्यू (एम) बन गया । रोमन ने इसे एम (M) के रूप में रखा । | ||
नन , मछली, मूल रूप से एक साँप या ईल थी। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता nu (एन), और के लिए रोमन एन( N)। | ||
सेमख , जिसका अर्थ मछली भी होता है, अनिश्चित उत्पत्ति का है। यह मूल रूप से एक तम्बू खूंटी या किसी प्रकार के समर्थन का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कई पवित्र नक्काशियों में देखे गए मिस्र के djed स्तंभ के लिए एक मजबूत समानता है। यूनानियों ने इसे xi (Ξ) के लिए इस्तेमाल किया और ची (X) के लिए इसका एक सरलीकृत रूपांतर किया । रोमन केवल एक्स(x) के रूप में भिन्नता रखते थे । | ||
'आयिन , आई, एक और "गहरा गला" व्यंजन था। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल ओमिक्रॉन (ओ, "लिटिल ओ") के लिए किया था। उन्होंने ओमेगा ("," बिग ओ ") के लिए इसका एक रूपांतर विकसित किया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा। रोमनों ने ओ (O)के लिए मूल रखा । | ||
पीई , मुंह, मूल रूप से एक कोने के लिए एक प्रतीक हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल पीआई (ks) के लिए किया था। रोमनों ने एक तरफ को बंद कर दिया और इसे पी(p) में बदल दिया । | ||
Sade , s और sh के बीच की ध्वनि, अनिश्चित उत्पत्ति की है। यह मूल रूप से एक पौधे के लिए एक प्रतीक हो सकता है, लेकिन बाद में मछली के हुक जैसा दिखता है। यूनानियों ने इसका उपयोग नहीं किया, हालांकि एक विषम भिन्नता संपी (did) के रूप में दिखाई देती है, जो 900 के लिए एक प्रतीक है। Etruscans ने अपनी श ध्वनि के लिए M के आकार में इसका उपयोग किया था, लेकिन रोमन को इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। | ||
बंदर, Qoph , मूल रूप से एक गाँठ का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कश्मीर के समान ध्वनि के लिए इस्तेमाल किया गया था, लेकिन आगे मुंह में वापस। यूनानियों ने इसका उपयोग केवल संख्या 90 (,) के लिए किया था, लेकिन Etruscans और रोमन ने इसे Q के लिए रखा । | ||
आरएच (पी) के लिए रेज , सिर, का उपयोग यूनानियों द्वारा किया गया था । रोमन ने इसे अपने P से अलग करने के लिए एक रेखा जोड़ी और इसे R बना दिया । | ||
शिन , दांत, मूल रूप से एक धनुष का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हालाँकि, यह पहली बार sh उच्चारण किया गया था, यूनानियों ने इसे सिग्मा ( first ) के लिए उपयोग किया था । रोमन ने इसे एस बनाने के लिए गोल किया । | ||
Taw , चिह्न, के लिए यूनानियों द्वारा इस्तेमाल किया गया था ताऊ (टी)। रोमन ने इसका उपयोग टी के लिए किया था । |
ग्रीक अक्षर phi (Φ) पहले से ही अब तुर्की में अनातोलियों के बीच आम था।
★- हाल ही में, यह माना जाता था कि ये फोनिशियन यहूदियों के साथ ये लोग सिनाई रेगिस्तान में रहते थे और 1700 के ई.पू. में अपनी वर्णमाला का उपयोग करना शुरू कर दिया था।
In Chinese: 字母表的起源 (translated by Liu Yu)
The original alphabet was developed by a Semitic people living in or near Egypt.* They based it on the idea developed by the Egyptians, but used their own specific symbols. It was quickly adopted by their neighbors and relatives to the east and north, the Canaanites, the Hebrews, and the Phoenicians. The Phoenicians spread their alphabet to other people of the Near East and Asia Minor, as well as to the Arabs, the Greeks, and the Etruscans, and as far west as present day Spain. The letters and names on the left are the ones used by the Phoenicians. The letters on the right are possible earlier versions. If you don't recognize the letters, keep in mind that they have since been reversed (since the Phoenicians wrote from right to left) and often turned on their sides!
'aleph,अलिफ- the ox, began as the image of an ox's head. It represents a glottal stop before a vowel. The Greeks, needing vowel symbols, used it for alpha (A). The Romans used it as A. | ||
Bethबेथ-, the house, may have derived from a more rectangular Egyptian alphabetic glyph of a reed shelter (but which stood for the sound h). The Greeks called it beta (B), and it was passed on to the Romans as B. | ||
Gimel,जिमेल- the camel, may have originally been the image of a boomerang-like throwing stick. The Greeks called it gamma (Γ). The Etruscans -- who had no g sound -- used it for the k sound, and passed it on to the Romans as C. They in turn added a short bar to it to make it do double duty as G. | ||
Daleth, दलेथ-the door, may have originally been a fish! The Greeks turned it into delta (Δ), and passed it on to the Romans as D. | ||
He may have meant window, but originally represented a man, facing us with raised arms, calling out or praying. The Greeks used it for the vowel epsilon (E, "simple E"). The Romans used it as E. | ||
Waw, the hook, may originally have represented a mace. The Greeks used one version of waw which looked like our F, which they called digamma, for the number 6. This was used by the Etruscans for v, and they passed it on to the Romans as F. The Greeks had a second version -- upsilon (Υ)-- which they moved to to the back of their alphabet. The Romans used a version of upsilon for V, which later would be written U as well, then adopted the Greek form as Y. In 7th century England, the W -- "double-u" -- was created. | ||
Zayin may have meant sword or some other kind of weapon. The Greeks used it for zeta (Z). The Romans only adopted it later as Z, and put it at the end of their alphabet. | ||
H.eth, the fence, was a "deep throat" (pharyngeal) consonant. The Greeks used it for the vowel eta (H), but the Romans used it for H. | ||
Teth may have originally represented a spindle. The Greeks used it for theta (Θ), but the Romans, who did not have the th sound, dropped it. | ||
Yodh, the hand, began as a representation of the entire arm. The Greeks used a highly simplified version of it for iota (Ι). The Romans used it as I, and later added a variation for J. | ||
Kaph, the hollow or palm of the hand, was adopted by the Greeks for kappa (K) and passed it on to the Romans as K. | ||
Lamedh began as a picture of an ox stick or goad. The Greeks used it for lambda (Λ). The Romans turned it into L. | ||
Mem, the water, became the Greek mu (M). The Romans kept it as M. | ||
Nun, the fish, was originally a snake or eel. The Greeks used it for nu (N), and the Romans for N. | ||
Samekh, which also meant fish, is of uncertain origin. It may have originally represented a tent peg or some kind of support. It bears a strong resemblance to the Egyptian djed pillar seen in many sacred carvings. The Greeks used it for xi (Ξ) and a simplified variation of it for chi (X). The Romans kept only the variation as X. | ||
'ayin, the eye, was another "deep throat" consonant. The Greeks used it for omicron (O, "little O"). They developed a variation of it for omega (Ω, "big O"), and put it at the end of their alphabet. The Romans kept the original for O. | ||
Pe, the mouth, may have originally been a symbol for a corner. The Greeks used it for pi (Π). The Romans closed up one side and turned it into P. | ||
Sade, a sound between s and sh, is of uncertain origin. It may have originally been a symbol for a plant, but later looks more like a fish hook. The Greeks did not use it, although an odd variation does show up as sampi (Ϡ), a symbol for 900. The Etruscans used it in the shape of an M for their sh sound, but the Romans had no need for it. | ||
Qoph, the monkey, may have originally represented a knot. It was used for a sound similar to k but further back in the mouth. The Greeks only used it for the number 90 (Ϙ), but the Etruscans and Romans kept it for Q. | ||
Resh, the head, was used by the Greeks for rho (P). The Romans added a line to differentiate it from their P and made it R. | ||
Shin, the tooth, may have originally represented a bow. Although it was first pronounced sh, the Greeks used it sideways for sigma (Σ). The Romans rounded it to make S. | ||
Taw, the mark, was used by the Greeks for tau (T). The Romans used it for T. |
The Greek letter phi (Φ) was already common among the Anatolians in what is now Turkey. Psi (Ψ) appears to have been invented by the Greeks themselves, perhaps based on Poseidon's trident. For comparison, here is the complete Greek alphabet:
★-Until recently, it was believed that these people lived in the Sinai desert and began using their alphabet in the 1700's bc. In 1998, archeologist John Darnell discovered rock carvings in southern Egypt's "Valley of Horrors" that push back the origin of the alphabet to the 1900's bc or even earlier. Details suggest that the inventors were Semitic people working in Egypt, who thereafter passed the idea on to their relatives further east.
फ़ोनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं।
माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।[1]सन्दर्भ
इसका विकास क़रीब 1050 ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया।
वर्णमाला-
फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।
अक्षर | नाम | अर्थ-- | ब्राह्मी | देवनागरी | बराबरी के अक्षर | |||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
इब्रानी | सिरियैक | अरबी-फ़ारसी | यूनानी | लातिनी | रूसी | |||||||
अल्फ़ अलिफ | बैल | अ | א | ܐ | ﺍ | α | a | а | ||||
बॅतबेथ | घर | ब | ב | ܒ | ﺏ | Β, β | B, b | Б, б | ||||
गम्ल– | ऊँट(Camel) | ग | ג | ܓ | گ | Γ, γ | G, g | Г, г और Ґ, ґ | ||||
दॅल्त– | द्वार | द | ד | ܕ | د, ذ | Δ, δ | D, d | Д, д | ||||
हे– | खिड़की | ह | ה | ܗ | هـ | Ε, ε | E, e | Е, е, Є, є, Э, э | ||||
वाउ– | काँटा / खूँटा | व | ו | ܘ | و | Ϝ, ϝ, Υ, υ | F, f, U, u, V, v, Y, y, W, w | Ѵ, ѵ, У, у, Ў, ў | ||||
ज़ई– | हथियार | ज़ | ז | ܙ | ﺯ | Ζ, ζ | Z, z | Ж, ж, З, з | ||||
ख़ॅत– | दीवार | ख़ | ח | ܚ | خ, ح | Η, η | H, h | И, и, Й, й | ||||
तॅथ़– | पहिया | थ़ | ט | ܛ | ظ, ط | Θ, θ | Ѳ, ѳ | |||||
योद– | हाथ | य | י | ܝ | ي | Ι, ι | I, i, J, j | І, і, Ї, ї, Ј, ј | ||||
काफ़– | हथेली | क | כך | ܟ | ﻙ | Κ, κ | K, k | К, к | ||||
लम्द– | (पशुओं का) अंकुश | ल | ל | ܠ | ﻝ | Λ, λ | L, l | Л, л | ||||
मेम– | पानी | म | מם | ܡ | ﻡ | Μ, μ | M, m | М, м | ||||
नुन– | सर्प | न | נן | ܢ | ﻥ | Ν, ν | N, n | Н, н | ||||
सॅम्क– | मछली | स | ס | ܣ / ܤ | س | Ξ, ξ और शायद Χ, χ | शायद X, x | Ѯ, ѯ और शायद Х, х | ||||
अईन– | आँख (iye) | 'अ | ע | ܥ | ع, غ | Ο, ο, Ω, ω | O, o | О, о | ||||
पे– | मुँह | प | פף | ܦ | ف | Π, π | P, p | П, п | ||||
त्सादे– | शिकार | ष | צץ | ܨ | ص, ض | Ϻ, ϻ | C, c | Ц, ц, Ч, ч, Џ, џ | ||||
क़ोफ़– | बन्दर(कपि) | क़ | ק | ܩ | ﻕ | Ϙ, ϙ, शायद Φ, φ, Ψ, ψ | Q, q | Ҁ, ҁ, शायद Ф, ф, Ѱ, ѱ | ||||
रोश– | सिर | र | ר | ܪ | ﺭ | Ρ, ρ | R, r | Р, р | ||||
शिन– | दांत | श | ש | ܫ | ش | Σ, σ, ς | S, s | С, с, Ш, ш, Щ, щ | ||||
तऊ– | चिन्ह | त | ת | ܬ |
वर्गीकरण की प्रक्रिया-
वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं।
फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं।
"वैदिक ,अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक ,लैटिन, लिथुआनिया ,रशियन,तथा जर्मन आदि भाषाओं की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और व्याकरण रचना-पद्धति में काफी समानता है।
अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है।
परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है।
भारोपीय भाषा- परिवार में (शतम् )और( केन्टुम) ऐसे ही सजातीय वर्ग हैं।
वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है।जैसे शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ भाषाओं की प्रमुख शाखाएँ हैं।
शाखाओं को उपशाखा में भी बाँटा गया है। भाषा वैज्ञानिक "गिरयर्सन" ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को आन्तरिक (भीतरी) और बाह्य (बाहरी )उपशाखा में विभक्त किया है।
अतः ये उपशाखाऐं भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं।
इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है।
इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।
"वर्गीकरण-
उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की और आकर्षित हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है।
इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर "फेडरिख मूलर " इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर "राइस महोदय विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं।
किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं।
"मुख्य भाषा-परिवार-
दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का वर्णन नीचे है :
भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार (भारोपीय भाषा परिवार)
(Indo-European Languages family)
यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि
वैदिक-ग्रीक-लैटिन- संस्कृत- अंग्रेज़ी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन, नेपाली - ये अनेक भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं।
"संस्कृत, ग्रीक और लैटिन जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है।
लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। जो सेमेटिक है इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (end-inflecting) थीं।
भारोपीय इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। परन्तु आर्य्य शब्द सैमेटिक भाषाओं में एल अथवा अलि के पूूूूूर्व रूप वैदिक अरि से विकसित है।
चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार-
(The Sino - Tibetan Languages Family)
विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है। चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरीयाँ एक ही अनुनासिक्य है।
एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है।
इस भाषा परिवार को'नाग भाषा परिवार'या
ड्रैगन नाम दिया गया है।और इसे'एकाक्षर परिवार'भी कहते हैं।
कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर भी होते हैं।
ये भाषाएँ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, नेपाल,
सिक्किम, पश्चिम बंगाल, भूटान, अरूणाचल प्रदेश,
आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम
में बोली जाती हैं।
सामी-हामी भाषा-परिवार या अफ़्रीकी-एशियाई भाषा-परिवार-
(The Afro - Asiatic family or Semito-Hamitic family)
इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामी, असूरी, सुमेरी, अक्कादी और कनानी वग़ैरह शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम् भाषाएँ अरबी और इब्रानी ही हैं।
मध्य अफ्रीका में रहने वाले अगर लोग सैमेटिक और भारतीय अजरबैजान की आभीर तथा अवर जन जा य इ से भी सम्बद्ध थे । अफ्रीका नामकरण अगर शब्द से हुआ
इनकी भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)।
इन भाषाओं तथा लिपियों के जनक फौनिशियन लोग थे।
"द्रविड़ भाषा-परिवार-
(The Dravidian languages Family)
भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋण उधार शब्द लेने के अलावा)।
____________________________________
परन्तु सत्य पूछा जाय तो ये द्रविड प्राचीन फ्रांस के द्रयूड (Druid) ही थे और इनकी भाषाओं में बहुत से पारिवारिक शब्द आज भी मिलते है । इस पर शोध अपेक्षित है । magan=son शब्द द्रविड ( तमिल ) और ड्रूयड(Druid) केल्टिक में समान है ।
भारत में यह भाषा परिवार नर्मदा और गोदावरी नदियों से कन्याकुमारी अन्तरीप तक फैला है ।इसके अतिरिक्त श्रीलंका बलोचिस्तान विहार प्रदेश में भी इन भाषाओं को बोलने वाले मिल जाते हैं । यह परिवार तमिल भी कहलाता है वाक्य तथा स्वर के कारण यह परिवार यूराल-अल्टाई परिवार के निकट पहुँच जाता है । इस परिवार की भाषाएँ तुर्की आदि की भाँतिअश्लिष्ट अन्त:योगात्मक हैं-२मूल शब्द या धातु में प्रत्यय जुड़ते हैं ।
३-प्रत्यय की स्पष्ट सत्ता रहती है ।४-प्रत्ययों के कारण प्रकृति में कोई विकार नहीं होता।५-निर्जीवशब्द नपुँसक लिंग को माने जाते हैं । वचन दो ही होते हैं । इन भाषाओं में कर्म वाच्य नहीं होता है । मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता है । गणना दश पर आधारित है । इस परिवार में मुख्य चौदह भाषाएँ समायोजित हैं जिनका चार विभागों में विभाजन है १-द्रविडपरिवार२-आन्ध्रपरिवार३-मध्यवर्तीवर्ग४-ब्राहुईवर्ग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ-कन्नड़-तमिल-तुलु-कोडगु-टुडा-मलयालम-तेलुगु-गोंड-कोंड-कुई-कोलामी-कुरुख-माल्टो-।
का अभाव होता है । तमिऴ द्राविड़ भाषा परिवार की प्राचीनतम भाषा मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति के सम्बंध में अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि किस समय इस भाषा का प्रारम्भ हुआ।
विश्व के विद्वानों ने संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के समान तमिऴ को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिऴ भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है।
तमिऴ भाषा में उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर यह निर्विवाद निर्णय हो चुका है कि तमिऴ भाषा ईसा से कई सौ वर्ष पहले ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित हो गई थी।
मुख्य रूप से यह भारत के दक्षिणी राज्य तमिऴ नाडु, श्री लंका के तमिल बहुल उत्तरी भागों, सिंगापुर और मलेशिया के भारतीय मूल के तमिऴों द्वारा बोली जाती है। भारत, श्रीलंका और सिंगापुर में इसकी स्थिति एक आधिकारिक भाषा के रूप में है। इसके अतिरिक्त यह मलेशिया, मॉरिशस, वियतनाम, रियूनियन इत्यादि में भी पर्याप्त संख्या में बोली जाती है। लगभग ७ करोड़ लोग तमिऴ भाषा का प्रयोग मातृ-भाषा के रूप में करते हैं। यह भारत के तमिऴ नाड़ु राज्य की प्रशासनिक भाषा है और यह पहली ऐसी भाषा है जिसे २००४ में भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया।
तमिऴ द्रविड़ भाषा परिवार और भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में गिनी जाती है।
इस भाषा का इतिहास कम से कम ३००० वर्ष पुराना माना जाता है। प्राचीन तमिऴ से लेकर आधुनिक तमिऴ में उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुयी है। तमिऴ साहित्य कम से कम पिछ्ले दो हज़ार वर्षों से अस्तित्व में है। जो सबसे आरंभिक शिलालेख पाए गए है वे तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास के हैं। तमिऴ साहित्य का आरंभिक काल, संघम साहित्य, ३०० ई॰पू॰ – ३०० ईस्वीं का है।
इस भाषा के नाम को "तमिल" या "तामिल" के रूप में हिन्दी भाषा-भाषी उच्चारण करते हैं। तमिऴ भाषा के साहित्य तथा निघण्टु में तमिऴ शब्द का प्रयोग 'मधुर' अर्थ में हुआ है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा के द्राविड़ शब्द से तमिऴ शब्द की उत्पत्ति मानकर द्राविड़ > द्रविड़ > द्रमिड > द्रमिल > तमिऴ आदि रूप दिखाकर तमिऴ की उत्पत्ति सिद्ध की है, किन्तु तमिऴ के अधिकांश विद्वान इस विचार से सर्वथा असहमत हैं।
"गठन-
तमिऴ, हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत लिंग-विभेद प्रमुख नहीं होता है।
देवनागरी वर्णमाला के कई अक्षरों के लिये तमिल में एक ही वर्ण का प्रयोग होता है, यथा –
देवनागरी- | तमिल |
---|---|
क, ख, ग, घ | -க |
च, छ, ज, झ- | ச |
ट, ठ, ड, ढ | -ட |
त, थ, द, ध | -த |
प, फ, ब, भ | -ப |
तमिऴ भाषा में कुछ और वर्ण होते हैं जिनका प्रयोग सामान्य हिंदी में नहीं होता है।
उदाहरणार्थ: ள-ळ, ழ-ऴ, ற-ऱ, ன-ऩ।
"लेखन प्रणाली-
तमिऴ भाषा वट्ट एऴुत्तु लिपि में लिखी जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसमें स्पष्टतः कम अक्षर हैं।
देवनागरी लिपि की तुलना में (यह तुलना अधिकांश भारतीय भाषाओं पर लागू होती है) इसमें हृस्व ए (ऎ) तथा हृस्व ओ (ऒ) भी हैं।
प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग आदि) का केवल पहला और अंतिम अक्षर उपस्थित है,।
बीच के अक्षर नहीं हैं जबकि(अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड, मलयालम में ये अक्षर उपस्थित हैं)।
"र" और "ल" के अधिक तीव्र रूप भी हैं। वहीं न का कोमलतर रूप भी है।
श, ष एक ही अक्षर द्वारा निरूपित हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट (प्रतिनिधि)
ध्वनि ழ (देवनागरी समकक्ष – ऴ, नया जोडा गया) है, जो स्वयं तमिऴ शब्द में प्रयुक्त है (தமிழ் ध्वनिशः – तमिऴ्)।
तमिऴ में वर्गों के बीच के अक्षरों की ध्वनियाँ भी प्रथम अक्षर से निरूपित की जाती हैं, परंतु यह प्रतिचित्रण (mapping) कुछ नियमों के अधीन है।
'तमिऴ-हिन्दी-
संख्याएँ-
- ऒऩ्ऱु = एक
- इरंडू = दो
- मूऩ्ऱु = तीन
- नाऩ्गु = चार
- ऐन्दु = पाँच
- आऱु = छे
- एऴु = सात
- (ऎट्टु = आठ)
- ऒऩ्पदु = नौ
- पत्तु = दस
तमिऴ स्वर-
तमिऴ स्वर | देवनागरी | प के साथ प्रयोग |
---|---|---|
அ | अ | ப (प) |
ஆ | आ | பா (पा) |
இ | इ | பி (पि) |
ஈ | ई | பீ (पी) |
உ | उ | பு (पु) |
ஊ | ऊ | பூ (पू) |
எ | ऎ (हृस्व) | பெ (पॆ) |
ஏ | ए (दीर्ध) | பே (पे) |
ஐ | ऐ | பை (पै/पई) |
ஒ | ऒ (हृस्व) | பொ (पॊ) |
ஓ | ओ (दीर्ध) | போ (पो) |
ஔ | औ | பௌ (पौ/पऊ) |
विसर्ग: அஃ (अः)
व्यंजन-
तमिऴ व्यंजन | देवनागरी में लिप्यंतरण |
---|---|
க் | क् |
ங் | ङ् |
ச் | च् |
ஞ் | ञ् |
ட் | ट् |
ண் | ण् |
த் | त् |
ந் | न् |
ப் | प् |
ம் | म् |
ய் | य् |
ர் | र् |
ல் | ल् |
வ் | व् |
ழ் | ऴ् |
ள் | ळ् |
ற் | ऱ् |
ன் | ऩ् |
मात्राएँ -
क+मात्रा | तुल्य देवनागरी |
---|---|
க | क |
கா | का |
கி | कि |
கீ | की |
கு | कु |
கூ | कू |
கெ | कॆ (हृस्व उचारण) |
கே | के (दीर्घ उच्चारण) |
கை | कै |
கொ | कॊ (हृस्व उचारण) |
கோ | को (दीर्घ उच्चारण) |
கௌ | कौ |
ग्रन्थ लिपि के लिए-
व्यंजन | तुल्य देवनागरी |
---|---|
ஜ் | ज् |
ஶ் | श् |
ஷ் | ष् |
ஸ் | स् |
ஹ் | ह् |
க்ஷ் | क्ष् |
ஸ்ரீ | श्री |
तमिऴ अंक एवं संख्याएँ-
देवनागरी | ० | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | १०० | १०० |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
तमिऴ | ௦ | ௧ | ௨ | ௩ | ௪ | ௫ | ௬ | ௭ | ௮ | ௯ | ௰ | ௱ | ௲ |
तमिऴ लिपि का इतिहास
स्वर | |||
---|---|---|---|
हृस्व | दीर्घ | अन्य | |
அ (अ) | ஆ (आ) | ||
இ (इ) | ஈ (ई) | ||
உ (उ) | ஊ (ऊ) | ||
எ (ऎ) | ஏ (ए) | तमिऴ में एक हृस्व 'ए' स्वर है | |
ஐ (ऐ) | |||
ஒ (ऒ) | ஓ (ओ) | तमिऴ में एक हृस्व 'ओ' स्वर है | |
ஔ (औ) | |||
அஃ (अः) | |||
- (अं) | तमिऴ में यह अक्षर नहीं है |
व्यंजन | टिप्पणियाँ | ||||
---|---|---|---|---|---|
க (क) | - (ख | - (ग) | - (घ) | ங (ङ) | 'ख', 'ग' और 'घ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ச (च) | - (छ) | - (ज) | - (झ) | ஞ (ञ) | 'छ', 'ज' और 'झ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ட (ट) | - (ठ) | - (ड) | - (ढ) | ண (ण) | 'ठ', 'ड' और 'ढ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
த (त) | - (थ) | - (द) | - (ध) | ந (न) | 'त', 'द' और 'ध' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ப (प) | - (फ) | - (ब) | - (भ) | ம (म) | 'फ', 'ब' और 'भ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ய (य) | ர (र) | ல (ल) | வ (व) | ||
ழ (ऴ) | ள (ळ) | हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता. | |||
ற (ऱ) | ன (ऩ) | हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता. | |||
- (श) | - (ष) | - (स) | - (ह) | तमिऴ में इन ध्वनियों का उपयोग ग्रंथ लिपि के कुछ अक्षरों द्वारा लिखा जाता है. |
निम्नलिखित अक्षर ग्रंथ लिपि से उधार और संस्कृत मूल के शब्दों के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है:
- ஜ (ज)
- ஶ (श)
- ஷ (ष)
- ஸ (स)
- ஹ (ह)
- க்ஷ (क्ष)
- ஸ்ரீ (श्री)
_____________________________________________________________
इसलिए मित्रों ! उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं। प्राचीन फ्राँस की गॉल भाषाओंं से है परन्तु जर्मनी भाषाओं से साम्य नहीं है । जैसे केल्टिक जर्मन से भिन्न है । केल्टिक जनजातियां कालान्तर में लैटिन वर्ग की भाषा फ्राँसी बोलने लगीं -
दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई 26 भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं।
"यूराल-अल्टाई परिवार "
प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम – ‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल आदि भी हैं। फिनो-तातारिक स्कीथियन और तू रानी नाम भी हुए परन्तु तुर्की से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारोपीय परिवार के वाद ये दूसरे नम्बर पर है ये भाषाएँ तुर्की , हंगरी और फिनलेण्डसे लेकर औरबोत्सक सागर तक और भूमध्य सागर से उत्तरी सागर तक फैली हुईं है । यह भाषा परिवार भाषा कि पारस्परिक समानता के कारण दो वर्गों में विभाजित है ।
एक यूराल परिवार और दूसरा अल्टाई परिवार-
___________________________
जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानी है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है।
ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं।
प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताऐं होती हैं।
स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि(मक प्रत्यय) यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
(लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। ।
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"भारत और यूरोप के भाषा-परिवार-
यह यूरेशिया (यूरोप-एशिया)का ही नहीं अपितु विश्व का महत्वपूर्ण ' साहित्यव लिपि सम्पन्न प्राचीनतम परिवार है ।
इस परिवार की भाषाएँ - भारत-ईरान-आर्मीनिया तथा सम्पूर्ण यूरोप अमेरिका-दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका आधुनिक ऑस्ट्रेलिया आदि में बोली जाती हैं इसके भाषा-भाषी सर्वाधिक हैं ।
प्रारम्भिक काल में भारतीय संस्कृत और जर्मन भाषाओं की शाब्दिक और व्याकरण या समानता के कारण इण्डो-जर्मनिक रखा गया परन्तु इस परिवार में केल्टिक परि परिवार की भाषाएँ भी थी जो जो जर्मनी वर्ग की भाषाओं से सम्बन्धित नहीं हैं ।
फिर इण्डो-जर्मनिक उचित इन होने से फिर इसका नाम इण्डो-कैल्टिक रखा गया ।
भारोपीय भाषा परिवार के अनेक नाम रखे गये जैसे नूह के पुत्र जैफ( याफ्त-अथवा याफ्स) के नाम पर जैफाइट - काकेशस पर्वत के आधार पर काकेशियन, आर्य, और अन्त: में इण्डो-यूरोपियन नाम प्रसिद्ध रहा ।
१-कैल्टिक शाखा- २-जर्मन शाखा- ३-इटालिक (लैटिन) शाखा ४-ग्रीक शाखा ५-तोखारी( तुषार जनजाति से सम्बन्धित) ६-अल्बेनियन. ७-लैटो-स्लाविक शाखा८-आर्मेनियन शाखा ९-इण्डो-ईरानी शाखा ।
केंतुम् वर्ग–Centum-
1. केल्टिक - आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इस शाखा के बोलने वाले मध्य यूरोप, उत्तरी इटली, फ्रांस अब आयरलैण्ड, वेल्स, स्काटलैंड, मानद्वीप और ब्रिटेनी तथा कार्नवाल के ही कुछ भागों में इसका क्षेत्र शेष रह गया हैजब ग्रीस उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।
4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि 'होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। जब ग्रीक उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।एट्टिक बोली का लगभग चार सौ ई. पू. में बोलबाला था, अत: यही भाषा यहाँ की राज्य भाषा हुई। आगे चलकर इसका नाम ‘कोइने’ हुआ और यह शुद्ध एट्टिक से धीरे-धीरे कुछ दूर पड़ गई और एशिया माइनर तक इसका प्रचार हुआ। उधर मिस्र आदि में भी यह जा पहुंची और स्वभावत: सभी जगह की स्थानीय विशेषताएँ इसमें विकसित होने लगीं।
सतम् वर्ग-Satam-
-शतम् वर्ग-★
"भारोपीय परिवार की सतम् वर्ग की शाखाओं को इस प्रकार दिखाया जा सकता है-
(1). इलीरियन - इस शाखा को ‘अल्बेनियन’ या ‘अल्बेनी’ भी कहते हैं। अल्बेनियन के बोलने वाले अल्बेनिया तथा कुछ ग्रीस में हैं। इसके अन्तर्गत बहुत सी बोलियाँ हैं, जिनके घेघ और टोस्क दो वर्ग बनाये जा सकते हैं। घेघ का क्षेत्र उत्तर में और टोस्क का दक्षिण में है। अल्बेनियन साहित्य लगभग 17वीं सदी से आरम्भ होता है। इसमें कुछ लेख 5वीं सदी में भी मिलते हैं। इधर इसने तुर्की, स्लावोनिक, लैटिन और ग्रीक आदि भाषाओं से बहुत शब्द लिए हैं। अब यह ठीक से पता चलाना असंभव-सा है कि इसके अपने पद कितने हैं। इसका कारण यह है कि ध्वनि-परिवर्तन के कारण बहुत घाल-मेल हो गया है। बहुत दिनों तक विद्वान् इसे इस परिवार की स्वतंत्र शाखा मानने को तैयार नहीं थे किन्तु जब यह किसी से भी पूर्णत: न मिल सकी तो इसे अलग मानना ही पड़ा
(2). बाल्टिक - इसे लैट्टिक भी कहते हैं। इसमें तीन भाषाएँ आती हैं। इसका क्षेत्र उत्तर-पूरब में है। यह रूस के पश्चिमी भाग में लेटिवियाव राज्य की भाषा है।
(3).आर्मेनियन या आर्मीनी - इसे कुछ लोग आर्य परिवार की ईरानी भाषा के अन्तर्गत रखना चाहते हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि इसका शब्द-समूह ईरानी शब्दों से भरा है। पर, ये शब्द केवल उधार लिये हुए हैं।
5वीं सदी में ईरान के युवराज आर्मेनिया के राजा थे, अत: ईरानी शब्द इस भाषा में अधिक आ गये। तुर्की और अरबी शब्द भी इसमें काफ़ी हैं। इस प्रकार आर्य और आर्येतर भाषाओं के प्रभाव इस पर पड़े हैं। इसके व्यंजन आदि संस्कृत से मिलते हैं। जैसे फ़ारसी ‘दह’ और संस्कृत ‘दशन्’ के भाँति 10 के लिए इसमें ‘तस्न’ शब्द है। दूसरी ओर हस्व स्वर ए और ओॉ आदि इसमें अत: इसे आर्य और ग्रीक के बीच में कहा जाता है।
आर्मेनियन के प्रधान दो रूप हैं। एक का प्रयोग एशिया में होता है और दूसरे का यूरोप में। इसका क्षेत्र कुस्तुनतुनिया तथा कृष्ण सागर के पास है। एशिया वाली बोली का नाम अराराट है और यूरोप में बोली जाने वाली का स्तंबुल।
हिन्दी ईरानी या भारत ईरानी -
भारत-ईरानी शाखा भारोपीय परिवार की एक शाखा है। इस शाखा में भारत की आर्य भाषाएँ हैं, दूसरी तरफ ईरान क्षेत्र की भाषाएँ हैं जिनमें फ़ारसी प्रमुख है। इन दोनों को एक वर्ग में रखने का भाषा वैज्ञानिक आधार यही है कि दोनों भाषाओं में काफ़ी निकटता है। क्या दोनों उपशाखाओं की भाषाएँ बोलने वाले कभी एक थे और बाद में उनकी भाषाओं में अधिक अंतर आने लगा? ईरान के निवासी भी आर्य थे। ईरान शब्द ही ‘आर्यों का’ (आर्याणम्) का बदला हुआ रूप लगता है। प्राचीन ईरानी भाषा ‘अवेस्ता’ में आर्य का रूप ‘ऐर्य’ था।
यह संबंध काल्पनिक नहीं है, प्राचीन युग में भारत और ईरान में धर्म का स्वरूप तो विपरीत ही था। परन्तु भाषाई रूप एक था, दोनों की भाषाओं (अवेस्ता और संस्कृत) में बहुत समानता थी। क्या ये लोग किसी तीसरी जगह से आकर इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग बस गये थे? इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि भारत और ईरान के आर्य एक ही मूल के नहीं थे। भारत-ईरानी शाखा की तीन उपशाखाएँ मानी जाती थी।
- भारतीय आर्य भाषाएँ
- भारत' ईरानी' दरद
- ईरानी
- भारतीय आर्य भाषाएँ
- भारत' ईरानी' दरद
- ईरानी
"भारोपीय परिवार का महत्व-
विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय का सर्वाधिक महत्व हैं। यह विषय, निश्चय ही सन्देह एवं विवाद से परे हैं। इसके महत्व के अनेक कारणों में से सर्वप्रथम, तीन प्रमुख कारण यहाँ उल्लेख है-१-विश्व में इस परिवार के भाषा-भाषियों की संख्या सर्वाधिक है।
२-विश्व में इस परिवार का भौगोलिक विस्तार भी सर्वाधिक है।
३-विश्व में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य तथा सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से भी इस परिवार की प्रगति सर्वाधिक हुई है।
४-‘तुलनात्मक भषाविज्ञान’ की नींव का आधार भारोपीय परिवार ही है।
५-भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिये यह परिवार प्रवेश-द्वार है।
६-विश्व में किसी भी परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना नहीं हुआ है, जितना कि इस परिवार की भाषाओं का हुआ है।
७-भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए इस परिवार में सभी सुविधाएँ हैं। जैसे- (क) व्यापकता, (ख) स्पष्टता, तथा (ग) निश्चयात्मकता।
८-प्रारम्भ से ही इस परिवार की भाषाओं का भाषा की दृष्टि से, विवेचन होता रहा है, जिससे उनका विकासक्रम स्पष्ट होता है।
९-संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि इस परिवार की भाषाओं का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है, जो प्राचीन काल से आज तक इन भाषाओं के विकास का ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है और जिसके कारण इस परिवार के अध्ययन में निश्चयात्मकता रहती है।
१०-अपने राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से भी यह परिवार महत्वपूर्ण है। कारण, प्राचीनकाल में भारत ने तथा आधुनिक काल में यूरोप ने विश्व के अन्य अनेक भू-भागों पर आधिपत्य प्राप्त करके अपनी भाषाओं का प्रचार तथा विकास किया है।
इस प्रकार उपर्युक्त तथा अन्य अनेक कारणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि विश्व के भाषा-परिवारों में ‘भारोपीय परिवार’ का महत्व निस्सन्देह सर्वाधिक है।
परिभाषा-इस भाषा परिवार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं । १- भारोपीय भाषाएँ क्लिष्ट योगात्मक बहिर्मुखी विभक्ति प्रधान होती हैं परन्तु आज ये भाषाएँ अयोगात्मकता की ओर उन्मुख हो रही हैं धातुएँ डेढ़ अक्षर (१+१/२) की होती हैं जैसे -गम् ' go (v.)
Old English gan "to advance, walk; depart, go away; happen, take place; conquer; observe, practice, exercise,"
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from West Germanic *gaian (source also of Old Saxon,
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Old Frisian gan,
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Middle Dutch gaen,
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Dutch gaan,
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Old High German gan, German gehen),
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from PIE (proto iindo- europion (मूलभारोपीय)- root *ghē- "to release, let go; be released"
(source also of गम्यते " by goen,"
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Greek kikhano "I reach, meet with"), but there does not seem to be general agreement on a list of cognates .
"नाम शब्द का सम्बन्ध "ज्ञनाम" शब्द से है -संस्कृत में अन्य धातु णमँ(नम्)=प्रह्वत्वे शब्द च' अर्थात नमन करना और शब्द करना
"अनिश्चित परिवार की भाषाऐं जिनमें भारोपीय सूत्र विद्यमान हैं"। इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व की उन भाषाओं का समावेश है" जिनमें मूल भारोपीय तथा अन्य भाषा-मूलक तत्व धूमिल ही हैं। जैसे पूर्वी इटली के मध्य तथा वहीं के उत्तरी प्रान्तों में बोली जाने वाली (एट्रस्कन-भाषा)है ।
दूसरी सुमेरियन भाषा है - परन्तु सुमेरियन भाषा में ही भारोपीय और सैमेटिक भाषाओं के आधार तत्व विद्यमान हैं ।
जैसे नवी, अरि,अप्सु,जैसे शब्द सुमेरियन भाषा में भी है । तुर्फरी-जुर्फरी ये शब्द सुमेरियन ही हैं ।
सृ॒ण्ये॑व ज॒र्भरी॑ तु॒र्फरी॑तू नैतो॒शेव॑ तु॒र्फरी॑ पर्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जेव॒ जेम॑ना मदे॒रू ता मे॑ ज॒राय्व॒जरं॑ म॒रायु॑।।६।। ( ऋ० १०/१०६/६/)
मितज्ञु जन-जाति वेदों में वर्णित हैं।भारतीयों में प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक तथ्यों का एक मात्र श्रोत ऋग्वेद के (2,3,4,5,6,7)मण्डल हैं ।
आर्य समाज के विद्वान् भले ही वेदों में इतिहास न मानते हों। क्योंकि उनके अर्थ पूर्वाग्रह से ग्रस्त धातु अथवा यौगिक है । जो किसी भी माइथोलॉजी के लिए असंगत है । वेदों इतिहास न देखना और उन्हें पूर्ण रूपेण ईश्वरीय ज्ञान कहना महातामस् ही है । यह मत पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित ही है। यह यथार्थ की असंगत रूप से व्याख्या करने की चेष्टा है परन्तु हमारी मान्यता इससे सर्वथा विपरीत ही है ।
व्यवस्थित मानव सभ्यता के प्रथम प्रकाशक के रूप में ऋग्वेद के कुछ सूक्त साक्ष्य के रूप में हैं । सच्चे अर्थ में ऋग्वेद प्राप्त सुलभ पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों का ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है ।
ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के पिच्यानबे वें सूक्त की ऋचा बारह में (7/95/12 ) में मितन्नी जन-जाति का उल्लेख मितज्ञु के रूप में वर्णित है ।
-★ऋग्वेद में 'मितज्ञु जनजाति का वर्णन जो सुमेरियन 'मितन्नी- जन जाति के रूप में हैं ।
पदपाठ-' उत।स्या। नः। सरस्वती।जुषाणा। उप । श्रवत्।सुऽभगा।यज्ञे ।अस्मिन् । मितज्ञुऽभिः । नमस्यैः । इयाना । राया। युजा । चित् । उत्ऽतरा । सखिऽभ्यः ॥ ४ ॥
सायण भाष्य-★मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा) प्रह्व:=प्रहूयते इति स्तोता-नम्र अर्थ सायण ने किया है जो कि असंगत ही है क्योंकि कि सायण ने भी सुमेरियन संस्कृति से अनभिज्ञ होने के कारण ही मितज्ञु शब्द का यह अर्थ किया है । यह खींच तान करके किया गया यौगिक अर्थ है।
"उत अपि च "(जुषाणा =प्रीयमाणा) "(सुभगा= शोभनधना)(स्या सा =“सरस्वती)(नः=अस्माकम्)“(अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् ।= अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु) । कीदृशी सा। “
मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा)= प्रह्वैर्जानुभिः “(नमस्यैः =नमस्कारैर्देवैः) “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन (“राया =धनेन )च (संगता =“सखिभ्यः) ("उत्तरा =उत्कृष्टतरा) । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः ॥
"उतस्यान: सरस्वती जुषाणो उप श्रवत्सुभगा:यज्ञे अस्मिन् मितज्ञुभि: नमस्यैरि याना राया यूजा:चिदुत्तरा सखिभ्य: ।
ऋग्वेद-(7/95/4
ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है । वैदिक सन्दर्भों में वर्णित मितज्ञु जन-जाति के सुमेरियन पुरातन कथाओं में मितन्नी कहा है ।अब यूरोपीय इतिहास कारों के द्वारा मितन्नी जन-जाति के विषय में उद्धृत तथ्य --मितानी हित्ताइट शब्द है जिसे हनीगलबाट भी कहा जाता है । मिस्र के ग्रन्थों में अश्शूर या नाहरिन में, उत्तरी सीरिया में एक तूफान-स्पीकिंग राज्य और समु्द्र से दक्षिण पूर्व अनातोलिया था ।(1500 से 1300) ईसा पूर्व में मिट्टीनी अमोरियों बाबुल के हित्ती विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई और अप्रभावी अश्शूर राजाओं की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक बिजली निर्वात बनाया।
"ऋग्वेद में जिन जन-जातियाें का विवरण है; वो धरा के उन स्थलों से सम्बद्ध हैं जहाँ से विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताऐं पल्लवित , अनुप्राणित एवम् नि:सृत हुईं । भारत की प्राचीन धर्म प्रवण जन-जातियाँ स्वयं को कहीं देव संस्कृति की उपासक तो कहीं असुर संस्कृति की उपासक मानती थीं -जैसे देव संस्कृति के अनुयायी भारतीय आर्य तो असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्य थे।
मितानी का राज्य ई०पू०1500 - 1300 ईसा पूर्व तक
जिसकीव
राजधानी
वसुखानी
भाषा हुर्रियन
(Hurrion)
अब समस्या यह है कि आर्य शब्द को कुछ पाश्चात्य इतिहास कारों ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर जन-जातियों का विशेषण बना दिया । वस्तुत आर्य्य शब्द जन-जाति सूचक उपाधि नहीं था।यह तो केवल जीवन क्षेत्रों में यौद्धिक वृत्तियों का द्योतक व विशेषण था ।आर्य शब्द का प्रथम प्रयोग ईरानीयों के लिए तो सर्व मान्य है ही परन्तु कुछ इतिहास कार इसका प्रयोग मितन्नी जन-जाति के हुर्री कबींले के लिए स्वीकार करते हैं । परन्तु मेरा मत है कि हुर्री शब्द ईरानी शब्द हुर-(सुर) का ही विकसित रूप है।क्यों कि ईरानीयों की भाषाओं में संस्कृत "स" वर्ण "ह" रूप में परिवर्तित हो जाता है । सुर अथवा देव स्वीडन ,नार्वे आदि स्थलों से सम्बद्ध थे । परन्तु वर्तमान समय में तुर्की "जो मध्य-एशिया या अनातोलयियो के रूप है । की संस्कृतियों में भी देव संस्कृति के दर्शन होते है।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्ध इत्थ्य , दएव,यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं इसके विपरीत ईरानी धर्म में असुर' दस्यु, दास , तथा वृत्र' पूज्य हैं ।
"भारोपीय परिवार-भारोपीय भाषा परिवार की दो प्रधान शाखाएँ हैं ।(Ahura Mazda)- अवेस्ता एजैन्द में असुर महत् ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । और देव दुष्ट तथा बुरी शक्तियों का वाचक है ।
"Daeva-देवा-दुष्ट और Asur-असुर -श्रेष्ठ और शक्तिशाली ईश्वर का वाचक है।
Ahura Mazdah ("Lord Wisdom") was the supreme god, he who created the heavens and the Earth, and another son of (Zurvan). As leader of the Heavenly Host, the (Amesha Spentas), he battles Ahriman and his followers to rid the world of evil, darkness and deceit. His symbol is the winged disc. _____ | |
Ahurani | असुराणी- यह वरुण की पत्नी है जो स्वास्थ्य चिकित्सा और जल की देवी हैं । Ahurani is a water goddess from ancient Persian mythology. She watches over rainfall as well as standing water. She was invoked for health, healing, prosperity, and growth. She is either the wife or the daughter of the great god of creation and goodness, Ahura Mazda. Her name means "She who belongs to Ahura". |
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"Div या देव ( फ़ारसी : Dīv (دیو )ईरानी की पौराणिक कथाओं में देव दुष्ट प्राणी हैं , और जो आर्मेनिया , तुर्क देशों और अल्बानिया सहित आसपास की संस्कृतियों में फैले हुए हैं । मुहावरों या ओग्रेसियों की तुलना में, उनके पास एक मानव के समान एक शरीर है, लेकिन विशाल, दो सींगों के साथ, एक मानव मांस, शक्तिशाली क्रूर और पत्थर के दिल के साथ एक सूअर की तरह दांतों वाला। उनके शारीरिक आकार के बावजूद, जैसे जिन्न और श्यातिन (दुष्ट आत्माओं के कब्जे और पागलपन का कारण बताए गए हैं। उनके प्राकृतिक विरोधी पेरी हैं ,
शाहनाम - दि अकवन ने रुस्तम को समुद्र में फेंक दिया
मूल-देव शायद से ही शुरू अवेस्तन daeva , में बुराई के सिद्धांत के द्वारा बनाई गई बुरी आत्मााओं
"jorastrianism , Ahriman के दौरान इस्लामी अवधि, (daeva) के विचार देव की धारणा के लिए बदल दिया; शारीरिक आकार में राक्षसी जीव, लंबे दांत और पंजे के साथ, अक्सर पश्चिमी ओग्रे की तुलना में । [Translations ] कुरान के पहले अनुवादों का फारसी भाषा में अनुवाद कुरान के दुष्ट जिन्न को देव के रूप में परिवर्तित करता प्रतीत होता है , दोनों अलग-अलग प्रकार के जीवों के कुछ भ्रमों की ओर ले जाता है। बाद में उन्हें इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य के बीच कई संस्कृतियों द्वारा अनुकूलित किया गया ।
इस्लाम-
"अलीक़ुली - किंग सोलोमन और देेेव=दुष्ट - वाल्टर W62494B - पूर्ण पृष्ठ
' देवदूत या पेरी को पकड़ने वाला देव
टीका-
तबरी के अनुसार , दुर्भावनापूर्ण देवता पूर्व- जीव प्राणियों की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं, जो परोपकारी पेरिस से पहले हैं , जिन्हें वे एक निरंतर लड़ाई लड़ते हैं। हालाँकि, सभी एक्सटेगेट्स इससे सहमत नहीं हैं। इस्लामिक दार्शनिक अल-रज़ी ने अनुमान लगाया कि देव दुष्ट मृतकों की आत्मा हैं, उनकी मृत्यु के बाद देव में बदल गए।
लोक-साहित्य-
फ़ारसी लोककथाओं में, देवों को जानवरों के सिर और खुरों के साथ सींग वाले पुरुषों की तरह देखा जाता है। कुछ सांप का रूप लेते हैं या कई सिर वाले अजगर हालाँकि,शेपशिफ्टर्स के रूप में , वे लगभग हर दूसरे रूप को भी ले सकते हैं। वे रात के दौरान डरते हैं, जिस समय वे जागते हैं, क्योंकि यह कहा जाता है कि अंधेरा उनकी शक्ति को बढ़ाता है। गुलाम हुसैन सा'दी की (अहल-ए-हवा -(हवा के लोग), विभिन्न प्रकार के अलौकिक जीवों के बारे में कई लोककथाओं पर चर्चा करते हुए, उन्हें द्वीपों या रेगिस्तान में रहने वाले लंबे जीवों के रूप में वर्णित करते हैं और उन्हें छूकर मूर्तियों में बदल सकते हैं।
★-अर्मेनियाई पौराणिक कथाएँ-
में अर्मेनियाई पौराणिक कथाओं और कई विभिन्न अर्मेनियाई लोक कथाओं, देव (में अर्मेनियाई- դեւ) एक वस्तु के रूप में और विशेष रूप से एक दुर्भावनापूर्ण भूमिका में दोनों प्रकट होता है,और एक अर्द्ध दिव्य मूल है। देव अपने कंधों पर एक विशाल सिर के साथ एक बहुत बड़ा है, और मिट्टी के कटोरे जितना बड़ा है।उनमें से कुछ की केवल एक आंख हो सकती है। आमतौर पर, ब्लैक एंड व्हाइट देव होते हैं। हालांकि, वे दोनों या तो दुर्भावनापूर्ण या दयालु हो सकते हैं।
व्हाइट देव में मौजूद है होव्हान्नेस टुमैनयान (की कहानी "Yedemakan Tzaghike" Եդեմական Ծաղիկը), के रूप में "स्वर्ग का फूल" अनुवाद। कथा में, देव फूल के संरक्षक हैं।जुश्कापरिक, वुश्पकारिक या गधा-पाइरिका एक और चिरामिक प्राणी है जिसका नाम आधा-आसुरी और आधा-पशु होने का संकेत देता है, या एक पायरिका-जो एक महिला देव है जिसमें प्रचंड प्रवृत्ति है - जो एक गधे के रूप में प्रकट हुई और खंडहर में रहती थी।
★-फारसी की पौराणिक कथा-
"तुर्की सियाह क़लम नृत्य देवों का चित्रण-
-★- जिस प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व हेय रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी तथा अशीरियन देवों को दुष्ट व व्यभिचारी रूप में वर्णन किया गया है ___________
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शैतान शब्द स्वयं सुमेरियन ' भारतीय और यूरोपीय आयोनियन संस्कृतियों को मूलत: एक रूपता में दर्शाता है।_____________________
"शैतान भी कभी सन्त था हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतान (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन(شيطان) रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में "त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में "थ्रएतओन"के रूप में है ।
परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में "सेहतन" के रूप में विकसित है ।
यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर-
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-"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।
"त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु"-अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।
परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है ।
यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ; जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ समान थीं ।
सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर सम्मिलित हुए थे ।
"शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थ मूलक एवं वर्णमूलक रूप में विन्यस्त है वह निश्चित ही उसका परिवर्तित और विकसित रूप है सैमेटिक भाषाओं हिब्रू अ़रबी आदि में विद्यमान शैतान (शय्यतन शब्द ऋग्वेद के त्रैतन का रूपान्तरण है "-
जो ईरानी ग्रन्थ 'अवेस्ता ए जेन्द' में 'थ्रेतॉन–(Traetaona) के रूप में है ; और यहीं से यह
शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।
-क्यों कि ? " त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।जैसे संस्कृत 'त्रितार -वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में 'सितार' कहा जाता है । इसी भाषायी पद्धति से वैदिक 'त्रैतन - 'सैतन और फिर सैतान /शय्यतन रूप परिवर्तित हो जाता है ।
-सितार शब्द की व्युपत्ति -हिन्दी सितार ( सितार ) / उर्दू ستار ( sitār ) का सम्बन्ध , फारसी भाषा के سهتار ( se-târ) "सि -तार" से है जिसका शाब्दिक अर्थ है ; " तीन -तार " ) वस्तुत यह तीन ही वायरों से बनता है ।
'सितार( संगीत ) एक हिन्दुस्तानी / भारतीय शास्त्रीय तारों वाला वाद्य- यन्त्र -
"व्युत्पत्ति और इतिहास "-सितार नाम फारसी भाषा से आता है سیتار (sehtar) سیہ seh अर्थ तीन और تار तार का अर्थ स्ट्रिंग है। एक समान उपकरण, 'सितार' का उपयोग इस दिनों ईरान और अफगानिस्तान में किया जाता है, और मूल फारसी नाम का अभी भी उपयोग किया जाता है।
दोनों यन्त्र तुर्की "टैनबूर "तानपूरा से अधिकतर व्युत्पन्न होते हैं, जो एक लंबे, वीणा जैसा यन्त्र है जिसमें कोई "Tembûr और (sehtar) सेह-तार दोनों को पूर्व इस्लामीयत से फारस में इस्तेमाल किया गया था ;
और आज भी तुर्की में यह उपयोग किया जाता है।
वैकल्पिक रूप से, रुद्र वीणा नामक एक पुराना भारतीय उपकरण कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सितार जैसा दिखता है।
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-ऋग्वेद में मण्डल 1 अध्याय 22 तथा सूक्त 158 पर देखें 👇
★-न मा गरन् नद्यो मातृतमा दासा यदींसुसमुब्धमवाधु: शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध।५।। ऋग्वेद-१/१५८/५- दीर्घ तमामामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगेअपामर्थ यतीनां ब्रह्मा भवति सारथि।६।।
ऋग्वेद-१/१५८/६
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-ऋषि - दीर्घ तमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप -अर्थ व अनुवाद★
हे ! अश्निद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया ।
"त्रैतन दास ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ।5।
ममता का दीर्घतमा दश वर्ष पश्चात् वृद्ध हुआ ।
कर्म फल की इच्छा से स्तुति करने वाले स्तोता (ब्रह्मा) रथ युक्त हुए।6।
"ऋग्वेद मण्डल-1 सूक्त 158 -ऋचा-5-6
"न । मा । गरन् । नद्यः । मातृऽतमाः । दासाः । यत् । ईम् । सुऽसमुब्धम् । अवऽअधुः ।
शिरः । यत् । अस्य । त्रैतनः । विऽतक्षत् । स्वयम् । दासः । उरः । अंसौ । अपि । ग्धेतिग्ध ॥५।।
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“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥
गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४)
इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् ।
किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥
हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः।
ऋग्वेद में ही अन्यत्र - त्रितोनु के विषय में वर्णन है ।
"अस्य त्रितोन्वोजसा वृधानो विपा वराहम यो अग्रयाहन् ।।6।
(ऋग्वेद 10/99/6)
अर्थात् इस त्रितोनु ने ओज के द्वारा लोह समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।
आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये
(ऋग्वेद 10/115/4 )
त्रातन -दैत्य विशेष त्रित अप्त्यस्य (ऋग्वेद 1/124/5)
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१४६६ । ६७ पृ० एकतशब्दोक्ते आप्त्ये
१- देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे २- ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः तायड ।त्रिषु विस्त्रीर्णतमे ३- प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रि० ।“यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्” ऋ० १। १८७।१।
त्रित ऋभुक्षा: ,सविता चनो दधे८पां नपादाशहेमा धिया शमि ।6।ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 3 सूक्त 31 ऋचा 6.
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.हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।
.त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।
अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित द्वारा सञ्चालित करते हैं ।
ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14
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"मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।
त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।_______________________________________
दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं। हे इन्द्र ! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है। इस बात को आप्त्य-(जल)का पुत्र त्रित जानता है । इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है। हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।
ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है
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"शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः” ऋ०१।१५८८ । ५ । “त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः”
★- भाष्य व सरलीकरण-
"अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित: ।।5।
अभिमुख गमन करने वाली नदीयों के समान वृत्र से युद्ध करने वाले इन्द्र और उसके सहायक मरुतों को सोम का आनन्द प्राप्त हुआ ।
तब सोम पान से साहस में बढ़े हुए इन्द्र ने वल की परिधि के समान त्रित को भेद दिया ।
ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 10 सूक्त 54 का 5 वाँ सूक्त ।
"ऋग्वेद के कतिपय स्थलों पर त्रित तथा पूषण को साथ साथ दर्शाया है ।
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन
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त्रिते देवता अमृजतैत देनस्त्रित एनन्मनुयेषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे ताँ देवा
ब्रह्मणानाशयन्तु।१।
मरीचीर्धूमान प्रविशानु पाप्मन्नु दारान् गच्छोतवानीहारान् नदी नाम फेनानाँ अनुतान् विनश्य भ्रूण हिन्दुस्तान पूषन् दुरितानि मृक्ष्व द्वादशधानिहितं
त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यै नसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तांते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ।
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"देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया । त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर । हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा । त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है। हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !
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अवेस्ता ए जन्द़ में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का बताया गया है ।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , दएव,
यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4
उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं
इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र पूज्य हैं ।
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"(thraetaona )थ्रेतॉन ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक त्रित -आपत्या के साथ है ।
अवेस्ता में 'यम' को 'यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।
अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है ।
भारतीय वैदिक सन्दर्भों में १-एकत: २-द्वित:और ३-त्रित:
के विषय में अनेक रूपक हैं ।👇
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"त्रित: कूपे८वहितो देवान् हवत ऊतये । तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ।
(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)
"कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ देवाह्वान किया ;तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुऐ से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थनाकरता है ।
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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ____________________
"यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया हे अश्व तू यम रूप है।सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है ।यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।
मण्डल(1) सूक्त(163) ऋचा संख्या(2-3)
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"त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )शब्द वस्तुत त्रित मूलक है अवेस्ता ए जेन्द़ में त्रिथ चिकित्सक का वाचक है ।तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।
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अवेस्ता में वर्णित है कि
"यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम् क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् । गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम् द्रुजँम् फ्रच कँरँ तत् अड.गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम् ।।
...(यस्न 9,8 अवेस्ता )--___________________
"अर्थात् जिस थ्रएतओन जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह आप्त्य का पुत्र है ।उसने अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था। जो अहि तीन जबड़ो वाला ,तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वालाहजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी ,जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था । जिस बलशाली को अंगिरा मइन्यु ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए निर्मित किया था वस्तुत उपर्युक्त कथन अहि दास के लिए है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/1/8 देखें👇
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स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत्
त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/1/8)
👇जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं। जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇
उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है ।
ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-
👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा
३६।८।४ ।१७।१।६।
👇अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप: सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५
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नॉर्स पुरा-कथाओं में (Thridi) थ्रिडी ओडिइन का पुराना नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।
👇और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है । ट्राइटन "Triton"(Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी समुद्र का देवता है । जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रिता को रूप में है । वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं।
(THRIDI)-नॉर्स ज्ञान का देवता इसे "Þriðji" के रूप में भी जाना जाता है । यह एक और अजीब ऋषि है । वह हर और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन(त्रिक)का तीसरा सदस्य है।
उनका नाम 'तीसरा' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है। थ्रिडी तथ्य और फिगर
नाम: "THRIDI" उच्चारण: जल्द ही आ रहा है । वैकल्पिक नाम: Þriðji स्थान: स्कैंडिनेविया प्रभारी: ज्ञान देव: ज्ञान
विली (वल ) और वी (वायु)
"ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्मांड बनाते हैं विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय (वायु)", भगवान ओडिन के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे। उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।
तीन भाइयों ने विशाल यमिर को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी शव से बना दिया।
जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।
विली और वी भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।
दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।पुराने नोर्स साहित्य में 'विली और 'वी के अन्य स्पष्ट संदर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।
स्माररी के प्रोज एडडा में हहर ("हाई"), जफरहरर ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,
लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं।
विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।
दिलचस्प बात यह है कि ओडिन, विली और वी के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः * वुंडानाज़ , * वेल्जोन , और * विक्सन थे । यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और संभवतः सहस्राब्दी या दो से कम नहीं उस तारीख से पहले।
यद्यपि वे केवल वाइकिंग एज से साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित हैं और इसके तुरंत बाद, विली और वी नर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और संभवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए। जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में डाले जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।
दरअसल, ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्मांड को अलग करते हैं। इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्मांड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरंतर रखरखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तंभों में से तीन बने रहे।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ। 362।
अर्थात् थ्रिडी ज्ञान का नॉर्स देवता है ।_____________________
ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन , समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।
"यूनानी पुराणों में त्रैतन (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite)का पुत्र था। जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।
वेदों में पूषण देखें -👇____________
"यस्य ते पूषन् त्सख्ये पिपन्यव: कृत्वा चित् सन्तोऽवसा बभ्रुज्रिरे ।तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे ।
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"पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है । जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है ।
शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में थी यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन- अथर्ववेद ६/११३ और ११४ सूक्त)
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👇"त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥१॥ (6./113/1-अथर्ववेद)
मरीचीर्धूमान् प्र विशानु पाप्मन्न् उदारान् गछोत वा नीहारान् ।
नदीनं फेनामनु तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृक्ष्व ॥२॥ (6./113/2-अथर्ववेद)
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥३॥(6./113/3-अथर्ववेद)
"यद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृम वयम् आदित्यास्तस्मान् नो युयमृतस्य ऋतेन मुञ्चत ॥१॥
(अथर्ववेद 6/114/1)
ऋतस्य ऋतेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः ।
यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥२॥
(अथर्ववेद 6/114/2)
मेदस्वता यजमानाः स्रुचाज्यानि जुह्वतः ।
अकामा विश्वे वो देवाः शिक्षन्तो नोप शेकिम ॥३॥
(अथर्ववेद 6/114/3)
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८]
त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।
-त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७]
भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है ।
"एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।
त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये ।
तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तै.ब्रा ३.२.८.१०-११]
-महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।गौतम को "एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र थे ।
यह सब ज्ञाता थे । परन्तु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था । इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की । गौऐं ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था । दोनों भाई गौओं को हॉंकते हुए पीछे जा रहे थे इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी । त्रित निःशंक मन से जा रहा था।
इतने में सामने से एक भेडिया आया ।
उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा ।
"इसने काफी चिल्लाहट मचाई । परंतु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया । भेडिया का डर तो था ही ।जल-हीन, धूलि-युक्त तथा घास से भरे कुएं में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृत्यु भय से मैं कुए में गिरा इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’। इस विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।
उनकी सन्तति को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया ।
"बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी [म.श.३५];[ भा.१०.७८]
आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कंद.७.१.२५७] ।
यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton)एक समुद्र का देवता है ।जो पॉसीडन(Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है।
"Triton is the a minor seafood Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea "
"त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक वैदिक अहिदास की लड़ाई हुई यूनानी महाकाव्यों में अहि (Ophion) के रूप में है ।ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है । वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का कारण करने से होने के कारण इसके यह नाम मिला ।
वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----
"यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्व०(२०/१५३/५ )
अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )लैटिन "Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के "त्रातर्" से साम्य रखते है ।
बाद में इसका पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने साम के रूप में वर्णित किया है।
परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में त्रेतन को दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था ।
देखें---
यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा दास अहीं समुब्धम बाधु: ।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।
ऋग्वेद--१/१५८/५
-अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्यु ने युद्ध में बाँध कर मुझे फैंक दिया .
त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..
वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि देव संस्कृति के अनुयायी आर्य इस समय सुमेरियन" बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थे। क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है।
यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू" ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है। यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।
तब सुमेरियन" बैवीलॉनियन" असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे ।
असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है। संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है =(तीन)
जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य) फ़ारसी में सिहतार हो गया है । इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है । क़ुरान शरीफ़ में शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है। जो फारसी सिहतान का रूपांतरण है।
ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है । कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया तो त्रित- त्रेतन हो गया । अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।
देखिए-- त्रित देव "अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे" --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६
-अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के ' लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया वस्तुत: त्रेतन पहले देव था
हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।
-अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...कहा गया है ।अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्यय ही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा _____________________
बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇
परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।
(यशायाह- 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।
यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।
-वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)। यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।
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-शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।
वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)। उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।" हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।
"शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।__________________
"शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य –आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है (प्रकाशित वाक्य 20:10)।___________________
"इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है। यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है। बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट, प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है।
त्रैतन-★†
अनुवाद-जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे। किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं। बाइबिल के उत्तरार्द्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
"ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था।
कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था। एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था। ट्राइटन की विशेषता एक मुड़कर सीशेल- (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।___________________
अनुवाद-(Poseidon)पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।(Amphitrite)एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।ग्रीक : Τρίτων Tritōn ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है । वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है। ट्रिटॉन की विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया। इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की। शायद 'सूकर के सादृश्य पर --हेसियोड के थेसिस के अनुसार, ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम त्रिटोनियन हुआ।, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक" _______________
ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी। ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।_____________________
"जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो 'Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है। "राहेल ब्रॉमविच" ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में इस रूप का सम्मान किया।प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ;ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη )
एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह समुद्र जगत् की साम्राज्ञी थी। ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया।
रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।_____________________
पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में -"बिस्ली ओथेका" के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर से सम्बंधित करती हैं । ।दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन पानी ) कहा। एम्फिट्राइट की संतान में सील और डॉल्फ़िन शामिल थे। पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था,
और एक बेटी, रोडोस (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन(सुमेरियन -पिक्स-नु-वैदिक-विष्णु) द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus ) की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।________________________________________
बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।
एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)
एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।
वह थियिसिस के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित") को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।
"प्रतिनिधित्व और पंथ :-
यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था।
,एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना।
बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।
यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया, और उसे ले जाया गया। लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई, वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है।
"पूषण बारह आदित्यों में से एक हैं
"आदित्याश्च द्वादश यथोक्तं विष्णुधर्मोत्तरे भारते च “घाता मित्रोऽर्य्यमा रुद्रो वरुणः सूर्य्यएव च भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमः स्मृतः एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते” इति (विष्णुधर्मोत्तरपुराण)
ऋ० १० । ५ । ५ । में वर्णन है
"स्वसॄ॒ररु॑षीर्वावशा॒नो वि॒द्वान्मध्व॒ उज्ज॑भारा दृ॒शे कम् । अ॒न्तर्ये॑मे अ॒न्तरि॑क्षे पुरा॒जा इ॒च्छन्व॒व्रिम॑विदत्पूष॒णस्य॑ ॥
(पूर्व काल में जब बहिन ही पत्नी रूप में थी )( ऋ० १ । ८२ । ६ )हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा तौरेत में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है।एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों (σαταν), शैतान में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40 ई०सन् और 90 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।
"वेदों की शब्दावली और देव सूची के बहुतायत अँश सुमेरियन और बाबुली संस्कृति के रूपों की साम्य रखता है ।
विष्णु का सुमेरियन संस्कृति में वर्णन-82 Number. ( INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED) भारतीय तथा सुमेरियन सील ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर.. अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण)
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डैगन ( फोनीशियन भाषा में तो दागुन ; हिब्रू : भाषा में और डेओजोगोन , तिब्बती भाषा में दागान रूपान्तरण है वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है।
ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों जन-जातियों में एक प्रजनन देवता के रूप में मान्यता दी गई ।
दागोन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही है ।
इसकी माता शाला या अशेरा और पिता "एल" के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।
"शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुण- भावना की प्रतिमूर्ति थी।
अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है, ।
और यह विश्वास है कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं की करुणा का ही कार्य था। कुछ
परम्पराऐं शाला को प्रजनन देवता और दागोन (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं!
या तूफान देवता हदाद के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है।
प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है।
कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है।
बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बने रहे हैं।
जैसे अनाज के कान, भले ही देवता का नाम संस्कृति से संस्कृति में बदल गया हो।
भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है ।
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शिल्--क = शिला ।
गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां ।
१ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् ।
२ पाषाणे
३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः ।
४ स्तम्भशीर्षे
५ मनःशिलायां स्त्री मेदि० ६ कर्पूरे राजनि० ।
अर्थात् शिला का अर्थ अन्न जो खेतों में से बीना जाता है
वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है।
जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री ही कालान्ततरण में श्री के रूप में उचित हुआ ।
जिसे ईष्टर भी कहा गया ।
अथिरत (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मंदिरों के साथ पलिश्तियों फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है।
श्री' स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं ।
और अरि लौकिक संस्कृतियों में एल हो गया ।
"मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लंबे समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है, ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है, और अश्शूर कला में " मर्मन- (मत्स्य मानव) के " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" शब्द में
यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ था, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था।
इसी प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन (पिस्क-नु) के बराबर माना जाता है, और " जल के बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा।
और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है। ।
वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है !
इस संकेत को" वृद्धि हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गानू, बी, 6925) कहा जाता है, जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, संस्कृत व्याकरणिक शब्द गत के साथ समान रूप से होता है।
विसारः, पुं० रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ + “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ” ३ । ३ । १७ ।
इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)।
इति अमर कोश ॥
विसार शब्द ऋग्वेद में आया है ।
जो मत्स्य का वाचक है ।👇
ऋग्वेदे । १ । ७९ । १ । “हिरण्यकेशो रजसो
विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥
“रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥)
अमरकोशः में विसार का उल्लेख है ।
विसार पुं० ( मत्स्यः )
समानार्थक:पृथुरोमन्,झष,मत्स्य,मीन,वैसारिण,
अण्डज,विसार,शकुली,अनिमिष
1।10।17।2।1
पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः।
विसारः शकुली चाथ गडकः शकुलार्भकः॥
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क्यों कि रोमन संस्कृति में श्री (सिरी) कृषि अनाज और प्यार की रोमन देवी थी!
जैसे एक मां अपने बच्चे के लिए सहन करती है 'बर कष्ट वैसे ही यह देवी है।
वह शनि (क्रोनॉस) और ओपीएस की बेटी थी,
बृहस्पति की बहन,
और Proserpine की मां। ...
वह मानव जाति की अपनी सेवा के लिए उन्हें फसल का उपहार देने में प्रिय थीं,
श्रीः, स्त्री, (श्रयतीति । श्रि + “क्विप्वचिप्रच्छीति " उणादि सूत्र २ । ५७ । इति क्विप् दीर्घश्च )
लक्ष्मीः (यथा, विष्णुपुराणे । १ । ८ । १३ ।
“श्रियञ्च देव देवस्य पत्नी नारायणस्य च या
देवता डेगन पहले मारी ग्रंथों में और व्यक्तिगत अमोरेत नामों में 2500 ईसा पूर्व के मौजूदा रिकॉर्ड में प्रकट होता है ।
जिसमें मेसोपोटामियन देवताओं इलु ( Ēl ), दगन और अदद विशेष रूप से आम हैं।
कम से कम 2300 ईसा पूर्व से एब्ला (मार्डिक को बताएें जो बाद में मोलोक या मालिक हुआ ।
भारतीयों में ये मृडीक है ) 🐩में, डगन शहर के देवता के प्रमुख थे, जिनमें 200 देवताओं शामिल थे और बीई - डिंगिर - डिंगिर , "देवताओं के भगवान" और बेकलम , "भूमि के भगवान" ।
उनकी पत्नी को केवल बेलातु, "लेडी" के नाम से जाना जाता था। ईमुल नामक एक बड़े मंदिर परिसर में दोनों की पूजा की गई, "हाउस ऑफ द स्टार"।
इब्ला की एक पूरी तिमाही और उसके द्वारों में से एक का नाम दगन के नाम पर रखा गया था। दगन को टीलू माटाइम , "भूमि का ओस" और बीकानाना , संभवतः " कनान के भगवान" कहा जाता है।
उन्हें कई शहरों के स्वामी कहा जाता था: तुट्टुल , इरिम, मा-ने, ज़राद, उगाश, सिवाद और सिपिशु के। डगन का कभी-कभी सुमेरियन ग्रंथों में उल्लेख किया जाता है लेकिन बाद में असीरो-बेबीलोनियन शिलालेखों में एक शक्तिशाली और युद्ध के संरक्षक के रूप में प्रमुख बन जाता है।
कभी-कभी एनिल के साथ समान होता है।
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डगन की पत्नी कुछ स्रोतों में देवी शाला (जिसे अदद की पत्नी भी कहा जाता था और कभी-कभी निनिल के साथ पहचाना जाता था )।
अन्य ग्रन्थों में, उनकी पत्नी अशेरा है ।
अपने प्रसिद्ध कानून संहिता के प्रस्ताव में, राजा हम्मुराबी ने खुद को "अपने निर्माता" दगान की मदद से फरात के साथ बस्तियों का उपद्रव कहा।
सीडर माउंटेन से नारम-पाप के अभियान के बारे में एक शिलालेख ( एएनईटी , पृष्ठ 268) से संबंधित है: " नारम-पाप ने अरमान और इब्ला को देवता के 'हथियार' के साथ मार डाला जो अपने राज्य को बढ़ाता है।
" 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारी की अदालत में एक अधिकारी और नहर (बाइबिल शहर नाहोर) ( एएनईटी , पी) के एक अधिकारी ने इटुर-असडू द्वारा लिखित, 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारि के राजा जिमरी -लिम को लिखे एक पत्र में एक दिलचस्प प्रारंभिक सन्दर्भ दिया।
यह "शाका से आदमी" का सपना बताता है जिसमें डैगन दिखाई देता था। सपने में, डैगन ने ज़िमरी-लिम की यमीनाइट्स के राजा को त्यागने में विफलता पर ज़िमरी-लिम की विफलता पर टेकका में दगान को अपने कर्मों की एक रिपोर्ट लाने में विफलता पर दोष डाला । डैगन ने वादा किया कि जब ज़िमरी-लिम ने ऐसा किया है: "मेरे पास मछुआरे के थूक पर यमीनाइट्स [कोओ] के राजा होंगे, और मैं उन्हें आपके सामने रखूंगा।
" 1300 ईसा पूर्व के आसपास उगारिट में , डैगन के पास एक बड़ा मंदिर था और पिता-देवता और Ēl के बाद, और बाईल इपान (वह भगवान हैडु या हदाद / अदद) के बाद पैंथन में तीसरा स्थान मिला था।
यूसुफ फोंटेनेरोस ने पहली बार दिखाया कि, जो भी उनकी गहरी उत्पत्ति, यूगारिट डैगन में कभी-कभी एल के साथ पहचाना गया था, यह बताते हुए कि क्यों डगन , जो उगारिट में एक महत्वपूर्ण मंदिर था, रास शामरा पौराणिक ग्रंथों में इतनी उपेक्षित है, जहां डैगन का पूरी तरह से उल्लेख किया गया है भगवान हदाद (बाल) के पिता के रूप में गुजरते हुए, लेकिन एला , एल की बेटी, बाल की बहन है।
और क्यों यूगारिट में एल का कोई मंदिर नहीं दिखाई दिया। यह संदेह है कि डैगन "एल और अथिरत के सत्तर पुत्र" में से एक था ।
जिसने बाद में हदाद (बाल) को निकाल दिया जो आखिरकार एल की परिषद के दूसरे चरण में खुद को मजबूर करने का प्रयास करेगा (हालांकि वह अन्ततः असफल हो जाएगा इस प्रयास में) कभी-कभी मेसोपोटामियन शाही नामों में डेगन का इस्तेमाल किया जाता था। इसिन के पूर्व-बेबीलोनियन राजवंश के दो राजा इददीन-दगन (सी। 1 974-1954 ईसा पूर्व ) और इश्मे-दगन (सी। 1 9 53-19 35 ईसा पूर्व ) थे। उत्तरार्द्ध का नाम बाद में दो अश्शूर राजाओं द्वारा उपयोग किया गया: इश्मे-दगन
आई (सी। 1782-1742 ईसा पूर्व ) और इश्मे-डगन II (सी। 1610-1594 ईसा पूर्व )।
लौह युग की विचारों का प्रकाशन-
9 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के अश्शूर सम्राट अशरसाइरपाल द्वितीय ( एएनईटी , पृष्ठ 558) का स्टीर अशरसिरपाल को अनु और दगन के पसंदीदा के रूप में संदर्भित करता है।
एक अश्शूर कविता में, डगन मृतकों के न्यायाधीश के रूप में नर्गल और मिशारू के बगल में दिखाई देते हैं।
देर से बेबीलोनियन पाठ उन्हें ईश्वर के भगवान के सात बच्चों के अंडरवर्ल्ड जेल वार्डर बनाता है।
सीदोन (5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के राजा एश्मुनजार के कर्कश पर फोनीशियन शिलालेख
(एएनईटी, पृष्ठ 662) से संबंधित है: "इसके अलावा, राजाओं के भगवान ने हमें दागोन की शक्तिशाली भूमि डोर और जोपा दिया, जो कि मैदान के मैदान में हैं शेरोन , मैंने किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के अनुसार। " संचुनीथोन ने स्काई यूरेनस (वरुण) और पृथ्वी के दोनों पुत्र क्रोनस के भाई दागोन को बताया, लेकिन वास्तव में हदाद के पिता नहीं थे। स्काई को अपने बेटे castl द्वारा डाला जाने से पहले हदद (डेमारस) एक उपनगरीय पर "स्काई" द्वारा पैदा हुआ था, जहां गर्भवती उपनगरीय दागोन को दिया गया था।
तदनुसार, इस संस्करण में डैगन हदाद के आधे भाई और सौतेले पिता हैं।
बीजान्टिन एटिमोलॉजिक मैगनम ने डैगन को फोएनशियन क्रोनस के रूप में सूचीबद्ध किया है। हिब्रू बाइबिल में देगॉन ।
17 9 3 में फिलिप जेम्स डी लॉउथबर्ग द्वारा डैगन के विनाश का चित्रण।
हिब्रू बाइबिल में , दागोन विशेष रूप से पलिश्तियों का देवता आशेर ( यहोशू 1 9 .27) के गोत्र में बेथ-दगोन में मंदिरों के साथ गाजा ( न्यायाधीश 16.23) में मंदिरों के साथ है, जो जल्द ही सैमसन द्वारा अपने अंतिम कार्य के रूप में मंदिर को नष्ट करने के बाद बताता है )। अश्दोद में स्थित एक और मंदिर,
1 शमूएल 5: 2-7 में और फिर 1 मैकबीबी के रूप में देर से 10.83; 11.4 में उल्लेख किया गया था।
राजा शाऊल का सिर डैगन के एक मंदिर में प्रदर्शित किया गया था।
यहूदा में बेथ-दगोन के नाम से जाना जाने वाला दूसरा स्थान भी था (यहोशू 15.41)। पहली शताब्दी के यहूदी इतिहासकार जोसेफस ने जेरिको के ऊपर डैगन नामक एक जगह का उल्लेख किया ।
जेरोम ने डायस्पोलिस और जामिया के बीच कैफेडोगो का उल्लेख किया।
नब्बलस के दक्षिण-पूर्व में एक आधुनिक बीट देजन भी है। इनमें से कुछ उपनिवेशवादियों को भगवान के बजाय अनाज के साथ करना पड़ सकता है।
1 शमूएल 5.2-7 में यह लेख बताता है कि कैसे पलिश्तियों ने वाचा का सन्दूक पकड़ा और अश्दोद में दागोन के मंदिर में ले जाया गया।
अगली सुबह अश्दोदी लोगों ने सन्दूक के सामने प्रोस्टेट झूठ बोलते हुए डैगन की छवि पाई।
उन्होंने छवि को सीधे सेट किया, लेकिन फिर अगले दिन की सुबह उन्हें पता चला कि यह जहाज के सामने सजग हो गया है, लेकिन इस बार सिर और हाथों से कटा हुआ, मिप्टन पर झूठ बोलने पर "थ्रेसहोल्ड" या "पोडियम" के रूप में अनुवाद किया गया।
खाता गूढ़ शब्द राक दागोन निसार 'अलायव के साथ जारी है, जिसका अर्थ है शाब्दिक रूप से "केवल डैगन उसे छोड़ दिया गया था।" ( सेप्टुआजिंट , पेशीता , और तर्गम "डैगन" या "डैगन का शरीर" के रूप में "डैगन" प्रस्तुत करते हैं, संभवतः उनकी छवि के निचले भाग का जिक्र करते हैं।) इसके बाद हमें बताया जाता है कि न तो याजक और न ही किसी ने कभी अश्दोद में दागोन के मिप्टन पर "आज तक" कदम उठाए। "हमारे पास सफन्या 1:9 में रीति-रिवाज की स्थायीता के उल्लेखनीय सबूत हैं, जहां पलिश्तियों को 'थ्रेसहोल्ड' पर छलांग लगाने वाले, या अधिक सही तरीके से वर्णित किया गया है।
इस कहानी को दुरा-यूरोपोस सभास्थल के भित्तिचित्रों पर चित्रित किया गया है जो कि महायाजक हारून और सुलैमान मंदिर के चित्रण के विपरीत है। मार्नस संपादित करें गाजा के पोर्फीरी का विटा , गाजा के महान देवता का उल्लेख करता है, जिसे मारनास ( अरामाईक मार्न "भगवान") कहा जाता है, जिसे बारिश और अनाज के देवता के रूप में माना जाता था और अकाल के खिलाफ बुलाया जाता था।
गाजा का मार्न हैड्रियन के समय के सिक्का पर दिखाई देता है।
उन्हें गाजा में क्रेटन ज़ियस, ज़ियस क्रेटगेजेन्स के साथ पहचाना गया था। ऐसा लगता है कि मार्नस डैगन की हेलेनिस्टिक अभिव्यक्ति थी। उनके मंदिर, मार्नियन - मूर्तिपूजा के आखिरी जीवित महान पंथ केंद्र- रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार 402 में स्वर्गीय रोमन साम्राज्य में उत्पीड़न के दौरान जला दिया गया था। अभयारण्य के फ़र्श-पत्थरों पर चलने से मना कर दिया गया था। बाद में ईसाईयों ने सार्वजनिक बाजार को रोकने के लिए इनका उपयोग किया। मछली-देवता परंपरा संपादित करें खोराबाद से "ओन्स" राहत "मछली" व्युत्पत्ति 1 9वीं और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में छात्रवृत्ति स्वीकार की गई थी। इसने अश्शूर और फोएनशियन कला (जैसे जूलियस वेल्हौसेन , विलियम रॉबर्टसन स्मिथ ) में " मर्मन " प्रारूप के साथ सहयोग किया,
और बेरॉसस (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा वर्णित बेबीलोनियन ओन्स (Ὡάννης) के चित्र के साथ। "मछली" व्युत्पत्ति पर संदेह डालने वाला पहला श्मोकेल (1 9 28) था, जिसने सुझाव दिया कि जबकि डेगन मूल रूप से "मछली देवता" नहीं था, समुद्री कनानियों ( फोएनशियन ) के बीच "मछली" के साथ सहयोग से प्रभावित होगा ।
भगवान की iconography।
Fontenrose (1 9 57: 278) अभी भी सुझाव देता है कि बेरॉसोस ओडाकॉन , भाग आदमी और भाग मछली, शायद डेगन का एक गड़बड़ संस्करण था। डैगन को ओन्स के साथ भी समझा गया था। दाग / दाग मछली के साथ संबंध 11 वीं शताब्दी के यहूदी बाइबिल कमेंटेटर राशी द्वारा किया जाता है ।
13 वीं शताब्दी में, डेविड किम्ही ने 1 शमूएल 5.2-7 में अजीब वाक्य की व्याख्या की कि "केवल डैगन को छोड़ दिया गया था" जिसका अर्थ है "केवल मछली का रूप ही छोड़ा गया था", और कहा:
"ऐसा कहा जाता है कि डैगन , उसकी नाभि से नीचे, एक मछली (जहां उसका नाम, दागोन) था, और उसकी नाभि से, एक आदमी के रूप में, जैसा कि कहा जाता है, उसके दो हाथों काट दिया गया था। " 1 शमूएल 5.2-7 का सेप्टुआजिंट टेक्स्ट कहता है कि दागोन की छवि के हाथ और सिर दोनों टूट गए थे। लोकप्रिय संस्कृति मे लोकप्रिय संस्कृति में डैगन सेमिटिक देवता डैगन लोकप्रिय संस्कृति के कई कार्यों में दिखाई दिया है। उल्लेखनीय उदाहरणों में जॉन मिल्टन की महाकाव्य कविताओं सैमसन एगोनिस्ट्स और पैराडाइज लॉस्ट , डैगन और द शैडो ओवर इनसमाउथ द्वारा एचपी लवक्राफ्ट , फ्रेड चैपल द्वारा डैगन , जॉर्ज एलियट द्वारा मिडिलमार्क और किंग ऑफ किंग्स: मालाची मार्टिन द्वारा डेविड ऑफ़ द डेविड का एक उपन्यास शामिल है ।।
यह भी देखें देखें लोकप्रिय संस्कृति में डैगन मेरिद नोट्स संपादित करें ^ सुमेरियन साहित्य का इलेक्ट्रॉनिक टेक्स्ट कॉर्पस ^ न्यायाधीशों पर कॉलेजों और कॉलेजों के लिए कैम्ब्रिज बाइबिल 16:23। ^ जोसेफ Fontenrose, "डैगन और एल" ओरिएंन्स 10 .2 (दिसंबर 1 9 57), पीपी 277-279। ^ Fontenrose 1 9 57: 277। ^ ( 1 इतिहास 10: 8-10 ) ^ प्राचीन काल 12.8.1; युद्ध 1.2.3 ^ 1 सैमुअल 5 पर पुल्पिट कमेंटरी , 24 अप्रैल 2017 को एक्सेस किया गया। ^ आरए स्टीवर्ट मैकलिस्टर, द पलिश्ती (लंदन) 1 9 14, पी। 112 (भ्रम।)। ^ एच। श्मोक्सेल, डेर गॉट डगन (बोर्न-लीपजिग) 1 9 28। ^ 1 शमूएल 5: 2 पर राशी की टिप्पणी ^ श्मोक्ल 1 9 28 द्वारा नोटिस, फॉन्टेनरोस 1 9 57: 278 में उल्लेख किया गया। संदर्भ संपादित करें एएनईटी = प्राचीन निकट पूर्वी ग्रंथों , तीसरे संस्करण। पूरक के साथ (1 9 6 9)। प्रिंसटन: प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 0-691-03503-2 । सौवे, सी, डैगन , द कैथोलिक एनसाइक्लोपीडिया (1 9 08) एटाना में "डैगन" : एनसाइक्लोपीडिया बाइबिलिका वॉल्यूम आईए-डी: दबरह-डेविड (पीडीएफ)। फेलियू, लुइइस (2003)। कांस्य युग सीरिया , ट्रांस में भगवान डगन । विल्फ्रेड जीई वाटसन। लीडेन: ब्रिल अकादमिक प्रकाशक। आईएसबीएन 90-04-13158-2 । फ्लेमिंग, डी। (1 99 3)। "प्राचीन सीरिया में बाल और डगन ", Zeitschrift फर Assyriologie und Vorderasiatische Archäologie 83, पीपी 88-98। मैथिया, पाओलो (1 9 77)। एब्ला: एक साम्राज्य फिर से खोजा गया। लंदन: होडर एंड स्टौटन। आईएसबीएन 0-340-22974-8 । पेटीनाटो, जियोवानी (1 9 81)। एब्ला के अभिलेखागार। न्यूयॉर्क: दोबारा। आईएसबीएन 0-385-13152-6 । गायक, आई। (1 99 2)। "पलिश्तियों के देवता दगान की एक छवि के लिए।" सीरिया 69: 431-450। इस आलेख में अब सार्वजनिक डोमेन में प्रकाशन से टेक्स्ट शामिल है: चिश्ल्म, ह्यूग, एड। (1911)। " डेगन "। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका । 7 (11 वां संस्करण)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस। बाहरी लिंक संपादित करें विकिमीडिया कॉमन्स में डेगन से संबंधित मीडिया है। ब्रिटानिका ऑनलाइन विश्वकोष प्राचीन मेसोपोटामियन देवताओं और देवियों यहूदी विश्वकोष: डैगन
1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की ।
कस्साई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे,
और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया।
ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया।
(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है । उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।
हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे।
हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय से जुड़ा हुआ है।
कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं, और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध
इतिहास-
स्वर्गीय कांस्य युग
मूल-
Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी ।
के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :
(Kassite Gods-
कई कासाइट देवों के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं ।
कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )
द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया
(भारत में हिमालय पर्वत)।
Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash,
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।
ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।
इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।
बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
Buriash, Ubriash, या Burariash,
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)
Duniash, एक देवता
Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी
हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख
Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।______________________________________
हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है। संभवतः संस्कृत इंद्रास: का प्रतिरूप।
कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।
Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान)
Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।
ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।
शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए,
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।
शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल
शिहू भी कहा जाता है।
,मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,
सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,।
बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे,
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि
बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे,
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए,
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स।
यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा।
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी,
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी,
यह कुछ हद तक असंभव है।
प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व हेय रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी।।।।।भारोपीय भाषा परिवारों के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिक यह अवधारणा अभिव्यक्त करते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी ये भाषाएँ दो उपभाषाओं अथवा वि भाषाओं में विभाजित थी इसी कारण इन भाषाओं से नि:सृत भाषाओं में ध्वनियों के भेद दिखाई देते हैं ।
1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की ।
कस्साई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे,
और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया।
ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया।
(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है । उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।
हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे।
हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय से जुड़ा हुआ है।
कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं, और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध
इतिहास-
स्वर्गीय कांस्य युग
मूल-
Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी ।
के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :
(Kassite Gods-
कई कासाइट देवों के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं ।
कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )
द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया
(भारत में हिमालय पर्वत)।
Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash,
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।
ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।
इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।
बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
Buriash, Ubriash, या Burariash,
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)
Duniash, एक देवता
Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी
हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख
Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।______________________________________
हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है। संभवतः संस्कृत इंद्रास: का प्रतिरूप।
कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।
Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान)
Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।
ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।
शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए,
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।
शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल
शिहू भी कहा जाता है।
,मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,
सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,।
बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे,
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि
बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे,
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए,
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स।
यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा।
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी,
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी,
यह कुछ हद तक असंभव है।
प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व हेय रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी।।।।।भारोपीय भाषा परिवारों के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिक यह अवधारणा अभिव्यक्त करते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी ये भाषाएँ दो उपभाषाओं अथवा वि भाषाओं में विभाजित थी इसी कारण इन भाषाओं से नि:सृत भाषाओं में ध्वनियों के भेद दिखाई देते हैं ।
"जैसे ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं में प्राचीन मूल भारोपीय भाषाओं के–प्राचीन चवर्ग –
(च'छ'ज'झ'ञ) ने कवर्ग- (क'ख'ग'घ'ड॒॰) का रूप ग्रहण कर लिया है । तथा
संस्कृत और ईरानी भाषाओं में वही चवर्ग घर्षक-ऊष्म–(स'श'ष'ह) उदाहरण-के लिया लैटिन में केण्टम्, अक्टो,डिक्टो, पिक्टो– रूप संस्कृत में क्रमश: शतम्'अष्टौ'दिष्ट: पिष्ट यूरोपीय मूर्धन्य ऊष्म वर्गीय मिलते हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में संस्कृत अष्ट के रूपांतरण★-
eighte, earlier ehte (c. 1200), from Old English –eahta, æhta,
from Proto Germanic *akhto .
(source also of Old Saxon -ahto,
Old Frisian -ahta,
Old Norse- atta,
Swedish -åtta,
Dutch -acht,
Old High German -Ahto,
German -acht,
Gothic -ahtau),
from PIE *okto(u) "eight"
(source also of Sanskrit- astau,
Avestan -ashta,
Greek -okto,
Latin- octo,
Old Irish- ocht-n,
Breton -eiz,
Old Church Slavonic- osmi, Lithuanian aštuoni).
From the Latin word come Italian- otto,
Spanish -ocho,
Old French-oit,
Modern French –huit
यूरोपीय दिश्-अतिसर्जनेे-
(दिशति-त्यागता है )१. भाग्य । २. उपदेश । ३. दारुहरिद्रा । ४. काल । ५.
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit dist- "
" Greek deiknynai "to show, to prove," dike "custom, usage;" Latin dicere "speak, tell, say," digitus "finger," Old High German zeigon, German zeigen "to show," Old English teon "to accuse," tæcan "to teach."
_______
संस्कृत द्वारा प्रदान किया गया है दृश्-दिश्–dic-"इंगित करना, दिखाएं" यूनानी(deiknynai )"साबित करने के लिए," (dike)"कस्टम, उपयोग?"
लैटिन(dicere "बोलना, बताना), (कहना),"
digitus "उंगली," पुरानी उच्च जर्मन zeigon, जर्मन zeigen "दिखाने के लिए," पुरानी अंग्रेजी teon "दोष लगाने के लिए," (tæcan)- "शिक्षा देने के लिए।"
पिजि पिञ्ज् =वर्णे- पिङ्क्ते । पिञ्जाते । पिपिञ्जे । पिञ्जरः । पिङ्गलः । पिङ्गली ।। 18 ।।
Sanskrit pimsati "to carve, hew out, cut to measure, adorn;" Greek pikros "bitter, sharp, pointed, piercing, painful," poikilos "spotted, pied, various;" Latin pingere "to embroider, tattoo, paint, picture;" Old Church Slavonic pila "file, saw," pegu "variegated," pisati "to write;" Lithuanian piela "file," piešiu, piešti "to write;" Old High German fehjan "to adorn."
शतम्-Proto-Germanic *hunda-ratha- (source also of Old Frisian hundred, Old Saxon hunderod, Old Norse hundrað, German hundert); first element is Proto-Germanic *hundam "hundred" (cognate with Gothic hund, Old High German hunt), from PIE *km-tom "hundred," reduced from *dkm-tom- (source also of Sanskrit satam, Avestan satem, Greek hekaton, Latin centum, Lithuanian šimtas, Old Church Slavonic suto, Old Irish cet, Breton kant "hundred"), suffixed form of root *dekm- "ten."
दश-१-Sanskrit dasa,२- Avestan dasa, ३-Armenian tasn,४- Greek deka, ५-Latin decem (source of Spanish diez,६- French dix),७- Old Church Slavonic deseti, ८-Lithuanian dešimt, ९-Old Irish deich, १०-Breton dek,११- Welsh deg, १२-Albanian djetu, १३-Old English ten, १४-Old High German zehan, १५-Gothic taihun "ten."
संख्या वाची शब्द भारोपीय भाषाओं में समान हैं ।
(सतम् भारोपीय भाषा वर्ग) †★
1-संस्कृत- शतम् ।
3-रूसी - स्ततो ।
4-बुल्गारियन सुतो ।
5-लिथुऑनियन-स्विजम्तास ।
6-प्राकृत-सर्द ।
7-हिन्दी-"सौ ।
8-फारसी-सद ।
†★केण्टुम् भारोपीय भाषा-वर्ग-
1-ग्रीक- Hekaton
2-लैटिन-Centum
-3-इटालियन-Cento
4-फ्रेच-cent
5-केल्टिक-caint(कैण्ट)
6-गैलिक-क्युड
7-तोखारी-कन्ध
8-गॉथिक-खुँद
इस सतम् और केण्टुम् वर्ग की विशेषता यूरोपीय भाषा वैज्ञानिक अस्कोली ने प्रस्तुत की- इसके पश्चात वान-ब्राडेक ने यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया-
इन वर्गों में प्रथम सतम् पूर्वीय तथा एशिया की भाषाओं का है ।
तथा दूसरा केण्टुम वर्ग हिट्टाइट को छोड़कर यूरोपीय भाषाओं का है ।
संस्कृत, ग्रीक, तथा लिथुआनिया की उप भाषा (Samogitian) में आज तक एकवचन- द्विवचन और बहुवचन मिलते हैं ।
Not to be confused with Samoyedic languages.-
(Samogitian: žemaitiu kalba or sometimes žemaitiu rokunda or žemaitiu ruoda; Lithuanian: žemaičių tarmė) is an Eastern Baltic variety spoken mostly in Samogitia (in the western part of Lithuania)
It is sometimes treated as a dialect[3] of Lithuanian, but is considered a separate language by some linguists outside Lithuania.
Its recognition as a distinct language is increasing in recent years,[4] and attempts have been made to standardize it.[5]
Samogitian language
žemaitiu kalba
(Native to Lithuania)
Region -Samogitia
Native speakers < 500,000 (2009) Recently-
(Language family Indo-European)
Balto-Slavic
Eastern Baltic
Lithuanian
Samogitian language
(Writing system Latin script)
The Samogitian dialect should not be confused with the interdialect of the Lithuanian language as spoken in the Duchy of Samogitia before Lithuanian became a written language, which later developed into one of the two variants of written Lithuanian used in the Grand Duchy of Lithuania based on the so-called middle dialect of the Kėdainiai region.
________________
This was called the Samogitian- (Žemaitian) language; the term "Lithuanian language" then referred to the other variant, which had been based on the eastern Aukštaitian dialects centred around the capital Vilnius; Samogitian was generally used in the Samogitian Diocese while Lithuanian was generally used in the Vilna Diocese.
This Samogitian language was based on western Aukštaitian dialects and is unrelated to what is today called the Samogitian dialect; it is instead the direct ancestor of the modern Lithuanian literary language.
"History- इतिहास-
The Samogitians and Lithuanians in the context of the other Baltic tribes, around 1200 Century.
The Samogitian language, heavily influenced by Curonian, originated from the East Baltic proto-Samogitian dialect which was close to Aukštaitian dialects.
During the 5th century, Proto-Samogitians migrated from the lowlands of central Lithuania, near Kaunas, into the Dubysa and Jūra basins, as well as into the Samogitian highlands.
They displaced or assimilated the local, Curonian-speaking Baltic populations. Further north, they displaced or assimilated the indigenous, Semigallian speaking peoples. Assimilation of Curonians and Semigallians gave birth to the three Samogitian subdialects: "Dounininkų", "Donininkų" and "Dūnininkų."
________________________
In the 13th century, Žemaitija became a part of the Baltic confederation called (Lietuva -(Lithuania), which was formed by Mindaugas. Lithuania conquered the coast of the Baltic sea from the Livonian order. ★-
The coast was populated by Curonians, but became a part of Samogitia.
From the 13th century onwards, Samogitians settled within the former Curonian lands, and intermarried with that population over the next three hundred years.
The Curonians had a huge cultural influence upon Samogitian and Lithuanian culture, but they were ultimately assimilated by the 16th century. Its dying language has enormously influenced the dialect, in particular phonetics.
The earliest writings in Samogitian language appeared in the 19th century.
"Phonology-(ध्वनि विज्ञान)-
Samogitian and its subdialects preserved many features of the Curonian language, for example:
widening of proto-Baltic short i (i → ė sometimes e)
widening of proto-Baltic short u (u → o)
retraction of ė in northern sub-dialects (ė → õ) (pilkas → pėlks põlks)
preservation of West Baltic diphthong ei (standard Lithuanian i.e. → Samogitian ėi)
no t' d' palatalization to č dž (Latvian š, ž)
specific lexis, like cīrulis (lark), pīle (duck), leitis (Lithuanian) etc.
retraction of stress
shortening of ending -as to -s like in Latvian and Old Prussian (Proto-Indo-European o-stem)
as well as various other features not listed here.
The earliest writings in the Samogitian language appeared in the 19th century.
Grammar-(व्याकरण)-
_________
The Samogitian language is highly inflected like standard Lithuanian, in which the relationships between parts of speech and their roles in a sentence are expressed by numerous flexions.
★-There are two grammatical genders in Samogitian – feminine and masculine.
★-Relics of historical neuter are almost fully extinct while in standard Lithuanian some isolated forms remain.
★-Those forms are replaced by masculine ones in Samogitian.
Samogitian stress is mobile but often retracted at the end of words, and is also characterised by pitch accent.
Samogitian has a broken tone like the Latvian and Danish languages. The circumflex of standard Lithuanian is replaced by an acute tone in Samogitian.
It has five noun and three adjective declensions.
Noun declensions are different from standard Lithuanian .
There are only two verb conjugations.
All verbs have present, past, past iterative and future tenses of the indicative mood, subjunctive (or conditional) and imperative moods (both without distinction of tenses) and infinitive.
The formation of past iterative is different from standard Lithuanian.
________
★-There are three numbers in Samogitian:
1-singular, 2-dual.and 3-plural
Dual is almost extinct in standard Lithuanian.
The third person of all three numbers is common.
Samogitian as the standard Lithuanian has a very rich system of participles, which are derived from all tenses with distinct active and passive forms,
and several gerund forms.
Nouns and other declinable words are declined in eight cases:
1-nominative,
2-genitive,
3-dative,
4-accusative,
5-instrumental,
6-locative (inessive),
7-vocative and
8-illative.
___
Literature- साहित्य-
The earliest writings in Samogitian dialect appear in the 19th century. Famous authors writing in Samogitian:
Józef Arnulf Giedroyć [pl] also called Giedraitis (1754–1838) Bishop of Samogitia from 1801, champion of education and patron of Lithuanian literature, published the first translation of the New Testament into Samogitian or Język żmudzki in 1814. It was subsequently revised a number of times.
Silvestras Teofilis Valiūnas [lt] and his heroic poem “Biruta”, first printed in 1829.
“Biruta” became a hymn of Lithuanian student emigrants in the 19th century.
Simonas Stanevičius (Sėmuons Stanevėčios) with his famous book “Šešės pasakas” (Six fables) printed in 1829.
Simonas Daukantas (Sėmuons Daukonts in Samogitian), he was the first Lithuanian historian writing in Lithuanian (actually in its dialect).
His famous book – “Būds Senovės Lietuviu Kalnienu ir Zamaitiu” (Customs of ancient Lithuanian highlanders and Samogitians) was printed in 1854.
Motiejus Valančius (Muotiejos Valončios or Valontė) and one of his books “Palangos Juzė” (Joseph of Palanga), printed in 1869.
There are no written grammar books in Samogitian because it is considered to be a dialect of Lithuanian, but there were some attempts to standardise its written form.
Among those who have tried are Stasys Anglickis [lt], Pranas Genys [lt], Sofija Kymantaitė-Čiurlionienė, B. Jurgutis, Juozas Pabrėža [lt]. Today, Samogitian has a standardised writing system but it still remains a spoken language, as nearly everyone writes in their native speech.
_________________
Differences from Standard Lithuanian -
Samogitian differs from Standard Lithuanian in phonetics, lexicon, syntax and morphology.
Phonetic differences from standard Lithuanian are varied, and each Samogitian subdialect (West, North and South) has different reflections.
Standard Lithuanian ~ Samogitian
Short vowels:
i ~ short ė, sometimes e (in some cases õ);
u ~ short o (in some cases u);
Long vowels and diphthongs:
ė ~ ie;
o ~ uo;
ie ~ long ė, ėi, ī (y) (West, North and South);
uo ~ ō, ou, ū (West, North and South);
ai ~ ā ;
ei, iai ~ ē;
ui ~ oi;
oi (oj) ~ uo;
ia ~ ė;
io ~ ė;
Nasal diphthongs:
an ~ on (an in south-east);
un ~ on (un in south-east);
ą ~ an in south-eastern, on in the central region, ō / ou in the north;
unstressed ią ~ ė;
ę (e) ~ en in south-eastern, ėn in the central region and õ, ō or ėi in the north;
ū ~ ū (in some cases un, um);
ų in stressed endings ~ un and um;
unstressed ų ~ o;
y ~ ī (y), sometimes in;
[clarification needed]
i from ancient *ī ~ ī;
u from ancient *ō (Lithuanian uo) ~ ō / ou / ū (West / North / South)
i from ancient *ei (Lithuanian ie) ~ long ė / ėi / ī (West / North / South)
Postalveolar consonants
č ~ t (also č under Lithuanian influence);
dž ~ d (also dž under Lithuanian influence);
The main difference between Samogitian and standard Lithuanian is verb conjugation. The past iterative tense is formed differently from Lithuanian (e.g., in Lithuanian the past iterative tense, meaning that action which was done in the past repeatedly, is made by removing the ending -ti and adding -davo (mirti – mirdavo, pūti – pūdavo), while in Samogitian, the word liuob is added instead before the word).
The second verb conjugation is extinct in Samogitian, it merged with the first one.
The plural reflexive ending is -muos instead of expected -mies which is in standard Lithuanian (-mės) and other dialects. Samogitian preserved a lot of relics of athematic conjugation which did not survive in standard Lithuanian. The intonation in the future tense third person is the same as in the infinitive, in standard Lithuanian it shifts. The subjunctive conjugation is different from standard Lithuanian. Dual is preserved perfectly while in standard Lithuanian it has been completely lost.
The differences between nominals are considerable too.
The fifth noun declension has almost become extinct, it merged with the third one.
The plural and some singular cases of the fourth declension have endings of the first one (e.g.: singular nominative sūnos, plural nom. sūnā, in standard Lithuanian: sg. nom. sūnus, pl. nom. sūnūs). The neuter of adjectives is extinct (it was pushed out by adverbs, except šėlt 'warm', šalt 'cold', karšt 'hot') while in standard Lithuanian it is still alive. Neuter pronouns were replaced by masculine.
The second declension of adjectives is almost extinct (having merged with the first declension)—only singular nominative case endings survived. The formation of pronominals is also different from standard Lithuanian.
Other morphological differences-Samogitian also has many words and figures of speech that are altogether different from typically Lithuanian ones, e.g., kiuocis 'basket' (Lith. krepšys, Latvian ķocis), tevs 'thin' (Lith. plonas, tęvas, Latvian tievs), rebas 'ribs' (Lith. šonkauliai, Latvian ribas), a jebentas! 'can't be!' (Lith. negali būti!).
Subdialects
Map of the sub-dialects of the Lithuanian language (Zinkevičius and Girdenis, 1965).
Western Samogitian sub-dialectNorthern Samogitian :
Sub-dialect of Kretinga
Sub-dialect of Telšiai
Southern Samogitian :
Sub-dialect of Varniai
Sub-dialect of Raseiniai
Samogitian is also divided into three major subdialects: Northern Samogitian (spoken in Telšiai and Kretinga regions), Western Samogitian (was spoken in the region around Klaipėda, now nearly extinct, – after 1945, many people were expelled and new ones came to this region) and Southern Samogitian (spoken in Varniai, Kelmė, Tauragė and Raseiniai regions).
Historically, these are classified by their pronunciation of the Lithuanian word Duona, "bread." They are referred to as Dounininkai (from Douna), Donininkai (from Dona) and Dūnininkai (from Dūna).
Political situation -
The Samogitian dialect is rapidly declining: it is not used in the local school system and there is only one quarterly magazine and no television broadcasts in Samogitian. There are some radio broadcasts in Samogitian (in Klaipėda and Telšiai). Local newspapers and broadcast stations use standard Lithuanian instead. There is no new literature in Samogitian either, as authors prefer standard Lithuanian for its accessibility to a larger audience. Out of those people who speak Samogitian, only a few can understand its written form well.
Migration of Samogitian speakers to other parts of the country and migration into Samogitia have reduced contact between Samogitian speakers, and therefore the level of fluency of those speakers.
There are attempts by the Samogitian Cultural Society to stem the loss of the dialect. The council of Telšiai city put marks with Samogitian names for the city at the roads leading to the city, while the council of Skuodas claim to use the language during the sessions. A new system for writing Samogitian was created.[citation needed]
Writing system -
The first use of a unique writing system for Samogitian was in the interwar period, however it was neglected during the Soviet period, so only elderly people knew how to write in Samogitian at the time Lithuania regained independence. The Samogitian Cultural Society renewed the system to make it more usable.
The writing system uses similar letters to standard Lithuanian, but with the following differences:
There are no nasal vowels (letters with ogoneks: ą, ę, į, ų).
There are three additional long vowels, written with macrons above (as in Latvian): ā, ē, ō.
Long i in Samogitian is written with a macron above: ī (unlike standard Lithuanian where it is y).
The long vowel ė is written like ė with macron: Ė̄ and ė̄. Image:E smg.jpg In the pre-Unicode 8-bit computer fonts for Samogitian, the letter 'ė with macron' was mapped on the code of the letter õ. From this circumstance a belief sprang that 'ė with macron' could be substituted with the character õ. It is not so, however. In fact, if the letter 'ė with macron' is for some reason not available, it can be substituted with the doubling of the macron-less letter, that is, 'ėė'.
The letter õ is used to represent a vowel characteristic of Samogitian that does not exist in Standard Lithuanian; the unrounded back vowel /ɤ/. This is a rather new innovation which alleviates the confusion between the variations in pronunciation of the letter ė. The letter ė can be realised as a close-mid front unrounded vowel /e/ (Žemaitėjė) or as an unrounded back vowel /ɤ/ (Tėn) or (Pėlks) → Tõn, Põlks. The addition of this new letter distinguishes these 2 vowels sounds previously represented as a single letter.
There are two additional diphthongs in Samogitian that are written as digraphs: ou and ėi. (The component letters are part of the standard Lithuanian alphabet.)
As previously it was difficult to add these new characters to typesets, some older Samogitian texts use double letters instead of macrons to indicate long vowels, for example aa for ā and ee for ē; now the Samogitian Cultural Society discourages these conventions and recommends using the letters with macrons above instead. The use of double letters is accepted in cases where computer fonts do not have Samogitian letters; in such cases y is used instead of Samogitian ī, the same as in standard Lithuanian, while other long letters are written as double letters. The apostrophe might be used to denote palatalization in some cases; in others i is used for this, as in standard Lithuanian.
A Samogitian computer keyboard layout has been created.[citation needed] -सन्दर्भ अपेक्षित है
Samogitian alphabet:
Letter
Name A a
[ā] Ā ā
[ėlguojė ā] B b
[bė] C c
[cė] Č č
[čė] D d
[dė] E e
[ē] Ē ē
[ėlguojė ē]
Letter
Name Ė ė
[ė̄] Ė̄ ė̄
[ėlguojė ė̄] F f
[ėf] G g
[gė, gie] H h
[hā] I i
[ī] Ī ī
[ėlguojė ī] J j
[jot]
Letter
Name K k
[kā] L l
[ėl] M m
[ėm] N n
[ėn] O o
[ō] Ō ō
[ėlguojė ō] Õ õ
[õ] P p
[pė] R r
[ėr]
Letter
Name S s
[ės] Š š
[ėš] T t
[tė] U u
[ū] Ū ū
[ėlguojė ū] V v
[vė] Z z
[zė, zet] Ž ž
[žė, žet].
Samples
English Samogitian Lithuanian Latvian Latgalian Old Prussian
Samogitian žemaitiu kalba žemaičių tarmė žemaišu valoda žemaišu volūda zemātijiskan bliā
English onglu kalba anglų kalba angļu valoda ongļu volūda ēngliskan bilā
Yes Je, Ja, Jo, Noje, Tēp Taip(Jo in informal speech) Jā Nuj Jā
No Ne Ne Nē Nā Ni
Hello! Svēks Sveikas Sveiks Vasals Kaīls
How are you? Kāp gīvenė?/ Kāp ī? Kaip gyveni / laikaisi / einasi? Kā tev iet? Kai īt? Kāigi tebbei ēit?
Good evening! Lab vakar! Labas vakaras! Labvakar! Lobs vokors! Labban bītan!
Welcome [to...] Svēkė atvīkė̄! Sveiki atvykę Laipni lūdzam Vasali atguojuši Ebkaīlina
Good night! Labanaktis Labos nakties / Labanakt! Ar labu nakti Lobys nakts! Labban naktin!
Goodbye! Sudieu, võsa gera Viso gero / Sudie(vu) / Viso labo! Visu labu Palicyt vasali Sandēi
Have a nice day! Geruos dėinuos! Geros dienos / Labos dienos! Jauku dienu! Breineigu dīnu Mīlingis dēinas
Good luck! Siekmies! Sėkmės! Veiksmi! Lai lūbsīs! Izpalsnas
Please Prašau Prašau Lūdzu Lyudzams Madli
Thank you Diekou Ačiū / Dėkui / Dėkoju Paldies Paļdis Dīnkun
You're welcome Prašuom Prašom Lūdzu! Lyudzu! Madli!
I'm sorry Atsėprašau/ Atlēskāt Atsiprašau / Atleiskite Atvaino (Piedod) Atlaid Etwinūja si
Who? Kas? Kas? Kas? (Kurš?) Kas? Kas?
When? Kumet? Kada / Kuomet? Kad? Kod? Kaddan?
Where? Kor? Kur? Kur? Kur? Kwēi?
Why? Kudie / Diukuo? Kodėl / Dėl ko? Kādēļ? (Kāpēc?) Dieļ kuo? Kasse paggan?
What's your name? Kuoks tava vards? Koks tavo vardas? / Kuo tu vardu? Kāds ir tavs vārds? (Kā tevi sauc?) Kai tevi sauc? Kāigi assei bīlitan? / Kāigi assei tū bīlitan?
Because Tudie / Diutuo Todėl / Dėl to Tādēļ (Tāpēc) Dieļ tuo Beggi
How? Kāp? Kaip? Kā? Kai? Kāi? / Kāigi?
How much? Kėik? Kiek? Cik daudz? Cik daudzi? Kelli?
I do not understand. Nesopronto/Nasopronto Nesuprantu Nesaprotu Nasaprūtu Niizpresta
I understand. Soprontu Suprantu Saprotu Saprūtu Izpresta
Help me! Ratavuokėt! Padėkite / Gelbėkite! Palīgā! Paleigā! Pagalbsei!
Where is the toilet? Kor īr tolets? Kur yra tualetas? Kur ir tualete? Kur irā tualets? Kwēi ast tualetti?
Do you speak English? Ruokounaties onglėškā? (Ar) kalbate angliškai? Vai runājat angliski? Runuojit ongliski? Bīlai tū ēngliskan?
I don't speak Samogitian. Neruokoujous žemaitėškā. Žemaitiškai nekalbu Es nerunāju žemaitiski As narunuoju žemaitiski As nibīlai zemātijiskan
The check, please. (In restaurant) Sāskaita prašītiuo Prašyčiau sąskaitą / Sąskaitą, prašyčiau / Sąskaitą, prašau, pateikite Rēķinu, lūdzu! Lyudzu, saskaitu Rekkens, madli
_______________________________________
References
Learn more
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^ "Request for New Language Code Element in ISO 639-3" (PDF). ISO 639-3 Registration Authority. 2009-08-11.
^ Samogitian dialect at Ethnologue (21st ed., 2018)
^ "Lithuania". ethnologue.com. Retrieved 19 April 2018.
^ "Dr. Juozas Pabrėža: "Stipriausia kalba Lietuvoje yra žemaičių"". santarve.lt. Retrieved 19 April 2018.
^ László Marácz; Mireille Rosello, eds. (2012). Multilingual Europe, Multilingual Europeans. BRILL. p. 177. ISBN 9789401208031.
^ Dziarnovič, Alieh (2014–2015). "In Search of a Homeland: "Litva/Lithuania" and "Rus'/Ruthenia" in the Contemporary Belarusian Historiography" (PDF). Belarusian Political Science Review. 3: 90–121. ISSN 2029-8684. Retrieved 27 February 2019.
Samogitian (Samogitian: žemaitiu kalba या कभी कभी žemaitiu rokunda या žemaitiu ruoda ;
लिथुआनियाई : Žemaičių tarmė ) एक है पूर्वी बाल्टिक विविधता में ज्यादातर बोली जाने वाली Samogitia (के पश्चिमी भाग में लिथुआनिया )।
यह कभी-कभी लिथुआनियाई की एक बोली [3] के रूप में माना जाता है,
लेकिन लिथुआनिया के बाहर कुछ भाषाविदों द्वारा एक अलग भाषा माना जाता है। एक विशिष्ट भाषा के रूप में इसकी मान्यता हाल के वर्षों में बढ़ रही है, और इसे मानकीकृत करने का प्रयास किया गया है।
सामोगी भाषा
žemaitiu कलाबा
के मूल निवासी लिथुआनिया
क्षेत्र संयोगिता
देशी वक्ता <500,000 (2009) [1]
भाषा परिवार भारोपीय
बाल्टो-स्लाव
पूर्वी बाल्टिक
लिथुआनियाई
सामोगी भाषा
(Samogitian- बोली के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए interdialect लिथुआनियाई भाषा का में बोली जाने वाली के रूप में Samogitia की डची से पहले लिथुआनियाई एक लिखित भाषा है,।
जो बाद की लिखित लिथुआनियाई में इस्तेमाल दो वेरिएंट में से एक के रूप में विकसित हो गया लिथुआनिया के ग्रैंड के आधार पर तथाकथित मध्य बोली कादैनी क्षेत्र है ।
इसे समोगिटियन (itianemaitian) भाषा कहा जाता था; यह शब्द "लिथुआनियाई भाषा का है " तब दूसरे संस्करण के लिए संदर्भित होता है, जो राजधानी विल्नियस के आसपास केंद्रित पूर्वी Aukštaitian बोलियों पर आधारित था।; सामोगियन का उपयोग आम तौर पर सामोगियन सूबा में किया जाता था जबकि लिथुआनिया में आम तौर पर विल्ना डायोसेसी में इस्तेमाल किया जाता था।
यह समोगियन भाषा पश्चिमी औक्टाटिशियन बोलियों पर आधारित थी और जिसे आज की समोगियनियन बोली कहा जाता है, से असंबंधित है; इसके बजाय यह आधुनिक लिथुआनियाई साहित्यिक भाषा का प्रत्यक्ष पूर्वज है। [६]
इतिहास -
समोगिटियन और लिथुआनियाई अन्य बाल्टिक जनजातियों के संदर्भ में, लगभग 1200
Samogitian भाषा, भारी से प्रभावित Curonian , से उत्पन्न पूर्व बाल्टिक आद्य Samogitian बोली जो के करीब था Aukštaitian बोलियों ।
_______
5 वीं शताब्दी के दौरान, प्रोटो-Samogitians केंद्रीय लिथुआनिया की तराई से पलायन के पास, कौनास में, Dubysa और जुरा घाटियों, साथ ही में Samogitian हाइलैंड्स ।
उन्होंने स्थानीय, क्यूरोनियन बोलने वाले बाल्टिक आबादी को विस्थापित या आत्मसात कर लिया ।
इसके अलावा उत्तर में, उन्होंने विस्थापित, सेमीगैलियन बोलने वाले लोगों को आत्मसात किया ।
क्यूरोनियन और सेमीग्लियंस के आत्मसात ने तीन सामोगियन उप- प्रजातियों को जन्म दिया: "डी ou नाइनिन्को", "डी ओ निन्निको" और "डी ų निन्निको।"
13 वीं सदी में, Žemaitija बाल्टिक संघ कहा जाता है का एक हिस्सा बन Lietuva (लिथुआनिया), जिसके द्वारा बनाई गई थी मिंडोगस ।
लिथुआनिया ने बाल्टिक सागर के तट को लिवोनियन आदेश से जीत लिया
इस तट से बसा हुआ था Curonians , लेकिन का एक हिस्सा बन Samogitia ।
13 वीं शताब्दी के बाद से, सामोगियन लोग पूर्व क्यूरोनियन भूमि के भीतर बस गए, और अगले सौ वर्षों में उस आबादी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया।
क्यूरोनियन लोगों का समोगियनियन और लिथुआनियाई संस्कृति पर बहुत बड़ा सांस्कृतिक प्रभाव था, लेकिन अंततः 16 वीं शताब्दी तक उन्हें आत्मसात कर लिया गया। इसकी मरने वाली भाषा ने विशेष रूप से ध्वन्यात्मकता में, बोली को काफी प्रभावित किया है।
समोगिटियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
ध्वनि विज्ञान-
Samogitian और इसके उपविभागों ने उदाहरण के लिए क्यूरोनियन भाषा की कई विशेषताओं को संरक्षित किया:
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट आई का चौड़ीकरण (i →-कभी-कभी ई)
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट यू (यू → ओ) का चौड़ीकरण
उत्तरी उप-बोलियों में ė की वापसी
पश्चिम बाल्टिक डिप्थॉन्ग ईई का संरक्षण (मानक लिथुआनियाई यानी → समोगिटियन Westi)
कोई टी 'डी' पैलेटाइज़ेशन č dž (लातवियाई š, ž) के लिए
विशिष्ट लेक्सिस, जैसे सिरुलिस (लार्क), पाइले (बतख), लिटिस (लिथुआनियाई) आदि।
काल की वापसी
लातवियाई और पुराने प्रशिया की तरह एंड-टू-एस को छोटा करना ( प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ओ-स्टेम )
साथ ही विभिन्न अन्य सुविधाएँ यहाँ सूचीबद्ध नहीं हैं।
समोगियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
व्याकरण -
समोगिटियन भाषा मानक लिथुआनियाई की तरह अत्यधिक उपेक्षित है , जिसमें भाषण के कुछ हिस्सों और एक वाक्य में उनकी भूमिकाओं के बीच के संबंध कई लचीलेपन द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।
______________
सामोगियन में दो
लिंग हैं - स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। ऐतिहासिक भाषाओं के अवशेष के मानक लिथुआनियाई की परिधि को समोगिटियन में एक तीव्र स्वर से बदल दिया जाता है।
यह पांच है स्त्रीलिंग और तीन विशेषण( declensions) । संज्ञा के मानक लिथुआनियाई से अलग हैं।
केवल दो क्रिया संयुग्मन हैं। सभी क्रियाओं में वर्तमान , अतीत , अतीत पुनरावृत्त होते हैं ।
नपुंसक के लगभग पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं जबकि मानक लिथुआनियाई में कुछ अलग-थलग रूप बने हुए हैं।
उन रूपों को समोगियन में मर्दाना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। समोगिटियन काल गतिशील है लेकिन अक्सर शब्दों के अंत में पीछे हट जाता है, और यह पिच तीव्र स्वर उच्चारण द्वारा भी विशेषता है ।
( Samogitian )में लातवी और डेनिश की तरह एक टूटी हुई टोन (स्वर) है और यह भविष्य काल की है ।
पिछले पुनरावृत्तियों का गठन मानक लिथुआनियाई से अलग है।
समोगेशियन-(Samogitian) में तीन वचन हैं:।
_______________________________________
१-एकवचन ,द्विवचन और बहुवचन में से द्विवचन का मानक लिथुआनियाई में लगभग अब विलुप्त है।
Number-वचन-
Nouns, adjectives, and pronouns also vary as to number. They can be singular, dual (referring to two people or things),[11] or plural (referring to two or more):
ὁ θεός (ho theós) "the god" (singular)
τὼ θεώ (tṑ theṓ) "the two gods" (dual)
οἱ θεοί (hoi theoí) "the gods" (plural)
As can be seen from the above examples, the difference between singular, dual, and plural is generally shown in Greek by changing the ending of the noun, and the article also changes for different numbers.
The dual number is used for a pair of things, for example τὼ χεῖρε (tṑ kheîre) "his two hands",[12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν (toîn duoîn teikhoîn) "of the two walls".[13] It is, however, not very common; for example, the dual article τώ (tṓ) is found no more than 90 times in the comedies of Aristophanes, and only 3 times in the historian Thucydides.[14] There are special verb endings for the dual as well.
वचन -
संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी संख्या के अनुसार भिन्न होते हैं।
वे एकवचन हो सकते हैं , दोहरी (द्विवचन )(दो लोगों या चीजों का जिक्र), [11]
या बहुवचन (दो या अधिक का संदर्भ देते हुए):
ὁ god ( हो दीस ) "द गॉड" (एकवचन)
τὼ two ( tṑ ṑ ) "दो देवता" (दोहरी)
οἱ θεοί ( होई theoí ) "देवताओं" (बहुवचन)
जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से देखा जा सकता है, एकवचन, दोहरे और बहुवचन के बीच का अंतर आमतौर पर ग्रीक में संज्ञा के अंत को बदलकर दिखाया जाता है, और लेख भी विभिन्न संख्याओं के लिए बदलता है।
दोहरी संख्या द्विवचन , चीजों की एक जोड़ी के लिए प्रयोग किया जाता है, उदाहरण के लिए τὼ χεῖρε ( करने के लिए kheîre ,) "अपने दो हाथों" [12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν ( Toin duoîn teikhoîn ) "दो दीवारों के"। [१३] हालांकि, यह बहुत सामान्य नहीं है; उदाहरण के लिए, दोहरी लेख τώ ( करने के लिए ) नहीं पाया जाता है की हास्य की तुलना में अधिक 90 बार Aristophanes इतिहासकार में, और केवल 3 बार थूसाईंडाईड्स । [१४] दोहरे के लिए विशेष क्रिया अंत भी हैं।
__________
तीनों वचनों (नंबरों) का तीसरा व्यक्ति आम है। मानक लिथुआनियाई के रूप में समोगिटियन भाषा के पास प्रतिभागियों की एक बहुत समृद्ध प्रणाली है, जो सभी काल से अलग सक्रिय और निष्क्रिय रूपों और कई गेरुंड( Gerun)-(क्रियार्थक संज्ञा)
"जैसे ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं में प्राचीन मूल भारोपीय भाषाओं के–प्राचीन चवर्ग –
(च'छ'ज'झ'ञ) ने कवर्ग- (क'ख'ग'घ'ड॒॰) का रूप ग्रहण कर लिया है । तथा
संस्कृत और ईरानी भाषाओं में वही चवर्ग घर्षक-ऊष्म–(स'श'ष'ह) उदाहरण-के लिया लैटिन में केण्टम्, अक्टो,डिक्टो, पिक्टो– रूप संस्कृत में क्रमश: शतम्'अष्टौ'दिष्ट: पिष्ट यूरोपीय मूर्धन्य ऊष्म वर्गीय मिलते हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में संस्कृत अष्ट के रूपांतरण★-
eighte, earlier ehte (c. 1200), from Old English –eahta, æhta,
from Proto Germanic *akhto .
(source also of Old Saxon -ahto,
Old Frisian -ahta,
Old Norse- atta,
Swedish -åtta,
Dutch -acht,
Old High German -Ahto,
German -acht,
Gothic -ahtau),
from PIE *okto(u) "eight"
(source also of Sanskrit- astau,
Avestan -ashta,
Greek -okto,
Latin- octo,
Old Irish- ocht-n,
Breton -eiz,
Old Church Slavonic- osmi, Lithuanian aštuoni).
From the Latin word come Italian- otto,
Spanish -ocho,
Old French-oit,
Modern French –huit
यूरोपीय दिश्-अतिसर्जनेे-
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit dist- "
" Greek deiknynai "to show, to prove," dike "custom, usage;" Latin dicere "speak, tell, say," digitus "finger," Old High German zeigon, German zeigen "to show," Old English teon "to accuse," tæcan "to teach."
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संस्कृत द्वारा प्रदान किया गया है दृश्-दिश्–dic-"इंगित करना, दिखाएं" यूनानी(deiknynai )"साबित करने के लिए," (dike)"कस्टम, उपयोग?"
लैटिन(dicere "बोलना, बताना), (कहना),"
digitus "उंगली," पुरानी उच्च जर्मन zeigon, जर्मन zeigen "दिखाने के लिए," पुरानी अंग्रेजी teon "दोष लगाने के लिए," (tæcan)- "शिक्षा देने के लिए।"
- पिङ्क्ते । पिञ्जाते । पिपिञ्जे । पिञ्जरः । पिङ्गलः । पिङ्गली ।। 18 ।।
Sanskrit pimsati "to carve, hew out, cut to measure, adorn;" Greek pikros "bitter, sharp, pointed, piercing, painful," poikilos "spotted, pied, various;" Latin pingere "to embroider, tattoo, paint, picture;" Old Church Slavonic pila "file, saw," pegu "variegated," pisati "to write;" Lithuanian piela "file," piešiu, piešti "to write;" Old High German fehjan "to adorn."
शतम्-Proto-Germanic *hunda-ratha- (source also of Old Frisian hundred, Old Saxon hunderod, Old Norse hundrað, German hundert); first element is Proto-Germanic *hundam "hundred" (cognate with Gothic hund, Old High German hunt), from PIE *km-tom "hundred," reduced from *dkm-tom- (source also of Sanskrit satam, Avestan satem, Greek hekaton, Latin centum, Lithuanian šimtas, Old Church Slavonic suto, Old Irish cet, Breton kant "hundred"), suffixed form of root *dekm- "ten."
दश-१-Sanskrit dasa,२- Avestan dasa, ३-Armenian tasn,४- Greek deka, ५-Latin decem (source of Spanish diez,६- French dix),७- Old Church Slavonic deseti, ८-Lithuanian dešimt, ९-Old Irish deich, १०-Breton dek,११- Welsh deg, १२-Albanian djetu, १३-Old English ten, १४-Old High German zehan, १५-Gothic taihun "ten."
संख्या वाची शब्द भारोपीय भाषाओं में समान हैं ।
(सतम् भारोपीय भाषा वर्ग) †★
1-संस्कृत- शतम् ।
3-रूसी - स्ततो ।
4-बुल्गारियन सुतो ।
5-लिथुऑनियन-स्विजम्तास ।
6-प्राकृत-सर्द ।
7-हिन्दी-"सौ ।
8-फारसी-सद ।
†★केण्टुम् भारोपीय भाषा-वर्ग-
1-ग्रीक- Hekaton
2-लैटिन-Centum
-3-इटालियन-Cento
4-फ्रेच-cent
5-केल्टिक-caint(कैण्ट)
6-गैलिक-क्युड
7-तोखारी-कन्ध
8-गॉथिक-खुँद
इस सतम् और केण्टुम् वर्ग की विशेषता यूरोपीय भाषा वैज्ञानिक अस्कोली ने प्रस्तुत की- इसके पश्चात वान-ब्राडेक ने यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया-
इन वर्गों में प्रथम सतम् पूर्वीय तथा एशिया की भाषाओं का है ।
तथा दूसरा केण्टुम वर्ग हिट्टाइट को छोड़कर यूरोपीय भाषाओं का है ।
संस्कृत, ग्रीक, तथा लिथुआनिया की उप भाषा (Samogitian) में आज तक एकवचन- द्विवचन और बहुवचन मिलते हैं ।
Not to be confused with Samoyedic languages.-
(Samogitian: žemaitiu kalba or sometimes žemaitiu rokunda or žemaitiu ruoda; Lithuanian: žemaičių tarmė) is an Eastern Baltic variety spoken mostly in Samogitia (in the western part of Lithuania)
It is sometimes treated as a dialect[3] of Lithuanian, but is considered a separate language by some linguists outside Lithuania.
Its recognition as a distinct language is increasing in recent years,[4] and attempts have been made to standardize it.[5]
Samogitian language
žemaitiu kalba
(Native to Lithuania)
Region -Samogitia
Native speakers < 500,000 (2009) Recently-
(Language family Indo-European)
Balto-Slavic
Eastern Baltic
Lithuanian
Samogitian language
(Writing system Latin script)
The Samogitian dialect should not be confused with the interdialect of the Lithuanian language as spoken in the Duchy of Samogitia before Lithuanian became a written language, which later developed into one of the two variants of written Lithuanian used in the Grand Duchy of Lithuania based on the so-called middle dialect of the Kėdainiai region.
________________
This was called the Samogitian- (Žemaitian) language; the term "Lithuanian language" then referred to the other variant, which had been based on the eastern Aukštaitian dialects centred around the capital Vilnius; Samogitian was generally used in the Samogitian Diocese while Lithuanian was generally used in the Vilna Diocese.
This Samogitian language was based on western Aukštaitian dialects and is unrelated to what is today called the Samogitian dialect; it is instead the direct ancestor of the modern Lithuanian literary language.
"History- इतिहास-
The Samogitians and Lithuanians in the context of the other Baltic tribes, around 1200 Century.
The Samogitian language, heavily influenced by Curonian, originated from the East Baltic proto-Samogitian dialect which was close to Aukštaitian dialects.
During the 5th century, Proto-Samogitians migrated from the lowlands of central Lithuania, near Kaunas, into the Dubysa and Jūra basins, as well as into the Samogitian highlands.
They displaced or assimilated the local, Curonian-speaking Baltic populations. Further north, they displaced or assimilated the indigenous, Semigallian speaking peoples. Assimilation of Curonians and Semigallians gave birth to the three Samogitian subdialects: "Dounininkų", "Donininkų" and "Dūnininkų."
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In the 13th century, Žemaitija became a part of the Baltic confederation called (Lietuva -(Lithuania), which was formed by Mindaugas. Lithuania conquered the coast of the Baltic sea from the Livonian order. ★-
The coast was populated by Curonians, but became a part of Samogitia.
From the 13th century onwards, Samogitians settled within the former Curonian lands, and intermarried with that population over the next three hundred years.
The Curonians had a huge cultural influence upon Samogitian and Lithuanian culture, but they were ultimately assimilated by the 16th century. Its dying language has enormously influenced the dialect, in particular phonetics.
The earliest writings in Samogitian language appeared in the 19th century.
"Phonology-(ध्वनि विज्ञान)-
Samogitian and its subdialects preserved many features of the Curonian language, for example:
widening of proto-Baltic short i (i → ė sometimes e)
widening of proto-Baltic short u (u → o)
retraction of ė in northern sub-dialects (ė → õ) (pilkas → pėlks põlks)
preservation of West Baltic diphthong ei (standard Lithuanian i.e. → Samogitian ėi)
no t' d' palatalization to č dž (Latvian š, ž)
specific lexis, like cīrulis (lark), pīle (duck), leitis (Lithuanian) etc.
retraction of stress
shortening of ending -as to -s like in Latvian and Old Prussian (Proto-Indo-European o-stem)
as well as various other features not listed here.
The earliest writings in the Samogitian language appeared in the 19th century.
Grammar-(व्याकरण)-
_________
The Samogitian language is highly inflected like standard Lithuanian, in which the relationships between parts of speech and their roles in a sentence are expressed by numerous flexions.
★-There are two grammatical genders in Samogitian – feminine and masculine.
★-Relics of historical neuter are almost fully extinct while in standard Lithuanian some isolated forms remain.
★-Those forms are replaced by masculine ones in Samogitian.
Samogitian stress is mobile but often retracted at the end of words, and is also characterised by pitch accent.
Samogitian has a broken tone like the Latvian and Danish languages. The circumflex of standard Lithuanian is replaced by an acute tone in Samogitian.
It has five noun and three adjective declensions.
Noun declensions are different from standard Lithuanian .
There are only two verb conjugations.
All verbs have present, past, past iterative and future tenses of the indicative mood, subjunctive (or conditional) and imperative moods (both without distinction of tenses) and infinitive.
The formation of past iterative is different from standard Lithuanian.
________
★-There are three numbers in Samogitian:
1-singular, 2-dual.and 3-plural
Dual is almost extinct in standard Lithuanian.
The third person of all three numbers is common.
Samogitian as the standard Lithuanian has a very rich system of participles, which are derived from all tenses with distinct active and passive forms,
and several gerund forms.
Nouns and other declinable words are declined in eight cases:
1-nominative,
2-genitive,
3-dative,
4-accusative,
5-instrumental,
6-locative (inessive),
7-vocative and
8-illative.
___
Literature- साहित्य-
The earliest writings in Samogitian dialect appear in the 19th century. Famous authors writing in Samogitian:
Józef Arnulf Giedroyć [pl] also called Giedraitis (1754–1838) Bishop of Samogitia from 1801, champion of education and patron of Lithuanian literature, published the first translation of the New Testament into Samogitian or Język żmudzki in 1814. It was subsequently revised a number of times.
Silvestras Teofilis Valiūnas [lt] and his heroic poem “Biruta”, first printed in 1829.
“Biruta” became a hymn of Lithuanian student emigrants in the 19th century.
Simonas Stanevičius (Sėmuons Stanevėčios) with his famous book “Šešės pasakas” (Six fables) printed in 1829.
Simonas Daukantas (Sėmuons Daukonts in Samogitian), he was the first Lithuanian historian writing in Lithuanian (actually in its dialect).
His famous book – “Būds Senovės Lietuviu Kalnienu ir Zamaitiu” (Customs of ancient Lithuanian highlanders and Samogitians) was printed in 1854.
Motiejus Valančius (Muotiejos Valončios or Valontė) and one of his books “Palangos Juzė” (Joseph of Palanga), printed in 1869.
There are no written grammar books in Samogitian because it is considered to be a dialect of Lithuanian, but there were some attempts to standardise its written form.
Among those who have tried are Stasys Anglickis [lt], Pranas Genys [lt], Sofija Kymantaitė-Čiurlionienė, B. Jurgutis, Juozas Pabrėža [lt]. Today, Samogitian has a standardised writing system but it still remains a spoken language, as nearly everyone writes in their native speech.
_________________
Differences from Standard Lithuanian -
Samogitian differs from Standard Lithuanian in phonetics, lexicon, syntax and morphology.
Phonetic differences from standard Lithuanian are varied, and each Samogitian subdialect (West, North and South) has different reflections.
Standard Lithuanian ~ Samogitian
Short vowels:
i ~ short ė, sometimes e (in some cases õ);
u ~ short o (in some cases u);
Long vowels and diphthongs:
ė ~ ie;
o ~ uo;
ie ~ long ė, ėi, ī (y) (West, North and South);
uo ~ ō, ou, ū (West, North and South);
ai ~ ā ;
ei, iai ~ ē;
ui ~ oi;
oi (oj) ~ uo;
ia ~ ė;
io ~ ė;
Nasal diphthongs:
an ~ on (an in south-east);
un ~ on (un in south-east);
ą ~ an in south-eastern, on in the central region, ō / ou in the north;
unstressed ią ~ ė;
ę (e) ~ en in south-eastern, ėn in the central region and õ, ō or ėi in the north;
ū ~ ū (in some cases un, um);
ų in stressed endings ~ un and um;
unstressed ų ~ o;
y ~ ī (y), sometimes in;
[clarification needed]
i from ancient *ī ~ ī;
u from ancient *ō (Lithuanian uo) ~ ō / ou / ū (West / North / South)
i from ancient *ei (Lithuanian ie) ~ long ė / ėi / ī (West / North / South)
Postalveolar consonants
č ~ t (also č under Lithuanian influence);
dž ~ d (also dž under Lithuanian influence);
The main difference between Samogitian and standard Lithuanian is verb conjugation. The past iterative tense is formed differently from Lithuanian (e.g., in Lithuanian the past iterative tense, meaning that action which was done in the past repeatedly, is made by removing the ending -ti and adding -davo (mirti – mirdavo, pūti – pūdavo), while in Samogitian, the word liuob is added instead before the word).
The second verb conjugation is extinct in Samogitian, it merged with the first one.
The plural reflexive ending is -muos instead of expected -mies which is in standard Lithuanian (-mės) and other dialects. Samogitian preserved a lot of relics of athematic conjugation which did not survive in standard Lithuanian. The intonation in the future tense third person is the same as in the infinitive, in standard Lithuanian it shifts. The subjunctive conjugation is different from standard Lithuanian. Dual is preserved perfectly while in standard Lithuanian it has been completely lost.
The differences between nominals are considerable too.
The fifth noun declension has almost become extinct, it merged with the third one.
The plural and some singular cases of the fourth declension have endings of the first one (e.g.: singular nominative sūnos, plural nom. sūnā, in standard Lithuanian: sg. nom. sūnus, pl. nom. sūnūs). The neuter of adjectives is extinct (it was pushed out by adverbs, except šėlt 'warm', šalt 'cold', karšt 'hot') while in standard Lithuanian it is still alive. Neuter pronouns were replaced by masculine.
The second declension of adjectives is almost extinct (having merged with the first declension)—only singular nominative case endings survived. The formation of pronominals is also different from standard Lithuanian.
Other morphological differences-Samogitian also has many words and figures of speech that are altogether different from typically Lithuanian ones, e.g., kiuocis 'basket' (Lith. krepšys, Latvian ķocis), tevs 'thin' (Lith. plonas, tęvas, Latvian tievs), rebas 'ribs' (Lith. šonkauliai, Latvian ribas), a jebentas! 'can't be!' (Lith. negali būti!).
Subdialects
Map of the sub-dialects of the Lithuanian language (Zinkevičius and Girdenis, 1965).
Western Samogitian sub-dialectNorthern Samogitian :
Sub-dialect of Kretinga
Sub-dialect of Telšiai
Southern Samogitian :
Sub-dialect of Varniai
Sub-dialect of Raseiniai
Samogitian is also divided into three major subdialects: Northern Samogitian (spoken in Telšiai and Kretinga regions), Western Samogitian (was spoken in the region around Klaipėda, now nearly extinct, – after 1945, many people were expelled and new ones came to this region) and Southern Samogitian (spoken in Varniai, Kelmė, Tauragė and Raseiniai regions).
Historically, these are classified by their pronunciation of the Lithuanian word Duona, "bread." They are referred to as Dounininkai (from Douna), Donininkai (from Dona) and Dūnininkai (from Dūna).
Political situation -
The Samogitian dialect is rapidly declining: it is not used in the local school system and there is only one quarterly magazine and no television broadcasts in Samogitian. There are some radio broadcasts in Samogitian (in Klaipėda and Telšiai). Local newspapers and broadcast stations use standard Lithuanian instead. There is no new literature in Samogitian either, as authors prefer standard Lithuanian for its accessibility to a larger audience. Out of those people who speak Samogitian, only a few can understand its written form well.
Migration of Samogitian speakers to other parts of the country and migration into Samogitia have reduced contact between Samogitian speakers, and therefore the level of fluency of those speakers.
There are attempts by the Samogitian Cultural Society to stem the loss of the dialect. The council of Telšiai city put marks with Samogitian names for the city at the roads leading to the city, while the council of Skuodas claim to use the language during the sessions. A new system for writing Samogitian was created.[citation needed]
Writing system -
The first use of a unique writing system for Samogitian was in the interwar period, however it was neglected during the Soviet period, so only elderly people knew how to write in Samogitian at the time Lithuania regained independence. The Samogitian Cultural Society renewed the system to make it more usable.
The writing system uses similar letters to standard Lithuanian, but with the following differences:
There are no nasal vowels (letters with ogoneks: ą, ę, į, ų).
There are three additional long vowels, written with macrons above (as in Latvian): ā, ē, ō.
Long i in Samogitian is written with a macron above: ī (unlike standard Lithuanian where it is y).
The long vowel ė is written like ė with macron: Ė̄ and ė̄. Image:E smg.jpg In the pre-Unicode 8-bit computer fonts for Samogitian, the letter 'ė with macron' was mapped on the code of the letter õ. From this circumstance a belief sprang that 'ė with macron' could be substituted with the character õ. It is not so, however. In fact, if the letter 'ė with macron' is for some reason not available, it can be substituted with the doubling of the macron-less letter, that is, 'ėė'.
The letter õ is used to represent a vowel characteristic of Samogitian that does not exist in Standard Lithuanian; the unrounded back vowel /ɤ/. This is a rather new innovation which alleviates the confusion between the variations in pronunciation of the letter ė. The letter ė can be realised as a close-mid front unrounded vowel /e/ (Žemaitėjė) or as an unrounded back vowel /ɤ/ (Tėn) or (Pėlks) → Tõn, Põlks. The addition of this new letter distinguishes these 2 vowels sounds previously represented as a single letter.
There are two additional diphthongs in Samogitian that are written as digraphs: ou and ėi. (The component letters are part of the standard Lithuanian alphabet.)
As previously it was difficult to add these new characters to typesets, some older Samogitian texts use double letters instead of macrons to indicate long vowels, for example aa for ā and ee for ē; now the Samogitian Cultural Society discourages these conventions and recommends using the letters with macrons above instead. The use of double letters is accepted in cases where computer fonts do not have Samogitian letters; in such cases y is used instead of Samogitian ī, the same as in standard Lithuanian, while other long letters are written as double letters. The apostrophe might be used to denote palatalization in some cases; in others i is used for this, as in standard Lithuanian.
A Samogitian computer keyboard layout has been created.[citation needed] -सन्दर्भ अपेक्षित है
Samogitian alphabet:
Letter
Name A a
[ā] Ā ā
[ėlguojė ā] B b
[bė] C c
[cė] Č č
[čė] D d
[dė] E e
[ē] Ē ē
[ėlguojė ē]
Letter
Name Ė ė
[ė̄] Ė̄ ė̄
[ėlguojė ė̄] F f
[ėf] G g
[gė, gie] H h
[hā] I i
[ī] Ī ī
[ėlguojė ī] J j
[jot]
Letter
Name K k
[kā] L l
[ėl] M m
[ėm] N n
[ėn] O o
[ō] Ō ō
[ėlguojė ō] Õ õ
[õ] P p
[pė] R r
[ėr]
Letter
Name S s
[ės] Š š
[ėš] T t
[tė] U u
[ū] Ū ū
[ėlguojė ū] V v
[vė] Z z
[zė, zet] Ž ž
[žė, žet].
Samples
English Samogitian Lithuanian Latvian Latgalian Old Prussian
Samogitian žemaitiu kalba žemaičių tarmė žemaišu valoda žemaišu volūda zemātijiskan bliā
English onglu kalba anglų kalba angļu valoda ongļu volūda ēngliskan bilā
Yes Je, Ja, Jo, Noje, Tēp Taip(Jo in informal speech) Jā Nuj Jā
No Ne Ne Nē Nā Ni
Hello! Svēks Sveikas Sveiks Vasals Kaīls
How are you? Kāp gīvenė?/ Kāp ī? Kaip gyveni / laikaisi / einasi? Kā tev iet? Kai īt? Kāigi tebbei ēit?
Good evening! Lab vakar! Labas vakaras! Labvakar! Lobs vokors! Labban bītan!
Welcome [to...] Svēkė atvīkė̄! Sveiki atvykę Laipni lūdzam Vasali atguojuši Ebkaīlina
Good night! Labanaktis Labos nakties / Labanakt! Ar labu nakti Lobys nakts! Labban naktin!
Goodbye! Sudieu, võsa gera Viso gero / Sudie(vu) / Viso labo! Visu labu Palicyt vasali Sandēi
Have a nice day! Geruos dėinuos! Geros dienos / Labos dienos! Jauku dienu! Breineigu dīnu Mīlingis dēinas
Good luck! Siekmies! Sėkmės! Veiksmi! Lai lūbsīs! Izpalsnas
Please Prašau Prašau Lūdzu Lyudzams Madli
Thank you Diekou Ačiū / Dėkui / Dėkoju Paldies Paļdis Dīnkun
You're welcome Prašuom Prašom Lūdzu! Lyudzu! Madli!
I'm sorry Atsėprašau/ Atlēskāt Atsiprašau / Atleiskite Atvaino (Piedod) Atlaid Etwinūja si
Who? Kas? Kas? Kas? (Kurš?) Kas? Kas?
When? Kumet? Kada / Kuomet? Kad? Kod? Kaddan?
Where? Kor? Kur? Kur? Kur? Kwēi?
Why? Kudie / Diukuo? Kodėl / Dėl ko? Kādēļ? (Kāpēc?) Dieļ kuo? Kasse paggan?
What's your name? Kuoks tava vards? Koks tavo vardas? / Kuo tu vardu? Kāds ir tavs vārds? (Kā tevi sauc?) Kai tevi sauc? Kāigi assei bīlitan? / Kāigi assei tū bīlitan?
Because Tudie / Diutuo Todėl / Dėl to Tādēļ (Tāpēc) Dieļ tuo Beggi
How? Kāp? Kaip? Kā? Kai? Kāi? / Kāigi?
How much? Kėik? Kiek? Cik daudz? Cik daudzi? Kelli?
I do not understand. Nesopronto/Nasopronto Nesuprantu Nesaprotu Nasaprūtu Niizpresta
I understand. Soprontu Suprantu Saprotu Saprūtu Izpresta
Help me! Ratavuokėt! Padėkite / Gelbėkite! Palīgā! Paleigā! Pagalbsei!
Where is the toilet? Kor īr tolets? Kur yra tualetas? Kur ir tualete? Kur irā tualets? Kwēi ast tualetti?
Do you speak English? Ruokounaties onglėškā? (Ar) kalbate angliškai? Vai runājat angliski? Runuojit ongliski? Bīlai tū ēngliskan?
I don't speak Samogitian. Neruokoujous žemaitėškā. Žemaitiškai nekalbu Es nerunāju žemaitiski As narunuoju žemaitiski As nibīlai zemātijiskan
The check, please. (In restaurant) Sāskaita prašītiuo Prašyčiau sąskaitą / Sąskaitą, prašyčiau / Sąskaitą, prašau, pateikite Rēķinu, lūdzu! Lyudzu, saskaitu Rekkens, madli
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References
Learn more
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^ "Request for New Language Code Element in ISO 639-3" (PDF). ISO 639-3 Registration Authority. 2009-08-11.
^ Samogitian dialect at Ethnologue (21st ed., 2018)
^ "Lithuania". ethnologue.com. Retrieved 19 April 2018.
^ "Dr. Juozas Pabrėža: "Stipriausia kalba Lietuvoje yra žemaičių"". santarve.lt. Retrieved 19 April 2018.
^ László Marácz; Mireille Rosello, eds. (2012). Multilingual Europe, Multilingual Europeans. BRILL. p. 177. ISBN 9789401208031.
^ Dziarnovič, Alieh (2014–2015). "In Search of a Homeland: "Litva/Lithuania" and "Rus'/Ruthenia" in the Contemporary Belarusian Historiography" (PDF). Belarusian Political Science Review. 3: 90–121. ISSN 2029-8684. Retrieved 27 February 2019.
Samogitian (Samogitian: žemaitiu kalba या कभी कभी žemaitiu rokunda या žemaitiu ruoda ;
लिथुआनियाई : Žemaičių tarmė ) एक है पूर्वी बाल्टिक विविधता में ज्यादातर बोली जाने वाली Samogitia (के पश्चिमी भाग में लिथुआनिया )।
यह कभी-कभी लिथुआनियाई की एक बोली [3] के रूप में माना जाता है,
लेकिन लिथुआनिया के बाहर कुछ भाषाविदों द्वारा एक अलग भाषा माना जाता है। एक विशिष्ट भाषा के रूप में इसकी मान्यता हाल के वर्षों में बढ़ रही है, और इसे मानकीकृत करने का प्रयास किया गया है।
सामोगी भाषा
žemaitiu कलाबा
के मूल निवासी लिथुआनिया
क्षेत्र संयोगिता
देशी वक्ता <500,000 (2009) [1]
भाषा परिवार भारोपीय
बाल्टो-स्लाव
पूर्वी बाल्टिक
लिथुआनियाई
सामोगी भाषा
(Samogitian- बोली के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए interdialect लिथुआनियाई भाषा का में बोली जाने वाली के रूप में Samogitia की डची से पहले लिथुआनियाई एक लिखित भाषा है,।
जो बाद की लिखित लिथुआनियाई में इस्तेमाल दो वेरिएंट में से एक के रूप में विकसित हो गया लिथुआनिया के ग्रैंड के आधार पर तथाकथित मध्य बोली कादैनी क्षेत्र है ।
इसे समोगिटियन (itianemaitian) भाषा कहा जाता था; यह शब्द "लिथुआनियाई भाषा का है " तब दूसरे संस्करण के लिए संदर्भित होता है, जो राजधानी विल्नियस के आसपास केंद्रित पूर्वी Aukštaitian बोलियों पर आधारित था।; सामोगियन का उपयोग आम तौर पर सामोगियन सूबा में किया जाता था जबकि लिथुआनिया में आम तौर पर विल्ना डायोसेसी में इस्तेमाल किया जाता था।
यह समोगियन भाषा पश्चिमी औक्टाटिशियन बोलियों पर आधारित थी और जिसे आज की समोगियनियन बोली कहा जाता है, से असंबंधित है; इसके बजाय यह आधुनिक लिथुआनियाई साहित्यिक भाषा का प्रत्यक्ष पूर्वज है। [६]
इतिहास -
समोगिटियन और लिथुआनियाई अन्य बाल्टिक जनजातियों के संदर्भ में, लगभग 1200
Samogitian भाषा, भारी से प्रभावित Curonian , से उत्पन्न पूर्व बाल्टिक आद्य Samogitian बोली जो के करीब था Aukštaitian बोलियों ।
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5 वीं शताब्दी के दौरान, प्रोटो-Samogitians केंद्रीय लिथुआनिया की तराई से पलायन के पास, कौनास में, Dubysa और जुरा घाटियों, साथ ही में Samogitian हाइलैंड्स ।
उन्होंने स्थानीय, क्यूरोनियन बोलने वाले बाल्टिक आबादी को विस्थापित या आत्मसात कर लिया ।
इसके अलावा उत्तर में, उन्होंने विस्थापित, सेमीगैलियन बोलने वाले लोगों को आत्मसात किया ।
क्यूरोनियन और सेमीग्लियंस के आत्मसात ने तीन सामोगियन उप- प्रजातियों को जन्म दिया: "डी ou नाइनिन्को", "डी ओ निन्निको" और "डी ų निन्निको।"
13 वीं सदी में, Žemaitija बाल्टिक संघ कहा जाता है का एक हिस्सा बन Lietuva (लिथुआनिया), जिसके द्वारा बनाई गई थी मिंडोगस ।
लिथुआनिया ने बाल्टिक सागर के तट को लिवोनियन आदेश से जीत लिया
इस तट से बसा हुआ था Curonians , लेकिन का एक हिस्सा बन Samogitia ।
13 वीं शताब्दी के बाद से, सामोगियन लोग पूर्व क्यूरोनियन भूमि के भीतर बस गए, और अगले सौ वर्षों में उस आबादी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया।
क्यूरोनियन लोगों का समोगियनियन और लिथुआनियाई संस्कृति पर बहुत बड़ा सांस्कृतिक प्रभाव था, लेकिन अंततः 16 वीं शताब्दी तक उन्हें आत्मसात कर लिया गया। इसकी मरने वाली भाषा ने विशेष रूप से ध्वन्यात्मकता में, बोली को काफी प्रभावित किया है।
समोगिटियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
ध्वनि विज्ञान-
Samogitian और इसके उपविभागों ने उदाहरण के लिए क्यूरोनियन भाषा की कई विशेषताओं को संरक्षित किया:
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट आई का चौड़ीकरण (i →-कभी-कभी ई)
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट यू (यू → ओ) का चौड़ीकरण
उत्तरी उप-बोलियों में ė की वापसी
पश्चिम बाल्टिक डिप्थॉन्ग ईई का संरक्षण (मानक लिथुआनियाई यानी → समोगिटियन Westi)
कोई टी 'डी' पैलेटाइज़ेशन č dž (लातवियाई š, ž) के लिए
विशिष्ट लेक्सिस, जैसे सिरुलिस (लार्क), पाइले (बतख), लिटिस (लिथुआनियाई) आदि।
काल की वापसी
लातवियाई और पुराने प्रशिया की तरह एंड-टू-एस को छोटा करना ( प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ओ-स्टेम )
साथ ही विभिन्न अन्य सुविधाएँ यहाँ सूचीबद्ध नहीं हैं।
समोगियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
व्याकरण -
समोगिटियन भाषा मानक लिथुआनियाई की तरह अत्यधिक उपेक्षित है , जिसमें भाषण के कुछ हिस्सों और एक वाक्य में उनकी भूमिकाओं के बीच के संबंध कई लचीलेपन द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।
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सामोगियन में दो
लिंग हैं - स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। ऐतिहासिक भाषाओं के अवशेष के मानक लिथुआनियाई की परिधि को समोगिटियन में एक तीव्र स्वर से बदल दिया जाता है।
यह पांच है स्त्रीलिंग और तीन विशेषण( declensions) । संज्ञा के मानक लिथुआनियाई से अलग हैं।
केवल दो क्रिया संयुग्मन हैं। सभी क्रियाओं में वर्तमान , अतीत , अतीत पुनरावृत्त होते हैं ।
नपुंसक के लगभग पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं जबकि मानक लिथुआनियाई में कुछ अलग-थलग रूप बने हुए हैं।
उन रूपों को समोगियन में मर्दाना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। समोगिटियन काल गतिशील है लेकिन अक्सर शब्दों के अंत में पीछे हट जाता है, और यह पिच तीव्र स्वर उच्चारण द्वारा भी विशेषता है ।
( Samogitian )में लातवी और डेनिश की तरह एक टूटी हुई टोन (स्वर) है और यह भविष्य काल की है ।
पिछले पुनरावृत्तियों का गठन मानक लिथुआनियाई से अलग है।
समोगेशियन-(Samogitian) में तीन वचन हैं:।
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१-एकवचन ,द्विवचन और बहुवचन में से द्विवचन का मानक लिथुआनियाई में लगभग अब विलुप्त है।
Number-वचन-
Nouns, adjectives, and pronouns also vary as to number. They can be singular, dual (referring to two people or things),[11] or plural (referring to two or more):
ὁ θεός (ho theós) "the god" (singular)
τὼ θεώ (tṑ theṓ) "the two gods" (dual)
οἱ θεοί (hoi theoí) "the gods" (plural)
As can be seen from the above examples, the difference between singular, dual, and plural is generally shown in Greek by changing the ending of the noun, and the article also changes for different numbers.
The dual number is used for a pair of things, for example τὼ χεῖρε (tṑ kheîre) "his two hands",[12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν (toîn duoîn teikhoîn) "of the two walls".[13] It is, however, not very common; for example, the dual article τώ (tṓ) is found no more than 90 times in the comedies of Aristophanes, and only 3 times in the historian Thucydides.[14] There are special verb endings for the dual as well.
वचन -
संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी संख्या के अनुसार भिन्न होते हैं।
वे एकवचन हो सकते हैं , दोहरी (द्विवचन )(दो लोगों या चीजों का जिक्र), [11]
या बहुवचन (दो या अधिक का संदर्भ देते हुए):
ὁ god ( हो दीस ) "द गॉड" (एकवचन)
τὼ two ( tṑ ṑ ) "दो देवता" (दोहरी)
οἱ θεοί ( होई theoí ) "देवताओं" (बहुवचन)
जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से देखा जा सकता है, एकवचन, दोहरे और बहुवचन के बीच का अंतर आमतौर पर ग्रीक में संज्ञा के अंत को बदलकर दिखाया जाता है, और लेख भी विभिन्न संख्याओं के लिए बदलता है।
दोहरी संख्या द्विवचन , चीजों की एक जोड़ी के लिए प्रयोग किया जाता है, उदाहरण के लिए τὼ χεῖρε ( करने के लिए kheîre ,) "अपने दो हाथों" [12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν ( Toin duoîn teikhoîn ) "दो दीवारों के"। [१३] हालांकि, यह बहुत सामान्य नहीं है; उदाहरण के लिए, दोहरी लेख τώ ( करने के लिए ) नहीं पाया जाता है की हास्य की तुलना में अधिक 90 बार Aristophanes इतिहासकार में, और केवल 3 बार थूसाईंडाईड्स । [१४] दोहरे के लिए विशेष क्रिया अंत भी हैं।
__________
तीनों वचनों (नंबरों) का तीसरा व्यक्ति आम है। मानक लिथुआनियाई के रूप में समोगिटियन भाषा के पास प्रतिभागियों की एक बहुत समृद्ध प्रणाली है, जो सभी काल से अलग सक्रिय और निष्क्रिय रूपों और कई गेरुंड( Gerun)-(क्रियार्थक संज्ञा)
तथा यह.( Ing ) का रूपान्तरण है .) शतृ-प्रत्यय का अत् शेष रहता है । अर्थात् श् और ऋ हट जाते है । जैसेः–पठ् शतृ पठत्
इसका अर्थः— रहा है, रहे हैं, रही है । जैसे वह पढता हुआ जा रहा हैः—स पठन् गच्छति ।
(2.) यह वर्तमान काल में होता है । जैसे—पुल्लिंग में पठन् बनता है, जिसका अर्थ पढता हुआ है ।
(3.) इसका केवल परस्मैपद-धातुओं के साथ प्रयोग होता है । जैसेः—लिख् शतृ लिखत्(लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे –3.2.123) उभयपदी धातुओं के साथ भी इसका प्रयोग होता है, जैसेः—पच्-शतृ–पचत् ।
(4.) इसे “सत्-प्रत्यय” भी कहा जाता है ।(तौ सत्—3.2.127)
(5.) कभी कभार इसका भविष्यत् काल में भी प्रयोग होता है, जैसेः—–करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य। करने वाले देवदत्त को देखो ।(लृटः सद्वा—3.3.14)
(6.) इसका विशेषण के रूप में प्रयोग होता है, जैसेः—पढने वाले देवदत्त को देखो—पठिष्यन्तं देवदत्तं पश्य । या पठन्तं देवदत्तं पश्य–पढते हुए देवदत्त को देखो ।
इसमें विशेष यह है कि विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग, वचन, विभक्ति, पुरुष आदि बदल जाते हैं ।
(7.) जो धातु जिस गण की हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसेः–पठ्-शप्-शतृः—पठत्
पठ् धातु भ्वादिगण की है, तो शप् विकरण का प्रयोग हुआ ।
इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्नु आदि।
(8.) शतृ-प्रत्यय से बने शब्दों के रूप भी चलते हैं ।
(क) पुल्लिंग में पठन् बनता है, इसका रूप भवत् (आप) के अनुसार चलता है ।
इसी पठन् का रूप देखेंः—
पठन्——पठन्तौ——-पठन्तः
पठन्तम्—–पठन्तौ—–पठतः
पठता——पठद्भ्याम्—–पठद्भिः
पठते——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठतोः———-पठताम्
पठति——–पठतोः——–पठत्सु
हे पठन्——हे पठन्तौ——हे पठन्तः
(ख) स्त्रीलिंग में नदी के अनुसार इसका रूप चलता हैः—
पठन्ती——पठन्त्यौ——-पठन्त्यःपठन्तीम्—–पठन्त्यौ—–पठन्तीः
पठन्त्या——पठन्तीभ्याम्—–पठद्भिः
पठन्त्यै——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्त्योः———-पठन्तीनाम्
पठन्त्याम्——–पठन्त्योः———पठन्तीषु
हे पठन्ति——हे पठन्त्यौ——हे पठन्त्यः
(ग) नपुंसकलिंग में पठत् का रूप जगत् के अनुसार चलेगाः—
पठत्—–पठन्ती——पठन्ति
पठत्—-पठन्ती——-पठन्ति
शेष पुल्लिंग के अनुसार ही चलेगा ।
(9.) शतृ-प्रत्यय वाले शब्द उगित् होते है, अर्थात् इसका ऋ का लोप हो जाता है, ऋ उक् प्रत्याहार में आता है, अतः ऋ का लोप होने से यह उगित् है। उगितश्च—4.1.6 सूत्र से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय आता है और तब यह ईकारान्त शब्द बन जाता है, जिससे स्त्रीलिंग में इसका रूप नदी के अनुसार चलता है ।
(10.) स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में नुम् प्रत्यय होता है, जिसका न् शेष रहता है —(शप्श्यनोर्नित्यम्—7.1.81 और आच्छीनद्योनुम्—7.1.80)
भ्वादि. दिवादि., चुरादि. और तुदादिगण की धातु के लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन के रूप में अन्त में ई जोड देते हैंं, जैसेः—गच्छन्ति—गच्छन्ती, पठन्ती,, पिबन्ती,,, दीव्यन्ती,,, तुदन्ती आदि।
अदादि. स्वादि. क्र्यादि. तनादि. जुहोत्यादिगण की धातुओं में लट् लकार प्र. पु. बहुवचन के रूप में केवल ई लगेगा, नुम् नहीं होगा, अतः न् नहीं दिखेगाः–
रुदती, शृण्वती, क्रीणती, कुर्वती, ददती आदि
(11.) किसी धातु से शृ-प्रत्ययान्त शब्द बनाने की सरल उपाय यह है कि जिस धातु का, लट् लकार के प्र. पु. के एकवचन में जो रूप बनता है, उसके “ति” भाग को को “त्” कर दो और यथास्थान “नुम्” का “न्” जोड दो । जैसेः—भू का भवति—शतृ से भवत् (नपुं. ) पु. में भवन्, तथा स्त्री. में भवन्ती बनेगा ।
(12.) शतृ-प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता है । वाक्य में इसका प्रथम क्रिया के साथ प्रयोग होता है। जैसेः—
सः पठति । सः गच्छति । वह पढते हुए जाता हैः—सः पठन् गच्छति ।
(13.) वाक्य में प्रथम क्रिया के जो शतृ प्रत्यय जुडता है, वह वर्तमान कालिक ही होता है, किन्तु दूसरी क्रिया किसी भी काल में हो सकती है, जैसेः—
वह पढते हुए जाता हैः–स पठन् गच्छति ।
वह पढते हुए जा रहा थाः—व पठन् अगच्छत् ।
वह पढते हुए जाएगा—स पठन् गमिष्यति ।
अभ्यास हेतु कुछ वाक्यः—
(1.) सः गृहं गच्छन् अस्ति ।
(2.) वह पुस्तक पढता हुआ जा रहा हैः—सः पुस्तकं पठन् गच्छति ।
(3.) वह खाते हुए देख रहा है—स खादन् पश्यति ।
(4.) वे दोनों घर जाते हुए हैं—तौ गृहं गच्छन्तौ स्तः।
(5.) वे सब घर जाते पढ रहे थे—-ते गृहं गच्छन्तः पठन्ति स्म ।
(6.) लडकियाँ खेलती हुईं गा रही हैं—बालाः क्रीडन्त्यः गायन्ति ।
(7.) घर जाते हुए मुझे देखो—गृहं गच्छन्तं माम् पश्य ।
(8.) यह पुस्तक पढते हुए मोहन को दे दोः—इदं पुस्तकं पठते मोहनाय देहि ।
(9.) वृक्ष से गिरते हुए फलों को देखो—-वृक्षात् पतन्ति फलानि पश्य ।
(10.) जाती हुई बुढिया हँस रही है—-गच्छन्ती वृद्धा हसति ।
(11.) घर जाती हुई लडकियों से शिक्षिका ने कहा —गहं गच्छन्तीः बालिकाः शिक्षिका अकथयत् ।
(12.) खिलते हुए पुष्पों को सुँघो—विकसन्ति पुष्पाणि जिघ्र ।
(13.) माता धमकाती हुई पुत्री से कहा—जननी तर्जयन्ती पुत्रीम् अकथयत् ।
(14.) रोते हुए बालक को बोलो—रुदन्तं बालकं ब्रूहि ।
(15.) ब्राह्मण को दान देते राजा को देखो—ब्राह्मणाय दानं यच्छन्तं नृपं पश्य ।
(16.) दौडते हुए बालक को बोलो—धावन्तं बालकं वद ।
(17.) खेलते हुए बालकों के साथ तुम भी खेलो—खेलद्भिः (क्रीडद्भिः) बालकैः सह त्वमपि क्रीड (खेल) ।
(18.) खाते हुए मत बोलो—खादन् मा वद ।
(19.) काम करती हुई माता ने पुत्री से पूछा—-कार्यं कुर्वती माता पुत्रीम् अपृच्छत् ।
(20.) जागती पुत्री परीक्षा के लिए पढ रही है—जाग्रती पुत्री परीक्षायै (परीक्षार्थम्) पठति ।
.) शतृ-प्रत्यय का अत् शेष रहता है । अर्थात् श् और ऋ हट जाते है । जैसेः–पठ् शतृ पठत्
इसका अर्थः— रहा है, रहे हैं, रही है । जैसे वह पढता हुआ जा रहा हैः—स पठन् गच्छति ।
(2.) यह वर्तमान काल में होता है । जैसे—पुल्लिंग में पठन् बनता है, जिसका अर्थ पढता हुआ है ।
(लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे –3.2.123) उभयपदी धातुओं के साथ भी इसका प्रयोग होता है, जैसेः—पच्-शतृ–पचत् ।
(4.) इसे “सत्-प्रत्यय” भी कहा जाता है ।(तौ सत्—3.2.127)
(5.) कभी कभार इसका भविष्यत् काल में भी प्रयोग होता है, जैसेः—–करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य। करने वाले देवदत्त को देखो ।(लृटः सद्वा—3.3.14)
(6.) इसका विशेषण के रूप में प्रयोग होता है, जैसेः—पढने वाले देवदत्त को देखो—पठिष्यन्तं देवदत्तं पश्य । या पठन्तं देवदत्तं पश्य–पढते हुए देवदत्त को देखो ।
इसमें विशेष यह है कि विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग, वचन, विभक्ति, पुरुष आदि बदल जाते हैं ।
(7.) जो धातु जिस गण की हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसेः–पठ्-शप्-शतृः—पठत्
पठ् धातु भ्वादिगण की है, तो शप् विकरण का प्रयोग हुआ ।
इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्नु आदि।
(8.) शतृ-प्रत्यय से बने शब्दों के रूप भी चलते हैं ।
(क) पुल्लिंग में पठन् बनता है, इसका रूप भवत् (आप) के अनुसार चलता है ।
इसी पठन् का रूप देखेंः—
पठन्——पठन्तौ——-पठन्तः
पठन्तम्—–पठन्तौ—–पठतः
पठता——पठद्भ्याम्—–पठद्भिः
पठते——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठतोः———-पठताम्
पठति——–पठतोः——–पठत्सु
हे पठन्——हे पठन्तौ——हे पठन्तः
(ख) स्त्रीलिंग में नदी के अनुसार इसका रूप चलता हैः—
पठन्तीम्—–पठन्त्यौ—–पठन्तीः
पठन्त्या——पठन्तीभ्याम्—–पठद्भिः
पठन्त्यै——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्त्योः———-पठन्तीनाम्
पठन्त्याम्——–पठन्त्योः———पठन्तीषु
हे पठन्ति——हे पठन्त्यौ——हे पठन्त्यः
(ग) नपुंसकलिंग में पठत् का रूप जगत् के अनुसार चलेगाः—
पठत्—–पठन्ती——पठन्ति
पठत्—-पठन्ती——-पठन्ति
शेष पुल्लिंग के अनुसार ही चलेगा ।
(9.) शतृ-प्रत्यय वाले शब्द उगित् होते है, अर्थात् इसका ऋ का लोप हो जाता है, ऋ उक् प्रत्याहार में आता है, अतः ऋ का लोप होने से यह उगित् है। उगितश्च—4.1.6 सूत्र से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय आता है और तब यह ईकारान्त शब्द बन जाता है, जिससे स्त्रीलिंग में इसका रूप नदी के अनुसार चलता है ।
(10.) स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में नुम् प्रत्यय होता है, जिसका न् शेष रहता है —(शप्श्यनोर्नित्यम्—7.1.81 और आच्छीनद्योनुम्—7.1.80)
भ्वादि. दिवादि., चुरादि. और तुदादिगण की धातु के लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन के रूप में अन्त में ई जोड देते हैंं, जैसेः—गच्छन्ति—गच्छन्ती, पठन्ती,, पिबन्ती,,, दीव्यन्ती,,, तुदन्ती आदि।
अदादि. स्वादि. क्र्यादि. तनादि. जुहोत्यादिगण की धातुओं में लट् लकार प्र. पु. बहुवचन के रूप में केवल ई लगेगा, नुम् नहीं होगा, अतः न् नहीं दिखेगाः–
रुदती, शृण्वती, क्रीणती, कुर्वती, ददती आदि
(11.) किसी धातु से शृ-प्रत्ययान्त शब्द बनाने की सरल उपाय यह है कि जिस धातु का, लट् लकार के प्र. पु. के एकवचन में जो रूप बनता है, उसके “ति” भाग को को “त्” कर दो और यथास्थान “नुम्” का “न्” जोड दो । जैसेः—भू का भवति—शतृ से भवत् (नपुं. ) पु. में भवन्, तथा स्त्री. में भवन्ती बनेगा ।
(12.) शतृ-प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता है । वाक्य में इसका प्रथम क्रिया के साथ प्रयोग होता है। जैसेः—
सः पठति । सः गच्छति । वह पढते हुए जाता हैः—सः पठन् गच्छति ।
(13.) वाक्य में प्रथम क्रिया के जो शतृ प्रत्यय जुडता है, वह वर्तमान कालिक ही होता है, किन्तु दूसरी क्रिया किसी भी काल में हो सकती है, जैसेः—
वह पढते हुए जाता हैः–स पठन् गच्छति ।
वह पढते हुए जा रहा थाः—व पठन् अगच्छत् ।
वह पढते हुए जाएगा—स पठन् गमिष्यति ।
अभ्यास हेतु कुछ वाक्यः—
(1.) सः गृहं गच्छन् अस्ति ।
(2.) वह पुस्तक पढता हुआ जा रहा हैः—सः पुस्तकं पठन् गच्छति ।
(3.) वह खाते हुए देख रहा है—स खादन् पश्यति ।
(4.) वे दोनों घर जाते हुए हैं—तौ गृहं गच्छन्तौ स्तः।
(5.) वे सब घर जाते पढ रहे थे—-ते गृहं गच्छन्तः पठन्ति स्म ।
(6.) लडकियाँ खेलती हुईं गा रही हैं—बालाः क्रीडन्त्यः गायन्ति ।
(7.) घर जाते हुए मुझे देखो—गृहं गच्छन्तं माम् पश्य ।
(8.) यह पुस्तक पढते हुए मोहन को दे दोः—इदं पुस्तकं पठते मोहनाय देहि ।
(9.) वृक्ष से गिरते हुए फलों को देखो—-वृक्षात् पतन्ति फलानि पश्य ।
(10.) जाती हुई बुढिया हँस रही है—-गच्छन्ती वृद्धा हसति ।
(11.) घर जाती हुई लडकियों से शिक्षिका ने कहा —गहं गच्छन्तीः बालिकाः शिक्षिका अकथयत् ।
(12.) खिलते हुए पुष्पों को सुँघो—विकसन्ति पुष्पाणि जिघ्र ।
(13.) माता धमकाती हुई पुत्री से कहा—जननी तर्जयन्ती पुत्रीम् अकथयत् ।
(14.) रोते हुए बालक को बोलो—रुदन्तं बालकं ब्रूहि ।
(15.) ब्राह्मण को दान देते राजा को देखो—ब्राह्मणाय दानं यच्छन्तं नृपं पश्य ।
(16.) दौडते हुए बालक को बोलो—धावन्तं बालकं वद ।
(17.) खेलते हुए बालकों के साथ तुम भी खेलो—खेलद्भिः (क्रीडद्भिः) बालकैः सह त्वमपि क्रीड (खेल) ।
(18.) खाते हुए मत बोलो—खादन् मा वद ।
(19.) काम करती हुई माता ने पुत्री से पूछा—-कार्यं कुर्वती माता पुत्रीम् अपृच्छत् ।
(20.) जागती पुत्री परीक्षा के लिए पढ रही है—जाग्रती पुत्री परीक्षायै (परीक्षार्थम्) पठति ।
Etymology - "संस्कृत मे शतृ कृदन्त प्रत्यय का अत्( अन्य) रूप -
The Modern English -ing ending, which is used to form both gerunds and present participles of verbs (i.e. in noun and adjective uses), derives from two different historical suffixes.
The gerund (noun) use comes from Middle English -ing, which is from Old English -ing, -ung (suffixes forming nouns from verbs). These in turn are from Proto-Germanic *-inga-, *-unga-,[1] *-ingō, *-ungō, which Vittore Pisani [it] derives from Proto-Indo-European *-enkw-.[2] This use of English -ing is thus cognate with the -ing suffix of Dutch, West Frisian, the North Germanic languages, and with German -ung.
The -ing of Modern English in its participial (adjectival) use comes from Middle English -inge, -ynge, supplanting the earlier -inde, -ende, -and, from the Old English present participle ending -ende. This is from Proto-Germanic *-andz, from the Proto-Indo-European *-nt-. This use of English -ing is cognate with Dutch and German -end, Swedish -ande, -ende, Latin -ans, -ant-, Ancient Greek -ον (-on), and Sanskrit शतृ ( अन्) -an . -inde, -ende, -and later assimilated with the noun and gerund suffix -ing. Its remnants, however, are still retained in a few verb-derived words such as friend, fiend, and bond (in the sense of "peasant, vassal").
The standard pronunciation of the ending -ing in modern English is "as spelt", namely /ɪŋ/, with a velar nasal consonant (the typical ng sound also found in words like thing and bang); some dialects, e.g. in Northern England, have /ɪŋg/ instead. However, many dialects use, at least some of the time and in some cases exclusively, an ordinary n sound instead (an alveolar nasal consonant), with the ending pronounced as /ɪn/ or /ən/. This may be denoted in eye dialect writing with the use of an apostrophe to represent the apparent "missing g"; for example runnin' in place of running. For more detail see g-dropping.
आईएनजी (ing )एक है प्रत्यय में से एक बनाने के लिए इस्तेमाल विभक्ति के रूपों अंग्रेज़ी क्रिया ।
इस क्रिया रूप का उपयोग एक वर्तमान कृदन्त के रूप में किया जाता है, एक गेरुंड के रूप में, और कभी-कभी एक स्वतंत्र संज्ञा या विशेषण के रूप में । प्रत्यय सुबह (evening) और छत , और ब्राउनिंग जैसे नामोंमें भी पाया जाता है।
व्युत्पत्ति और उच्चारण करें
आधुनिक अंग्रेजी आईएनजी न खत्म होने वाली है, जो दोनों gerunds और क्रियाओं के वर्तमान participles के रूप में प्रयोग किया जाता है (यानी में संज्ञा और विशेषण का उपयोग करता है), दो अलग अलग ऐतिहासिक प्रत्यय से व्युत्पन्न।
Gerund (संज्ञा) इस्तेमाल से आता है मध्य अंग्रेजी आईएनजी , जिसमें से है पुरानी अंग्रेज़ी आईएनजी , -ung (प्रत्यय क्रियाओं से संज्ञाओं के गठन)। बदले में ये से हैं आद्य-युरोपीय * -inga- , * -unga- , [1] * -ingō , * -ungō , जो Vittore Pisani [ यह ] से व्युत्पन्न प्रोटो-इंडो-यूरोपीय * -enkw- । [2] अंग्रेजी का यह प्रयोग आईएनजी इस प्रकार है सजातीय साथ आईएनजी के प्रत्यय डच , पश्चिम फ़्रिसियाई, उत्तरी जर्मेनिक भाषाओं , और साथ जर्मन -ung ।
आईएनजी अपने में आधुनिक अंग्रेजी का कृदंत (विशेषण) उपयोग मध्य अंग्रेजी से आता है -inge , -ynge , पहले supplanting -inde , -ende , -और , पुरानी अंग्रेज़ी वर्तमान कृदंत से खत्म होने वाली -ende । यह प्रोटो-जर्मेनिक * -एंडज से है, प्रोटो-इंडो-यूरोपियन * -nt- से । अंग्रेजी का यह प्रयोग आईएनजी डच और जर्मन के साथ सजातीय है अंत , स्वीडिश -ande , -ende , लैटिन -ans , -ant- , प्राचीन यूनानी -ον ( ऑन ), और संस्कृत -ant । -inde , -ende , -और बाद में संज्ञा और gerund प्रत्यय के साथ आत्मसात -ing । इसके अवशेष, हालांकि, अभी भी कुछ क्रिया-व्युत्पन्न शब्दों जैसे कि दोस्त , पैशाचिक , और बंधन ("किसान, वासल" के अर्थ में) को बरकरार रखे हुए हैं ।
मानक के उच्चारण समाप्त होने आईएनजी आधुनिक अंग्रेजी में है "की वर्तनी के रूप में", अर्थात् / ɪŋ / , के साथ एक वेलर नेसल व्यंजन (विशिष्ट एनजी ध्वनि भी जैसे शब्दों में पाया बात और धमाके ); उत्तरी इंग्लैंड में कुछ बोलियाँ, जैसे / insteadg / के बजाय। हालाँकि, कई बोलियाँ कम से कम कुछ समय और कुछ मामलों में विशेष रूप से, एक साधारण n ध्वनि के बजाय (एक वायुकोशीय अनुनासिक व्यंजन), अंत के साथ उच्चारण के रूप में / usen / या / /n / । इसे आंखों की बोली में दर्शाया जा सकता हैस्पष्ट "लापता जी " का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक एपोस्ट्रोफ के उपयोग के साथ लेखन ; उदाहरण के लिए रनिंग के स्थान पर रनरिन ' । अधिक विवरण के लिए जी- ड्रॉपिंग देखें ।
"व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्-यन्ते अर्थवत्तया प्रतिपाद्-यन्ते शब्दा येन इति व्याकरणम्
वि +आ+कृ-करणे + ल्युट् (अन्) = व्याकरणम् ।
इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथावाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते।१.३।इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि
इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारन्न दीप्यते।।१.४
मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को प्राय:तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-
♣•भाषा:-(Language)
"भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है" ।
♣•-बोली:-Patios-
आधुनिक अंग्रेजी और अमेरिकी उद्यानों में 'आँगन' घर के पास एक पक्का क्षेत्र है, जिसका उपयोग बाहरी बैठने और खाने के लिए भी किया जाता है उसके लिए भी प्रयोग हुआ । जिसमें एक या दो तरफ को इमारत हो सकती है, लेकिन पारंपरिक स्पैनिश आंगन की तरह एक आंतरिक आंगन होने की संभावना नहीं है। इसी से हिन्दी में (पट्टा) खेत के चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है का मूल भी यही है ।
संस्कृत में पट्ट =(पट्+क्त) नेट् ट वा तस्य नेत्त्वम् का अर्थ नगर चतुष्पथ या चौराहे को भी कहा गया और भूम्यादिकरग्रहणलेख्यपत्र (पाट्टा) को भी
वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है।
वस्तुत: पशुचर-भूमि को पाश्चर (pature) कहा गया जो (patio) शब्द से विकसित हुआ। और पाश में बँधे हुए जानवर को ही पशु कहा गया और पाश शब्द ही अन्य रूपान्तरण (पाग) पगाह रूप में हिन्दी में आया और अंग्रेज़ी में इसके समानार्थक (pag) भी है जिसका अर्थ भी बाँधना है ।
विभाषा(Dialect)
'डिंगल' राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा की शैली जिसमें भाट और चारण काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आते हैं यह पश्चिमी राजस्थान मेें प्रसारित हुई।
पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म भी पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था भरत पुर के आसपास
इस भाषा में चारण परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।
उद्भव डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
'पिंगल' शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से रहा है।
सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है।
इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
'पिंगल' और 'डिंगल' दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं।
'डिंगल' इससे कुछ भिन्न भाषा-शैली थी।
यह भी चारणों में ही विकसित हो रही थी।
इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। 'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी
और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
इस शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।
डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।
♣•-हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :-
लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है लैटिन से "scribere=लिखना" से 'Script' शब्द का विकास हुआ है।
"व्याकरण"(Grammar)
🔜 -प्राचीन ग्रीक (γραμμττική ) में ( व्याकरणिक , " लेखन में कुशल ") क्रियात्मक रूपों से ग्रामर शब्द की अवधारणा का जन्म हुआ।
" वैसे भी व्याकरण 'वर्तनी और उच्चारण' की नियामक संहिता है "
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"ग्रीक भाषा में (gramma) शब्द का अर्थ "letter"( वर्ण)है।
"ग्रामर शब्द का प्राचीन अर्थ प्रयोग ,ग्लैमर और व्याकरण दौनो का सन्दर्भित करता था।
जादू या कीमिया के उपयोग में उसके निर्देशों की एक पुस्तक, विशेष रूप से दैवीय शक्तियों को बुलाने के लिए भी ग्रामा शब्द रूढ़ रहा है।
From Middle English gramer, gramarye, gramery, from Old French gramaire (“classical learning”), from Latin grammatica, from Ancient Greek γραμματική (grammatikḗ, “skilled in writing”), from γράμμα (grámma, “line of writing”), from γράφω (gráphō, “write”), from Proto-Indo-European *gerbʰ- (“to carve, scratch”). Displaced native Old English stæfcræft. -
Proto-Indo-European-
Root
*gerbʰ-
- to carve
Derived terms
- *gérbʰ-e-ti (thematic root present)
- Germanic: *kerbaną (see there for further descendants)
- *gr̥bʰ-é-ti (tudati-type thematic present)
- *gr̥bʰ-tó-s
- Unsorted formations:
"प्र यन्ति यज्ञम् विपयन्ति बर्हिःसोमऽमादः विदथे। दुध्रऽवाचः नि ऊं इति भ्रियन्ते यशसः गृभात् आ दूरेऽउपब्दः वृषणः नृऽसाचः ॥२।
★-अन्वयार्थ
Etymology Etymology of Glamour (ग्लैमर).
From Scots glamer, from earlier Scots gramarye (“magic, enchantment, spell”).enchantment - सम्मोहन)
The Scottish term may either be from Ancient Greek γραμμάριον (grammárion, “gram”), the weight unit of ingredients used to make magic potions, or an alteration of the English word grammar (“any sort of scholarship, especially occult learning”).
A connection has also been suggested with Old Norse glámr =(poet. “moon,” name of a ghost) and glámsýni (“glamour, illusion”, literally “glam-sight”).
"व्याकरण वर्ण-विन्यास की सैद्धांतिक विधि कि सम्पादन और उदात्त अनुदात्त और त्वरित स्वरमान के अनुरूप उच्चारण विधान का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है व्याकरण वर्ण विन्यास के सम्यक् निरूपण की सैद्धांतिक शिक्षा शास्त्र का केन्द्रीय भाव है उचित स्वरमान मन्त्र और साम ( Song) की सिद्धि कारक है और स्वरों का बलाघात ही अर्थ का का निश्चायक है"
व्याकरण वर्ण- विन्यास का सम्यक् रूप से सैद्धांतिक विवेचन करने वाला शास्त्र है । जो वर्ण- विन्यास और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरमान के अनरूप उच्चारण विधान करने वाला शास्त्र है मन्त्र शक्तिवाग् भी वर्ण- और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित मान के अनुरूप उच्चारण द्वारा सिद्ध होकर फल देता है । यही संगीत में गायन आधार तत्व है
"मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥'५२।
"पाणिनि शिक्षा नवम-खण्ड 52वाँ श्लोक"
अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण(Grama) विन्यास से भंग उच्चरित हीनमन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है) । वह रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।
"इन्द्रशत्रुर्वधस्व" के स्थान पर इन्द्र: शत्रुर्वर्धस्व" का उच्चारण कर दिया जिसका अर्थ हुआ.( इन्द्र शत्रुु की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (शद्+त्रुन्) = शद्=शातने मारणे च (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया
इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं।
व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
वर्ण -विचार.-Orthography-👇
परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण नहीं है।
इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। परन्तु कदाचित् सन्धि विधान के निमित्त पाणिनि मुनि ने माहेश्वर सूत्रों की संरचना की है ।
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
इनकी संरचना व व्युत्पत्ति के विषय में नीचे विश्लेषण है
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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या( 14) है ;
जो निम्नलिखित हैं: 👇
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१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
उपर्युक्त्त (14 )सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से समायोजित किया गया है। पहले दो सूत्रों में मूलस्वर। फिर परवर्ती दोसूत्रों में सन्धि-स्वर फिर अन्त:स्थ वस्तुत: ये अर्द्ध स्वर हैैं तत्पश्चात अनुनासिक वर्ण हैं जो ।अनुस्वार रूपान्तरण हैं अनुस्वार "म" तथा न " का ही स्वरूप हैै। अत: बहुतायत वर्ण स्वर युुु्क्त ही हैं ।
पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक वर्ण) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
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♣•स्वर और व्यञ्जन का मौलिक अन्तर-
स्वर और व्यञ्जन का मौलिक भेद उसकी दूरस्थ श्रवणीयता है स्वर में यह दूरस्थ श्रवणीयता अधिक होती है व्यञ्जन की अपेक्षा स्वर दूर तक सुनाई देता है । दूसरा मौलिक अन्तर स्वर में नाद प्रवाहिता अधिक होती है।
स्वर का आकार उच्चारण समय पर अवलम्बित है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा के और अन्तोमुखीय अंगों का परस्पर स्पर्श और घर्षण भी नहीं होता है । जबकि व्यञ्जनों के उच्चारण में न्यूनाधिक अन्तोमुखीय अंगों को घर्षण करते हुए भी निकलती है जिसके आधार पर उन व्यञ्जनों को अल्पप्राण और महाप्राण नाम दिया जाता है । स्वर तन्त्रीयों में उत्पन्न नाद को ही स्वर माना जाता है स्वर सभी ही नाद अथवा घोष होते हैं। जबकि व्यञ्जनों में कुछ ही नाद यक्त। होते हैं जिनमें स्वर का अनुपात अधिक होता है । कुछ व्यञ्जन प्राण अथवा श्वास से उत्पन्न होते हैं ।
"स्वर की परम्परागत परिभाषा- स्वतो राजन्ते भासन्ते इति स्वरा: " जो स्वयं प्रकाशित होता है।स्वतन्त्र रूप से उच्चरित ध्वनि स्वर है; जिसको उच्चारण करने में किसी की सहायता नहीं ली जाती है । परन्तु स्वर की वास्तविक परिभाषा यही है कि स्वर वह है जिसके उच्चारण काल में श्वास कहीं कोई अवरोध न हो और व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण काल में कहीं न कहीं अवरोध अवश्य हो। जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन। कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+ त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात् स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।
जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+ त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात् स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।
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माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र अन्त:स्थ व व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् अन्त:स्थ एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :---
प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्य गृह्यन्ते वर्णां अनेन (प्रति + आ + हृ--करणे + घञ् प्रत्यय )-जिसके द्वारा संक्षिप्त करके वर्णों को ग्रहण किया जाता है ।
प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि वर्ण ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी वर्णो का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि वर्ण 'ह' को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम वर्ण (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
(ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है अत: ये गिनेे नहीं जाऐंगे।
इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
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अ'इ'उ ऋ'लृ मूल स्वर ।
ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
जैसे क्रमश: अ+ इ = ए तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । ये मूल स्वर भी मूल स्वर "अ" ह्रस्व से विकसित इ और उ स्वर हैं । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल
'अ' स्वर के उदात्तगुणी ( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
तथाअनुदात्तगुणी (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं ।
और मूल स्वरों में अन्तिम दो 'ऋ तथा 'ऌ स्वर न होकर क्रमश "पार्श्वविक" (Lateral)तथा "आलोडित अथवा उच्छलित ( bouncing )" रूप हैं ।
जो उच्चारण की दृष्टि से क्रमश: मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) हैं ।
अब "ह" वर्ण का विकास भी इसी ह्रस्व 'अ' से महाप्राण के रूप में हुआ है ।
जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।👉👆👇
★ कवर्ग-क'ख'ग'घ'ड॒॰। से चवर्ग- च'छ'ज'झ'ञ का विकास जिस प्रकार ऊष्मीय करण व तालु घर्षण के द्वारा हुआ। फिर तवर्ग से शीत जलवायु के प्रभाव से टवर्ग का विकास हुआ । परन्तु चवर्ग के "ज' स का धर्मी तो ख' ष' मूर्धन्य का धर्मी है और 'क वर्ण का त'वर्ण में जैसे वैदिक स्कम्भ का स्तम्भ और अनुनासिक न' का ल' मे परिवर्तन है । जैसे ताता-दादा- चाचा-काका एक ही शब्द के चार विकसित रूपान्तरण हैं ।
इ हुआ स प्रकार मूलत: ध्वनियों के प्रतीक तो (28)ही हैं
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी ध्वनि वर्णों की रचना दर्शायी है । जो इन्हीं का विकसित रूप है ।
______________
स्वर- मूल केवल पाँच हैं- (अइउऋऌ) ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
_________________________
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
१-कवर्ग । २-चवर्ग । ३-टवर्ग ।४-तवर्ग ।५- पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ' ई 'ऊ' ऋृ' लृ ) (ए' ऐ 'ओ 'औ )
( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ )
अनुस्वार ( —ं-- )तथा विसर्ग( :) अनुसासिक और महाप्राण ('ह' )के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।
निस्सन्देह "काकल" कण्ठ का ही पार्श्ववर्ती भाग है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक व सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में कहा भी गया है ।
(अ 'कु 'ह विसर्जनीयीनांकण्ठा: )
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
_________________________________________
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण का ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ-- स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण हैं
ये अन्तस्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्यक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए
उ+अ = व अ+उ= ओ
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स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का ही प्रतिनिधित्व करते हैं ।
स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक (ञ'म'ङ'ण'न) अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
शषसर्। १४. हल्।
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः अंग्रेज़ी में (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं क्यों कि वहाँ यूरोप की शीतप्रधान जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त- सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वाय्वीय ही है जो भारतीय जलवायु का गुण है । उष्म (श, ष, स,) वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के (SA) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर यूरोपीय भाषा अंग्रेजी में पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है ।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है ।
___________________________________👇💭
यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है ;वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं ।
केवल टवर्ग( ट'ठ'ड'ढ'ण) से काम चलता है
क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।
अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के ( S) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।
_________________________________________
अब पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में दो 'ह' वर्ण होने का तात्पर्य है कि एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप में हैं । वे
मौलिक रूप में केवल (28) वर्ण हैं ।
जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं ।
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स्वरयन्त्रामुखी:- "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का विकास होता है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि जहाँ से "ह" का उच्चारण होता है ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-________________________________________
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा उनके खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का स्पपर्श करता है ।
(क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ) और अरबी प्रभाव से युक्त क़ (Qu) ये सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
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(च, छ, ज, झ) को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में समायोजित कर लिया गया है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
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मौखिक(Oral) व नासिक्य(Nasal) :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं।
हिन्दी में( ङ, ञ, ण, न, म) व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नासिका से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' व अनुनासिक भी कहा जाता है।
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इनके स्थान पर हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत: ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूपान्तरण मात्र हैं ।
परन्तु सभी केवल स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
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जैसे :-
कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।
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इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन: उष्म का अर्थ होता है- "गर्म" जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें ही उष्म व्यञ्जन कहते है।
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन केवल मौखिक हैं।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण टवर्ग के साथ आता है ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं और अपने चवर्ग के साथ इनका प्रयोग है।
जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
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उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म- वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन ही होते है- श, ष, स, ह।
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पार्श्विक- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से एक साथ निकलती है।
★'ल' भी ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है।
★अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
★हिन्दी में (य, और व) ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
★लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
★उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें ऊपर को फैंके हुुुए- उत्क्षिप्त (Thrown) /(flap) वर्ण कहते हैं ।
ड़ और ढ़ भी ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
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घोष और अघोष वर्ण---
व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।
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घोष — अघोष
ग, घ, – ङ,क, ख।
ज,झ, – ञ,च, छ।
ड, ढ, –ण, ड़, ढ़,ट, ठ।
द, ध, –न,त, थ।
ब, भ, –म, प, फ।
य, र, –ल, व, ह ,श, ष, स ।
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प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पाँचों वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । अर्थात जिसका अक्षर न हो वह अक्षर है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
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भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को भी कहते हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश (खण्ड)होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ ही बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक' ये तीन झटकों में बोला जाता है।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से सुने जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं -
'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण क्रिया बलाघात पर आधारित है ,
कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. ।
कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे- 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अन्त-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को "अक्षर"(syllable) कहा जाता है।
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इस. उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।
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★-व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।
★-अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
★-अक्षर से स्वर को न तो पृथक् ही किया जा सकता है; और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
★-उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
★-यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
★-इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
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कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
★-अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,) जैसे- एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी स्वरयुक्त उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
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★-कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,) जैसे एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
(Vowels)-स्वराः स्वर्-धातु-आक्षेपे । इति कविकल्पद्रुमः ॥-(अदन्त-चुरा०-पर०-सक०-सेट् वकारयुक्तः रेफोपधः । स्वरयत्यतिरुष्टोऽपि न कञ्चन परिग्रहम् - इति हलायुधः जिसके प्रक्षेपण (उछलने में ओष्ठ भी कोई परिग्रह नहीं करते वह स्वर है ।
(Consonants) - व्यंजनानि-सह स्वरेण विशेषेण अञ्जति इति व्यञ्जन-
जो स्वरों की सहायता से विशेष रूप से प्रकट होता है वह व्यञ्जन हैं । व्यञ्जन (३३) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर(१३)
अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ) इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है।
(द्विस्वर-Dipthongs)-एक साथ उच्चरित दो स्वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्वर, संधि-स्वर, संयुक्त स्वर जैसे शब्द जैसे 'Fine' में (आइ) की ध्वनि है | (ए ,ऐ ,ओ , औ) ये भी द्विस्वर हैं।
संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं। ऋग्वेद पद्यमय है
अष्टाध्यायी में ३२ पाद (चरण) हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।
विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल) भी न होते!
प्रत्याहार -विधायक -सूत्र
१.अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
यथा—
अण् = अ, इ, उ
ऋक् = ऋ, ऌ
अक् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ
एङ् = ए, ओ
एच् = ए, ओ, ऐ, औ
झष् = झ, भ, घ, ढ, ध
जश् = ज, ब, ग, ड, द
अच् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ (सर्वे स्वराः)
हल् = सर्वाणि व्यञ्जनानि
अल् = सर्वे वर्णाः (सर्वे स्वराः + सर्वाणि व्यञ्जनानि)
अवधेयम्—
स्वराः
अ, इ, उ, ऋ = एषु प्रत्येकम् अष्टादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः (ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः; उदात्तः, अनुदात्तः, स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः च |
अर्थात् (अइउऋ) इनमें प्रत्येक के रूप हैं अठारह. ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत; उदात्त अनुदात्त स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः।
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१--ह्रस्व-(अ) २-।दीर्घ-(आ)। ३-प्लुत-४-(आऽ) और५- उदात्त-(—अ)' ६-अनुदात्त-( अ_ )'तथा ७- स्वरित - (अ–) ८-अनुनासिक -(अँ)'और ९-अननुनासिक- (अं)
___________
3 x 3 x 2 = 18 |) यथा अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः, अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-उकारः, अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः तदा पुनः अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः, इत्यादीनि रूपाणि |
हिन्दी :-१-अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः,
२-अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः,
३-अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व उकारः,
४- अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः
और फिर दुबारा
५- अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः,
ऌ = अयं द्वादशानां प्रतिनिधिः (यतः अस्य वर्णस्य दीर्घरूपं नास्ति | अर्थात ् इस 'लृ' स्वर के बारह रूप होते हैं ।
2 x 3 x 2 = 12 |)
ए, ओ, ऐ, औ = एषु प्रत्येकम् द्वादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः एषां ह्रस्वरूपं नास्ति | 2 x 3 x 2 = 12 |) अर्थात् इनमें प्रत्येक के बारह रूप होते हैं। इसका छोटा( ह्रस्व) रूप नहीं होता है ।
"परन्तु अन्तस्थ हल् तो हो सकते व्यञ्जन वर्ण नहीं ।क्योंकि इनकी संरचना स्वरों के संक्रमण से ही हुई है । और व्यञ्जन अर्द्ध मात्रा के होते हैं "
अ'इ'उ' ऋ'लृ' मूल स्वर हैं परन्तु (ए ,ओ ,ऐ,औ ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त स्वर ही हैं। _____________________
👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ तथा उ' स्वर भी केवल अ' स्वर के अधोगामी अनुदात्त और ऊर्ध्वगामी उदात्त ( ऊर्ध्वगामी रूप हैं ।।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं । अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇 ________________________________________
२.शब्द -विचार (Morphology) :-
"उत्पत्ति के आधार पर आधार भेद"
🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin ) उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं ।
"प्रयोग के आधार पर शब्द भेद" 🌸↔प्रयोग के आधार पर( Based on usage)
"बनावट के आधार पर शब्द भेद" 🌸-बनावट के आधार पर(Based on Construction):- (क) रूढ़ शब्द :- Traditional words
(Syntax):-इसमें वाक्य निर्माण,उनके विचार भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार करके उसके स्थान अनु रूप स्थापित किया जाता है।
वाक्य के भाग:
वाक्य के भाग:- वाक्य के दो भाग होते है-
"१-उददेशय-Subject-
"२-विधेय-Predicte-
(1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।
विधेय के भाग-(Part of Predicate)- विधेय के छ: भाग होते हैं"
(i)- क्रिया verb
(ii)- क्रिया के विशेषण Adverb
(iii) -कर्म Object
(iv)- कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द
(v)- पूरक Complement
(vi)-पूरक के विशेषण।
"वाक्य के भेद" - रचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं- "There are three kinds of Sentences Based on Structure.
(i)साधरण वाक्य (Simple Sentence) (ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence) (iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)
वाक्य के भेद-अर्थ के आधार पर ( Kinds of Sentences -based on meaning)
-अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇
1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)
2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)
3-प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)
4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)
5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)
6-विस्मयादिबोधक वाक्य - (Exclamatory Sentence)
7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)
8-इच्छावाचक वाक्य (illative Sentence)
(i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है।
(1) सार्थकता (2) योग्यता (3) आकांक्षा (4) निकटता (5) पदक्रम (6) अन्वय-
"वाक्य- विग्रह -Analysis"👇 वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।
"वाक्य का रूपान्तर'
"वाक्य का रूपान्तरण-- (Transformation of Sentences) किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं।
हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।
(घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><
दास–
"परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है"
-ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ 'उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !
त्रिमात्रक:प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।१।
(2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण
वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछलता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं। और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।
पाणिनि के अनुसार इस अ' स्वर का उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-
- (१) सानुनासिक :
- ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
- दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
- प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
- (२) निरनुनासिक :
- ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
- दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
- प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ२ और अ३ से व्यक्त किया जा सकता है।
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अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश,तेषां ह्रस्वाभावात् |
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(अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)
- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |
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मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।
वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अँ, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए |
नासिका की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं |
जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं |
ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों (स्वरों) में रहने वाले धर्म है |
अपवाद के रूप में (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है | इसी प्रकार (यॅं, वॅं, लॅं) भी अनुनासिक माने जाते हैं और (य्, व्, ल्) के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये समझे जाते हैं |
इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए।
तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |
अर्थ • इस प्रकार से (अ, इ, उ और ऋ )इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।
लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।
पहले अच् अर्थात्-( अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ) ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए |
इसी प्रकार एच् अर्थात् ( ए, ओ, ऐ, औ )का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।
इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं |
जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, ।
दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का ।
और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ (9) प्रकार के हो गए |
(6) प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, इसलिए अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए |
जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।
वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं |
इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।
अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं
इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-
ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ
दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ
प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ
(क)-1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक
2. दीर्घ उदात्त अनुनासिक
3. प्लुत उदात्त अनुनासिक
(ख)1-. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक
2- दीर्घ उदात्त अननुनासिक
3-. प्लुत उदात्त अननुनासिक
(ग)1. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक
2-. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक
3- प्लुत अनुदात्त अनुनासिक
(घ)1-. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक
2. दीर्घ स्वरित अननुनासिक
3. प्लुत स्वरित अननुनासिक
स्वर-सन्धि-विधायक-सूत्र सन्धि-प्रकरण
१-दीर्घस्वर सन्धि-।
२- गुण स्वर सन्धि-।
३-वृद्धि स्वर सन्धि-।
४-यण् स्वर सन्धि-।
५-अयादि स्वर सन्धि-।
६-पूर्वरूप सन्धि-।
७-पररूपसन्धि-।
८-प्रकृतिभाव सन्धि-।
- स्वर संधि – अच् संधि-विधान
- दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि – आद्गुण:
- वृद्धि संधि – वृद्धिरेचि
- यण् संधि – इकोयणचि
- अयादि संधि – एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि – एड॰: पदान्तादति
- पररूप संधि – एडि॰ पररूपम्
- प्रकृतिभाव संधि – ईदूद्ऐदद्विवचनम् प्रग्रह्यम्
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१-दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:, संस्कृत व्याकरणम्
दीर्घ स्वर संधि-
दीर्घ संधि का सूत्र( अक: सवर्णे दीर्घ:) होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है।
संस्कृत में स्वर संधियाँ मुुख्यत: आठ प्रकार की होती है।
दीर्घसंधि, गुण संधि, वृद्धिसंधि, यण् -संधि, अयादिसंधि, पूर्वरूप संधि, पररूपसंधि, प्रकृतिभाव संधि आदि ।
दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!
सूत्र-(अक: सवर्णे दीर्घ:) अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनों मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे –
(क) अ/आ + अ/आ = आ
अ + अ = आ –> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
अ + आ = आ –> हिम + आलय = हिमालय
अ + आ =आ–> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
आ + अ = आ –> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
आ + आ = आ –> विद्या + आलय = विद्यालय
(ख) इ और ई की संधि= ई
इ + इ = ई –> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
इ + ई = ई –> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
ई + इ = ई –> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
ई + ई = ई –> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .
(ग) उ और ऊ की संधि =ऊ
उ + उ = ऊ –> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
उ + ऊ = ऊ –> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
ऊ + उ = ऊ –> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
ऊ + ऊ = ऊ –> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा
(घ) ऋ और ॠ की संधि=ऋृ
ऋ + ऋ = ॠ –> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्
प्रश्न - स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
हिम + आलय = हिमालय (अ +आ = आ ) [ म् +अ = म ] 'म' में 'अ' स्वर जुड़ा हुआ है
विद्या = आलय = विद्यालय (आ +आ = आ )
पो + अन = पवन (ओ +अ = अव )
[यहाँ पर प्+ओ +अन ( प् +अव् (ओ के स्थान पर )+अन )
प्+अव = पव
पव +अन = पवन ]
प्रश्न - स्वर सन्धि के कितने प्रकार हैं ?
- दीर्घ स्वर संधि
- गुण स्वर संधि
- वृद्धि स्वर संधि
- यण् स्वर संधि
- अयादि स्वर संधि
प्रश्न - दीर्घ स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए ।
अ + अ = आ | उ + उ = ऊ |
अ + आ = आ | उ + ऊ = ऊ |
आ + आ =आ | ऊ + उ = ऊ |
आ + अ = आ | ऊ + ऊ = ऊ |
इ + इ = ई | ऋ + ऋ = ऋ |
इ + ई = ई | दीर्घ स्वर संधि के नियम |
ई + ई = ई | |
ई + इ = ई |
( अ + अ = आ )
स्व + अर्थी = स्वार्थी
देव + अर्चन = देवार्चन
मत + अनुसार = मतानुसार
राम + अयन = रामायण
काल + अन्तर = कालान्तर
कल्प + अन्त = कल्पान्त
कुश + अग्र = कुशाग्र
कृत + अन्त = कृतान्त
कीट + अणु = कीटाणु
जागृत + अवस्था = जागृतावस्था
देश + अभिमान = देशाभिमान
देह + अन्त = देहान्त
कोण + अर्क = कोणार्क
क्रोध + अन्ध = क्रोधान्ध
कोष + अध्यक्ष = कोषाध्यक्ष
ध्यान + अवस्था = ध्यानावस्था
मलय +अनिल = मलयानिल
स + अवधान = सावधान
______________________
( अ + आ = आ )
घन + आनन्द = घनानन्द
चतुर + आनन = चतुरानन
परम + आनंद = परमानंद
पर + आधीनता = पराधीनता
पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
हिम + आलय = हिमालय
एक + आकार = एकाकार
एक + आध = एकाध
एक + आसन = एकासन
कुश + आसन = कुशासन
कुसुम + आयुध = कुसुमायुध
कुठार + आघात = कुठाराघात
खग +आसन = खगासन
भोजन + आलय = भोजनालय
भय + आतुर = भयातुर
भाव + आवेश = भावावेश
मरण + आसन्न = मरणासन्न
फल + आगम = फलागम
रस + आस्वादन = रसास्वादन
रस + आत्मक = रसात्मक
रस + आभास = रसाभास
राम + आधार = रामाधार
लोप + आमुद्रा = लोपामुद्रा
वज्र + आघात = वज्राघात
स + आश्चर्य = साश्चर्य
साहित्य +आचार्य = साहित्याचार्य
सिंह + आसन = सिंहासन
( आ + अ = आ )
भाषा + अन्तर = भाषान्तर
रेखा + अंकित = रेखांकित
रेखा + अंश = रेखांश
लेखा + अधिकारी = लेखाधिकारी
विद्या +अर्थी = विद्यार्थी
शिक्षा +अर्थी = शिक्षार्थी
सभा + अध्यक्ष = सभाध्यक्ष
सीमा + अन्त = सीमान्त
आशा + अतीत = आशातीत
कृपा + आचार्य = कृपाचार्य
कृपा + आकाँक्षी = कृपाकाँक्षी
तथा + आगत = तथागत
महा + आत्मा = महात्मा
( आ + आ = आ )
मदिरा + आलय = मदिरालय
महा + आशय = महाशय
महा +आत्मा = महात्मा
राजा + आज्ञा = राजाज्ञा
लीला+ आगार = लीलागार
वार्ता +आलाप = वार्तालाप
विद्या +आलय = विद्यालय
शिला + आसन = शिलासन
शिक्षा + आलय = शिक्षालय
क्षुधा + आतुर = क्षुधातुर
क्षुधा +आर्त = क्षुधार्त
( इ + इ = ई )
मुनि + इंद्र = मुनींद्र
रवि + इंद्र = रवींद्र
अति + इव = अतीव
अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय
गिरि + इंद्र = गिरीन्द्र
प्रति + इति = प्रतीत
हरि + इच्छा = हरीच्छा
फणि + इन्द्र = फणीन्द्र
यति + इंद्र = यतीन्द्र
अति + इत = अतीत
अभि + इष्ट = अभीष्ट
प्रति + इति = प्रतीति
प्रति + इष्ट = प्रतीष्ट
प्रति + इह = प्रतीह
( इ + ई = ई )
गिरि + ईश = गिरीश
मुनि + ईश = मुनीश
रवि + ईश = रवीश
हरि + ईश = हरीश
कपि+ ईश = कपीश
कवी + ईश = कवीश
( ई + ई = ई )
मही + ईश्वर = महीश्वर
रजनी + ईश = रजनीश
( ई + इ = ई )
( उ + उ = ऊ )
विधु + उदय = विधूदय
सु + उक्ति = सूक्ति
लघु + उत्तरीय = लघूत्तरीय
( उ + ऊ = ऊ )
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
( ऊ + उ = ऊ )
वधू + उत्सव = वधूत्सव
( ऊ + ऊ = ऊ )
भू + ऊर्जा = भूर्जा
भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व
( ऋ + ऋ = ऋृ )
मातृ + ऋण = मातृण ।
गुण_सन्धि:
सूत्र- अदेङ् गुणः ( 1/1/2 )
सूत्रार्थ—यह सूत्र गुण संज्ञा करने वाला सूत्र है । यह सूत्र गुण संज्ञक वर्णों को बताता है ।
(अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्)
ह्रस्व अकार और एङ् ( अ, ए, ओ ) वर्ण गुण संज्ञक वर्ण है।
व्याख्या :-अ या आ के साथ इ या ई के मेल से ‘ए’ , अ या आ के साथ उ या ऊ के मेल से ‘ओ’ तथा अ या आ के साथ ऋ के मेल से ‘अर्’ बनता है ।
यथा :–
१.अ/आ + इ/ई = ए
सुर + इन्द्र: = सुरेन्द्र: ,तरुण+ईशः= तरुणेश:
रामा +ईशः = रमेशः ,स्व + इच्छा = स्वेच्छा,
नेति = न + इति, भारतेन्दु:= भारत + इन्दु:
नर + ईश: = नरेश: , सर्व + ईक्षण: = सर्वेक्षण:
प्रेक्षा = प्र + ईक्षा ,महा + इन्द्र: = महेन्द्र:
यथा +इच्छा = यथेच्छा ,राजेन्द्र: = राजा + इन्द्र:
यथेष्ट = यथा + इष्ट:, राका + ईश: = राकेश:
द्वारका +ईश: = द्वारकेश:, रमेश: = रमा + ईश:
मिथिलेश: = मिथिला + ईश:।
_________
२.अ/आ + उ/ऊ = ओ
पर+उपकार: = परोपकारः, सूर्य + उदय: = सूर्योदय:
प्रोज्ज्वल: = प्र + उज्ज्वल: ,
सोदाहरण: = स +उदाहरण:
अन्त्योदय: = अन्त्य + उदय: ,जल + ऊर्मि: = जलोर्मि:
समुद्रोर्मि: = समुद्र + ऊर्मि:, जलोर्जा = जल + ऊर्जा
महा + उदय:= महोदय: ,यथा+उचित = यथोचित:
शारदोपासक: = शारदा + उपासक:
महोत्सव: = महा + उत्सव:
गंगा + ऊर्मि: = गंगोर्मि: ,महोरू: = महा + ऊरू:।
________
३.अ /आ + ऋ = अर्
देव + ऋषि: = देवर्षि: ,शीत + ऋतु: = शीतर्तु:
सप्तर्षि: = सप्त + ऋषि: ,उत्तमर्ण:= उत्तम + ऋण:
महा + ऋषि: = महर्षि: ,राजर्षि: = राजा + ऋषि: आदि
प्रश्न - गुण स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
अ + इ = ए | आ + उ = ओ |
आ + इ = ए | आ + ऊ = ओ |
अ + ई = ए | अ + ऋ= अर |
आ + ई = ए | आ + ऋ = अर् |
अ + उ = ओ | |
गुण स्वर संधि के नियम |
( अ + इ = ए )
सुर + इंद्र = सुरेंद्र
भुजग + इन्द्र = भुजगेन्द्र
बाल + इंद्र = बालेन्द्र
मृग + इंद्र = मृगेंद्र
योग + इंद्र = योगेंद्र
राघव +इंद्र = राघवेंद्र
विजय + इच्छा = विजयेच्छा
शिव + इंद्र = शिवेंद्र
वीर + इन्द्र = वीरेन्द्र
शुभ + इच्छा = शुभेच्छा
ज्ञान + इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रिय
खग + ईश = खगेश
खग = इंद्र = खगेन्द्र
गज + इंद्र = गजेंद्र
( आ + इ = ए )
महा + इंद्र = महेंद्र
यथा + इष्ट = यथेष्ट
रमा + इंद्र = रमेंद्र
राजा + इंद्र = राजेंद्र
( अ + ई = ए )
ब्रज + ईश = ब्रजेश
भव + ईश = भवेश
भुवन + ईश्वर = भुवनेश्वर
भूत + ईश = भूतेश
भूत + ईश्वर = भूतेश्वर
रमा + ईश = रमेश
राम + ईश्वर = रामेश्वर
लोक +ईश = लोकेश
वाम + ईश्वर = वामेश्वर
सर्व + ईश्वर = सर्वेश्वर
सुर + ईश = सुरेश
ज्ञान + ईश =ज्ञानेश
ज्ञान+ईश्वर = ज्ञानेश्वर
उप + ईच्छा = उपेक्षा
एक + ईश्वर = एकेश्वर
कमल +ईश = कमलेश
( आ + ई = ए )
महा + ईश = महेश
राका + ईश = राकेश
लंका + ईश्वर = लंकेश्वर
उमा = ईश = उमेश
वीर + उचित = वीरोचित
भाग्य + उदय = भाग्योदय
मद + उन्मत्त = मदोन्मत्त
फल + उदय = फलोदय
फेन + उज्ज्वल = फेनोज्ज्वल
यज्ञ + उपवीत = यज्ञोपवीत
लोक + उक्ति = लोकोक्ति
लुप्त + उपमा = लुप्तोपमा
वन + उत्सव = वनोत्सव
वसंत +उत्सव = वसंतोत्सव
विकास + उन्मुख = विकासोन्मुख
विचार + उचित = विचारोचित
षोड्श + उपचार = षोड्शोपचार
सर्व + उच्च = सर्वोच्च
सर्व + उदय = सर्वोदय
सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम
हर्ष + उल्लास = हर्षोल्लास
हित + उपदेश = हितोपदेश
आत्म +उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग
आनन्द + उत्सव = आनन्दोत्सव
गंगा + उदक = गंगोदक
( अ + ऊ = ओ )
समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि
( आ + ऊ = ओ )
गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि
( आ + उ = ओ )
महा + उत्सव = महोत्सव
महा + उदय = महोदय
महा = उपदेश = महोपदेश
यथा + उचित = यथोचित
लम्बा + उदर = लम्बोदर
विद्या + उपार्जन = विद्योपार्जन
( अ + ऋ = अर् )
ब्रह्म + ऋषि = ब्रह्मर्षि
सप्त + ऋषि = सप्तर्षि
( आ + ऋ = अर् )
राजा + ऋषि = राजर्षि ।
वृद्धिरेचि-वृद्धि_स्वर_सन्धि
वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच् अचि।
व्याख्या :- अ या आ के परे यदि ए या ऐ रहे तो (ऐ) और ओ या औ रहे तो (औ) हो जाता है।
१.अ/आ + ए/ऐ =ऐ
२.अ/आ + ओ/औ = औ
यथा :-
अद्यैव = अद्य + एव
मतैक्यम्= मत + ऐक्यम्
पुत्रैषणा = पुत्र + एषणा
सदैव =सदा + एव
तदैव=तदा+एव
वसुधैव= वसुधा + एव
एकैक:= एक + एक:
महैश्वर्यम्= महा + ऐश्वर्यम्
गंगौघ:= गंगा + ओघ:
महौषधि:= महा +औषधि:
महौजः = महा +ओजः *आदि* ।
प्रश्न - वृद्धि स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
अ + ए = ऐ | अ + ऐ = ऐ |
आ + ए = ऐ | आ + ऐ = ऐ |
अ + ओ = औ | आ + ओ = औ |
अ + औ = औ | आ + औ = औ |
वृद्धि स्वर संधि के नियम |
एक + एक = एकैक
( अ + ऐ = ऐ )
मत + ऐक्य = मतैक्य
हित + ऐषी = हितैषी
( आ + ए = ऐ )
वसुधा +एव = वसुधैव
( आ + ऐ = ऐ )
( अ + ओ = औ )
दन्त + ओष्ठ = दँतौष्ठ
वन + ओषधि = वनौषधि
परम + ओषधि = परमौषधि
( आ + ओ = औ )
गंगा + ओध = गंगौध
महा + ओज = महौज
( आ + औ = औ )
उदाहरण— वच् धातु में 'व' वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।
(यज्+क्त=इष्ट)
(वच्+रक्त= उक्त)
(वह् + क्त= ऊढ़)
वह-प्रापणे ज्ञानार्थत्वात् कर्त्तरि क्त (वह् +क्त)
*इक्- इ, उ ,ऋ ,लृ*
| | | |
*यण्- य, व ,र , ल*
*व्यख्या:-*
(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ /ई का ‘य्’ हो जाता है।
#यथा:-
यदि + अपि = यद्यपि,
इति + आदि:= इत्यादि:
प्रति +एकम् = प्रत्येकं
नदी + अर्पणम् = नद्यर्पणम्
वि + आसः = व्यासः
देवी + आगमनम् = देव्यागमनम्।
(ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ/ ऊ का ‘व्’ हो जाता है।
यथा:-
अनु + अय:= अन्वय:
सु + आगतम् = स्वागतम्
अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
(ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ का ‘र्’ हो जाता है।
यथा:-
मातृ+आदेशः = मात्रादेशः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
धातृ + अंशः = धात्रंशः
(घ) लृ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर लृ का 'ल'हो जाता है ।
यथा:- लृ +आकृति:=लाकृतिः *आदि।*
प्रश्न - यण स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
इ + अ = य | इ + आ = या |
इ + ए = ये | इ + उ = यु |
ई + आ = या | इ + ऊ = यू |
ई + ऐ = यै | उ + अ = व |
उ + आ = वा | ऊ + आ = वा |
उ + ई = वी | उ + इ = वि |
उ + ए = वे | ऊ + ऐ = वै |
ऋ + अ = र | ऋ + आ = रा |
ऋ + इ = रि | |
यण स्वर संधि के कुछ नियम |
( इ + अ = य )
यदि + अपि = यद्यपि
वि +अर्थ = व्यर्थ
आदि + अन्त = आद्यंत
अति +अन्त = अत्यन्त
अति + अधिक = अत्यधिक
अभि + अभागत = अभ्यागत
गति + अवरोध = गत्यवरोध
ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यर्थ
(इ +आ = या )
वि + आपक = व्यापक
वि + आप्त = व्याप्त
वि+आकुल = व्याकुल
वि+आयाम = व्यायाम
वि + आधि = व्याधि
वि+ आघात = व्याघात
अति +आचार = अत्याचार
इति + आदि = इत्यादि
गति + आत्मकता = गत्यात्मकता
ध्वनि + आत्मक = ध्वन्यात्मक
(ई +आ = या )
सखी + आगमन = सख्यागमन
( इ + उ = यु )
वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
अभि + उदय = अभ्युदय
ऊपरि + उक्त = उपर्युक्त
प्रति + उत्तर = प्रत्युत्तर
( इ + ऊ = यू )
वि + ऊह = व्यूह
नि + ऊन = न्यून
( ई + ऐ = यै )
देवी + ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य
( उ + अ = व )
मनु + अन्तर = मन्वन्तर
सु + अल्प = स्वल्प
सु + अच्छ = स्वच्छ
( उ + आ = वा )
मधु + आचार्य = मध्वाचार्य
मधु + आसव = मध्वासव
लघु + आहार = लघ्वाहार
( उ + इ = वि )
अनु + इति = अन्विति
( उ + ई = वी )
अनु + वीक्षण = अनुवीक्षण
( ऊ + आ = वा )
वधू +आगमन = वध्वागमन
( उ + ए = वे )
अनु + एषण = अन्वेषण
( ऊ + ऐ = वै )
वधू +ऐश्वर्य = वध्वैश्वर्य
( ऋ + अ = र )
पितृ +अनुमति = पित्रनुमति
( ऋ + आ = रा )
मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा
( ऋ + इ = रि )
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा ।
______
अयादि सन्धि -अयादि_सन्धि: -
सूत्र:-एचोऽयवायावः।
व्याख्या:-*ए, ऐ, ओ, औ के परे अन्य किसी स्वर के मेल पर ‘ए’ के स्थान पर ‘अय्’; ‘ऐ’ के स्थान
पर ‘आय्’; ओ के स्थान पर ‘अव्’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘आव्’ हो जाता है ।
___________________
ए ऐ ओ औ।
| | | |
अय् आय् अव् आव्
____________________
-🌿★-🌿
🌿 *उदाहरणानि :-*
शे + अनम् = शयनम् - (ए + अ = अय् +अ)
ने + अनम् = नयनम् - (ए + अ = अय्+अ)
चे + अनम् = चयनम् - (ए + अ = अय्अ)
शे + आनम् = शयानम् - (ए + आ = अय्अ)
नै + अक: = नायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + अक: = गायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + इका = गायिका - (ऐ + इ = आय्अ)
पो + अनम् = पवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
भो + अनम् =भवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
पो + इत्र: = पवित्रः - ( ओ + इ = अव्इ)
पौ + अक: = पावक: - (औ + अ = आव्अ)
शौ + अक: = शावक: - (औ + अ = आव्अ)
भौ + उक: = भावुकः - (औ +उ= आव् उ)
धौ + अक: = धावक: - (औ + अ = आव्अ)
आदि ।
प्रश्न - अयादि संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए ।
ए + अ = अय् | ऐ + अ = आय् |
ऐ + इ = आयि | ओ + अ = अव् |
ओ + इ = अव् | ओ + ई = अवी |
औ + अ = आव् | औ + इ = आवि |
औ + उ = आवु | |
अयादि स्वर संधि के कुछ नियम |
ने + अन = नयन
शे +अन = शयन
( ऐ + अ = आय )
शै +अक = शायक
गै + अक = गायक
गै + अन = गायन
( ऐ + इ = आयि )
नै + इका = नायिका
गै + इका = गायिका
( ओ + अ = अव )
भो + अन = भवन
श्रो + अन = श्रवण
भो + अति = भवति
( ओ + इ = अव )
पो + इत्र = पवित्र
( ओ + ई = अवी )
गो + ईश = गवीश
( औ + अ = आव )
रौ + अन = रावण
श्रौ + अन = श्रावण
धौ + अक = धावक
पौ + अक = पावक
पौ + अन = पावन
शौ + अक = शावक
नौ + इक = नाविक
( औ + उ = आवु )
भौ + उक = भावुक
पूर्वरूप सन्धि — एङ: पदान्तादति)- संस्कृत व्याकरणम्
नियम-
नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।पूर्वरूप संधि के उदाहरण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
- ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम्
- ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र
(यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।
धातु रूप -रौ + प्रत्यय रूप- अन् = रावण
धातु रूप - श्रौ + प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप- अक: = धावक:
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप- अन् = पावन
यहाँ दोनों पद हैं ।
१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।=तावागच्छताम् ______________________________
२-बालको + अवदत् -बालक बोला।
=बालकोऽवदत्
पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।
सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही प्रभाव है
पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--
पररूप संधि के नियम
नियम - यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से क्रिया के आदि में होता है।पररूप संधि के उदाहरण
- प्र + एजते = प्रेजते
- उप + एषते = उपेषते
- परा + ओहति = परोहति
- प्र + ओषति = प्रोषति
- उप + एहि = उपेहि
प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-
. प्रकृति भाव सन्धि –
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
- स्वर संधि - अच् संधि
- दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि - आद्गुण:
- वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
- यण् संधि - इकोऽयणचि
- अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
- पररूप संधि - एडि पररूपम्
- प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
💐★वृत्ति अनचि च 8|4|47
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-
💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।
सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा 8|4|45 (अव्ययम्) , यरः 8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे 8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः 8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम्
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
वृत्ति—
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
👇
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।
💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’)
★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’ ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
- शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
- पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
- मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
- कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
- सार + अंग = सारंग
- सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
- हलस् + ईषा = हलीषा
- कुल + अटा = कुलटा
- _______________________
-★-अचोऽन्तयादि टि।। (1/1/64)
वृत्ति:- अचां मध्ये योऽन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।
जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच् पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है।यथा :-गौर+ यो इस विग्रह दशा में -गौर की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।💐↔
अयोगवाह-
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क :ख :प :फ ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
व्यञ्जन-सन्धि का विधान
व्यञ्जन सन्धि -
प्रतिपादन -💐↔👇
।शात् ८।४।४४ ।।
वृत्तिः-शात् परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
विश्न: । प्रश्न।
व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह कि शकार (श् वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात् के कारण नहीं होगा।
अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
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काशिका-वृत्तिः
शात् ८।४।४४
तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।
न्यासः
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💐↔शात् ६३/ ८/४४३
"विश्नः, प्रश्नः" इति।
"विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि "प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
(पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
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यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता
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लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
💐↔शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
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💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।
वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
पदान्त में टवर्ग होने पर भी ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूलशब्दान्त है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स" के स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇
षट् सन्त: ।
षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।
व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।
अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।
प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।
यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।
परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:" रूप बना रहा।
अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस प्रयोजन से कहा ?
यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।
एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
षट् षण्टरूप बन जाता ।
५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।
वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
काशिका-वृत्तिः
न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२
पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।
व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को षकार और टवर्ग हो ।
आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि होती थी ।
इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
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(तो:षि- 8/4/53 )
तो: षि। 8/4/53 ।
वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।
"तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ:
★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा"
💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..
वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।
उत् + स्थान = उत्थान ।
कपि + स्थ = कपित्थ ।
अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
तद् + स्थ = तत्थ ।
काशिका-वृत्तिः
उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१
सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।
काशिका-वृत्तिः
काशिका-वृत्तिः
झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२
झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।
न्यासः
झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१
"वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।
अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
वाग्घरि : वाग्हरि:।
व्याख्या:- झय् (झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'
आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।
यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर झयो होऽन्यतरस्याम् सूत्र से वाघरि रूप बना।
काशिका-वृत्तिः
शश्छो ऽटि ८।४।६३
झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।
न्यासः
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↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
तच्छिव: तश्चिव:।
व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।
प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा। तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है
" छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
वृत्ति:- तच्छलोकेन।
व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण् न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए
पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।
प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।
"छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।
बाल-मनोरमा
शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२
शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।
तत्त्व-बोधिनी
शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२
शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।
छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥
काशिका-वृत्तिः
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★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।
मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
राज+ क्विप् = राज् ।
सम् के मकार को मकार ही होता है यदि क्विप् प्रत्ययान्त राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।
प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।
वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।
समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।
खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर" प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।
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💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
_________
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
:- परन्तु आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।
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💐↔णत्व विधान सन्धि
:- रषऋनि नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल् और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न ' को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
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💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -
परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।
जैसे-
कवि: + खादति = कवि: खादति ।
बालक: + पतति = बालक: पतति ।
गुरु : + पाठयति = गुरु: पाठयति ।
वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति । मन:+ कामना=मन: कामना।
यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।
बाल: + अस्ति = __ ।
मूर्ख: + अपि = मूर्खो८पि।
शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
क: +अपि = को८पि ।
खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या -
पदस्य अन्तिम 'र्'कारस्य अनन्तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्य विसर्ग: (:) भवति ।
वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्तव्य: ।।
व्याख्या - सम्, पुम्, कान् च शब्दानां विसर्गस्य स्थाने 'स्'कार: भवति ।
उदाहरणम् -
सम् + स्कर्ता = संस्स्कर्ता (सँस्स्कर्ता) ।।
हिन्दी -
सम्, पुम् और कान् शब्दों के विसर्ग के स्थान पर 'स्'कार होता है ।
इति
💐↔
विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।
-विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर लोप हो जाता है ।
जैसे-•
सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
बालक: + आयाति = बालक आयाति।
चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।
💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो तो पूर्व वर्ती "अ" और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
लोक: + रुदति= लोको रुदति।
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💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।
जैसे- 👇
पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।
विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-
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💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ' 'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ (य,र,ल,व ) अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।
यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात् विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।
'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)
कवि: + गच्छति = कविर्गच्छति। (कविष्+)
गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)
गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)
हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)
पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)
दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)
नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)
निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)
दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।
निष्+आश्रित:=निराश्रित:।
कविष्+हसति=कविर्हसति।
मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।
मुनिष्+इव=मुनिरिव।
प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।
विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।
रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।
इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।
तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।
धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।
हरिष् +याति=हरिर्याति।
कविष्+अयम् =कविरयम्।
मन:+ कामना= मनस्कामना।
पुर:+ कार= पुरस्कार ।
_______
विशेष-इण् -
(इण्= | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्) |
कु(क,ख,ग,घ,ङ्,)से परे "सकार" का "षकार" आदेश हो जाता है इण्को:आदेशप्रत्ययो:८/३५७/५९) इण्को (८-३-५७)-आदेशप्रत्ययो: (८-३-५९) । तस्मात् इण्को परस्य (१) अपदान्तस्य आदेशस्य (२) प्रत्यय अवयवश्च "स: स्थाने मूर्धन्य " आदेश: भवति।(सिद्धान्त कौमुदी)
इण्को: ।५७। वि०-इण्को:५।१। स० इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु तस्मात् -इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।
संस्कृत-अर्थ-इण्कोरित्यधिकारो८यम् आपादपरिसमाप्ते:।इतो८ग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति आदेशप्रत्ययो: ८/३/५९/इति उदाहरण :- सिषेव ।सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु ।गीर्षु ।धूर्षु ।वाक्षु ।त्वक्षु ।
हिन्दी अर्थ:- इण्को: इण् कु- (क'ख'ग'घ'ड॒॰)तृतीय पाद की समाप्ति पर्यन्त पाणिनि मुनि इससे आगे और परे जो कहेंगे वह इण् और कवर्ग से परे होता है ऐसा जानें जैसाकि आचार्य पाणिनि कहेंगे आदेशप्रत्ययो:८/३/५९/ इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार का मूर्धन्य षकार हो जाता है ।
__________
पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
प्रथमावृत्तिः
सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६
पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६
समासः॥
सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
अर्थः॥
स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
उदाहरणम्॥
सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
काशिका-वृत्तिः
ससजुषो रुः ८।२।६६
सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।
सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
समजुषो रुः १०५, ८।२।६६
पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।
न्यासः
ससजुषो रुः। , ८।२।६६
"सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥
बाल-मनोरमा
ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।
तत्त्व-वोधिनी
ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।
तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।
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अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्—
१. रेफान्तानि अव्ययानि
प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः
“प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम् अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |
प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु
अत्र नियमः यत् यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति |
अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः |
अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |
प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु
इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |
अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम् | रेफान्तं प्रातिपदिकम् अस्ति चेत्, तर्हि तद् अव्ययम् अपवादभूतम् अस्ति इति धेयम् |
यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम् अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |
अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः
अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्)
____________________
२- एषः सः
सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:
एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |
सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु
अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः
एषः इच्छति → एष इच्छति*
एषः आगच्छति → एष आगच्छति*
*यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' |
भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम् | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |
धेयं यत् एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |
सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः
सः गच्छति → स गच्छति = साधु
अत् परे अस्ति चेत्, तर्हि अति उत्वं भवति—
सः अपि → सोऽपि = साधु
'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |
____________________
३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च
हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः
रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |
हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर् + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम् → हरी + रमते → हरीरमते |
तथैव पुनः रमते → रेफान्तम् अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर् + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |
पुनः रेफान्तम् अव्ययम् अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम् |
इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम् समाप्तम् | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम् | सम्प्रति यावत् परिशीलितं व्यवहारे, तत् शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।
- रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
- सुतः + एव = सुतेव
- सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
- अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
- नराः + ददन्ति = नराददन्ति
- देवाः + अत् = देवात्
- ____________________
सूत्र – ससजुषोरूः
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।
- मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
- रविः + उदेति = रविरुदेति
- निः + बलः = निर्बलः
- कविः + याति = कविर्याति
- धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
- नौरियम् = नौः + इयम्
- गौरयम् = गौ + अयम्
- श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा
4. सूत्र – रोरि
यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।
- निर् + रसः = नीरसः
- निर् + रवः = नीरवः
- निर् + रजः = नीरजः
- प्रातारमते = प्रातर् + रमते
- गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
- अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
- शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
- हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
- ____________________
5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः
रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।
- लिढ़् + ढः = लीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
- अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में
- च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
- त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
- ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
- कः + चौरः = कश्चौरः
- बालकः + चलति = बालकश्चलति
- कः + छात्रः = कश्छात्रः
- रामः + टीकते = रामष्टीकते
- धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
- मनः + तापः = मनस्तापः
- नमः + ते = नमस्ते
- रामः + तरति = रामस्तरति
- पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
7. सूत्र- वाशरि
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।
- दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन
- बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते
- देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः
- प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः
- निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह
____________________________________
एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔
एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण जैसेेे. :-
स: + कथयति = स कथयति।
एष: + क:= एष क:।
_______________
नियम-र्(अथवा) विसर्ग (:) के स्थान पर र् के पश्चात यदि र् आता है तो प्रथम र् का लोप होकर उस र् से पूर्व आने वाले स्वर - (अइउ) की दीर्घ हो जाता है।
💐↔रोरि ,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो८ण: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
यदि विसर्ग के बाद र् आता है तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।
जैसे-
अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+
पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+
👇जश्त्व सन्धि विधान :-
"पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।
उदाहरण (Example):-
जगत् + ईश = जगदीश: ।
वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
वाक् + ईश : = वागीश ।
अच्+ अन्त = अजन्त ।
एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
तत्+एवम् =तदेवम् । जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।
💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।
उदाहरण( Example )
लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)
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प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया रूप पद कहलाते हैं ।
ये क्रिया पद और संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।
- संज्ञा
- सर्वनाम
- विशेषण और
- क्रिया।
2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :
- क्रियाविशेषण
- समुच्चयबोधक
- संबंधबोधक और
- विस्मयादिबोधक।
(विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।
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चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
"झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श् ष् स् हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।
लभ् + स्यते = लप्स्यते ।
उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
तत् + पर: =तत्पर: ।
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'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।
छत्व सन्धि विधान :-
अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में शिकार '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है ।
वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है ।
परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद "श" वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्' और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :-
सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।
धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।
श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।
१- तत्+शिव= त् के बाद श् तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).
२-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से श्' के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)
३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त् और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है । तत् + छ्व: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।
(- प्रत्याहार-)
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........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।
प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?
उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )
........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।
........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --
(०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।
इनमें से अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी से अनुसार है।
_________________________
अन्तिम अक्षर के अनुसार ४३ प्रत्याहार सूत्र सहित
(क.) अइउण् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।....(०१) " अण् " ----- उरण् रपरः । ( १.१.५० )
(ख.) ऋलृक् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०२) " अक् " ----- अकः सवर्णे दीर्घः । ( ६.१.९७ ),
........(०३) " इक् " ----- इको गुणवृद्धी । ( १.१.३ ),
........(०४) " उक् " ----- उगितश्च । ( ४.१.६ )
(ग) एओङ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(०५) " एङ् " ----- एङि पररूपम् । ( ६.१.९१ )
(घ) ऐऔच् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०६) " अच् " ----अचोSन्त्यादि टि । ( १.१.६३ ),
.......(०७) " इच् " --- इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च । (६.३.६६ ),
........(०८) " एच् " ----- एचोSयवायावः । ( ६.१.७५ ),
........(०९) " ऐच् " ----- वृद्धिरादैच् । ( १.१.१ ),
(ङ) हयवरट् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
...(१०) " अट् " ----- शश्छोSटि । ( ८.४.६२ )
(च) लण् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(११) " अण् " ----- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः । (१.१.६८ ),
........(१२) " इण् " ----- इण्कोः । ( ८.३.५७ ),
........(१३) " यण् " ----- इको यणचि । ( ६.१.७४ )
(छ) ञमङणनम् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१४) " अम् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ),
........(१५) " यम् " ----- हलो यमां यमि लोपः । ( ८.४.६३ ),
........(१६) " ङम् " ----- ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् । ( ८.३.३२ ),
........(१७) " ञम् " ----- ञमन्ताड्डः । ( उणादि सूत्र — १.१.१४ )
(ज) झभञ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(१८) " यञ् " ----- अतो दीर्घो यञि । ( ७.३.१०१ )
(झ) घढधष् ----- इससे दो प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१९) "झष् " और
........(२०) " भष् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )
(ञ) जबगडदश् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२१) " अश् " ----- भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि । ( ८.३.१७ ),
........(२२) " हश् " ----- हशि च । ( ६.१.११० ),
........(२३) " वश् " ----- नेड् वशि कृति । ( ७.२.८ ),
........(२४) " झश् ",
........(२५) " जश् " ----- झलां जश् झशि । ( ८.४.५२ ),
........(२६) " बश् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )
(ट) खफछठथचटतव् --- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(२७) " छव् " ----- नश्छव्यप्रशान् । ( ८.३.७ )
(ठ) कपय् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२८) " यय् " ---- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः । ( ८.४.५७ ),
........(२९) " मय् " ----- मय उञो वो वा । ( ८.३.३३ ),
........(३०) " झय् " ----- झयो होSन्यतरस्याम् । ( ८.४.६१ ),
........(३१) " खय् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ),
........(३२) " चय् " ----चयो द्वितीयः शरि पौषकरसादेः । (वार्तिकः--- ८.४.४७ ),
(ड) शषसर् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३३) " यर् " ----- यरोSनुनासिकेSनुनासिको वा । ( ८.४.४४ ),
........(३४) " झर् " ----- झरो झरि सवर्णे । ( ८.४.६४ ),
........(३५) " खर् " ----- खरि च । ( ८.४.५४ ),
........(३६) " चर् " ----- अभ्यासे चर्च । ( ८.४.५३ ),
........(३७) " शर् " ----- वा शरि । ( ८.३.३६ ),
(ढ) हल् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३८) " अल् " ----- अलोSन्त्यात् पूर्व उपधा । (१.१.६४ ),
........(३९) " हल् " ----- हलोSनन्तराः संयोगः । (१.१.५७ ),
........(४०) " वल् " ----- लोपो व्योर्वलि । ( ६.१.६४ ),
........(४१) " रल् " ----- रलो व्युपधाद्धलादेः सश्च । (१.२.२६ ),
........(४२) " झल् " ----- झलो झलि । ( ८.२.२६ ),
........(४३) " शल् " ----- शल इगुपधादनिटः क्सः । ( ३.१.४५ )
आदि वर्ण के अनुसार ४३ प्रत्याहार
........(क) अकार से ८ प्रत्याहारः---(१) अण्, (२) अक्, (३) अच्, (४) अट्, (५) अण्, (६) अम्, (७) अश्, (८) अल्,
........(ख) इकार से तीन प्रत्याहारः--(९) इक्, (१०) इच्, (११) इण्,
........(ग) उकार से एक प्रत्याहारः--(१२) उक्,
........(घ) एकार से दो प्रत्याहारः---(१३) एङ्, (१४) एच्,
........(ङ) ऐकार से एकः---(१५) ऐच्,
........(च) हकार से दो---(१६) हश्, (१७) हल्,
........(छ) यकार से पाँच---(१८) यण्, (१९) यम्, (२०) यञ्, (२१) यय्, (२२) यर्,
........(ज) वकार से दो---(२३) वश्, (२४) वल्,
........(झ) रेफ से एक---(२५) रल्,
........(ञ) मकार से एक---(२६) मय्,
........(ट) ङकार से एक---(२७) ङम्,
........(ठ) झकार से पाँच---(२८) झष्, (२९) झश्, (३०) झय्, (३१) झर्, (३२) झल्,
........(ड) भकार से एक---(३३) भष्,
........(ढ) जकार से एक--(३४) जश्,
........(ण) बकार से एक---(३५) बश्,
........(त) छकार से एक---(३६) छव्,
........(थ) खकार से दो---(३७) खय्, (३८) खर्,
........(द) चकार से एक---(३९) चर्,
........(ध) शकार से दो---(४०) शर्, (४१) शल्,
इसके अतिरिक्त
........(४२) ञम्--- एक उणादि का और
........(४३) चय्---एक वार्तिक का,
कुल ४३ प्रत्याहार हुए।
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१-अक् | अ, इ , उ, ऋ , लृ |
२-अच् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ |
३-अट् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व्,र्, |
४-अण् | अ , इ , उ |
५-अण् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व, र्, ल् |
६-अम् | स्वर , ह्, य्,व, र्, ल्,ञ्,म्,ङ्,ण्,न् |
७-अल् | सभी वर्ण |
८-अश् | स्वर, ह्, य्,व, र्, ल्,वर्गों के 3,4,5,वर्ण। |
९-इक् | इ , उ, ऋ , लृ |
१०-इच् | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ |
११-इण् | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल् |
१२-उक् | उ, ऋ,लृ |
१३-एङ् | ए,ओ |
१४-एच् | ए , ओ , ऐ , औ |
१५-ऐच् | ऐ , औ |
१६-खय् | वर्गों के 1,2 वर्ण। |
१७-खर्- | वर्गों के प्रथम-( और द्वितीय और महाप्राण सहित उष्मवर्ण) खफछठथचटतकपशषसह) |
१८-ङम् | ङ् , ण्, न् |
१९-चय् | च्, ट्, त, क्, प् { वर्गों के प्रथम वर्ण } |
१९-चर् | वर्गों के प्रथम वर्ण, श्, ष्, स् |
२०-छव् | छ् , ठ् , थ् , च् , ट् , त्, व् |
२१-जश् | ज्, ब्, ग्, ड्, द् |
२२-झय् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 |
२३-झर् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स् |
२४-झल् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्,ह |
२५-झश् | वर्गों के 3, 4 वर्ण। |
२६-झष् | वर्गों के चतुर्थ वर्ण { झ्, भ्, घ्, ढ्, ध् } |
२७-बश् | ब्, ग्, ड्, द् |
२८-भष् | झ् के अलावा वर्गों के चतुर्थ वर्ण |
२९-मय् | ञ् को छोड़कर वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 |
३०-यञ् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 5 , झ्, भ् |
३१-यण् | य्, व्, र्, ल् |
३२-यम् | य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ्, ण्, न् |
३३-यय् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 |
३४-यर् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 , श्, ष्, स् |
३५-रल् | य् , व् के अलावा सभी व्यञ्जन |
३६-वल् | य् , के अतिरिक्त सभी व्यञ्जन वर्ण। |
३७-वश् | व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 वर्ण। |
३८-शर् | श्, ष्, स् |
३९-शल् | श्, ष्, स्, ह { ऊष्म वर्ण } |
४०-हल् | सभी व्यञ्जन |
४१-हश् | ह, य्, व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 |
४२-ञम् | ञ्, म्, ङ्, ण्, न् |
इण् प्रत्याहार दो हैं |
प्रस्तुति-करण-यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्क-सूत्र --8077160219 _______________________
वर्णविभागः
वर्णाः द्विविधम् । स्वराः व्यञ्जनानि च इति ।
अर्थ:-(वर्ण दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यञ्जन)
स्वराः
अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ - इत्येते नव स्वराः । तेषु अ, इ, उ, ऋ - स्वराणां दीर्घरूपाणि सन्ति - आ, ई, ऊ, ॠ । अतः स्वराः त्रयोदश । अ, इ, उ, ऋ, लृ - एते पञ्च ह्रस्वस्वराः ।
अन्ये दीर्घस्वराः। एतेषु- (ए, ऐ, ओ, औ )- एते संयुक्तस्वराः सन्ध्य्क्षराणि इति वा निर्दिश्यन्ते । स्वराणाम् उच्चारणाय स्वीक्रियमाणं कालमितिम् अनुसृत्य स्वराः ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः इति त्रिधा विभक्ताः सन्ति ।
एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घम् उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं त्वर्धमात्रकम् ॥१।
_______
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय एकमात्रकालः भवति ते ह्रस्वाः स्वराः । उदाहरण।- (अ, इ)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालः भवति ते दीर्घाः स्वराः । उदाहरण - (आ, ई)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालाद् अपेक्षया अधिकः कालः भवति ते प्लुताः स्वराः । उदाहरण।। - (आऽ, ईऽ)
संयुक्ताक्षरं / सन्ध्यक्षरं नाम स्वरद्वयेन अक्षरद्वयेन सम्पन्नः स्वरः अक्षरम् वा । उदाहरण । - (ए = अ + इ) अथवा अ + ई /आ + इ / आ + ई ।
ऐ = अ + ए / आ + ए, । ओ=अ + उ / अ + ऊ / आ + उ / आ + ऊ, औ = अ + ओ / आ + औ
व्यञ्जनानि-
उपरि दर्शितेषु माहेश्वरसूत्रेषु पञ्चमसूत्रतः अन्तिमसूत्रपर्यन्तं व्यञ्जनानि उक्तानि । व्यञ्जनानि (३३) । तानि वर्गीयव्यञ्जनानि अवर्गीयव्यञ्जनानि इति द्विधा । क्-तः म्-पर्यन्तं वर्गीयव्यञ्जनानि । अन्यानि अवर्गीव्यञ्जनानि ।
वर्गीयव्यञ्जनानि-
२-तालव्यः -च् छ् ज् झ् ञ् - एते चवर्गः - तालव्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा तालव्यस्थानं स्पृशति।
३-मूर्धन्यः-ट् ठ् ड् ढ् ण् - एते टवर्गः - मूर्धन्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे मूर्धायाः स्थाने भारः भवति।
४-दन्त्यः-त् थ् द् ध् न् - एते तवर्गः - दन्त्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा दन्तान् स्पृशति।
५-औष्ठ्य। प् फ् ब् भ् म् -औष्ठौ एते पवर्गः एतेषाम् उच्चारणावसरे परस्परं स्पृशतः।
- _________________________
१-कण्ठ्यः - क् ख् ग् घ् ङ् - एते कवर्गः - कण्ठ्यः - एतेषाम् उच्चारणस्थानं कण्ठः।
वर्गीयव्यञ्जनेषु प्रतिवर्गस्य आदिमवर्णद्वयं खर्वर्णाः / कर्कशव्यञ्जनानि ।
(वर्ग के प्रारम्भिक दो वर्ण खर अथवा-
कर्कश वर्ण होते हैं )
अन्तिमवर्णद्वयं हश्वर्णाः / मृदु व्यञ्जनानि ।
(अन्तिम दो वर्ण ही अथवा मृदु होते हैं )
अवर्गीयव्यञ्जनानि-
- (य् र् ल् व्) - अन्तस्थवर्णाः
- (श् ष् स् ह् )- ऊष्मवर्णाः
अवर्गीयव्यञ्जनेषु श् ष् स् - एते कर्कशव्यञ्जनानि । अवशिष्टानि मृदुव्यञ्जनानि ।
प्रतिवर्गस्य प्रथमं तृतीयं पञ्चमं च व्यञ्जनं य् र् ल् व् च अल्पप्राणाः ।
अर्थ: •प्रत्येक वर्ग का प्रथम तृतीय पञ्चम व्यञ्जन और अन्त:स्थ अल्पप्राण होते हैं ।।
अवशिष्टाः महाप्राणाः ।अर्थ• अवशेेेष ( बचे हुए) वर्ण महाप्राण हैं ।
प्रत्येकस्य वर्गस्य पञ्चमं व्यञ्जनं (ङ् ञ् ण् न् म्) अनुनासिकम् इति उच्यते । कण्ठादिस्थानं नासिका - इत्येतेषां साहाय्येन अनुनासिकाणाम् उच्चारणं भवति ।
अनुस्वारः, विसर्गः👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
(अं) अम् इत्येषः अनुस्वारः । अस्य चिह्नमस्ति उपरिलिख्यमानः बिन्दुः । अः इत्येषः विसर्गः । अस्य चिह्नमस्ति वर्णस्य पुरतः लिख्यमानं बिन्दुद्वयम् । क् ख् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः जिह्वामूलीयः इति कथ्यते ।
प् फ् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः उपध्मानीयः इति कथ्यते ।
संस्कृत व्याकरण के कुछ पारिभाषिक शब्द-
१-विकरण
अध्याय-पञ्चविञ्शति (25)
आगमप्रकरणम् मण्डूकोपनिषद-
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥
अर्थ:-ओ३म् अक्षर यह सर्वस्व है। इसकी स्पष्ट व्याख्या है । जो कुछ अतीत, वर्तमान और भविष्य है, वही "ओ३म्" ही है । जो समय की त्रिगुणात्मक अवधारणा से परे है, वह भी वास्तव में "ओ३म्" ही है ।१। (मण्डूकोपनिषद)-
"ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वेदेवास आगत दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥७॥
ओ३म् इस समग्र सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत एक अनाहत निरन्तर अनुनिनादित नाद है । ऐसा लगता कि उस अनन्त सत्ता का जैसे प्रकृति से साक्षात् संवाद है । (ॐ ) शब्द को भारतीयों ने सर्वाधिक पवित्र शब्द तथा ईश्वर का वाचक माना ,उस ईश्वर का वाचक जो अनन्त है । यजुर्वेद के अध्याय ४०की १७ वीं ऋचा में कहा गया है "ओम खम् ब्रह्म ओम ही नाद ब्रह्म है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में सूर्य का वाचक रवि शब्द भी है । मिश्र की संस्कृति में जिसे रा रहा गया है ।
लैटिन भाषा में (omnis) सम्पूर्णता का वाचक है। रविः अदादौ रु शब्दे । रू धातु का परस्मैपदीय प्रथम पुरुष एक वचन का रूप है रौति अर्थात् जो ध्वनि करता है । (रूयते स्तूयते इति रवि:। रु + “ अच इः ।“ उणाणि सूत्र ४।१३८। इति इः) सूर्य्यः अर्कवृक्षः। इत्यमरःकोश ॥
सूर्य्यस्य भोग्यं दिनं वार रूपम् ॥
यथा “ रवौ वर्ज्ज्यं चतुःपञ्च सोमे सप्त द्बयं तथा “इत्यादिवारवेलाकथने समयप्रदीपः ॥
पौराणिक ग्रन्थों में रविः शब्द की काल्पनिक व्युपत्ति की गयी है वह भी अव् धातु से । देखें ''रवि'' ¦ पु॰ (अव्--इन् रुट्च्)१ सूर्य्ये । ज२ अर्कवृक्षे च“अचिरात्तु प्रकाशेन अवनात् स रविः स्मृतः” मत्स्यपुराणतन्नामनिरुक्तिः। अर्थात् मत्स्य पुराण में रवि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए बताया है कि दीर्घ काल से प्रकाश के द्वारा जो रक्षा करता है वह रवि है ।
अव् धातु का एक अर्थ -रक्षा करना भी है ।
वस्तुत यह व्युत्पत्ति आनुमानिक व काल्पनिक है वस्तुस्थिति तो यह है कि रवि ध्वनि-परक विशेषण है। रवि संज्ञा का विकास "रौति इति -रवि यहशब्द रु-शब्दे धातु से व्युत्पन्न है । अर्थात् सूर्य के विशेषण ओ३म्'और -रवि ध्वनि अनुकरण मूलक हैं। सैमेटिक -- सुमेरियन ,हिब्रू आदि संस्कृतियों में हैमेटिक "ओमन् शब्द "आमीन के रूप में है। तथा रब़ का अर्थ नेता तथा महान होता हेै। जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ।अरबी भाषा में रब़ -- ईश्वर का वाचक है। अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक देव थे। और दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे । मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर (अमॉन रॉ ) में परिवर्तित हो गये और अत्यधिक पूज्य हुए ! क्योंकी प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि (अमोन-रॉ) ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का प्रसारण है। मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु आदि परम्पराओं में निर्यात होकर प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे । इन्हीं से ईसाईयों में आमेन (Amen ) तथा ईसाईयों से अ़रबी भाषा में आमीन् !! (ऐसा ही हो ) एक स्वीकारात्मक अव्यय के रूप में धार्मिक रूप इबादतो में प्रतिष्ठित हो गया। इतना ही नहीं जर्मन लोग मनु के वंशज ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए करते थे। क्यों कि वह भी ज्ञान का संरक्षक देव था। जो भारतीयों में बुध ज्ञान का देवता था इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन जर्मन वर्ग की भाषासओं में (OUVIN ) ऑविन भी था। यही (woden) ही अंग्रेजी में (Goden) होते हुए अन्त में आज( God ) बन गया है।जिससे कालान्तर में गॉड (god )शब्द बना है। जो फ़ारसी में (ख़ुदा) के रूप में प्रतिष्ठित हैं।यद्यपि कुछ यूरोपीय भाषाविद् गॉड शब्द की व्युत्पत्ति आदि जर्मनिक शब्द -guthan- गुथान से मानते हैं यह उनका अनुमान ही है । ऑक्सफोर्ड एटिमोलॉजी इंग्लिश डिक्शनरी में गॉड(God) शब्द की व्युत्पत्ति क्रम निम्नलिखित रूप में दर्शाया गया है। "Old English god "supreme being the Christian God word; from Proto-Germanic word *guthan (गुथान) its too (source also of Old Saxon, Old Frisian, Dutch god, Old High German got, German Gott, Old Norse guð, Gothic guþ), which is of uncertain origin; perhaps from Proto Indo Europion- *ghut-घुत "that which is invoked-"जिसका आह्वान किया गया हो (who has been summoned) जिसे आहूत किया गया हो। (source also of Old Church Slavonic zovo "to call," Sanskrit huta- "invoked," an epithet of Indra) from root *gheu(e)- "to call, invoke." The notion could be "divine entity summoned to a sacrifice."
“ओङ्कारः पूर्व्वमुच्चार्य्यस्ततो वेदमधीयते” “ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्ज्जातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ”। इति व्याकरणटीकायां दुर्गादासःकृत।
व्याकरण टीकाकार दुर्गादास लिखते है कि "(ओङ्कार) तथा "(अथ) ये दौनों शब्द पूर्व काल में ब्रह्मा के कण्ठ के भेदन करके उत्पन्न हुए अत: ये मांगलिक हैं। परन्तु यह भारतीय संस्कृति में तो यह भी मान्यता है। कि शिव (ओ३म्) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
1 राजा 1:36 ► |
श्लोक-यहोयादा के पुत्र बनायाह ने राजा को उत्तर दिया, “आमीन ! मेरे प्रभु राजा का परमेश्वर यहोवा ऐसा ही प्रचार करे। |
नहेमायाह 5:13 ► |
"फिर मैं ने अपक्की गोद झाड़कर कहा, इसी रीति से जो कोई अपके अपके घर से और परिश्रम से झाड़ता है, जो इस वचन को पूरा न करे, वह इसी रीति से झाड़ा जाए, और छूछा हो जाए। और सारी मण्डली ने कहा, "आमीन ! और यहोवा की स्तुति की। और लोगों ने इस वचन के अनुसार किया। अन्तिम आमीन, वक्ता में कोई बदलाव नहीं, जैसा कि स्तोत्र के पहले तीन खंडों की सदस्यता में है। |
शुक्राचार्य को उशना भी कहते हैं, अतः उनके नाम बनायी गयी स्मृति को औशनस स्मृति हैं।
वैश्यायां विप्रतश्चैय्र्यात कुम्भकारा प्रजायते ।कुलाल वृत्या जीवेत्तु , नापिता वा भवन्त्यतः।32।अर्थः-ब्राह्मण के द्वारा वेश्या स्त्री में चोरी से (जारकर्म द्वारा) कुम्हार उत्पन्न होता है । वह मिट्टी के बर्तन आदि बनाकर अपनी जीविका करे अथवा इस प्रकार क्षौरकर्म करने वाला नाई उत्पन्न होता है ।
कायस्थ इति जीवेत्तु विचरेच्च इतस्ततः ।काकाल्लौल्यं यमात्क्रौयर्य स्थपतेरथ कृन्तनम् ।आधक्षाराणि संगृहं कायस्थ इति कीर्तितः।34।
वह अपने को कायस्थ कहकर कायस्थ की जीवका करता हुआ इधर-उधर भ्रमण करे । काक से चंचलता, यमराज से क्रूरता, थवई( स्थपति (राज मिस्त्री) से काटना, इस प्रकार काक, यम और स्थापित, इन तीनों शब्द के आद्य अक्षर लेकर कायस्थ शब्द की बनावट कही गई, जो उक्त तीनों दोषों का द्योतक(सूचक) है।
स्थपति, प्राकृत भाषा [थवइ] मकान बनाने वाला कारीगर । ईंट पत्थर की जुड़ाई करनेवाला शिल्पी । राज । मेमार ।
उक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि औशनस स्मृति लिखने वाला नाई और कायस्थ की उत्पत्ति एक ही प्रकार से मानते हैं। अथवा यों कहिए एक ही जाति के व्यक्तियों के ये जीविकानुसार तीन नाम कायस्थ नापित और कुम्भकार( कुम्हार) हैं। व्यास स्मृति अध्याय 1 श्लोक 11-12 में कायस्थ को अन्यत्रों और गोमांस भक्षियों में परिणित किया है । जबकि गोमाँस खाते ब्राह्मण थे।
__________________________________
(पुरानी आयरिश-)
(शब्द -व्युत्पत्ति-)
प्रोटो-सेल्टिक *snigʷyeti ( " To snow ") यह शब्द मूलत: प्रोटो-इण्डो-यूरोपीय ( आद्य भारोपीय- *sneygʷʰ- ( " टू स्नो " ) से सम्बद्ध है।
" उच्चारण-टपकना , गिराना , बहना ( तरल पदार्थ।
६.०६७ | अथर्ववेदः - काण्डं ६ सूक्तं ६.०६८ ऋषिः - अथर्वा | सूक्तं ६.०६९ → |
देव. १ सविता, आदित्याः, रुद्राः, वसवः, २ अदितिः, आपः, प्रजापतिः, ३ सविता, सोमः, वरुण-। १ पुरोविराड्तिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा जगती, २ अनुष्टुप्, ३ अतिजगतीगर्भा त्रिष्टुप्। |
आयमगन्त्सविता क्षुरेणोष्णेन वाय उदकेनेहि ।
आदित्या रुद्रा वसव उन्दन्तु सचेतसः सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः॥१॥
अदितिः श्मश्रु वपत्वाप उन्दन्तु वर्चसा ।
चिकित्सतु प्रजापतिर्दीर्घायुत्वाय चक्षसे॥२॥
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमान् अश्ववान् अयमस्तु प्रजावान्॥३॥
(पद-पाठ)
आ । अयम् । अगन् । सविता । क्षुरेण । उष्णेन । वायो इति ।उदकेन । आ । इहि । आदित्या:। रुद्रा: । वसव: । उन्दन्तु । सऽचेतस:। सोमस्य । राज्ञ: । वपत । प्रऽचेतस: ॥६८.१॥
(अयम्) यह (सविता) स्नापित। नापित (क्षुरेण) छुरा के द्वारा (आ- अगन्) आया है, (वायो) हे वायु ! (उष्णेन) तप्त [तत्ते] (उदकेन) गर्म जल के द्वारा (आ इहि) आओ।(आदित्याः) आदित्य गण, (रुद्राः)रूद्रगण(वसवः) वसु गण ़(सचेतसः) सचेत (उन्दन्तु) भिगोवें, (प्रचेतसः) प्रकृष्ट ज्ञानवाले पुरुषो ! तुम (सोमस्य) शान्तस्वभाव (राज्ञः) प्रकाशित बालक का (वपत=वपयत) मुण्डन कराओ ॥१॥
टिप्पणी -
१−(अयम्) दृश्यमानः (आ अगन्) आगमत्। आगतवान् (सविता) स्नापित: नापितः (क्षुरेण) ऋज्रेन्द्राग्र०। उ० २।२८। इति क्षुर विलेखने−रन्, रेफलोपः। लोमच्छेदकेनास्त्रेण (उष्णेन) तप्तेन (वायो) हे शीघ्रगामिन् पुरुष (उदकेन) जलेन (आ इहि) आगच्छ (आदित्याः) अ० १।९।१। प्रकाशमाना विद्वांसः (रुद्राः) अ० २।२७।६। ज्ञानदातारः (वसवः) श्रेष्ठा जनाः (उन्दन्तु) आर्द्रीकुर्वन्तु। माणवकस्य शिर इति शेषः (सचेतसः) समानज्ञानाः (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनो माणवकस्य (वपत) वपयत। मुण्डनं कारयत (प्रचेतसः) प्रकृष्टज्ञानाः पुरुषाः ॥
अदिति: । श्मश्रु। वपतु । आप: । उन्दन्तु । वर्चसा । चिकित्सतु । प्रजाऽपति: । दीर्घायुऽत्वाय । चक्षसे ॥६८.२॥
पदार्थ -
(अदितिः) अखण्डित छुरा (श्मश्रु) केश (वपतु) काटे (आपः) जल (वर्चसा) अपनी शोभा से (उन्दन्तु) सींचे। (प्रजापतिः) सन्तान का पालन करनेवाला पिता (दीर्घायुत्वाय) दीर्घ जीवन के लिये और (चक्षसे) दृष्टि बढ़ाने के लिये (चिकित्सतु) [बालक के] रोग की निवृत्ति करे ॥२॥
टिप्पणी -
२−(अदितिः) अ० २।२८।४। दो अवखण्डने−क्तिन्। अखण्डितस्तीक्ष्णधारश्छुरः (श्मश्रु) अ० ५।१९।१४। श्म शरीरम् श्मश्रु लोम, श्मनि श्रितं भवति। निरु० ३।५। शिरः केशम् (वपतु) मुण्डतु (आपः) जलानि (उन्दन्तु) सिञ्चन्तु स्नानेन (वर्चसा) तेजसा (चिकित्सतु) कित रोगापनयने। भिषज्यतु बालकस्य रोगनिवृत्तिं करोतु (प्रजापतिः) सन्तानपालकः पिता (दीर्घायुत्वाय) चिरकालजीवनाय (चक्षसे) अ० १।५।१। दृष्टिवर्धनाय ॥
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान्। तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान् ॥६८.३
पदपाठ-येन । अवपत् । सविता । क्षुरेण । सोमस्य । राज्ञ: । वरुणस्य । विद्वान् । तेन । ब्रह्माण: । वपत । इदम् । अस्य । गोऽमान् । अश्वऽवान् । अयम् । अस्तु । प्रजाऽवान् ॥६८.३॥
पदार्थ -
(येन) जिस विधि के साथ (विद्वान्) अपना कर्म जाननेवाले (सविता) फुरतीले नापित ने (क्षुरेण) छुरा से (सोमस्य) शान्तस्वभाव, (राज्ञः) तेजस्वी, (वरुणस्य) उत्तम स्वभाववाले बालक का (अवपत्) मुण्डन किया है। (तेन) उसी विधि से (ब्रह्माणः) हे ब्राह्मणो ! (अस्य) इस बालक का (इदम्) यह शिर (वपत) मुण्डन कराओ, (अयम्) यह बालक (गोमान्) उत्तम गौओंवाला, (अश्ववान्) उत्तम घोड़ोंवाला और (प्रजावान्) उत्तम सन्तानोंवाला (अस्तु) होवे ॥३॥
टिप्पणी -
३−(येन) यादृशेन विधिना (अवपत्) मुण्डनं कृतवान् (सविता) म० १। स्फूर्तिशीलः (क्षुरेण) अस्त्रेण (सोमस्य) शान्तस्वभावस्य (राज्ञः) तेजस्विनः (वरुणस्य) श्रेष्ठबालकस्य (विद्वान्) स्वकर्मज्ञाता नापितः (तेन) तादृशेन कर्मणा (ब्रह्माणः) हे वेदज्ञातारो ब्राह्मणाः (वपत) मुण्डनं कारयत (इदम्) शिरः (अस्य) माणवकस्य (गोमान्) प्रशस्तगोयुक्तः (अश्ववान्) बहुमूल्यतुरङ्गोपेतः (अयम्) माणवकः (अस्तु) (प्रजावान्) प्रशस्तसन्तानयुक्त ॥
क्षुरिः
समानार्थक:क्षुरिन्,मुण्डिन्,दिवाकीर्ति,नापित, अन्तावसायिन्,ग्रामणी।
2।10।10।1।4
क्षुरी मुण्डी दिवाकीर्ति नापितान्तावसायिनः। निर्णेजकः स्याद्रजकः शौण्डिको मण्डहारकः॥
न स्पृशेदनिमित्ते नखानि स्वानि त्वनातुरः।८७।
गो यद्यपि वैश्य वर्णीय पशु है। परन्तु बकरी से अधिक प्रभाव शाली होने के कारण बकरी को छोड़ ब्राह्मणों ने गाय को भी ब्राह्मण बनाने के विधान कालान्तर में शास्त्रों में जोड़ दिए।।
दास नापित गोपाल कुलमित्रार्धसीरिणः।।
भोज्यान्नाः शूद्रवर्गेमी तथात्मविनिवेदकः।१०५।
"ठाकुर शब्द की उत्पत्ति व विकास-क्रम -
"ठाकुर शब्द का जन्म.ठाकुर एक सम्मान सूचक शब्द है
जो परम्परागतगत रूप में आज राजपूतों का विशेषण बन गया है। यद्यपि ब्राह्मण समाज का भी यह विशेषण रहा है।
संस्कृत शब्द-कोशों में इसे ठाकुर नहीं अपितु "ठक्कुर" लिखा है। जो देव मूर्ति के पर्याय के रूप में है। "ठाकुर" गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल तथा मिथिला के ब्राह्मणों की एक उपाधि है ।
द्विजोपाधिभेदे च । यथा गोविन्द- ठक्कुरःकाव्यप्रदीपकर्त्ता इसका रचना काल चौदहवीं सदी"
अनंत संहिता एक हाल ही में निर्मित ग्रन्थ है, जिसे गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वतीठाकुर के शिष्य अनन्त वासुदेव ने लिखा है। यह एक पंचरात्र आगम माना जाता है , जो गौड़ीय वैष्णवों के बीच सामूहिक रूप से " नारद पंचरात्र" के रूप में जाना जाने वाला पंचरात्र कोष का हिस्सा है । जहां सारस्वत गौड़ीय मठ के श्रील श्रीधर देव गोस्वामी पुष्टि करते हैं कि यह पुस्तक उनके गुरु भाई अनंत वासुदेव द्वारा लिखी गई थी।
श्रीपाद अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु
श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के शिष्यों में व्यापक रूप से सबसे प्रतिभाशाली और निस्संदेह सबसे गूढ़ माना जाता है, अनंत वासुदेव परविद्याभूषण प्रभु का जन्म 1895 में हुआ।
अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त अठारवीं सदी के उत्तरार्द्ध का विवरण है। ये संहिता बाद की है ।
इसलिए विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को ठाकुर कहते हैं ठाकुर नाम की उपाधि ब्राह्मण लेखकों की चौदहवीं सदी से हू प्राप्त होती है।
परन्तु बाद में उच्च वर्ग के क्षत्रिय की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।यद्यपि किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है।
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इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त ठाकुर जी सम्बोधन का उपयोग करते हैं विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी द्वारा हुआ। इसी सम्प्रदाय ने कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि पुराणकारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया है।
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"क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है।
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पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रहवीं सदी में हुआ है । परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द का प्रवेश -तुर्कों के माध्यम से भारतीय धरा पर हुआ था ।
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और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत में आया। बंगाली वैष्णव सन्तों ने भी स्वयं को ठाकुर कहा गया। ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है । न कि जन-जाति विशेष के लिए । कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा प्रमुखत: है।__________________________________
यहां के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है। यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी "हवेली" कहा जाता है।
विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है । कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये। पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी ही कहने का परम्परा है।
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ईरानी ,आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात "तगावोर" शब्द संस्कृत भाषा में तक्वुर: (ठक्कुर) हो गया इस शब्द के जन्म सूत्र- पार्थियन (पहलवी) और आर्मेनियन व तुर्की भाषा में ही प्राप्त हैं ।____________________________________
मध्य-आर्मेनियाई-
"शब्द-व्युत्पत्ति व विकास क्रम-
"यह मध्य आरमेनियन का "टैगवोर" शब्द पुराने अर्मेनियाई के թագաւոր ( t'agawor ) से आया और यह पुरानी आर्मेनियन का "टगावोर शब्द भी पार्थियन में पुरानी आर्मेनियन का ।
संज्ञा
թագւոր • ( t'agwor ), संबंधकारक एकवचन թագւորի ( t'agwori )
"व्युत्पन्न शब्द-
वंशज शब्द-
"सन्दर्भ:-
- लाज़रीन, टी। एस ; एवेटिसियन , एचएम (2009), “ թագւոր ”, मिइन हायरेनी बारान [ डिक्शनरी ऑफ मिडिल अर्मेनियाई ] (अर्मेनियाई में), दूसरा संस्करण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस।
From Parthian [script needed] (tāg), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃 (xʾrtʾg /xārtāg/, “crown of thorns”), ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- स्थग्=संवरणे स्थगति सकता है / छुपाता है।(“to cover”) Related। अरबी देगा(ठगाई -छुपावशब्द संस्कृत स्थग-ठग का विकसित रूप है) to Arabic تَخْت (taḵt तख्त-, “bed, couch,..” भी इसी से सम्बन्धित है।), also an Iranian borrowing; and to Aramaic תָּגָא (tāḡā).
Attested as 𐢞𐢄 (tjतज), “crown”) (Nabatean script) in the 4th-century Namara inscription.[1]
"Pronouciation-
"noun-
تَاج • (tāj) m (plural تِيجَان (tījān)तजन)
- crown
- الصِّحَّةُ تَاجٌ عَلَى رُؤُوسِ الْأَصِحَّاءِ لَا يَرَاهُ إِلَّا الْمَرْضَى.
- aṣ-ṣiḥḥatu tājun ʿalā ruʾūsi l-ʾaṣiḥḥāʾi lā yarāhu ʾillā l-marḍā.
- Health is a crown on the heads of the healthy, that only the ill can see.
Declension
Descendants
- Andalusian Arabic: تَاج[1]
- Maltese: tieġ
- → Chagatai: تاج (taj)
- → English: taj
- → Persian: تاج (tâj)
- → Ottoman Turkish: تاج (tac)
- → Swahili: taji
References-
- ↑ 1.0 1.1 علی صیادانی، وامواژههای فارسی دیوان ابن هانی؛ شاعر شیعه اندلس, پژوهشهای زبانشناسی تطبیقی، ص ۱۵۵
Baluchi-
Etymology-
Noun-
تاج • (táj)
Ottoman Turkish
Etymology-
Noun-
تاج • (tac, taç)
- crown, diadem
- regal power, the position of someone who bears a crown
- (figuratively) reign
- a headdress worn by various orders of dervishes, a mitre
- corolla of a flower
- chapiteau of an alembic
- the تاج التواریخ (tac üt-tevarih, “Crown of Histories”) by Sadeddin, a model for the ornatest style of literature
Descendants-
Persian-
Etymology-
From Arabic تَاج (tāj), from Parthian [Manichaean needed] (tʾg /tāg/, “crown”), attested in 𐫟𐫀𐫡𐫤𐫀𐫃 (xʾrtʾg /xārtāg/, “crown of thorns”), from Old Iranian *tāga-, ultimately from Proto-Indo-European *(s)teg- (“to cover”).
Related to Persian تخت (taxt, “bed, throne”), and akin to Old Armenian թագ (tʿag), Arabic تاج (tāj), and Aramaic תָּגָא (tāḡā), Iranian borrowings.
Pronunciation-
- (Classical Persian): : /tɑːd͡ʒ/
- (Dari): : /tɒːd͡ʒ/
- (Iranian Persian): : /tɒːd͡ʒ/
- (Tajik): : /tɔːd͡ʒ/
Noun
Dari | تاج |
---|---|
Iranian Persian | |
Tajik | тоҷ (toj) |
تاج • (tâj) (plural تاجها (tâj-hâ))
Descendants-
- → Baluchi: تاج (táj)
- → Bashkir: таж (taj)
- → Bengali: তাজ (taj)
- → Chechen: таж (taž)
- → Kazakh: тәж (täj)
- → Punjabi: ਤਾਜ (tāj)
- → Turkish: taç
- → Urdu: تاج (tāj) / Hindi: ताज (tāj)
Urdu-
Etymology-
Noun-
" आद्य-भारोपीय -
"मूल-
*(रों)तेग- (अपूर्ण )
- कवर करने के लिए
-व्युत्पन्न शब्द-
- *(स)तेग-ए-ती ( मूल उपस्थित )
- *stog-éye-ti ( प्रेरक )
- *तेग-दलेह₂
- इटैलिक:
- लैटिन: तेगुला ( आगे के वंशजों के लिए वहां देखें )
- इटैलिक:
- *तेग-मन
- *तेग-नहीं-
- *स्टेग-नो
- प्रोटो-हेलेनिक: *स्टेग्नोस
- प्राचीन यूनानी: στεγανός ( स्टेग्नोस )
- ⇒ अंग्रेजी: स्टेग्नोग्राफ़ी
- प्राचीन यूनानी: στεγανός ( स्टेग्नोस )
- प्रोटो-हेलेनिक: *स्टेग्नोस
- *(रों)टेग-ओएस
- *teg-ur-yo-
- *tég-us (“thick”)
- *tog-eh₂-
- Italic:
- Latin: toga
- Italic:
- *tog-o-
From Old Irish tech, from Proto-Celtic *tegos, from Proto-Indo-European *(s)tég-os (“cover, roof”). Cognate with English thatch.
★Root-
*(s)teg-
"dDerved terms-
- *stog-eh₂
- Proto-Germanic: *stakô (see there for further descendants)
- *stog-nos
- Proto-Germanic: *stakkaz (see there for further descendants)
- *teg-slom
- *teg-nom
★Refereces-
- पोकोर्नी, जूलियस (1959) Indogermanisches etymologisches Wörterbuch [ इंडो-यूरोपियन व्युत्पत्ति संबंधी शब्दकोश ] (जर्मन में), खंड 3, बर्न, मुन्चेन: फ्रेंकी वेरलाग, पृष्ठ 1013
- बेली, एचडब्ल्यू (1979) खोतान साका का शब्दकोश , कैम्ब्रिज, लंदन, न्यूयॉर्क, मेलबोर्न: कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 127
Root-
*(s)teg- (imperfective)
- to cover
Derived terms-
- *(s)tég-e-ti (root present)
- *stog-éye-ti (causative)
- Proto-Indo-Iranian: *stʰagáyati
- Proto-Indo-Aryan: *stʰagáyati
- Sanskrit: स्थगयति"
- Proto-Indo-Aryan: *stʰagáyati
- Proto-Indo-Iranian: *stʰagáyati
- *teg-dʰleh₂
- Italic:
- Latin: tēgula (see there for further descendants)
- Italic:
- *tég-mn̥
- *teg-no-
- *steg-nós
- Proto-Hellenic: *stegnós
- Ancient Greek: στεγανός (steganós)
- ⇒ English: steganography
- Ancient Greek: στεγανός (steganós)
- Proto-Hellenic: *stegnós
- *(s)tég-os
- *teg-ur-yo-
- *tég-us (“thick”)
- *tog-eh₂-
- Italic:
- Latin: toga
- Italic:
- *tog-o-
From Old Irish tech, from Proto-Celtic *tegos, from Proto-Indo-European *(s)tég-os (“cover, roof”). Cognate with English thatch.
Root-
*(s)teg-
Derived terms-
- *stog-eh₂
- Proto-Germanic: *stakô (see there for further descendants)
- *stog-nos
- Proto-Germanic: *stakkaz (see there for further descendants)
- *teg-slom
- *teg-nom
References-
- Pokorny, Julius (1959) Indogermanisches etymologisches Wörterbuch [Indo-European Etymological Dictionary] (in German), volume 3, Bern, München: Francke Verlag, page 1013
- Bailey, H. W. (1979) Dictionary of Khotan Saka, Cambridge, London, New York, Melbourne: Cambridge University press, page 127
पार्थियन भाषा, जिसे अर्ससिड पहलवी और पहलवानीग के नाम से भी जाना जाता है, एक विलुप्त प्राचीन उत्तर पश्चिमी ईरानी भाषा है। यह एक बार पार्थिया में बोली जाती थी, जो वर्तमान उत्तरपूर्वी ईरान और तुर्कमेनिस्तान में स्थित एक क्षेत्र है। परिणाम स्वरूप यह तुर्की और फारसी शब्दों का भी साझा स्रोत है। पार्थियन अर्ससिड पार्थियन साम्राज्य (248 ईसा पूर्व - 224 ईस्वी)तक की राज्य की भाषा थी, साथ ही अर्मेनिया भी अर्सेसिड वंश की नामांकित शाखाओं की भाषा थी। अत: तुर्की उतर-पश्चिमी ईरानी भाषा का अर्मेनियाई लोगों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, जिसकी शब्दावली का एक बड़ा हिस्सा मुख्य रूप से पार्थियन से उधार लेने से बना था; इसकी व्युत्पन्न आकारिकी और वाक्य रचना भी भाषा संपर्क से प्रभावित थी, लेकिन कुछ हद तक। इसमें कई प्राचीन पार्थियन (पहलवी) शब्द संरक्षित किए गए थे, और अब केवल अर्मेनियाई में ही जीवित हैं। ठाकुर शब्द भी यहीं निकल कर भारतीय भाषाओं ठक्कुर; तो कहीं ठाकुर और कहीं ठाकरे तथा टैंगोर रूप में विस्तारित है।
वर्गीकरण-★
टैक्सोनॉमिक(वर्गीकरण ) रूप से, पार्थियन, एक इंडो-यूरोपीय भाषा, उत्तर-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है, जबकि मध्य फ़ारसी दक्षिण-पश्चिमी ईरानी भाषा समूह से संबंधित है। भारतीय भाषाओं का ठाकुर शब्द का जन्मस्थान यही पार्थियन भाषा है । परन्तु इस शब्द का विकास और विस्तार आर्मेनिया और तुर्की और फारसी में होते हुए हुआ अरबी भाषा तक हुआ।
तुर्किस्तान में यह ठाकुर (तेकुर अथवा टेक्फुर ) के रूप में परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका विस्तार शासकीय रूप में हुआ। यद्यपि संस्कृत भाषा में इसके जीवन अवयव उपलब्ध थे। परन्तु जन्म तुर्की आरमेनिया और फारसू भाषाओं में हुआ। यदि इसका जन्म संस्कृत में होता तो यह स्थग= आवरण भर=धारण करने वाला=स्थगभर= से (ठगवर) हो जाता । आवरण धारण करने वाला अर्थ देने वाला शब्द पार्थियन भाषा में टगा (मुकुट) अथवा शिरत्राण तथा वर -धारक का वाचक हो गया है।
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इसके सन्दर्भ में समीपवर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख किया जा सकता है जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे।
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तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन इस समय तक तुर्की में नहीं हो पाया था और मध्य एशिया में वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल जो छोटे ईसाई राजा होते थे। यही स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक जिन्हें तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) कहा जाता था। वहीं से तुर्कों के साथ भारत में आया । तुर्को का उल्लेख पुराण भी करते है।
इस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी।
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तुर्की तैकफुर
ओटोमन तुर्की में है जो تكفور , अरबी से تَكْفُور ( तकफुर ) , मध्य अर्मेनियाई में թագւոր ( tʿagwor ) और , पुराने अर्मेनियाई թագաւոր ( t'agawor , “ राजा ” ) है। ये पार्थियन *टैग(ए) -बार ( “ राजा ” ) विकसित हुआ, शाब्दिक रूप से “ जिसकी ताज पेशी की गयी हो ” ) यह उस समय शासकीय शब्दावली में, अर्मेनियाई साम्राज्य के सिलिसिया के दौरान उधार लिया गया ।
उच्चारण
टेकफर
संज्ञा
टेकफुर ( निश्चित अभियोगात्मक टेकफुरु , बहुवचन टेकफुरलर )
बीजान्टिन युग के दौरान अनातोलिया और थ्रेस में एक ईसाई समान्त का पद नाम
संदर्भ
संपादन करना
Ačaṙean, Hračʿeay (1973), “ թագ ”, Hayeren armatakan baṙaran [ अर्मेनियाई व्युत्पत्ति शब्दकोश ] (अर्मेनियाई में), खंड II, दूसरा संस्करण, मूल 1926-1935 सात-खंड संस्करण का पुनर्मुद्रण, येरेवन: यूनिवर्सिटी प्रेस, पृष्ठ 136
डैंकॉफ़, रॉबर्ट (1995) अर्मेनियाई लोनवर्ड्स इन टर्किश (टरकोलॉजिका; 21), विस्बाडेन: हैरासोवित्ज़ वेरलाग, § 148, पृष्ठ 44
पारलाटिर, इस्माइल एट अल। (1998), “ टेकफुर ”, तुर्की सोज़्लुक में , खंड I, 9वां संस्करण, अंकारा: तुर्क दिल कुरुमु, पृष्ठ 163बी।
Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace.
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Origin and meaning - (व्युत्पत्ति- और अर्थ )
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber". It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and 1291.
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From Middle- Armenian –թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Attested in Ibn Bibi's works......(Classical Persian) /tækˈwuɾ/
(Iranian Persian) /tækˈvoɾ/
تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
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tafur on the Anglo-Norman On-Line Hub
Old Portuguese ( पुर्तगाल की भाषा)
Alternative forms (क्रमिक रूप )
taful
Etymology (शब्द निर्वचन)
From Arabic تَكْفُور (takfūr, “Armenian king”), from Middle Armenian թագւոր (tʿagwor, “king”), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), from Parthian. ( एक ईरानी भाषा का भेद)
Cognate with Old Spanish tafur (Modern tahúr).
Pronunciation
: /ta.ˈfuɾ/
संज्ञा -
tafurm
gambler
13th century, attributed to Alfonso X of Castile, Cantigas de Santa Maria, E codex, cantiga 154 (facsimile):
Como un tafur tirou con hũa baeſta hũa seeta cõtra o ceo con ſanna p̈ q̇ pdera. p̃ q̃ cuidaua q̇ firia a deos o.ſ.M̃.
How a gambler shot, with a crossbow, a bolt at the sky, wrathful because he had lost. Because he wanted it to wound God or Holy Mary.
Derived terms
tafuraria ( तफ़ुरिया )
Descendants
Galician: tafur
Portuguese: taful Alternative forms
թագվոր (tʿagvor) हिन्दी उच्चारण :- टेगुर. बाँग्ला टैंगॉर रूप...
թագուոր (tʿaguor)
Etymology( व्युत्पत्ति)
From Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Noun
թագւոր • (tʿagwor), genitive singular թագւորի(tʿagwori)
king-
bridegroom- (because he carries a crown during the wedding)
Derived terms-
թագուորանալ(tʿaguoranal)
թագւորական(tʿagworakan)
թագւորացեղ(tʿagworacʿeł)
թագվորորդի(tʿagvorordi)
Descendants-
Armenian: թագվոր (tʿagvor)
References
Łazaryan, Ṙ. S.; Avetisyan, H. M. (2009), “թագւոր”, in Miǰin hayereni baṙaran [Dictionary of Middle Armenian] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press !
तेकफुर एक सेलेजुक के उत्तरार्ध में इस्तेमाल किया गया एक शीर्षक था। और ओटोमन (उस्मान) काल के प्रारम्भिक चरण या समय में स्वतंत्रत या अर्ध-स्वतंत्र नाबालिग (वयस्क)ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बायज़ान्टिन राज्यपालों का पदनाम का तक्वुर (ठक्कुर) रूप में उल्लेख किया गया था।
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उत्पत्ति और अर्थ - (व्युत्पत्ति- और अर्थ)
पुरानी अर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर) रूप से मध्य आर्मीनियाई में թագւոր (t'agwor) स्पष्ट भारती ठक्कुर; शब्द से साम्य रखता है।
यह शब्द इतिहासकार इब्न-बीबी के ऐतिहासिक कार्यो में सत्यापित है। ...
(शास्त्रीय फ़ारसी) में / त्केवुर /
(ईरानी फारसी) / टएकवोर/
تکور • (takvor ) (बहुवचन تکورا__n_ हिन्दी उच्चारण थाकुरन) (takvorân) या تکورها (takvor-hâ)
सन्दर्भ:- फ़ारसी
(Dehkhoda )शब्दकोश में उद्धृत-
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taful शब्द भी अरबी में राजा या सामन्त का वाचक है।
व्युत्पत्ति (शब्द निर्वचनता)
पार्थियन से ओल्ड आर्मेनियाई թագաւոր (ट'गवायर= "राजा") और यहाँ से अरबी तक्कीफुर (takfur, "अर्मेनियाई राजा") का वाचक , मध्य अर्मेनियाई թագւոր (t'agwor, "राजा") , ( आर्मेनियाई भाषा एक इरानी भाषा का ही हिस्सा है।)
पुरानी स्पैनिश में तफ़ूर (आधुनिक रूप तहुर) के साथ संज्ञानात्मक रूप दर्शनीय है। -
उच्चारण
: /ta.fuɾ/
संज्ञा -
tafurm
(जुआरी )
13 वीं शताब्दी, कैस्टिले के अल्फोंसो एक्स को जिम्मेदार ठहराया गया इस अर्थ रूप के लिए , सन्दर्भ:- कैंटिगास डी सांता मारिया, ई कोडेक्स, कैंटिगा 154 (प्रतिकृति):
तक्वुर शब्द के अर्थ व्यञ्जकता में एक अहंत्ता पूर्ण भाव ध्वनित है।
व्युत्पन्न शर्तों के अनुसार-
तफ़ूरिया (तफ़ूरिया)
वंशज
गैलिशियन: तफ़ूर
पुर्तगाली: सख्त वैकल्पिक रूप
թագվոր (t'agvor) हिन्दी: - टेगुँरु तथा बाँग्ला- टैंगोर रूप ...
թագուոր (t'aguor)
(व्युत्पत्ति)
ओल्ड आर्मीनियाई թագաւոր (टी'गवायर) से
संज्ञा ।
թագւոր • (t'agwor), एकवचन शब्द (t'agwori)
राजा के अर्थ में।
दुल्हन (क्योंकि वह शादी के दौरान एक मुकुट पहना करती है)
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թագուորանալ (t'aguoranal)
թագւորական (t'agworakan)
թագւորացեղ (t'agworac'eł)
թագվորորդի (t'agvorordi)
वंशज
अर्मेनियाई: թագվոր (t'agvor)
संदर्भ -----
लज़ारियन, Ṙ एस .; Avetisyan, एच.एम. (200 9), "üyühsur", में Miine hayereni baaran
[मध्य अर्मेनियाई के शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), 2 संस्करण, येरेवन: विश्वविद्यालय प्रेस आर्मीनिया !
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टक्फुर (तक्वुर) शब्द एक तुर्की भाषा में रूढ़ माण्डलिक का विशेषण शब्द है.
जिसका अर्थ होता है " किसी विशेष स्थान अथवा मण्डल का मालिक अथवा स्वामी ।
तुर्की भाषा में भी यह ईरानी भाषा से आयात है ।
इसका जडे़ भी वहीं पार्थीयन में है ।
ईरानी संस्कृति में ताजपोशी जिसकी की जाती वही तेकुर अथवा टेक्फुर कहलाता था ।
"A person who wearer of the crown is called Takvor "
यह ताज केवल उचित प्रकार से संरक्षित होता था, केवल बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के अवसर पर भी पहनकर इसका प्रदर्शन होता था।सास्कृति परम्पराओं के निर्वहन करने हेतु बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उत्सवों के उदाहरण- के निमित्त विशेष अवसरों पर इसका प्रदर्शन भी होता था। पुरातात्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों ने ये प्रमाणित कर दिया की मुकुट धारक की उपाधि ठाकुर होती थी।
उसका सिंहासन कक्ष एक उच्चाट्टालिका के रूप में होता था राजा की मुखाकृति को शौर्य शास्त्रीय प्रतीकों द्वारा. सुसज्जित किया जाता था । और
शाही ( राजकीय) पुरालेखों में इस कक्ष को राजा के वंशज व्यक्तियों की धरोहरों से युक्त कर संरक्षित किया जाता था ।
और इसे पॉरफाइरो जेनेटॉस का कक्ष कह कर पुकारा जाता था ।
जिसका अर्थ होता है :- बैंगनी कक्ष से उत्पन्न "
इसे अनवरत रूप से माइकेल तृतीय के पुत्र द्वारा बनवया गया ।
यद्यपि व्युत्पत्ति- की दृष्टि से तक्वुर शब्द अज्ञात है परन्तु आरमेनियन ,अरेबियन (अरब़ी) तथा हिब्रू तथा तुर्की आरमेनियन भाषाओं में ही यह प्रारम्भिक चरण में उपस्थिति है।
जिसकी निकासी ईरानी भाषा पार्थियन से हुई है।
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बताया जा चुका है कि "आरमेनियन" भाषा में यह शब्द "तैगॉर" रूप में वर्णित है ।
जिसका अर्थ होता है :- ताज पहनने वाला ।
The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor. It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor,= "crown-bearer".
The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc.
( History of Asia Minor)📍
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Identityfied of This word with Sanskrit Word Thakkur " ठक्कुर:
It Etymological thesis Explored by Yadav Yogesh kumar Rohi -
began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13 th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace.
It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantino
(मॉद इस्तानबुल " के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य )
Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur,(ठक्कुर )while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit".
In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace, but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus).
Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between
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1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans. 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands.
References--( सन्दर्भ तालिका )
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^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414.
^ a b Çolak 2014, p. 9.
^ Çolak 2014, pp. 13ff..
^ Çolak 2014, p. 19.
^ Çolak 2014, p. 14.
यद्यपि ठाकुर- शीर्षक का मूल अनिश्चित है । यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफोर के माध्यम से यह कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागवर, "मुकुट-धारक" से निकला है। शब्द और इसके विकसित प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि हैं।)
(एशिया माइनर का इतिहास) 📍
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यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिख रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा था , जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )के निरूपण करना से था। यह शब्द प्रायः बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कमांडरों, तथा बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, "टेक्फुर सराय" के मामले में
( देखें--- तुर्की लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य) इस प्रकार इब्न बीबी ने भी सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को (टेक्विर) के रूप में संदर्भित किया है।
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सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ भारत में आकर बसीं। इससे पहले यहाँ से पश्चिम में भारोपीय भाषी (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था। विदित हो कि तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिल चुके हैं।अत: यहीं
हिट्टी साम्राज्य की स्थापना (१९००-१३००) ईसा पूर्व में हुई थी। ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे । १२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
१२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन भी आरम्भ हो गया।
छठी-सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ ई० पूर्व में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया। बस !
ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक व्याप्त है ।
कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर का लक़ब उपाधि(title) लगाने लग गये थे ।
भारत में तुर्की शासनकाल में तुर्की शब्दावली से भारतीय शासन शब्दावली में यह तक्वोर शब्द ठक्कुर: ठाकुर शब्द बनकर समाहित हो गया ।
यहीं से भारतीय राजपूतों ने इसे अपने शाही रुतवे के लिए के ग्रहण किया ।
ईसापूर्व १३० ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था । ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।
सन्त शब्द भी भारोपीय मूल से सम्बद्ध है ।
यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो ।
छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन।
इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
विशेष- कोन्स्तान्तीनोपोलिस, बोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमन, बाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया।
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वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे। जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे। नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि (title) तेगॉर थी भारत में लेकर आये। और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि नामान्तर भेद से प्रचलित थी।
बाँग्ला देश में आज भी टेंगौर शब्द के रूप में केवल ब्राह्मणों का वाचक है । मिथिला में भी ठाकुर ब्राह्मण समाज की उपाधि है।
यद्यपि ठाकरे शब्द महाराष्ट्र के कायस्थों का वाचक है, जिनके पूर्वजों ने कभी मगध अर्थात् वर्तमान विहार से ही प्रस्थान किया था ।
यद्यपि इस ठाकुर शब्द का साम्य तमिल शब्द (तेगुँर )से भी प्रस्तावित हैै ।
तमिल की एक बलूच शाखा है बलूच ईरानी और मंगोलों के सानिध्य में भी रहे है । जो वर्तमान बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषी है ।
संस्कृत स्था धातु का सम्बन्ध भारोपीयमूल के स्था (Sta )धातु से है ।
संस्कृत भाषा में इस धातु प्रयोग --प्रथम पुरुष एक वचन का रूप तिष्ठति है ,
तथा ईरानी असुर संस्कृति के उपासक आर्यों की भाषा में हिस्तेति तथा ग्रीक भाषा में हिष्टेमि ( Histemi ) लैटिन -Sistere ।
तथा रूसी परिवार की लिथुअॉनियन भाषा में -Stojus जर्मन भाषा (Stall) गॉथिक- Standan ।
स्थग् :--- हिन्दी रूप ढ़कना, आच्छादित करना आदि। भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व-आग्रहों (pre solicitations )से ग्रसित होकर ही लिखा गया । आज आवश्यकता है इसके यथा स्थिति पर पुनर्लेखन की ।
"This is a research -Thesis whose overall facts is explored "by Yadav Yogesh Kumar 'Rohi"
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०)
अनुवाद-
उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । मामहे ॥१०।।
ऋग्वेद ऋचाओं का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है ।
इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है ।
इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।
देखें नवम् ऋचा-
न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् ।सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥९।।
मूलार्थ- नहीं उनको व्याप्त करता है कोई " स्वर्ग के समान सूर्य से आरम्भ होकर सावर्णि की दक्षिणा सिन्धु के समान विस्तारित होती है।९।
पदपाठ-
न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।
“तं =सावर्णिं मनुं
“कश्चन =कश्चिदपि
“आरभम्= आरब्धुं स्वकर्मणा
“न “अश्नोति =न व्याप्नोति ।
। यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।
“दिव इव= द्युलोकस्य
“सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य
“सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा
“सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां
“पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥
सायण का अर्थ-
कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।
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उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।
और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:
Sanskrit dic-दिश्- "point out, show;-इंगित करना, दिखाना;
" Greek deiknynai (डिक्निनै) "to show, to prove," dike "custom, usage;
" Latin dicere डाइसेरे "speak, tell, say," digitus "finger,"
Old High German zeigon,
German zeigen "to show,"
Old English teon "to accuse," tæcan उपदेश- "to teach."
यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है:
संस्कृत दिक- "पॉइंट आउट, शो;
" ग्रीक deiknynai "दिखाने के लिए, साबित करने के लिए," डाइक "कस्टम, उपयोग;
"लैटिन डाइसेरे" बोलो, बताओ, कहो," डिजिटस "उंगली,"
ओल्ड हाई जर्मन ज़ीगॉन,
जर्मन ज़ीजेन "दिखाने के लिए,"
पुरानी अंग्रेज़ी तेन "आरोप लगाने के लिए," tæcan "सिखाने के लिए।"
सायण का अन्तर्विरोधी भाष्य-
१-“उत= अपि च
२"स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ
३“गोपरीणसा =गोपरीणसौ -गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ
४{“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् }स्थितौ तेनाधिष्ठितौ
५-“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी
६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-
७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।
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सायण का अर्थ-
और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०
उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।
सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसीकाल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -
यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।
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य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु।
वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः॥२७।।
ऋग्वेद ८/२४/२७/
पदपाठ-
यः।ऋक्षात् ।अंहसः।मुचत्।यः।वा।आर्यात्।सप्त। सिन्धुषु।वधः। दासस्य।तुविऽनृम्ण।नीनमः॥२७।।
पूर्वोऽर्धर्चः= परोक्षकृतः।
“यः= इन्द्रः “ऋक्षात् । ऋन् =मनुष्यान् क्षणोति । क्षणोतेरौणादिको डप्रत्ययः । तस्मात् रक्षसो जातात्
“अंहसः= पापरूपादुपद्रवात्
"मुचत्= मुञ्चति । राक्षस एनं न बाधते किं पुनस्तं हन्तीत्यर्थः । अपि च
“यः= इन्द्रः “सप्त “सिन्धुषु गङ्गाद्यासु नदीषु । यद्वा । सप्त सर्पणशीलासु सिन्धुषु । तत्कूलेष्वित्यर्थः ।
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गङ्गायां घोष इतिवत् ।
तेषु वर्तमानानां आभीराणां ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“ (परन्तु सायण ने घोष का नया अर्थ स्त्रोता कर दिया है) – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पा. सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )
“वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥
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सम्यग्भाष्य-
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं।
५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)
आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् " | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमपुरुषः | महते | महेते | महन्ते |
मध्यमपुरुषः | महसे | महेथे | महध्वे |
उत्तमपुरुषः | महे | महावहे | महामहे |
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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)
कः। नु। अत्र॑। म॒रु॒तः॒। म॒म॒हे॒। वः॒। प्र। या॒त॒न॒। सखी॒न्। अच्छ॑। स॒खा॒यः॒। मन्मा॑नि। चि॒त्राः॒। अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः। ए॒षाम्। भू॒त॒। नवे॑दाः। मे॒। ऋ॒ताना॑म् ॥ १.१६५.१३
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हे मरुतः युष्मान् अत्र लोके “को "नु खलु मर्त्यः
(मामहे -पूजयामि)" । हे "सखायः सर्वस्य सखिवत्प्रियकारिणः सन्तः "सखीन् हविष्प्रदानेन सखिभूतान् यजमानान् "अच्छ आभिमुख्येन प्राप्तुं “प्र “यातन गच्छत । हे "चित्राः चायनीयाः यूयं "मन्मानि मननीयानि धनानि "अपिवातयन्तः संपूर्णं प्रापयन्तः "भूत भवत । किंच "मे मदीयानाम् "एषाम् “ऋतानाम् अवितथानां “नवेदाः भूत ज्ञातारो भवत ।।
हे (मरुतः) ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः) चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥
दास्(भ्वादिः) |
परस्मैपदी |
लट्(वर्तमान) | |||
एकवचनम् | द्विवचनम् | बहुवचनम् | |
प्रथमपुरुषः | दासति | दासतः | दासन्ति |
मध्यमपुरुषः | दाससि | दासथः | दासथ |
उत्तमपुरुषः | दासामि | दासावः | दासामः |
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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१॥
अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥२॥
यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥
वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् ।
उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥४॥
महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय देयाम् ।
न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥५॥
वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः ।
माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे ॥६॥
क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः ।
अलर्षि युध्म खजकृत्पुरंदर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥७॥
प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरंदरः ।
याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद्वज्री भिनत्पुरः ॥८॥
ये ते सन्ति दशग्विनः शतिनो ये सहस्रिणः ।
अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि ॥९॥
आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।
इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥१०॥
यत्तुदत्सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना ।
वहत्कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः त्सरद्गन्धर्वमस्तृतम् ॥११॥
य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥१२॥
मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव ।
वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥१३॥
अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ।
सकृत्सु ते महता शूर राधसा अनु स्तोमं मुदीमहि ॥१४॥
यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।
तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥१५॥
आ त्वद्य सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि ।
उपस्तुतिर्मघोनां प्र त्वावत्वधा ते वश्मि सुष्टुतिम् ॥१६॥
सोता हि सोममद्रिभिरेमेनमप्सु धावत ।
गव्या वस्त्रेव वासयन्त इन्नरो निर्धुक्षन्वक्षणाभ्यः ॥१७॥
अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि ।
अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥१८॥
इन्द्राय सु मदिन्तमं सोमं सोता वरेण्यम् ।
शक्र एणं पीपयद्विश्वया धिया हिन्वानं न वाजयुम् ॥१९॥
मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा ।
भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥२०॥
मदेनेषितं मदमुग्रमुग्रेण शवसा ।
विश्वेषां तरुतारं मदच्युतं मदे हि ष्मा ददाति नः ॥२१॥
शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे ।
स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥२२॥
एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा ।
सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥२३॥
आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४॥
आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या ।
शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥२५॥
पिबा त्वस्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव ।
परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥२६॥
य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः ।
गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥२७॥
त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ॥२८॥
मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः ।
मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥२९॥
स्तुहि स्तुहीदेते घा ते मंहिष्ठासो मघोनाम् ।
निन्दिताश्वः प्रपथी परमज्या मघस्य मेध्यातिथे ॥३०॥
____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् । उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वः पशुः ॥३१॥
(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥
॥अथाष्टमं मण्डलम्॥
अष्टमे मण्डले दशानुवाकाः । तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सूक्तानि । तेषु ‘मा चिदन्यत्' इति चतुस्त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अत्रानुक्रम्यते–' मा चिच्चतुस्त्रिंशन्मेधातिथिमेध्यातिथी ऐन्द्रं बार्हतं द्विप्रगाथादि द्वित्रिष्टुबन्तमाद्यं द्वृचं प्रगाथोऽपश्यत्स घौरः सन्भ्रातुः कण्वस्य पुत्रतामगात्(बृहद्देवता ६.३५ ) प्लायोगिश्चासङ्गो यः स्त्री भूत्वा पुमानभूत्स मेध्यातिथये दानं दत्त्वा स्तुहि स्तुहीति चतसृभिरात्मानं तुष्टाव पत्नी चास्याङ्गिरसी शश्वती पुंस्त्वमुपलभ्यैनं प्रीतान्त्यया तुष्टाव ' इति ।
अस्यायमर्थः । अस्य सूक्तस्य मेधातिथिमेध्यातिथिनामानौ द्वावृषी तौ च कण्वगोत्रौ ।
ऋषिश्चानुक्तगोत्रः प्राङ्मत्स्यात् काण्वः' इति परिभाषितत्वात् ।
आद्यस्य द्वृचस्य तु घोरस्य पुत्रः स्वकीयभ्रातुः कण्वस्य पुत्रतां प्राप्तत्वात् काण्वः प्रगाथाख्य ऋषिः ।
प्लयोगनाम्नो राज्ञः पुत्र आसङ्गाभिधानो राजा देवशापात् स्त्रीत्वमनुभूय पश्चात्तपोबलेन मेधातिथेः प्रसादात् पुमान् भूत्वा तस्मै बहु धनं दत्त्वा स्वकीयमन्तरात्मानं दत्तदानं स्तुहि स्तुहीत्यादिभिश्चतसृभिर्ऋग्भिरस्तौत् । अतस्तासामासङ्गाख्यो राजा ऋषिः ।
अस्यासङ्गस्य भार्याङ्गिरसः सुता शश्वत्याख्या भर्तुः पुंस्त्वमुपलभ्य प्रीता सती स्वभर्तारम् ‘अन्वस्य स्थूरम् ' इत्यनया स्तुतवती ।
अतस्तस्या ऋचः शश्वत्यृषिका । अन्त्ये द्वे त्रिष्टुभौ द्वितीयाचतुर्थ्यौ सतोबृहत्यौ शिष्टा बृहत्यः । कृत्स्नस्य सूक्तस्येन्द्रो देवता ।
‘ स्तुहि स्तुहि' इत्याद्याश्चतस्र आत्मकृतस्य दानस्य स्तूयमानत्वात्तद्देवताकाः । ‘ अन्वस्य ' इत्यस्या आसङ्गाख्यो राजा देवता ।
'या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।
तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं--- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐ. आ. ५. २. ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्व. श्रौ. ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति ।
उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति
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मा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखायः । मा । रिषण्यत ।इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सचा । सुते । मुहुः । उक्था । च । शंसत ॥१
हे “सखायः समानख्यानाः स्तोतारः इन्द्रस्तोत्रात् “अन्यत् स्तोत्रं “मा “चित् "वि “शंसत मैवोच्चारयत । “मा “रिषण्यत मा हिंसितारो भवत । अन्यदीयस्तोत्रोच्चारणेन वृथोपक्षीणा मा भवत । "सुते अभिषुते सोमे “वृषणं कामानां वर्षितारम् “इन्द्रमित् इन्द्रमेव हे प्रस्तोत्रादयः “सचा सह संघीभूय “स्तोत स्तुत । हे प्रशास्त्रादयः “उक्था “च उक्थानि शस्त्राणि चेन्द्रविषयाणि यूयं “मुहुः पुनःपुनः “शंसत ॥
पदपाठ-
अवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ।विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकरम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥२
“वृषभं “यथा वृषभमिव “अवक्रक्षिणम् अवकर्षणशीलं शत्रूणां हिंसितारम् “अजुरं जरारहितमहिंसितं वा “गां “न गामिव वृषमिव “चर्षणीसहं चर्षणीनां मनुष्याणां शत्रुभूतानामभिभवितारं “विद्वेषणं विद्वेष्टारं शत्रूणां “संवनना संवननं सम्यक्संभजनीयं स्तोतृभिः “उभयंकरं निग्रहानुग्रहयोरुभयोः कर्तारं “मंहिष्ठं दातृतमम् “उभयाविनं दिव्यपार्थिवलक्षणेनोभयविधधनेनोपेतम् । यद्वा । स्थावरजङ्गमरूपेण द्विप्रकारेण रक्षितव्येनोपेतम् । अथवोभयविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्चोपेतम् । एवंविधमिन्द्रमित् स्तोतेत्यन्वयः ॥
चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ‘ यच्चिद्धि त्वा ' इति प्रशास्तुर्वैकल्पिकोऽनुरूपः प्रगाथः । सूत्रं तूदाहृतम् ।।
पदपाठ-
यत् । चित् । हि । त्वा । जनाः । इमे । नाना । हवन्ते । ऊतये ।अस्माकम् । ब्रह्म । इदम् । इन्द्र । भूतु । ते । ।अहा। विश्वा । च । वर्धनम् ॥३।
“इमे दृश्यमानाः सर्वे “जनाः हे इन्द्र त्वाम् “ऊतये रक्षणाय तर्पणाय वा “नाना पृथक्पृथक् “यच्चित् यद्यपि “हवन्ते स्तुवन्ति । “हि इति पूरणः । तथापि “अस्माकम् “इदं “ब्रह्म स्तोत्रमेव हे “इन्द्र “ते तव “वर्धनं वर्धकं “भूतु भवतु । न केवलमिदानीमेव अपि तु “विश्वा “अहा सर्वाण्यहानि सर्वेष्वहःसु “च इदमेव स्तोत्रं त्वां वर्धयत्वित्यर्थः ॥
वि । तर्तूर्यन्ते । मघऽवन् । विपःऽचितः । अर्यः । विपः । जनानाम् ।उप । क्रमस्व । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजम् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥४
हे “मघवन् धनवन्निन्द्र “विपश्चितः विद्वांसस्त्वदीयाः स्तोतारः “अर्यः अभिगन्तारः “जनानां शत्रूणां “विपः वेपयितारः सन्तः “वि “तर्तूर्यन्ते भृशमापदो वितरन्ति अतिक्रामन्ति । तादृशस्त्वम् “उप “क्रमस्व उपगच्छास्मान् । “पुरुरूपं बहुरूपम् नेदिष्ठम् अन्तिकतमं “वाजम् अन्नम् “ऊतये तर्पणाय “आ “भर अस्मभ्यम् ॥
महे । चन । त्वाम् । अद्रिऽवः । परा । शुल्काय । देयाम् ।न । सहस्राय । न । अयुताय । वज्रिऽवः । न । शताय । शतऽमघ ॥५
हे “अद्रिवः वज्रवन्निन्द्र “त्वाम् । “चन इति निपातद्वयसमुदायो विभज्य योजनीयः । “महे च महतेऽपि “शुल्काय मूल्याय न “परा “देयां न विक्रीणानि । हे “वज्रिवः वज्रहस्तेन्द्र “सहस्राय सहस्रसंख्याय च धनाय “न परा देयाम् । “अयुताय दशसहस्राय च शुल्काय “न परा देयाम् । हे “शतामघ बहुधनेन्द्र “शताय । बहुनामैतत् । अपरिमिताय च धनाय “न परा देयां न विक्रीणानि । उक्तसंख्याद्धनादपि त्वं मम प्रियतमोऽसीत्यर्थः ॥ ॥ १० ॥
वस्यान् । इन्द्र । असि । मे । पितुः । उत । भ्रातुः । अभुञ्जतः ।माता । च । मे । छदयथः । समा । वसो इति । वसुऽत्वनाय । राधसे ॥६
हे “इन्द्र त्वं “मे मदीयात् “पितुः जनकादपि “वस्यान् वसीयान् वसुमत्तरः “असि । "उत अपि च “अभुञ्जतः अपालयतो मम “भ्रातुः अपि वसीयस्त्वमधिकोऽसि । हे “वसो वासकेन्द्र “मे मदीया “माता “च त्वं च “समा समौ समानौ सन्तौ । “पुमान् स्त्रिया' (पा. सू. १. २. ६७ ) इति पुंसः शेषः। “छदयथः । अर्चतिकर्मायम्। मां पूजितं कुरुथः । किमर्थम् । “वसुत्वनाय व्यापनाय "राधसे धनाय च । उभयोर्लाभायेत्यर्थः ॥
क्व । इयथ । क्व । इत् । असि । पुरुऽत्रा । चित् । हि । ते । मनः ।अलर्षि । युध्म । खजऽकृत् । पुरम्ऽदर । प्र । गायत्राः । अगासिषुः ॥७
हे इन्द्र “क्व कुत्र देशे "इयथ गतवानसि पुरा । "क्वेत् कुत्र च “असि भवसि । इदानीं वर्तसे । “पुरुत्रा “चिद्धि बहुषु हि यजमानेषु “ते त्वदीयं “मनः संचरति । हे “युध्म युद्धकुशल “खजकृत् युद्धस्य कर्तर्हे “पुरंदर आसुरीणां पुरां दारयितर्हे इन्द्र “अलर्षि आगच्छ । “गायत्राः गानकुशला अस्मदीयाः स्तोतारः “प्र “अगासिषुः प्रगायन्ति स्तुवन्ति । ‘ अलर्षि' इत्येतत् दाधर्त्यादौ (पा. सू. ७. ४. ६५) इयर्तेर्निपात्यते ॥
प्र । अस्मै । गायत्रम् । अर्चत । ववातुः । यः । पुरम्ऽदरः ।याभिः । काण्वस्य । उप । बर्हिः । आऽसदम् । यासत् । वज्री । भिनत् । पुरः ॥८
“अस्मै इन्द्राय “गायत्रं गातव्यं साम गायत्रसंज्ञं वा “प्र “अर्चत प्रगायत । “पुरंदरः पुरां दारयिता "यः इन्द्रः “वावातुः वननीयः संभजनीयः । यद्वा वावातुः संभक्तुः स्तोतुः य इन्द्रः पुरंदरः शत्रुपुराणां दारयिता। “याभिः ऋग्भिः “काण्वस्य कण्वपुत्रस्य मेधातिथेर्मेध्यातिथेश्च “बर्हिः यज्ञम् “उप “आसदम् उपासत्तुमुपगन्तुं “यासत् गच्छेत् "वज्री वज्रयुक्तः सन् । याभिश्च ऋग्भिः स्तूयमानः सन् “पुरः शात्रवीः “भिनत् भिन्द्यात् । तास्वृक्षु गायत्रं साम गायतेत्यर्थः ॥
ये । ते । सन्ति । दशऽग्विनः । शतिनः । ये । सहस्रिणः ।अश्वासः । ये । ते । वृषणः । रघुऽद्रुवः । तेभिः । नः । तूयम् । आ । गहि ॥९
हे इन्द्र "दशग्विनः दशयोजनगामिनः “ये अश्वाः "ते तव “सन्ति विद्यन्ते । “ये चान्ये “शतिनः शतसंख्याकाः “सहस्रिणः सहस्रसंख्याकाः सन्ति । “ये “ते त्वदीयाः “अश्वासः अश्वाः “वृषणः सेचनसमर्था युवानः “रघुद्रुवः शीघ्रगामिनश्च । “तेभिः तैः सर्वैरश्वैः “नः अस्मान् "तूयं क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ ॥
आ । तु । अद्य । सबःऽदुघाम् । हुवे । गायत्रऽवेपसम् ।इन्द्रम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । अन्याम् । इषम् । उरुऽधाराम् । अरम्ऽकृतम् ॥१०
अनयेन्द्रं धेनुरूपेण वृष्टिरूपेण च निरूपयन् स्तौति । “अद्य इदानीं “धेनुं धेनुरूपम् “इन्द्रं “तु क्षिप्रम् “आ “हुवे आह्वये। कीदृशीं धेनुम् । "सबर्दुघां पयसो दोग्ध्रीं “गायत्रवेपसं प्रशस्यवेगां “सुदुघां सुखेन दोग्धुं शक्याम् । “अन्याम् उक्तविलक्षणाम् “उरुधारां बहूदकधाराम् “इषम् एषणीयां वृष्टिम् । एतद्रूपेण वर्तमानम् "अरंकृतम् अलंकर्तारं पर्याप्तकारिणं वेन्द्रं चाह्वये ॥ ॥ ११ ॥
यत् । तुदत् । सूरः । एतशम् । वङ्कू इति । वातस्य । पर्णिना ।वहत् । कुत्सम् । आर्जुनेयम् । शतऽक्रतुः । त्सरत् । गन्धर्वम् । अस्तृतम् ॥११
“सूरः सूर्यः “एतशम् एतत्संज्ञं राजर्षिं “यत् यदा “तुदत् अव्यथयत् तदानीमेतशं रक्षितुं “वङ्कू वक्रगामिनौ “वातस्य वायोः सदृशौ “पर्णिना पर्णिनौ पतनवन्तावीदृशावश्वौ “शतक्रतुः बहुविधकर्मेन्द्रः "आर्जुनेयम् अर्जुन्याः पुत्रं “कुत्सम् ऋषिं “वहत् अवहत् अनयत् । कुत्सेन सार्धं समानं रथमारुह्यैतशरक्षणायागच्छदित्यर्थः। तथा च निगमान्तरं- प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः' (ऋ. सं. १. ६१. १५) इति । “गन्धर्वं गवां रश्मीनां धर्तारं सूर्यम् “अस्तृतं केनाप्यहिंसितं “त्सरत् अत्सरत् । छद्मगत्यागच्छत् । सूर्येण योद्धं गतवानित्यर्थः ॥
यः । ऋते । चित् । अभिऽश्रिषः । पुरा । जत्रुऽभ्यः । आऽतृदः ।सम्ऽधाता । सम्ऽधिम् । मघऽवा । पुरुऽवसुः । इष्कर्ता । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥१२
"यः इन्द्रः “अभिश्रिषः अभिश्लिषोऽभिश्लेषणात् संधानद्रव्यात् "ऋते “चित् विनापि “जत्रुभ्यः ग्रीवाभ्यः सकाशात् "आतृदः आतर्दनात् आ रुधिरनिःस्रवणात् "पुरा पूर्वमेव “संधिं संधातव्यं तं “संधाता संयोजयिता भवति “मघवा धनवान् “पुरूवसुः बहुधनः स इन्द्रः “विह्रुतं विच्छिन्नं तं “पुनः “इष्कर्ता संस्कर्ता भवति ।।
मा । भूम । निष्ट्याःऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणाःऽइव ।वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽवः । दुरोषासः । अमन्महि ॥१३
हे "इन्द्र “त्वत् त्वत्तः त्वत्प्रसादात् "निष्ट्याइव। नीचैर्भूता हीना निष्ट्याः । त इव वयं “मा “भूम । तथा “अरणाइव अरमणा दुःखिन इव वयं मा भूम । अपि च "प्रजहितानि प्रक्षीणानि शाखादिभिर्वियुक्तानि “वनानि “न वृक्षजातानीव वयं पुत्रादिभिर्वियुक्ता मा भूम । हे "अद्रिवः वज़वन्निन्द्र “दुरोषासः ओषितुमन्यैर्दग्धुमशक्या दुर्येषु गृहेषु निवसन्तो वा वयम् "अमन्महि त्वां स्तुमः॥
अमन्महि । इत् । अनाशवः । अनुग्रासः । च । वृत्रऽहन् ।सकृत् । सु । ते । महता । शूर । राधसा । अनु । स्तोमम् । मुदीमहि ॥१४
हे “वृत्रहन् वृत्रस्यासुरस्य हन्तरिन्द्र “अनाशवः अशीघ्रा अत्वरमाणाः “अनुग्रासः अनुग्रा अनुद्गूर्णाः “च सन्तो वयं भक्तिश्रद्धापुरःसरं शनैस्त्वाम् "अमन्महीत् स्तुम एव । हे “शूर वीर्यवन्निन्द्र “ते त्वदर्थं “सकृत् एकवारमपि “महता प्रभूतेन “राधसा धनेन हविर्लक्षणेन सह “सु शोभनं “स्तोमं स्तोत्रम् “अनु “मुदीमहि अनुमोदेमहि । अनुब्रवामेत्यर्थः ॥
यदि । स्तोमम् । मम । श्रवत् । अस्माकम् । इन्द्रम् । इन्दवः ।तिरः । पवित्रम् । ससृऽवांसः । आशवः । मन्दन्तु । तुग्र्यऽवृधः ॥१५
अयमिन्द्रः “मम मदीयं स्तोत्रं “यदि “श्रवत् शृणुयात् तदानीं तम् “इन्द्रम् “अस्माकम् अस्मदीयाः “इन्दवः सोमाः "मदन्तु मादयन्तु हर्षयन्तु । कीदृशाः सोमाः। “तिरः तिर्यगवस्थितं “पवित्रं पवनसाधनं दशापवित्रं “ससृवांसः प्राप्तवन्तः । दशापवित्रेण पूता इत्यर्थः । “आशवः शीघ्रं मदजनकाः "तुग्र्यावृधः तुग्र्याभिर्वसतीवर्येकधनाख्याभिरद्भिर्वर्धमानाः ॥ ॥ १२ ॥
आ । तु । अद्य । सधऽस्तुतिम् । ववातुः । सख्युः । आ । गहि ।उपऽस्तुतिः । मघोनाम् । प्र । त्वा । अवतु । अध । ते । वश्मि । सुऽस्तुतिम् ॥१६
हे इन्द्र “वावातुः संभक्तुस्त्वां सेवमानस्य “सख्युः स्तोतुः “सधस्तुतिम् अन्यैर्ऋत्विग्भिः सह क्रियमाणां स्तुतिम् “अद्य इदानीं “तु क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ । “मघोनां हविष्मतामन्येषामपि यजमानानाम् “उपस्तुतिः स्तोत्रं “त्वा त्वां “प्र “अवतु प्रगच्छतु प्रतर्पयतु वा। “अध अधुना “सुष्टुतिं त्वद्विषयां शोभनां स्तुतिमहमपि “वश्मि कामये ।।
सोत । हि । सोमम् । अद्रिऽभिः । आ । ईम् । एनम् । अप्ऽसु । धावत ।गव्या । वस्त्राऽइव । वासयन्तः । इत् । नरः । निः । धुक्षन् । वक्षणाभ्यः ॥१७
हे अध्वर्यवः “अद्रिभिः ग्रावभिः “सोमं “सोत । हिरवधारणे । अभिषुणुतैव। “एनम् इमम् “अप्सु वसतीवरीषु “आ “धावत । अस्य सोमस्य धवनं कुरुत । अदाभ्यग्रहे हिमादासुत इत्यादिभिर्मन्त्रैर्वसतीवरीष्वाधवनं सोमस्य क्रियते । तत् कुरुतेत्यर्थः । “गव्या गवि भवानि “वस्त्रेव वस्त्राण्याच्छादकानि चर्माणीव मेघान “वासयन्त “इत् आच्छादयन्त एव “नरः नेतार इन्द्रस्यानुचरा मरुतः “वक्षणाभ्यः नदीभ्यो नदीनामर्थाय “निर्धुक्षन् उदकानि निर्दुहन्ति क्षारयन्ति । यत एवमतः कारणादिन्द्रयागाय सोममद्रिभिरभिषुणुतैव । मोदासिषतेत्यर्थः ॥
अध । ज्मः । अध । वा । दिवः । बृहतः । रोचनात् । अधि ।अया । वर्धस्व । तन्वा । गिरा । मम । आ । जाता । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । पृण ॥१८
हे इन्द्र “अध अधुना “ज्मः । जमन्ति गच्छन्त्यस्यामिति ज्मा पृथिवी । तस्याः सकाशात् “अध “वा अपि वा “दिवः अन्तरिक्षात् "बृहतः महतः “रोचनात् नक्षत्रैर्दीप्यमानात् स्वर्गाद्वा आगत्य । अधिः पञ्चम्यर्थानुवादी । “अया अनया “तन्वा ततया विस्तृतया “मम मदीयया “गिरा स्तुत्या “वर्धस्व वृद्धो भव । हे “सुक्रतो शोभनकर्मवन्निन्द्र "जाता जातानस्मदीयान् जनान् “आ “पृण अभिलषितैः फलैरापूरय ॥
इन्द्राय । सु । मदिन्ऽतमम् । सोमम् । सोत । वरेण्यम् ।शक्रः । एनम् । पीपयत् । विश्वया । धिया । हिन्वानम् । न । वाजऽयुम् ॥१९
हे अध्वर्यवः “इन्द्राय इन्द्रार्थं “मदिन्तमं मादयितृतमं “वरेण्यं वरणीयं संभजनीयं “सोमं “सु “सोत अभिषुणुत । कुत इत्यत आह । “शक्रः इन्द्रः “विश्वया “धिया सर्वया क्रिययाग्निष्टोमादिलक्षणया “हिन्वानं प्रीणयन्तं “वाजयुम् अन्नमात्मन इच्छन्तम् “एनं यजमानम् । “न इति संप्रत्यर्थीयः । संप्रति “पीपयत् वर्धयति । अतः कारणात्तस्मा इन्द्राय सोमं सुनुतेत्यर्थः ॥
मा । त्वा । सोमस्य । गल्दया । सदा । याचन् । अहम् । गिरा ।भूर्णिम् । मृगम् । न । सवनेषु । चुक्रुधम् । कः । ईशानम् । न । याचिषत् ॥२०
हे इन्द्र त्वां “सवनेषु यज्ञेषु “सोमस्य “गल्दया गालनेनास्रावणेन “गिरा स्तुत्या च युक्तः “अहं “सदा सर्वदा “याचन् याचमानः सन् “मा “चुक्रुधं मा क्रोधयानि । बहुशो याच्यमाने त्वयि क्रोधो जायते तं सोमस्य गालनेन स्तुत्या चापनयामीत्यर्थः । कीदृशं त्वाम् । “भूर्णिं भर्तारं “मृगं “न सिंहमिव भीमम् । स्वामिन इन्द्रस्य याचने लौकिकन्यायं दर्शयति । लोके “कः वा पुरुषः “ईशानम् ईश्वरं स्वामिनं “न “याचिषत् न याचेत । सर्व एव हि याचते । अतोऽहमपि त्वां स्वामिनं याच इति भावः ॥ ॥ १३ ॥
मदेन । इषितम् । मदम् । उग्रम् । उग्रेण । शवसा
विश्वेषाम् । तरुतारम् । मदऽच्युतम् । मदे । हि । स्म । ददाति । नः ॥२१।
“मदेन मादयित्रा स्तोत्रा “इषितं प्रेषितं “मदं मदकरं सोमम् “उग्रम् उद्गूर्णं रसम् “उग्रेण उद्गूर्णेनाधिकेन “शवसा बलेन युक्त इन्द्रः पिबत्विति शेषः । पीत्वा च "विश्वेषां सर्वेषां शत्रूणां “तरुतारं तरीतारं जेतारं “मदच्युतं मदस्य शत्रूणां गर्वस्य च्यावयितारं पुत्रं “मदे सोमपानेन जनिते हर्षे सति “नः अस्मभ्यं “ददाति “हि “ष्म ददाति खलु । अतः सोमं पिबत्वित्यर्थः ॥
शेवारे । वार्या । पुरु । देवः । मर्ताय । दाशुषे ।सः । सुन्वते । च । स्तुवते । च । रासते । विश्वऽगूर्तः । अरिऽस्तुतः ॥२२
“शेवारे । शेवं सुखम् । तस्य गमके यज्ञे “दाशुषे चरुपुरोडाशादीनि दत्तवते यजमानाय “पुरु पुरूणि बहूनि वार्याणि वरणीयानि धनानि “देवः दानादिगुणयुक्त इन्द्रः “रासते ददाति । “सः एव “सुन्वते “च सोमाभिषवं कुर्वते च “स्तुवते “च स्तोत्रं कुर्वते च धनानि रासते । कीदृशः सः । “विश्वगूर्तः विश्वेषु सर्वेषु कार्येषुद्यतः स्वतः प्रवृत्तः “अरिष्टुतः अरिभिः प्रेरयितृभिः प्रशस्तः ॥
आ । इन्द्र । याहि । मत्स्व । चित्रेण । देव । राधसा सरः । न । प्रासि । उदरम् । सपीतिऽभिः । आ । सोमेभिः । उरु । स्फिरम् ॥२३
हे "इन्द्र “आ “याहि आगच्छ । हे “देव द्योतमान “चित्रेण दर्शनीयेन "राधसा धनेन सोमलक्षणेन “मत्स्व माद्य । “सपीतिभिः मरुद्भिः सह पीयमानैः “सोमेभिः सोमैः "उरु विस्तीर्णं “स्फिरं वृद्धम् “उदरम् आत्मीयं जठरं "सरो “न सर इव “आ “प्रासि आपूरय । ‘प्रा पूरणे' । आदादिकः ॥
चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिने ब्रह्मशस्त्रे ‘ आ त्वा' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियस्तृचः । सूत्र्यते हि-'आ त्वा सहस्रमा शतं मम त्वा सूर उदित इति ब्राह्मणाच्छंसिनः' (आश्व. श्रौ. ७.४) इति ॥
आ । त्वा । सहस्रम् । आ । शतम् । युक्ताः । रथे । हिरण्यये ।ब्रह्मऽयुजः । हरयः । इन्द्र । केशिनः । वहन्तु । सोमऽपीतये ॥२४
हे “इन्द्र “त्वा त्वां “सहस्रं सहस्रसंख्याकाः “हरयः त्वदीया अश्वाः “आ “वहन्तु आनयन्त्वस्मद्यज्ञम् । तथा “शतं शतसंख्याकाश्च भवदीया अश्वास्त्वाम् “आ वहन्तु । यद्यपि द्वावेवास्य हरी तथापि तद्विभूतयोऽन्येऽपि बहवोऽश्वाः सन्ति । ननु युगपदनेकैरश्वैः कथं यातुं शक्यत इति अत आह “युक्ताः इति । “हिरण्यये हिरण्मये स्वर्णविकारे । हिरण्यशब्दाद्विकारार्थे विहितस्य मयटः ‘ऋत्व्यवास्त्व इत्यादौ मलोपो निपात्यते । तादृशे “रथे "युक्ताः संबद्धाः । बहूनामश्वानां शीघ्रगमनाय रथे नियुक्तत्वाद्युगपदेव सर्वैरश्वैर्गन्तुं शक्यत इति भावः । कीदृशा हरयः । “ब्रह्मयुजः ब्रह्मणा परिवृढेनेन्द्रेण युक्ताः । यद्वा ब्रह्मणास्मदीयेन स्तोत्रेणास्माभिर्दत्तेन हविषा वा युक्ताः । “केशिनः । केशाः केसराः । तैर्युक्ताः । किमर्थमिन्द्रस्य वहनं तत्राह । “सोमपीतये सोमस्य पानाय । यथास्मदीयं सोमं पिबेत् अत आवहन्त्वित्यर्थः ॥
आ । त्वा । रथे । हिरण्यये । हरी इति । मयूरऽशेप्या ।शितिऽपृष्ठा । वहताम् । मध्वः । अन्धसः । विवक्षणस्य । पीतये ॥२५।
पूर्वं हर्योर्विभूतिरूपा अश्वा इन्द्रमावहन्त्विति प्रार्थितम् । अधुना तावेवेन्द्रमावहतामिति प्रार्थ्यते। “हिरण्यये हिरण्मये “रथे युक्तौ “मयूरशेप्या मयूरशेपौ मयूरवर्णशेपो ययोस्तौ। ‘सुपां सुलुक्' इति विभक्तेर्ड्यादेशः । “शितिपृष्ठा श्वेतपृष्ठौ एवंभूतावश्वौ” हे इन्द्र त्वाम् “आ “वहताम् । किमर्थम् । “मध्वः मधुररसस्य “विवक्षणस्य वक्तुमिष्टस्य स्तुत्यस्य यद्वा वोढव्यस्य प्राप्तव्यस्य “अन्धसः अन्नस्य सोमरूपस्य “पीतये पानार्थम् ॥ ॥ १४ ॥
पिब । तु । अस्य । गिर्वणः । सुतस्य । पूर्वपाःऽइव परिऽकृतस्य । रसिनः । इयम् । आऽसुतिः । चारुः। मदाय । पत्यते ॥२६
हे “गिर्वणः गीर्भिवननीय स्तुतिभिः संभजनीयेन्द्र “सुतस्य अभिषुतस्य “अस्य सोमस्य । ‘ क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वाच्चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ॥ इममभिषुतं सोमं “तु क्षिप्रं “पिब । तत्र दृष्टान्तः । “पूर्वपाइव । पूर्वः सर्वेभ्यो देवेभ्यः प्रथमभावी सन् पिबतीति पूर्वपा वायुः । स इवैन्द्रवायवे मुख्ये ग्रहे सर्वेभ्यो देवेभ्यः पूर्वं पिबेत्यर्थः। कीदृशस्य सोमस्य । “परिष्कृतस्य अभिषवादिभिः संस्कृतस्य ॥ ‘ संपर्युपेभ्यः' (पा. सू. ६. १. १३७ ) इति करोतेर्भूषणे सुट् ।' परिनिविभ्यः' (पा. सू. ८. ३. ७० ) इति सुटः षत्वम् ॥ “रसिनः रसवतः । अपि च “इयमासुतिः अयमासवो मदकरः “चारुः शोभनः सोमरसः "मदाय हर्षाय हर्षजननाय “पत्यते संपद्यते । पत्लृ गतौ ' । यद्वा । पत्यतिरैश्वर्यकर्मा । मदाय मदस्य पत्यते ईष्टे । मदोत्पादने शक्त इत्यर्थः ॥
यः । एकः । अस्ति । दंसना । महाम् । उग्रः । अभि । व्रतैः ।गमत् । सः । शिप्री । न । सः । योषत् । आ । गमत् । हवम् । न । परि । वर्जति ॥२७
"यः इन्द्रः “एकः केवलोऽसहाय एव “व्रतैः आत्मीयैः कर्मभिः “अभि “अस्ति शत्रुनभिभवति । यश्च “दंसना कर्मणा “महान् अधिकः अत एव “उग्रः उद्गूर्णबलः शिप्री। शिप्रं शिरस्त्राणम् । प्रशंसायामिनिः । शोभनशिरस्त्राणः । यद्वा । शिप्रे हनू नासिके वा । तद्वान् । “सः इन्द्रः “गमत् गच्छतु प्राप्नोतु सर्वदा । “सः तादृशः “न "योषत् न पृथग्भवतु । न वियुक्तो भवतु ॥ गमेर्यौतेश्च लेट्यागमः । इतश्च लोपः' इतीकारलोपः। गमेः ' बहुलं छन्दसि ' इति शपो लुक् । यौतेः ‘सिब्बहुलम्' इति सिप् । “हवम् अस्मदीयं स्तोत्रं च “आ “गमत् अभिगच्छतु प्राप्नोतु । “न “परि “वर्जति न परिवर्जयतु न परित्यजतु । सर्वदास्मानस्मदीयं स्तोत्रं चेन्द्रः प्राप्नोत्विति यावत्
त्वम् । पुरम् । चरिष्ण्वम् । वधैः । शुष्णस्य । सम् । पिणक् ।त्वम् । भाः । अनु । चरः । अध । द्विता । यत् । इन्द्र । हव्यः । भुवः ॥२८
हे इन्द्र “त्वं “शुष्णस्य शोषकस्यासुरस्य “चरिष्ण्वं चरणशीलम् ॥ ‘वा छन्दसि' इत्यभिपूर्वत्वस्य विकल्पितत्वाद्यणादेशः ॥ “पुरं निवासस्थानं “वधैः वज्रादिभिरायुधैः “सं “पिणक् समचूर्णयः । अभाङ्क्षीरित्यर्थः । पिनष्टेर्लङि मध्यमैकवचने रूपमेतत् । “अध अपि च “भाः= भासमानः “त्वम् “अनु “चरः तं शुष्णं हन्तुमन्वगच्छः । यद्वा । ....शुष्णस्य पुरभेदनानन्तरं भा दीप्तीस्त्वमनु चरः अन्वगच्छः । प्राप्तवानित्यर्थः । हे “इन्द्र त्वं “यत् यदा “द्विता द्विधा द्विविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्च “हव्यः ह्वातव्यः “भुवः भवेः । तदानीं त्वं शुष्णस्य पुरं सं पिणगित्यन्वयः । भवतेर्लेटि सिप्यडागमः । छान्दसः शपो लुक् । ‘भूसुवोस्तिङि' इति गुणप्रतिषेधादुवङ् ॥
चातुर्विशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ब्रह्मशस्त्रे ‘ मम त्वा' इति वैकल्पिकोऽनुरूपस्तृचः । सूत्रं तु पूर्वमुदाहृतम् ॥
मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९
“सूरे सूर्ये "उदिते उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥
सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।
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स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०
आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥१५
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ऋग्वेद (८/१/३०)
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२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः
३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे
५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।
७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।
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८- "याद्वः यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।
९- “पशुः । लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा ।
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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥
"उपर्युक्त ऋचा में आसङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में प्राचीनत्तम शब्द है । पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का विकास हुआ
( Etymology of pashu-
From Proto-Indo-Iranian *páću, from 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).
2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎 (pasu, “livestock”),
3-Latin pecū (“cattle”),
4-Old English feoh (“livestock, cattle”),
5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).
पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-
प्रोटो-इंडो-ईरानी *पाउ से, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेउ ("मवेशी, पशुधन") से।
अवेस्तान (पसु, "पशुधन"),
लैटिन पेसी ("मवेशी"),
पुरानी अंग्रेज़ी फीह ("पशुधन, मवेशी"),
(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति।आ।
(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥
पदपाठ-
यः । ऋज्रा । मह्यम् । मामहे । सह । त्वचा । हिरण्यया ।एषः । विश्वानि । अभि । अस्तु । सौभगा । आसङ्गस्य । स्वनत्ऽरथः ॥३२।
एवमेवं मां स्तुहीत्यासङ्गो मेध्यातिथिं ब्रूते । “यः आसङ्गस्यात्मा “ऋज्रा= गमनशीलानि धनानि। “हिरण्यया =हिरण्मय्या “त्वचा =चर्मणास्तरणेन “सह सहितानि “मह्यं= मेध्यातिथये अभि =सर्वत: अस्तु=भवतु। {“मामहे = स्तुमहे} । मंह्= पूजायाम् । “एषः आसङ्गस्यात्मा “स्वनद्रथः= शब्दायमानरथः सन् “विश्वानि= व्याप्तानि सौभगानि धनानि शत्रूणां स्वभूतानि “॥
इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि लिए हो । वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।
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पदपाठ-
अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः
५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति ।
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
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अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः ।
शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥३४
अयमासङ्गो राजा कदाचिद्देवशापेन नपुंसको बभूव । तस्य पत्नी शश्वती भर्तुर्नपुंसकत्वेन खिन्ना सती महत्तपस्तेपे । तेन च तपसा स च पुंस्त्वं प्राप । प्राप्तपुंव्यञ्जनं ते रात्रावुपलभ्य प्रीता शश्वत्व मया तमस्तौत् । “अस्य आसङ्गस्य “पुरस्तात् पूर्वभागे गुह्यदेशे “स्थूरं =स्थूलं वृद्धं सत् पुंव्यञ्जनम् “अनु “ददृशे अनुदृश्यते । “अनस्थः अस्थिरहितः स चावयवः “ऊरुः =उरु=र्विस्तीर्णः “अवरम्बमाणः अतिदीर्घत्वेनावाङ्मुखं लम्बमानः । यद्वा । ऊरुः । सुपां सुलुक्' इति द्विवचनस्य सुः । ऊरू प्रत्यवलंबमानो भवति । { “शश्वती नामाङ्गिरसः सुता “नारी तस्यासङ्गस्य भार्या “अभिचक्ष्य एवंभूतमवयवं निशि दृष्ट्वा हे “अर्य स्वामिन् भर्तः} “सुभद्रम्= अतिशयेन कल्याणं “भोजनं =भोगसाधनं “बिभर्षि= धारयसीति “आह= ब्रूते ॥ ३४ ॥
अनुवाद-व अर्थ-★
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यह पाश्चात्य संस्कृति का वासना मयी प्रदूषण है यहाँ प्रेम भी वस्तुतत: - लोभ व वासना का अभिव्ञ्जक हो गया है। सम्भवत: सौन्दर्य की अन्तिम परिणति यही है। सौन्दर्य आवश्यक मूलक दृष्टिकोण है जो वस्तु हमारे लिए जितनी आवश्यक है वह उतने ही आनुपातिक रूप में हमारे लिए सुन्दर भी है।
वास्तव में भारोपीय भाषा परिवार का लव. (Love) शब्द संस्कृत भाषा में (लुभः)अथवा (लोभः)लुभ--आकाङ्क्षायां भावे "घञ्" प्रत्यय) तथा लुब्ध(लुभ्-क्त प्रत्यय) का ही एक रूपान्तरण है और यह इस रूप में प्रस्तावित भी है।
भूतकालिक कर्मणि कृदन्त रूप से व्युत्पन्न होता है । संस्कृत भाषा में लुभः / लोभः का अभिधा मूलक अर्थ है। काम की तीव्रता अथवा वासना की उत्तेजना।
वस्तुतः लोभः में प्रत्यक्ष तो लाभ तो दिखाई देता है परन्तु परोक्षतः व्याज सहित हानि है
अंग्रेजी भाषा में यह शब्द Love लव शब्द के रूप और अर्थ में रूढ़ है।
तथा जर्मन भाषा में लीव (Lieve) है
ऐंग्लो -सैक्शन अथवा पुरानी अंग्रेजी में (Lufu) लूफु के रूप में है
यह तो सर्व विदित है कि यूरोपीय संस्कृति में वासना का उन्मुक्त ताण्डव है। जबकि भारतीय संस्कृति आध्यात्म मूलक है। जिसमें वासना की उन्मुक्त उदण्डता का कोई स्थान नहीं है। यद्यपि लोभ और प्रेम हैं तो एक ही परिवार के परन्तु जो भेद ज्योति और ज्वाला में चिन्तन और चिन्ता में प्रकाश और चमक में अथवा स्वच्छता और पवित्रता में सूक्ष्म रूप से है वही अन्तर -भेद प्रेम और लोभ में हो गया है । जब प्रेम निः स्वार्थ रूप से आत्म समर्पण का भाव है तब इसका नाम भक्ति है। परन्तु समर्पण में भी सूक्ष्म आत्मकल्याण का स्वार्थ है। यह सात्विक स्वार्थ है ।और यही प्रेम जब केवल अपनी तुष्टि के निमित्त ही किसी दूसरे के प्रति हो तब यह लोभ अथवा वासना नाम से जाना जाता है। अत: लव प्रेम शब्द का स्थान नहीं ले सकता ।
- मूल भारोपीय शब्द -
"मूलशब्द"
*lewbʰ-
"व्युत्पन्न शब्द-
- *लुब-ये-ती ( तु-वर्तमान )
- *lowbʰ-éye-ti ( प्रेरक )
- *lubʰ-एह₁-(तु)-ती ( स्थिर )
- *lewbʰ-os
- *एल(ई)उब-एह₂
- *लब-ओम
- *लब-टू-एस
- प्रोटो-इंडो-ईरानी:
- प्रोटो-इंडो-आर्यन:
- संस्कृत: लुब्ध ( लुब्धा ) ( आगे के वंशजों के लिए देखें )
- प्रोटो-इंडो-आर्यन:
- प्रोटो-इंडो-ईरानी:
- अवर्गीकृत गठन:
अध्याय-पञ्चविञ्शति (25)
आगमप्रकरणम् मण्डूकोपनिषद-
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव । यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥१॥
अर्थ:-ओ३म् अक्षर यह सर्वस्व है। इसकी स्पष्ट व्याख्या है । जो कुछ अतीत, वर्तमान और भविष्य है, वही "ओ३म्" ही है । जो समय की त्रिगुणात्मक अवधारणा से परे है, वह भी वास्तव में "ओ३म्" ही है ।१। (मण्डूकोपनिषद)-
"ओमासश्चर्षणीधृतो विश्वेदेवास आगत दाश्वांसो दाशुषः सुतम्॥७॥
ओ३म् इस समग्र सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत एक अनाहत निरन्तर अनुनिनादित नाद है । ऐसा लगता कि उस अनन्त सत्ता का जैसे प्रकृति से साक्षात् संवाद है । (ॐ ) शब्द को भारतीयों ने सर्वाधिक पवित्र शब्द तथा ईश्वर का वाचक माना ,उस ईश्वर का वाचक जो अनन्त है । यजुर्वेद के अध्याय ४०की १७ वीं ऋचा में कहा गया है "ओम खम् ब्रह्म ओम ही नाद ब्रह्म है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में सूर्य का वाचक रवि शब्द भी है । मिश्र की संस्कृति में जिसे रा रहा गया है ।
लैटिन भाषा में (omnis) सम्पूर्णता का वाचक है। रविः अदादौ रु शब्दे । रू धातु का परस्मैपदीय प्रथम पुरुष एक वचन का रूप है रौति अर्थात् जो ध्वनि करता है । (रूयते स्तूयते इति रवि:। रु + “ अच इः ।“ उणाणि सूत्र ४।१३८। इति इः) सूर्य्यः अर्कवृक्षः। इत्यमरःकोश ॥
सूर्य्यस्य भोग्यं दिनं वार रूपम् ॥
यथा “ रवौ वर्ज्ज्यं चतुःपञ्च सोमे सप्त द्बयं तथा “इत्यादिवारवेलाकथने समयप्रदीपः ॥
पौराणिक ग्रन्थों में रविः शब्द की काल्पनिक व्युपत्ति की गयी है वह भी अव् धातु से । देखें ''रवि'' ¦ पु॰ (अव्--इन् रुट्च्)१ सूर्य्ये । ज२ अर्कवृक्षे च“अचिरात्तु प्रकाशेन अवनात् स रविः स्मृतः” मत्स्यपुराणतन्नामनिरुक्तिः। अर्थात् मत्स्य पुराण में रवि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए बताया है कि दीर्घ काल से प्रकाश के द्वारा जो रक्षा करता है वह रवि है ।
अव् धातु का एक अर्थ -रक्षा करना भी है ।
वस्तुत यह व्युत्पत्ति आनुमानिक व काल्पनिक है वस्तुस्थिति तो यह है कि रवि ध्वनि-परक विशेषण है। रवि संज्ञा का विकास "रौति इति -रवि यहशब्द रु-शब्दे धातु से व्युत्पन्न है । अर्थात् सूर्य के विशेषण ओ३म्'और -रवि ध्वनि अनुकरण मूलक हैं। सैमेटिक -- सुमेरियन ,हिब्रू आदि संस्कृतियों में हैमेटिक "ओमन् शब्द "आमीन के रूप में है। तथा रब़ का अर्थ नेता तथा महान होता हेै। जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ।अरबी भाषा में रब़ -- ईश्वर का वाचक है। अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक देव थे। और दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे । मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर (अमॉन रॉ ) में परिवर्तित हो गये और अत्यधिक पूज्य हुए ! क्योंकी प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि (अमोन-रॉ) ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का प्रसारण है। मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु आदि परम्पराओं में निर्यात होकर प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे । इन्हीं से ईसाईयों में आमेन (Amen ) तथा ईसाईयों से अ़रबी भाषा में आमीन् !! (ऐसा ही हो ) एक स्वीकारात्मक अव्यय के रूप में धार्मिक रूप इबादतो में प्रतिष्ठित हो गया। इतना ही नहीं जर्मन लोग मनु के वंशज ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए करते थे। क्यों कि वह भी ज्ञान का संरक्षक देव था। जो भारतीयों में बुध ज्ञान का देवता था इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन जर्मन वर्ग की भाषासओं में (OUVIN ) ऑविन भी था। यही (woden) ही अंग्रेजी में (Goden) होते हुए अन्त में आज( God ) बन गया है।जिससे कालान्तर में गॉड (god )शब्द बना है। जो फ़ारसी में (ख़ुदा) के रूप में प्रतिष्ठित हैं।यद्यपि कुछ यूरोपीय भाषाविद् गॉड शब्द की व्युत्पत्ति आदि जर्मनिक शब्द -guthan- गुथान से मानते हैं यह उनका अनुमान ही है । ऑक्सफोर्ड एटिमोलॉजी इंग्लिश डिक्शनरी में गॉड(God) शब्द की व्युत्पत्ति क्रम निम्नलिखित रूप में दर्शाया गया है। "Old English god "supreme being the Christian God word; from Proto-Germanic word *guthan (गुथान) its too (source also of Old Saxon, Old Frisian, Dutch god, Old High German got, German Gott, Old Norse guð, Gothic guþ), which is of uncertain origin; perhaps from Proto Indo Europion- *ghut-घुत "that which is invoked-"जिसका आह्वान किया गया हो (who has been summoned) जिसे आहूत किया गया हो। (source also of Old Church Slavonic zovo "to call," Sanskrit huta- "invoked," an epithet of Indra) from root *gheu(e)- "to call, invoke." The notion could be "divine entity summoned to a sacrifice."
“ओङ्कारः पूर्व्वमुच्चार्य्यस्ततो वेदमधीयते” “ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्ज्जातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ”। इति व्याकरणटीकायां दुर्गादासःकृत।
व्याकरण टीकाकार दुर्गादास लिखते है कि "(ओङ्कार) तथा "(अथ) ये दौनों शब्द पूर्व काल में ब्रह्मा के कण्ठ के भेदन करके उत्पन्न हुए अत: ये मांगलिक हैं। परन्तु यह भारतीय संस्कृति में तो यह भी मान्यता है। कि शिव (ओ३म्) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
1 राजा 1:36 ► |
श्लोक-यहोयादा के पुत्र बनायाह ने राजा को उत्तर दिया, “आमीन ! मेरे प्रभु राजा का परमेश्वर यहोवा ऐसा ही प्रचार करे। |
नहेमायाह 5:13 ► |
"फिर मैं ने अपक्की गोद झाड़कर कहा, इसी रीति से जो कोई अपके अपके घर से और परिश्रम से झाड़ता है, जो इस वचन को पूरा न करे, वह इसी रीति से झाड़ा जाए, और छूछा हो जाए। और सारी मण्डली ने कहा, "आमीन ! और यहोवा की स्तुति की। और लोगों ने इस वचन के अनुसार किया। अन्तिम आमीन, वक्ता में कोई बदलाव नहीं, जैसा कि स्तोत्र के पहले तीन खंडों की सदस्यता में है। |
ओघम लेखन में , ओघम की ओगम के रूप में भी वर्तनी लिखी जाती है, ओघम वस्तुत: चौथी शताब्दी ईस्वी से वर्णानुक्रमिक आयरलैण्ड की लिपि है। जिसका उपयोग लिखने के लिए उपयोग की जाती है। ओघम शब्द का उपयोग आयरिश के पत्थर के स्मारकों पर चित्रित भाषाएं आयरिश परंपरा के अनुसार, लकड़ी के टुकड़ों पर लिखने के लिए भी किया जाता था, लेकिन इसका कोई भौतिक प्रमाण नहीं है। अपने सरलतम रूप में, ओघम में स्ट्रोक( कलम) चलाने के चार सेट या निशान होते हैं , प्रत्येक सेट में एक से पांच स्ट्रोक से बने पांच अक्षर होते हैं, इस प्रकार 20 अक्षर होते हैं। ये एक पत्थर के किनारे पर उकेरे गए थे, अक्सर लंबवत या दाएं से बाएं। पांच प्रतीकों का पांचवां सेट, जिसे आयरिश परंपरा में forfeda ("अतिरिक्त अक्षर"),कहा जाता है ऐसा प्रतीत होता है कि इसका बाद का विकास है। ओघम की उत्पत्ति विवाद में है
कुछ विद्वान रूनिक और अंततः इट्रस्केन वर्णमाला के साथ इसका एक संबंध देखते हैं, जबकि अन्य का कहना है कि यह केवल लैटिन वर्णमाला का रूपांतरण है ।
रूनिक वर्णमालाएँ प्राचीनकालीन यूरोप में कुछ जर्मैनी भाषाओं के लिए इस्तेमाल होने वाली वर्णमालाओं को कहा जाता था जो 'रून' नामक अक्षर प्रयोग करती थीं। समय के साथ जैसे-जैसे यूरोप में ईसाईकरण हुआ और लातिनी भाषा धार्मिक भाषा बन गई तो इन भाषाओं ने रोमन लिपि को अपना लिया और रूनी लिपियों का प्रयोग घटता गया।
इत्रस्की सभ्यता प्राचीन इटली की एक सभ्यता थी जो पश्चिमोत्तरी इटली में सन् ८०० ईसापूर्व से आरम्भ हुई। लगभग २०० वर्षों तक इसका प्रभुत्व रहा और लगभग सन् ४०० ईसापूर्व के बाद इसके रोमन साम्राज्य में विलय हो जाने के संकेत मिलते हैं।
तथ्य यह है कि इसमें एच और जेड के संकेत हैं, जो आयरिश में उपयोग नहीं किए जाते हैं, विशुद्ध रूप से आयरिश मूल के विपरीत बोलते हैं। ओघम में शिलालेख बहुत ही कम हैं, आमतौर पर जनन मामले में एक नाम और संरक्षक शामिल हैं; वे भाषाई रुचि के हैं क्योंकि वे किसी भी अन्य स्रोत द्वारा प्रमाणित किए जाने की तुलना में आयरिश भाषा के पहले के राज्य को दिखाते हैं और शायद चौथी शताब्दी के विज्ञापन से तारीख. ज्ञात 375 से अधिक ओघम शिलालेखों में से लगभग 300 आयरलैंड से हैं
सेल्टिक धर्म
ऐतिहासिक-सूत्र-
दो मुख्य प्रकार के स्रोत सूचना प्रदान करते हैं एक सेल्टिक धर्म: महाद्वीपीय यूरोप और रोमन ब्रिटेन के सेल्ट्स से जुड़े मूर्तिकला स्मारक और दूसरे द्वीपीय सेल्टिक साहित्य जो मध्ययुगीन काल से लेखन में बचे हैं । दोनों स्रोत यद्यपि व्याख्या में समस्याएं पैदा करते हैं।अधिकांश स्मारक और उनके साथ शिलालेख, के हैं रोमन काल-सेल्टिक और रोमन देवताओं के बीच काफी हद तक समन्वयवाद को दर्शाता है:-
Awen isa Welsh, Cornish and Breton word for"inspiration" (and typically poetic inspiration).In Welsh mythology, awen is the inspiration of the poets, or bards; or, in its personification, Awen is the inspirational muse of creative artists in general.
The inspired individual (often a poet or a soothsayer) is described as an awenydd. Neo-Druids define awen as "flowing energy," or "a force that flows with the essence of life."In current usage, awen is sometimes ascribed to musicians and poets. It is also used as female given name.It appears in the third stanza of Hen Wlad fy Nhadau, the national anthem of Wales.
Awen derives from the Indo-European Hebrew root *Aw (अव्) meaning 'live', and has the same root as the word awel meaning 'breath ' Inhale, and in Welsh 'wind' or 'gale' in Cornish.
Historical attestation-
The first recorded attestation of the word occurs in Nennius' Historia Brittonum, a Latin text of c. 796, based in part on earlier writings by the Welsh monk, Gildas. It occurs in the phrase 'Tunic talhaern tat aguen in poemate claret' (Talhaern the father of the muse was then renowned in poetry) where the Old Welsh word aguen (awen) occurs in the Latin text describing poets from the sixth century.
It is also recorded in its current form in (Canu Llywarch Hen) (9th or 10th century ?) where Llywarch says 'I know by my awen' indicating it as a source of instinctive knowledge.
On connections between awen as poetic inspiration and as an infusion from the divine, The Book of Taliesin often implies this. A particularly striking example is contained in the lines:
*ban pan doeth peir
ogyrwen awen teir*
-literally “the three elements of inspiration that came, splendid, out of the cauldron” but implicitly “that came from God” as ‘peir’ (cauldron) can also mean ‘sovereign’ often with the meaning ‘God’.
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It is the “three elements” that is cleverly worked in here as awen was sometimes characterised as consisting of three sub-divisions (*‘ogyrwen’) so “the ogyrwen of triune inspiration”, perhaps suggesting the Trinity.
There are fifteen occurrences of the word awen in (The Book of Taliesin) as well as several equivalent words or phrases, such as ogyrven which is used both as a division of the awen (‘Seven score ogyrven which are in awen, shaped in Annwfn’) as well as an alternative word for awen itself.
The poem Armes Prydain (The Prophecies of Britain) begins with the phrase ‘Awen foretells …and it is repeated later in the poem.
The link between poetic inspiration and divination is implicit in the description of the Awenyddion given by Gerald of Wales in the 12th century and the link between bardic expression and prophecy is a common feature of much early verse in Wales and elsewhere
A poem in The Black Book of Carmarthen by an unidentified bard, but addressed to Cuhelyn Fardd (1100-1130) asks God to allow the awen to flow so that ‘inspired song from Ceridwen will shape diverse and well-crafted verse’. This anticipates much poetry from identified bards of the Welsh princes between circa 1100-1300 which juggles the competing claims of the Celtic Church with the source of the awen in the Cauldron of Ceridwen.
So Llywarch ap Llywelyn (1173-1220) – also known as ‘Prydydd y Moch’ – can address his patron Llywelyn ap Iorwerth like this:
'I greet my lord, bring awen’s great greeting
Words from Ceridwen I compose
Just like Taliesin when he freed Elffin'.
The same poet also penned the linesThe Lord God grant me sweet awenAs from the Cauldron of Ceridwen'
Elidr Sais (c. 1195-1246), ‘singing to Christ’, wrote'Brilliant my poetry after MyrddinShining forth from the cauldron of awen'
Dafydd Benfras (1220-1258) included both Myrddin (Merlin) and Aneirin in his backward glance:
'Full of awen as Myrddin desiredSinging praise as Aneirin before mewhen he sang of ‘Gododdin’.'
Later in the Middle Ages the identification of the source of the Awen begins to shift from Ceridwen to more orthodox christian sources such as the Virgin Mary, the saints, or directly from God. A full discussion can be found in Awen y Cynfeirdd a’r Gogynfeirdd by Y Chwaer Bosco. The Bardic Grammars of the later Middle Ages identify ‘The Holy Spirit’ as the proper source of the awen. The 15th century bard Sion Cent argued that God is the only source and dismissed the “lying awen” of bards who thought otherwise as in his dismissive lines
A claimant false this awen is found Born of hell’s furnace underground Such a focus on an unmediated source was picked up by the eighteenth century Unitarian Iolo Morgannwg (Edward Williams, 1747-1826) who was able to invent the awen symbol /|\, suggesting that it was an ancient druidic sign of “the ineffable name of God, being the rays of the rising sun at the equinoxes and solstices, conveying into focus the eye of light”.
Giraldus Cambrensis referred to those inspired by the awen as "awenyddion" in his Description of Wales (1194):
- THERE are certain persons in Cambria, whom you will find nowhere else, called Awenyddion, or people inspired; when consulted upon any doubtful event, they roar out violently, are rendered beside themselves, and become, as it were, possessed by a spirit. They do not deliver the answer to what is required in a connected manner; but the person who skilfully observes them, will find, after many preambles, and many nugatory and incoherent, though ornamented speeches, the desired explanation conveyed in some turn of a word: they are then roused from their ecstasy, as from a deep sleep, and, as it were, by violence compelled to return to their proper senses. After having answered the questions, they do not recover till violently shaken by other people; nor can they remember the replies they have given. If consulted a second or third time upon the same point, they will make use of expressions totally different; perhaps they speak by the means of fanatic and ignorant spirits. These gifts are usually conferred upon them in dreams: some seem to have sweet milk or honey poured on their lips; others fancy that a written schedule is applied to their mouths and on awaking they publicly declare that they have received this gift.
(Chapter XVI: Concerning the soothsayers of this nation, and persons as it were possessed)
In 1694, the Welsh poet Henry Vaughan wrote to his cousin, the antiquary John Aubrey, in response to a request for some information about the remnants of Druidry in existence in Wales at that time, saying
… the antient Bards … communicated nothing of their knowledge, butt by way of tradition: which I suppose to be the reason that we have no account left nor any sort of remains, or other monuments of their learning of way of living. As to the later Bards, you shall have a most curious Account of them.
This vein of poetrie they called Awen, which in their language signifies rapture, or a poetic furore & (in truth) as many of them as I have conversed with are (as I may say) gifted or inspired with it. I was told by a very sober, knowing person (now dead) that in his time, there was a young lad fatherless & motherless, soe very poor that he was forced to beg; butt att last was taken up by a rich man, that kept a great stock of sheep upon the mountains not far from the place where I now dwell who cloathed him & sent him into the mountains to keep his sheep. There in Summer time following the sheep & looking to their lambs, he fell into a deep sleep in which he dreamt, that he saw a beautiful young man with a garland of green leafs upon his head, & an hawk upon his fist: with a quiver full of Arrows att his back, coming towards him (whistling several measures or tunes all the way) att last lett the hawk fly att him, which (he dreamt) gott into his mouth & inward parts, & suddenly awaked in a great fear & consternation: butt possessed with such a vein, or gift of poetrie, that he left the sheep & went about the Countrey, making songs upon all occasions, and came to be the most famous Bard in all the Countrey in his time.
Modern Druidic symbol
In some forms of modern Druidism, the term is symbolized by an emblem showing three straight lines that spread apart as they move downward, drawn within a circle or a series of circles of varying thickness, often with a dot, or point, atop each line. The British Druid Order attributes the symbol to Iolo Morganwg; it has been adopted by some Neo-Druids.
According to Jan Morris, Iolo Morganwg did in fact create what is now called "The Awen" as a symbol for the Gorsedd Cymru, the secret society of Welsh poets, writers, and musicians that he claimed to have rediscovered, but in fact created himself. Morganwg, whose own beliefs were, according to Marcus Tanner, beliefs were
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"a compound of Christianity and Druidism, Philosophy and Mysticism", explained the Awen symbol as follows, "And God vocalizing His Name said /|\, and with the Word all the world sprang into being, singing in ecstasy of joy /|\ and repeating the name of the Deity."
The Order of Bards, Ovates and Druids (OBOD) describe the three lines as rays emanating from three points of light, with those points representing the triple aspect of deity and, also, the points at which the sun rises on the equinoxes and solstices – known as the Triad of the Sunrises. The emblem as used by the OBOD is surrounded by three circles representing the three circles of creation.
Various modern Druidic groups and individuals have their own interpretation of the awen. The three lines relate to earth, sea and air; body, mind and spirit; or love, wisdom and truth*. It is also said that the awen stands for not simply inspiration, but for inspiration of truth; without awen one cannot proclaim truth. The three foundations of awen are the understanding of truth, the love of truth, and the maintaining of truth.
A version of the awen was approved by the United States Department of Veterans Affairs in early 2017 as an emblem for veteran headstones.
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References सन्दर्भ-
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- Order of Bards, Ovates & Druids (2001). "Approaching The Forest: Gwers 2, Pg. 24". Oak Tree Press.
- J. Williams Ab Ithel, Ed. "The Barddas of Iolo Morganwg, Vol. I"
- Terrence P. Hunt, "Druid symbol approved for use on veteran headstones", The Wild Hunt, January 24, 2017
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द्रविड- (ड्र्यूड) नाम का अर्थ है "ओक के पेड़ =द्रव+ विद= को जानना वाला] ड्र्यूडिक अनुष्ठान से प्राप्त होता है कि ये प्रारंभिक काल में जंगल में धार्मिक अनुष्ठान किया करते थे। सीज़र ने कहा कि ड्र्यूडों ने शारीरिक श्रम से परहेज किया और कोई कर भी नहीं चुकाया, जिससे कई लोग इन विशेषाधिकारों से आदेश में शामिल होने के लिए इनकी ओर आकर्षित हुए। उन्होंने बड़ी संख्या में छंदों को कंठस्थ कर लिया, और कुछ ने 20 वर्षों तक अध्ययन किया; उन्होंने सोचा कि अपनी शिक्षा को लिखने के लिए समर्पित करना गलत है लेकिन उन्होंने अन्य उद्देश्यों के लिए ग्रीक वर्णमाला का उपयोग किया।
जहाँ तक ज्ञात है, गैलो-रोमन काल से पहले सेल्ट्स का कोई मंदिर भी नहीं था; उनके समारोह वन अभयारण्यों में हुए करते थे । तब गैलो-रोमन काल में मंदिरों का निर्माण किया गया और उनमें से कई ब्रिटेन के साथ-साथ गॉल में पुरातत्वविदों द्वारा खोजे गए हैं।
गॉल में मानव बलि का भी उपक्रम किया जाता था: सिसरो, सीज़र, सुएटोनियस और लुकान आदि सभी इसका उल्लेख करते हैं, और प्लिनी द एल्डर का कहना है कि यह बलि का उपक्रम ब्रिटेन में भी हुआ था। परन्तु टिबेरियस और क्लॉडियस के तहत इसे मना किया गया था । कुछ सबूत हैं कि आयरलैंड में मानव बलि की जानकारी मिलती है। परन्तु सेंट पैट्रिक द्वारा इसका मानने से परहेज है। सेल्टिक धार्मिक त्योहारों के बारे में द्वीपीय स्रोत महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। आयरलैंड में वर्ष को छह महीने की दो अवधियों में विभाजित किया गया था बेल्टाइन (1 मई) और समाहिन (समैन; 1 नवंबर), और इन अवधियों में से प्रत्येक को समान रूप से दावतों द्वारा विभाजित किया गया था इम्बोल्क (1 फरवरी), और लुघ्नसाध (1 अगस्त)। ऐसा लगता है कि मूल रूप से समाहिन का अर्थ "ग्रीष्म" था, लेकिन शुरुआती आयरिश काल तक यह गर्मियों के अंत को चिह्नित करने के लिए आया था। बेल्टाइन को सेतसमैन ("फर्स्ट समहैन") भी कहा जाता है।
इम्बोल्क की तुलना फ्रांसीसी विद्वान जोसेफ वेंड्रीज़ ने रोमन वासनाओं से की है और जाहिर तौर पर यह किसानों के लिए शुद्धिकरण का पर्व था। मेमने के मौसम के संदर्भ में इसे कभी-कभी ओमेलक ("भेड़ का दूध") कहा जाता था। बेल्टाइन ("बेल की आग") गर्मियों का त्योहार था, और एक परंपरा है कि उस दिन ड्र्यूड मवेशियों को बीमारी से बचाव के लिए दो आग के बीच ले जाते थे। लुघ्नसाध भगवान लूग का पर्व था।
5 वीं शताब्दी के बाद से इस सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था पर ईसाई धर्म में रूपांतरण का अनिवार्य रूप से गहरा प्रभाव पड़ा, हालांकि इसके चरित्र को काफी बाद की तारीख के दस्तावेजों से ही निकाला जा सकता है।
7वीं शताब्दी की शुरुआत तक चर्च ड्र्यूड को अपमानजनक अप्रासंगिकता से बाहर निकालने में सफल रहा था , जबकि चर्चफ़िलिध , पारंपरिक शिक्षा के स्वामी, अपने लिपिक समकक्षों के साथ आसान सामंजस्य में काम करते थे, एक ही समय में अपनी पूर्व-ईसाई परंपरा, सामाजिक स्थिति और विशेषाधिकार के एक बड़े हिस्से को बनाए रखने के लिए ये रोमन प्रयास करते थे। लेकिन प्रारंभिक भाषा साहित्य के लगभग सभी विशाल कोष जो बच गए हैं, मठवासी स्क्रिप्टोरिया में लिखे गए थे, और यह आधुनिक विद्वता के कार्य का हिस्सा है।
,जो लिखित ग्रंथों में परिलक्षित होता है।यह पारंपरिक निरंतरता और उपशास्त्रीय नवाचार की सापेक्ष भूमिकाओं की पहचान करता है। कॉर्मैक की शब्दावली (ईस्वी 900) बताती है कि सेंट पैट्रिक ने फिलिह के उन मानसिक संस्कारों को भगा दिया जिसमें राक्षसों के लिए प्रसाद शामिल था,
और यह संभव लगता है कि चर्च ने पशु बलि और अन्य रीति-रिवाजों को मिटाने के लिए विशेष रूप से कष्ट उठाया जो कि ईसाई शिक्षण के लिए घोर प्रतिकूल था।
प्राचीन अनुष्ठान प्रथा से जो बचा था, वह फ़िलिदहेचट से संबंधित था , फ़िलिद के पारंपरिक प्रदर्शनों की सूची , या पवित्र राजशाही की केंद्रीय संस्था एक अच्छा उदाहरण की व्यापक और लगातार अवधारणा है ।
संप्रभुता की देवी के साथ राजा की चित्रलिपि (पवित्र विवाह): यौन मिलन, या बनास रिघी ("राजाओं की शादी"), जिसने शाही उद्घाटन के मूल का गठन किया था, ऐसा लगता है कि प्रारंभिक तिथि में सनकी प्रभाव के माध्यम से अनुष्ठान से शुद्ध किया गया था, लेकिन यह कम से कम निहित है , और अक्सर कई शताब्दियों के लिए काफी स्पष्ट है। साहित्यिक परंपरा भी ।
“इस्राएल का परमेश्वर यहोवा अनादिकाल से अनन्तकाल तक धन्य है। आमीन! आमीन।”
- ईमुना – , विश्वास, दृढ़ता
- अमनः - वास्तव में, सही, निश्चित रूप से, अनुबंध
- ओमान - कलाकार
- शकुन - पालक माता पिता
- नीमैन - विश्वासयोग्य
जैसा कि हम देख सकते हैं, शब्द "आमीन" में न केवल विश्वास है, बल्कि निश्चितता और दृढ़ता भी है। यह अक्सर भजन, प्रार्थना और आशीर्वाद में "हाँ यह सच है" या "हाँ मैं सहमत हूँ" के रूप में प्रयोग किया जाता है।
कुछ मामलों में, तोरेत ग्रन्थ लोगों को कुछ पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध होने पर कानूनी प्रक्रियाओं में "आमीन" कहने का आदेश भी देता है।
हम इसे विशेष रूप से व्यवस्थाविवरण 27 में देखते हैं, लेकिन गिनती 5:22 में भी है ।
इससे प्राप्त अन्य शब्द, जैसे (एमुनाह), (अमनाह,) (ओमान), आदि पूरी बाइबल में पाए जाते हैं। यहाँ कुछ उदाहरण दिए गए हैं, जहाँ हमने अंग्रेजी अनुवाद के बजाय हिब्रू मूल का उपयोग किया है। हमने उपरोक्त विभिन्न अर्थों के साथ छंदों को चुना है - आमीन के "वफादारी, दृढ़ता, अनुबंध, कलाकार, पालक माता-पिता: अर्थों के रूप में
"इसके अलावा, वह अमाना मेरी बहन है, मेरे पिता की बेटी है, लेकिन मेरी माँ की बेटी नहीं है, और वह मेरी पत्नी बन गई।" उत्पत्ति 20:12
“लेकिन मूसा के हाथ भारी थे। तब उन्होंने एक पत्थर लेकर उसके नीचे रख दिया, और वह उस पर बैठ गया; और हारून और हूर एक एक अलग और एक दूसरी अलग उसके हाथोंको सम्भाले रहे। इस प्रकार सूर्य के अस्त होने तक उसके हाथ एमुनाह बने रहे।” निर्गमन 17:12
“अब मेरी बातें सुनो: यदि तुम में कोई भविष्यद्वक्ता हो, तो उस पर मैं यहोवा दर्शन के द्वारा अपके आप को प्रगट करूंगा। मैं उसके साथ सपने में बात करूंगा। ऐसा नहीं है, मेरे सेवक मूसा के साथ, वह मेरे सारे घराने में नीमन है।” गिनती 12:7
यहोवा की करूणा कभी समाप्त नहीं होती, क्योंकि उसकी करुणा कभी टलती नहीं। वे हर भोर नई होती हैं; आपका EMUNAH विश्वास ( ईमान) महान है। विलापगीत 3:22-23
"जूते में तुम्हारे पैर कितने सुंदर हैं, हे राजकुमार की बेटी! तेरे नितम्बों की वक्रता गहनों के समान है, ओमान के हाथों की कारीगरी है।” श्रेष्ठगीत 7:2
"अब मुहरबंद अमाना पर नाम थे: नहेमायाह राज्यपाल, हकल्याह का पुत्र, और सिदकिय्याह," नहेम्याह 10:1
“वह ओमेन हदस्सा था, अर्थात् एस्तेर, जो उसके चाचा की बेटी थी, क्योंकि उसके न तो पिता थे और न माता। वह युवती रूप और मुख के रूप में सुन्दर थी, और जब उसके माता-पिता मर गए, तब मोर्दकै ने उसे अपनी बेटी कर लिया। एस्तेर 2:7
“हे यहोवा, तू मेरा परमेश्वर है; मैं तुझे सराहूंगा, मैं तेरे नाम का धन्यवाद करूंगा; क्योंकि तू ने चमत्कार किए हैं, योजनाएं बहुत पहले से बनीं, और उन में से एक शकुन है।" यशायाह 25:1
“क्योंकि जो पृथ्वी पर धन्य है, वह आमीन के परमेश्वर की ओर से आशीष पाएगा; और जो पृय्वी की शपय खाएगा वह आमीन के परमेश्वर की शपय खाएगा; क्योंकि पिछले संकट भुला दिए गए, और वे मेरी दृष्टि से ओझल हैं!” यशायाह 65:16
नए नियम में, शब्द "आमीन" इब्रानी भाषा से ग्रीक में लिप्यंतरित किया गया है, उसी तरह से उपयोग किया जाता है जैसे भजन संहिता में आशीषों और प्रार्थनाओं को समाप्त करने के लिए किया जाता है।
लेकिन एक और उपयोग है - लेकिन केवल यीशु के द्वारा ही। जब भी यीशु कहते हैं "सच में मैं तुमसे कहता हूं," मूल ग्रीक वास्तव में इब्रानी शब्द आमीन का उपयोग करता है - "आमीन मैं तुमसे कहता हूं।" वाक्य की शुरुआत में क्यों ? और यूहन्ना के सुसमाचार में इसे दुगना करके "आमीन, आमीन मैं तुम से कहता हूं" क्यों किया गया है?
फ़िनिश लेखक और विद्वान रिस्तो संताला ने अपनी पुस्तक '"द मसीहा इन द न्यू टेस्टामेंट इन द लाइट ऑफ़ रैबिनिकल राइटिंग" (1992) में इस बारे में लिखा है:"आलोचकों ने लंबे समय से यीशु के शब्दों पर विचार किया है, "वास्तव में, , मैं आपको बताता हूं", बल्कि अजीब होने के लिए। ग्रीक मूल में इब्रानी शब्द आमीन, आमीन का प्रयोग इस तरह से किया गया है, जो पुराने नियम या रब्बी साहित्य में नहीं मिलता है। प्रार्थनाओं और भाषणों के अंत में 'आमीन' पाया जाता है, जबकि यीशु ने इसका इस्तेमाल यह बताने के लिए किया था कि उसे क्या कहना है। 1960 के दशक की शुरुआत में लेन-देन के एक टुकड़े से एक टुकड़ा पाया गया था जिसमें यीशु का एक समकालीन सत्यनिष्ठा से कहता है ", आमीन, अनी लो अशेम ", 'सचमुच, सही मायने में, मैं निर्दोष हूं'। ऐसा लगता है कि यीशु ने अपने इस गंभीर सूत्र को कानूनी शपथ से उधार लिया था।
हिब्रू में 'विश्वास' और 'आमीन' के लिए शब्द एक ही मूल के व्युत्पन्न हैं।
शब्द 'आमीन' वास्तव में एकमात्र अनुमेय पुष्टि है: 'आप इस पर विश्वास कर सकते हैं; ये सच है!' "
जैसा कि संताला बताते हैं, "आमीन" का उपयोग यीशु के समय में एक बाध्यकारी कानूनी तरीके से किया गया था - और उन्होंने उस सूत्र का उपयोग आध्यात्मिक सच्चाइयों को व्यक्त करने के लिए किया कि वे कौन हैं।
वह अपने आप को एक शपथ के तहत बांध रहा है कि वह जो कहता है वह सच है - साथ ही जब वह कहता है "आमीन, आमीन, मैं तुमसे कहता हूं, इब्राहीम के होने से पहले, मैं हूं।" जॉन 8:58
हमने ऊपर देखा कि कैसे यशायाह परमेश्वर को "आमीन" कहता है, जिसे अक्सर "सच्चाई के परमेश्वर" के रूप में अनुवादित किया जाता है। उसी तरह, प्रकाशित वाक्य 3:14 में यीशु अपने बारे में एक शब्द के रूप में "आमीन" का उपयोग करता है: "लौदीकिया की कलीसिया के दूत को यह लिख: आमीन, विश्वासयोग्य और सच्चा गवाह, परमेश्वर की सृष्टि का आरम्भ, कहता है। यह:"स्ट्रॉन्ग का कॉनकॉर्डेंस सत्य के लिए इब्रानी शब्द "एमेट" को आमीन के समान जड़ से जोड़ता है, इस मामले को और भी मजबूत बनाता है कि यह शब्द, जिसके साथ भगवान स्वयं की पहचान करता है, पूर्ण सत्य, दृढ़ता और निश्चितता का अर्थ रखता है।
मरियम-वेबस्टर अंग्रेजी शब्द कोश में "विश्वास" को "प्रमाण के अभाव में भी दृढ़ विश्वास" के रूप में परिभाषित करता है, लेकिन विश्वास के लिए हिब्रू शब्द, एमुनाह, "आमीन के देवता" की दृढ़ता और सच्चाई से सीधे जुड़ा हुआ है जिसने उसे साबित कर दिया है हमारे प्रति वफादारी, बार-बार तथास्तु।
भारतीय धर्म में ओ३म् की अवधारणा"
माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है जो वर्णमाला के रूप में ओ३म का उत्पादन है।
वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है"
पाणिनि ने वैदिक भाषा (छान्दस्) के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से माहेश्वर सूत्रों का निर्माण किया।
वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् १-(अक्षरसमाम्नाय),
२-नाम(संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण),
३-पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द ,
४-आख्यात(क्रिया),
उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।अष्टाध्यायी में ३२ पाद हैं जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभाजित हैं ।व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में कर दिया है।जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं। तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी के समकालिक ही हुआ ।
तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई।
व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों (भाषा-मूलक तथ्यों) के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमें शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।
माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति के विषय में अतिश्योक्ति भाव अधिक है।रूढ़िवादी पुरोहितों ने कल्पना सृजित की कि माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से है।वस्तुत जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है । रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇
"नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।
इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। 👇"वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का ओ३म स्वरूप भी है"उमा शिव की ही शक्ति का रूप है । उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ-भो मा-निषेध तपस्यां कुरुवति। अर्थात्-यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” ।इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)।
"माता ने पार्वती से कहा उ ( अरे!) मा ( नहीं)तपस्यां कुरुवति -तपश्या करो । तत्पश्चात पार्वती को उमा कहा जाने लगा यह व्युत्पत्ति कालीदास ने "कुमारसम्भवम्" महाकाव्य में की है। अथवा उमा शब्द की व्युपत्ति विकलप रूप में इस प्रकार से भी है-ओः= शिवस्य मा =लक्ष्मीरिव उं शिवं माति मन्यते पतित्वेन मा + क वा ।उमा- शिवपत्न्याम्
परन्तु जब किसी शब्द की मूल व्युत्पति ज्ञात नहो तो इसी प्रकार की आनुमानिक व्युपत्ति लोगों द्वारा की जाती है। उमा शब्द "ओमा" का रूपान्तरण ही है। अथवा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव उमा-ओमा =अथवा जो शिव के लिए लक्ष्मी के समान है । उं शिवं माति मिमीते वा आतोऽनुपसर्गेति कः अजादित्वात् टाप् =अथवा जो उं (शिव) का मान करती है वह उमा है । वस्तुत: जहाँ किसी अर्थ का वास्तविक ज्ञान न हो तो वहाँ विकल्पों का विधान आनुमानिक रूप से किया जाता है। एक विकल्प किसी संस्कृत विद्वान ने "उमा" शब्द की व्युत्पत्ति का नीचे दिया है। अवति ऊयते- रक्ष्यते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) यहाँ "उमा दुर्गा का विशेषण है । वस्तुत ये संपूर्ण व्युत्पत्ति आनुमानिक व भिन्न भिन्न प्रकार से होने से असत्य ही हैं । वास्तविक रूप में तो ओ३म का स्त्रीलिंग रूप ही ओ३मा (उमा) है ।
यद्यपि पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण के सन्दर्भों में जो माहेश्वर सूत्र की रचना की गयी है वह अभी भी संशोधन की अपेक्षा रखता है ।
"और इन सूत्रों में अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर) ए,ऐ,ओ,औ का समावेश कदापि नहीं होता !
तथा अन्त:स्थ वर्ण ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं। जिनकी कोई मौलिक व्युत्पत्ति नहींव है:-
जो क्रमश: (इ+अ=य) (उ+अ=व) (ऋ+अ=र)
(ऌ+अ= ल) इसके अतिरिक्त "ह" महाप्राण भी ह्रस्व "अ" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं ।
यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है। समग्र वर्णमाला में अनिवार्य भूमिका है ।
केवल वर्ग के प्रथम वर्ण ( कचटतप) ही सघोष अथवा नादित होकर तृतीय रूप में उद्भासित होते हैं । अन्यथा 👇
प्रथम चरण :–
(क्+ह्=ख्)
(च्+ह् =छ्)
(ट्+ह्=ठ्)
(त्+ह्=थ्)
(प्+ह्=फ्) ।
____________________________________
द्वित्तीय -चरण:–
♪(क् + नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ग् )
♪( च्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ज् )
♪(ट्+नाद युक्त निम्न वाही घर्षण = ठ् )
♪( त्+ नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =द् )
♪(प् +नाद युक्त निम्न वाही घर्षण =ब् )
_____________________________________
तृतीय -चरण:–
(ग्+ह्=घ्)
(ज्+ह् =झ्)
(ड्+ह्=ढ्)
(द्+ह्=ध्)
(ब्+ह्=भ्) ।
और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ ङ ण न म ) है
वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न"
का स्व- वर्गीय रूप है ।
यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है ।
जब यही "न" मूर्धन्य हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है ।
(न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास "अ" वर्ण का पार्श्वविक आलोडित रूप है जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं । अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में
क, च ,ट ,त, प, न, ही मूल वर्ण हैं ।
ऊष्म वर्णों में केवल "स" वर्ण मूल है ।
"ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश टवर्गीय और च वर्गीय होने पर बनते हैं ।
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में तवर्ग का शीत जलवायु के प्रभाव से अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल शकार (श)और षकार (ष)
क्रमश "Sh" और "Sa" का नादानुवाद होंगे।
तवर्ग के न होने से सकार (स) उष्म वर्ण उच्चारित नहीं होगा ।
अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण है ।👇
सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं ।____________________________________
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇
१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
स्वर वर्ण:–अ इ उ ॠ ॡ एओ ऐ औ य व र ल ।
अनुनासिक वर्ण:– ञ ङ ण न म।
वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध ।
वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द ।
वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ ।
वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प ।
अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स ,
महाप्राण वर्ण :-"ह"
उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है।
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है। उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। ___________________________________
अ इ उ ऋ लृ मूल स्वर हैं परन्तु
अ ही मूल स्वर है यही जब ऊर्ध्व गामी रूप में "उ" होता है तो अधो गामी रूप में "इ" होता है ।
ऋ और ऌ वर्णों के विषय में हम पहले विश्लेषण कर चुके हैं ।
केवल " अ" स्वर से ही सभी स्वरों का प्रस्फुटन हुआ है ।
परन्तु ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
माहेश्वर सूत्रों में समायोजित करने की इनकी कोई आवश्यकता नहीं ।
जैसे क्रमश:(अ+ इ = ए )तथा (अ + उ =ओ )
संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल अ स्वर के उदात्त( ऊर्ध्वगामी ) उ । तथा (अधो गामी) इ । के रूप में हैं ।
ऋ तथा ऌ स्वर नहीं होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है । जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।
इनका विकास भी अनुनासिक "न" वर्ण से हुआ है।
अब "ह" वर्ण महाप्राण है । जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।
यह भी "अ" का घर्षित गत्यात्मक
काकलीय रूप है ।
तीन स्वर:- अ + इ+ उ ।
छ: व्यञ्जन :-क च ट त प न ।
एक ऊष्म :- स ।
पार्श्वविक तथा आलोडित स्वर वर्ण लृ ऋ।
ये पार्श्वविक तथा आलोडित वर्ण "न" अनुनासिक के क्रमश वर्त्स्य और मूर्धन्य रूप है ।
मूल वर्ण तो आठ ही हैं ।
👉👆👇परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
२२ अच् ( स्वर) :– अ आ आ३, इ ई ई३, उऊऊ३,
ए ए३, ऐ ऐ३, ओ ओ३ ,औ औ३, ऋ ऋृ ऋृ३, ऌ ऌ३।
२५ हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग चवर्ग टवर्ग तवर्ग पवर्ग।
४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):-
(य र ल व) ।
३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
१ महाप्राण :- "ह"
१ दु: स्पृष्ट वर्ण है :- ळ ।
इस प्रकार हलों की संख्या ३४ है ।
अयोगवाह का पाणिनीय अक्षरसमाम्नाय में कहीं वर्णन नहीं है.
जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।
(अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: ) (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प )
चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न।
इस प्रकार 22
+34+8+= 63 ।
परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित
के सहित पच्चीस हैं ।
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5
____________________________________
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 ___________________________________
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग।
अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।
स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।
अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 ____________________________________
1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।
2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),
(ख.) ग्रसनी (pharynx),
(ग.) मुख (mouth),
(घ.) स्वरयंत्र (larynx),
(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
(छ. )फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),
(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।
3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
क. जिह्वा (tongue),
ख. दाँत (teeth),
ग. ओठ (lips),
घ. कोमल तालु (soft palate),
च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________
दार्शनिक सिन्द्धान्तों के अनुसार 👇
♪ स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :
जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस से नि:सृत होकर जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है।
तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है,
जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं,
जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।
ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।
इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि अवयव करते हैं।
इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं ; जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।
यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।
इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)-- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।
बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है।
स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।
इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त -- उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।
यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।
ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 ___________________________________
1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।
2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।
3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है;
और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" महाप्राण वर्ण का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल ।____________________________________
नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है ।
अकुह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•)
तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇
अ-<हहहहह... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।____________________________________ य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :- इ+अ = य । अ+इ =ए । उ+अ = व। अ+उ= ओ। ____________________________________ ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्।
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है । ___________________________________👇 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः त थ द ध तथा स वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है ।और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है । अतः "श्" वर्ण के लिए Sh तथा "ष्" वर्ण के S वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।
१४. हल्। तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है । इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं । मौलिक रूप में केवल 28 वर्ण हैं । जो ध्वनि के मुल रूप के द्योतक हैं । ____________________________________
1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य (dental)
4. वर्त्स्य (alveolar)
5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)
6. प्रतालव्य( prä-palatal )
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10.ग्रसनी से (pharyngal)
11.श्वासद्वारीय (glottal)
12.उपजिह्वीय (epiglottal)
13.जिह्वामूलीय (Radical)
14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16.जिह्वापाग्रीय (laminal)
17.जिह्वाग्रीय (apical)
18.उप जिह्विय( sub-laminal) ____________________________________
स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।
उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है- उच्चारण स्थान, उच्चारण विधि और स्वनन (फोनेशन)।
मुख गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुखगुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि हैं।
व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु अबाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:- (तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।
इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।
तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत ( उत्पन्न) होती हैं ।
हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण---- व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇 द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म दन्त्योष्ठ्य :-,फ़ दन्त्य :-,त, थ, द, ध वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष कठोर :-तालव्य श, च, छ, ज, झ कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़ पश्च-कोमल-तालव्य:- क़ वर्ण है।
स्वरयन्त्रामुखी:-. "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ ।
घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं।
शब्द कोशों में इसका अर्थ :-
१. काला कौआ ।
२. कंठ की मणि या गले की मणि ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।
हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यञ्जन नासिक्य हैं।
इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है।
इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
और अनुनासिक भी -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
जैसे :- कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ । ____________________________________
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
____________________________________
1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
'ल' ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है। अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
2-लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है।
हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
घोष और अघोष वर्ण– व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष। जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं। दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है। ____________________________________
घोष - अघोष ग, घ, ङ,क, ख ज,झ, ञ,च, छ ड, द, ण, ड़, ढ़,ट, ठ द, ध, न,त, थ ब, भ, म, प, फ य, र, ल, व, ह ,श, ष, स ।
प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं। हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।____________________________________
भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।
इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
अक्षर से स्वर को न तो पृथक् ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
जिसमें व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। अंग्रेजी भाषा में न, र, ल, जैसे एन ,आर,एल, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है। ____________________________________
ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 👇
मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं?
ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
श्रवण तंत्रिकाएँ, (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है । भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।
किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युतचुम्बकीय तरंग। (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!
अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।
सामान्य ताप व दाब (NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग 343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।
बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।
मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।
जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है। माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।
किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
{\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर--- अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत -
_________________________________
"सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति"----
एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे ।
क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है।
द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि उनका विश्वास था !
कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था।
जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ... वास्तव में ओघम् (ogham से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ।दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे।
मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है, मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे।
इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् ! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था।
जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !
वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है।
द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है ... ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति (druid) द्रयूडों पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप में मान्य थी ! केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था।द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य -वेत्ता और तत्व दर्शी थे ! जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड (द्रव + विद) -- समाक्षर लोप से द्रविड । मैं यादव योगेश कुमार "रोहि" भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ ! 👇
जो संक्षिप्त ही है ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !
इस ओ३म शब्द के अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है ;
यूनानी देव संस्कृति के अनुयायी ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !
भारतीय संस्कृति में ओ३म् को उच्चारण काल के आधार पर प्लुत स्वर के रूप मान्य किया गया है। ________________________________
ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मात् माङ्गलिकावुभौ॥
इति दुर्गादासः
ये दुर्गा दास निरुक्तकोश की टीका के रचनाकार थे । और महर्षि यास्क कृत निरुक्त दुर्गाचार्य कृत टीका है ।
अर्थात् उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है :- कि ओ३म् तथा अथ ये दौनों शब्द ब्रह्मा जी कण्ठ को भेद कर पूर्व काल में या कहें आदि काल में उत्पन्न हुए जो मानव व प्राणी मात्र के लिए कल्याण कारी हैं।
“सिद्धानाञ्चैव सर्व्वेषां वेदवेदान्तयोस्तथा । अन्येषामपि शास्त्राणां निष्ठाऽथोङ्कार उच्यते ॥
प्रणवाद्या यतो वेदा प्रणवे पर्य्यवस्थिताः ।
वाङ्मयं प्रणवः सर्व्वं तस्मात् प्रणवमभ्यसेत्”)
व्याकरण भाषा में ओ३म् अव्यय के रूप में स्वीकृत अनुमतिः का अर्थक है ।
इति विश्वनाथ आचार्य ॥
भाषा व्याकरण में ओ३म के निम्न अर्थ हैं।
उपक्रमः । अङ्गीकारः । (यथा, भागवते ११ । ४ । १५ ।
“ओमित्यादेशमास्थाय नत्वा तं सुरवन्दिनः । उर्व्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरःस्कृत्य दिवं ययुः)
अपाकृतिः । मङ्गलम् । इति मेदिनी कोश ॥
ओम्, ब्रह्मणो नामविशेषः ।
अर्थात् ओ३म परब्रह्म का नाम विशेष है ।
जैसा कि श्रीमद्भगवत् गीता में देखें---👇
यथा,- ओ३म् तत्सदिति निर्द्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः
स्मृतः ब्राह्मणाश्चैव वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥
इति श्रीभगवद्गीतायां १७ अध्यायः॥(अमरकोशः
ओम् अव्यय। अनुमतिः
समानार्थक: शब्द ओम्,एवम्,परमम् 3।4।12।2।3
पक्षान्तरे चेद्यदि च तत्त्वे त्वद्धाञ्जसा द्वयम्. प्राकाश्ये प्रादुराविः स्यादोमेवं परमं मते॥
वाचस्पत्यम् ओ३म् =अव्य॰ अव--मन् (निष्पत्ति)। १ प्रणव, २ आरम्भ, ३ स्वीकार, “ओमित्युक्तवतोऽथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचंनभः”महाकविमाघः। ४ अनुमतौ, ५ अपाकृतौ, ६ अस्वीकारे,मङ्गले, ७ शुभे, ८ ज्ञेये, ब्रह्मणि च। अश्च उश्च म्चतेषां समाहारः। विष्णुमहेश्वरब्रह्मरूपत्वात्
९ परमेश्वरे अव्य॰ यथा तस्येश्वरवाचकता तथा पातञ्चलि सूत्रभाष्य :- विवरणेषु दर्शितं यथा “तस्य वाचकः प्रणवः” ।
“वाच्य ईश्वरः प्रणवस्य,किमस्य सङ्केतकृतं वाच्यवाचकत्वम् ?
अथ प्रदीपप्रकाशवद् अवस्थितम् इति।
स्थितोऽस्य वाच्यस्य वाचकेन सहसम्बन्धः सङ्केतस्त्वीश्वरस्य स्थितमेवार्थमभिनयति।
यथावस्थितः पितापुत्रयोः सम्बन्धः, सङ्केतेनावद्योत्यते अयमस्यपिता, अयमस्य पुत्र इति।
सर्गान्तरेष्वपि वाच्यवाचक- वक्त्रपेक्षस्तथैव सङ्केतः क्रियते” ईश्वर तथा औ३म् का सम्बन्ध पिता-पुत्र अथवा वाच्य-वाचक के समान अन्योन्य है ।
ओ३म् वस्तुत सृष्टि की आदिम (प्रारम्भिक) ध्वनि है । यही नाद-ब्रह्म है ।
और संगीत जिसमें स्वरों की प्रधानता है । नाद ब्रह्म की उपासना और सृष्टि की आदिम विद्या है । क्यों कि जब नव शिशु का जन्म होता है तो वह नव-जात तत्काल रुदन करता है । जो स्वरों का आलापमयी प्रवाह है । मनुष्य का संसार में आगमन भी इसी प्रकार होता है । और गमन भी इसी प्रकार ।
मुस्लिम इस शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। पैगंबर मुहम्मद ने इस शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी
(यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")। और 'अब्द अल्लाह बी। अल-अब्बास ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की कोशिश की।👇
कुरान के निष्कर्षों में ओ३म् शब्द - शब्द कुरान 10:88 और 89 के उत्थानों में उल्लिखित है।
कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (अलैहिसल्लाम) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (अलैहिसल्लाम) , शब्द अमेन उद्धृत किया। प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हैं । मिश्र की संस्कृति में ओ३म और -रवि दौनों सूर्य से वाचक रहे हैं ।
और भारतीय संस्कृति में भी रवि सूर्य का वाचक इसलिये हुआ क्यों कि :- रविः, पुंल्लिंग रूप व्युत्पत्ति रु धातु से (रूयते स्तूयते इति ।
रु + अच इः ” उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति रवि: ) सूर्य्यः रु धातु के क्रिया रूप - रौति । रुराव । रविता । संरावः । रवः । रावः । रुतम ।। 25 ।। रव = ध्वनि करने से सूर्य का वाचक रवि ।
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"मनु विश्व संस्कृतियों में "
यथार्थ के धरातल पर मनु की ऐतिहासिकता !
मनुस्मृति ,और वर्ण- व्यवस्था के अस्तित्व पर एक वृहद् विश्लेषण -
यद्यपि यह एक सांस्कृतिक समीकरण मूलक पर्येष्टि है, जिसमें तथ्य समायोजन भी " यादव योगेश कुमार "रोहि" के सांस्कृतिक अनुसन्धान श्रृंखला की एक कणिका है।
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मनु के विषय में विश्व के सभी धर्म - मतावलम्बी अपने अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त ही हैं ।
भारतीय सन्दर्भों में किसी ने "मनु" की अवधारणा अयोध्या के आदि- पुरुष के रूप में है । परन्तु अयोध्या का स्थान निर्धारण अनिश्चित है। किसी ने मनु को हिमालय का अधिवासी कहा है !
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"परन्तु सत्य के निर्णय निश्पक्षता के सम धरातल पर होते हैं न कि पूर्वाग्रह के ऊबड़ खाबड़ स्थलों पर ".
विश्व की सभी महान संस्कृतियों में "मनु" का वर्णन मानव सभ्यता के उद्भासक के रूप में किसी न किसी प्रकार अवश्य हुआ है !
परन्तु भारतीय संस्कृति में यह मान्यता अधिक प्रबल तथा पूर्णत्व को प्राप्त है। अत: भारतीय सन्दर्भों को उद्धृत करते हुए अन्य संस्कृतियों से भी तथ्य उद्धृत किए गये हैं।
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1- प्रथम सांस्कृतिक वर्णन:–"भारतीय पुराणों में मनु का वर्णन:–👇
पुराणों में वर्णित है कि मनु ब्रह्मा के पुत्र हैं ;
जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने जाते हैं।
विशेष—वेदों में मनु को यज्ञों का आदिप्रवर्तक लिखा है। ऋग्वेद में कण्व और अत्रि को यज्ञप्रवर्तन में मनु का सहायक लिखा है।
शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि मनु एक बार जलाशय में हाथ धो रहे थे; उसी समय उनके हाथ में एक छोटी सी मछली आई।
उसने मनु सें अपनी रक्षा की प्रार्थना की और कहा कि आप मेरी रक्षा कीजिए;
मैं अपकी भी रक्षा करुँगी। उसने मनु से एक आनेवाली बाढ़ की बात कही और उन्हें एक नाव बनाने के लिये कहा।
मनु ने उस मछली की रक्षा की; पर वह मछली थोड़े ही दिनों में बहुत बड़ी हो गई।
जब बाढ़ आई, मनु अपनी नाव पर बैठकर पानी पर चले और अपनी नाव उस मछली की आड़ ( श्रृंग) में बाँध दी। मछली उत्तर को चली और हिमालय पर्वत की चोटी पर उनकी नाव उसने पहूँचा दी। वहाँ मनु ने अपनी नाव बाँध दी।
उस बड़े ओघ (जल-प्रलय )से अकेले मनु ही बचे थे। उन्हीं से फिर मनुष्य जाति की वृद्धि हुई। दूसरी कथा के अनुसार-
ऐतरेय ब्राह्यण में मनु के अपने पुत्रों में अपनी सम्पत्ति का विभाग करने का वर्णन मिलता है। उसमें यह भी लिखा है कि उन्होंने हरिवंश पुराण के अनुसार वैवस्वत मनु के एक पुत्र "नाभागारिष्ठ" को अपनी संपत्ति का भागी नहीं बनाया था।
निघंटु में 'मनु' शब्द का पाठ "द्युस्थान देवगणों में है ; और वाजसनेयी संहिता में मनु को प्रजापति लिखा है। पुराणों और सूर्यसिद्धान्त आदि ज्योतिष के ग्रन्थों के अनुसार एक कल्प में चौदह मनुओं का अधिकार होता है और उनके उस अधिकारकाल को मन्वन्तर (मनु-अन्तर)कहते हैं।
चौदह मनुओं के नाम ये हैं—(१)स्वायम्। (२)स्वारोचिष्। (३) उत्तम। (४) तामस। (५) रवत। (६) चाक्षुष। (७) वैवस्वत। (८) सावर्णि। (९) दक्षसावर्णि। (१०) ब्रह्मसावर्णि। (११) धमसावर्णि। (१२) रुद्रसावर्णि। (१३) देवसावर्णि और(१४) इन्द्रसावर्णि।
वर्तमान मन्वन्तर वैवस्वत मनु का है।
मनुस्मृति मनु को विराट् का पुत्र लिखा है और मनु से दस प्रजापतिया की उत्पत्ति हुई यह वर्णन है। उपर्युक्त कथा हिब्रू बाइबिल में भी कुछ अन्वतर से वर्णित है मनु की कथा "नूह" की कथा का प्रतिरूप ही है ।
--जो सुमेरियन माइथॉलॉजी से संग्रहीत है-
"संस्कृत भाषा में मनु शब्द की व्युत्पत्ति !
मन्यते इति मनु। ( मन् + इति उ:) मनु: “ शॄस्वृस्निहीति । “ उणादि सूत्र १ । ११ ।
ब्रह्मणः पुत्त्रः । स च प्रजापतिर्धर्म्मशास्त्रवक्ता च । इति लिङ्गादिसंग्रहे अमरः ॥ ब्रह्मा का पुत्र धर्मशास्त्र का वक्ता मनुष्यों का पूर्वज । इति शब्द- रत्नावली ॥
(यथा ऋग्वेदे । ८। ४७। ४।“ मनोर्विश्वस्य घेदिम आदित्याराय ईशतेऽनेहसो व ऊतयः सु ऊतयो व ऊतयः ॥ ऋगवेद 8/47/4“ मनोर्भव: मनुष्य: ।
इति तद्भाष्ये सायणः ॥
मनु सुमेरियन संस्कृतियों में विकसित माइथॉलॉजीकल की अवधारणा है ।
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इसी आधार पर काल्पनिक रूप से ब्राह्मण समाज द्वारा वर्ण-व्यवस्था का समाज पर आरोपण कर दिया गया , जो वैचारिक रूप से तो सम्यक् था परन्तु व्यवहारिक रूप में कभी यथावत् परिणति नहीं हुआ।
वर्ण व्यवस्था जाति अथवा जन्म के आधार पर दोष-पूर्ण व अवैज्ञानिक ही थी ।
इसी वर्ण-व्यवस्था को ईश्वरीय विधान सिद्ध करने के लिए काल्पनिक रूप से ब्राह्मण - समाज ने मनु-स्मृति की रचना की ।
जिसमें तथ्य समायोजन इस प्रकार किया गया कि स्थूल दृष्टि से कोई बात नैतिक रूप से मिथ्या प्रतीत न हो ।
यह कृति पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी सुमित भार्गव (ई०पू०१८४-४८ ) के समकालिक है ।
यह पुष्य-मित्र सुंग केे निर्देशन में ब्राह्मण समाज द्वारा 'मनु'की रचना मान्य कर दी गयी ।
लगभग चौथी शताब्दी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था । नारद स्मृति कार के अनुसार ' सुमति भार्गव ' नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनुसंहिता की रचना की ।इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव' का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे” ( अम्बेडकर वाड्मय , भाग 7 , पृ० 151 ) ।
“मनुस्मृति के काल - निर्धारण के प्रसंग में डॉक्टर अम्बेडकर की पुस्तक में सन्दर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति का लेखन ईसवी पूर्व 185 , अर्थात पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद सुमति भार्गव के हाथों हुआ था ।” ( वही , भाग 7 , पृ० 116 )
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परन्तु मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी। यह भी सत्य है क्योंकि भारत में अयोध्या का स्थान अनिश्चित ही है।
वर्तमान में अयोध्या भी थाईलेण्ड में "एजोडिया" के रूप में है ।
बैकॉक। रामनगरी अयोध्या (Ayodhya) की तरह एक और आयोध्या थाइलैंड (Thailand) में भी बसती है। थाइलैंड एक ऐसा देश है जहां पर राम को सांस्कृति धरोहर की तरह माना जाता है। यहां पर कई प्राचीनकाल राममंदिर हैं और एक शहर है 'अयुत्थया' (Ayutthaya, Thailand) जो स्थानीय भाषा में अयोध्या का समानार्थी है।
सुमेरियन सभ्यताओं में भी अयोध्या को एजेडे "Agede" नाम से वर्णन किया है। जिसे सुमेरियन इतिहास में "अक्काद" रूप में वर्णन किया गया है। यहीं सूर्य वंशी राजा सगर का शासन था । जिन्हें सारगॉन नाम से जाना जता है। मनु को भी सगर की पूर्वज माना जाता है। सगर अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा। ईरान, मध्य एशिया, बर्मा, थाईलैंड, इण्डोनेशिया, वियतनाम, कम्बोडिया, चीन, जापान और यहां तक कि फिलीपींस में भी मनु की पौराणिक कथाऐं लोकप्रिय थीं।
विद्वान ब्रिटिश संस्कृतिकर्मी, जे. एल. ब्रॉकिंगटन के अनुसार "राम" को विश्व साहित्य का एक उत्कृष्ट शब्द मानते हैं।
यद्यपि वाल्मीकि रामायण महाकाव्य का कोई प्राचीन इतिहास नहीं है। यह बौद्ध काल के बाद की रचना है। फिर भी इसके पात्र का प्रभाव सुमेरियन और ईरानीयों की प्राचीनत्तम संस्कृतियों में देखा जा सकता है।
राम के वर्णन की विश्वव्यापीयता का अर्थ है कि राम एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति रहे होंगे। इतिहास और मिथकों पर औपनिवेशिक हमला सभी महान धार्मिक साहित्यों का अभिन्न अंग है। लेकिन स्पष्ट रूप से एक ऐतिहासिक पात्र के बिना रामायण कभी भी विश्व की श्रेण्य-साहित्यिक रचना नहीं बन पाएगी।
राम, मेडियनस और ईरानीयों के एक नायक भी हैं । जहाँ मित्र, अहुरा मज़्दा आदि जैसे सामान्य देवताओं को वरीयता दी गई है। टी• क्यूइलर यंग, एक प्रख्यात सांस्कृतिक ईरानी विद्वान जिन्होंने कैम्ब्रिज में प्राचीन इतिहास और प्रारंभिक विश्वकोश में ईरान के इतिहास और पुरातत्व पर लिखा है:-👇
वह उप-महाद्वीप के बाहर प्रारम्भिक भारतीयों और ईरानीयों को सन्दर्भों की विवेचना करते हैं ।
💐 राम ’पूर्व-इस्लामी ईरान में एक पवित्र नाम था; जैसे आर्य "राम-एनना" दारा-प्रथम के प्रारम्भिक पूर्वजों में से थे।
जिसका सोने की टैबलेट( शील या मौहर पुरानी फ़ारसी में एक प्रारम्भिक दस्तावेज़ है;
राम जोरास्ट्रियन कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण नाम है; "रेमियश" राम और वायु को समर्पित है। संभवतः हनुमान की एक प्रतिध्वनि; भी है। कई राम-नाम पर्सेपोलिस (ईरानी शहर) में पाए जाते हैं।
राम बजरंग फार्स की एक कुर्दिश जनजाति का नाम भी है। राम-नामों के साथ कई सासैनियन शहर: राम अर्धशीर, राम होर्मुज़, राम पेरोज़, रेमा और रुमागम -जैसे नाम प्राप्त होते हैं ।
राम-शहरिस्तान सूरों की प्रसिद्ध राजधानी थी। राम-अल्ला यूफ्रेट्स (फरात) पर एक शहर है और यह फिलिस्तीन में भी है।
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उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में राम सिंन और भरत (बरत-सिन) सौभाग्य से प्राप्त होते हैं। सुमेरियन इतिहास का एक अध्ययन राम का एक बहुत ही ज्वलन्त चित्र प्रदान करता है।
उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में भरत (वरद) warad सिन और रामसिन(रिमसिन )जैसे पवित्र नाम दिखाई देते हैं।
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राम मेसोपोटामिया वर्तमान (ईराक और ईरान)के सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले सम्राट थे। जिन्होंने 60 वर्षों तक शासन किया।
भरत सिन ने 12 वर्षों तक शासन किया (1834-1822 ई.पू.) का समय
जैसा कि बौद्धों के दशरथ जातक में कहा गया है। जातक का कथन है, "साठ बार सौ, और दस हज़ार से अधिक, सभी को बताया, / प्रबल सशस्त्र राम ने"
केवल इसका मतलब है कि राम ने साठ वर्षों तक शासन किया, जो अश्शूरियों (असुरों) के आंकड़ों से बिल्कुल सहमत हैं।
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अयोध्या सरगोन की राजधानी अगड (अजेय) हो सकती है ।
जिसकी पहचान अभी तक नहीं हुई है।
यह संभव है कि एजेड (Agade) (अयोध्या)डेर या हारुत के पास हरयु या सरयू के पास थी।👇
सीर दरिया का साम्य सरयू से है ।
इतिहास लेखक डी. पी. मिश्रा जैसे विद्वान इस बात से अवगत थे कि राम हेरात क्षेत्र से हो सकते हैं।
प्रख्यात भाषाविद् "सुकुमार सेन" ने यह भी कहा कि राम ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में एक पवित्र नाम है।_____________________________________
सुमेरियन माइथॉलॉजी में "दूर्मा" नाम धर्म की प्रतिध्वनि है ।
सुमेरियन माइथॉलॉजी के मितानियन ( मितज्ञु )राजाओं का तुसरत नाम दशरथ की प्रतिध्वनि प्रतीत होता है। मितज्ञुओं का वर्णन ऋग्वेद में हुआ है । ये बाइबिल के मितन्नी ही हैं।Mitanni वैदिक ऋचाओं में (मितज्ञु)
उत स्या नः सरस्वती जुषाणोप श्रवत्सुभगा यज्ञे अस्मिन् ।
मितज्ञुभिर्नमस्यैरियाना राया युजा चिदुत्तरा सखिभ्यः ॥४॥ ऋग्वेद7/95/4
सायण-भाष्य-उत अपि च "जुषाणा प्रीयमाणा "सुभगा शोभनधना “स्या सा “सरस्वती “नः अस्माकम् “अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् । अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु । कीदृशी सा। “मितज्ञुभिः प्रह्वैर्जानुभिः “नमस्यैः नमस्कारैर्देवैः “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन “राया धनेन च संगता “सखिभ्यः "उत्तरा उत्कृष्टतरा । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः
वैदिक पात्र मितज्ञुओं का वर्णन अन्य संस्कृतियों में"
तथा ऋग्वेद में अन्यत्र भी मितज्ञु जाति का वर्णन है ।"
स वह्निभिरृक्वभिर्गोषु शश्वन्मितज्ञुभिः पुरुकृत्वा जिगाय । पुरः पुरोहा सखिभिः सखीयन्दृळ्हा रुरोज कविभिः कविः सन्॥३॥(ऋग्वेद 6/32/3)
सायण ने उपर्युक्त दौनों भाष्यों में मितज्ञु का अर्थ "छोटे घुटनों वाले" किया है । जो सत्य नहीं
मिश्तानी (मिथानी क्यूनिफॉर्म कूर उरुमी Ta-e-an-i), मित्तानी Mitanni ), जिसे मिस्र के ग्रंथों में अश्शुरियन के समकालीन व सहवर्ती भी कह गया है।
उत्तरी सीरिया में एक (Hurrian)
(सुर-भाषा )बोलने वाला और सीसिस्तान के दक्षिण पूर्व अनातोलिया राज्य था।
1500-1300 ईसा पूर्व मितन्नी (मितज्ञु) एक हज़ारों अमोरिथ- एमॉराइट (मरुतों) को बाबुल के विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई ।
और असीरी (अशरियन राजाओं) की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक शक्ति निर्वाध रूप में बनायी।
मित्तानी साम्राज्य
1500-1300 ईसा पूर्व, सीरिया से उत्तरी सीरिया और दक्षिण-पूर्व एनाटोलिया में स्थित साम्राज्य
मित्तानी साम्राज्य यह सा्म्राज्य कई सदियों तक (१६०० -१२०० ईपू) पश्चिम एशिया में राज करता रहा। इस वंश के सम्राटों के संस्कृत नाम थे। विद्वान समझते हैं कि यह लोग महाभारत के पश्चात भारत से वहां प्रवासी बने। कुछ विद्वान समझते हैं कि यह लोग वेद की (मैत्रायणीय) शाखा के प्रतिनिधि हैं। कुछ भी हो यहूदियों के ग्रन्थों में भी इनका वर्ण "सिन्नार (सिनाई पर्वत" के रहने वालों के रूप में हुआ है।
मिद्यान ( हिब्रू : מדין , Miḏyān ; अरबी : مدين , Maḏyān ; " नाम का अर्थ है :: संघर्ष, निर्णय ") अब्राहम के पुत्र का चौथा पुत्र और :: केतुराह का पुत्र था । वह मिद्यानी लोगों ( हिब्रू : מדיןים , Miḏyānīm ) के पूर्वज हैं, जिन्हें हाउस ऑफ़ इज़राइल के इतिहास में दो महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई थीं । मीदिया उत्तर-पश्चिमी ईरान का एक क्षेत्र है,
बाइबल मिद्यानियों की वंशावली के बारे में और अधिक विवरण नहीं देती है। (बाइबिल-उत्पत्ति 25:2,4 )
यूसुफ
यूसुफ के ईर्ष्यालु भाइयों ने उसे गड्ढ़े में फेंकने के बाद , उसे मिद्यानियों के व्यापारियों को बेच दिया, जो उसे वे दास के रूप में बेचने के लिए मिस्र ले गए।
मूसा
2473 ईसापूर्व पूर्वाह्न की सर्दियों में, मूसा मिस्र से भागकर मिद्यानी देश चले गये। वहाँ उसकी मित्रता एक मिद्यानी याजक से हुई जिसका नाम :: जेथ्रो था । इस जेथ्रो की सात बेटियाँ थीं, जिनमें सिप्पोरा बड़ी थी , जिनसे मूसा ने विवाह किया था। वर्षों बाद, कनान के वंशज क़ेनियों ने स्वयं को इस्राएलियों से जोड़ लिया। ( न्यायियों 1:16 )
परन्तु जब इस्राएली जंगल में भटक रहे थे, तब मिद्यानियों ने "मोआबियों" के साथ मिलकर इस्राएलियों को नष्ट करने का प्रयास किया था। प्रतिशोध में, पीनहास ने मिद्यानियों को कुचलने के लिए 12,000 पुरुषों की एक सेना का नेतृत्व किया।
गिदोन
2764 पूर्वाह्न में, मिद्यानियों ने इस्राएलियों पर अत्याचार किया, जिन्होंने तब तक कनान पर कब्जा कर लिया था । मिद्यानियों ने इस प्रभुत्व को सात वर्षों तक बनाए रखा, जब तक कि न्यायाधीश गिदोन ने तीन सौ की सेना के साथ एक संयुक्त मिद्यानियों- और मोआबी सेना को पराजित नहीं किया।
वंशज
बाइबिल मिद्यानियों
अरब इतिहासकार और भूगोलवेत्ता, याकूत अल-हमवी, हमें बताते हैं कि अरब की मिद्यानी जनजातियाँ अरबी की हाविल भाषा बोलती थीं , और वह इस तथ्य की भी पुष्टि करते हैं कि मिद्यान इब्राहीम का पुत्र था । मिद्यान की जनजातियाँ मिस्र और अन्य स्रोतों से भी जानी जाती हैं। उदाहरण के लिए, टॉलेमी ने उनकी नाम मोदियाना के रूप में दर्ज किया, जबकि सिनाई प्रायद्वीप के छोर के विपरीत प्राचीन पूर्व-इस्लामिक अरब शहर मद्यान को आज मगहिर शुऐब ("शुऐब की गुफा") के रूप में जाना जाता है।
कुर्द
इब्राहीम द्वारा भेजे जाने के बाद , मिद्यान के वंशज पर्वत श्रृंखला के उत्तर और दक्षिण दोनों काकेशस के क्षेत्र में बस गए:
मित्तानी देश की राजधानी का नाम वसुखानी (धन की खान) था।
इस वंश के वैवाहिक सम्बन्ध मिस्र से थे। एक धारणा यह है कि इनके माध्यम से भारत का बाबुल, मिस्र और यूनान पर गहरा प्रभाव पडा।
- कीर्त्य Kirta 1500 BC-1490 BC
- सत्वर्ण 1 :Shuttarna I, son of Kirta 1490 BC-1470 BC
- वरतर्ण- Barattarna, P/Barat(t)ama 1470 BC-1450 BC
- Parshatatar, (may be identical with Barattarna) 1450 BC-1440 BC
- Shaushtatar (son of Parsha(ta) tar) 1440 BC-1410 BC
- आर्ततम 1 Artatama I 1410 BC-1400 BC
- सत्वर्ण 2 Shuttarna II 1400 BC-1385 BC
- अर्थसुमेढ़ Artashumara 1385 BC-1380 BC
- तुष्यरथ अथवा दशरथ en:Tushratta 1380 BC-1350 BC
- सत्वर्ण 3 Shuttarna III 1350 BC, son of an usurper Artatama II
- मतिवाज Shattiwaza or Mattivaza, son of Tushratta 1350 BC-1320 BC
- क्षत्रवर 1 Shattuara I 1320 BC-1300 BC
- वसुक्षत्र Wasashatta, son of Shattuara 1300 BC-1280 BC
- क्षत्रवर 2 Shattuara II, son or nephew of Wasashatta 1280 BC-1270 BC, or maybe the same king as Shattuara I.
मितानी के राज्य
सदी 1500 ई०पू० से 1300 ईसा पूर्व विद्यमान थे।ओल्ड असीरियन साम्राज्य (Yamhad) जमहद मध्य अश्शूर साम्राज्य अपने इतिहास की शुरुआत में वैदिक रूप मितज्ञु की प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी मिस्र थुटमोसाइट्स के तहत थी। हालांकि, हित्ती साम्राज्य की चढ़ाई के साथ, मित्तन्नी और मिस्र ने हित्ति प्रभुत्व के खतरे से अपने पारस्परिक हितों की रक्षा के लिए एक बन्धन बनाया।
14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व 14 वीं सदी के दौरान, मितांनी ने अपनी राजधानी वासुखेनी पर केंद्रित निगरानी रखी, जिसका स्थान पुरातत्वविदों द्वारा खबुर नदी के मुख्यालयों पर बताया गया था।
मितन्नी राजवंश ने उत्तरी युफ्रेट्स-तिग्रिस (फरात एवं दजला) क्षेत्र पर सदी के बीच शासन किया।
1475 और सदी 1275 ईसा पूर्व आखिरकार, मित्तानी हित्ती और बाद में अश्शूर (असुर )के हमलों की निन्दा करते थे, और मध्य असीरियन साम्राज्य के एक प्रान्त का दर्जा कम कर दिया गया था।
पाश्चात्य इतिहास विद "मार्गरेट .एस. ड्रावर ने "तुसरत" (दशरथ)-के नाम का अनुवाद 'भयानक रथों के मालिक' के रूप में किया है।
लेकिन यह वास्तव में 'दशरथ रथों का मालिक' या 'दस गुना रथ' हो सकता है
जो दशरथ के नाम की प्रतिध्वनि है।
दशरथ ने दस राजाओं के संघ का नेतृत्व किया। इस नाम में आर्यार्थ जैसे बाद के नामों की प्रतिध्वनि है।
सीता और राम का ऋग्वेद में भी वर्णन है।
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राम नाम के एक असुर (शक्तिशाली राजा) को संदर्भित करता है, लेकिन कोसल का कोई उल्लेख नहीं करता है।
वास्तव में कोसल नाम शायद सुमेरियन माइथॉलॉजी में "खास-ला" के रूप में था ।
और सुमेरियन अभिलेखों के मार-कासे (बार-कासे) के अनुरूप हो सकता है।👇
"refers to an Asura (powerful king) named Rama but makes no mention of Kosala.♨
In fact the name Kosala was probably Khas-la and may correspond to Mar-Khase (Bar-Kahse) of the Sumerian records.
कई प्राचीन संस्कृतियों में मिथकों में साम्य उनकी प्राचीन एकरूपता का सूचक हैं।
प्रस्तुत लेख मनु के जीवन की प्रधान घटना बाढ़ की कहानी का विश्लेषण करना ही है। परन्तु ये सभी पात्र पौराणिक हैं अत: इनकी ऐतिहासिक सिद्ध के लिए इनका अन्य संस्कृतियों से उद्धरण अपेक्षित है।
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2-सुमेरियन संस्कृति में 'मनु'का वर्णन जीवसिद्ध के रूप में-
महान बाढ़ आई और यह अथक थी और मछली जो विष्णु की मत्स्य अवतार थी, ने मानवता को विलुप्त होने से बचाया।
ज़ीसुद्र सुमेर का एक अच्छा राजा था और देव एनकी ने उसे चेतावनी दी कि शेष देवताओं ने मानव जाति को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प किया है ।
उसने एक बड़ी नाव बनाने के लिए ज़ीसुद्र को बताया। बाढ़ आई और मानवता बच गई।
सैमेटिक संस्कृतियों में प्राप्त मिथकों के अनुसार
नूह (मनु:)को एक बड़ी नाव बनाने और नाव पर सभी जानवरों की एक जोड़ी लेने की चेतावनी दी गई थी। नाव को अरारात पर्वत जाना था ।
और उसके शीर्ष पर लंगर डालना था जो बाढ़ में बह गया था।
इन तीन प्राचीन संस्कृतियों में महान बाढ़ के बारे में बहुत समान कहानियाँ हैं।
बाइबिल के अनुसार इज़राइल में इस तरह की बड़ी बाढ़ का कारण कोई महान नदियाँ नहीं हैं, लेकिन हम जानते हैं कि
इब्रानियों ने उर के इब्राहीम के लिए अपनी उत्पत्ति का पता लगाया जो मेसोपोटामिया में है।
भारतीय इतिहास में यही इब्राहीम ब्रह्मा है।
जबकि टिगरिस (दजला)और यूफ्रेट्स (फरात)बाढ़ और अक्सर बदलते प्रवेश में, उनकी बाढ़ उतनी बड़े पैमाने पर नहीं होती है।
एक दिलचस्प बात यह है कि अंग्रेजी क्रिया "Meander "का अर्थ है, जिसका उद्देश्य लक्ष्यहीनता से एक तुर्की नदी के नाम से आता है।
जो अपने परिवेश को बदलने के लिए कुख्यात है।
सिंधु और गंगा बाढ़ आती हैं लेकिन मनु द्वारा वर्णित प्रलय जैसा कुछ भी नहीं है।
महान जलप्रलय 5000 ईसा पूर्व के आसपास हुआ जब भूमध्य सागर काला सागर में टूट गया।
इसने यूक्रेन, अनातोलिया, सीरिया और मेसोपोटामिया को विभिन्न दिशाओं में (littoral) निवासियों के प्रवास का नेतृत्व किया।
ये लोग अपने साथ बाढ़ और उसके मिथक की अमिट स्मृति को ले गए।
अक्कादियों ने कहानी को आगे बढ़ाया क्योंकि उनके लिए सुमेरियन वही थे जो लैटिन यूरोपीय थे।
सभी अकाडियन शास्त्रियों को सुमेरियन, एक मृत भाषा सीखना था, जैसे कि सभी शिक्षित यूरोपीय मध्य युग में लैटिन सीखते हैं।
ईसाइयों ने मिथक को शामिल किया क्योंकि वे पुराने नियम को अवशोषित करते थे क्योंकि उनके भगवान जन्म से यहूदी थे।
बाद में उत्पन्न हुए धर्मों ने मिथक को शामिल नहीं किया। जोरास्ट्रियनवाद जो कि भारतीय वैदिक सन्दर्भों में साम्य के साथ दुनियाँ के रंगमञ्च पर उपस्थित होता है; ने मिथक को छोड़ दिया।
अर्थात् पारसी धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में जल प्रलय के स्थान पर यम -प्रलय ( हिम -प्रलय ) का वर्णन है
जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म। इसी तरह इस्लाम जो यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और कुछ स्थानीय अरब रीति-रिवाजों का मिश्रण है, जो मिथक को छोड़ देता है। सभी मनु के जल प्रलय के मिथकों में विश्वास करते हैं ।
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सुमेरियन और भारतीयों के बीच एक और आम मिथक है सात ऋषियों का है।
सुमेरियों का मानना था कि उनका ज्ञान और सभ्यता सात ऋषियों से उत्पन्न हुई थी। हिंदुओं में सप्त ऋषियों का मिथक है जो इन्द्र से अधिक शक्तिशाली थे।
यह सुमेरियन कैलेंडर से है कि हमारे पास अभी भी सात दिन का सप्ताह है।
उनके पास एक दशमलव प्रणाली भी नहीं थी जिसे भारत ने शून्य के साथ आविष्कार किया था। उनकी गिनती का आधार दस के बजाय साठ था । और इसीलिए हमारे पास अभी भी साठ सेकंड से एक मिनट, साठ मिनट से एक घंटे और एक सर्कल में 360 डिग्री है।
सीरिया में अनदेखी मितन्नी राजधानी को वासु-खन्नी अर्थात समृद्ध -पृथ्वी का नाम दिया गया था। मनु ने अयोध्या को बसाया यह तथ्य वाल्मीकि रामायण में वर्णित है।
वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है, "अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"
अथर्ववेद १०/२/३१ में वर्णित है।
वास्तव में यह सारा सूक्त ही अयोध्या पुरी के निर्माण के लिए है।
नौ द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही अयोध्या पुरी बन सकता है।
अयोध्या का समानार्थक शब्द "अवध" है ।
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम -करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व-पुरुष { Pro -Genitor } के रूप में स्वीकृत की है ।
मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं ।
वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरुष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , वह था "मेनेस्" (Menes)अथवा मेनिस् (Menis) इस संज्ञा से अभिहित था ।
मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था
"मेंम्फिस "प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।
तथा यहीं का पार्श्ववर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में भी मनु की जल--प्रलय का वर्णन मिऑन (Meon)के रूप में है ।
मिऑन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है । जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे। इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेऑनिया "Maionia" भी था ।
ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में "मनु" को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है ।
ग्रीक पौराणिक कथाओं में मिनॉस कौन था?
ग्रीक पौराणिक कथाओं में मिनोस क्रेते द्वीप के राजा और शासक थे। उन्हें ज़्यूस और यूरोपा का पुत्र माना जाता था । किंवदंतियों के भीतर, मिनोस को कई उपलब्धियों का श्रेय दिया जाता है, जिसमें पोसिडॉन की इच्छा के माध्यम से सिंहासन प्राप्त करना और एजियन सागर के कई द्वीपों का उपनिवेश करना शामिल है। उन्हें कानूनों का एक सफल कोड बनाने का श्रेय भी दिया जाता है। मिनोस ग्रीक पौराणिक कथाओं की कई कहानियों में एक शक्तिशाली राजा के रूप में एक चरित्र के रूप में प्रकट होता है जो न्याय और कभी-कभी अत्याचार के साथ शक्ति रखता है। ग्रीक किंवदंतियों के अलावा, विद्वानों और इतिहासकारों का मानना है कि मिनोस कांस्य युग के शासकों को दी गई एक शाही उपाधि हो सकती है।
कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon) और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य संयोग नहीं अपितु संस्कृतियों की एकरूपता की द्योतक है ।
यम और मनु दौनों को सजातिय रूप में सूर्य की सन्तानें बताया है।
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विश्व संस्कृतियों में यम का वर्णन --- यहाँ भी कनानी संस्कृतियों में भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है।
कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था ।
स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्•गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।
और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल सर्वविदित ही है। परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान एक पूर्व पुरुष था --जो हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था।
जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ।
तब मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनका विलय हुआ ।
तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी।
और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट ( Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है ।
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव
(श्रृाद्ध -देव) कह कर सम्बोधित किया है।
तथा बारहवीं सदी में रचित श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु तथा श्रृद्धा से ही मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। 👇
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में "मनवे वै प्रात: "वाक्यांश से घटना का उल्लेख आठवें अध्याय में मिलता है।
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है।👇
--श्रृद्धा देवी वै मनु (काण्ड-१--प्रदण्डिका १) श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु और श्रृद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है--
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"ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत श्रृद्धायां जनयामास दशपुत्रानुस आत्मवान"(9/1/11)
छन्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रृद्धा की विचार और भावना रूपक व्याख्या भी मिलती है।
"यदा वै श्रृद्धधाति अथ मनुते नाऽश्रृद्धधन् मनुते "
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जब मनु के साथ प्रलय की घटना घटित हुई तत्पश्चात् नवीन सृष्टि- काल में :– असुर (असीरियन) पुरोहितों की प्रेरणा से ही मनु ने पशु-बलि दी थी।
शतपथ ब्राह्मण में यह कथा वर्णित है।
मनु प्रथम पथ-प्रदर्शक और अग्निहोत्र प्रज्वलित करने वाले तथा अन्य कई वैदिक कथाओं के नायक हैं : 'मनुर्हवा अग्रे यज्ञेनेजे यदनुकृत्येमा: प्रजा यजन्ते’ (5.1 शतपथ)। इनके संबंध में वैदिक साहित्य में बहुत-सी बातें बिखरी हुई मिलती हैं; किंतु उनका क्रम स्पष्ट नहीं है। जल-प्लावन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण के प्रथम कांड के आठवें अध्याय से आरंभ होता है, जिसमें उनकी नाव के उत्तरगिरि हिमवान प्रदेश में पहुंचने का प्रसंग है । वहां ओघ के जल का अवतरण होने पर मनु भी जिस स्थान पर उतरे, उसे मनोरवसर्पण कहते हैं । अपीपरं वै त्वा, वृक्षे नावं प्रतिबध्नीष्व, तै तु त्वा मा गिरौ सन्त मुदकमन्तश्चैत्सीद् यावद् यावदुदकं समवायात्---तावत् तावदन्ववसर्पासि इति स ह तावत् तावदेवान्ववससर्प । तदप्येतदुत्तरस्य गिरेर्मनोरवसर्पणमिति । (8.1)
श्रद्धा के साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निर्जन प्रदेश में उजड़ी हुई सृष्टि को फिर से आरंभ करने का प्रयत्न हुआ । किंतु असुर पुरोहित के मिल जाने से इन्होंने पशु-बलि की—--'किलाताकुली-इति हासुर ब्रम्हावासतु: । तौ होचतु:- श्रद्धादेवो वै मनुः--आवं नु वेदावेति । तो हागत्योचतुः---मनो । बाजयावत्वेति ।'
इस यज्ञ के बाद मनु में जो पूर्व-परिचित देव-प्रवृत्ति जाग उठी--उसने इड़ा के संपर्क में आने पर उन्हें श्रद्धा के अतिरिक्त एक
दूसरी ओर प्रेरित किया । इड़ा के संबंध में शतपथ में कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूर्ण पोषिता को देखकर मनु ने पूछा कि 'तुम कौन हो ?' इड़ा ने कहा,'तुम्हारी दुहिता हूं। ' मनु ने पूछा कि 'मेरी दुहिता कैसे ?' उसने कहा 'तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है ।’ ‘तां ह' मनुरुवाच —-'का असि' इति । 'तव दुहिता' इति। 'कथं भगवति ? मम दुहिता' इति । (शतपथ 6 प्र॰ 3 ब्रा॰)
१.१.४ पुरोडाशकरणम्
अथ कृष्णाजिनमादत्ते । यज्ञस्यैव सर्वत्वाय यज्ञो ह देवेभ्योऽपचक्राम स कृष्णो भूत्वा चचार तस्य देवा अनुविद्य त्वचमेवावच्छायाजह्रुः -१.१.४.[१]
तस्य यानि शुक्लानि च कृष्णानि च लोमानि । तान्यृचां च साम्नां च रूपं यानि शुक्लानि तानि साम्नां रूपं यानि कृष्णानि तान्यृचां यदि वेतरथा यान्येव कृष्णानि तानि साम्नां रूपं यानि शुक्लानि तान्यृचां यान्येव बभ्रूणीव हरीणि तानि यजुषां रूपम् - १.१.४.[२]
सैषा त्रयी विद्या यज्ञः । तस्या एतच्छिल्पमेष वर्णस्तद्यत्कृष्णाजिनं भवति यज्ञस्यैव सर्वत्वाय तस्मात्कृष्णाजिनमधि दीक्षन्ते यज्ञस्यैव सर्वत्वाय तस्मादध्यवहननमधिपेषणं भवत्यस्कन्नं हविरसदिति तद्यदेवात्र तण्डुलो वा पिष्टं वा स्कन्दात्तद्यज्ञे यज्ञः प्रतितिष्ठादिति तस्मादध्यवहननमधिपेषणं भवति - १.१.४.[३]
अथ कृष्णाजिनमादत्ते । शर्मासीति चर्म वा एतत्कृष्णस्य तदस्य तन्मानुषं शर्म देवत्रा तस्मादाह शर्मासीति तदवधूनोत्यवधूतं रक्षोऽवधूता अरातय इति तन्नाष्ट्रा एवैतद्रक्षांस्यतोऽपहन्त्यतिनत्येव पात्राण्यवधूनोति यद्ध्यस्यामेध्यमभूत्तद्ध्यस्यैतदवधूनोति - १.१.४.[४]
तत्प्रतीचीनग्रीवमुपस्तृणाति । अदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्त्वितीयं वै पृथिव्यदितिस्तस्या अस्यै त्वग्यदिदमस्यामधि किञ्च तस्मादाहादित्यास्त्वगसीति प्रति त्वादितिर्वेत्त्विति प्रति हि स्वः सं जानीते तत्संज्ञामेवैतत्कृष्णाजिनाय च वदति नेदन्योऽन्यं हिनसात इत्यभिनिहितमेव सव्येन पाणिना भवति - १.१.४.[५]
अथ दक्षिणेनोलूखलमाहरति । नेदिह पुरा नाष्ट्रा रक्षांस्याविशानिति ब्राह्मणो हि रक्षसामपहन्ता तस्मादभिनिहितमेव सव्येन पाणिना भवति - १.१.४.[६]
अथोलूखलं निदधाति । अद्रिरसि वानस्पत्यो ग्रावासि पृथुबुध्न इति वा तद्यथैवादः सोमं राजानं ग्रावभिरभिषुण्वन्त्येवमेवैतदुलूखलमुसलाभ्यां दृषदुपलाभ्यां हविर्यज्ञमभिषुणोत्यद्रय इति वै तेषामेकं नाम तस्मादाहाद्रिरसीति वानस्पत्य इति वानस्पत्यो ह्येष ग्रावासि पृथुबुध्न इति ग्रावा ह्येष पृथुबुध्नो ह्येष प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्त्विति तत्संज्ञामेवैतत्कृष्णाजिनाय च वदति नेदन्योऽन्यं हिनसात
इति - १.१.४.[७]
अथ हविरावपति । अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनमिति यज्ञो हि तेनाग्नेस्तनूर्वाचो विसर्जनमिति यां वा अमूं हविर्ग्रहीष्यन्वाचं यच्छत्यत्र वै तं विसृजते तद्यदेतामत्र वाचं विसृजत एष हि यज्ञ उलूखले प्रत्यष्ठादेष हि प्रासारि तस्मादाह वाचो विसर्जनमिति - १.१.४.[८]
स यदिदं पुरा मानुषीं वाचं व्याहरेत् । तत्रो वैष्णवीमृचं वा यजुर्वा जपेद्यज्ञो वै विष्णुस्तद्यज्ञं पुनरारभते तस्यो हैषा प्रायश्चित्तिर्देववीतये त्वा गृह्णामीति देवानवदित्यु हि हविर्गृह्यते - १.१.४.[९]
अथ मुसलमादत्ते । बृहद्ग्रावासि वानस्पत्य इति बृहद्ग्रावा ह्येष वानस्पत्यो ह्येष तदवदधाति स इदं देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्वेति स इदं देवेभ्यो हविः संस्कुरु साधु संस्कृतं संस्कुर्वित्येवैतदाह - १.१.४.[१०]
अथ हविष्कृतमुद्वादयति । हविष्कृदेहि हविष्कृदेहीति वाग्वै हविष्कृद्वाचमेवैतद्विसृजते वागु वै यज्ञस्तद्यज्ञमेवैतत्पुनरुपह्वयते - १.१.४.[११]
तानि वा एतानि । चत्वारि वाच एहीति ब्राह्मणस्यागह्याद्रवेति वैश्यस्य च राजन्यबन्धोश्चाधावेति शूद्रस्य स यदेव ब्राह्मणस्य तदा हैतद्धि यज्ञियतममेतदु ह वै वाचः शान्ततमं यदेहीति तस्मादेहीत्येव ब्रूयात् - १.१.४.[१२]
तद्ध स्मैतत्पुरा । जायैव हविष्कृदुपोत्तिष्ठति तदिदमप्येतर्हि य एव कश्चोपोत्तिष्ठति स यत्रैष हविष्कृतमुद्वादयति तदेको दृषदुपले समाहन्ति तद्यदेतामत्र वाचं प्रत्युद्वादयन्ति - १.१.४.[१३]
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मनोर्ह वा ॠषभ आस । तस्मिन्नसुरघ्नी सपत्नघ्नी वाक्प्रविष्टास तस्य ह स्म
श्वसथाद्रवथादसुररक्षसानि मृद्यमानानि यन्ति ते हासुराः समूदिरे पापं बत नोऽयमृषभः सचते कथं न्विमं दभ्नुयामेति किलाताकुली इति हासुरब्रह्मावासतुः - १.१.४.[१४]
तौ होचतुः । श्रद्धादेवो वै मनुरावं नु वेदावेति तौ हागत्योचतुर्मनो याजयाव त्वेति केनेत्यनेनर्षभेणेति तथेति तस्यालब्धस्य सा वागपचक्राम - १.१.४.[१५]
सा मनोरेव जायां मनावीं प्रविवेश । तस्यै ह स्म यत्र वदन्त्यै शृण्वन्ति ततो ह स्मैवासुररक्षसानि मृद्यमानानि यन्ति ते हासुराः समूदिर इतो वै नः पापीयः सचते भूयो हि मानुषी वाग्वदतीति किलाताकुली हैवोचतुः श्रद्धादेवो वै मनुरावं न्वेव वेदावेति तौ हागत्योचतुर्मनो याजयाव त्वेति केनेत्यनयैव जाययेति तथेति तस्या आलब्धायै सा वागपचक्राम - १.१.४.[१६]
सा यज्ञमेव यज्ञपात्राणि प्रविवेश । ततो हैनां न शेकतुर्निर्हन्तुं सैषासुरघ्नी वागुद्वदति स यस्य हैवंविदुष एतामत्र वाचं प्रत्युद्वादयन्ति पापीयांसो हैवास्य सपत्ना भवन्ति - १.१.४.[१७]
स समाहन्ति । कुक्कुटोऽसि मधुजिह्व इति मधुजिह्वो वै स देवेभ्य आसीद्विषजिह्वोऽसुरेभ्यः स यो देवेभ्य आसीः सन एधीत्येवैतदाहेषमूर्जमावद त्वया वयं सङ्घातं सङ्घातं जेष्मेति नात्र तिरोहितमिवास्ति - १.१.४.[१८]
अथ शूर्पमादत्ते । वर्षवृद्धमसीति वर्षवृद्धं ह्येतद्यदि नडानां यदि वेणूनां यदीषीकाणां वर्षमु ह्येवैता वर्धयति - १.१.४.[१९]
अथ हविर्निर्वपति । प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्त्विति वर्षवृद्धा उ ह्येवैते यदि व्रीहयो यदि यवा वर्षमु ह्येवैतान्वर्धयति तत्संज्ञामेवैतच्छूर्पाय च वदति नेदन्योऽन्यं हिनसात इति - १.१.४.[२०]
अथ निष्पुनाति । परापूतं रक्षः परापूता अरातय इत्यथ तुषान्प्रहन्त्यपहतं रक्ष इति तन्नाष्ट्रा एवैतद्रक्षांस्यतोऽपहन्ति - १.१.४.[२१]
अथापविनक्ति । वायुर्वो विविनक्त्वित्ययं वै वायुर्योऽयं पवत एष वा इदं सर्वं विविनक्ति यदिदं किंच विविच्यते तदेनानेष एवैतद्विविनक्ति स यदैत एतत्प्राप्नुवन्ति यत्रैनानध्यपविनक्ति - १.१.४.[२२]
अथानुमन्त्रयते । देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिद्रेण पाणिना सुप्रतिगृहीता असन्नित्यथ त्रिः फलीकरोति त्रिवृद्धि यज्ञः - १.१.४.[२३]
तद्धैके देवेभ्यः शुन्धध्वं देवेभ्यः शुन्धध्वमिति फलीकुर्वन्ति तदु तथा न कुर्यादादिष्टं वा एतद्देवतायै हविर्भवत्यथैतद्वैश्वदेवं करोति यदाह देवेभ्यः शुन्धध्वमिति तत्समदं करोति तस्मादु तूष्णीमेव फलीकुर्यात् - १.१.४.[२४]
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"किलाताकुली इति हासुरब्रह्मावासतुः” । शतपथ ब्राह्मण- १, १,४, १४,
तौ हो चतु: श्रृद्धादेवो वै मनु: आवं नु वेदावेति।
तौ हा गत्यो चतु: मनो वाजयाव तु इति।।
असुर लोग वस्तुत: मैसॉपोटमिया के अन्तर्गत असीरिया के निवासी थे।
सुमेर भी इसी का एक अवयव था ।
अत: मनु और असुरों की सहवर्तीयता प्रबल प्रमाण है मनु का सुमेरियन होना ।
बाइबिल के अनुसार असीरियन लोग यहूदीयों के सहवर्ती सैमेटिक शाखा के थे।
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु की वर्णित कथा हिब्रू बाइबिल में यथावत है --- देखें एक समानता !
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हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
उत्पत्ति
अध्याय 8
2गहिरे सागर के सोते और आकाश के झरोखे बन्द हो गए, और आकाश से होनेवाली वर्षा थम गई;
3और जल पृय्वी पर से नित्य घटता जाता या, और डेढ़ सौ दिन के बीतने पर जल थम जाता या।
4और सातवें महीने के सत्रहवें दिन को सन्दूक अरारत नाम पहाड़ पर टिक गया।
5और जल दसवें महीने तक घटता चला गया, और दसवें महीने के पहिले दिन को पहाड़ोंकी चोटियां दिखलाई दीं।
6और ऐसा हुआ कि चालीस दिन के बीतने पर नूह ने अपने बनाए हुए सन्दूक की खिड़की को खोलकर कहा:
7और उस ने एक कौआ उड़ाया, जो तब तक इधर उधर फिरता रहा, जब तक जल पृय्वी पर से सूख न गया।
8फिर उस ने अपके पास से एक कबूतर को उड़ा दिया, कि देखे कि जल भूमि पर से घट गया कि नहीं;
10और वह और सात दिन रहा; और फिर उस ने कबूतर को सन्दूक में से उड़ा दिया;
12और वह और सात दिन रहा; और कबूतर उड़ा दिया; जो उसके पास फिर कभी न लौटा।
14और दूसरे महीने के सत्तरवें दिन को भूमि सूख गई।
16तू और तेरी पत्नी, और तेरे पुत्र, और तेरे पुत्रों की पत्नियां, सन्दूक में से निकल आ।
18और नूह, और उसके बेटे, और उसकी पत्नी, और उसके पुत्रों की पत्नियां उसके संग निकलीं।
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" And Noah builded an alter unto the Lord Jehovah and took of the every clean beast, and of every clean fowl or birds, and offered ( he sacrificed ) burnt offerings on the alter ।20।
Genesis-8:20 in English translation...
हृद् तथा श्रृद् शब्द वैदिक भाषा में मूलत: एक रूप में ही हैं ; रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन आदि में क्रेडॉ "credo" का अर्थ :--- मैं विश्वास करता हूँ ।
तथा क्रिया रूप में credere---to believe लैटिन क्रिया credere--- का सम्बन्ध भारोपीय धातु
"Kerd-dhe" ---to believe से है ।
साहित्यिक रूप इसका अर्थ "हृदय में धारण करना –(to put On's heart-- पुरानी आयरिश भाषा में क्रेटिम cretim रूप --- वेल्स भाषा में (credu ) और संस्कृत भाषा में श्रृद्धा(Srad-dha)---faith,
इस शब्द के द्वारा सांस्कृतिक प्राक्कालीन एक रूपता को वर्णित किया है ।
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श्रृद्धा का अर्थ :–Confidence, Devotion आदि हार्दिक भावों से है ।
प्राचीन भारोपीय (Indo-European) रूप कर्ड (kerd)--हृदय है ।
ग्रीक भाषा में श्रृद्धा का रूप "Kardia" तथा लैटिन में "Cor " है ।
आरमेनियन रूप ---"Sirt" पुरातन आयरिश भाषा में--- "cride" वेल्स भाषा में ---"craidda" हिट्टी में--"kir" लिथुअॉनियन में--"sirdis" रसियन में --- "serdce" पुरानी अंग्रेज़ी --- "heorte". जर्मन में --"herz" गॉथिक में --hairto " heart" ब्रिटॉन में---- kreiz "middle" स्लेवॉनिक में ---sreda--"middle ..
यूनानी ग्रन्थ "इलियड तथा ऑडेसी "महा काव्य में प्राचीनत्तम भाषायी साम्य तो है ही देवसूचीयों में भी साम्य है ।
आश्चर्य इस बात का है कि आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि "माइनॉस्" और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है। क्रीट (crete) माइथॉलॉजी में माइनॉस् का विस्तृत विवेचन है, जिसका अंग्रेजी रूपान्तरण प्रस्तुत है ।👇
-----------------------------------------------------------Minos and his brother Rhadamanthys
जिसे भारतीय पुराणों में रथमन्तः कहा है ।
And sarpedon were Raised in the Royal palace of Cnossus-... Minos Marrieged pasiphae- जिसे भारतीय पुराणों में प्रस्वीः प्रसव करने वाली कहा है !
शतरूपा भी इसी का नाम था यही प्रस्वीः या पैसिफी सूर्य- देव हैलिऑस् (Helios) की पुत्री थी। क्यों कि यम और यमी भाई बहिन ही थे ।
जिन्हें मिश्र की संस्कृतियों में पति-पत्नी के रूप में भी वर्णित किया है ।
Pasiphae is the Doughter of the sun god (helios ) हैलीऑस् के विषय में एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि यूनानीयों का यही हैलीऑस् मैसोपॉटामियाँ की पूर्व सैमेटिक भाषाओं ---हिब्रू आरमेनियाँ तथा अरब़ी आदि में "ऐल " (El) के रूप में है। इसी शब्द का हिब्रू भाषा में बहुवचन रूप ऐलॉहिम- Elohim )है ।
इसी से अरब़ी में " अल् --इलाह के रूप में अल्लाह शब्द का विकास हुआ है।
विश्व संस्कृतियों में सूर्य ही प्रत्यक्ष सृष्टि का कारण है । अत: यही प्रथम देव है ।भारतीय वैदिक साहित्य में " अरि " शब्द का प्राचीनत्तम अर्थ "ईश्वर" है ।वेद में "अरि" शब्द के अर्थ हैं ईश्वर तथा घर "और लौकिक संस्कृत में अरि शब्द केवल शत्रु के अर्थ में रूढ़ हो गया
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १३६ वें सूक्त का ५वाँ श्लोक "अष्टौ अरि धायसो गा:
पूर्ण सूक्त इस प्रकार है ।👇
पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन्युक्ताँ अष्टवरि धायसो गा: । सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त: श्रव ऐषन्त पज्रा: ऋ०1/126/5/
कुछ भाषा -विद् मानते हैं कि ग्रीक भाषा के हेलिऑस् (Helios)का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्वेल (sawel ) से प्रस्तावित करते हैं।
अवेस्ता ए जेन्द़ में हवर (hvar )-- सूर्य , प्रकाश तथा स्वर्ग लिथुऑनियन सॉले (Saule ) गॉथिक-- सॉइल (sauil) वेल्स ---हॉल (haul) पुरानी कॉर्निश-- हिऑल (heuul) आदि शब्दों का रूप साम्य स्पष्ट है ।
परन्तु यह भाषायी प्रवृत्ति ही है कि संस्कृत भाषा में अर् धातु "हृ "धातु के रूप में पृथक विकसित हुयी।
वैदिक "अरि" का रूप लौकिक संस्कृत भाषा में "हरि" हो कर ईश्वरीय अर्थ को तो प्रकट करता है
परन्तु इरि रूप में शत्रु का अर्थ रूढ़ हो जाता है ।
कैन्नानाइटी संस्कृति में यम "एल" का पुत्र है। और भारतीय पुराणों में सूर्य अथवा विवस्वत् का पुत्र इसी लिए भी हेलिऑस् ही हरिस् अथवा अरि: का रूपान्तरण है ।👇
अरि से हरि और हरि से सूर्य का भी विकास सम्भवत है। जैसे वीर: शब्द सम्प्रसारित होकर आर्य रूप में विकसित हो जाता है।
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जिसमें अज् धातु का संयोजन है:–अज् धातु अर् (ऋ) धातु का ही विकास क्रम है जैसे वीर्य शब्द से बीज शब्द विकसित हुआ ।संस्कृत साहित्य में सूर्य को समय का चक्र (अरि) कह कर वर्णित किया गया है।
."वैदिक सूक्तों में अरिधामश् शब्द का अर्थ अरे: ईश्वरस्य धामश् लोकं इति अरिधामश् रूप में है।
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वास्तव में पैसिफी और माइनॉस् दौनों के पिता सूर्य ही थे ।
ऐसी प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताऐं थी ।
ओ३म् (अमॉन्) रब़ तथा ऐल जिससे अल्लाह शब्द का विकास हुआ प्राचीनत्तम संस्कृतियों में केवल सूर्य के ही वाचक थे ।
आज अल्लाह शब्द को लेकर मुफ़्ती और मौलाना लोग फ़तवा जारी करते हैं और कहते हैं कि यह एक इस्लामीय अरब़ी शब्द है।
--जो गैर इस्लामीय के लिए हराम है ।
परन्तु यह अल्लाह वैदिक अरि का असीरियन रूप है । मनु के सन्दर्भ में ये बातें इस लिए स्पष्ट करनी पड़ी हैं कि क्योंकि अधिकतर संस्कृतियों में मनु को मानवों का आदि तथा सूर्य का ही पुत्र माना गया है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीअॉस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप वर्णन में भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।
जर्मनिक संस्कृतियों में मनु: (मैनुस)Mannus का आख्यान-👇
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Mannus, according to the Roman writer Tacitus, was a figure in the creation myths of the Germanic tribes. Tacitus is the only source of these myths.Tacitus wrote that Mannus was the son of Tuisto and the progenitor of the three Germanic tribes Ingaevones, Herminones and Istvaeones. In discussing the German tribes Tacitus wrote:I n ancient lays, their only type of historical tradition, they celebrate Tuisto, a god brought forth from the earth.They attribute to him a son, Mannus, the source and founder of their people, and to Mannus three sons, from whose names those nearest the Ocean are called Ingvaeones, those in the middle Herminones, and the rest Istvaeones. Some people, inasmuch as antiquity gives free rein to speculation, maintain that there were more sons born from the god and hence more tribal designations—Marsi, Gambrivii, Suebi, and Vandilii—and that those names are genuine and ancient. (Germania, chapter 2)
Several authors consider the name Mannus in Tacitus's work to stem from an Indo-European root; see Indo-European cosmogony § Linguistic evidence.
The Latinized name Mannus is evidently of some relation to Proto-Germanic *Mannaz, "man".
Mannus again became popular in literature in the 16th century, after works published by Annius de Viterbo and Johannes Aventinus purported to list him as a primeval king over Germany and Sarmatia.
In the 19th century, F. Nork wrote that the names of the three sons of Mannus can be extrapolated as Ingui, Irmin, and Istaev or Iscio. A few scholars like Ralph T. H. Griffith have expressed a connection between Mannus and the names of other ancient founder-kings, such as Minos of Greek mythology, and Manu of Hindu tradition.
Guido von List incorporated the myth of Mannus and his sons into his occult beliefs which were later adopted into Nazi occult beliefs.
अनुवाद:-मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है। टैसिटस ने लिखा है कि मन्नस ( Mannus)ट्यूइस्टो ( _त्वष्टा) का पुत्र था और ज्सने तीन जर्मनिक जनजातियों १-इंगेवोन्स, २-हर्मिनोन्स और ३-इस्तवाइओन्स के पूर्वज रूप में स्वयं को व्याख्यायित किया।
जर्मन जनजातियों पर चर्चा करते हुए टैकिटस ने लिखा: कि
प्राचीन काल में, उनकी एकमात्र प्रकार की ऐतिहासिक परंपरा में, जर्मन लोग ट्यूइस्टो का जश्न (उत्सव)मनाते हैं, जो कि पृथ्वी से लाए गए देवता हैं।
वे उसके लिए एक पुत्र, मन्नुस, उनके लोगों के स्रोत और संस्थापक, और मन्नू के तीन पुत्रों को श्रेय देते हैं, जिनके नाम से महासागर के निकटतम लोगों को (इंगवीओन्स ) कहा जाता है, जो मध्य हर्मिनोन्स में हैं, और बाकी इस्तवाईओन्स हैं। कुछ लोग, चूंकि इनकी पुरातनता अटकलों पर पूरी तरह से लगाम लगाती है, यह बनाए रखती है और विश्वास है कि देव से और अधिक पुत्र पैदा हुए थे और इसलिए अधिक आदिवासी पदनाम-मार्सी, गम्ब्रिवी, सुएबी, और वंदिली-आदि हैं और ये नाम वास्तविक और प्राचीन हैं। (जर्मनिया, अध्याय 2)
कई लेखक टैसिटस के काम में मन्नस नाम को एक इंडो-यूरोपियन मूल से उत्पन्न मानते हैं;
लैटिनकृत नाम "मन्नस" स्पष्ट रूप से प्रोटो-जर्मनिक * मन्नज, "आदमी" से कुछ संबंध रखता है।
मेनुस फिर से 16 वीं शताब्दी में साहित्य में लोकप्रिय हो गया, एनियस डी विटर्बो और जोहान्स एवेंटिनस द्वारा प्रकाशित कार्यों के बाद उन्हें जर्मनी और सरमाटिया पर एक आदिम राजा के रूप में जिसे सूचीबद्ध करने के लिए कहा गया।
19 वीं सदी में एफनोर्क ने लिखा है कि "मानुस के तीन बेटों के नाम इंगुई, इरमिन और इस्तैव या इस्सियो के रूप में निकाले जा सकते हैं। कुछ विद्वान जैसे 'राल्फ टी.एचग्रिफ़िथ" ने मानस और अन्य प्राचीन संस्थापक-राजाओं के नामों के बीच एक संबंध व्यक्त किया है, जैसे ग्रीक पौराणिक कथाओं के मिनोस और भारतीय परंपरा के मनु में है।
गुइडो वॉन लिस्ट" ने मन्नस और उसके बेटों के मिथक को अपने मनोगत विश्वासों में शामिल किया, जिन्हें बाद में नाज़ीयों ने मनोगत विश्वासों में अपनाया गया।
References-
[1]Publishers, Struik; Stanton, Janet Parker, Alice Mills, Julie (2007-11-02). Mythology: Myths, Legends and Fantasies. Struik. pp. 234–. ISBN 9781770074538. Archived from the original on 2014-07-04. Retrieved 6 April 2014.
[2]The Phonology/paraphonology Interface and the Sounds of German Across Time, p.64, Irmengard Rauch, Peter Lang, 2008
[3]Tales of the Barbarians: Ethnography and Empire in the Roman West, p. 40, Greg Woolf, John Wiley & Sons, 01-Dec-2010
[4]"Word and Power in Mediaeval Bulgaria", p. 167. By Ivan Biliarsky, Brill, 2011
[5]Mitra-Varuna: An Essay on Two Indo-European Representations, p. 87, by Georges Dumézil, Zone, 1988. The question remains whether one can phonetically link this Latin mani- "(dead) man" the *manu- which, apart from the Sanskrit Manu (both the name and the common noun for "man"), has given, in particular, the Germanic Mannus (-nn- from *-nw- regularly), mythical ancestor of the Germans the Gothic manna "man" ... and the Slavic monžǐ."
[6]"man | Origin and meaning of man by Online Etymology Dictionary". www.etymonline.com. Archived from the original on 2020-08-14. Retrieved 2020-09-28.
[7]Germany and the Holy Roman Empire: Volume I: Maximilian I to the Peace of Westphalia, 1493-1648, p.110, Joachim Whaley, Oxford University Press, 2012
[8]Historian in an age of crisis: the life and work of Johannes Aventinus, 1477-1534, p. 121 Gerald Strauss, Harvard University Press, 1963
[9]William J. Jones, 1999, "Perceptions in the Place of German in the Family of Languages" in Images of Language: Six Essays on German Attitudes, p9 ff.
[10]Populäre Mythologie, oder Götterlehre aller Völker, p. 112, F. Nork, Scheible, Rieger & Sattler (1845)
[11]"A Classical Dictionary of India: Illustrative of the Mythology, Philosophy, Literature, Antiquities, Arts, Manners, Customs &c. of the Hindus", p. 383, by John Garrett, Higginbotham and Company (1873)
[12]़Goodrick-Clarke, Nicholas (1992). The Occult Roots of Nazism: Secret Aryan Cults and Their Influence on Nazi Ideology. NYU Press. pp. 56–. ISBN 9780814730607. Archived from the original on 4 July 2014. Retrieved 6 April 2014.
Grimm, Jacob (1835). Deutsche Mythologie (German Mythology); From English released version Grimm's Teutonic Mythology (1888); Available online by Northvegr © 2004-2007: Chapter 15, page 2 Archived 2012-01-14 at the Wayback Machine File retrieved 12-08-2011.
Tacitus. Germania (1st Century AD). (in Latin...
जर्मन वर्ग की प्राचीन सांस्कृतिक भाषों में क्रमशः यमॉ Yemo- (Twice) -जुँड़वा यमल तथा मेन्नुस Mannus- मनन (Munan ) का वर्णन करने वाला एक रूपता आधार है ।
अर्थात् विचार शक्ति का अधिष्ठाता मनु है ।
और उन मनन "Munan" में संयम का रूप यम है । फ्राँस भाषा में यम शब्द (Jumeau )के रूप में है । रोमन इतिहास कारों में "टेकट्टीक्स" (Tacitus) जर्मन जाति से सम्बद्ध इतिहास पुस्तक "जर्मनिका " में लिखता हैं।
"अपने प्राचीन गाथा - गीतों में वे ट्युष्टो अर्थात् ऐसा ईश्वर जो पृथ्वी से निकल कर आता है।
मैनुस् उसी का पुत्र है वही जन-जातिों का पिता और संस्थापक है।
जर्मनिक जन-जातियाँ उसके लिए उत्सव मनाती हैं । मैनुस् के तीन पुत्रों को वह नियत करते हैं ।
जिनके पश्चात मैन (Men)नाम से बहुत से लोगों को पुकारा जाता है ।
( टेसीटस- (Tacitus).. जर्मनिका अध्याय (2)
100 ईस्वी सन् में लिखित ग्रन्थ...
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यम शब्द रोमन संस्कृति में (Gemellus ) के रूप में है जो लैटिन शब्द (Jeminus) का संक्षिप्त रूप है। रोमन मिथकों के मूल-पाठ (Text )में मेन्नुस् (Mannus) ट्युष्टो (Tuisto )का पुत्र तथा जर्मन आर्य जातियों के पूर्व पुरुष के रूप में वर्णित है ।👇
-- A. roman text(dated) ee98) tells that Mannus the Son of Tvisto Was the Ancestor of German Tribe or Germanic people "
इधर जर्मन आर्यों के प्राचीन मिथकों "प्रॉज़एड्डा आदि में उद्धरण है :–👇
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"Mannus progenitor of German tribe son of tvisto in some Reference identified as Mannus "
उद्धरण अंश (प्रॉज- एड्डा ) वस्तुतः ट्युष्टो ही भारतीय आर्यों का देव त्वष्टा है।
,जिसे विश्व कर्मा कहा है जिसे मिश्र की पुरा कथाओं में "तिहॉती" ,जर्मन भाषा में प्रचलित डच (Dutch )का मूल रूप "त्वष्टा" शब्द है ।
गॉथिक शब्द (Thiuda )के रूप में भी "त्वष्टा" शब्द है प्राचीन उच्च जर्मन में यह शब्द (Diutisc )तथा जर्मन में (Teuton )है ।
और मिश्र की संस्कृति में (tehoti) के रूप में वर्णित है। जर्मन पुराणों में भारतीयों के समान यम और मनु सजातीय थे ।
भारतीय संस्कृति में मनु: और यम: दोनों ही विवस्वान् (सूर्य) की सन्तान थे ।
इसी लिए इन्हें वैवस्वत् कहा गया यह बात जर्मनिक जन-जाति में भी प्रसिद्ध थी।
The Germanic languages have lnformation About both ...Ymir ------------------------------------------------------------ यमीर ( यम) and (Mannus) मेनुस् Cognate of Yemo and Manu"..मेन्नुस् मूलक मेन "Man" शब्द भी डच भाषा का है ।
जिसका रूप जर्मन तथा ऐंग्लो - सेक्शन भाषा में मान्न "Mann" रूप है ।
प्रारम्भ में जर्मन लोग "मनुस्" का वंशज होने के कारण स्वयं को मान्न कहते थे।
मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव -सृष्टि के आदि प्रवर्तक एवम् समग्र मानव जाति के आदि- पिता के रूप में मान्य हो गया था।
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वैदिक सन्दर्भों मे प्रारम्भिक चरण में मनु तथा यम का अस्तित्व अभिन्न था कालान्तरण में मनु को जीवित मनुष्यों का तथा यम को मृत मनुष्यों के लोक का आदि पुरुष माना गया __________________________________ जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया ।
मैने प्रायः उन्हीं तथ्यों का पिष्ट- पेषण भी किया है जो मेरे विचार बलाघात का लक्ष्य है।
और मुझे अभिप्रेय भी ..
जर्मन माइथॉलॉजी में यह तथ्य प्रायः प्रतिध्वनित होता रहता है ।👇 ------------------------------------------------------------
"The ancient Germanic tribes believeb that they had acmmon origin all of them Regarding as their fore father "mannus" the son of god "tuisco" mannus was supposed to have and three sons from whom had sprung the istaevones the lngavones" ----------------------------------------------------------
हम पूर्व में इस बात को कह चुके हैं , कि क्रीट मिथकों में माइनॉस् (Minos )ज्युस तथा यूरोपा की प्रथम सन्तान है । 👇
यूनानीयों का ज्यूस ही वैदिक संहिताओं में (द्यौस् )के रूप में वर्णित है विदित हो कि यूरोप महाद्वीप की संज्ञा का आधार यही यूरोपा शब्द ही है।
.यहाँ एक तथ्य विद्वानों से निवेदित है कि मिथकों में वर्णित घटनाऐं और पात्र प्राचीन होने के कारण परम्परागत रूप से सम्वहन होते होते अपने मूल रूप से प्रक्षिप्त (बदली हुई ) हो जाती है ; परन्तु उनमें वर्णित पात्र और घटनाओं का अस्तित्व अवश्य होता है ।
किसी न किसी रूप में मनु के विषय में यूरेशिया की बहुत सी संस्कृतियाँ वर्णन करती हैं ।
.🐋🐬🐳🐋🏊🏄🐟.....
पाश्चात्य पुरातत्व वेत्ता - डॉ० लियो नार्ड वूली ने पूर्ण प्रमाणित पद्धति से सिद्ध किया है ।
कि एशिया माइनर के पार्श्ववर्ती स्थलों का जब उत्खनन करवाया , तब ज्ञात हुआ कि जल -प्रलय की विश्व -प्रसिद्ध घटना सुमेरिया और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में हुई थी।
सुमेरियन जल - प्रलय के नायक सातवें मनु वैवस्वत् थे जल प्रलय के समय मत्स्य अवतार विष्णु रूप में भगवान् ने इसी मनु की रक्षा की थी ...इस घटना का एशिया-माइनर की असीरी संस्कृति (असुरों की संस्कृति ) की पुरा कथाओं में उल्लेख है कि मनु ही जल- प्रलय के नायक थे ।
विष्णु और मनु के आख्यान सुमेरियन संस्कृति से उद्धृत किए भारत में आगत देव संस्कृति से अनुयायीयों ने 👇
"विष्णु देवता का जन्म सुमेरियन
पुरातन कथाओं में"
82 INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED
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sentation on ancient Sumerian and Hitto-Phoenician sacred seals and on Ancient Briton monuments,
see our former work,
1 of which the results therein announced are now con- firmed and established by the evidence of these Indo- Sumerian seals.
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This Sumerian " Fish " title for the Sun-god on this and the other amulet seals, as " Fish of the Setting Sun (S'u- kha) " is of the utmost critical importance for establishing the Sumerian origin of the Indo-Aryans..
and the Aryan character of the Sumerian language,
as it discloses for the first time the origin and hither to unknown real meaning of the Vedic name for the Sun-god " Vishnu," and of his represen-tative as a Fish-man, as well as the Sumerian origin of the English word " Fish," the Gothic " Fisk " and Latin " Piscis."
The first " incarnation " of the Sun-god Vishnu in Indian mythology is represented as a Fish-man (see Fig. 19)
and in substantially the same form as the Sumerian Fish-man personification of the Sun-god of the Waters in the Sumerian seals.
Now the Sumerians of Mesopotamia called the Setting Sun " The Fish (KM) "
2- a fact which has not hitherto been remarked or recognized.
And this Sumerian title of " Fish " for the Sun is explained in the bilingual
Sumero-Akkadian glossaries by the actual word occurring in this and the other Indo-Sumerian amulets,
namely S'u-khd, with the addition of " man = (na),
_________________________________________
3 by word-signs which read literally " The Winged Fish-man " ; * thus co-relating the Winged or soaring Sun with the Fish personification of the supposed " returning or resurrecting " Sun in " the waters under the earth." This solar title of "
The Winged Fish " is further given the synonym of "The turning Bii-i-es's which latter name 1 W.P.O.B., 247 f., 251, 308. 2 B.. 8638. 3 lb., and 1586. 4 S'u=" wing," B.W., 311. 5 Gar-bi-i-i-es' (B., 7244) ; gar=" turn " (B., 11984) ; es' (B., 2551).
SUMER ORIGIN OF VISHNU IN NAME AND FORM 83
is evidently a variant spelling of the Sumerian Pi-es' or Pish for " Great Fish " with the pictograph word-sign of Fig, 19. — Sumerian Sun-Fish as Indian Sun-god Vishnu. From an eighteen th-centuiy Indian image (after Moor's Hindoo Pantheon).
Note the Sun-Cross pendant on his necklace. He is given four arms to carry his emblems : la) Disc of the Fiery Wheel {weapon) of the Sun, (M Club or Stone-mace (Gada or Kaumo-daki)
1 of the Sky-god Vanma, (c) Conch-shell (S'ank-ha), trumpet of the Sea-Serpent demon, 1 (d) Lotus (Pad ma) as Sun- flower.* i. Significantly this word " Kaumo-daki " seems to be the Sumerian Qum, " to kill or crush to pieces " (B., 4173 ; B.W.. 193) and Dak or Daggu " a cut stone " (B., 5221, 5233). a. " Protector of the S'ankha (or Conch) " is the title of the first and greatest Sea- Serpent king in Buddhist myth, see my List of Naga (or Sea-Serpent) Kings in Jour. Roy. Asiat. Soc, Jan, 1894. 3. On the Lotus as symbol of heavenly birth, see my W.B.T., 338, 381, 388.
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84 INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED Fish joined to sign " great." 1 This now discloses the Sumerian origin not only of the " Vish " in Vish-nu, but also of the English '* Fish," Latin " Piscis," etc.— the labials B, P, F and V being freely interchangeable in the Aryan family of languages.
The affix nu in " Vish-nu " is obviously the Sumerian Nu title of the aqueous form of the Sun-god S'amas and of his father-god la or In-duru इन्द्र: (Indra) as " God of the Deep." ' It literally defines them as " The lying down, reclining or bedded " (god)
3 or " drawer or pourer out of water." ' It thus explains the common Indian representation of Vishnu as reclining upon the Serpent of the Deep amidst the Waters, and also seems to disclose the Sumerian origin of the Ancient Egyptian name Nu for the " God of the Deep."
5 Thus the name
" Vish-nu " is seen to be the equivalent of the Sumerian Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean "Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean " The reclining Great Fish (-god) of the Waters " ; and it will doubtless be found in that full form in Sumerian when searched for. And it would seem that this early " Fish " epithet of Vishnu for his " first incarnation " continued to be applied by the Indian Brahmans to that Sun-god even in his later "
incarnations " as the "striding" Sun-god in the heavens.
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Indeed the Sumerian root Pish or Pis for " Great Fish " still survives in Sanskrit as Fts-ara विसार: " fish." " This name thus affords another of the many instances which I 1 On sign T.D., 139; B.W., 303. The sign is called " Increased Fish " {Kua-gunu, i.e., Khd-ganu, B., 6925), in which significantly the Sumerian grammatical term gunu meaning " increased " as applied to combined signs, is radically identical with the Sanskrit grammatical term gut.a ( = " multi- plied or auxiliary," M.W.D., 357) which is applied to the increased elements in bases forming diphthongs, and thus disclosing also the identity of Sanskrit and Sumerian grammatical terminology.
* M., 6741, 6759 ; B., 8988. s B., 8990-1, 8997. 4 lb., 8993. 5 This Nu is probably a contraction for Nun, or " Great Fish," a title of the god la (or Induru) इन्द्ररु of the Deep (B., 2627). Its Akkad synonym of Naku, as "drawer or pourer out of Water," appears cognate with the Anu(n)-«aAi, or " Spirits of the Deep," and with the Sanskrit Ndga or " Sea-Serpent." • M.W.D., 1000. The affix ara is presumably the Sanskrit affix ra, added to roots to form substantives, just as in Sumerian the affix ra is similarly added (cp., L.S.G., 81).
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SUMER ORIGIN OF POSEIDON
85 have found of the Sumerian origin of Aryan words, and in particular in the Sanskrit and English.
This Fish-man form of the Sumerian Sun-god of the Waters of the Deep,
Piesh, Pish or Pis (or Vish-nu),
also appears to disclose the unknown origin of the name of the Greek Sea-god "
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संख्या 82 वीं इण्डो-सुमेरियन (सील )में प्राचीन सुमेरियन और हिट्टो फॉनिशियन पवित्र मुद्राओं पर( और प्राचीन ब्रिटान स्मारकों पर हस्ताक्षर किए गए हैं । जिनमें से मौहर संख्या (1) में से परिणाम घोषित किए गए हैं ।
अब इन इंडो-सुमेरियन सीलों के प्रमाण के आधार पर पुष्टि की गई है कि इस सुमेरियन "मछली देव" पर सूर्य-देवता का आरोपण है।
और अन्य ताबीज मुद्राओं के लिए शीर्षक, "स्थापित सूर्य (सु-ख़ाह) की मछली" के रूप में इंडो-आर्यों की सुमेरियन मूल की स्थापना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साम्य है ।
और सुमेरियन भाषा के आर्यन चरित्र के रूप में, यह सूर्य-देवता "विष्णु" के लिए वैदिक नाम की उत्पत्ति और अब तक अज्ञात मछली अर्थ के रूप में प्रकट करता है और मत्स्य -मानव के रूप में उनकी प्रतिनिधि के समान साथ ही अंग्रेजी शब्द "फिश" के सुमेरियन मूल, गॉथिक "फिसक" और लैटिन "पिसिस पर भी प्रकाश डालता है ।
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भारतीय पौराणिक कथाओं में सूर्य-देव विष्णु का पहला "अवतार" मत्स्य -नर के रूप में दर्शाया गया है।
और अत्यधिक सीमा तक उसी तरह के रूप में जैसे सुमेरियन मछली-नर के रूप में सूर्य का देवता के रूप में चित्रण सुमेरियन मुद्राओं पर (अब मेसोपोटामिया )के सुमेरियन मुद्राओं पर उत्कीर्ण है।
और सूर्य के लिए "मछली" के इस सुमेरियन शीर्षक को द्विभाषी सुमेरो-अक्कादियन शब्दावलियों में वास्तविक शब्द और अर्थ इस प्रकार के अन्य इंडो-सुमेरियन ताबीज पर व्याख्यायित है ।
"मत्स्य मानव ।
____________________________________
"पिस्क-नु" शब्द को पंखधारी मछली-मानव " आदि अर्थों के रूप पढ़ते हैं। इस प्रकार पंखों या बढ़ते सूर्य को "पृथ्वी के नीचे के पानी में" लौटने या पुनर्जीवित करने वाले सूर्य के मछली के संलयन के साथ सह-संबंधित कथाओं का सृजन सुमेरियन संस्कृति में होगया था ।
--जो कालान्तरण में भारतीय पुराणों में मिथक रूप में अभिव्यक्त हुई ।
"द विंगेड फिश" के इस सौर शीर्षक को "biis"को फिश" का समानार्थ दिया गया है।
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सूर्य और विष्णु भारतीय मिथकों में समानार्थक अथवा पर्याय वाची रहे हैं।
"विष्-नु " में प्रत्यय "नु" स्पष्ट रूप से सूर्य-देवता के जलीय रूप और उनके पिता-देवता इन-दुरु (इन्द्र) के "देवता के रूप में सुमेरियन आदम का शीर्षक है।
यह इस प्रकार विष्णु के सामान्य भारतीय प्रतिनिधित्व को जल के बीच दीप के नाग पर पुन: और यह भी लगता है कि "दीप के देवता" के लिए प्राचीन मिस्र के नाम आतम के सुमेरियन मूल का खुलासा किया गया है।
इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन "पिस्क-नु "के बराबर माना जाता है।
और " जल की बड़ी फिश (-गोड) को करना; और और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा।
और ऐसा प्रतीत होता है कि "अवतार" के लिए विष्णु के इस बड़ी "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी विष्णु-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है।वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल पीश या पीस शब्द अभी भी संस्कृत में एफ्स-ऐरा "मछली" के रूप में जीवित है।जो वैदिक मत्स्यवाची शब्द "विसार" से साम्य है "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है जिसे मैं दीप, पीश, पीश या पीस (या वाश-नु) के जल के सुमेरियन सूर्य-देवता का यह नाम है ।
मिश्रु "MISHARU" - The Sumerian god of law and justice, brother of Kittu.
भारतीय पुराणों में मधु और कैटव का वध विष्णु-देवता करते है ।
मत्स्यः से लिए वैदिक सन्दर्भों में एक शब्द पिसार
भारोपीय मूल की धातु से प्रोटो-जर्मनिक में फिस्कज़(पुरानी सैक्सोन, पुरानी फ्रिसिज़, पुरानी उच्च जर्मन फ़िश, पुरानी नोर्स फिस्कर। मध्य डच विस्सी, डच, जर्मनी, फ़िश्च, गॉथिक फिसक का स्रोत) से पुरानी अंग्रेजी "मछली"pisk- "एक मछली। *pisk-
Proto-Indo-European root meaning
"a fish."It forms all or part of: fish; fishnet; grampus; piscatory; Pisces; piscine; porpoise.It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:Latin piscis (source of Italian pesce)
French poisson, Spanish pez, Welsh pysgodyn, Breton pesk); Old Irish iasc; Old English fisc, Old Norse fiskr, Gothic fisks.
1-Latin piscis,
2-Irish íasc/iasc,
3-Gothic fisks,
4-Old Norse fiskr,
5-English fisc/fish,
6-German fisc/Fisch,
7-Russian пескарь (peskarʹ),
8-Polish piskorz,
9-Welsh pysgodyn,
10-Sankrit visar
11Albanian peshk
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This important reference is researched by Yadav Yogesh Kumar 'Rohi'. Thus, no gentleman should not add to its break !
भारतीय ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अपने इष्ट को वलि समर्पण हेतु मनुः ने असीरियन पुरोहितों का आह्वान किया था "" असुरः ब्राह्मण इति आहूत "
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मानव संज्ञा का आधार प्रथम स्वायंभुव मनु थे ।
उधर नार्वे की पुरा कथाओं में मनु की प्रतिष्ठा मेनुस (Mannus )के रूप में है।
जे जर्मनिक जन-जातियाँ के आदिम रूप हैं।
पश्चिमीय एशिया की हिब्रू जन-जाति के धर्म ग्रन्थ ऑल्ड-टेक्सटामेण्ट(पुरानी बाइबिल ) जैनेसिस्(उत्पत्ति) खण्ड के पृष्ठ संख्या 82 पर वर्णित है ""👇
कि नूह (मनुः) ने ईश्वर के लिए एक वेदी बनायी और उसमें पशु पक्षीयों को लेकर यज्ञ- अग्नि में उनकी बलि दी इन्हीं कथाओं का वाचन ईसाई तथा इस्लामीय ग्रन्थों में भीव नूह के रूप में किया गया है। मनु के सन्दर्भ में ये कुछ प्रमाणिक तथ्य थे •
यहोवा ,गॉड , ख़ुदा और अल्लाह आदि ईश्वर वाची शब्दों की व्युत्पत्ति वैदिक देव संस्कृति के अनुयायीयों से भी सम्बद्ध है।
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जैसे हिब्रू ईश्वर वाची शब्द यहोवा ( ह्वयति ह्वयते जुहाव जुहुवतुः जुहुविथ जुहोथ ) आदि संस्कृत क्रिया-पदों से सम्पृक्त है। ह्व धातु से व्युत्पन्न अन्य तद्धित शब्द( निहवः अभिहवः उपहवः विहवः ) आदि उपसर्ग पूर्वक निष्पन्न हैं।
"ह्वः का संप्रसारणं (Propagation) रूप "हु" है"( आहावः ) "निपानमाहावः'' इति प्रसारणे वृद्धौ निपात्यते निपानमुपकूपं जलाशये यत्र गावः पानार्थमाहूयन्ते ( आह्वा ) "आतश्चोपसर्गे'' इति स्त्रियामङ्ग्याल्लोपः ( आहूतिः संहूतिः )
इति बाहुलकात् क्तिन् वेञादयस्त्रयोऽनुदात्ता उभयतो भाषाः ह्वेञ् स्पर्द्धायां, शब्दे च ह्वयति । ह्वयते । निह्वयते । हूयते । जुहाव । जुहुवे । जुहुवतुः । जुहुवाते । ह्वाता । अह्वास्त ।अह्वत् ।अह्वत । जोहूयते । जुहूषति । जुहूषते । जुहावयिषति । अजूहवत् । प्रह्वः । हूतः । निहवः । हवः । आहवः । हूतिः । मित्रह्वायः ।।
हिब्रू यह्व / YHVH / yod-he-vau-he / יהוה, -- We find, the above word is perhaps used first time in Rigveda Madala (10, 036/01)
अर्थात् ऋग्वेद के दशम मण्डल में हम यह्वः शब्द पाते है ।
संस्कृत यह्वः (पुं.) / यह्वी (स्त्री.) ऋग्वेद 1/036/01 में 👇
प्र वो यह्वं पुरूणां विशां देवयतीनाम् ।
We find, the above word is perhaps used last time in the Rigveda Madala ( ऋग्वेद 10/110/03 )
त्वं देवानामसि यह्व होता ... -- The last mention of यह्व / YHVH /yod-he-vau-he is used as an address to Lord Indra, though Rigveda Mandala 1.164.46 clearly explains all these devata are different names and forms of the same Lord (Ishvara)
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ऋग्वेद (10/110/03 )
Accordingly the above mantra in veda categorically defines 'Who' is 'यह्वः (पुं.)' / YHVH / yod-he-vau-he / יהוה,
I strongly feel this the conclusivevidence that puts to rest all further doubt and discussion, / speculation about 'God'
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(त्वं देवानामसि यह्व होता )... अर्थात् तुम देवों में यह्व (YHVH) को बुलाने वाले हो !
... in Sanskrit clearly means that 'यह्वः' is either the priest to 'devata,s' or the one who Himself performed vedika sacrifice especially in Agni / Fire for them.
There are at least more than 30 places in entire Rigveda, where 'यह्वः' finds a mention. And the first time we find यह्वीः / 'yahwI:' in Rigveda is here -
ऋग्वेद (1.59.04) अर्थात् यह्व YHVH शब्द अग्नि का भी वाचक है - क्योंकि जलती हुई झाड़ियों से "मूसा अलैहि सलाम" को धर्म के दश आदेश यहोवा से प्राप्त हुए -
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बृहती इव सूनवे रोदसी गिरो होता मनुष्यो न दक्षः स्वर्वते सत्यशुष्माय पूर्वीवैश्वानराय नृतमाय यह्वीः ॥
Obviously, this 'यह्वीः' is in accusative plural case of 'यह्वी' feminine.
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यहोवा वस्तुतः फलस्तीन (इज़राएल)के यहूदीयों का ही सबसे प्रधान व राष्ट्रीय देवता था।
तथा ( यदु:)यहुदह् शब्द का नाम करण यहोवा के आधार पर हुआ ।
यहुदह् शब्द का तादात्म्य वैदिक यदु: से पूर्ण रूपेण प्रस्तावित है ।
परन्तु कालान्तरण में बहुत सी काल्पनिक कथाओं का समायोजन यदु: अथवा यहुदह् के साथ कर दिया गया । अतः फिर ये दो भिन्न व्यक्तित्वों के रूप में भासित हुए ! यदु शब्द यज् धातु से उण् उणादि सूत्र प्रत्यय करने पर निर्मित है ।
यदु: ययातिनृपतेः ज्येष्ठपुत्रे यस्य वंशे श्रीकृष्णवतारः , तस्य गोत्रापत्यमण् बहुषु तस्य लुक् यदुवंश्ये दर्शार्हदेशे आभीर देशे च ( हेमचन्द्र संस्कृत कोश ) ____________________________________
यहोवा शब्द के विषय में हिब्रू बाइबिल में उल्लेख है । यहोवा (An:Yahweh) यहूदी धर्म में और इब्रानी भाषा में परमेश्वर का नाम है।
यहूदी मानते हैं कि सबसे पहले ये नाम परमेश्वर ने हज़रत मूसा को सुनाया था।
ये शब्द ईसाईयों और यहूदियों के धर्मग्रन्थ बाइबिल के पुराने नियम में कई बार आता है।
उच्चारण:-- स्मरण रखें :--कि यहूदियों की धर्मभाषा इब्रानी (हिब्रू) की लिपि इब्रानी लिपि में केवल व्यञ्जन लिखे जा सकते हैं ; और ह्रस्व स्वर तो बिलकुल ही नहीं। अतः यह शब्द चार व्यञ्जनों से बना हुआ है : (योद) ה (हे) ו (वाओ) ה (हे), या יהוה)
अर्थात् :--- (य-ह-व-ह ) इसमें लोग विभिन्न स्वर प्रवेश कराकर इसे विभिन्न उच्चारण रूप देते हैं,
जैसे यहोवा, याह्वेह, याह्वेः, जेहोवा, आदि (क्योंकि प्राचीन इब्रानी भाषा लुप्त हो चुकी है)।
यहूदी लोग बेकार में ईश्वर (यहोवा) का नाम लेना पाप मानते थे, इसलिये इस शब्द को कम ही बोला जाता था। यह ज़्यादा मशहूर शब्द था "अदोनाइ" (अर्थात मेरे प्रभु)।
बाइबिल के पुराने नियम / इब्रानी शास्त्रों में "एल" और "एलोहीम" तथा "अबीर" शब्द भी परमेश्वर के लिये प्रयुक्त हुए हैं।
पर हैरत की बात ये है कि यहूदी कहते हैं कि वो एक हि ईश्वर को मानते हैं, पर "एलोहीम" शब्द बहुवचन है ! यहोवा ही अल्लाह है। 👇
यहशाहा ४५:१८, में परमेश्वर का सही अर्थ समझाता है। अर्थ:------- यहूदी और ईसाई मानते हैं ,कि यहोवा का शब्दिक अर्थ होता है : "मैं हूँ जो मैं हूँ" -- अर्थात् स्वयंभू परमेश्वर।
जब बाइबल लिखी गयी थी, तब यहोवा यह नाम ७००० बार था।👇
- निर्गमन ३:१५, भजन ८३:१८
YHWH होने के रूप में
इसके विपरीत, जलती हुई झाड़ी पर भगवान का पहला रहस्योद्घाटन, जिसमें पहली बार मूसा को इस विशेष नाम से परिचित कराया गया है, [2] इसके अर्थ की व्याख्या करता है या कम से कम संकेत देता है:
שמ ַ ַ ג ָאֱלֹ ִנֵּ ִנֵּ ִנֵּ אָנֹכִ אָנֹכִ אֶל בְּנֵ בְּנֵ ִשְׂרָאֵל ִשְׂרָאֵל ְאָמַרְתִּ ְאָמַרְתִּ אֱלֹ אֱלֹ אֱלֹ אֲב אֲב אֲב אֲב מַ מַ מַ מַ שְּׁמ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ מָ।
निर्गमन 3:13 मूसा ने परमेश्वर से कहा, जब मैं इस्राएलियों के पास जाकर उन से कहूं, कि तुम्हारे पितरोंके परमेश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, और वे मुझ से पूछें, कि उसका क्या नाम है? मैं उनसे क्या कहूँ?”
ג:יד וַיֹּאמֶר אֱלֹהִים אֶל מֹשֶׁה אֶהְיֶה אֲשֶׁר אֶהְיֶה। וַיֹּאמֶר כֹּה תֹאמַר לִבְנֵי יִשְׂרָאֵל אֶהְיֶה שְׁלָחַנִי אֲלֵי֝।
3:14 और परमेश्वर ने मूसा से कहा, मैं जो हूं सो हूं। और उस ने कहा, इस्त्राएलियों से यों कहना, कि एह, मैं हूं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।
जब मूसा परमेश्वर से उसका नाम पूछता है, तो परमेश्वर सबसे पहले "मैं वही हूँ जो मैं हूँ" कहकर उत्तर देता है और यहाँ तक कि "उन्हें बताओ कि एह्ये (मैं-हूँ) अस्मि- ने तुम्हें भेजा है" कहकर उत्तर देता है। शब्द एहिह ("मैं हूं") बहुत कुछ (YHWH) की तरह लगता है, और इसका अर्थ शब्दों पर एक नाटक के रूप में है, यह समझाते हुए कि (YHWH) के नाम का अर्थ है "वह होगा" या "अस्तित्व"। [3] इस प्रकार, ईश्वर इस निहित व्युत्पत्ति का (चतुराक्षर) टेट्राग्रामेटन के साथ अनुसरण करता है:
ג:טו וַיֹּאמֶר עוֹד אֱלֹהִים אֶל מֹשֶׁה כֹּה תֹאמַר אֶל בְּנֵי יִשְׂרָאֵל יְ־הוָה אֱלֹהֵי אֲבֹתֵיכֶם אֱלֹהֵי אַבְרָהָם אֱלֹהֵי יִצְחָק וֵאלֹהֵי יַעֲקֹב שְׁלָחַנִי אֲלֵיכֶם זֶה שְּׁמִי לְעֹלָם וְזֶה זִכְרִי לְדֹר דֹּר.
3:15 फिर परमेश्वर ने मूसा से आगे कहा, इस्त्राएलियों से यों कहना, कि तुम्हारे पितरों का परमेश्वर, अर्यात् इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर यहोवा, उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। ' यह हमेशा के लिए मेरा नाम होगा, यह अनंत काल के लिए मेरा उपनाम होगा।
फिर भी, यह व्याख्या YHWH के मूल अर्थ को नहीं दर्शाती है। शब्द "वह है" इसके तीसरे अक्षर के रूप में एक वाव के साथ नहीं लिखा जाएगा, लेकिन एक योड के साथ , जैसा कि יהיה, जैसा कि "मैं हूं" शब्द אהיה है। दूसरा, ध्यान दें कि आयतें कितनी अजीब तरह से पढ़ी जाती हैं, यह शब्द (YHWH) पर अर्थ (एहहे )को लागू करने की कोशिश कर रही है। भगवान ने पहले मूसा को "एहयेह" नाम का उपयोग करने के लिए कहा, और फिर स्वयं को समझाए बिना, YHWH नाम का उपयोग करने के लिए कहा। [4] इस प्रकार, मैं तर्क दूंगा कि यहां स्पष्टीकरण एक लोकप्रिय व्युत्पत्ति है, और हमें इस नाम की व्युत्पत्ति के लिए कहीं और देखने की जरूरत है।
मूसा की मिद्यानी-मितानी (मितज्ञु) पृष्ठभूमि की कहानी-
नाम को समझने का पहला सुराग निर्गमन की पुस्तक में जलती हुई झाड़ी की कहानी के संदर्भ से मिलता है। मूसा द्वारा एक मिस्री को मारने और फिरौन से भाग जाने के बाद (2:12-15), वह मिद्यान में समाप्त होता है, जहाँ वह मिद्यान के याजक रूएल (या यित्रो) से मिलता है, और उसकी बेटी सिप्पोरा से विवाह करता है (2:15-22) अपने ससुर के झुंड की चरवाही करते हुए, वह जलती हुई झाड़ी को देखता है और परमेश्वर के अपने पहाड़ पर परमेश्वर से एक रहस्योद्घाटन प्राप्त करता है:
צֹאן יִתְרוֹ חֹתְנוֹ כֹּהֵן מִדְיָן וַיִּנְהַג אֶת הַצֹּאן אַחַר הַמִּדְבָּר וַיָּבֹא אֶל הַר הָאֱלֹהִים חֹרֵבָה.
निर्गमन 3:1 मूसा अपने ससुर यित्रो नाम मिद्यान के याजक की भेड़-बकरियां चराता या, और वह उनको जंगल में हांककर परमेश्वर के पर्वत (होरेब) तक ले गया।
यह प्रसंग बताता है कि परमेश्वर का पर्वत इस्राएल या मिस्र में नहीं है, बल्कि यह होरेब जंगल में है, जो मिद्यान से दूर नहीं है। मिद्यान कहाँ है और ऐतिहासिक रूप से हम इसके बारे में क्या जानते हैं ?
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नि:सन्देह यम शब्द का सम्बन्ध यहोवा (य:वह) (YHVH) से है ।
यह वही यहूदीयों का देवता यहोवा है ,जिसने सिनाई पर्वत पर जलती हुई झाड़ियों से मूसा "अलैहि सलाम" को धर्म के दश आदेश दिये थे :-- दस धर्मादेश या दस फ़रमान ( Ten Commandments ) हैं।
इस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं , जिनके बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे।
इन धर्मों के अनुयायीओं की मान्यता है कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे।
पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है , या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है।
दस धर्मादेश :-----
ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे :--देखें अंग्रेज़ी अनुवाद रूप 👇
अंग्रेज़ी -हिन्दी अनुवाद
1. Thou shalt have no other Gods before me
2. Thou shalt not make unto thee any graven image
3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain
4. Remember the Sabbath day, to keep it holy
5. Honor thy father and thy mother 6. Thou shalt not kill
7. Thou shalt not commit adultery
8. Thou shalt not steal 9. Thou shalt not bear false witness
10. Thou shalt not covet _____________________________________
१. तुम मेरे अलावा किसी अन्य भगवान को नहीं मानोगे
२. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे
३. तुम अपने प्रभु भगवान का नाम अकारण नहीं लोगे
४. सैबथ का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना
५. अपने माता और पिता का आदर करो
६. तुम हत्या नहीं करोगे
७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे
८. तुम चोरी नहीं करोगे
९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे
१०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे ____________________________________ टिप्पणी :--१ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था ,जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है।
जिसे ईसाईयों ने रविवार कर दिया
--जो अब अन्ताराष्ट्रीय स्तर पर अवकाश दिवस है।
यद्यपि कालान्तरण में मूसा के दशम आदेशों के रूप परिवर्तित हुए परन्तु संख्या दश ही रही ।
ये नैतिजीवन के आधार व धर्म के मूल थे ।
भारतीय इतिहास में ई०पू० द्वितीय के समकक्ष पुष्य-मित्र सुंग कालीन में सुमित भार्गव नामक व्यक्ति ने मनुके नाम पर मनुःस्मृति की रचना की तो उसमे धर्म के दश-लक्षण बताऐ 👇 ____________________________________ इसी मनु-स्मृति में धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं: ____________________________________
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
(मनुस्मृति- 6 /92)
अर्थ :– धृति (धैर्य ), क्षमा (क्षमतावान् बनकर किसी को कई बार क्षमा कर देना ), दम (हमेशा संयम से धर्मं में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय - निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी:( सत्कर्मो से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर शान्त रहना ) ।
याज्ञवल्क्य स्मृति में भी यही भाव कुछ शब्द विन्यास के भेद से इस प्रकार है :---
याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ (9) लक्षण परिगणित हैं:
____________________________________
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)
बारहवीं सदी में रचित श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे आधुनिक भौतिक वादी युग में बड़े ही महत्त्व के हैं : ___________________________________
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
सन्तोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:। तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:। सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। ____________________________________
महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं :-- इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ। इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।
पद्म-पुराण के अनुसार :---👇
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते। एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शान्ति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
जिस नैतिक नियम को आजकल (ethic of Resprosity) कहते हैं उसे भारत में प्राचीन बौद्ध और जैन काल से मान्यता है।
सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्" (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है: -👇
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श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, सृष्टि-खण्ड:- (19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है ? सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।) महात्मा बुद्ध के भी यही वचन थे ! ____________________________________
भारतीय देव-संस्कृति ने यम को धर्म का अधिष्ठात्री देवता माना है ।
यम ही स्वयं धर्म रूप है ; महर्षि पतञ्जलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम हैं तो शाण्डिल्य उपनिषद में यम दश रूपों में हैं ।
१-अहिंसा २-सत्य ३-अस्तेय ४-ब्रह्मचर्य ५-अपरिग्रह शाण्डिल्य उपनिषद द्वारा वर्णित दस यम- १-अहिंसा २-सत्य ३-अस्तेय ४-ब्रह्मचर्य ५-क्षमा ६-धृति ७-दया ८-आर्जव ९-मिताहार १०-शौच
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यम के विषय में यूरोपीय आर्य संस्कृति में भी यमीर रूप में लोक- कथाऐं प्राप्त हैं ! देखे:--👇
Ymir In Norse mythology, Ymir,
Aurgelmir, Brimir, or Bláinn is the ancestor of all jötnar.
Ymir is attested in the Poetic Edda, compiled in the 13th century from earlier traditional material, in the Prose Edda, written by Snorri Sturluson in the 13th century, and in the poetry of skalds.
Taken together, several stanzas from four poems collected in the Poetic Edda refer to Ymir as a primeval being who was born from venom that dripped from the icy rivers Élivágar and lived in the grassless void of Ginnungagap.
Ymir birthed a male and female from the pits of his arms, and his legs together begat a six-headed being.
The gods Odin, Vili and Vé fashioned the Earth (elsewhere personified as a goddess;
(Jörð) from his flesh, from his blood the ocean, from his bones the hills, from his hair the trees, from his brains the clouds, from his skull the heavens, and from his eyebrows the middle realm in which mankind lives, Midgard.
In addition, one stanza relates that the dwarfs were given life by the gods from Ymir's flesh and blood (or the Earth and sea).
In the Prose Edda, a narrative is provided that draws from, adds to, and differs from the accounts in the Poetic Edda.
According to the Prose Edda, after Ymir was formed from the elemental drops, so too was Auðumbla, a primeval cow, whose milk Ymir fed from.
The Prose Edda also states that three gods killed Ymir; the brothers Odin, Vili and Vé, and details that, upon Ymir's death, his blood caused an immense flood. Scholars have debated as to what extent Snorri's account of Ymir is an attempt to synthesize a coherent narrative for the purpose of the Prose Edda and to what extent Snorri drew from traditional material outside of the corpus that he cites.
By way of historical linguistics and comparative mythology, scholars have linked Ymir to Tuisto, the Proto-Germanic being attested by Tacitus in his 1st century AD work Germania and have identified Ymir as an echo of a primordial being reconstructed in Proto-Indo-European mythology.
नॉर्स पौराणिक कथाओं में ,यमीर भारतीय यम का ही प्रतिरूप है। और जिसकी कथाऐं नॉर्स पुराणों में अपने प्रारम्भिक रूपों मिलती हैं इस आइमिर अथवा यमीर (ːiːmɪər नामक देव को पुरानी नॉर्स भाषा मेंं : [ˈymez̠] भी कहा गया। और शास्त्रीय पद्धति में जिसका इतर नाम ऑरगेलमिर , ब्रिमिर , या ब्लैन आदि भी है। अर्थात् नॉर्स पौराणिक कथाओं में, ब्रिमिर संभवतः जोतुन यमीर का एक और नाम है और रग्नारोक के अंत-समय के संघर्ष के बाद गुणी की आत्माओं के लिए एक बाड़े ( विशाल गृह) का नाम भी रूढ़ हो गया । इन सब रूपों का पूर्वज "जोतनार" है । और स्पष्ट करते चले कि जोतनार को भी (जोतुन ; पुरानी नॉर्स की सामान्यीकृत विद्वानों की वर्तनी में,(जोतुन- (jǫtunn /ˈjɔːtʊn)पुराना नॉर्स उच्चारण:जोतॉन [ˈjɔtonː]; बहुवचन जोतनार-jötnar/jǫtnar ।जोतनाज् [ˈjɔtnɑz̠]) या, पुरानी अंग्रेज़ी में, इयॉटन-eoten (बहुवचन इयॉटनाज- eotenas) है । वस्तुत: जर्मनिक पौराणिक कथाओं में किसी प्राणी के अलौकिक होने का यह एक प्रकार है।
नॉर्स पौराणिक कथाओं में, जोतनार- अक्सर देवताओं जैसे- (एसिर और वनीर) और अन्य गैर-मानव आकृतियों, जैसे कि बौने ( Dwarf) और कल्पित बौने (Elves) के विपरीत होते हैं । हालांकि ये समूह हमेशा परस्पर अनन्य भी नहीं होते हैं। इन संस्थाओं को स्वयं कई अन्य शब्दों द्वारा संदर्भित किया जाता है, जिनमें रिसी, थर्स (þurs) और ट्रोल यदि पुरुष तथा ( gýgr) या (tröllkona) यदि महिलाऐं शामिल हैं। नॉर्स पुराणों के अनुसार "जोतनार" प्राणी आमतौर पर जोतुनहेमर (jötunn Ymir) जैसी भूमि में देवताओं और मनुष्यों की सीमाओं के पार रहते हैं।
13वीं शताब्दी में नॉर्स पुराणवेत्ता- स्नोरी स्टरलूसन द्वारा लिखित, पोएटिक एडडा पहली बार पारंपरिक सामग्री से अधिकृत किया गया थी और स्काल्ड्स की कविता से एक साथ ली गई चार श्लेष के कई छंदों को इसमें संग्रहित किया गया है पॉइटिक एड्डा यमिर को एक आदिम प्राणी के रूप में संदर्भित करता है।
वाफ्थ्रुद्निस्मल के अनुसार, नदियों से टपकने वाले ज़हर से यमीर का गठन किया गया था।
नॉर्स पौराणिक कथाओं में, Élivágar (पुराना नॉर्स: [eːleˌwɑːɣɑz̠]; "आइस वेव्स") ऐसी नदियां हैं जो दुनिया की शुरुआत में गिन्नुंगगैप में मौजूद थीं।धाराएँ जिन्हें हिम-तरंगें कहा जाता है, जो इतनी लंबी थीं कि वे फव्वारे-सिरों से आती हैं
उन पर खमीरदार जहर आग से निकलने वाले लावा की तरह कठोर हो गया था, - तब वे बर्फ बन गए; और जब बर्फ रुक गई और चलना बंद हो गया, तब वह ऊपर से जम गई। लेकिन रिमझिम बारिश जो विष से उठी थी, जम गई थी, और चूना बढ़ गया था, पाले पर पाला, एक दूसरे के ऊपर, यहां तक कि गिन्नुंगागप में, जम्हाई शून्य यमीर का प्रारम्भिक रूप था।
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यमीर ने अपनी कुक्षि( कोख) से एक नर और नारी को जन्म दिया, और उसके पैरों ने मिलकर छह सिर वाले प्राणी को जन्म दिया।
यमीर के मांस से पृथ्वी, उसके रक्त से समुद्र, उसके हड्डियों से पहाड़, उसके बालों से पेड़,। दिमाग से बादल, उसकी खोपड़ी से आकाश, और उसके बर्नहों से वह मध्य क्षेत्र (वरण)उत्पन्न हुआ है जिसमें मानव जाति रहती है। यम की इसी प्रकार की माइथॉलॉजी ईरानीयों के धर्मग्रंथों में हैं।
प्रॉज- एडडा में, एक कथा प्रदान की जाती है जो पोएटिक एडडा के विवरण से अलग है, । प्रॉज एड्डा के अनुसार , तात्विक बूंदों से यमिर के बनने के बाद औदुम्बला , एक आदिम गाय भी थी। जिसका दूध यमीर ने पिलाया था। प्रॉज एडडा में यह भी कहा गया है कि तीन उनके भाईयों ओडिन विली और वे ने यमीर को मार डाला;
यम: यह्व तथा यह्वती आदि शब्द वैदिक सन्दर्भों में प्राप्त हैं ।
गॉड शब्द जर्मनिक भाषाओं में यहोवा का ही रूपान्तरण गॉड है ।
god (Noun) Old English god "
supreme being, deity; the Christian God; image of a god; godlike person,"
from (Proto-Germanic guthan) (source also of Old Saxon, Old Frisian, Dutch god, Old High German got, German Gott, Old Norse guð, Gothic guþ), from PIE
(आद्य भारोपीय ) ghut-हूत "👇
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that which is invoked " वह जिसका आह्वान किया जाय "अर्थात् यह्व (YHVH)
(source also of Old Church Slavonic zovo "to call," Sanskrit huta-हुता ,यह्व "invoked," an epithet of Yama),
from root gheu(e)- "to call,
invoke." But some trace it to (PIE) Proto-Indo- European-ghu-to- "poured," from root gheu- "to pour
, pour a libation" (source of Greek khein "to pour," also in the phrase khute gaia "poured earth," referring to a burial mound;
"Given the Greek facts, the Germanic form may have referred in the first instance to the spirit immanent in a burial mound" [Watkins].
See also Zeus. In either case, not related to good. Popular etymology has long derived God from good; but a comparison of the forms ... shows this to be an error. Moreover, the notion of goodness is not conspicuous in the heathen conception of deity, and in good itself the ethical Originally a neuter noun in Germanic, the gender shifted to masculine after the coming of Christianity.
Old English god probably was closer in sense to Latin numen.
A better word to translate deus might have been Proto-Germanic ansuz, but this was used only of the highest deities in the Germanic religion, and not of foreign gods, and it was never used of the Christian God. It survives in English mainly in the personal names beginning in Os I want my lawyer, my tailor, my servants, even my wife to believe in God, because it means that I shall be cheated and robbed and cuckolded less often.
If God did not exist, it would be necessary to invent him. [Voltaire]
God bless you after someone sneezes is credited to St. Gregory the Great, but the pagan Romans (Absit omen) and Greeks had similar customs. God's gift to
is by 1938.
God of the gaps means "God considered solely as an explanation for anything not otherwise explained by science;"
the exact phrase is from 1949, but the words and the idea have been around since 1894. God-forbids was rhyming slang for kids ("children").
God squad "evangelical organization" is 1969 U.S. student slang.
God's acre "burial ground" imitates or partially translates German Gottesacker, where the second element means
"field;" the phrase dates to 1610s in English but was noted as a Germanism as late as Longfellow.
How poore, how narrow, how impious a measure of God, is this, that he must doe, as thou wouldest doe, if thou wert God. ____________________________________
आद्य हिन्द-ईरानी धर्म (Proto-Indo-Iranian religion) से तात्पर्य हिन्द-ईरानी लोगों के उस धर्म से है 'जो वैदिक एवं जरथुस्थ्र धर्मग्रन्थों की रचना के पहले विद्यमान था।
दोनों में अनेक मामलों में साम्य है।
और वर्ती काल में विपरीतताऐं भी -
जैसे, सार्वत्रिक बल 'ऋक्' (वैदिक) तथा अवेस्ता का 'आशा', पवित्र वृक्ष तथा पेय 'सोम' (वैदिक) एवं अवेस्ता में 'हाओम', मित्र (वैदिक), अवेस्तन और प्राचीन पारसी भाषा में 'मिथ्र' बग(वैदिक) मित्र, भग , अवेस्ता एवं प्राचीन पारसी में ईरानी भाषा की गणना आर्य भाषाओं में ही की जाती है।
भाषा-विज्ञान के आधार पर कुछ यूरोपीय विद्वानों का मत है कि आर्यों का आदि स्थान दक्षिण-पूर्वी यूरोप में कहीं था।
परन्तु आर्य शब्द को जाति-गत मानना पूर्व-दुराग्रह के अतिरिक्त कुछ नहीं ।
यहाँं आर्य के स्थान पर देव संस्कृति के अनुयायी कहना समुचित है ।
विवनघत का पुत्र यिम भारत और ईरान-दोनों की ही शाखा होने के कारण, दोनों देशों की भाषाओं में पर्याप्त साम्य पाया जाता है।
परन्तु इसका श्रोत कैनानायटी
(कनान देश)संस्कृतियों में विद्यमान यम ही है
यम (यम्म भी) कनानी (बहुदेववाद) संस्कृति में एक समुद्र का देवता है।
यम उगरिटिक संस्कृति में बाल चक्र में बाल के विरोधी की भूमिका निभाता है।
यम :–"सागर" के लिए कनानी शब्द है , जो वस्तुत नदियों और समुद्र के उग्रेटिक देवता का एक नाम है। यह (Titpṭ nhr ) "जज नदी " या नहर के नाम से भी जाना जाता है,
उद्धृत अंश :– ( Smith (1994), pase 235
वह 'इल्हाम (एलोहीम) या एल के पुत्रों में से एक है, जिसे लेवेंटिन पेंटीहोन का नाम दिया गया है।
लेविथान (/ lvivaɪ.əθən/; हिब्रू: לְוָי (תָן, लिवायतन) यहूदी विश्वास से एक समुद्री राक्षस के रूप में एक प्राणी है, जो हिब्रू में जोव की बाइबिल , स्तोत्र, यशायाह की पुस्तक, आदि में उल्लिखित है।
और पेंथिहोन शब्द(ग्रीक heνθεον भाषा का है शाब्दिक रूप से "(एक मंदिर) के सभी देवताओं का", "या सभी देवताओं के लिएक नाम" से "पैन = सम्पूर्णसूत्रम् सभी "और os थोस" = भगवान " किसी भी सभी देवताओं का विशेष समूह है
बहुदेववादी धर्म, पौराणिक कथा या परम्पराओं का समूह है ।
सभी देवताओं में से, एल के सर्वोपरि होने के बावजूद, यम, डैगन के बेटे बाल "हैड" के खिलाफ विशेष शत्रुता रखता है।
यम समुद्र का एक देवता है और उसका महल महासागरों की गहराई, या बाइबिल के तेहोम से जुड़े रसातल में है।
यम आदिम अराजकता का देवता है और समुद्र की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, अदम्य और उग्र; उन्हें सत्तारूढ़ तूफानों और वे आपदाओं के रूप में देखा जाता है, और समुद्री Phoenicians के लिए एक महत्वपूर्ण देवत्व था। देवताओं ने यम को स्वर्गीय पर्वत सप्पन (आधुनिक जेबेल अकरा; सप्पन को त्सेफॉन के लिए संकेतात्मक) से निकाला। [उद्धरण वांछित]
यास के साथ बाल-हदद की लड़ाई लंबे समय से मेसोपोटामियन पौराणिक कथाओं में चॉस्कैम्प मयटेम के साथ बराबरी की है जिसमें एक देवता एक "ड्रैगन" या समुद्री राक्षस से लड़ता है और नष्ट कर देता है; सात सिर वाले ड्रैगन लोटन उनके साथ निकटता से जुड़े हुए हैं और यम को अक्सर नागिन के रूप में वर्णित किया जाता है। मेसोपोटामियन तियामत [2] और बाइबिल लेविथान दोनों को इस आख्यान के रिफ्लेक्स के रूप में जोड़ा जाता है, [3] जैसा कि ग्रीक पौराणिक कथाओं में टाइफॉन के साथ ज़ीउस की लड़ाई है। [४]
बाल चक्र
मुख्य लेख: बाल चक्र
Ugaritic Baal Cycle में, देवताओं के प्रमुख एल और दूसरी-स्तरीय दिव्यताओं के लिए पिता, हैद-बाल से लड़ने के लिए यम को नियुक्त करता है। फिल ऑफ़ बाइब्लोस की व्याख्या अनुपात में, एल क्रोनस, हैड-बाल से ज़ीउस, यम टू पोसिडन और मोट से हाइड्स से मेल खाती है।
KTU 1.2 iii:
"राजगद्दी के अपने सिंहासन से, जिसे तू चला जाएगा,"
अपने प्रभुत्व की सीट से बाहर!
आपके सिर पर अयमारी (चालक) हे यम,
अपने कंधों के बीच यगारिश (चेज़र), हे जज नाहर हे होरन, खुले यम,
होरोन आपके सिर को तोड़ सकता है,
-अर्थात-नाम-की-प्रभु तेरी खोपड़ी!
स्वर्ग में एक महान युद्ध में कई देवताओं को शामिल करने के बाद, यम ध्वनि से हार गया:
और हथियार बाल के हाथ से झर गया,
उसकी उंगलियों के बीच से एक रैपर की तरह।
यह राजकुमार याम की खोपड़ी पर हमला करता है। न्यायाधीश नाहर की आँखों के बीच।
याहम ढह जाता है, वह पृथ्वी पर गिर जाता है;
उसके जोड़ों में दर्द होता है और उसकी रीढ़ हिल जाती है।
उसके बाद बाल यम को बाहर निकालता है और उसे टुकड़े टुकड़े करता है;
वह न्यायाधीश नाहर का अंत करेगा।
हदद एक महान दावत रखता है, लेकिन लंबे समय के बाद वह मोत (मौत) से नहीं लड़ता है और अपने मुंह के माध्यम से वह नटवर्ल्ड में उतरता है। फिर भी यम की तरह, मौत भी हार जाती है I
बाल-हदद के साथ यम के संघर्ष की कथा लंबे समय से मेसोपोटामियन पौराणिक कथाओं में समानताएं, तियामत और एनलिल और बेबीलोनियन मर्दुक के बीच की लड़ाई और तुलनात्मक रूप से तुलनात्मक पौराणिक कथाओं में कैओसकंफ मोटिफ के बीच तुलना की गई है। [२]
इन देशों के प्राचीनतम ग्रन्थ क्रमश: `ऋग्वेद' तथा `जेन्द अवेस्ता' हैं।
`जेन्द अवेस्ता' का निर्माण-काल लगभग सदी ई० पु०800 के है।
जबकि ऋग्वेद समय ई०पू० 1500 वर्ष पूर्व है ।
`जेन्द' की भाषा पूर्णत: वैदिक संस्कृत की अपभ्रंश प्रतीत होती है तथा इसके अनेक शब्द या तो वैदिक शब्दों से मिलते-जुलते है अथवा पूर्णत: वैदिक के ही हैं। इसके अतिरिक्त `अवेस्ता' में अनेक वाक्य ऐसे हैं, जो साधारण परिवर्तन से वैदिक भाषाओं के बन सकते हैं।
संस्कृत और जिन्द में इसी प्रकार का साम्य देखकर प्रोफेसर "हीरेन" ने कहा है कि जिन्द भाषा का उद्भव संस्कृत से हुआ है।
भाषा के अतिरिक्त वेद और अवेस्ता के धार्मिक तथ्यों में भी पर्याप्त समानता पाई जाती है।
दोनों में ही एक ईश्वर की घोषणा की गई है।
इन दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है। वैदिक `असुर' ही अवेस्ता का `अहुर' है।
ईरानी `मज्दा' का वही अर्थ है, जो वैदिक संस्कृत में `महत् ' का। वैदिक `मित्र' देवता ही `अवेस्ता' का `मिथ्र' है। वेदों का यज्ञ `अवेस्ता' का `यस्न' है जो अब जश्न हो गया ।
वस्तुत: यज्ञ, होम, सोम की प्रथाएं दोनों देशों में थीं। अवेस्ता में `हफ्त हिन्दु' और ऋग्वेद में `सप्त-सिन्धु के रूप वर्णन मिलता है ।
पहलवी और वौदिक संस्कृत लगभग समान `मित्र' और `मिथ्र' की स्तुतियां एक से शब्दों में हैं।
प्रचीन काल में दोनों देशों के धर्मो और भाषाओँ की भी एक सी ही भूमिका रही है।
ईरान में अखमनी साम्राज्य का वैभव प्रथम दरियस के समय में चरमोत्कर्ष पर रहा।
उसने अपना साम्राज्य सिन्धु घाटी तक फैलाया।
तब भारत-ईरान में परस्पर व्यापार होता था।
भारत से वहां सूती कपड़े, इत्र, मसालों का निर्यात और ईरान से भारत में घोड़े तथा जवाहरात का आयात होता था ।
दारा ने अपने सूसा के राजप्रासादों में भारतीय सागौन और हाथीदांत का प्रयोग किया तथा भारतीय शैली के मेराबनुमा राजमहलों का निर्माण करवाया। ___________________________________
ऋग्वेद और अवेस्ता ए जैंद में समान ऋचाऐं -👇
तवाग्ने होत्रं तव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः । तव प्रशास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्च नो दमे ॥
Thine is the Herald's task and Cleanser's duly timed; Leader art thou, and Kindler for the pious man. Thou art Director, thou the ministering Priest: thou art the Brahman, Lord and Master in our home. Khuda or Khoda (Persian: خدا, Kurdish: Xweda,(ज्वदा )स्वत: Xuda, Urdu: خدا) is the Iranian word for "Lord" or "God". Originally, it was used in reference to Ahura Mazda (the god of Zoroastrianism).
(Etymology) व्युत्पत्ति- _________________________________
The word Khuda in Nastaʿlīq script The term derives from Middle Iranian terms xvatay,(स्वत:) xwadag meaning "lord", "ruler", "master", appearing in written form in Parthian kwdy, in Middle Persian kwdy, and in Sogdian kwdy. It is the Middle Persian reflex of older Iranian forms such as Avestan xva-dhata- "self-defined; autocrat", an epithet of Ahura Mazda. The Pashto term Xwdāi (خدای) is an Eastern Iranian cognate. Prosaic usage is found for example in the Sassanid title katak-xvatay to denote the head of a clan or extended household or in the title of the 6th century Khwaday-Namag "Book of Lords", from which the tales of Kayanian dynasty as found in the Shahnameh derive.
(Zoroastrianism) Semi-religious usage appears, for example, in the epithet zaman-i derang xvatay "time of the long dominion", as found in the Menog-i Khrad. The fourth and eighty-sixth entry of the Pazend prayer titled 101 Names of God, Harvesp-Khoda "Lord of All" and Khudawand "Lord of the Universe", respectively, are compounds involving Khuda. Application of khuda as "the Lord" (Ahura Mazda) is represented in the first entry in the medieval Frahang-i Pahlavig. Islamic usage---- In Islamic times, the term came to be used for God in Islam, paralleling the Arabic name of God Al-Malik "Owner, King, Lord, Master". The phrase Khuda Hafiz (meaning May God be your Guardian) is a parting phrase commonly used in Persian, Kurdish and Pashto, as well as in Urdu among South Asian Muslims. It also exists as a loanword, used for God by Muslims in Bengali, Urdu, although the Arabic word Allah is becoming more common as religious scholars have deemed it more appropriate.This change is opposed by those who hold spiritual views such as a -- I've heard argued that khudaa/khodaa is khwa (self) and daw/taw (capable/powerful), that is al qaadir wa muqtadir. Let me speak from an Urdu perspective... I don't think khudaa is only reserved for God in language. We have naa khudaa (captain of a ship) i.e. (naau+khodaa,) which I feel means 'lord of the boat'. *-आर्यों का आदि देव अल्लाह-* ____________________________________आर्यों के आदि उपास्य अरि: है । जब आर्यों का आगमन स्वीडन से हुआ जिसे प्राचीन नॉर्स माइथॉलॉजी में स्वेरिगी (Sverige) कहा गया है जो उत्तरी ध्रुव प्रदेशों पर स्थित है । जहाँ छ मास का दिवस तथा छ मास की दीर्घ रात्रियाँ नियमित होती हैं । भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों का युद्ध कैल्ट जन जाति के पश्चात् असीरियन लोगों से सामना हुआ था । वस्तुत: आर्य विशेषण जर्मनिक जन-जातियाँ ने अपने वीर और यौद्धा पुरुषों के लिए रूढ़ कर लिया । जर्मन मूल की भाषाओं में यह शब्द अरीर ( Arier) तथा (Arisch) के रूप में एडॉल्फ हिट्लर के समय तक रूढ़ रहा । यही आर्य भारतीय आर्यों के पूर्वज हैं । परन्तु एडॉल्फ हिट्लर ने भारतीय आर्यों को वर्ण-संकर कहा था। जब आर्य सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के सम्पर्क में आये । अनेक देवताओं को अपनी देव सूची में समायोजित किया जैसे विष्णु जो सुमेरियन में बियस-न के रूप मे हिब्रूओं के कैन्नानाइटी देव डेगन (Dagan) नर-मत्स्य देव विष: संस्कृत भाषा में मछली का वाचक है । जो यूरोपीय भाषा परिवार में फिश (Fish) के रूप में विद्यमान है । देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध आर्यों का युद्ध असीरियन लोगों से दीर्घ काल तक हुआ , असीरी वर्तमान ईराक-ईरान (मैसॉपोटमिया) की संस्कृतियों के पूर्व प्रवर्तक हैं ।असुरों की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । परन्तु इसका सर्व मान्य रूप एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है
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"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि: तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९।
अर्थात्-- जो अरि इस सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है । ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१) देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है ।____________________________________
"विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम , ममेदह श्वशुरो ना जगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ ____________________________________ ऋषि पत्नी कहती है ! कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,) परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ) प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है । देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है । जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध हैं। ____________________________________
हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को मानने वाली धार्मिक परम्पराओं में मान्यता है ,कि कुरान से पहले भी अल्लाह की तीन और किताबें थीं , जिनके नाम तौरेत , जबूर और इञ्जील हैं । , इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह ने जैसे मुहम्मद साहब पर कुरान नाज़िल की थी ,उसी तरह हजरत मूसा को तौरेत , दाऊद को जबूर और ईसा को इञ्जील नाज़िल की थी . यहूदी सिर्फ तौरेत और जबूर को और ईसाई इन तीनों में आस्था रखते हैं ,क्योंकि स्वयं कुरान में कहा है ।
1-कुरान और तौरेत का अल्लाह एक है:--- -------------------------------------------------------------
"कहो हम ईमान लाये उस चीज पर जो ,जो हम पर भी उतारी गयी है , और तुम पर भी उतारी गयी है , और हमारा इलाह और तुम्हारा इलाह एक ही है . हम उसी के मुस्लिम हैं " (सूरा -अल अनकबूत 29:46) ""We believe in that which has been revealed to us and revealed to you. And our God and your God is one; and we are Muslims [in submission] to Him."(Sura -al ankabut 29;46 )"وَإِلَـٰهُنَا وَإِلَـٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " इलाहुना व् इलाहकुम वाहिद , व् नहनु लहु मुस्लिमून " यही नहीं कुरान के अलावा अल्लाह की किताबों में तौरेत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुरान में तौरेत शब्द 18 बार और उसके रसूल मूसा का नाम 136 बार आया है ! , यही नहीं मुहम्मद साहब भी तौरेत और उसके लाने वाले मूसा पर ईमान रखते थे , जैसा की इस हदीस में कहा है , "अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि एक बार यहूदियों ने रसूल को अपने मदरसे में बुलाया और ,अबुल कासिम नामक व्यक्ति का फैसला करने को कहा , जिसने एक औरत के साथ व्यभिचार किया था . लोगों ने रसूल को बैठने के लिए एक गद्दी दी , लेकिन रसूल ने उस पर तौरेत रख दी । और कहा मैं तुझ पर और उस पर ईमान रखता हूँ और जिस पर तू नाजिल की गयी है , फिर रसूल ने कहा तुम लोग वाही करो जो तौरेत में लिखाहै . यानी व्यभिचारि को पत्थर मार कर मौत की सजा , (महम्मद साहब ने अरबी में कहा "आमन्तु बिक व् मन अंजलक - آمَنْتُ بِكِ وَبِمَنْ أَنْزَلَكِ " . "
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I believed in thee and in Him Who revealed thee. सुन्नन अबी दाऊद -किताब 39 हदीस 4434 इन कुरान और हदीस के हवालों से सिद्ध होता है कि यहूदियों और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है और तौरेत भी कुरान की तरह प्रामाणिक है . चूँकि लेख अल्लाह और उसकी पत्नी के बारे में है इसलिए हमें यहूदी धर्म से काफी पहले के धर्म और उनकी संस्कृति के बारे में जानना भी जरूरी है . लगे , और यहोवा यहूदियों के ईश्वर की तरह यरूशलेम में पूजा जाने लगा । _________________________________
जिस अल्लाह के नाम पर मुफ़्ती मौलाना दुनियाँ में सन्देश देकर फ़तवा जारी करते हैं ,कि अल्लाह नाम का उच्चारण गै़र इस्लाम के लिए हराम व ग़ुनाह है " और फिर इनके शागिर्द सारी दुनिया में जिहादी आतंक फैला कर रोज हजारों निर्दोष लोगों की हत्या करते रहते हैं । परन्तु अल्लाह भी इन जिहादीयों का नहीं है ।
, क़्योकि इस्लाम से पहले अरब में कोई अल्लाह का नाम भी नहीं जनता था । ______'_____________________________ वहाँ के वद्दू कौम ने यहूदीयों की परम्पराओं को आत्मसात् किया । तौरेत यानि बाइबिल के पुराने नियम में ईश्वर के लिए हिब्रू में " य ह वे ह - (Hahw ) : יהוה "शब्द आया है ,जो एक उपाधि ( epithet ) है . तौरेत में इस शब्द का प्रयोग तब से होने लगा जब" यहूदियों ने यहोवा को इस्राएल और जूडिया का राष्ट्रीय ईश्वर बना दिया था । या:वे शब्द कैन्नानाइटी संस्कृति से हिब्रू परम्पराओं ने आत्मसात् किया ... कैन्नानाइटी संस्कृति में यहोवा का रूप यम (Yam) यम: है । वहाँ "यम" कनानीयों का नदी समुद्र तथा पर्वतों का अधिष्ठात्री देवता था । कैन्नानाइटी संस्कृति में यम का रूप यम्म (Yamm) है , कनानीयों में बहुदेववाद की पृथा विद्यमान थी । कनान संस्कृति में यम शब्द नदी का वाचक है । और समुद्र का भी .. सम्भवत: संस्कृत भाषा में यमुना शब्द वहीं से अवतरित हुआ । अवेस्ता ए जेन्द़ में यिम को विबनघत ( वैदिक रूप विवस्वत्) का पुत्र स्वीकार किया है । परन्तु यह्वती तथा यह्व जैसे शब्द ऋग्वेद में वर्णित हैं । कैन्नानाइटी मायथॉलॉजी में यम एल (El) के पुत्र हैं । क्योंकि की पौराणिक कथाओं में यमुना यम की भगिनी है । परन्तु यह तो एक नदी है .. कनान संस्कृति के विषय बता दें कि यह इज़राएल फॉनिशी तथा एमॉराइट जन-जातियाँ कनानीयों की सहवर्ती रही हैं । तथा कनानीयों की भाषा उत्तरीय-पश्चिमीय सैमेटिक भाषा की एक उपशाखा थी । वर्तमान में जो रास- समरा है वही पुरातन काल में यूगेरिट (Ugarit) नामक पत्तन- शहर था । जो उत्तरी सीरिया की मुख्य-भूमि है । हिट्टी और मिश्र से इनका सांस्कृतिक सम्पर्क रहा । कैन्नानाइटी संस्कृति का ही एक रूप यहाँ की संस्कृति थी । यम ही यहाँ का मुख्य देव था । यम को हिब्रू परम्पराओं में इलहम(ilhm) अथवा एलोहिम(Elohim) भी कहा गया है । जिसका अर्थ होता है एल का यम अर्थात् एल का पुत्र यम ... एलोहिम (Elohim) वस्तुत: एक बहुचन संज्ञा है । हिब्रू भाषा में इम (im) प्रत्यय बहुवचन पुल्लिंग संज्ञा बनाने के लिए प्रयुक्त होता है । अत: एलोहिम Elohim अक्काडियन ullu से विकसित हिब्रू इलाह अथवा इलॉही (Elohei)का बहुवचन रूप है। प्रथम वार यह शब्द तनख़ अर्थात् हिब्रू बाइबिल सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है... सृष्टि-खण्ड ( Genesis 1:1 ) एल (El) का बहुवचन रूप एलोहिम (Elohim) तनख़ अर्थात् हिब्रू बाइबिल में एलोहिम शब्द 2,570. वार प्रयुक्त है । इलॉही( Elohei) शब्द का अर्थ है ---एल सम्बन्धी अर्थात् ईश्वरीय... अथवा मेरा एल .. Elohei Haelohim.=. "ईश्वरों का ईश्वर" हिब्रू परम्पराओं में ईश्वर के तीन नाम में एल (el) एलॉह (elaoh) तथा बहुवचन रूप (Elaohim) अरब़ी भाषा में अल्लाह शब्द की व्युत्पत्ति- अल् +इलाह के द्वारा हुई है । अल् एक सैमेटिक भाषा परिवार में उपसर्ग (Prefix) है जो संज्ञा की निश्चयात्मकता को सूचित करने वाला उपपद (Article) है । अंग्रेजी में "The "एक निश्चयात्मक उपपद है । जैसे अंग्रेज़ी में " The book "को अरब़ी भाषा में कहेंगे अल् किताब़----- अत: अल् इलाह का अर्थ हुआ -- "The God " हिब्रू भाषा में निश्चयात्मक उपपद (Definite Article) वर्तमान में "हा (ha)"है ..स्पेनिश में (el) के रूप में है ।
ऐसी भाषाविदों की मान्यता है । हिब्रू भाषा में( el )एल तथा (eloah) एलॉह दो रूप प्रचीन हैं । यह नाम वस्तुत: पारसीयों के यिम से सम्बद्ध है---- जो अवेस्ता ए जेन्द़ में विवनघत का पुत्र है जिसे वेदों में विवस्वत् का पुत्र यम कहा गया है ।
यम कनानीयों की संस्कृति में पाताल (Abyss) का देवता है ।" ____________________________________"Yam is the deity of The sea and his place is in the abyss ..." बाइबिल पाताल अथवा नरक को तेहॉम के रूप में वर्णित करती है जो वस्तुत: भारतीयों का तमस् अथवा नरक है । यद्यपि नरक सुमेरियन नर्गल तथा ग्रीक नारकॉ (Narco ) और नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके है । नॉर्स माइथॉलॉजी में नारके हिम युक्त वह शीत प्रदेश है जहाँ यमीर रहता है ,जो हिम रूप है । ____________________________________ वस्तुत: यहोवा /याह्वे अथवा एलोहिम यहूदीयों का देव है। जिसका पिता "एल" है । जिससे अरब़ी संस्कृति में अल्लाह शब्द का विकास हुआ...
____________________________________एल देवता फॉनिशियन,सीरियायी, हिब्रू तथा अक्काडियन संस्कृतियों में सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है , अरब़ी संस्कृति में यह इल तथा इलाह दो रूपों में विद्यमान है , जो अक्काडियन इलु से सम्बद्ध है । एमॉराइट तथा अक्काडियन संस्कृतियों में यह शब्द सेमेटिक भाषा से आया .जिसका सम्बन्ध असीरियन मूल से है । ये असीरियन लोग वेदों में वर्णित असुर ही हैं । संस्कृत भाषा में " र" वर्ण की प्रवृति असुरों की भाषा मे "ल" वर्ण के रूप में होती है ... "अरे अरे सम्बोधनं रूपं अले अले कुर्वन्त: तेsसुरा: पराबभूवु: " -----
यास्क निरुक्त )
-----------------------------------------------------------ऋग्वेद १०/१३/८,३,४, तथा शतपथ ब्राह्मण में वर्णित किया गया है कि असुर देवताओं की वाणी का भिन्न रूप में उच्चारण करते थे । अर्थात् असीरियन लोग "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में करते थे । शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है " तेsसुरा हे अलयो !हे अलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु: पतञ्जलि ने महाभाष्य के पस्पशाह्निक अध्याय में शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के इस वाक्य को उद्धृत किया है । -
----------------------------------------------------------- ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के १२६वें सूक्त का पञ्चम छन्द में अरि शब्द आर्यों के सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है:
--------------------------------------------------------------
पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन् युक्ताँ अष्टौ-अरि(अष्टवरि) धायसो गा: । सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त:श्रव ऐषन्त पज्रा: ।।५।। -
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ऋग्वेद---२/१२६/५ तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में सन्दर्भित करते हुए.. वर्णित किया है--अरिभिरीश्वरे:धार्य्यतेधा ---असुन् पृ० युट् च । ईश्वरधार्य्ये ।" अष्टौ अरि धायसो गा: " ऋग्वेद १/१२६/ ५/ अरिधायस: " अर्थात् अरिभिरीश्वरै: धार्य्यमाणा "भाष्य । ____________________________________ अरि शब्द के लौकिक संस्कृत मे कालान्तरण में अनेक अर्थ रूढ़ हुए --- अरि :---१---पहिए का अरा २---शत्रु ३-- विटखदिर ४-- छ: की संख्या ५--ईश्वर वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में अरि धामश्शब्दे ईश्वरे उ० विट्खरि अरिमेद:।" सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित बुध:शशी सौम्यसितौ रवीन्दु । रवीन्दुभौमा रविस्त्वमित्रा" इति ज्योतिषोक्तेषु रव्यादीनां ___________________________________
हिब्रू से पूर्व इस भू-भाग में फॉनिशियन और कनानी संस्कृति थी , जिनके सबसे बड़े देवता का नाम हिब्रू में "एल - אל " था । जिसे अरबी में ("इल -إل "या इलाह إله-" )भी कहा जाता था , और अक्कादियन लोग उसे "इलु - Ilu "कहते थे , इन सभी शब्दों का अर्थ "देवता -god " होता है । इस "एल " देवता को मानव जाति ,और सृष्टि को पैदा करने वाला और "अशेरा -" देवी का पति माना जाता था -।
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(El or Il was a god aalso known as the Father of humanity and all creatures, and the husband of the goddess Asherah -
----------------------------------------------------------- (בעלה של אלת האשרה) .सीरिया के वर्तमान प्रमुख स्थलों में " रास अस शम -رأس, "शाम की जगह) करीब 2200 साल ईसा पूर्व एक मिटटी की तख्ती मिली थी , जिसने इलाह देवता और उसकी पत्नी अशेरा के बारे में लिखा था , पूरी कुरान में 269 बार इलाह - إله-" " शब्द का प्रयोग किया गया है , और इस्लाम के बाद उसी इलाह शब्द के पहले अरबी का डेफ़िनिट आर्टिकल "अल - ال" लगा कर अल्लाह ( ال+اله ) शब्द गढ़ लिया गया है , जो आज मुसलमानों का अल्लाह बना हुआ है । ____________________________________
इसी इलाह यानी अल्लाह की पत्नी का नाम अशेरा है . अशेरा का परिचय अक्कादिअन लेखों में अशेरा को अशेरथ (Athirath ) भी कहा गया है , इसे मातृृत्व और उत्पादक की देवी भी माना जाता था , यह सबसे बड़े देवता "एल " की पत्नी थी । . इब्राहिम से पहले यह देवी मदयन से इजराइल में आ गयी थी। इस्राइलीय इसे भूमि के देवी भी मानते थे। इजराइल के लोगों ने इसका हिब्रू नाम "अशेरह - (אֲשֵׁרָה), " कर दिया ! और यरूशलेम स्थित यहोवा के मंदिर में इसकी मूर्ति भी स्थापित कर दी गयी थी ,अरब के लोग इसे " अशरह (-عشيره ") कहते थे , और हजारों साल तक यहोवा के साथ इसकी पूजा होती रही थी । . -अशेरा अल्लाह की पत्नी अशेरा यहोवा उर्फ़ इलाह यानी अल्लाह की पत्नी है यह बात तौरेत की इन आयतों से साबित होती है । ____________________________________
जो इस प्रकार है---"HWH came from sinai ,and shone forth from his own seir ,He showed himself from mount Paran ,yes he came among the myriads of Qudhsu at his right hand , his own Ashera indeed , he who loves clan and all his holy ones on his left " ____________________________________
"यहोवा सिनाई से आया , और सेईर से पारान पर्वत से हजारों के बीच में खुद को प्रकाशित किया , दायीं तरफ कुदशु (Qudshu:( Naked Goddess of Heaven and Earth') और उसकी "अशेरा ", और जिनको वह प्रेम करता है वह लोग बायीं तरफ थे " (तौरेत - व्यवस्था विवरण 33 :2 -3 (Deuteronomy 33.2-3,) । यहोवा और उसकी अशेरा का तात्पर्य यहोवा और उसकी पत्नी अशेरा है । तौरेत में अशेरा का उल्लेख अशेरा का उल्लेख तौरेत (Bible)की इन आयतों में मिलता है "उसने बाल देवता की वेदी के साथ अशेरा को भी तोड़ दिया " Judges 6:25). " और उसने अशेरा की जो मूर्ति खुदवाई उसे यहोवा के भवन में स्थापित किया "(2 Kings 21:7 " और जितने पात्र अशेरा के लिए बने हैं उन्हें यहोवा के मंदिर से निकालकर लाओ "2 ) "स्त्रियाँ "अशेरा के लिए परदे बना करती थीं "2 Kings 23:7)."सामरिया में आहब ने अशेरा की मूर्ति लगायी । अशेराह वस्तुत: भारतीय संस्कृति में अपने प्रारम्भिक चरण में स्त्री रूप में है । स्त्री शब्द ही श्री रूप में वेदों में सन्दर्भित हुआ है । रोमन संस्कृति में सेरीज (Ceres)--in ancient (Roman mythology) सुमेरियन संस्कृति में इनन्ना (नना) अथवा ईष्टर(ishtar) वेदों की नना और स्त्री हैं ।
Roman religion Ceres was a goddes of agriculture,grain crops , fertility & motherly relationship" in roman mythology.अर्थात् रोमन आर्यों की संस्कृति में सेरीज कृषि धन फसल तथा धन-धान्य की देवी है । सेरीज (Ceres) शब्द कैल्ट अथवा सेल्ट संस्कृति में शेला (Sheila)---celtic fertility goddess पूरा नाम शिला -नागिग (sheela Na gig.) यही शब्द यूरोपीय भाषा परिवार में ऑइष्ट्रस् (Oestrus) पुरानी अंग्रेज़ी में eastre आद्य जर्मनिक Austro संस्कृत ऊषा । वेदों में अरि तथा स्त्री शब्द गौण रह गये हैं । वैदिक भाषा में अरि शब्द घर तथा ईश्वर का भी वाचक है परन्तु लौकिक संस्कृत में यह शत्रु वाची ही हो गया।
मैं शून्य में संपूर्ण ब्रह्मांड हूं।
शीला-ना-गिग ब्रिटिश द्वीपों (ज्यादातर आयरलैंड) की मध्यकालीन पत्थर की नक्काशी से एक आकृति है, जिसमें एक मुस्कराती हुई स्त्री अपने योनि को खोलती है। उसे कुछ लोगों द्वारा वासना के मध्ययुगीन रूपक के रूप में या महिलाओं में बांझपन को ठीक करने के लिए एक जादुई आकृति के रूप में माना जाता है। लेकिन अन्य लोगों ने उसे प्राचीन आयरिश पृथ्वी मां की एक प्रतिध्वनि के रूप में देखा है। जैसा कि सिन्धु घाटी में मातृदेवी की आकृति-
शब्द "गीग" विशालता के लिए नॉर्स व्युत्पत्ति है, दूसरे शब्दों में, एक अलौकिक या देवीकृत महिला, जबकि "शीला" एक महिला का नाम है
योनि जन्म और जीवन के पवित्र प्रतीक के रूप में एक बहुत प्राचीन विचार है जो पृथ्वी माता की जीवनदायी और पुनर्योजी शक्तियों का प्रतीक है। भग की छवि का पत्थर में उकेरा जाने का एक लंबा इतिहास रहा है, और यह पूरे यूरोप में पुरापाषाण और नवपाषाण युग से यह पाया जाता है। मार्ग कब्रों को देवी के आकार में योनि मार्ग के साथ बनाया गया था, और मकबरे का कक्ष ही उनके गर्भाशय का प्रतिनिधित्व करता था। "मकबरे" और "गर्भ" की बराबरी की गई, इस प्रकार मृत्यु के बाद उत्थान और निरंतरता सुनिश्चित की गई, उसी तरह जैसे कि एक "मृत" बीज को उपजाऊ धरती में लगाया जाता है और एक पूर्ण पौधे में विकसित होने के लिए अंकुरित होता है।
🌸 (धर्मसर्वस्वम्)🌸
जिस नैतिक नियम को आजकल ('Golden Rule) या '' (Ethic of Resprosity)कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता तो बुद्ध के सिद्धान्तों से मिली।
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श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(पद्मपुराण, सृष्टि-खण्ड:- (19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है ? सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
महात्मा बुद्ध के भी यही वचन थे !
परन्तु पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों का धर्म केवल वर्ण-व्यवस्था गत नियमों का वंश परम्परा गत पालन करने से था । यह धर्म की परिवर्तित रूप था । आप जानते हो जब वस्त्र जब नया होता है । वह शरीर पर सुशोभित भी होता है ; और शरीर की सभी भौतिक आपदाओं से रक्षा भी करता है ।👇
परन्तु कालान्तरण में वही वस्त्र जब पुराना होने पर जीर्ण-शीर्ण होकर चिथड़ा बन जाता है ।
अर्थात् उसमें अनेक विकार आ जाते हैं ।
तब उसका शरीर से त्याग देना ही उचित है ।
परन्तु अचानक नहीं क्यों कि आप नंगे हो जाओगे। हम्हें इसका विकल्पों नवीन वस्त्रों के रूप में करना चाहिए
आधुनिक धर्म -पद्धतियाँ केवल उन रूढ़ियों का घिसा- पिटा रूप है --जो बस व्यवसाय वादी ब्राह्मणों के स्वार्थ सिद्ध के विधान मूलक उपक्रम हैं ।
मन्दिर इनकी आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली दुकानें हैं ।
देवता भी इनके अनजाने हैं ।
जितने भी मठ-आश्रम हैं ज्यादातर
अय्याशी के ठिकाने हैं।
बताओ क्या सर्व-व्यापी ईश्वर मन्दिर में कैद है ?
क्या कर्म- काण्ड परक धार्मिक अनुष्ठान करने से ईश्वर के दर्शन हो जाऐंगे ?
क्या ईश्वर दान का भूखा है ?
क्या ईश्वर ने ब्राह्मणों को अपने मुख से उत्पन्न किया ।
क्या शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए ?
ये बैहूदी बाते धर्म की बाते हैं ।
परन्तु आज इस धर्म की जरूरत नहीं !
आज आवश्यकता है विज्ञान और साम्य मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं की !
तुमने राक्षसों को अधर्मी कहा ।
तुमने असुरों को दुराचारी कहा।
जबकि वस्तु स्थित इसके विपरीत है ।👇
वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें श्लोक में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
परन्तु ब्राह्मणों के स्वार्थ परक धर्म ने ही वर्ण-व्यवस्था के विधानो की श्रृंखला में समाज को बाँधने की कृत्रिम चेष्टा की!
तो परिमाण स्वरूप समाज अपने मूल स्वरूप से विखण्डित हुआ ।
इन्होंने ने जाति मूलक वर्ण-व्यवस्था के पालन को ही धर्म कहा
समाज में असमानता पनपी --जो वास्तविक परिश्रमी कर्म कुशल अथवा सैनिक या यौद्धा थे ।
उन्हें शूद्र कहकर उनके अधिकार छीन लिए धर्म का झाँसा देकर जब्त करलिए गये पढ़ने और लड़ने के अधिकार भी
--जो अय्याश अथवा ब्राहमणों के चापलूस थे ।
उन्हें कृत्रिम क्षत्रिय घोषित कर दिया गया ।
अन्ध-श्रृद्धा धर्म का पर्याय बन गयी !
मन्दिर में चढ़ाबे के नाम पर नित्य नियमित अन्ध-भक्तों द्वारा सोने-चाँदी तथा धन चढ़ाया जाता ।
सोमनाथ की शिव प्रतिमा 200मन स्वर्ण की निर्मित थी।दक्षिण भारतीय इतिहास मन्दिरों में देख लो !
निम्न समझे जाने वाले वर्गों से सुन्दर व नव यौवना कन्याऐं देवदासी के रूप में तैनात की जाती तथा मन्दिर के पुजारी उनके साथ सम्पृक्त होकर अपनी अतृप्त वासनाओं की तृप्ति करते ।
विदेशी लोग भारत की इस अन्धी श्रृद्धा से परिचित हो गये
तब ज्ञात इतिहास में पहले ईरानीयों में दारा प्रथम ने भारत को जाता फिर सिकन्दर ने फिर सात सौ बारह ईस्वी में अरब से सिन्ध होते हुए :- मोहम्मद विन काशिम ने तथा फिर महमूद गजनबी 1000 ईस्वी तथा अन्त में फिर ईष्ट-इण्डिया कम्पन के माध्यम से अंग्रेजों का आगमन हुआ।ये धर्म ही था जिसने देश को गुलाम बनाया और ब्राहमणों का धर्म इसके लिए जिम्बेबार था ।
क्या हम्हें फिर गुलाम बनना है ? धर्म की असली व्याख्या कृष्ण ने की ! और
धर्म की असली परिभाषा तो बुद्ध ने की 👇
इसे कितने ब्राह्मण मानते हैं !
धर्म की मात्र इतनी सी परिभाषा है
कि --जो व्यवहार हम अपने लिए उचित समझते हैं । वही व्यवहार हम दूसरों के भी साथ करें ।
यह धर्म है ।
परन्तु ब्राहमणों का धर्म सूत्र कहता है ।कि 👇
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दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् .
न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् ।।पाराशर-स्मृति (१९२)
अर्थात् ब्राह्मण यदि व्यभिचारी भी हो तो भी 'वह पूजने योग्य है ।जबकि शूद्र जितेन्द्रीय और विद्वान होने पर भी पूजनीय नहीं । शील वती गर्दभी (गधईया) से बुरे शरीर वाली गाय भली अब बताऐं कि ये ऐसा धर्म त्यागना चाहिए या नहीं !
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विचार-विश्लेषण--- यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम :-आजा़दपुर पत्रालय :-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़--- सम्पर्क सूत्र --8077160219./
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"त्रित और त्रैतन का इतिहास"
🐞🌸त्रित और त्रैतन 🌸🐞
हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतन (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन (شيطان ) रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन के रूप में है । परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में यह "थ्रएतओन शब्द "शय्यतन या सेहतन के रूप में विकसित हो गया है । यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है । और सिरिया की संस्कृति में सय्यतन है ।आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर---
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त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।
त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु
अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।
परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है जैसा कि पूर्व वर्णित किया गया ।
यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ;
जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ समान थीं ; और सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर ही सम्पर्क में आये हुए थे ।
शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थमूलक एवं वर्णमूलक रूप में विन्यस्त है ।
वह निश्चित रूप से इसका बहुत बाद का परिवर्तित रूप है ।
🌸--- वेदों में त्रैतन के रूप में ---🌸
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शैतान शब्द ऋग्वेद में त्रैतन के रूप में है ;
जो ईरानी ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द में थ्रेतॉन (Traetaona) के रूप में प्रतिरूपित हुआ है ;
और परवर्ती फ़ारसी ,पहलवी या पार्थेनियन आदि में यह शब्द"सेहतान अथवा शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।"क्यों कि ? भाषाई प्रवृत्ति के अनुसार कुछ परिवर्तन स्वाभाविक ही हैं।"त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।
जैसे संस्कृत त्रितार वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में सितार कहा जाता है । इसी भाषायी पद्धति से वैदिक शब्द त्रैतन - सैतन और सैतान के रूप में परिवर्तित हो जाता है ।____________________________________
व्युत्पत्ति और इतिहास सन्दर्भ में इतना तो सर्व विदित है- कि दारा प्रथम के समय ईरानी संस्कृति में गायन वादन था । और सि-तार भी ई०पू० 400 के समकक्ष निर्मित है सितार नाम फारसी भाषा से आता है। जो संस्कृत के त्रितार का प्रतिरूप है । "त्रि" संख्या वाचक शब्द फ़ारसी (Persian) में-سه • (se) तीन है । अर्थात तीन तार का एक वाद्य यन्त्र (sehtar)- सेहतार- संस्कृत रूप त्रितार- इसी के सादृश्य पर बना है अत: त्रैतन से शेैय्यतन शब्द स्वत:सिद्ध ही है-
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अरबी भाषा अक्सर हिब्रू से सम्बद्ध रही है । यहाँ तक कि अरब की हजरत मौहम्मद साहब के द्वारा मज़हबी विचार धारा भी यहूदी परम्पराओं से प्रभावित और उसकी उपजीव्य- हैं। और शैतान अथवा सय्यतन पात्रों की परिकल्पना भी अरबी में यहूदी परम्पराओं से नि:सृत है। जबकि कुछ पूर्वाग्रहवादी इस्लामिक आलिमों ने व्युपत्ति के दृष्टि कोण से यह शब्द (स्यत् )-किया - मूल से व्युत्पन्न माना है। जबकि ये शब्द हिब्रू भाषा का है। परन्तु इस्लामिक विद्वान् अपने ही मत पर अडिग हैं। और उनके द्वारा अक्सर इसी धातु ( मूल) से आने के रूप में शय्यतन शब्द की व्याख्या की जाती है। ش ي ط ( š-y-ṭ ) धातु का अर्थ है " जला देना , छिड़कना " और ان ( -ān ) प्रत्यय है । अर्थात् शय्यतन का अर्थ है:-अग्नि से जला देने वाला
यद्यपि शैतान शब्द अरबी मूल का कदापि नहीं है परन्तु फिर भी अरबी भाषा के आलिम जो इसकी व्युत्पत्ति अरबी भाषा से दर्शाते हैं उनके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति विवरण इस प्रकार है। एक नजर उस पर भी-
"मूल शब्द-
ش ي ط • ( š-y-ṭ )
- जलाना से संबंधित शब्द बनते हैं
"सय्यतन शब्द की व्युत्पत्ति-
- ش ي ط ن ( š-y-ṭ-n )
- شَيْطَان ( मसायतन , " शैतान " ) ; कृपया। شَيَاطِين _ _ _
- रूप I : شَاطَ ( साता , " जलाना " )
- रूप II : شَيَّطَ ( सय्या , " गाने के लिए " )
- प्रपत्र IV : أَشَاطَ ( 'आशा )
- फॉर्म वी : تَشَيَّطَ ( तसय्या )
- मौखिक संज्ञा: تَشَيُّط ( tašayyuṭ )
- सक्रिय कृदंत: مُتَشَيِّط ( mutašayyiṭ )
- निष्क्रिय कृदंत: مُتَشَيَّط ( mutašayyaṭ )
- "रूप X : اِسْتَشَاطَ ( istašāṭa )
- मौखिक संज्ञा: اِسْتِشَاطَة ( istišāṭa )
- सक्रिय कृदंत : مُسْتَشِيط _
- निष्क्रिय कृदंत : مُسْتَشَاط _
हिब्रू ग्रन्थों की ऐतिहासिक प्राथमिकता को देखते हुए, जिसमें शब्द प्रासंगिकता भी है, यह सम्भव है कि अरबी शब्द बहुतायत से हिब्रू शब्दों की ही पुनरावृत्ति हैं ।
शास्त्रीय सिरिएक (सीरियायी) भाषा के साथ संज्ञानात्मक रूप में sܢܐ ( साईंना) सैतान का वाचक है।
"ऋग्वेद में "त्रैतन" शब्द का विकास क्रम-💐 ")
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ऋग्वेद में मण्डल (1) तथा सूक्त (158) पर देखें त्रैतन के विषय में क्या लिखा है ?👇____________________________________
न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥(ऋग्वेद में 10/99/5)
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥____________________________________
ऋषि - दीर्घतमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप ।
"अनुवाद:- हे ! अश्वनिद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया । तो "त्रैतन" दास(असुर) ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह भी स्वयं ही कन्धों पर आहत हो गया।5।___________________
महाभारत में इनसे सम्बन्धित एक कथा है जिसका सारांश हम प्रस्तुत करते हैं-एक ऋषि जो उतथ्य के पुत्र थे । विशेष— महाभारत में इनकी कथा इस प्रकार लिखी है । उतथ्य नामक एक मुनि थे, जिनकी पत्नी का नाम ममता था । ममता जिस समय गर्भवती थी उस समय उतथ्य के छोटे भाई देवगुरु बृहस्पति उसके पास आए और सहवास की इच्छा प्रकट करने लगे । ममता न कहा 'मुझे तुम्हारे बडे़ भाई से गर्भ है अतः इस समय तुम जाओ' । बृहस्पति ने नहीं माना और वे सहवास में प्रवृत हुए । गर्भस्थ बालक ने भीतर से कहा— 'बस करो ? एक गर्भ में दो बालकों की स्थिति नहीं हो सकती । जब बृहस्पति ने इतने पर भी न सुना तब उस तेजस्वी गर्भस्थ शिशु ने अपने पैरों से वीर्य को रोक दिया । इस पर बृहस्पति ने कुपित होकर गर्भस्थ बालक को शाप दिया कि दू दीर्घतामस में पड़ (अर्थात् अंधा हो जा)' । बृहस्पति के शाम से वह बालक अंधा होकर जन्मा और दीर्घतमा के नाम से प्रसिद्ध हुआ । प्रद्वेषी नाम की एक ब्राह्मण कन्या से दीर्घतमा का विवाह हुआ, जिससे उन्हें गौतम आदि कई पुत्र हुए । ये सब पुत्र लोभ मोह के वशीभूत हुए । इस पर दीर्घतमा कामधेनु से गोधर्म शिक्षा प्राप्त करके उससे श्रद्धापूर्वक मैथुन आदि में प्रवृत्त हुए । दीर्घतमा को इस प्रकार मर्यादा भंग करते देख आश्रम के मुनि लोग बहुत बिगडे़ । उनकी स्त्री प्रद्वेषी भी इस बात पर बहुत अप्रसन्न हुई । एक दिन दीर्घतमा ने अपनी स्त्री प्रद्वेषी से पूछा कि 'तू मुझसे क्यों दुर्भाव रखती है ।' प्रद्वेषी ने कहा 'स्वामी स्त्री का भरण पोषण करता है इसी से भर्ता कहलाता है पर तुम अंधे हो, कुछ कर नहीं सकते । इतने दिनों तक मैं तुम्हारा और तुम्हारे पुत्रों का भरण पोषण करती रही, पर अब न करुँगी' । दीर्घतमा ने क्रुद्ध होकर कहा—'ले' आज से मैं यह मर्यादा बाँध देता हूँ कि स्त्री एकमात्र पति से ही अनुरक्त रहे । पति चाहे जीता हो या मरा वह कदापि दूसरा पति नहीं कर सकती । जो स्त्री दूसरा पति ग्रहण करेगी वह पतित हो जायगी । प्रद्वेषी ने इसपर बिगड़कर अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि 'तूम अपने अंधे वाप को बाँधकर गंगा में डाल आओ ।' पुत्र आज्ञानुसार दीर्घतमा को गंगा मे डाल आए । उस समय बलि नाम के कोई राजा गंगा- स्नान कर रहे थे । वे ऋषि को इस अवस्था में देख अपने घर ले गए और उनसे प्रार्थना की कि 'महाराज ! मेरी भार्या से आप योग्य संतान उत्पन्न कीजिए ।' जब ऋषि सहमत हुए तब राजा ने अपनी सुदेष्णा नाम की रानी को उनके पास भेजा । रानी उन्हें अंधा और बुढ्ढा देख उनके पास न गई और उसने अपनी दासी को भेजा। दीर्घतमा ने उस शूद्रा दासी से कक्षीवान् आदि ग्यारह पुत्र उत्पन्न किए । राजा ने यह जानकर फिर सुदेष्णा को ऋषि के पास भेजा । ऋषि ने रानी का सार अंग टटोलकर कहा 'जाओ, तुम्हें अंग, बंग, कलिंग, पुंड्र और सुंभ नामक अत्यंत तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होंगे जिनके नाम से देश विख्यात होंगे'। यद्यपि उपर्युक्त कथा केवल किंवदन्ती है जिसमें पूर्वाग्रह पूर्वक कल्पनाओं का समावेश है। भारतीयों ने अपने सामाजिक गतिविधियों व मनस प्रवृत्तियों के अनुरूप मिथकों का सृजन किया ऋग्वेद के पहले मण्डल में सूक्त १४० से १६० तक में भी दीर्घतमा के रचे मंत्र हैं
इनसें कई मंत्र ऐसे हैं जिनसे उनके जीवन की घटनाओं का पता चलता है। महाभारत में उनकी स्त्री के संबंध में जिस घटना का वर्णन है उसका उल्लेख भी कई मंत्रों में है । सूक्त १५७ के मन्त्र ५ में वर्णन है कि जब लोगों ने उन्हें एक संदूक में बंद कर दिया था । "दीर्घतमा ने उस समय अश्विनी देवों से उद्धार पाने के लिये प्रार्थना की है ।
उतथ्य एक प्रसिद्ध ऋषि थे। इनका जन्म आंगिरस ऋषि के कुल में हुआ था। इनकी भार्या का नाम 'भद्रा' था, जो बड़ी ही रूपवती और सौन्दर्य की मूर्ति थी। उतथ्य की पत्नी भद्रा का अपहरण कर वरुण ने छिपा लिया था और लौटाने से इंकार किया। नारद मुनि की मध्यस्थता से भी वरुण ने भद्रा को लौटाना स्वीकार नहीं किया, तब उतथ्य ने सरस्वती को सूख जाने और ब्रह्मर्षि देश को अपवित्र हो जाने का अभिशाप दे दिया। उतथ्य के इस शाप के भय से वरुण ने भद्रा को लौटा दिया। महाभारत के 'आदिपर्व'-अध्याय-98.5-16 उतथ्य का वर्णन है और 'शांतिपर्व' अध्याय-328 में भी उतथ्य की एक अन्य पत्नी 'ममता' का भी उल्लेख मिलता है। उतथ्य के कनिष्ठ (छोटे) भ्राता बृहस्पति थे, जो सुंदरी ममता पर आसक्त हो गए थे। बृहस्पति ने अपनी भाभी ममता से उस समय बलात संभोग करना चाहा, जब वह गर्भवती थी, किंतु गर्भस्थ शिशु ने इनके इस कार्य का विरोध किया। इससे क्रुद्ध होकर बृहस्पति ने गर्भस्थ शिशु को अंधा होने का शाप दे दिया। जन्म लेने पर इस अंधे बालक का नाम 'दीर्घतमा औतथ्य' हुआ।
आश्चर्य है कथा निर्माण करनेवालों का कि वे बलात्कारी दोषी व्यक्ति के शाप को भी निर्दोष व्यक्ति पर आरोपित कर देते हैं। जो वस्तुतः शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत ही है। परन्तु पात्रों की ऐतिहासिकता में कोई व्यवधान नहीं है। क्योंकि विश्व की अन्य संस्कृतियो या पुराण कथाओं में भी ये पात्र मिलते हैं।
ऋग्वेद की निम्न ऋचाओं में "ममता और "त्रित आदि का वर्णन है।
तमु द्युमः पुर्वणीक होतरग्ने अग्निभिर्मनुष इधानः।
स्तोमं यमस्मै ममतेव शूषं घृतं न शुचि मतयः पवन्ते ॥२॥ ऋग्वेद- ६/१०/२
(ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 158) ऋग्वेद में ही अन्यत्र त्रित: ममता दीर्तमा आदि पात्रों का वर्णन है जो प्रागैतिहासिक व विश्व की दूसरी अन्य पुराण कथाओं में वर्णित है।
ऋग्वेदः - मण्डल -१ सूक्तं -१५८ में दीर्घतमा औतथ्यः का वर्णन है - जो सायणभाष्यसहित प्रस्तुत है।
वसू रुद्रा पुरुमन्तू वृधन्ता दशस्यतं नो वृषणावभिष्टौ।दस्रा ह यद्रेक्ण औतथ्यो वां प्र यत्सस्राथे अकवाभिरूती॥१॥
(1)-हे “वृषणौ= कामानां वर्षितारौ( कामनाओं की वर्षा करने वाले “दस्रा= अस्मद्विरोध्युपक्षपयितारौ हे अश्विनौ युवां - हमारे विरोधीयों का उपनक्षय(नाश) करने वाले “नः= अस्मभ्यं-हमको “दशस्यतं= दत्तं दित्सितं फलम्- दिए हुए फल को। कीदृशौ युवाम् । “वसू =वासयितारौ प्रजानाम्- प्रजा को वसाने वाले। वसुना =धनेन धन के द्वारा तद्वन्तौ वा ॥ मत्वर्थो लुप्यते ॥ "रुद्रा= रुद्रौ = रुद्दुःखं तद्धेतुभूतं पापं वा । तस्य द्रावयितारौ । संग्रामे भयंकरं शब्दयन्तौ वा । रुद्रो रौतीति सतः ' (निरुक्त- १०. ५) इति यास्कः। “पुरुमन्तू= बहूनां ज्ञातारौ ॥ मनेरौणादिकः तुन्प्रत्ययः ॥ “वृधन्ता= वर्धमानौ स्तोत्रादिना “अभिष्टौ आभिमुख्येन पूजितौ अभीष्टसाधकौ वा । हशब्दः उक्तगुणप्रसिद्धिद्योतनार्थः । किमर्थं दीयते इति चेत् । “यत् यस्मात् “{औतथ्यः= उचथ्यस्य पुत्रो दीर्घतमाः} “वां= युवां “रेक्णः= धनं स्तुतिव्याजेन= प्रार्थयते तदर्थम् । यद्वा । अयं यजमानो यद्यस्मात् रेक्णो हविर्लक्षणमन्नं वां युवाभ्यां दास्यति =ददातीति शेषः । यस्माच्च “अकवाभिः= अकुत्सितैः “ऊती =ऊतिभिः रक्षणैः ‘ सुपां सुलुक्° ' इति तृतीयायाः पूर्वसवर्णदीर्घः “प्र “सस्राथे प्रसारयथः प्रकर्षेण दत्थः तस्माद्दशस्यतम् यस्मादभिमतप्रदौ यस्माच्चायं प्रार्थयते ददाति वा हविः तस्माद्दशस्यतमित्यर्थः ॥
को वां दाशत्सुमतये चिदस्यै वसू यद्धेथे नमसा पदे गोः। जिगृतमस्मे रेवतीः पुरन्धीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता॥२॥
हे “वसू= वासयितारावश्विनौ “वां= युवयोः संबन्धिन्यै “अस्यै वक्ष्यमाणरूपायै "सुमतये= “चित् शोभनबुद्ध्यै । चित् पूजायामप्यर्थे वा । स्वल्पेनैव हविषा महत्फलप्रदानरूपायै ईदृश्यै अपि बुद्ध्यै प्रीणनाय “कः “दाशत् को दद्यात् दातुं शक्नुयात् । युवयोः प्रभावस्यातिमहत्त्वादिति भावः॥ दाशतेर्लेट्यडागमः ॥ कथं मतेः सौष्ठवमिति तदुच्यते । “यत्= यस्मात्कारणात् गोः “पदे= भूम्याः सर्वैर्गन्तव्यायाः स्तुत्याया वा वेदिरूपायाः स्थाने। एतावती वै पृथिवी यावती वेदिः' (तैत्तिरीय. संहिता २. ६. ४. ३ ) इति श्रुतेः। गौरिति भूमिनाम । तथा च निरुक्तं गौरिति पृथिव्या नामधेयं यद्दूरं गता भवति यच्चास्यां भूतानि गच्छन्ति गातेर्वौकारो नामकरणः ' (निरुक्त २. ५ ) इति । तादृशे स्थाने अस्माभिः प्रार्थितौ सन्तौ “नमसा हविर्लक्षणेन यवमात्रप्रकारेणान्नेन’ “धेथे धारयथो बहुप्रदानविषयां बुद्धिम् ।। दधातेर्लटि • बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् । धातोर्ह्रस्वत्वम् । ‘ आतो ङितः ' (पा. सू. ७. २. ८१ ) इति इयादेशः ॥ यस्मादेवं तस्मात् “अस्मे अस्मभ्यं “रेवतीः क्षीरादिधनवतीः “पुरंधीः शरीरधारिकाः शरीराभिवृद्धिहेतूः गाः “जिगृतं शब्दयतं दत्तमित्यर्थः॥‘गॄ शब्दे'। छान्दसः शपः श्लुः । अभ्यासस्येत्वं ह्रस्वत्वं च ॥ पुनस्तावेव विशेष्येते । “कामप्रेणेव । इव शब्दः एवकारार्थः । कामपूरकेणैव “मनसा सह “चरन्ता चरन्तौ । यजमानस्य कामाः पूरणीया इति कृतसंकल्पावित्यर्थः ॥ ‘ प्रा पूरणे'। कामं प्रातीति कामप्रः । आतोऽनुपसर्गे कः' ।
युक्तो ह यद्वां तौग्र्याय पेरुर्वि मध्ये अर्णसो धायि पज्रः। उप वामवः शरणं गमेयं शूरो नाज्म पतयद्भिरेवैः॥३॥
(3)-अत्रेतिहासमाहुः । तौग्र्यनामकं राजानं युद्धे शत्रवः पराभाव्य पाशैर्दृढं बद्ध्वा समुद्रमध्ये प्रचिक्षिपुः । स च उत्तरीतुमशक्तः सन् अश्विनौ तुष्टाव । तौ च तुष्टौ शीघ्रमेव रथमश्वैर्योजयित्वा समुद्रमागत्य तमुत्तार्य अपालयतामिति । अयमर्थः ‘अजोहवीदश्विना तौग्र्यः' (ऋ. सं १. ११७. १५) इत्यादिमन्त्रान्तरे प्रसिद्धः । सोऽत्रोच्यते । हे अश्विनौ “वां युवयोः संबन्धी “पेरुः पारणकुशलो रथः “युक्तो "ह अश्वैर्युक्तः खलु । हशब्दो मन्त्रान्तरप्रसिद्धिद्योतनार्थः । स च उदाहृतः । कस्मै । “तौग्र्याय एतन्नाम्ने राज्ञे तद्बन्धमोचनार्थम् । कुत्रेति तदुच्यते । “अर्णसः अम्भसः “मध्ये समुद्रस्य मध्ये । स च “पज्रः पाजसा बलेन तीर्णः सन् "वि “धायि धारितः स्थापितः । यस्मादेवं तस्मात् “वां युवयोः “अवः रक्षणं “शरणम् “उप “गमेयं संप्राप्नुयाम् ऐहिकदुःखाद्विमुक्तो युष्मत्स्थानं संभजेयम् । गतौ दृष्टान्तः । “पतयद्भिरेवैः अश्वैः “शूरो “न शूर इव । स यथा “अज्म जित्वा निर्भयं स्वगृहं प्राप्नोति तद्वत् ॥
उपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येन्मा मामिमे पतत्रिणी विदुग्धाम्।मा मामेधो दशतयश्चितो धाक्प्र यद्वां बद्धस्त्मनि खादति क्षाम्॥४॥
(4)-अत्राख्यानमाहुः । जराझर्झरितगात्रं जात्यन्धं दीर्घतमसं मामतेयं वरिवसितुमशक्नुवानाः स्वगर्भदासा अग्नौ प्रदाहाय प्रचिक्षिपुः । तत्र क्षिप्तोऽश्विनावस्तावीत् । तौ चैनमरक्षताम् । ततोऽप्यम्रियमाणमुदकेषु अपातयन्। तत्र निमग्नः पुनरश्विनौ तुष्टाव । तुष्टौ सन्तौ तौ जलादुदहार्ष्टाम् । एवमवध्यं तं त्रैतनो नामकः कश्चिद्दासः अस्य शिरो वक्षश्च व्यतक्षत् । ततोऽप्यपालयतामिति । तदिदम् ऋग्द्वयाभ्यामुच्यते । हे अश्विनौ “उपस्तुतिः युवां बुद्ध्योपेत्य क्रियमाणा स्तुतिः “औचथ्यम् उचथस्य पुत्रं दीर्घतमसं माम् “उरुष्येत् रक्षेत् दाहाद्युपद्रवात् । 'उरुष्यती रक्षाकर्मा' (निरु. ५. २३) इति यास्कः । एवं सामान्येनोक्त्वा विशेषेण प्रत्युपद्रवपरिहारं प्रार्थयते । “इमे प्रसिद्धे “पतत्रिणी पतनशीले पुनरावर्तनशीले अहोरात्रे “मां “मा “वि “दुग्धां विशेषेण दोहगतसारं मा कार्ष्टां प्राणनिर्गमनानुकूल्यं मा कुरुतामित्यर्थः । किंच “मां “दशतयः दशवार: “चितः संचितः संपादितः “एधः प्रज्वालितेन्धनसंघः “मा “धाक् मा धाक्षीत् ॥ दहतेर्लुङि सिचि हलन्तलक्षणा वृद्धिः। ‘बहुलं छन्दसि ' इति इडभावः । हल्ङ्यादिसंयोगान्तलोपौ ॥ दुःसहदुःखप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “वां युवयोः संबन्धी अयं जनः “बद्धः पाशैः गाढं वेष्टितः सन् “त्मनि आत्मनि आत्मना “क्षां भूमिं “खादति भक्षयति गन्तुमशक्तः सन् भूमौ परिलुठतीत्यर्थः । तस्मादुपस्तुतिरौचथ्यमुरुष्येत् इति ॥
अस्याः पञ्चम्या विनियोगमाह शौनकः - ‘ आततायिनमायान्तं दृष्ट्वा व्याघ्रमथो वृकं । न मा गरन्निति जपंस्तेभ्य एव प्रमुच्यते । त्रिरात्रोपोषितो रात्रौ जपेदा सूर्यदर्शनात् । आप्लुत्य प्रयतः सूर्यमुपतिष्ठेद्दिवाकरं । पश्यन्ति तस्करा नैनं तथान्ये पापबुद्धयः । एकः शतानि त्रायेत तस्करेभ्यश्चरन् पथि ' ( ऋग्वेद १. १४१ ) इति ॥
"न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥
(5-)“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः॥
"दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे। अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥
(6)“दीर्घतमाः एतन्नामा महर्षिः स च “मामतेयः ममतायाः पुत्रः “दशमे “युगे दशयुगपर्यन्तं महानुभावयोरश्विनोः प्रभावात् पूर्वोक्ताद्दुःखाद्विमुक्तोऽत्यन्तसुखी स्वपुत्रभार्यादिभिः सहितो जीवितवान्। दशमे युगे अतीते सति जुजुर्वान् जीर्णः वलीपलितगात्रो बभूव । एवंभूतः सन् “अर्थं पुरुषैरर्थ्यमानं कर्मफलं स्वर्गादिकं “यतीनां प्राप्नुवतीनाम् “अपाम् अप्कार्याणां प्रजानाम् । यद्वा । अपाम् अपसां कर्मणाम् अर्थं प्रयोजनं यतीनां तासां प्रजानाम् “ब्रह्मा ब्रह्मसदृशः परिवृढः भवति । किंच "सारथिः तद्वन्निर्वाहको भवति देवो भवतीत्यर्थः । एवमस्य वृत्तान्तं मन्त्रोऽनुवदति। स्वयं वा स्वात्मानं पारोक्ष्येण अश्विनोर्महानुभावत्वं प्रकटयितुं ब्रवीति ॥१॥ स इद्दासं तुवीरवं पतिर्दन्षळक्षं त्रिशीर्षाणं दमन्यत्। अस्य त्रितो न्वोजसा वृधानो विपा वराहमयोअग्रया हन्।६।(ऋगवेद-10/99/6)
पदपाठ-सः । इत् । दासम् । तुविऽरवम् । पतिः । दन् । षट्ऽअक्षम्। त्रिऽशीर्षाणम् । दमन्यत् । अस्य । त्रितः । नु । ओजसा । वृधानः । विपा । वराहम् । अयःऽअग्रया । हन्निति हन् ॥६॥
-(सः) वह (त्रितः) त्रित (यतिः) नियन्ता (तुवीरवम्) बहुत (दासम्) उपक्षयकारी कामभाव (षळक्षम्) पाँच नेत्रादि इन्द्रिय और एक मन व्यक्त करने के साधन जिसके हैं, उस ऐसे (त्रिशीर्षाणम्) तीन-लोभ राग मोह शिर के समान जिसके हैं, उस ऐसे को (इत्) ही (दन्-दमन्यत्) दमन करता हुआ द
“स “इत् स एवेन्द्रः “पतिः सर्वस्य स्वामी “दासम् उपक्षपयितारं “तुवीरवं बहुशब्दं संग्रामे भयंकरं शब्दं कुर्वाणं वृत्रं "दन् दमयन् “षळक्षम् अक्षिषट्कोपेतं “त्रिशीर्षाणं त्रिशिरस्कं त्वष्टुः पुत्रं विश्वरूपं “दमन्यत् दमितुं प्रहर्तुमैच्छत् । अवधीदित्यर्थः । यद्वा । दमयतीति दमनः । नन्द्यादित्वात् ल्युः । स इवाचरति । उपमानादाचारे ' (पा. सू. ३. १. १०) इति क्यच्यन्त्यलोपश्छन्दसः । ततो लङि • बहुलं छन्दसि ' इत्यडभावः । किंच “त्रितः एतन्नामा महर्षिः अस्य इन्द्रस्य “ओजसा बलेन “वृधानः वर्धमानः “विपा अङ्गुल्या । कीदृश्या “अयोअग्रया अयोवत्कठिननखया “वराहं वराहारम् उदकवन्तं मेघं व्यहन् विहतवान् ॥ १४ ।।
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न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधुः।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध॥५॥(ऋग्वेद में 10/99/5)
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः॥६॥
सायण- भाष्य-
(5)-१-नद्यः= नदनशीला: २-"मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः ३-“मा मां दीर्घतमसं ४-“गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् ५-“दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां ६-“सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥७- ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “८-अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः१०- “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् ११-“वितक्षत्- विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् १२-“उरः- वक्षःस्थलम्' “अंसौ च १३-“ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः ॥
(6)-१-“दीर्घतमाः एतन्नामा महर्षिः स च २-“मामतेयः ममतायाः पुत्रः ३-“दशमे “युगे दशयुगपर्यन्तं महानुभावयोरश्विनोः प्रभावात् पूर्वोक्ताद्दुःखाद्विमुक्तोऽत्यन्तसुखी स्वपुत्रभार्यादिभिः सहितो जीवितवान्। दशमे युगे अतीते सति ४-जुजुर्वान् जीर्णः वलीपलितगात्रो बभूव । एवंभूतः सन् “अर्थं पुरुषैरर्थ्यमानं कर्मफलं स्वर्गादिकं “यतीनां प्राप्नुवतीनाम् ५-“अपाम् अप्कार्याणां प्रजानाम् । यद्वा । अपाम् अपसां कर्मणाम् अर्थं प्रयोजनं यतीनां तासां प्रजानाम् । “ब्रह्मा ब्रह्मसदृशः परिवृढः “भवति । किंच "सारथिः तद्वन्निर्वाहको भवति देवो भवतीत्यर्थः । एवमस्य वृत्तान्तं मन्त्रोऽनुवदति। स्वयं वा स्वात्मानं पारोक्ष्येण अश्विनोर्महानुभावत्वं प्रकटयितुं ब्रवीति ॥
अर्थात् इस त्रित ने ओज के द्वारा लोह- समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।
विदित हो कि आयरिश पुराणों में "थ्रित" सूकर या वराह के रूप में है ।
ऋग्वेद में अन्यत्र वर्णित है कि-"आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये।ऋग्वेद-10/115/4
सायण ने त्रित का अर्थ " त्रितं -त्रिष्वाहवनीयादिषु स्थानेषु ततं विस्तृतं त्वाम्( तीन आहवाहनीय स्थानों उस विस्तृत को- परन्तु त्रित एक ऋषि का नाम जो ब्रह्मा के मानस- पुत्र माने जाते हैं ये तीन भाई थे— एकत, द्वित और त्रित । गौतम मुनि के तीन पुत्रों में से एक का नाम त्रित था जो अपने दोनों भइयों से अधिक तेजस्वी और विद्वान् थे । विशेष—एक बार ये अपने भाइयों के साथ पशुसंग्रह करने के लिये जंगल में गए थे । वहाँ दानों भाइयों ने इनके संग्रह किए हुए पशु छीनकर और इन्हें अकेला छोड़कर घर का रास्ता लिया । वहाँ एक भेड़िए को देखकर ये डर के मारे दौड़ते हुए एक गहरे अंधे कुएँ में जा गिरे वहीं इन्होंने सोमयाग आरंभ किया जिसमें देवता लोग भी आ पहुँचे उन्हीं देवताओं ने उस कुएँ से इन्हें निकाला महाभारत में लिखा है कि सरस्वती नदी इसी कुएँ से निकली थी ।
वैदिक सन्दर्भों में त्रित-आप्त्य पद कई ऋचाओं में सामुद्रिक घटनाओं से सम्बन्धित है। जैसे
उत्पेतुर्मनुजश्रेष्ठ तस्मादप्सरसोऽभवन्॥ ३३॥
षष्टिः कोट्योऽभवंस्तासामप्सराणां सुवर्चसाम्।
असंख्येयास्तु काकुत्स्थ यास्तासां परिचारिकाः॥ ३४॥
न ताः स्म प्रतिगृह्णन्ति सर्वे ते देवदानवाः।
अप्रतिग्रहणादेव ता वै साधारणाः स्मृताः॥ ३५॥
एवा दुष्वप्न्यं सर्वमाप्त्ये सं नयामस्यनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥१७॥ (ऋग्वेद ८/४७/१७)
मनुष्य (यथा) जैसे (कलाम्) अपनी अङ्गुली से मृत नख को (संनयामसि) दूर फेंक देते हो, (यथा+शफम्) जैसे पशुओं के मृत खुर को कटवा कर अलग कर देते हो अथवा (यथा) जैसे (ऋणम्) ऋण को दूर करते हो (एव) वैसे ही (आप्त्ये) आप्त्य के लिए (दुःस्वप्न्यम्) दुःस्वप्न को (सर्वम्) उस सबको (सन्नयामसि ) दूर फेंक देते हो ॥१७ ॥ऋग्वेद 8/47/17 में वर्णित है ;
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वाचस्पत्यम् कोश में १४६६ । ६७ पृ० पर एकत शब्दोक्ते आप्त्ये
१ देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे
२ ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः
त्रिषु विस्त्रीर्णतमे अर्थात् जो तीनों लोगों मे तना हुआ है । वही त्रैतन त्रित है ।
३ प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रितन ।
ऋग्वेद में अन्यत्र भी 👇
“यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्”
ऋ० १। १८७।१। सायण भाष्य:-ओजसा बलेन सामर्थ्येन {“त्रितः =विस्तीर्णतमः प्रख्यातकीर्तिः त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानोऽपि इन्द्रः} त्रित जब ऐतिहासिक पात्र तो यहाँ त्रित का अर्थ विस्तीर्णत्तम करना प्रसंगाकूल नहीं है।
ऋग्वेद के पञ्चम मण्डल के 41वें सूक्त की निम्न ऋचाऐं त्रित और आप्त्य शब्दों को पूषण देव से सम्बन्धित करती हैं
"प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः। पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥
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प्र वो रयिं युक्ताश्वं भरध्वं राय एषेऽवसे दधीत धीः।सुशेव एवैरौशिजस्य होता ये व एवा मरुतस्तुराणाम् ॥५॥
प्र वो वायुं रथयुजं कृणुध्वं प्र देवं विप्रं पनितारमर्कैः । इषुध्यव ऋतसापः पुरन्धीर्वस्वीर्नो अत्र पत्नीरा धिये धुः॥६॥
उप व एषे वन्द्येभिः शूषैः प्र यह्वी दिवश्चितयद्भिरर्कैः । उषासानक्ता विदुषीव विश्वमा हा वहतो मर्त्याय यज्ञम् ॥७॥
अभि वो अर्चे पोष्यावतो नॄन्वास्तोष्पतिं त्वष्टारं रराणः । धन्या सजोषा धिषणा नमोभिर्वनस्पतीँरोषधी राय एषे ॥८॥
तुजे नस्तने पर्वताः सन्तु स्वैतवो ये वसवो न वीराः। पनित आप्त्यो यजतः सदा नो वर्धान्नः शंसं नर्यो अभिष्टौ ॥९॥
वृष्णो अस्तोषि भूम्यस्य गर्भं त्रितो नपातमपां सुवृक्ति । गृणीते अग्निरेतरी न शूषैः शोचिष्केशो नि रिणाति वना ॥१०॥
"उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्योऽज एकपादुत । त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि ॥६।(ऋग्वेद:-२।०३१।६)
हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित ,इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।
त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।
अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित सञ्चालित करते हैं ।
ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14
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मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।
त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय
रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।
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दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं । हे इन्द्र! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है।
इस बात को आप्त्य ( जल )का पुत्र त्रित जानता है इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है । हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।
ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है।जैसे ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करणों में 👇
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“शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः”
ऋ०१।१५८ । ५ ।
“त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः”सायण- भाष्य
१-नद्यः नदनशीला:=सरितः २-"मातृतमाः= मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः ३-“मा= मां दीर्घतमसं ४-“गरन् = न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात्५- “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः ६-“ईम् =एनं दीर्घतमसं मां ७-“सुसमुब्धं= सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः =एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः ॥
- (दास:) दास जन (सुसमुब्धम्) अति सूधे स्वभाववाले (यत्) जिस मुझे (ईम्) सब ओर से (अबाधुः) पीड़ित करें उस (मा) मुझे (मातृतमाः) माताओं के समान मान करने-करानेवाली (नद्यः) नदियाँ (न) न (गरन्) निगलें न गलावें, (यत्) जो (त्रैतनः) तीन अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सुखों का विस्तार करनेवाला (दासः) सेवक (अस्य) इस मेरे (शिरः) शिर को (वितक्षत्) विविध प्रकार की पीड़ा देवे वह (स्वयम्) आप अपने (उरः) वक्षःस्थल और (अंसौ) स्कन्धों को (अपि, ग्ध) काटे ॥ ५ ॥
अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: ।
इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित:।5। (ऋग्वेद 1/52/5)
उपर्युक्त ऋचा पर सायण का भाष्य - देखें
ऊतयः मरुतः "मदे= सोमपानेन हर्षे सति “अस्य= इन्द्रस्य “युध्यतः वृत्रेण सह युध्यमानस्य पुरतः “स्ववृष्टिं स्वभूतवृष्टिमन्तं वृत्रम् “अभि आभिमुख्येन 'सस्रुः जग्मुः । "रघ्वीरिव “प्रवणे । यथा गमनस्वभावा आप निम्नदेशे गच्छन्ति । “यत् यदा “अन्धसा सोमलक्षणेनान्नेन पीतेन “धृषमाणः प्रगल्भः सन् "वज्री वज्रवान् “इन्द्रः “वलस्य = संवृण्वतः एतत्संज्ञकमसुरं “भिनत्=. व्यदारयत् अवधीदित्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । “त्रितः= “परिधीनिव। देवानां हविर्लेपनिघर्षणाय
(अग्नेः सकाशात् अप्सु एकतो द्वितस्त्रित इति त्रयः पुरुषा जज्ञिरे )
ऋग्वेदः - मण्डल १- | सूक्तं १०५→ |
सायणभाष्यम् :-
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त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये.
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहुरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी.. (१७) ।
अनुवाद:- कुएं में गिरा हुआ त्रित ऋषि अपनी रक्षा के लिए देवों को बुलाता है. बृहस्पति ने उसे पाप रूप कुएं से निकालकर उसकी पुकार सुनी. हे धरती और आकाश! हमारी बात जानो (१७)
अरुणो मा सकृद्वृक: पथा यन्तं ददर्श हि.
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी. (१८)
अनुवाद:-
लाल रंग के वृक ने मुझे एक बार मार्ग में जाते हुए देखा. वह मुझे देखकर इस प्रकार ऊपर उछला, जिस प्रकार पीठ की वेदना वाला काम करते-करते सहसा उठ पड़ता है. हे धरती और आकाश! मेरे इस कष्ट को जानो.(१८)
एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः.
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः(१९)
अनुवाद:-
घोषणा योग्य इस स्तोत्र के कारण इंद्र का अनुग्रह पाए हुए हम लोग पुत्र, पौत्रों आदि के साथ संग्राम में शत्रुओं को हरावें. मित्र, वरुण, अदिति, सिंधु, पृथ्वी एवं आकाश हमारी इस प्रार्थना का आदर करें. (१९)
त्रितः कूपेऽवहितो देवान्हवत ऊतये ।
तच्छुश्राव बृहस्पतिः कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१७॥
सायण-भाष्य:-“कूपेऽवहितः पातितः “त्रितः एतत्संज्ञः ऋषिः “ऊतये =रक्षणाय “देवान् “हवते= स्तुतिभिराकारयति । यदेतत् त्रितस्याह्वानं बृहस्पतिः =बृहतां महतां देवानां रक्षकः एतत्संज्ञो देवः एतत् आह्वानं “शुश्राव =श्रुतवान् । किं कुर्वन् । “अंहूरणात् =अंहसः पापरूपादस्मात् कूपपातादुन्नीय “उरु= विस्तीर्णं शोभनं कृण्वन्= कुर्वन् ॥ हवते । ह्वयतेर्लटि ‘ बहुलं छन्दसि' इति संप्रसारणम् । शब्गुणावादेशाः । ऊतये ।' ऊतियूति इत्यादिना क्तिन उदात्तत्वम् । बृहस्पतिः । ‘ तदबृहतोः करपत्योः ' ( पा. सू. ६. १. १५७.ग. ) इति पारस्करादिषु पाठात् सुट्तलोपौ ।' उभे वनस्पत्यादिषु" ' इति पूर्वोत्तरपदयोः युगपत्प्रकृतिस्वरत्वम् । अंहूरणात् । “अहि गतौ । इदित्वात् नुम् । ‘ स्वर्जिपिञ्ज्यादिभ्य ऊरोलची ' (उ. सू. ४. ५३० ) इति भावे ऊरप्रत्ययः । दुःखप्राप्तिहेतुभावा गतिरस्यास्तीति पामादिलक्षणो मत्वर्थीयो नः (पा. सू. ५. २. १०० )। आङ्पूर्वात् हन्तेर्वा रूपमुन्नेयम् ॥
अरुणो मा सकृद्वृकः पथा यन्तं ददर्श हि ।
उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी ॥१८
सायण भाष्य:-अरुणवर्णः =लोहितवर्णः ."वृकः= अरण्यश्वा "सकृत्= एकवारं “पथा= “यन्तं मार्गेण गच्छन्तं मां “ददर्श =“हि दृष्टवान् । हिः पादपूरणः। “निचाय्य दृष्ट्वा च मां जिघृक्षुः सन् उज्जिहीते उद्गच्छति स्म। तत्र दृष्टान्तः । “तष्टेव “पृष्ट्यामयी। यथा तक्षणजनितपृष्ठक्लेशः तष्टा वर्धकिः तदपनोदनाय ऊर्ध्वाभिमुखो भवति तद्वत् । हे द्यावापृथिव्यौ मदीयमिदं दुःखं “वित्तं जानीतम् । यद्वा । वृक इति विवृतज्योतिष्कः चन्द्रमाः उच्यते । अरुणः आरोचमानः कृत्स्नस्य जगतः प्रकाशकः मासकृत् मासार्धमासर्त्वयनसंवत्सरादीन् कालविशेषान् कुर्वन् । तिथिविभागज्ञानस्य चन्द्रगत्यधीनत्वात् । स चन्द्रमाः आकाशमार्गे यन्तं गच्छन्तं नक्षत्रगणं ददर्श । हिरवधारणे। नक्षत्रगणमेव ददर्श न कूपपतितं मामित्यनादरो द्योत्यते । यदि मां पश्येत् उद्धरेत् कूपात् । निचाय्य नक्षत्रगणं दृष्ट्वा चोज्जिहीते । येन नक्षत्रेण संयुज्यते तेन सहोद्गच्छति । न मामभिगच्छतीत्यर्थः । अन्यत् पूर्ववत् । अत्र मासकृत् इति यास्कः एकं पदं मन्यते शाकल्यस्तु पदद्वयम् । तस्मिन्पक्षेऽयमर्थः । दक्षप्रजापतेर्दुहितृभूताः स्वभार्याः अश्विन्याद्यास्तारकाः पुनःपुनर्ददर्श। मां सकृदेव पश्यतीति सकृद्दृष्ट्वा चोज्जिहीते। ताराभिः सहोर्ध्वमेव गच्छति । न मां कूपादुत्तारयति । अत इदमनुचितम् । हे द्यावापृथिव्यौ मदीयमिमं वृत्तान्तं जानीतम् ॥ अत्र निरुक्तं-' वृकश्चन्द्रमा भवति विवृतज्योतिष्को वा विकृतज्योतिष्को वा विक्रान्तज्योतिष्को वा । अरुण आरोचन: मासकृन्मासानां चार्धमासानां च कर्ता भवति चन्द्रमा वृकः पथा यन्तं ददर्श नक्षत्रगणमभिजिहीते निचाय्य येन येन योक्ष्यमाणो भवति चन्द्रमास्तक्ष्णुवन्निव पृष्ठरोगी' (निरु. ५.२०-२१) इति । सकृत् । एकस्य सकृञ्च' ( पा. सू. ५. ४.१९) इति क्रियाभ्यावृत्तिगणने निपातितः । वृकः । वृञ् वरणे'। सृवृभूशुचिमुषिभ्यः कित् ' ( उ. सू. ३. ३२१ ) इति कप्रत्ययः । जिहीते । “ओहाङ गतौ ' । जौहोत्यादिकः । ‘भृञामित्' इति अभ्यासस्य इत्वम् । निचाय्य । 'चायृ पूजानिशामनयोः । अत्र दर्शनार्थो धातूनामनेकार्थत्वात् । समासेऽनम्पूर्वे क्त्वो ल्यप्'। पृष्टयामयी। ‘स्पृश संस्पर्शने। 'स्पृश्यतेऽनेनेति स्पृष्टिः । छान्दसो वर्णलोपः । पृष्टावामयः पृष्ट्यामयः । तद्वान् पृष्ट्यामयी।। चन्द्रमाः' इति एकोनविंशत्यृचं द्वादशं सूक्तम् । अपां पुत्रस्य त्रितस्य कूपे पतितस्य कुत्सस्य वा आर्षम् । तथा चोभयोः कूपपातः आम्नायते--’ त्रितः कूपेऽवहितः ' (ऋ. सं. १. १०५. १७ ) ‘ काटे निबाळ्ह ऋषिरह्वदूतये (ऋ. सं. १. १०६. ६) इति च । त्रितस्य च अपां पुत्रत्वं तैत्तिरीयाः स्पष्टमामनन्ति- ' तत एकतोऽजायत स द्वितीयमभ्यपातयत् ततो द्वितोऽजायत स तृतीयमभ्यपातयत ततस्त्रितोऽजायत यददभ्योऽजायन्त तदाप्यानामाप्यत्वम् ' ( तैतिरीय ब्राह्मण. ३. २. ८. १०-११ ) इति । तमेतमाप्यं • त्रितस्तद्वेदाप्त्यः ' ( ऋ. सं. १. १०५. ९) इति तकारोपजनेन वयमधीमही इति । अन्त्या त्रिष्टुप् । ' सं मा तपन्ति' इत्येषा यवमध्या महाबृहती । आद्यौ द्वावष्टाक्षरौ पादौ द्वादशाक्षरस्तृतीयस्ततो द्वावष्टाक्षरौ सा यवमध्या महाबृहती । चत्वारोऽष्टका जागतश्च महाबृहती ' (अनु. ९. ९) इत्युक्त्वा' ' मध्ये चेद्यवमध्या' (अनु. ९. १०) इत्युक्तलक्षणोपेतत्वात् । शिष्टाः पङ्क्तयः । विश्वे देवाः देवता । तथा चानुक्रान्तं- चन्द्रमा एकोनाप्त्यस्त्रितो वा वैश्वदेवं हि पाङ्क्तमन्त्या त्रिष्टुप् अष्टमी महाबृहती यवमध्या' इति । 'हि' इत्यभिधानादिदमादीनि त्रीणि सूक्तानि वैश्वदेवानि । विनियोगः । अत्र शाट्यायनिन इतिहासमाचक्षते-एकतो द्वितस्त्रित इति पुरा त्रय ऋषयो बभूवुः । ते कदाचिन्मरुभूमावरण्ये वर्तमानाः पिपासया संतप्तगात्राः सन्त एकं कूपमविन्दन् । तत्र त्रिताख्यः एको जलपानाय कूपं प्राविशत् । स्वयं पीत्वा इतरयोश्च कूपादुदकमुद्धत्य प्रादात् । तौ तदुदकं पीत्वा त्रितं कूपे पातयित्वा तदीयं धनं सर्वमपहृत्य कूपं च रथचक्रेण पिधाय प्रास्थिषाताम् । ततः कूपे पतितः स त्रितः कूपादुत्तरीतुमशक्नुवन् सर्वे देवा मामुद्धरन्त्विति मनसा सस्मार । ततस्तेषां स्तावकमिदं सूक्तं ददर्श । तत्र रात्रौ कूपस्यान्तश्चन्द्रमसो रश्मीन् पश्यन् परिदेवयते ॥
एनाङ्गूषेण वयमिन्द्रवन्तोऽभि ष्याम वृजने सर्ववीराः।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥१९॥
सायण भाष्य:-
एना अनेन “आङ्गूषेण आघोषणयोग्येन स्तोत्रेण हेतुभूतेन “इन्द्रवन्तः अनुग्राहकेणेन्द्रेण युक्ताः “सर्ववीराः सर्वैर्वीरैः पुत्रैः पौत्रादिभिश्चोपेताः सन्तः “वयं वृजने संग्रामे “अभि “ष्याम शत्रूनभिभवेम । “तत् इदमस्मदीयं वचनं मित्रादयः “ममहन्तां पूजयन्तु पालयन्त्वित्यर्थः । उतशब्दो देवतासमुच्चये। अत्र यास्कः-’ आङ्गूषः स्तोम आघोषः । अनेन स्तोमेन वयमिन्द्रवन्तः' (निरु. ५.११) इति । एना । ' द्वितीयाटौःस्वेनः '(पा. सू. २. ४. ३४) इति तृतीयायाम् इदम एनादेशः ।' सुपां सुलुक् ' इति विभक्तेः आजादेशः । चित्स्वरेणान्तोदात्तत्वम्। आङ्गूषेण । आङ्पूर्वात् घुषेः कर्मणि घञ् । आङो ङकारलोपाभावश्छान्दसः । घोषशब्दस्य गूषभावश्च पृषोदरादित्वात् । थाथादिना उत्तरपदान्तोदात्तत्वम् । स्याम । अस्तेः प्रार्थनायां लिङि' असोरल्लोपः' इति अकारलोपः । ' उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः' (पा. सू. ८. ३. ८७ ) इति षत्वम्
तथा च तैत्तिरीयैः समाम्नातं- ‘ सोऽङ्गारेणापः । अभ्यपातयत् । तत एकतोऽजायत । स द्वितीयमभ्यपातयत् । ततो द्वितोऽजायत । स तृतीयमभ्यपातयत् । ततस्त्रितोऽजायत' (तैतिरीय. ब्राह्मण. ३. २. ८. १०-११) इति । तत्रोदकपानार्थं प्रवृत्तस्य कूपे पतितस्य प्रतिरोधाय असुरैः परिधयः परिधायकाः कूपस्याच्छादकाः स्थापिताः । तान्यथा स अभिनत् तद्वत् ॥ स्ववृष्टिम् । बहुव्रीहौ पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । युध्यतः । ' युध संप्रहारे । दैवादिकः । व्यत्ययेन शतृ । अदुपदेशात् लसार्वधातुकानुदात्तत्वे श्यनो नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । रघ्वीः । रघि गत्यर्थः । ‘ रङ्घिबंह्योर्नलोपश्च' ( उ. सू. १. २९) इति उप्रत्ययः । ‘वोतो गुणवचनात्' इति ङीष् । जसि ‘वा छन्दसि ' इति पूर्वसवर्णदीर्घत्वम् । ङीष्स्वरः शिष्यते । धृषमाणः ।' ञिधृषा प्रागल्भ्ये ' । श्नुप्रत्यये प्राप्ते व्यत्ययेन शः आत्मनेपदं च । अदुपदेशात् लसार्वधातुकानुदात्तत्वे विकरणस्वरः शिष्यते । भिनत् । लङि ‘ बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि ' इति अडभावः । विकरणस्वरः । यद्वृत्तयोगादनिघातः । वलस्य । वल संवरणे'। वलति संवृणोति सर्वमिति वलः । पचाद्यच् ।' क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वात् चतुर्थ्यर्थे षष्ठी । परिधीन् । परिधीयन्ते इति परिधयः ।' उपसर्गे घोः किः '(पा, सू. ३. ३.९२ ) इति दधातेः कर्मणि किप्रत्ययः । ‘ आतो लोप इटि च' इति आकारलोपः । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ १२ ॥
यत्) जो (स्ववृष्टिम्) अपनी वृष्टि को (धृषमाणः) प्रगल्भता करते हुए (वज्री) वज्रधारी (इन्द्रः) (मदे) हर्ष में (अस्य) इस (युध्यतः) युद्ध करते हुए का (बलस्य) बल का (त्रितः) त्रित ने (परिधींरिव) गोल रेखा के समान (अभि भिनत्) भेदन करता है, (अन्धसा) अन्नादि वा जल से (रघ्वीरिव) जैसे जल से पूर्ण नदियाँ के समान(प्रवणे) नीचे स्थान में जाती हैं, वैसे (ऊतयः) रक्षा आदि (सस्रुः) गमन करती हैं।५।
जिस प्रकार गमनशील जल नीचे जाता है। उसी प्रकार इन्द्रदेव के साहयक मरुद्गण सोमपान द्वारा हृष्ट होकर युद्ध में लगे हुए इन्द्र के सामने वर्षा सम्पन्न वृत्र के समीप गये जिस प्रकार त्रित ने परिधि समुदाय का भेदन किया उसी प्रकार इन्द्र ने अन्न से पोषित होकर बल नामक असुर का भेदन किया।।
ऋग्वेद मण्डल 1सूक्त 54का 5 वाँ सूक्त
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अथर्ववेद के कतिपय स्थलों पर त्रित को त्रैतन तुल्य दर्शाया है । 👇
अथर्ववेदः काण्डं ६/सूक्तम् ११३। देव. पूषा। त्रिष्टुप्, ३ पङ्क्तिः।
त्रितेदेवा-अमृजतैतदेनस्त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे।ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु॥१॥
मरीचीर्धूमान् प्र विशानु पाप्मन्न् उदारान् गच्छोत वा नीहारान्। नदीनं फेनामनु तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृक्ष्व ॥२॥
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥३॥
सायणभाष्यम्
'मा ज्येष्ठम्' (अ ६,११२) 'त्रिते देवाः' (अ ६,११३) इति तृचाभ्यां परिवित्तिपरिवेत्तृप्रायश्चित्तार्थम् उदकघटं संपात्य अभिमन्त्र्य तयोः पर्वाणि मौञ्जपाशैर्बद्ध्वा आप्लावनम् अवसेकं वा कुर्यात् । अत्र 'नदीनां फेनान्' (अ ६,११३,२) इत्यर्धर्चेन उत्तरपाशान् नदीफेने निदध्यात् । सूत्रितं हि - “'मा ज्येष्ठम्', 'त्रिते देवाः' इति परिवित्तिपरिविविदानावुदकान्ते' मौञ्जैः पर्वसु बद्ध्वा पिञ्जूलीभिराप्लावयति । अवसिञ्चति । फेनेषूत्तरान् पाशान् आधाय 'नदीनां फेनान्' इति प्रप्लावयति । सर्वैश्च प्रविश्य" (कौसू ४६,२६-२९) इति ।
(१)अत्र इयमाख्यायिका । पुरा खलु देवाः पुरोडाशादिकं हविः संभृत्य तल्लेपजनितपापमार्जनाय एकतो द्वितस्त्रित इति त्रीन् पुरुषान् आप्याख्यान् अग्न्युदकसंपर्कवशाज्जनयामासुः। तेषु च तत् पापं निमृष्टवन्तः। ते च आप्याः सूर्याभ्युदितादिषु परंपरया पापं निमृष्टवन्त इति । तद् एतत् सर्वं तैत्तिरीये समाम्नायते - 'देवा वै हविर्भृत्वाऽब्रुवन्' (तैब्रा ३,२,८,९) इति प्रक्रम्य 'ते देवा आप्येष्वमृजत । आप्या अमृजत सूर्याभ्युदिते । सूर्याभ्युदितः सूर्याभिनिम्रुक्ते । सूर्याभिनिम्रुक्तः कुनखिनि । कुनखी श्यावदति । श्यावदन्नग्रदिधिषौ । अग्रदिधिषुः परिवित्ते । परिवित्तो वीरहणि। वीरहा ब्रह्महणि तद् ब्रह्महणं नात्यच्यवत' (तैतिरीय ब्रा० ३,२,८,११,१२) इति । तदिदमुच्यते - एतत् परिवित्तसमवेतम् एनः पापं पूर्वं देवास्त्रिते एतत्संज्ञे आप्त्ये अमृजत निमृष्टवन्तः । स च त्रितः एतत् स्वात्मनि समवेतं पापं मनुष्येषु सूर्याभ्युदितादिषु ममृजे मृष्टवान् निमार्जनेन स्थापितवान् । ततः तस्माद्धेतोः हे परिवित्त त्वा त्वां ग्राहिः ग्रहणशीला पापदेवता यदि । निपातानामनेकार्थत्वाद् अत्र यदिशब्दो यच्छब्दार्थे । या ग्राहिरानशे प्राप ते त्वदीयां तां ग्राहिं प्रागुक्ता देवाः ब्रह्मणा मन्त्रेण नाशयन्तु।
(२)हे पाप्मन् परिवेदनजनितपाप मरीची: अग्निसूर्यादिप्रभाविशेषान् अनु प्र विश। परिवित्तं विसृज्य प्रगच्छेत्यर्थः । अथवा धूमान् अग्नेरुत्पन्नान् अनु प्र विश । यद्वा उदारान् ऊर्ध्वं गतान् मेघात्मना परिणतांस्तान् गच्छ प्रविश । उत वा अपि वा तज्जन्यान् नीहारान् अवश्यायान् गच्छ । निपूर्वात् हरतेः कर्मणि घञ् । 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' (पा ६,३,१२२ ) इति दीर्घः । तथा च तैत्तिरीये सृष्टिं प्रक्रम्य आम्नायते - 'तस्मात् तेपानाद् धूमोऽजायत । तद् भूयोऽतप्यत । xxx तस्मात् तेपानान्मरीचयोऽजायन्त । xxx तस्मात् तेपानाद् उदारा अजायन्त । तद् भूयोऽतप्यत । तद् अभ्रम् इव समहन्यत' (तैब्रा २,२,९,१;२) इति । हे पाप्मन् नदीनाम् सरितां तान् प्रसिद्धान् फेनान् फेनिलान् प्रवाहान् अनु वि विक्ष्व अनुप्रविश्य विविधं गच्छ । 'नेर्विशः' (पा १,३,१७ ) इति आत्मनेपदम् । व्यत्ययेन शपो लुक् । अन्यद् व्याख्यातम् ।
३-त्रितस्य आप्त्यस्य संबन्धि प्रागुक्तरीत्या अपमृष्टं तद् एनः द्वादशधा निहितम् द्वादशसु स्थानेषु स्थापितम् । प्रथमं देवेषु पश्चात् त्रिषु आप्येषु ततः सूर्याभ्युदितादिषु अष्टसु एवं द्वादशसु स्थानेषु निक्षिप्तम् । तद् एनः मनुष्यैनसानि भवन्ति मनुष्यसमवेतानि इदानींतनानि पापानि संपद्यन्ते । उत्तरोऽर्धर्चो व्याख्यातः ।
इति पञ्चमं सूक्तम् ।
इति सायणार्यविरचिते अथर्वसंहिताभाष्ये षष्ठकाण्डे एकादशोऽनुवाकः_
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अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया ।
त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।
हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा।
हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।
हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।
त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।
वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है।
हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें ! इस प्रकार उपर्युक्त ऋचा में "त्रित" में "त्रैतन" का भाव समाहित हो गया-
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एक बात विचार-विमर्श का विषय है कि अवेस्ता और वैदिक सन्दर्भों में प्राप्त साक्ष्यों से विदित होता है कि ईरानी संस्कृति और भारतीयों की संस्कृति में परस्पर भेद था तो भी भाषायी साम्य होते हुए भी अर्थ भेद भी स्पष्ट है।
क्यों जहाँ वेदों में देवों की महिमा वर्णित है ।
और विशेषत: देवों के अधिपति इन्द्र की वहीं इरानी में देव शब्द का अर्थ दुष्ट किया गया है ।
यद्यपि लिथुआनियन , ग्रीक, तथा नॉर्स संस्कृतियों में इन्द्र क्रमशः इन-द-र ,एण्डरो, (Andro) है ।
जिसका अर्थ है । शक्ति से युक्त मानव एनर परन्तु अ"वेस्ता ए जन्द़" में "इन्दर" को एक दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिरूप बताया है ।👇
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अवेस्ता ए जन्द़ में इन्दर (इन्द्र) को वेन्दीदाद( Vendidâd; ) फर्गद- 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिनिधि बताया गया है ।
After thou hast thrice said those Thris-amrutas, thou shalt say aloud these victorious, most healing words:-
'"I drive away Indra, I drive away Sauru, I drive away the daeva Naunghaithya,7 from this house, from this borough, from this town, from this land; from the very body of the man defiled by the dead, from the very body of the woman defiled by the dead; from the master of the house, from the lord of the borough, from the lord of the town, from the lord of the land; from the whole of the world of Righteousness.
7. Indra, Sauru, Naunghaithya, Tauru, and Zairi are (with Akemmano [Akoman], here replaced by the Nasu), the six chief demons, and stand to the Amesha Spentas in the same relation as Angra Mainyu to Spenta Mainyu. Indra opposes Asha Vahishta and turns men's hearts from good works; Sauru opposes Khshathra Vairya, he presides over bad government; Naunghaithya opposes Spenta Armaiti, he is the demon of discontent; Tauru and Zairi oppose Haurvatat and Ameretat and poison the waters and the plants. -- Akem-mano, Bad Thought, opposes Vohu-mano, Good Thought.
तीन बार उन त्रि-अमृतों को कहने के बाद, आप इन विजयी, सबसे उपचारात्मक शब्दों को जोर से कहेंगे: -
.'"मैं इंद्र को दूर भगाता हूं, मैं सौरू को भगाता हूं, मैं इस घर से, इस नगर से, इस नगर से, इस भूमि से देव नौनघैथ्य को भगाता हूं, इस भूमि से, मरे हुए व्यक्ति के शरीर से, मृत व्यक्ति से उस स्त्री की देह भी मरे हुओं से अशुद्ध हो गई है, घर के स्वामी की ओर से, उसके स्वामी की ओर सेनगर, नगर के स्वामी की ओर से, भूमि के स्वामी की ओर से; धार्मिकता की पूरी दुनिया से।
.7. इंद्र, सौरु, नौंघैथ्य, टौरू, और ज़ैरी (अकेमानो [अकोमन] के साथ, यहाँ नासु द्वारा प्रतिस्थापित), छह प्रमुख देव (राक्षस) हैं, और अमेशा स्पेंटास के साथ उसी संबंध में खड़े हैं जैसे अंग्रा मेन्यू से स्पेंटा मेन्यू। इंद्र आशा वहिष्ठ का विरोध करते हैं और पुरुषों के दिलों को अच्छे कामों से दूर कर देते हैं; सौरु क्षत्र वैर्य का विरोध करता है, वह बुरी सरकार की अध्यक्षता करता है; नौंघैथ्य ने स्पेंटा अरमैती का विरोध किया, वह असंतोष का दानव है; टौरू और ज़ैरी हौरवाट और अमेरेटैट का विरोध करते हैं और पानी और पौधों को जहरीला बना देते हैं। -- अकेम-मनो,बुरा विचार, वोहू-मनो का विरोध करता है, अच्छा विचार।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , और दएव (देव) शब्द नकारात्मक अर्थो में हैं ।
यस्न संख्या-27,1,57,18, यस्त 9,4
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उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव, सुर आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं।
इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र ईरानी संस्कृति में पूज्य अर्थों में हैं ।
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अर्थ और इतिहास
पुरानी ईरानी का आधुनिक फारसी रूप * थ्रैटौना जिसका अर्थ है "तीसरा" । 10वीं शताब्दी के फ़ारसी महाकाव्य शाहनामा में यह एक गुणी राजा का नाम है जिसने 500 वर्षों तक शासन किया। 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀 (थ्रैटोना) नाम का अवेस्तान रूप अवेस्ता के पहले के ग्रंथों में प्रकट होता है ।
(thraetaona )थ्रेतॉन ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक
त्रित -आपत्या के साथ है ।
अवेस्ता में यम को यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।
अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है ।
जिसे वैदिक सन्दर्भों में अहि-दास कहा गया है ।
भारतीय वैदिक सन्दर्भों में --- एकत: द्वित: और त्रित: के विषय में अनेक रूपक विद्यमान हैं ।👇
कुए में गिरे हुए त्रित ने देवों का आह्वान किया उसे देवों के पिता अथवा गुरु बृहस्पति ने सुना और त्रित को बाहर निकाला ।
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त्रित: कूपे८वहितो देवान् हवत ऊतये ।
तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु
वित्तं मे अस्य रोदसी ।
(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)
कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ देवाह्वान किया ;
तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुऐं से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थना करता है
अब यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित पुन: जोड़ता है ; सम्भवतया त्रित ही त्रैतन के नाम से चिकित्सक के रूप में प्रतिष्ठित है ।
यहाँ त्रित को रहस्य मयी नियमों वाला बताया गया है ।
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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन
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यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा
इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।
गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया
हे अश्व तू यम रूप है।
सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है
यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।
मण्डल 1अध्याय 22सूक्त
163 ऋचा संख्या 2-3
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त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )
शब्द वस्तुत त्रित मूलक है ।
अवेस्ता ए जेन्द़ में
त्रिथ चिकित्सक का वाचक है ।
तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।
फरीदून नाम फ़ारसी ग्रन्थ शाहनाम में त्रैतन शब्द का तद्भव रूप है ।
Iranian mythical king and hero from the Pishdadian dynasty For other people named Freydun, see Freydun (given name).For other uses, see Fereydun (disambiguation).
Fereydun (Avestan: 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀, romanized: Θraētaona, Middle Persian: 𐭯𐭫𐭩𐭲𐭥𐭭, Frēdōn; New Persian: فریدون, Fereydūn/Farīdūn) is an Iranian mythical king and hero from the Pishdadian dynasty. He is known as an emblem of victory, justice, and generosity in Persian literature.
Quick Facts Pishdadian Shah Ferydun A hero of Iranian myths and legends, Born ...
According to Abolala Soudavar, Fereydun is partially a reflection of Cyrus the Great (r. 550 – 530 BC), the first Achaemenid King of Kings.
Etymology
All of the forms of the name shown above derive, by regular sound laws, from Proto-Iranian *Θraitauna- (Avestan Θraētaona-) and Proto-Indo-Iranian *Traitaunas
Traitaunas is a derivative (with augmentative suffix -una/-auna) of Tritas, the name of a deity or hero reflected in the Vedic Trita and the Avestan Θrita. Both names are identical to the adjective meaning "the third", a term used of a minor deity associated with two other deities to form a triad. In the Indian Vedas, Trita is associated with thunder gods and wind gods. Trita is also called Āptya, a name that is probably cognate with Āθβiya, the name of Thraetaona's father in the Avestā, Zoroastrian texts collated in the third century. Traitaunas may therefore be interpreted as "the great son of Tritas". The name was borrowed from Parthian into Classical Armenian as Hrudēn.In Zoroastrian literature
In the Avestā, Thraetaona is the son of Aθβiya, and so is called Āθβiyāni, meaning "from the family of Aθβiya". He was recorded as the killer of the dragon Zahhak (Aži Dahāk).
On the contrary, in Middle Persian texts, Dahāka/Dahāg was instead imprisoned on Mount Damavand in Amol.
In the Shahnameh
According to Ferdowsi's Shahnameh, Fereydun was the son of Ābtin, one of the descendants of Jamšid. Fereydun, together with Kāve, revolted against the tyrannical king, Zahāk, defeated and arrested him in the Alborz Mountains. Afterwards, Fereydun became the king, married Arnavāz and, according to the myth, ruled the country for about 500 years. At the end of his life, he allocated his kingdom to his three sons, Salm, Tur, and Iraj.
Iraj was Fereydun's youngest and favored son, and inherited the best part of the kingdom, namely Iran. Salm inherited Anatolia ("Rûm", more generally meaning the Roman Empire, the Greco-Roman world, or just "the West"), and Tur inherited Central Asia ("Turān", all the lands north and east of the Amu Darya, as far as China), respectively. This aroused Iraj's brothers' envy, and encouraged them to murder him. After the murder of Iraj, Fereydun enthroned Iraj's grandson, Manučehr. Manučehr's attempt to avenge his grandfather's murder initiated the Iranian-Turanian wars.
Iranian literature Persian mythology Triton (mythology)References
[1]Tafazzoli 1999, pp. 531–533.
[2]Soudavar 2012, p. 53.
Sources
ईरानी पौराणिक राजा और पिशदादियन वंश के नायक Freydun (दिया गया नाम) देखें।अन्य उपयोगों के लिए, फेरेडुन (बहुविकल्पी) देखें।
फेरेयडुन (अवेस्टान: 𐬚𐬭𐬀𐬉𐬙𐬀𐬊𐬥𐬀, रोमानीकृत: Θraētaona, मध्य फारसी: 𐭯𐭫𐭩𐭲𐭥𐭭, फ्रेडॉन; नई फारसी: فریدون, Fereydun/Faridun) एक ईरानी वंश का नायक है। फ़ारसी साहित्य में उन्हें विजय, न्याय और उदारता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।
त्वरित तथ्य पिशदादियन शाह फेरीदुन ईरानी मिथकों और किंवदंतियों के नायक, जन्मे ...
अबोलाला सौदावर के अनुसार, फेरेडुन आंशिक रूप से साइरस द ग्रेट -सन् 550 - 530 ईसा पूर्व) का प्रतिबिंब है, जो राजाओं का पहला एकेमेनिड राजा है।
शब्द व्युत्पत्ति-
ऊपर दिखाए गए नाम के सभी रूप प्रोटो-ईरानी * Θraitauna- (Avestan Θraētaona-) और प्रोटो-इंडो-ईरानी * Traitaunas से, नियमित ध्वनि कानूनों द्वारा प्राप्त होते हैं।
ट्रेटाउनास, त्रितास का एक व्युत्पन्न (संवर्धित प्रत्यय -उना/-औना के साथ) है, एक देवता या नायक का नाम जो वैदिक त्रिता और अवेस्टन Θरिटा में परिलक्षित होता है।
दोनों नाम "तीसरे" अर्थ वाले विशेषण के समान हैं, एक त्रय बनाने के लिए दो अन्य देवताओं से जुड़े एक छोटे देवता के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द। भारतीय वेदों में, त्रिता वज्र देवताओं और पवन देवताओं से जुड़ी है। ट्रिटा को आप्त्य भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम जो शायद अवेस्ता में थ्रेटोना के पिता के नाम, अवेस्ता में थ्रेटोना के पिता के नाम के साथ संगत है, तीसरी शताब्दी में पारसी ग्रंथों का मिलान किया गया। इसलिए त्रातुणों की व्याख्या "त्रितों के महान पुत्र" के रूप में की जा सकती है। नाम पार्थियन से शास्त्रीय अर्मेनियाई में ह्रुडेन के रूप में उधार लिया गया था।
पारसी साहित्य में अवेस्ता में, थ्रेटोना आसिया का पुत्र है, और इसलिए इसे आसियानी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "अथिया के परिवार से"। उसे ड्रैगन ज़हाक (अज़ी दहाक) के हत्यारे के रूप में दर्ज किया गया था।
इसके विपरीत, मध्य फ़ारसी ग्रंथों में, दहाका / दहाग को इसके बजाय अमोल में दमावंद पर्वत पर कैद किया गया था।
शाहनामे में -फ़िरदौसी के शाहनामा के अनुसार, फ़ेरेदुन अब्टिन का बेटा था, जो जमशेद के वंशजों में से एक था। फेरेयडुन, कावे के साथ, अत्याचारी राजा ज़हाक के खिलाफ विद्रोह किया, उसे अल्बोर्ज़ पर्वत में हराया और गिरफ्तार किया। बाद में, फेरेदुन राजा बने, अर्नवाज़ से शादी की और मिथक के अनुसार, लगभग 500 वर्षों तक देश पर शासन किया। अपने जीवन के अंत में, उसने अपना राज्य अपने तीन पुत्रों, सालम, तूर और इराज को आवंटित कर दिया।
इराज फेरेडुन का सबसे छोटा और इष्ट पुत्र था, और उसे राज्य का सबसे अच्छा हिस्सा, अर्थात् ईरान विरासत में मिला। सालम विरासत में मिला अनातोलिया ("रम", जिसका आमतौर पर अर्थ रोमन साम्राज्य, ग्रीको-रोमन दुनिया, या सिर्फ "पश्चिम") है, और तूर विरासत में मिला मध्य एशिया ("तुरान", अमु दरिया के उत्तर और पूर्व की सभी भूमि, जहाँ तक चीन), क्रमशः। इसने इराज के भाइयों की ईर्ष्या को जगाया और उन्हें उसकी हत्या करने के लिए प्रोत्साहित किया। इराज की हत्या के बाद, फेरेयडुन ने इराज के पोते, मनुचेहर को गद्दी पर बिठाया। अपने दादा की हत्या का बदला लेने के लिए मनुचेहर के प्रयास ने ईरानी-तुरानी युद्धों की शुरुआत की।
संदर्भ
[1]तफ़ाज़ोली 1999, पीपी। 531–533।
[2]सौदावर 2012, पृ. 53.
🌹 अवेस्ता में वर्णित थ्रएतओन 🌹
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अवेस्ता में वर्णित है कि ----
यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम्
क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् ।
गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम् द्रुजँम् फ्रच कँरँ तत् अङ्गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम्।
...(यस्न 9,8 अवेस्ता )----
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अर्थात् जिस "थ्रएतओन" जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह आप्त्य का पुत्र है ।
उसने ही अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था।
जो अहि तीन जबड़ो वाला , तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वाला
यह हजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी , जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था ।
जिस बलशाली को "अङ्गरामइन्यु" ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए निर्मित किया था ।
वस्तुत उपर्युक्त कथन अहिदास के लिए है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/8/8 देखें👇
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"अस्य त्रितः क्रतुना वव्रे अन्तरिच्छन्धीतिं पितुरेवैः परस्य । सचस्यमानः पित्रोरुपस्थे जामि ब्रुवाण आयुधानि वेति ॥७॥
स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रेषित आप्त्यो अभ्ययुध्यत् ।त्रिशीर्षाणं सप्तरश्मिं जघन्वान्त्वाष्ट्रस्य चिन्निः ससृजे त्रितो गाः ॥८॥
भूरीदिन्द्रउदिनक्षन्तमोजोऽवाभिनत्सत्पतिर्मन्यमानम् ।त्वाष्ट्रस्य चिद्विश्वरूपस्य गोनामाचक्राणस्त्रीणि शीर्षा परा वर्क् ॥९॥
सायण-भाष्य:-
7-अस्मिंस्तृच इममर्थं ब्रवीति । हे त्रित सर्वेषामायुधानि वेत्ता त्वं त्वष्टृपुत्रस्य त्रिशिरसो वधार्थं मम साहाय्यं कुर्वितीन्द्रेणैवं पृष्टस्त्रितः स्ववीर्यवृद्ध्यर्थं यज्ञभागं वव्रे । स चेन्द्रस्तस्मै पाणिप्रक्षालनार्थं च जलं यज्ञभागं च दत्तवान् । अनेन यज्ञभागेन वृद्धवीर्यः “त्रितः एतत्संज्ञक ऋषिः “एवैः आत्मनो रक्षणैर्युक्तः “अन्तः यज्ञस्य मध्ये “धीतिं भागम् “इच्छन् “परस्य उत्कृष्टस्य “पितुः सर्वस्य जगतः पालयितुः “अस्य इन्द्रस्य “क्रतुना त्रिशिरसो मम वधार्थं साहाय्यभूतेन कर्मणा निमित्तेन “वव्रे सखायं वृतवान् । किंच “पित्रोः मातापितृभूतयोर्द्यावापृथिव्योः “उपस्थे समीपस्थे यज्ञे “सचस्यमानः ऋत्विग्भिः सेव्यमानस्त्रितः “जामि योग्यमिन्द्रस्यानुरूपं स्तोत्रं “ब्रुवाणः इन्द्रस्य बलवृद्ध्यर्थमुच्चारयन् “आयुधानि स्वभूतानि “वेति । त्वष्टृपुत्रस्य मम वधार्थमागच्छति ॥
8-“आप्त्यः आप्त्यस्य पुत्रोऽपां पुत्रो वा। तकारोपजनश्छान्दसः । “सः त्रितः “पित्र्याणि स्वपितृसंबन्धीनि “आयुधानि “विद्वान् जानन् “इन्द्रेषितः त्रिशिरसा मया सह युद्धार्थमिन्द्रेण प्रेषितः सन् "अभ्ययुध्यत् अभिमुख्येन युद्धवान् । तदनन्तरं सप्तरश्मिं शत्रुनियमनार्थं सप्तप्रग्रहहस्तम् । यद्वा । सप्तरश्मिरादित्यः । तत्सदृशम् । “त्रिशीर्षाणं त्रिशिरस्कं मां “जघन्वान् हतवान् । मूर्च्छितं कृतवानित्यर्थः । किं च “त्रितः “त्वाष्ट्रस्य “चित् त्वष्टृपुत्रस्य ममापि “गाः पशून् “निः “ससृजे विसृष्टवान् । अपहृतवानित्यर्थः ॥
9-“सत्पतिः सतां पालकः “इन्द्रः भूरीत् बह्वेव पूर्वतुल्यमतिरिक्तं वा “ओजः बलम् "उदिनक्षन्तं व्याप्नुवन्तं “मन्यमानं शूरमित्यात्मानं चिन्तयन्तम् । यद्वा । मन्यतिर्दीप्तिकर्मा क्रोधक वा । दीप्यमानं क्रुध्यन्तं वा । त्वष्टृपुत्रं माम् “अवाभिनत् वज्रेण विदारितवान् । विदार्य “त्वाष्ट्रस्य “चित् त्वष्टृपुत्रस्यापि “गोनां गवाम् । स्वामिन इति शेषः । “विश्वरूपस्य मम “त्रीणि “शीर्षा शीर्षाणि “आचक्राणः आ समन्ताच्छब्दं कुर्वन् "परा “वर्क् पराङ्मुखस्य वृक्णवान् छिन्नवानित्यर्थः । ईदृशं भावि वस्तु विश्वरूपः स्वप्नान्तेऽनेन तृचेन दृष्टवान् ॥ ४॥
स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत्
त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/8/8)
जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है
इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं।
जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇
✍
उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है ।
अब उपर्युक्त उद्धरणों में भी थ्रएतओन वैदिक रूप (त्रैतन)
ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-
👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा
३६।८।४ ।१७।१।६।
अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप:
सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५
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नॉर्स पुरा-कथाओं में (Thridi) थ्रिडी ओडिइन का पुराना नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।
और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है ।
ट्राइटन Triton (Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी समुद्र का देवता है। जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रित को रूप में है ।
वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं !
THRIDI
नोर्स ज्ञान का देवता
इसे Þriðji के रूप में भी जाना जाता है
यह एक और अजीब ऋषि है ।
वह हर और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन (त्रिक )का तीसरा सदस्य है।
उनका नाम ' थ्रर्त ' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर ही होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है।
थ्रिडी तथ्य और फिगर
नाम: THRIDI
ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्माण्ड बनाते हैं
विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय", भगवान ओडिन के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।
मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे। उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।
तीन भाइयों ने विशाल यमिर ( यम-अथवा हिम )को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी मास से बना दिया।
जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण भी हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।
यम कनानी संस्कृतियों तथा प्राचीन ईरानी संस्कृतियों में
एवं नॉर्स और भारतीयों संस्कृतियों में समान रूप से है। केवल इसकी भूमिकाओं में भेद है ।
'विली' और 'वी' भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।
दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।
पुराने नोर्स साहित्य में विली और वी के अन्य स्पष्ट सन्दर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।
स्माररी के प्रोज एडडा ग्रन्थ में हहर ("हाई"), जफरहरर ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,
लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं। विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"
और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।
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रुचिकर बात यह है कि ओडिन, विली और "वी" के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः वुंडानाज़ , वेल्जोन , और विक्सन थे ।
यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और हम्हें सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और सम्भवतः दो सहस्राब्दी या उससे कम नहीं उस तारीख से पहले।
यद्यपि वे केवल वाइकिंग (समुद्र के लुटेरों )का युुग था।
इन्हें साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित किया गया है। और इसके तत्काल बाद, विली और वी नॉर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और सम्भवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए।
क्यों जर्मनिक भारतीयों के सहवर्ती हैं ।
और उनके और भारतीयों के पूर्वज तथा देव सूची भी समान है । जैसे मनु, को जर्मन संस्कृति में मेनुस् 🐩
रोमन लेखक टैसिटस (रोमन इतिहास कार समय ईस्वी सन् 68 के लगभग) के मुताबिक, मोनुस , जर्मनिक जनजातियों के निर्माता है ; मिथकों में जो एक आंकड़ा था। टैसिटस ही इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
टैसिटस ने जर्मन संस्कृति को गहनता से जाना ।
टैसिटस ने लिखा था कि मानुस तुइस्टो (वैदिक रूप त्वष्टा )का बेटा था और जो तीन जर्मनिक जनजातियों इंजेवोन्स , हर्मिनोन्स और इस्तवाइन्स का पिता हुआ । जर्मन जनजातियों पर चर्चा करने में टैसिटस ने लिखा: कि
प्राचीन काल में, उनकी एकमात्र ऐतिहासिक परम्परा है,कि वे पृथ्वी से बाहर लाए गए एक देवता तुइस्टो का जश्न मनाते हैं। वे उन्हें एक बेटे, मानस, उनके लोगों के स्रोत और संस्थापक और मानुस के तीन पुत्रों के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं, जिनके नाम महासागर के नजदीकी नाम हैं, उन्हें इल्वाइओन्स कहा जाता है, जो मध्य हर्मिनोन में हैं, और बाकी इस्तावाइन्स हैं।
कुछ लोग, प्राचीन काल के रूप में अटकलों को मुक्त कर देते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि भगवान से पैदा हुए अधिक बेटे थे और इसलिए अधिक जनजातीय पदनाम- मंगल , गाम्ब्रिवी , सुबेई और वंदिली- और ये नाम वास्तविक और प्राचीन हैं।
( पुस्तक जर्मनिया , अध्याय संख्या 2)
कई लेखकों ने टैक्सीटस के काम में मानस नाम को इंडो-यूरोपीय मूल से रोकने के लिए माना;
पूर्व-जर्मनिक रूप मन्नाज़ , है ।
"
16 वीं शताब्दी में मैनियस फिर से साहित्य में लोकप्रिय हो गया, लेखक एनीस डी विटरबो और जोहान्स एवेन्टिनस द्वारा प्रकाशित कार्यों के बाद जर्मनी और सरमातिया पर एक प्रमुख राजा के रूप में उन्हें सूचीबद्ध करने के लिए कहा गया।
19 वीं शताब्दी में, एफ नोर्क ने लिखा था कि मानुस के तीन पुत्रों के नामों को इंगुई, इरमिन और इस्ताव या इस्सीओ (इक्कियो) या (वैदिक रूप इक्ष्वाकु )के रूप में निकाला जा सकता है।
राल्फ टी ग्रिफिथ जैसे कुछ विद्वानों ने मन्नस और अन्य प्राचीन संस्थापक-राजाओं के नामों जैसे ग्रीक पौराणिक कथाओं के मिनोस और भारतीय परम्परा के मनु के बीच एक सम्बन्ध व्यक्त किया है।
जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में वर्णित किए जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।
वस्तुत , ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं के प्रतिनिधि हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्माण्ड को अलग करते हैं।
इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्माण्ड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरन्तर रख रखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तम्भों में से तीन बने रहे।👇
सन्दर्भ तालिका
[1] स्नोरी स्टर्लुसन। प्रोज एडडा। Gylfaginning।
[2] पोएटिक एडडा। लोकसेंना, स्टेन्ज़ा 26।
[3] स्नोरी स्टर्लुसन। यंग्लिंग सागा, अध्याय 3।
[4] शिमेक, रूडोल्फ। 19 93।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश।
एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ संख्या। 362।
[5] एलिस-डेविडसन, हिल्डा रोडरिक। 19 64.
उत्तरी यूरोप के देवताओं और मिथक। पृष्ठ-संख्या 201।
[6] शिमेक, रूडोल्फ। 1 99 3।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ संख्या। 177।
[7] इबिड। 362।
[8] इबिड। 355।
[9] ओरल, व्लादिमीर। 2003.
जर्मनिक एटिमोलॉजी की एक पुस्तिका। पृष्ठ। 453।
अर्थात् "थ्रिडी" ज्ञान का नॉर्स देवता ।
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ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन (जल मत्स्य मानव)है , जो एक समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।
यूनानी पुराणों में त्रैतन (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite) का पुत्र था।
जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: त्रैतन , पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।
वेदों में पूषण के लिए निम्न ऋचाऐं देखें -👇
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यस्य ते पूषन्सख्ये विपन्यवः क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे ।
तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे ।
अहेळमान उरुशंस सरी भव वाजेवाजे सरी भव॥३॥ऋग्वेद2/138/3
नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपह्नुवे॥४॥ऋग्वेद 1/138/4
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हे पूषा ! शीघ्र गामी मनुष्य को मार्ग में उचित दिशा बताने के समान तुम्हें स्तोत्र में प्रेरणा करता हूँ । जिससे तुम हमारे शत्रुओं को दूर करो। मेैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ । तुम मुझे युद्ध में बलवान बनाओ।
पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है।
जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है ।
यास्ते पूषन्नावो अन्तः समुद्रे हिरण्ययीरन्तरिक्षे चरन्ति ।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्यस्य कामेन कृत श्रव इच्छमानः॥ ऋगवेद-6.58.3॥
-हे (कृत) किये हुए विद्वन् ! (पूषन्) पूषण ! (याः) जो (ते) आपकी (हिरण्यययीः) तेजोमयी सुवर्णादिकों से सुभूषित (नावः) नौकायें (समुद्रे) समुद्र वा (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (अन्तः) भीतर (चरन्ति) जाती हैं (ताभिः) उनसे (कामेन) कामना के द्वारा (श्रवः) प्रसिद्धि / अन्नादिक की (इच्छमानः) इच्छा करते हुए (सूर्यस्य) सूर्य्य के (दूत्याम्) दूती को (यासि) प्राप्त होते हो॥३॥
शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में था । यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन
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त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन्मनुष्येषु ममृजे। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥१। -अथर्वेद-/6/113/1
मरीचीर्धूमान्प्र विशानु पाप्मन्नुदारान्गच्छोत वा नीहारान्। नदीनां फेनाँ अनु तान्वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन्दुरितानि मृक्ष्व ।।२॥ अथर्वेद- 6/113/2
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि। ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥ अथर्वेद:+6/113/3
सायणभाष्यम्
'मा ज्येष्ठम्' (अथर्व- ६,११२) 'त्रिते देवाः' (अथर्व- ६,११३) इति तृचाभ्यां परिवित्ति-परिवेत्तृप्रायश्चित्तार्थम् उदकघटं संपात्य अभिमन्त्र्य तयोः पर्वाणि मौञ्जपाशैर्बद्ध्वा आप्लावनम् अवसेकं वा कुर्यात् । अत्र 'नदीनां फेनान्' (अथर्ववेद- ६,११३,२) इत्यर्धर्चेन उत्तरपाशान् नदीफेने निदध्यात् । सूत्रितं हि - “'मा ज्येष्ठम्', 'त्रिते देवाः' इति परिवित्तिपरिविविदानावुदकान्ते' मौञ्जैः पर्वसु बद्ध्वा पिञ्जूलीभिराप्लावयति । अवसिञ्चति । फेनेषूत्तरान् पाशान् आधाय 'नदीनां फेनान्' इति प्रप्लावयति । सर्वैश्च प्रविश्य" (कौसू ४६,२६-२९) इति ।
(१-)अत्र इयमाख्यायिका । पुरा खलु देवाः पुरोडाशादिकं हविः संभृत्य तल्लेपजनितपापमार्जनाय एकतो द्वितस्त्रित इति त्रीन् पुरुषान् आप्याख्यान् अग्न्युदकसंपर्कवशाज्जनयामासुः। तेषु च तत् पापं निमृष्टवन्तः। ते च आप्याः सूर्याभ्युदितादिषु परंपरया पापं निमृष्टवन्त इति । तद् एतत् सर्वं तैत्तिरीये समाम्नायते - 'देवा वै हविर्भृत्वाऽब्रुवन्' (तैब्रा ३,२,८,९) इति प्रक्रम्य 'ते देवा आप्येष्वमृजत । आप्या अमृजत सूर्याभ्युदिते । सूर्याभ्युदितः सूर्याभिनिम्रुक्ते । सूर्याभिनिम्रुक्तः कुनखिनि । कुनखी श्यावदति । श्यावदन्नग्रदिधिषौ । अग्रदिधिषुः परिवित्ते । परिवित्तो वीरहणि। वीरहा ब्रह्महणि तद् ब्रह्महणं नात्यच्यवत' (तैब्रा ३,२,८,११,१२) इति । तदिदमुच्यते - एतत् परिवित्तसमवेतम् एनः पापं पूर्वं देवास्त्रिते एतत्संज्ञे आप्त्ये अमृजत निमृष्टवन्तः । स च त्रितः एतत् स्वात्मनि समवेतं पापं मनुष्येषु सूर्याभ्युदितादिषु ममृजे मृष्टवान् निमार्जनेन स्थापितवान् । ततः तस्माद्धेतोः हे परिवित्त त्वा त्वां ग्राहिः ग्रहणशीला पापदेवता यदि । निपातानामनेकार्थत्वाद् अत्र यदिशब्दो यच्छब्दार्थे । या ग्राहिरानशे प्राप ते त्वदीयां तां ग्राहिं प्रागुक्ता देवाः ब्रह्मणा मन्त्रेण नाशयन्तु।
(२-)हे पाप्मन् परिवेदनजनितपाप मरीची: अग्निसूर्यादिप्रभाविशेषान् अनु प्र विश। परिवित्तं विसृज्य प्रगच्छेत्यर्थः । अथवा धूमान् अग्नेरुत्पन्नान् अनु प्र विश । यद्वा उदारान् ऊर्ध्वं गतान् मेघात्मना परिणतांस्तान् गच्छ प्रविश । उत वा अपि वा तज्जन्यान् नीहारान् अवश्यायान् गच्छ । निपूर्वात् हरतेः कर्मणि घञ् । 'उपसर्गस्य घञ्यमनुष्ये बहुलम्' (पाणिनि- ६,३,१२२ ) इति दीर्घः । तथा च तैत्तिरीये सृष्टिं प्रक्रम्य आम्नायते - 'तस्मात् तेपानाद् धूमोऽजायत । तद् भूयोऽतप्यत तस्मात् तेपानान्मरीचयोऽजायन्त । तस्मात् तेपानाद् उदारा अजायन्त । तद् भूयोऽतप्यत । तद् अभ्रम् इव समहन्यत' (तैतिरीय -ब्राह्मण- २,२,९,१;२) इति । हे पाप्मन् नदीनाम् =सरितां तान् प्रसिद्धान् फेनान् =फेनिलान् प्रवाहान् अनु वि विक्ष्व =अनुप्रविश्य विविधं गच्छ । 'नेर्विशः' (पाणिनि १,३,१७ ) इति आत्मनेपदम् । व्यत्ययेन शपो लुक् । अन्यद् व्याख्यातम् ।
(३)-त्रितस्य आप्त्यस्य संबन्धि प्रागुक्तरीत्या अपमृष्टं तद् एनः द्वादशधा निहितम् द्वादशसु स्थानेषु स्थापितम् । प्रथमं देवेषु पश्चात् त्रिषु आप्येषु ततः सूर्याभ्युदितादिषु अष्टसु एवं द्वादशसु स्थानेषु निक्षिप्तम् । तद् एनः मनुष्यैनसानि भवन्ति मनुष्यसमवेतानि इदानींतनानि पापानि संपद्यन्ते । उत्तरोऽर्धर्चो व्याख्यातः ।
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अथर्ववेदे इति पञ्चमं सूक्तम् । षष्ठम् काण्ड एकादशोनुवाक्।
★-अर्थानुवाद:- अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।
हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र-शक्ति से दूर भगा ।
हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।
हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।
त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया। वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है।
हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !
"सम्भवतया देवों के द्वारा "त्रित" में पाप स्थापित किए जाने के कारण वह देव विरोधी हो और उसका ही इतर रूप त्रैतन ईरानी धर्म में थ्रैतॉन तथा हिब्रू अरमाईक तथा अरबी में सैतान { शैतान) और "सय्यतन हो गया।
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एक ऋषि तथा देवता ।
परंतु निरुक्त में इसे एक द्रष्टा कहा है [नि.४.६] ।
सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वा स्पृध आर्येण दस्यून् ।
अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साख्यस्य त्रिताय ॥१९॥
अस्य सुवानस्य मन्दिनस्त्रितस्य न्यर्बुदं वावृधानो अस्तः ।
अवर्तयत्सूर्यो न चक्रं भिनद्वलमिन्द्रो अङ्गिरस्वान् ॥२०॥
त्रित ने त्रिशीर्ष का [ऋ.१०.८.८] ।, एवं त्वष्ट्रपुत्र विश्वरुप का वध किया [ऋ.१०.८.९] । मरुतों ने युद्ध में त्रित का सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया [ऋ.८.७.२४] ।
अनु त्रितस्य युध्यतः शुष्ममावन्नुत क्रतुम् ।
अन्विन्द्रं वृत्रतूर्ये ॥२४॥
त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया
[ऋ.९.३७.४]। त्रित तथा त्रित आप्त्य, एक ही होने का भाव संभव है ।
त्रिंत को आप्त्य विशेषण लगाया गया है ।
इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है [ऋ.९.४७.१५] । यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है [ऋ.१.१०५,८.४७,६.३३,३४,१०२,१०.१-७] । एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्याऊ के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८] ।
त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।
त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] प्र सक्षणो दिव्यः कण्वहोता त्रितो दिवः सजोषा वातो अग्निः । पूषा भगः प्रभृथे विश्वभोजा आजिं न जग्मुराश्वश्वतमाः ॥४॥
। त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७]
भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है । एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।
त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये ।
तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तैतिरीय.ब्रा ३.२.८.१०-११] ।
महाभारत में त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।
गौतम के एकत:, द्वित: तथा त्रित: नामक पुत्र थे यह सभी ज्ञाता ( ज्ञानी ) थे ।
परन्तु कनिष्ठ पुत्र त्रित का तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था दौनों भाइयों को ।
और एकत और द्वित को पिता की ओर से विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था ।
एक बार गौतम ने त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की ।
गौए ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था ।
दोनों भाई गौओं को हाँकते हुए पीछे जा रहे थे ।
इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी ।
त्रित निःशंक मन से जा रहा था ।
इतने में सामने से एक भेडिया आया ।
उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा,
तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा ।
इसने काफी चिल्लाहट मचाई ।
परन्तु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया ।
भेडिया का डर तो था ही ।
जल-हीन, धूलियुक्त तथा घास से भरे कुएें में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृयु भय से मैं कुए में गिरा । इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’।
इस विचार से, कुएँ में लटकने वाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।
देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला ।
आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया । घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।
उनकी सन्ततियों को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया बलराम जब त्रित के कूप के पास आये, उस समय उन्हें यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी
[महाभारत शान्तिपर्व ३५];
[ भागवत.१०.७८]
। आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कन्द पुराण ] ।
पुराणों तथा महाभारत की ये कथाऐं पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा लिपि-बद्ध हैं ।
जो आनुमानिक व कल्पना-रञ्जित हैं ।
अब बात करते हैं यूरोपीय मिथकों की तो
उधर यूरोप के प्रवेश-द्वार -यूनान में
यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton) एक समुद्र का देवता है ।
जो पॉसीडन ( Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है ।👇
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Triton is the a minor sea-good Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea "
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त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है !
इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक (वैदिक अहिदास) की लड़ाई हुई
यूनानी महाकाव्यों में अहि (Ophion) के रूप में है ।
ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है ।
वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का सहायता करने से होने के कारण इसके यह नाम मिला ..
वस्तुत: वैदिक , यूनानी और ईरानी मिथकों में साम्य है ।
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वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----
यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्वेद-२०/१५३/५
अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )
लैटिन Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के त्रा -- तर् से साम्य रखते है ।
बाद में इसका पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने होम के रूप में वर्णित किया है ।
परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में त्रेतन को दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था । और यहीं से प्रारम्भ होता है ।
इसके शैतानी रूप का उपक्रम
देखें--- 👇🐞🐞🐞🐞🐞
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यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा
दास अहीं समुब्धम बाधु: ।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत
स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।
ऋग्वेद--१/१५८/५
अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल भी मुझे न डुबो सके ।
दस्यु ने युद्ध में बाँध कर मुझे फैंक दिया .
त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..
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वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि आर्य इस समय सुमेरियन बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थी ।
क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है ।
यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है।
यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।
तब सुमेरियन बैवीलॉनियन असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे । असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है ।
संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया ..
फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है ---तीन ..
जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य)
फ़ारसी में सिहतार हो गया है ।
इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है ।
क़ुरान शरीफ़ मे शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है ।
कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया तो त्रित त्रेतन हो गया ।अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।👇
देखिए-- त्रित देव अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६
अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के पश्चातआत्मा लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया ।
वस्तुत: त्रेतन पहले देव था ।
हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।
अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित
जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...
कहा गया है ।
अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्ययही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा ..
____________________________________ तथ्य-विश्लेषक --- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़।🌷🌷🌷🌷🌷🌷
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बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇
परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।
यशायाह 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।
यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।
वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)।
यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।
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शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।
वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)।
उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।"
हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।
शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।
शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य – आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है ।
(प्रकाशितवाक्य 20:10)।
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इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है।यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है।
बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।
उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट,
प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है।
त्रैतन
जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे।
किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।
उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं।
बाइबिल के उत्तरार्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था।
कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था।
एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था।
ट्राइटन की विशेषता एक मुड़कर सीशेल (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।
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Poseidon
पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।
( Amphitrite )
एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।
ग्रीक : Τρίτων Tritōn ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है ।
वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।
और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है।
ट्रिटॉन की विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया।
इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की।
सायद सूकर के सादृश्य पर --
हेसियोड के थेसिस के अनुसार, ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम त्रिटोनियन हुआ।
, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक"
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ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।
दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी।
ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।
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जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।
को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है।
राहेल ब्रॉमविच ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में फॉर्म का सम्मान किया।
प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।
प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में ,
एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ; ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη )
एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह समुद्र जगत् की साम्राज्ञी थी।
ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया।
रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।
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पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में
बिस्ली ओथेका के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर ।
दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन पानी ) कहा। एम्फिट्राइट की संतान में सील और डॉल्फ़िन शामिल थे।
पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था, और एक बेटी, रोडोस (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus )की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।
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बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।
एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)
एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।
वह थियिसिस के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित") को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।
प्रतिनिधित्व और पंथ
यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था ... मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "।
हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक
एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था। एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा
अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना। बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।
यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया, [12] और उसे ले जाया गया। [13] लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई, [14] वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस [15] पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है। [16]
पूषल्यु । कुमारानुचरमातृभेदे भा० शा० ४७ अ०। पूष्णः पृथिव्याः इदम् अण् वेदे न वृद्धिः नोपधा लोपः । पार्थिवे पदार्थे त्रि० ऋ० १० । ५ । ५ ।
पूष् + कनिन् । १ सूर्य्ये आदित्यभेदे भा० आ० ६ श्लो० ङौ तु पूष्णि पूषणि पूषि ।
२ पृथिव्यां स्त्री निघण्टुः ।
पूषणा शब्देदृश्यम् ।
अयमन्तोदात्तः । स्वार्थे क ।
तत्रार्थे ।
पूषा अस्त्यस्य मतुप् वेदे नुट् णत्वम् । पूषण्वत् सूर्य्य- युक्ते पृथिवीयुक्ते च त्रि० । ऋ० १ । ८२ । ६ । भा०
हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा पेंटाटेच में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है। एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों σαταν, शैतान में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40 एडी और 9 0 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।
इस इकाई को पवित्रशास्त्र में दस वर्णनात्मक नाम दिए गए हैं (जिन्हें मैं जानता हूं) सर्प, शैतान, लूसिफर , डायबोलोस, बेल्जबुल या बेल्जबब ( बाल-ज़बूब से ), पोनेरोस, ड्रैकॉन, श्रेणियां, एंटीडिकोस और एनीमोस होने के बारे में जानते हैं ।
लगभग 5 9 0 ईस्वी में, कोलंबिया पोप बोनिफेस चतुर्थ (शायद लैटिन में) लिखता है और पोप ग्रेगरी को भेजे गए पिछले पत्रों को संदर्भित करता है:
त्रैतनु अथवा त्रैतन हिब्रू संस्कृतियों में कैसे गया
असुर संस्कृति के अनुयायी आर्यों का आगमन और फारसके सन्दर्भ में ऐैतिहासिक अवधारणाओं से यह तथ्य भी प्रकाशित है ।कि
ईरान में पहले पुरापाषाणयुग कालीन लोग रहते थे। यहाँ पर मानव निवास एक लाख साल पुराना हो सकता है। लगभग ५००० ईसापूर्व से खेती आरंभ हो गई थी। मेसोपोटामिया की सभ्यता के स्थल के पूर्व में मानव बस्तियों के होने के प्रमाण मिले हैं।
ईरानी लोग (आर्य) लगभग २००० ईसापूर्व के आसपास उत्तर तथा पूरब की दिशा से आए।
जिसे अवेस्ता ए जन्द़ में अजर-बेजान कहा गया है
इन्होंने यहाँ के लोगों के साथ एक मिश्रित संस्कृति की आधारशिला रखी जिससे ईरान को उसकी पहचान मिली।
आधिनुक ईरान इसी संस्कृति पर विकसित हुआ।
ये यायावर लोग ईरानी भाषा बोलते थे और धीरे धीरे इन्होंने कृषि करना आरम्भ किया।
आर्यों का कई शाखाए ईरान (तथा अन्य देशों तथा क्षेत्रों) में आई।
इनमें से कुछ मीदि, कुछ पार्थियन, कुछ फारसी, कुछ सोगदी तो कुछ अन्य नामों से जाने गए।
मिदि तथा फारसियों का ज़िक्र असीरियाई स्रोतों में 836 ईसापूर्व के आसपास मिलता है।
लगभग इसी समय जरथुस्ट्र (ज़रदोश्त या ज़ोरोएस्टर के नाम से भी प्रसिद्ध) का काल माना जाता है।
हालाँकि कई लोगों तथा ईरानी लोककथाओं के अनुसार ज़रदोश्त बस एक मिथक था कोई वास्तविक आदमी नहीं।
पर चाहे जो हो उसी समय के आसपास उसके धर्म का प्रचार उस पूरे प्रदेश में हुआ।
असीरिया के शाह ने लगभग 720 ईसापूर्व के आसपास इसरायल पर अधिपत्य जमा लिया।
उसने यहूदियों को अपने धर्म के कारण यातनाएँ दी। उनके सोलोमन (यानि सुलेमान) मंदिर को तोड़ डाला गया और कई यहूदियों को वहाँ से हटा कर मीदि प्रदेशों में लाकर बसाया गया। 530 ईसापूर्व के आसपास बेबीलोन का क्षेत्र फ़ारसी नियंत्रण में आ गया।
फ़ारस के शाह अर्तेखशत्र (465ईसापूर्व ) ने यहूदियों को उनके धर्म को पुनः अपनाने की इजाज़त दी और कई यहूदी वापस इसरायल लौट गए।
इस दौरान जो यहूदी मीदिया में रहे उनपर ज़रदोश्त के धर्म का बहुत असर पड़ा और इसके बाद यहूदी धर्म में काफ़ी परिवर्तन आया।
बाइबिल के पुराने ग्रंथ (पहला अहदनामा) (Old Texament ) में पारसियों के इस क्रम का वर्णन मिलता है।
fereydun (फारसी: فریدون - Feraydūn या फरीदून; मध्य फारसी: Frēdōn; अवेस्ता: Θraētaona), Freydun, फरीदोन और अफरीडुन भी उच्चारण और वर्तनी अल्पान्तर के साथ है। यह एक ईरानी पौराणिक राजा और वीर के राज्य से एक नायक का नाम है। वह फारसी साहित्य में जीत, न्याय और उदारता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।
व्युत्पत्ति का विकास-
उपरोक्त दिखाए गए नाम के सभी रूप प्रोटो-ईरानी थ्रैतॉना- (अवेस्तान Θraētaona-) और प्रोटो-इंडो-ईरानी त्रैतिनास् से नियमित ध्वनि साम्य-विधि से प्राप्त होते हैं।
Traitaunas is a derivative (with augmentative suffix -una/-auna) of Tritas*, the name of a deity or hero reflected in the Vedic Trita* and the Avestan Thrita (Θrita).* Both names are identical to the adjective meaning "the third"* a term used of a minor deity associated with two other deities to form a triad*. In the Indian Vedas, Trita* is associated with gods of thunder and wind.
Trita is also called Aptya (Āptya), a name that is probably cognate with Athwiya (Āθβiya),* the name of father of Thraetaona in the Avestā.
Traitaunas may therefore be interpreted as "the great son of the deity Tritas"
The name was borrowed from Parthian into Armenian as Hrudēn.
Traitaunas त्रैतॉनस् * का एक व्युत्पन्न (संवर्धित प्रत्यय -उना/-औना के साथ) है, जो वैदिक त्रित* और अवेस्ता थ्रिता (Θrita) में परिलक्षित एक देवता या नायक का नाम है।
दोनों नाम विशेषण के समान हैं जिसका अर्थ है "तीसरा"* एक त्रय बनाने के लिए दो अन्य देवताओं से जुड़े एक छोटे देवता के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द है जो एकत: द्वित: के बाद त्रित है। भारतीय वेदों में, त्रित * आँधी- तूफान और वायु के देवताओं से जुड़ा हुआ है।
त्रिता को आप्त्य (आप्त्य) भी कहा जाता है, एक ऐसा नाम जो संभवतः अथविया (Āθβiya) के साथ संगत है, * अवेस्ता में यह थ्रेतॉन के पिता का नाम है।
इसलिए त्रैतॉनस् को "देव त्रित: के महान पुत्र" के रूप में व्याख्या किया जा सकता है
त्रैतॉनस् का इतर रूप (fereydun )पार्थियन से अर्मेनियाई में ह्रुडेन (Hruden) के रूप में उधार लिया गया था
अथर्व्व [ण्] =अथ लोकमङ्गलाय अर्ब्ब्यते प्रस्तूयते यत् अथ + अर्ब्ब + कर्म्मणि अनिप् शकान्ध्वादित्वात् पररूपं । जो लोकमंगल के लिए ईश्वर की स्तुति करता है।
Abtin, or Athwya is a character in Shahnama, who is the father of (Fereydun). He is mentioned as the father of Fereydun in the Avesta, having been the "second man" to prepare Ahura-Mazda for the "corporeal world". His name comes from the same origin as "Āptya", a title for water-born deities or heroes in the Rigveda.According to the Shatapatha Brahmana, that the first to bear this title was Agni, and that he subsequently created three Aptyas, Trita, Dvita, and Ekata, when he spat on the waters in anger.
अनुवाद:- अबतीन, या अथव्य शाहनामा में एक पात्र है। जिनका तादात्म्य ( एकरूपता) वैदिक आप्त्य: और अथर्वण से है ।अथर्वा चौथे वेद अथर्ववेद के प्रणयिता थे । विशेष— इसके मंत्रद्रष्टा या ऋषि भृगु या अंगिरा गोत्रवाले थे जिस कारण इसको 'भृर्ग्वांगिरस' और 'अथर्वांगिरस' भी कहते हैं। कदाचित यह नाम गौतम का रहा हो। जिनके तीन पुत्र एकत: द्वित: और त्रित थे।
अथव्या को अवेस्ता में (फेरेदुन) के पिता के रूप में वर्णित किया गया है,"भौतिक दुनिया" के लिए अहुरा-मज़्दा का चरित्र तैयार करने वाला " वह दूसरा व्यक्ति" रहा है।उनका नाम उसी मूल से आता है जैसे "आप्त्य", ऋग्वेद में जल-जनित देवताओं या नायकों के लिए एक शीर्षक है।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, इस उपाधि को धारण करने वाले पहले व्यक्ति अग्नि (अंगिरा) थे, और उन्होंने बाद में तीन आप्त्यों, एकत , द्वित और त्रित की रचना की, जब उन्होंने गुस्से में पानी पर थूक दिया उस समय का यह दृष्टान्त है ।
ज़ोरस्ट्रियन साहित्य में त्रैतन ---अवेस्ता में, थ्रायेटोना अस्त्रतिया का पुत्र है, और इसे अथव्या Āθβiyani कहा जाता है, जिसका अर्थ है "अस्त्रुतिया के परिवार से"। मूल रूप से, उन्हें सर्प- अहि दासक- (अज़ी दहाक) के हत्यारे के रूप में दर्ज किया गया हो सकता है, लेकिन मध्य फारसी ग्रंथों में, दहाका / दहाग को अमोल में माउंट दमवंद पर कैद किया जाता है।
शाहनमा में ---
फिरदोसी के शाहनामा के अनुसार, फेरेदुन जब्सिद के वंशजों में से एक आप्त्य: Ābtin का पुत्र था। फेरेडुन, एक साथ कव के साथ, अत्याचारी राजा, जहाक के खिलाफ विद्रोह, उसे हराकर अल्बोरज़ पहाड़ों में गिरफ्तार कर लिया। बाद में, फेरेडुन राजा बन गए, अर्नावाज़ से विवाह किया और मिथक के अनुसार, देश में लगभग 500 वर्षों तक शासन किया। अपने जीवन के अंत में, उन्होंने अपने राज्य को अपने तीन बेटों सल्म, तुर और इराज में आवंटित किया।
इराज फेरेदुन का सबसे छोटा और पसंदीदा पुत्र था, और ईरान साम्राज्य का सबसे अच्छा हिस्सा उसे विरासत में मिला। सल्म विरासत में अनातोलिया ("रुम", आमतौर पर रोमन साम्राज्य, ग्रीको-रोमन दुनिया, या सिर्फ "पश्चिम" का राजा है), और टूर ने मध्य एशिया ("तुरण", अमू दाराय के उत्तर और पूर्व में सभी भूमि विरासत में ली, यहाँ कि चीन तक) क्रमशः।
इसने इराज के भाइयों की ईर्ष्या ने उत्तेजित किया, और उन्हें मारने के लिए प्रोत्साहित किया। इराज की हत्या के बाद, फेरेडुन ने इराज के पोते, मनुचहर का सिंहासन दिया।
मनुकाहर ने अपने दादा की हत्या का बदला लेने का प्रयास ईरानी-टुरानियन युद्धों की शुरुआत से किया।
इस प्रकार अनेक संस्कृतियों का का मिथकीय साम्य ऐतिहासिक अवधारणाओ का पोषक है।अत: मिथकीय घटनाओं का पारस्परिक व्युत्क्रम होते हुए भी ऐतिहासिक घटनाओं की पुष्टि तो करता ही है। अत: हमने सटीक व सप्रमाण विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए समस्त मिथकीय पूर्वाग्रहों का क्रमागत ढंग से बहुत ही तर्कसंगत, स्पष्ट व व्यवस्थित और शास्त्रीय शैली में समाधान प्रस्तुत किया है। हमारा यह शोध-ग्रन्थ आभीर जाति की उत्पत्ति के साथ भाषा-विज्ञान प्राचीन-इतिहास व धर्म शास्त्र का अध्ययन करने वाले जिज्ञासु पाठकों, शोधार्थियों और भाषाशास्त्रियों के लिए निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण अवदान सिद्ध होगा ऐसा हमारा विश्वास है।
यह ऐैतिहासिक गवेषणा-मूलक ग्रन्थ है। और इसका लेखन पूर्ण रूपेण प्रबल प्रमाणों के दायरे में है। जिसमें सन्देह की कोई गुँजायश नहीं है।
यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें ! कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है। अपितु वह तो अखण्ड और सार -भौमिक तथ्यों का यथावत- विवरण होता है । छोटी-मोटी घटनाऐं तो इतिहास नहीं होतीं अपितु सारभौमिक घटनाऐं इतिहास हैं। तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की मौलिक व आत्मिक प्रवृति है; और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है। जिसमें कोई पूर्वदुराग्रह नहीं होता .. ऐतिहासिक अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं । जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध इतिहास की रक्षा करता है । अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर( भँवर) में प्रमाण पतवार हैं ।
अथवा पाण्डित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क किसी अस्त्र से कम नहीं हैं। मैं दृढ़ता से अब भी कहता हूँ कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं होती है। अपितु विश्व-व्यापी होती है ! क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है। इतिहास एक बहिर्निष्ठ प्रति क्रिया भी है। इतिहास है गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है।
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