शैक्षिक मनोविज्ञान (Educational psychology), मनोविज्ञान के अन्तर्गत।
शिक्षा ग्रहण करने से सम्बन्धित शाखा है जिसमें इस बात का अध्ययन किया जाता है कि मानव शैक्षिक वातावरण में सीखता कैसे है ? तथा शैक्षणिक क्रियाकलाप अधिक प्रभावी कैसे बनाये जा सकते हैंं?
'शिक्षा मनोविज्ञान' दो शब्दों के योग से बना है - ‘शिक्षा’ और ‘मनोविज्ञान’।
अतः इसका शाब्दिक अर्थ है - शिक्षा संबंधी मनोविज्ञान।
दूसरे शब्दों में, यह मनोविज्ञान का व्यावहारिक रूप है और शिक्षा की प्रक्रिया में मानव व्यवहार का अध्ययन करने वाला विज्ञान है।मानव व्यवहार को बनाने की दृष्टि से जब व्यवहार का अध्ययन किया जाता है तो अध्ययन की इस शाखा को शिक्षा मनोविज्ञान के नाम से संबोधित किया जाता है।
अतः कहा जा सकता है कि शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षणिक स्थितियों में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। दूसरे शब्दों में शैक्षिक समस्याओं का वैज्ञानिक व संगठन से समाधान करने के लिए मनोविज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों का उपयोग करना ही शिक्षा मनोविज्ञान की विषय वस्तु है।
शिक्षा के सभी पहलुओं जैसे शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन, अनुशासन आदि को मनोविज्ञान ने प्रभावित किया है।
बिना मनोविज्ञान की सहायता के शिक्षा प्रक्रिया सुचारू रूप से नहीं चल सकती।
शिक्षा मनोविज्ञान से तात्पर्य शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को सुधारने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग करने से है। शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षिक परिस्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है।
इस प्रकार शिक्षा मनोविज्ञान में व्यक्ति के व्यवहार, मानसिक प्रक्रियाओं एवं अनुभवों का अध्ययन शैक्षिक परिस्थितियों में किया जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसका ध्येय शिक्षण की प्रभावशाली तकनीकों को विकसित करना तथा अधिगमकर्ता की योग्यताओं एवं अभिरूचियों का आंकलन करना है। यह व्यवहारिक मनोविज्ञान की शाखा है।
जो शिक्षण एवं सीखने की प्रक्रिया को सुधारने में प्रयासरत है।
शिक्षा मनोविज्ञान वह विज्ञान है जो शिक्षा की समस्याओं का विवेचन, विश्लेषण एवं समाधान करता है।
शिक्षा, मनोविज्ञान से कभी पृथक नहीं रही है। मनोविज्ञान चाहे दर्शन के रूप में रहा हो, उसने शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति का विकास करने में सहायता की है।
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स्किनरके अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान, शैक्षणिक परिस्थितियों में मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता है।
शिक्षा मनोविज्ञान अपना अर्थ शिक्षा से, जो सामाजिक प्रक्रिया है और मनोविज्ञान से, जो व्यवहार संबंधी विज्ञान है, ग्रहण करता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक सीखने सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार : शिक्षा मनोविज्ञान व्यावहारिक मनोविज्ञान की वह शाखा है जो शिक्षा में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतो तथा खोजों के प्रयोग के साथ ही शिक्षा की समस्याओं के मनोवैज्ञानिक अध्यन से सम्बंधित है।
ऐलिस क्रोके अनुसार : शैक्षिक मनोविज्ञान मानव प्रतिक्रियाओं के शिक्षण और सीखने को प्रभावित वैज्ञानिक दृष्टि से व्युत्पन्न सिद्धांतों के अनुप्रयोग का प्रतिनिधित्व करता है।
भारत में में शिक्षा का अर्थ ज्ञान से लगाया जाता है। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का तात्पर्य व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा के समुचित विकास से है।
शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए स्किनर ने अधोलिखित तथ्यों की ओर संकेत किया हैः-
1. शिक्षा मनोविज्ञान का केन्द्र, मानव व्यवहार है।2. शिक्षा मनोविज्ञान खोज और निरीक्षण से प्राप्त किए गए तथ्यों का संग्रह है।
3. शिक्षा मनोविज्ञान में संग्रहीत ज्ञान को सिद्धांतों का रूप प्रदान किया जा सकता है।
4. शिक्षा मनोविज्ञान ने शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए अपनी स्वयं की पद्धतियों का प्रतिपादन किया है।
5. शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धांत और पद्धतियां शैक्षिक सिद्धांतों और प्रयोगों को आधार प्रदान करते है।
मनोविज्ञान की आवश्यकता
कैली ने शिक्षा मनोविज्ञान की आवश्यकता को निम्नानुसार बताया हैः-
1. बालक के स्वभाव का ज्ञान प्रदान करने हेतु,
2. बालक को अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करने के लिए,
3. शिक्षा के स्वरूप, उद्देश्यों और प्रयोजनों से परिचित करना,
4. सीखने और सिखाने के सिद्धांतों और विधियों से अवगत कराना,
5. संवेगों के नियंत्रण और शैक्षिक महत्व का अध्ययन,
6. चरित्र निर्माण की विधियों और सिद्धांतों से अवगत कराना,
7. विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों में छात्र की योग्यताओं का माप करने की विधियों में प्रशिक्षण देना,
8. शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों और सिद्धांतों की जानकारी के लिए प्रयोग की जाने वाली वैज्ञानिक विधियों का ज्ञान प्रदान करना।
आकर्षक लेखनशैली और अभिव्यक्ति की कुशलता के लिये जेम्स विख्यात हैं।
विलियम जेम्स का जन्म ११ जनवरी १८४२ को न्यूयार्क में हुआ। जेम्स ने हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में चिकित्साविज्ञान का अध्ययन किया और वहीं १८७२ से १९०७ तक क्रमश: शरीरविज्ञान, मनोविज्ञान और दर्शन का प्राध्यापक रहा। १८९९ से १९०१ तक एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में प्राकृतिक धर्म पर और १९०८ में ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में दर्शन पर व्याख्यान दिए। २६ अगस्त, १९१० को उसकी मृत्यु हो गई।
१८९० में उसकी पुस्तक प्रिंसिपिल्स ऑव् साइकॉलाजी प्रकाशित हुई, जिसने मनोविज्ञान के क्षेत्र में क्रांति सी मचा दी, और जेम्स को उसी एक पुस्तक से जागतिक ख्याति मिल गई।
अपनी अन्य रचनाओं में उसने दर्शन तथा धर्म की समस्याओं को सुलझाने में अपनी मनोवैज्ञानिक मान्यताओं का उपयोग किया और उनका समाधान उसने अपने फलानुमेयप्रामाणवाद (Pragmatism) और आधारभूत अनुभववाद (Radical Empiricism) में पाया।
फलानुमेयप्रामाणवादी जेम्स ने 'ज्ञान' को बृहत्तर व्यावहारिक स्थिति का, जिससे व्यक्ति स्वयं को संसार में प्रतिष्ठित करता है, भाग मानते हुए 'ज्ञाता' और 'ज्ञेय' को जीवी (Organism) और परिवेश (Environment) के रूप में स्थापित किया है।
इस प्रकार सत्य कोई पूर्ववृत्त वास्तविकता (Antecedent Reality) नहीं है, अपितु वह प्रत्यय की व्यावहारिक सफलता के अंशों पर आधारित है।
सभी बौद्धिक क्रियाओं का महत्व उनकी व्यावहारिक उद्देश्यों की पूर्ति की क्षमता में निहित है।
आधारभूत अनुभववाद जेम्स ने पहले मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत किया। जॉन लॉक और जार्ज बर्कली के मतों से भिन्न उसकी मान्यता थी कि चेतना की परिवर्तनशील स्थितियाँ परस्पर संबंधित रहती हैं;
तदनुसार समग्र अनुभव की स्थितियों में संबंध स्थापित हो जाता है; मस्तिष्क आदि कोई बाह्य शक्ति उसमें सहायक नहीं होती।
मस्तिष्क प्रत्यक्ष अनुभव की समग्रता में भेद करता है।
फलानुमेय प्रामाण्यवाद और आधारभूत अनुभववाद पर ही जेम्स की धार्मिक मान्यताएँ आधृत हैं।
फलानुमेय प्रामाण्यवाद सत्य की अपेक्षा धार्मिक विश्वासों की व्याख्या में अधिक सहायक था; क्योंकि विश्वास प्राय: व्यावहारिक होते हैं यहाँ तक कि तर्कों के प्रमाण के अभाव में भी मान्य होते हैं; किंतु परिणामवादीदृष्टिकोण से सत्य की, परिभाषा स्थिर करना संदिग्ध है।
'द विल टु बिलीव' में जेम्स ने अंतःकरण के या संवेगजन्य प्रमाणों पर बल दिया है और सिद्ध किया है कि उद्देश्य (Purpose) और संकल्प (Will) ही व्यक्ति के दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं।
'द वेराइटीज़ ऑव रिलीजस एक्सपीरियेंस' में जेम्स ने व्यक्ति को निष्क्रिय और शक्तिहीन दिखलाया है तथा यह भी प्रदर्शित किया है कि उसकी रक्षा कोई बाह्य शक्ति करती है।
जेम्स के अनुभववाद से धार्मिक अनुभूति की व्याख्या इसलिये असंभव है कि इन अनुभूतियों का व्यक्ति के अवचेनत से सीधा संबंध होता है।
जेम्स के धर्मदर्शन में तीन बातें मुख्य हैं-
(१) अंत:करण या संवेगजन्य प्रमाणों की सत्यता पर बल,
(२) धर्म की संदिग्ध सर्वोत्कृष्टता और ईश्वर की सीमितता का आग्रह, और
(३) बाह्य अनुभव को यथावत् ग्रहण करने की आतुरता।
जेम्स की अन्य प्रकाशित पुस्तकें 'साइकॉलजी', ब्रीफर कोर्स' (१८९२), 'ह्यूमन इम्मारटलिटी' (१८९८), टाक्स टु टीचर्स आन साइकॉलजी' (१८९९), 'प्राग्मैटिज्म' (१९०७), 'अ प्ल्यूरलिस्टिक यूनिवर्स' (१९०९), 'द मीनिंग ऑव ट्रूथ (१९०९), 'मेमोरीज एंड स्टडीज' (१९११), 'सम प्राब्लेम्स ऑव फिलासफी' (१९११), 'एसेज इन रेडिकल एंपिरिसिज्म' (१९१२) है।
William James Quotes in Hindi
अपनी जिंदगी से डरे नहीं। इस बात पर विश्वास करे कि अपने जीवन का हर लम्हा जीने लायक है
और आप पाएंगे कि जिंदगी का हर लम्हा वाकई में खूबसूरत बन जायेगा।
विलियम जेम्स के द्वारा
उसी व्यक्ति को समझदार कहा जाएगा, जो जानता हो कि किन चीज़ों को नज़रअंदाज़ करना है।
विलियम जेम्स के द्वारा
काम इस तरीके से करिए कि इसके जरिए कोई न कोई बदलाव जरूर आए और आप देखेंगे कि बदलाव जरूर आएगा।
विलियम जेम्स
ज़िन्दगी बदलने वाली धाकड़ मोटिवेशनल शायरी कोट्स
लोगो की असफलता का एक ही सबसे बड़ा कारण है, कि वे खुद पर ही विश्वास नही करता है।
विलियम जेम्स
अपनी ज़िन्दगी बदलना चाहते है तो उसकी शुरुआत आज से ही करे। इसका मुहूर्त ढूढने की जरूरत नही हैं।
विलियम जेम्स★
जब मनुष्य अपने एटीट्यूड को बदलता है तो वह अपने पूरे जीवन को ही बदल देता है
विलियम जेम्स★
अगर हम एक ही चीज़ को बार-बार दोहराते रहेंगे तो लोगो का उससे विश्वास खत्म हो जाएगा।
विलियम जेम्स★
आप कहीं भी रहे लेकिन आपके दोस्तों से ही दुनिया खूबसूरत बनती है।
विलियम जेम्स★
जब कोई व्यक्ति सही अवसर फायदा नहीं उठाता है तो उसका विफल होना पक्का है।
विलियम जेम्स★
इंसान अपने अंदर के विचारों को बदलकर बाहरी दुनिया में भी परिवर्तन ला सकता है।
विलियम जेम्स★
हम समुद्र में द्वीपों की तरह हैं, सतह पर अलग लेकिन गहराई में जुड़े हुए हैं।
विलियम जेम्स★
अपने जीवन को बदलने के लिए:
तुरंत शुरूआत करें।
इसे तेजतर्रार करें।
कोई अपवाद नहीं।
विलियम जेम्स★
तनाव के खिलाफ सबसे बड़ा हथियार एक विचार पर दूसरे को चुनने की हमारी क्षमता है।
विलियम जेम्स★
विलियम जेम्स के प्रेरक कथन
जब भी दो इंसान मिलते हैं, तो वास्तव वहां छह इंसान मौजूद होते हैं। प्रत्येक आदमी जैसे खुद को देखता है(2),
प्रत्येक आदमी जैसा दूसरों को देखता है(2),
प्रत्येक आदमी जैसा वह वास्तव में हैं(2)।
विलियम जेम्स
जब भी आपका किसी के साथ मनमुटाव होता है तो एक चीज जो आपके रिश्ते को नुकसान पहुचाने ऒर उसमे दूरिया पैदा करने रोक सकते हैं, वह है आपका रवैया(Attitude)।
विलियम जेम्स
आपकी कल्पना में कोई भी चीज आपको मजबूती से पकड़ सकती है
विलियम जेम्स
कुछ भी आप अपनी कल्पना में दृढ़ता से पकड़ते हैं, आपका हो सकता है। चाहे अच्छा हो या बुरा।
विलियम जेम्स
दुनिया के बारे में हमारा दृष्टिकोण ठीक वैसा ही होता है जैसा हम सुनना चाहते हैं।
विलियम जेम्स
यदि आप मानते हैं कि बुरा महसूस करना या लंबे समय तक चिंता करना, आपके अतीत या भविष्य की घटना को बदल देगा, तो आप किसी ओर ग्रह पर निवास कर रहे हैं, ऐसा वास्तव में कभी नही होगा।
विलियम जेम्स
दोस्तो ये थे विलियम जेम्स के हिंदी कोट्स, विलियम जेम्स के अनमोल विचार, विलियम जेम्स के सुविचार। उम्मीद हैं आपको जरूर पसंद आये होंगे।
इवान पेट्रोविच पावलोव (रूसी : Ива́н Петро́вич Па́влов, 39>IPA: [ʲɪˈvan pʲɪtrovɕtˈ (सुनने ); 26 सितंबर [ओएस 14 सितंबर] 1849 - 27 फरवरी 1936) एक रूसी शरीर विज्ञानी मुख्य रूप से शास्त्रीय कंडीशनिंग .
में अपने काम के लिए जाना जाता था अपने बचपन के दिनों से पावलोव ने बौद्धिक प्रदर्शन किया एक असामान्य ऊर्जा के साथ जिज्ञासा जिसे उन्होंने "अनुसंधान के लिए वृत्ति" के रूप में संदर्भित किया। प्रगतिशील विचारों से प्रेरित है जो डी। I.
पिसारेव , 1860 के दशक के रूसी साहित्यिक आलोचकों में सबसे प्रतिष्ठित और मैं। एम। सेचेनोव , रूसी शरीर विज्ञान के पिता फैल रहे थे, पावलोव ने अपने धार्मिक कैरियर को त्याग दिया और अपना जीवन विज्ञान के लिए समर्पित कर दिया। 1870 में, उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करने के लिए सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय के विश्वविद्यालय में भौतिकी और गणित विभाग में दाखिला लिया।
पावलोव ने भौतिक विज्ञान या चिकित्सा के लिए नोबेल पुरस्कार जीता # 212।>1904 में, पहले रूसी नोबेल पुरस्कार विजेता बने। 2002 में प्रकाशित जनरल साइकोलॉजी की समीक्षा में एक सर्वेक्षण, पावलोव को 20 वीं शताब्दी के 24 वें सबसे उद्धृत मनोवैज्ञानिक के रूप में स्थान दिया गया। शास्त्रीय कंडीशनिंग के पावलोव के सिद्धांतों को विभिन्न प्रकार से संचालित करने के लिए पाया गया है व्यवहार चिकित्सा और प्रायोगिक और नैदानिक सेटिंग्स में, जैसे कि शैक्षिक कक्षाओं और यहां तक कि व्यवस्थित
के साथ फ़ोबिया को कम करना।
शिक्षा और प्रारंभिक जीवन-
पावलोव स्मारक संग्रहालय, रियाज़ान : पावलोव का पूर्व घर, जो 19 वीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में बनाया गया था
इवान पावलोव, ग्यारह बच्चों में सबसे बड़े, का जन्म रियाज़ान , रूसी साम्राज्य <212 में हुआ था।>। उनके पिता, पीटर दिमित्रिचविच पावलोव (1823-1899), एक गाँव रूसी रूढ़िवादी पुजारी थे। उनकी माँ, वरवरा इवानोव्ना उसपेन्स्काया (1826-1890), एक समर्पित गृहिणी थीं। एक बच्चे के रूप में, पावलोव ने स्वेच्छा से घर के कर्तव्यों में भाग लिया जैसे कि व्यंजन करना और अपने भाई-बहनों की देखभाल करना।
वह बगीचे से प्यार करता था, अपनी साइकिल की सवारी करता था, पंक्ति लगाता था, तैरता था, और खेलता था गोरोडकी [212>उन्होंने अपनी गर्मियों की छुट्टियों को इन गतिविधियों के लिए समर्पित कर दिया।
हालांकि सात साल की उम्र तक पढ़ने में सक्षम, पावलोव गंभीर रूप से घायल हो गया जब वह एक पत्थर की फुटपाथ पर एक ऊंची दीवार से गिर गया। चोटों के परिणामस्वरूप, उन्होंने 11 साल की उम्र तक औपचारिक स्कूली शिक्षा शुरू नहीं की थी।
पावलोव ने स्थानीय धार्मिक धर्मशास्त्र में प्रवेश करने से पहले रियाज़ान चर्च स्कूल में भाग लिया। 1870 में, हालांकि, उन्होंने सेंट पीटर्सबर्ग में विश्वविद्यालय में भाग लेने के लिए स्नातक किए बिना मदरसा छोड़ दिया।
वहां उन्होंने भौतिकी और गणित विभाग में दाखिला लिया और प्राकृतिक विज्ञान पाठ्यक्रम लिया। अपने चौथे वर्ष में, अग्न्याशय की नसों के शरीर विज्ञान पर उनकी पहली शोध परियोजना ने उन्हें एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय पुरस्कार जीता। 1875 में, पावलोव ने एक उत्कृष्ट रिकॉर्ड के साथ अपना पाठ्यक्रम पूरा किया और प्राकृतिक विज्ञान के उम्मीदवार की डिग्री प्राप्त की।
फिजियोलॉजी में उनकी अत्यधिक रुचि से प्रभावित होकर, पावलोव ने अपनी पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया और इंपीरियल एकेडमी ऑफ मेडिकल सर्जरी के लिए आगे बढ़े।
अकादमी में रहते हुए, पावलोव अपने पूर्व शिक्षक, एलियास वॉन साइओन के सहायक बन गए। उन्होंने विभाग छोड़ दिया जब डे साइऑन को दूसरे प्रशिक्षक द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
कुछ समय बाद, पावलोव ने पशु चिकित्सा संस्थान के शारीरिक विभाग में कोन्स्टेंटिन निकोलायेविच उस्तिमोविच के प्रयोगशाला सहायक के रूप में एक पद प्राप्त किया।
दो वर्षों के लिए, पावलोव ने अपने चिकित्सा शोध प्रबंध के लिए संचार प्रणाली की जांच की।
1878 में, प्रोफेसर एस। पी। बोटकिन , जो एक प्रसिद्ध रूसी चिकित्सक थे, ने प्रतिभाशाली युवा फिजियोलॉजिस्ट को क्लिनिक के प्रमुख के रूप में शारीरिक प्रयोगशाला में काम करने के लिए आमंत्रित किया था।
1879 में, पावलोव ने अपने शोध कार्य के लिए मेडिकल मिलिट्री अकादमी से स्वर्ण पदक पुरस्कार के साथ स्नातक किया।
एक प्रतियोगी परीक्षा के बाद, पावलोव ने स्नातकोत्तर कार्य के लिए अकादमी में फेलोशिप प्राप्त की।
फेलोशिप और बोटकिन के क्लिनिक में शारीरिक प्रयोगशाला के निदेशक के रूप में उनकी स्थिति ने पावलोव को अपने शोध कार्य को जारी रखने में सक्षम बनाया।
1883 में, उन्होंने अपने डॉक्टर की थीसिस को हृदय के केन्द्रापसारक तंत्रिकाओं के विषय पर प्रस्तुत किया और तंत्रिकावाद के विचार और तंत्रिका तंत्र के ट्रॉफिक फ़ंक्शन पर बुनियादी सिद्धांतों को प्रस्तुत किया।
इसके अतिरिक्त, बोटकिन क्लिनिक के साथ उनके सहयोग ने संचार अंगों की गतिविधि में सजगता के नियमन में एक बुनियादी पैटर्न का सबूत पेश किया।
प्रभाव
वह डी द्वारा एक वैज्ञानिक कैरियर बनाने के लिए प्रेरित किया गया था। I.
पिसारेव , साहित्यिक आलोचक और प्राकृतिक विज्ञान उस समय के वकील और मैं। एम। सेचेनोव , एक रूसी शरीर विज्ञानी, जिन्हें पावलोव ने 'फिजियोलॉजी के पिता' के रूप में वर्णित किया।
कैरियर
डॉक्टरेट पूरा करने के बाद, पावलोव जर्मनी गया। जहाँ उन्होंने लीपज़िग में अध्ययन किया कार्ल लुडविग और हेइन्डेइन प्रयोगशालाओं में आइमर केली ब्रेस्लाउ में। वह 1884 से 1886 तक वहां रहा।
हीडेनहिन पेट के बाहरी हिस्से का उपयोग करके कुत्तों में पाचन का अध्ययन कर रहा था। हालांकि, पावलोव ने बाहरी तंत्रिका आपूर्ति को बनाए रखने की समस्या पर काबू पाकर तकनीक को पूरा किया। बाहरी खंड को हेइडेन या पावलोव पाउच के रूप में जाना जाता है।
इवान पावलोव
1886 में, पावलोव एक नई स्थिति की तलाश में रूस लौटे। सेंट पीटर्सबर्ग के विश्वविद्यालय में शरीर विज्ञान की कुर्सी के लिए उनका आवेदन खारिज कर दिया गया था।
आखिरकार, पावलोव को साइबेरिया में टॉम्स्क यूनिवर्सिटी और पोलैंड में यूनिवर्सिटी ऑफ वारसॉ में फार्माकोलॉजी की कुर्सी की पेशकश की गई। उन्होंने कोई पद नहीं लिया। 1890 में, उन्हें मिलिट्री मेडिकल एकेडमी में फार्माकोलॉजी के प्रोफेसर की भूमिका के लिए नियुक्त किया गया और पांच साल तक इस पद पर रहे। 1891 में, पावलोव को सेंट पीटर्सबर्ग में इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सपेरिमेंटल मेडिसिन के लिए आमंत्रित किया गया था, जो उनके निर्देशन में, इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी विभाग को व्यवस्थित करने और निर्देशित करने के लिए
45 वर्ष से अधिक की अवधि के लिए संस्थान में आमंत्रित किया गया था। दुनिया में शारीरिक अनुसंधान के सबसे महत्वपूर्ण केंद्रों में से एक बन गया। पावलोव ने 1895 में मेडिकल मिलिटरी एकेडमी में फिजियोलॉजी विभाग की अध्यक्षता करते हुए इंस्टीट्यूट में फिजियोलॉजी विभाग का निर्देशन जारी रखा। पावलोव तीन दशकों तक लगातार अकादमी में फिजियोलॉजी विभाग का नेतृत्व करेंगे।
1901 में शुरू। , पावलोव को फिजियोलॉजी या मेडिसिन में नोबेल पुरस्कार के लिए चार से अधिक वर्षों के लिए नामांकित किया गया था। उन्होंने 1904 तक पुरस्कार नहीं जीता क्योंकि उनके पिछले नामांकन किसी भी खोज के लिए विशिष्ट नहीं थे, लेकिन विभिन्न प्रयोगशाला निष्कर्षों के आधार पर। जब पावलोव को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ, तो यह निर्दिष्ट किया गया था कि उन्होंने ऐसा "पाचन के शरीर विज्ञान पर अपने काम की मान्यता में किया था, जिसके माध्यम से विषय के महत्वपूर्ण पहलुओं पर ज्ञान का रूपांतरण और विस्तार किया गया है"।
यह प्रायोगिक चिकित्सा संस्थान में था कि पावलोव ने पाचन ग्रंथियों पर अपने शास्त्रीय प्रयोग किए। इस प्रकार उन्होंने अंततः नोबेल पुरस्कार जीता जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। पावलोव ने गैस्ट्रिक के कार्य कुत्तों की जांच की, और बाद में, बच्चों को लार ग्रंथि को बाहरी करके, ताकि वह लार का संग्रह, माप और विश्लेषण कर सके।
और अलग-अलग परिस्थितियों में इसे क्या प्रतिक्रिया मिली। उन्होंने देखा कि भोजन से पहले कुत्तों को लार टपकाने की आदत थी, वास्तव में उनके मुंह में पहुंचाया गया था, और इस "मानसिक स्राव" की जांच करने के लिए निकल पड़े, जैसा कि उन्होंने कहा था।
पावलोव की प्रयोगशाला ने प्रायोगिक जानवरों के लिए एक पूर्ण पैमाने पर केनेल को रखा। पावलोव उनकी दीर्घकालिक शारीरिक प्रक्रियाओं को देखने में रुचि रखते थे। क्रोनिक प्रयोगों के संचालन के लिए उन्हें जीवित और स्वस्थ रखने की आवश्यकता थी, जैसा कि उन्होंने उन्हें बुलाया।
ये समय के साथ प्रयोग थे, जिन्हें जानवरों के सामान्य कार्यों को समझने के लिए डिज़ाइन किया गया था।
यह एक नए प्रकार का अध्ययन था, क्योंकि पहले के प्रयोग "तीव्र" थे, जिसका अर्थ है कि कुत्ते विविसेक्शन से गुजरे, जिसने अंततः इस प्रक्रिया में जानवर को मार डाला।
एस द्वारा 1921 का लेख। । जर्नल में मोर्गुलिस विज्ञान पावलोव के काम के लिए महत्वपूर्ण था, उस पर्यावरण के बारे में चिंता पैदा करना जिसमें ये प्रयोग किए गए थे। एच से एक रिपोर्ट के आधार पर। जी। वेल्स , का दावा है कि पावलोव ने अपनी प्रयोगशाला में आलू और गाजर उगाए, लेख में कहा गया है, "यह आश्वस्त होने के लिए संतुष्टिदायक है कि प्रोफेसर पावलोव केवल एक शगल के रूप में आलू उठा रहे हैं और अभी भी वैज्ञानिक जांच के लिए अपने जीनियस का सर्वश्रेष्ठ देते हैं। "।
उसी वर्ष, पावलोव ने 'बुधवार की बैठकों' के रूप में जानी जाने वाली प्रयोगशाला बैठकें शुरू कीं, जिस पर उन्होंने मनोविज्ञान पर अपने विचारों सहित कई विषयों पर खुलकर बात की। ये बैठक 1936 में मृत्यु तक चली।
1935 में पावलोव, 1935 में मिखाइल नेस्टरोव
पावलोव को सोवियत सरकार द्वारा अत्यधिक माना गया था, और वह तब तक अपने शोध को जारी रखने में सक्षम था। काफी उम्र तक पहुंच गया। उनकी प्रशंसा लेनिन द्वारा की गई थी। सोवियत संघ सरकार से प्रशंसा के बावजूद, अपनी प्रयोगशाला का समर्थन करने के लिए जो पैसा डाला गया था, और जो सम्मान उन्हें दिया गया था, पावलोव ने अस्वीकृति को छुपाने और अवमानना करने का कोई प्रयास नहीं किया जिसके साथ उन्होंने सोवियत कम्युनिज़्म माना।
1923 में। , उन्होंने कहा कि वह रूस में शासन कर रहे सामाजिक प्रयोग के प्रकार मेंढक के हिंद पैर को भी नहीं त्यागेंगे। चार साल बाद उन्होंने स्टालिन को लिखा, जो कि रूसी बुद्धिजीवियों के साथ किया जा रहा था, उनका विरोध करते हुए कहा कि उन्हें रूसी होने पर शर्म आती है। 1934 में सर्गेई किरोव की हत्या के बाद, पावलोव ने मोलोतोव को कई पत्र लिखे, जिसमें उन व्यक्तिगत उत्पीड़न के मामलों की पुनर्विचार करने की मांग की, जो व्यक्तिगत रूप से जानते थे।>
अपने अंतिम क्षण तक, पावलोव ने अपने एक छात्र को अपने बिस्तर के पास बैठने और मरने की परिस्थितियों को रिकॉर्ड करने के लिए कहा। वह जीवन के इस टर्मिनल चरण के व्यक्तिपरक अनुभवों के अद्वितीय प्रमाण बनाना चाहते थे। पावलोव की मृत्यु 86 वर्ष की उम्र में डबल न्यूमोनिया से हुई। उन्हें एक भव्य अंतिम संस्कार दिया गया, और उनके अध्ययन और प्रयोगशाला को उनके सम्मान में एक संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया। उनकी कब्र सेंट पीटर्सबर्ग में वोल्कोवो कब्रिस्तान के साहित्यकार मोस्टकी (लेखकों के फुटवे) खंड में है।
रिफ्लेक्स सिस्टम रिसर्च★
पावलोव ने शरीर विज्ञान और तंत्रिका विज्ञान के कई क्षेत्रों में योगदान दिया। उनके अधिकांश कार्यों में स्वभाव , कंडीशनिंग और अनैच्छिक रिफ्लेक्स क्रिया शामिल थे। पावलोव ने पाचन पर प्रयोग किए और निर्देशित किए, अंततः 12 साल के शोध के बाद 1897 में द वर्क ऑफ द डाइजेस्टिव ग्लैंड्स का प्रकाशन किया। उनके प्रयोगों ने उन्हें फिजियोलॉजी और मेडिसिन में 1904 का नोबेल पुरस्कार दिया। इन प्रयोगों में जानवरों से पाचन तंत्र के शल्य निकालने वाले हिस्सों को शामिल किया गया था, ताकि वे प्रभाव को निर्धारित करने के लिए तंत्रिका बंडलों को अलग कर सकें, और अंग की सामग्री की जांच करने के लिए पाचन अंगों और बाहरी थैली के बीच फिस्टुलस प्रत्यारोपित करें। यह शोध पाचन तंत्र <पर व्यापक अनुसंधान के लिए एक आधार के रूप में कार्य करता है .
रिफ्लेक्स कार्यों पर आगे काम में तनाव और दर्द के लिए अनैच्छिक प्रतिक्रियाएं शामिल थीं।
तंत्रिका तंत्र के प्रकारों और गुणों पर शोध
पावलोव के कुत्तों में से एक शल्य चिकित्सा द्वारा प्रत्यारोपित प्रवेशनी मापने के लिए लार , संरक्षित [212]>पावलोव संग्रहालय रियाज़ान, रूस में
पावलोव हमेशा हिप्पोक्रेट्स और गैलेन द्वारा वर्णित स्वभाव के बायोमार्कर में रुचि रखते थे। उन्होंने इन बायोमार्कर को "तंत्रिका तंत्र के गुण" कहा और तीन मुख्य गुणों की पहचान की:
(1) ताकत,
(2) तंत्रिका प्रक्रियाओं की गतिशीलता और
(3) उत्तेजना और अवरोध और इन तीन गुणों के आधार पर व्युत्पन्न चार प्रकारों के बीच संतुलन। उन्होंने उस समय अध्ययन के तहत चार स्वभाव के प्रकारों की परिभाषाएँ दीं: कफ, पित्तवर्धक, संतान और मेलेन्कॉलिक, "मजबूत और अभेद्य प्रकार, मजबूत संतुलित और शांत प्रकार, मजबूत संतुलन और जीवंत प्रकार, और" नाम को अद्यतन करते हुए सबसे कमजोर प्रकार। "
पावलोव और उनके शोधकर्ताओं ने मनाया और ट्रांसमार्जिनल निषेध (टीएमआई) का अध्ययन शुरू किया, जब बिजली के झटके से भारी तनाव या दर्द के संपर्क में आने पर शरीर की प्राकृतिक प्रतिक्रिया बंद हो जाती है। इस शोध से पता चला कि कैसे सभी स्वभावों ने उत्तेजनाओं को उसी तरह जवाब दिया, लेकिन अलग-अलग स्वभाव अलग-अलग समय पर प्रतिक्रियाओं के माध्यम से चलते हैं। उन्होंने टिप्पणी की "कि सबसे बुनियादी विरासत में अंतर था ... कितनी जल्दी वे इस शटडाउन बिंदु पर पहुंच गए थे और यह कि जल्दी-से-बंद करने से तंत्रिका तंत्र का मौलिक रूप से भिन्न प्रकार होता है।"
शिक्षा पर पावलोव★
पावलोव की शास्त्रीय कंडीशनिंग की मूल बातें वर्तमान सीखने के सिद्धांतों के लिए एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के रूप में काम करती हैं। हालांकि, शास्त्रीय शरीर में रूसी फिजियोलॉजिस्ट की प्रारंभिक रुचि कुत्तों में पाचन पर उनके प्रयोगों में से एक के दौरान दुर्घटना से हुई।
यह देखते हुए कि पावलोव ने अपने कई प्रयोगों में जानवरों के साथ मिलकर काम किया, उनके प्रारंभिक योगदान मुख्य रूप से पशु सीखने के बारे में थे। हालांकि, मनुष्यों सहित कई अलग-अलग जीवों में शास्त्रीय कंडीशनिंग के मूल सिद्धांतों की जांच की गई है। पावलोव के शास्त्रीय कंडीशनिंग के बुनियादी अंतर्निहित सिद्धांतों ने कई प्रकार की सेटिंग्स को बढ़ाया है, जैसे कि कक्षाओं और सीखने के वातावरण।
शास्त्रीय कंडीशनिंग व्यवहार प्रतिक्रियाओं को बदलने के लिए पूर्ववर्ती स्थितियों का उपयोग करने पर केंद्रित है।
शास्त्रीय कंडीशनिंग के अंतर्निहित सिद्धांतों ने कक्षा में उपयोग किए जाने वाले निवारक नियंत्रण रणनीतियों को प्रभावित किया है। शास्त्रीय कंडीशनिंग वर्तमान के व्यवहार संशोधन प्रथाओं, जैसे कि एंटीकेडेंट नियंत्रण के लिए आधार निर्धारित करती है।
पूर्ववर्ती घटनाओं और स्थितियों को व्यवहार से पहले होने वाली परिस्थितियों के रूप में परिभाषित किया जाता है। पावलोव के शुरुआती प्रयोगों में घटनाओं या उत्तेजना पूर्व व्यवहार के हेरफेर (यानी, एक टोन) का इस्तेमाल किया गया था ताकि कुत्तों में लार पैदा हो सके जैसे शिक्षक सकारात्मक व्यवहार का उत्पादन करने के लिए निर्देश और सीखने के वातावरण में हेरफेर करते हैं या कुत्सित व्यवहार को कम करते हैं।
यद्यपि उन्होंने टोन को एक पूर्ववृत्त के रूप में संदर्भित नहीं किया, पावलोव पर्यावरण उत्तेजनाओं और व्यवहार प्रतिक्रियाओं के बीच संबंधों को प्रदर्शित करने वाले पहले वैज्ञानिकों में से एक थे। पावलोव ने व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किए गए एंटीक्लेडेंट्स का निर्धारण करने के लिए उत्तेजनाओं को वापस ले लिया, जो कि उन तरीकों के समान है जो शैक्षिक पेशेवरों कार्यात्मक व्यवहार आकलन का संचालन करते हैं। एंटीकेडेंट रणनीतियों को कक्षा के वातावरण के भीतर निहित करने के लिए अनुभवजन्य साक्ष्य द्वारा समर्थित किया जाता है। एंटीकेडेंट-आधारित हस्तक्षेपों को निवारक होने के लिए अनुसंधान द्वारा समर्थित किया जाता है, और समस्या के विश्लेषण में तत्काल कटौती का उत्पादन करने के लिए।
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लिगेसी
जिस अवधारणा के लिए पावलोव प्रसिद्ध है वह है "सशर्त पलटा <। 212>"(या अपने स्वयं के शब्दों में सशर्त प्रतिवर्त) उन्होंने 1901 में अपने सहायक इवान टोलोचिनोव के साथ संयुक्त रूप से विकसित किया।
वह कुत्तों के बीच लार की दर की जांच करते समय वातानुकूलित प्रतिवर्त की इस अवधारणा को जानने के लिए आए थे।
पावलोव ने सीखा था कि जब बाद के समय में एक बजर या मेट्रोनोम को आवाज दी गई थी, तो लगातार क्रम में कुत्ते को भोजन दिया जा रहा था, जब भोजन प्रस्तुत किया गया था, तो कुत्ते शुरू में नमस्कार करेंगे।
कुत्ता बाद में भोजन की प्रस्तुति के साथ ध्वनि को जोड़ता था और उस उत्तेजना की प्रस्तुति पर लार टपकाता था।
टोलोचिनोव, जिसका घटना के लिए अपना कार्यकाल "थोड़ी दूरी पर पलटा" था, ने 1903 में हेलसिंकी में प्राकृतिक विज्ञान के कांग्रेस में परिणामों का संचार किया।
बाद में उसी वर्ष पावलोव ने निष्कर्षों को पूरी तरह से समझाया।
14 वीं अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल कांग्रेस में मैड्रिड , जहां उन्होंने द एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी एंड साइकोपैथोलॉजी ऑफ एनिमल्स नामक एक पेपर पढ़ा।
जैसा कि पावलोव का काम पश्चिम में जाना जाता है, विशेष रूप से के लेखन के माध्यम से। जॉन बी। वॉटसन और बी। एफ। स्किनर , सीखने के एक स्वचालित रूप के रूप में "कंडीशनिंग" का विचार तुलनात्मक मनोविज्ञान के विकासशील विशिष्टवाद में एक महत्वपूर्ण अवधारणा बन गया, और मनोविज्ञान के सामान्य दृष्टिकोण जो इसे रेखांकित करते हैं, व्यवहारवाद ।
शास्त्रीय कंडीशनिंग के साथ पावलोव के काम का बहुत प्रभाव था कि मनुष्य खुद को कैसे अनुभव करते हैं, उनके व्यवहार और सीखने की प्रक्रिया और शास्त्रीय कंडीशनिंग के उनके अध्ययन आधुनिक व्यवहार चिकित्सा के लिए केंद्रीय हैं। ब्रिटिश दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल ने देखा कि "[डब्ल्यू] हीथर पावलोव की विधि को पूरे मानव व्यवहार को कवर करने के लिए बनाया जा सकता है, यह सवाल करने के लिए खुला है, लेकिन किसी भी दर पर यह बहुत बड़ा है" फ़ील्ड और इस क्षेत्र के भीतर उन्होंने दिखाया है कि वैज्ञानिक तरीकों को मात्रात्मक सटीकता के साथ कैसे लागू किया जाए।
सशर्त सजगता पर पावलोव के शोध ने न केवल विज्ञान, बल्कि लोकप्रिय संस्कृति को भी प्रभावित किया।
यह माना जाता है कि पावलोव ने हमेशा घंटी बजाकर भोजन की घटना का संकेत दिया। हालांकि, उनके लेखन में बिजली के झटके, सीटी , मेट्रोनॉम , ट्यूनिंग कांटे और दृश्य उत्तेजनाओं की एक श्रृंखला सहित उत्तेजनाओं की एक विस्तृत विविधता का उपयोग रिकॉर्ड है। एक घंटी की अंगूठी के अलावा।
1994 में, कैटेनिया ने संदेह व्यक्त किया कि क्या पावलोव ने वास्तव में अपने प्रयोगों में एक घंटी का उपयोग किया है। लिटमैन ने पावलोव के समकालीनों के लिए लोकप्रिय छवि को अस्थायी रूप से जिम्मेदार ठहराया व्लादिमीर मिखाइलोविच बेखटरेव और जॉन बी वाटसन। हालांकि, जॉर्जिया विश्वविद्यालय के रोजर के। थॉमस ने कहा कि उन्हें "पावलोव की घंटी के उपयोग के तीन अतिरिक्त संदर्भ मिले हैं जो लिटमैन के तर्क को दृढ़ता से चुनौती देते हैं"। जवाब में, लिटमैन ने सुझाव दिया कि कैटेनिया का स्मरण, पावलोव ने अनुसंधान में एक घंटी का उपयोग नहीं किया, "आश्वस्त ... और सही" था।
1964 में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक <187: एच। जे। ईसेनक ने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के लिए पावलोव के "लेक्चर्स ऑन कंडिशन रिफ्लेक्सेस" की समीक्षा की: वॉल्यूम I - "जानवरों के उच्च तंत्रिका गतिविधि के उद्देश्य अध्ययन के पच्चीस साल, वॉल्यूम II
-" वातानुकूलित सजगता और मनोचिकित्सा "।
पावलोव इंस्टीट्यूट ऑफ फिजियोलॉजी ऑफ द रूसी विज्ञान अकादमी की स्थापना पावलोव ने 1925 में की थी और उनका नाम उनकी मृत्यु के बाद दिया गया।
" पुरस्कार। और सम्मान
पावलोव को 1904 में भौतिक विज्ञान या चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें 1909 में रॉयल सोसाइटी (फॉरमर्स) का विदेशी सदस्य चुना गया था और था 1915 में रॉयल सोसाइटी के कोपले मेडल से सम्मानित किया गया। वह 1907 में रॉयल नीदरलैंड्स एकेडमी ऑफ आर्ट्स एंड साइंसेज का विदेशी सदस्य बन गया। पावलोव का कुत्ता , पावलोवियन सत्र और पावलोव की टाइपोलॉजी को उनके सम्मान में नामित किया गया है। क्षुद्रग्रह 1007 पावलोइया और चंद्र गड्ढा पावलोव का नाम भी उनके नाम पर रखा गया था।
व्यक्तिगत जीवन-
इवान पावलोव ने 1 मई को सेराफिल वासिलिवेना कारचेवस्काया से शादी की। 1881, जिनसे वह 1878 या 1879 में मिले थे, जब वह पेडागोगिकल इंस्टीट्यूट में अध्ययन करने के लिए सेंट पीटर्सबर्ग गए थे। सेराफिमा, जिसे शॉर्ट कहा जाता है, 1855 में पैदा हुआ था। उसके बाद के वर्षों में, वह बीमार स्वास्थ्य से पीड़ित हो गया और 1947 में उसकी मृत्यु हो गई।
उनकी शादी के पहले नौ साल वित्तीय समस्याओं से प्रभावित थे; पावलोव और उनकी पत्नी को अक्सर घर में रहने के लिए दूसरों के साथ रहना पड़ता था, और एक समय के लिए दोनों अलग रहते थे ताकि उन्हें आतिथ्य मिल सके। यद्यपि उनकी गरीबी ने निराशा पैदा की, लेकिन भौतिक कल्याण एक माध्यमिक विचार था। सारा की पहली गर्भावस्था एक गर्भपात में समाप्त हुई। जब उसने फिर से गर्भ धारण किया, तो दंपति ने सावधानी बरती, और उसने सुरक्षित रूप से अपने पहले बच्चे को जन्म दिया, एक लड़का जिसे उन्होंने मिरिक नाम दिया; बचपन में मिरचिक की अचानक मृत्यु के बाद सारा काफी उदास हो गई थी।
इवान और सारा के आखिरकार चार और बच्चे हुए: व्लादिमीर, विक्टर, विसेवोलॉड और वेरा। उनके सबसे छोटे बेटे, वासेवोलॉड का पिता के केवल एक साल पहले 1935 में अग्नाशयी कैंसर का निधन हो गया। पावलोव एक नास्तिक था।
जॉन डीवी का जन्म 1859 में संयुक्त राज्य अमेरिका में बर्लिंगटन में हुआ था। विद्यालयी शिक्षा बर्लिंगटन के सरकारी विद्यालयों में हुआ। इसके उपरांत जॉन डीवी वर्मोन्ट विश्वविद्यालय में अध्ययन किया । जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय से उन्हें PHD की उपाधि मिली। जॉन डीवी मिनीसोटा विश्वविद्यालय (1888-89), मिशीगन विश्वविद्यालय (1889-94), शिकागो विश्वविद्यालय (1894-1904) में दर्शनशास्त्र पढ़ाया। 1904 में वे कोलम्बिया में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और तीस वर्षों तक वे इस पद पर रहें।
डीवी की महानतम रचना डेमोक्रेसी एण्ड एडुकेशन (1916) है जिसमें उन्होंने अपने दर्शन के विभिन्न पक्षों को एक केन्द्र बिन्दु तक पहुँचाया तथा उन सबका एकमात्र उद्देश्य उन्होंने ‘बेहतर पीढ़ी का निर्माण करना’ रखा है।
प्रत्येक प्रगतिशील अध्यापक ने उनका बौद्धिक नेतृत्व स्वीकार किया।
अमेरिका का शायद ही कोई विद्यालय हो जो डीवी के विचारो से प्रभावित न हुआ हो। उनका कार्यक्षेत्र वस्तुत: सम्पूर्ण विश्व था।
1919 में उन्होंने जापान का दौरा किया तथा अगले दो वर्ष (मई 1919 से जुलाई 1921) चीन में बिताये- जहाँ वे अध्यापकों एवं छात्रों को शिक्षा में सुधार हेतु लगातार सम्बोधित करते रहे। उन्होंने तुर्की की सरकार को राष्ट्रीय विद्यालयों के पुनर्गठन हेतु महत्वपूर्ण सुझाव दिया।
इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व में प्रगतिशील शिक्षा आन्दोलन को चलाने में डीवी की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
जॉन डीवी की शिक्षा संबंधी रचनाएं
जॉन डीवी ने पुस्तकों, शोध पत्रों एवं निबन्धों की रचना की।
उनके अनेक कार्य दर्शन से सम्बन्धित है -
दि स्कूल एण्ड सोसाइटी 1899
दि चाइल्ड एण्ड दि क्यूरीकुलम 1902
हाउ वी थिन्क 1910
इन्ट्रेस्ट एण्ड एर्फट इन एडुकेशन 1913
स्कूल्स ऑफ टूमॉरो 1915
डेमोक्रेसी एण्ड एडुकेशन 1916
ह्यूमन नेचर एण्ड कन्डक्ट 1922
इक्सपीरियन्स एण्ड नेचर 1925
दि क्वेस्ट फॉर सर्टेन्टि: स्टडी ऑफ रिलेशन ऑफ नॉलेज एण्ड एक्शन 1929
सोर्सेज ऑफ साइन्स एडुकेशन 1929
डीवी का शिक्षा दर्शन
जॉन डिवी आधुनिक युग का एक महान दार्शनिक, शिक्षाविद तथा विचारक है। जॉन डिवी की शिक्षा की अवधारणा व्यवहारवादी दर्शन पर आधारित है।
डिवी का मानना था कि ज्ञान कार्य का परिणामी होता है। उनके अनुसार, परिवर्तन विश्व की वास्तविकता है।
शिक्षा को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा, “शिक्षा अनुभवों की सतत् पुनर्संरचना है।” शिक्षा के प्रति उसकी मुख्य अवधारणा उसकी पुस्तक जैसे “डेमोक्रेसी एण्ड एजुकेशन” (1916), “लॉजिक” (1938) तथा “एक्सपेरियन्स एंड एजुकेशन” (1938) में लिखी गई है। उनके अनुसार, “सत्य एक उपकरण है जिसका उपयोग मनुष्य द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए किया जाता है”, जब समस्याएँ बदलती हैं, सत्य बदलता है तथा शाश्वत सत्य नहीं हो सकता है।
डिवी के अनुसार, परिवर्तन शिक्षा का मौलिक सिद्धान्त है।
सत्य व्यक्ति के अनुसार परिवर्तित होता है। अत: व्यक्ति कार्यों एवं प्रयोगों के परिणाम के आधार पर सिद्धान्त को विकसित करता हैं शिक्षा का मुख्य लक्ष्य बच्चे को अपने अनुभवों से जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए सक्षम बनाना है। शिक्षा का लक्ष्य मानव जीवन को समृद्ध एवं सुखी बनाना है।
अत: जान डिवी को व्यवहारवादी विचारक कहा जाता है।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य, उनके कार्यों में शिक्षा के उद्देश्य स्पष्टत: दिखते हैं-
बच्चे का विकास- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है बच्चे की शक्ति एवं क्षमता का विकास।
प्रत्येक बच्चे की अपनी विशेष क्षमता होती है एक ही प्रकार के विकास का सिद्धान्त लागू करना व्यर्थ है क्योंकि एक बच्चे का विकास दूसरे से अलग होता है।
बच्चे की क्षमता के अनुरूप अध्यापक को विकास को दिशा देनी चाहिए।
प्रजातांत्रिक व्यक्ति एवं समाज का सृजन- प्रयोजनवादी शिक्षा का लक्ष्य है व्यक्ति में प्रजातांत्रिक मूल्य एवं आदर्श को भरना, प्रजातांत्रिक समाज की रचना करना जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता न हो।
प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र हो तथा एक दूसरे का सहयोग करने को तत्पर रहे।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा पूरी करने तथा क्षमता का विकास करने का अवसर मिले।
व्यक्तियों के मध्य समानता होनी चाहिए।
भावी जीवन की तैयारी- प्रयोजनवादी शिक्षा वस्तुत: इस अर्थ में उपयोगी है कि यह व्यक्ति को भावी जीवन हेतु तैयार करता है ताकि वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर आत्मसंतोष प्राप्त कर सके। भावी जीवन की शिक्षा व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन हेतु तैयारी करती है।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया
डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया के दो पक्ष हैं- मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक।
मनोवैज्ञानिक पक्ष- बच्चे की रूचि एवं क्षमता के अनुसार पाठ्यचर्या एवं शिक्षण विधि निर्धारित किए जाने चाहिए। बच्चे की रूचि को जानने के उपरांत शिक्षा दी जानी चाहिए।
तथा इनका उपयोग विभिन्न स्तरों पर शिक्षा की पाठ्यचर्चा के निर्धारण में किया जाना चाहिए।
सामाजिक पक्ष- शिक्षा की शुरूआत व्यक्ति द्वारा जाति की सामूहिक चेतना में भाग लेने से होती है। अत: विद्यालय का ऐसा वातावरण होना चाहिए कि बच्चा समूह की सामाजिक चेतना में भाग ले सके। यह उसके व्यवहार में सुधार लाता है और व्यक्तित्व तथा क्षमता में विकास कर उसकी सामाजिक कुशलता बढ़ाता है।
जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा प्रक्रिया के सिद्धान्त -
डीवी ने पाठ्यचर्चा की संरचना के लिए चार सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया:
पाठ्यक्रम को उपयोगिता पर आधारित होनी चाहिए- अर्थात् पाठ्यचर्चा बच्चे के विकास के विभिन्न सोपानों में उसकी रूचि एवं रूझान पर आधारित होना चाहिए।
बच्चों में चार प्रमुख रूचि देखी जा सकती हैं- बात करने की इच्छा तथा विचारों का आदान-प्रदान, खोज, रचना तथा कलात्मक अभिव्यक्ति। पाठ्यचर्चा इन चार तत्वों द्वारा निर्धारित होने चाहिए तथा पढ़ना, लिखना, गिनना, मानवीय कौशल, संगीत एवं अन्य कलाओं का अध्यापन करना चाहिए। सारे विषयों को एक साथ नहीं वरन् जब मानसिक विकास के विशेष स्तर पर इसकी आवश्यकता एवं इच्छा जाहिर हो तब पढ़ाया जाना चाहिए। ।
पाठ्यचर्चा लचीली होनी चाहिए। ताकि बच्चे की रूचि या रूझान में परिवर्तन को समायोजित किया जा सके
पाठ्यचर्चा को बच्चे के तत्कालिक अनुभवों से जुड़ा होना चाहिए।
जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चा में उन्हीं विषयों को रखा जाये जो बच्चे के तत्कालीन विकास की स्थिति में उसके जीवन की प्रक्रिया से जुड़ा है। डीवी वर्तमान में ज्ञान को विभिन्न विषयों में बाँटकर पढ़ाये जाने की विधि के कटु आलोचक थे क्योंकि उनकी दृष्टि में ऐसा विभाजन अप्राकृतिक है। जहाँ तक संभव हो पाठ्यचर्चा के सभी विषय सम्बन्धित या एकीकश्त हो।
शिक्षण विधि
जॉन डीवी अपनी शिक्षण विधि में निम्न पक्षों पर जोर दिया।
कर के सीखना- अगर बच्चा स्वयं कर के कोर्इ विषय सीखता है तो वह सीखना अधिक प्रभावशाली होता है। अध्यापक को यह नहीं चाहिए कि जीवन भर जितनी सूचनाओं को उसने संग्रहित किया है वह छात्र के मस्तिष्क में जबरन डाले। वरन् अध्यापक ऐसी परिस्थिति का निर्माण करे कि छात्र स्वयं प्राकृतिक क्षमता एवं गुणों का विकास करने में समर्थ हो।
एकीकरण- बच्चे के जीवन, उसकी क्रियाओं एवं पढ़े जाने वाले विषयों (विषय वस्तु) में ऐक्य हो। सभी विषयों को उसकी क्रियाओं के इर्द-गिर्द- जिससे कि बच्चे अभ्यस्त हैं पढ़ाया जाना चाहिए। _____________
बाल केन्द्रित पद्धति- बच्चे की रूचि के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए।
योजना पद्धति- डीवी के विचारों के आधार पर बाद में योजना पद्धति का विकास हुआ जिससे छात्रों में उत्साह, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, सहयोग तथा सामाजिक भाव का विकास का होता है।
शिक्षक का दायित्व
विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण करें जिससे बच्चे का सामाजिक व्यक्तित्व विकसित हो सके ताकि वह एक उत्तरदायी, प्रजातांत्रिक नागरिक बन सके। शिक्षक का व्यक्तित्व एवं कार्य प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों एवं शिक्षा मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिए। विद्यालय में समानता एवं स्वतंत्रता का महत्व समझाने हेतु अध्यापक को, अपने को विद्यार्थियों से श्रेष्ठ नहीं मानना चाहिए। उसे अपने विचारों, रूचियों एवं प्रकृतियों को विद्यार्थियों पर नहीं लादना चाहिए। उसे बच्चों की रूचियों एवं व्यक्तित्व की विशेषताओं को देखते हुए पाठ्यचर्चा का निर्धारण करना चाहिए। अत: अध्यापक को लगातार बच्चों की भिन्नता का ध्यान रखना चाहिए। अध्यापक बच्चों को ऐसे कार्यों मे लगाए जो उसे सोचने और निदान ढ़ूँढ़ने के लिए प्रेरित करे।
अनुशासन -★
अगर बच्चें ऊपर वर्णित योजना के अनुसार कार्य करें तो विद्यालय में अनुशासन बनी रहती है। कठिनार्इ तब होती है जब बाह्य शक्तियों द्वारा बच्चों को अपनी प्राकृतिक इच्छाओं को प्रकट करने से रोका जाय। बच्चों को ऐसा सामाजिक वातावरण दिया जाना चाहिए जिससे उसमें आत्मअनुशासन की भावना का विकास हो सके ताकि वास्तव में वह एक सामाजिक प्राणी बन सके। शांत वातावरण अच्छे और शीघ्र कार्य के लिए आवश्यक है, पर शांति एक साधन है, साध्य नहीं।
बच्चे आपस में झगड़े नहीं पर इसके लिए बच्चों को डाँटना या दंडित करना उचित नहीं है वरन् दायित्व की भावना का विकास कर उसमें अनुशासन का विकास हो सके। इसके लिए अध्यापक को स्वयं उत्तरदायित्व पूर्ण व्यवहार करना होगा।
सामाजिक कार्यों में सहभागिता शैक्षिक प्रशिक्षण का एक अनिवार्य हिस्सा है। विद्यालय स्वयं एक लघु समाज है। अगर बच्चा विद्यालय के सामाजिक कार्यों में भाग लेता है तो भविष्य में वह सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों में भाग लेने के लिए प्रशिक्षित हो जायेगा। इस तरह से एक प्रौढ़ के रूप में वह एक अनुशासित जीवन जीने का अभ्यस्त हो जायेगा।
जॉन डीवी के विचारों की आलोचना
डीवी के विचारों को शिक्षा जगत में उत्साह के साथ स्वीकार किया गया परन्तु साथ ही साथ उसकी आलोचना भी की गई। आलोचना के आधार थे-
सत्य को स्थायी न मानने में कठिनाई- डीवी सत्य को समय एवं स्थान के सापेक्ष परिवर्तनशील मानते हैं। डीवी के अनुसार कोई भी दर्शन सर्वदा सही या सत्य नहीं हो सकता। कुछ विशेष स्थितियों में ही इसकी उपयोगिता होती है। उपयोगिता ही सत्य की अंतिम कसौटी है।
भौतिकवादी आग्रह- आदर्शवादी दर्शन के विरोध में विकसित होने के कारण आदर्शवदियों आध्यात्मिक आग्रह के विपरीत इनमें भौतिकता के प्रति आग्रह है।
शिक्षा के किसी भी उद्देश्य की कमी- शिक्षा के द्वारा प्रजातांत्रिक आदर्श की प्राप्ति का उद्देश्य डीवी के शिक्षा सिद्धान्त में अन्तर्निहित है पर वह शिक्षा का कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं बताता है। उसके लिए शिक्षा स्वयं जीवन है तथा इसके लिए कोई उद्देश्य निर्धारित करना संभव नहीं है। अधिकांश विद्वान इससे असहमत है। उनके मत में शिक्षा का विकास तभी हो सकता है जब उसका कुछ निश्चित लक्ष्य एवं उद्देश्य हो।
बच्चे को विद्यालय भेजने का कुछ निश्चित उद्देश्य होता है। यद्यपि विद्यालय कई अर्थों मे समाज के मध्य इसका एक अलग अस्तित्व है।
व्यक्तिगत भिन्नता पर अत्यधिक जोर- आधुनिक दृष्टिकोण बच्चे की भिन्नता को शिक्षा देने में अत्यधिक महत्वपूर्ण मानता है। बच्चे को उसकी रूचि एवं झुकाव के अनुसार शिक्षा देनी चाहिए। पाठ्यक्रम तथा विधियाँ इसे ध्यान में रखकर तय की जाये। सिद्धान्तत: यह बात बिल्कुल सही प्रतीत होती है पर वास्तविक स्थिति में इसे लागू करने पर कई कठिनाईयाँ सामने आती है।
यह लगभग असंभव है कि हर बच्चे के लिए अलग-अगल शिक्षा योजना बनाई जाये। किसी विषय में किसी बच्चे की रूचि बिल्कुल नहीं हो सकती है, फिर भी अध्यापक को पढ़ाना पड़ता है।
डीवी का आधुनिक शिक्षा पर प्रभाव
डीवी के विचारों का आधुनिक शिक्षा पर व्यापक प्रभाव है। आधुनिक शिक्षा पर डीवी के प्रभाव को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है -
शिक्षा के उद्देश्य पर प्रभाव- सामाजिक गुणों का विकास भी डीवी के कारण शिक्षा में महत्वपूर्ण माना जाने लगा।
शिक्षण विधि पर प्रभाव- आधुनिक शिक्षण विधि पर डीवी के विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा। शिक्षा बच्चे के अनुभव पर आधारित होनी चाहिए। बच्चे की क्षमता, रूचि एवं रूझान के अनुसार शिक्षण विधि बदलनी चाहिए। इन विचारों ने आधुनिक शिक्षण विधि को प्रभावित किया। ‘एक्टीविटी स्कूल’ इसी का परिणाम है। प्रोजेक्ट विधि भी डीवी के विचारों का ही फल है। दूसरे विद्यालयों में भी बच्चे के मनोविज्ञान पर ध्यान दिया जाने लगा। साथ ही बच्चों में सामाजिक चेतना के विकास का भी प्रयास किया जाता है।
पाठ्यचर्चा पर प्रभाव- डीवी क अनुसार मानव श्रम को पाठ्यचर्चा में स्थान दिया जाना चाहिए। यह शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पक्ष बन गया। विभिन्न तरह के खेलों, वस्तुओं, विभिन्न उपकरणों के उपयोग पर आज अधिक जोर दिया जाता है। पढ़ाये जाने हेतु विषयों के चलन में भी बच्चे की रूचि एवं क्षमता पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
अनुशासन पर प्रभाव- आज बच्चों को विद्यालय में अधिक से अधिक जिम्मेदारियाँ सौपी जाती हैं ताकि उनमें आत्म नियंत्रण और प्रजातांत्रिक नागरिकता के गुणों का विकास हो सके।
सार्वजनिक शिक्षा- डीवी के आदर्शों एवं विचारों ने सार्वजनिक एवं अनिवार्य शिक्षा की माँग को बल प्रदान किया।
हर व्यक्ति को शिक्षा के द्वारा अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर मिलना चाहिए। इस सिद्धान्त को सर्वत्र मान्यता मिल गयी।
थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत- ( Tharndikes’s Theory of Learning ) थार्नडाइक ने विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये जिनमें से थार्नडाइक का बिल्ली के प्रयोग काफी प्रचलित हैं।
अनुक्रम
थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत ( Tharndike Theory
प्रयास और त्रुटि का सिद्धांत, S-R Theory in , थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत, थार्नडाइक का प्रयास और त्रुटि का सिद्धांत, थार्नडाइक का बिल्ली पर प्रयोग,थार्नडाइक का सम्बन्धवाद का सिद्धांत,Tharndike ka sikhne ka sidhant
थार्नडाइक के सीखने का सिद्धांत का अर्थ
थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों द्वारा यह बताया कि यदि कोई भी किसी कार्य को करता हैं।
तो उसके समक्ष एक विशेष प्रकार की स्तिथि या उद्दीपक होता हैं।
वह उद्दीपक किसी विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया करने के लिए हमे प्रेरित करता हैं।
ऐसे में एक विशिष्ट उद्दीपक का विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं।
जिसे S-R bond द्वारा व्यक्त किया जाता हैं। इसके सम्बद्ध के पश्चात यदि कोई व्यक्ति किसी उद्दीपक का अनुभव करता हैं।
तो उससे सम्बन्धित विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है।
थार्नडाइक का सम्बन्धवाद ( Thorndike’s connectionism)
सम्बन्धवाद का सिद्धान्त( connectionist theory)
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उद्दीपन प्रतिक्रिया सिद्धान्त( stimulus – responce (S-R) theory
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सीखने का सम्बंध सिद्धान्त(bond theory of learning)
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प्रयत्न और भूल का सिद्धांत(trial and error learning)
थार्नडाइक के सीखने का सिद्धांत का प्रयोग Experiment of thorndike)
थार्नडाइक ने प्रयास एवम त्रुटि के सिद्धांत के जनक के रूप में विभिन्न प्रकार के प्रयोग किये।
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उनमे से एक भूखी बिल्ली को पिजड़े में बंद करने का प्रयोग भी काफी प्रचलित हैं।
इस प्रयोग में एक भूखी बिल्ली हैं।
जो पिजड़े में बंद है।
पिजड़े के बाहर एक मछली का टुकड़ा रखा हुआ हैं।
उस मछली के टुकड़े को प्राप्त करने के लिए बिल्ली अनेक प्रकार के प्रयास करती हैं।
अंत मे बिल्ली पिजड़े को खोलकर मछली के टुकड़े को पाने में सफल हो जाता हैं।
इस सिद्धान्त के अंतर्गत हमारे द्वारा की जाने वाली आन्तरिक क्रिया सम्बन्धित हैं।
जैसे – बालक का चलना सीखना, जूते पहनना, चम्मच से खाना, आदि क्रियाएं हैं।
बड़े होने पर वही बालक धीरे धीरे गाड़ी चलाना, क्रिकेट खेलना आदि चीजे सीखता हैं।
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स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त
पावलव का क्लासिकल अनुबन्धन का सिद्धांत
थार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत के महत्वपूर्ण तथ्य
थार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत के महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं।
प्रारंभ में अनेकों लक्ष्यहीन क्रियाओं को करना ।
प्रेरणा द्वारा प्रयत्नों में तेजी लाना ।
आकस्मिक सफलता प्राप्त करना ।
अभ्यास का प्रभाव ।
संवेदना और प्रतिचार में संबंध का ज्ञान।
सही प्रतिचारों का चुनाव करना ।
गलत प्रतिचारों को भूलना।
थार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत का शिक्षा में महत्व (educatinal implication of this theory)
थार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत का शिक्षा में महत्व निम्नलिखित हैं।
छात्र प्रोत्साहन – इस सिद्धान्त से यह पता चलता हैं कि बालक को किसी कार्य को सीखने के लिए प्रेरणा, लक्ष्य, उद्देश्य का होना आवश्यक हैं। अतः प्रयास एवम त्रुटि द्वारा कि छात्र प्रोत्साहित होते है।
अभ्यास पर बल – यह सिद्धांत छात्रों को अभ्यास पर बल देने के लिए प्रेरित करता हैं।
समस्या समाधान – बालको को अनेक प्रकार की समस्यायों का सामना करना पड़ता हैं।
चिंन्तन शक्ति का विकास – इस सिद्धान्त के द्वारा बच्चो का मस्तिष्क हमेशा चलता रहता हैं। और चिंन्तन के द्वारा ही वह अनेक प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करता हैं।
थार्नडाइक के सिद्धांत की आलोचना (Criticism of tharndike theory )
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जॉन बी वॉटसन , रूप से पूर्ण जॉन ब्रॉडस वॉटसन , (जन्म 9 जनवरी, 1878, ट्रैवलर्स रेस्ट, ग्रीनविले के पास , दक्षिण कैरोलिना , अमेरिका-मृत्यु सितंबर 25, 1958, न्यूयॉर्क , न्यूयॉर्क), अमेरिकी मनोवैज्ञानिक जिन्होंने संहिताबद्ध और प्रचारित किया व्यवहारवादी , मनोवैज्ञानिक के दृष्टिकोण , विचार में एक बीच, मानव व्यवहार के संकल्प, समाधान की सलाह दी । 1920 और 30 के दशक के राज्य अमेरिका में वाट्सएपियन व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिक बने ।
वैटसन ने.डी. जलवायु (1903 विश्वविद्यालय ) में , स्थिर। 1908 में वे टेटट्स विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक रोग विशेषज्ञ के रूप में विकसित होते हैं । उन्होंने व्यवहारवादी मनोविज्ञान पर अपना पहला बयान युग-निर्माण लेख "साइकोलॉजी एज़ ए बिहेवियरिस्ट व्यूज़ इट" (1913) में व्यक्त किया, यह दावा करते हुए कि मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है, जिसका पशु व्यवहार की तरह , सटीक प्रयोगशाला स्थितियों के तहत अध्ययन जाना चाहिए।
मेग मुख्य मुख्य काम, व्यवहार: मनोवैज्ञानिक का एक अंतर्दृष्टि , 1914 में इसे ठीक किया गया। उन्होंने मनोवैज्ञानिक अध्ययन में पशु इसमें विषयों के उपयोग के लिए जोरदार तर्क दिया और वृत्ति को आनुवंशिकता करें द्वारा सक्रिय प्रतिबिंबों की एक श्रृंखला के रूप में वर्णित किया ।
विज्ञापित भीआदर्श व्यवहार उपकरण के रूप में लागू किया गया ।
1918 में वैटिटकसन ने गर्भावस्था के दौरान संतुलित सुधार किया।
अपने क्लास में सामाजिक में - और मनोवैज्ञानिक के एक में एक में - 11 के अनाथ मित्र "लिटिल कीट" में और अन्य समान होंगे।
(1919), उन्होंने जिसमें मानव के अध्ययन के लिए तुलनात्मक मनोविज्ञान के सिद्धांतों और विधियों का विस्तार करने की मांग की और अनुसंधान में कंडीशनिंग के उपयोग की कट्टर वकालत की ।
मनोवैज्ञानिक से ऐतिहासिक समय समाप्त हो गया। 1920 में, वैट से तलाक के बाद के वार के लिए, वैटसन ने टाट्स से डटकर्स दे दिया। 1921 में विज्ञापन व्यवसाय में प्रवेश किया।
वटसन की किताब पाठक के लिए सामान्य व्यवहारवाद (1925) को पेशेवर मनोविज्ञान में प्रवेश करने के लिए दिलचस्प कई का श्रेय दिया जाता है ।
के बाद के पुनर्वास के लिए मरम्मत और बाल (1928) और के अनुसार (1930) व्यावहारिकता , वाट्सएप ने स्वयं को विशेष रूप से रोजगार के लिए 1946 में तैयार किया।
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत, मनुष्य के जीवन में होने वाले बदलावों और विकास को बताता।
जीन प्याज़े द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्याज़े का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।
व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है।
तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।
जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है।
पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है।चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त (STAGE THEORY ) भी कहा जाता हैै
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
(१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष
(२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
(३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष
(४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 12से 15 वर्ष
संवेदी पेशीय अवस्था
जन्म के 2 वर्ष
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है।
बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं।
इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसों एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।
उन्होंने इस अवस्था को छः उपवस्थाओं मे बांटा है :
1- सहज क्रियाओं की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक)
2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 1 माह से 4 माह)
3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 4 माह से 8 माह)
4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था ( 8 माह से 12 माह )
5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 12 माह से 18 माह )
6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था ( 18 माह से 24 माह )
पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था -★
इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र-निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है।
धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुकरणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणों मे परिपक्वता आ जाती है। इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है।
(क) पूर्व सम्प्रत्यात्मक काल (Pre–conceptional या Symbolic function substage ; 2-4 वर्ष) : पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। बालक संकेत तथा चिह्न को मस्तिष्क में ग्रहण करते हैं। बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझते हैं।आत्मकेंद्रित हो जाता है बालक।
संकेतों एवं भाषा का विकास तेज होने लगता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है।
छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है।
दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है।
(ख) अंतःप्रज्ञक काल (Intuitive thought substage ; 4-7 वर्ष) : बालक छोटी छोटी गणनाओं जैसे जोड़-घटाना आदि सीख लेता है।
इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारम्भ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है।
इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था, किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है।
संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है|
औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था
यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-
तार्किक चिन्तन की क्षमता का विकास
समस्या समाधान की क्षमता का विकास
वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
विसंगतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास
जीन पियाजे ने इस अवस्था को अन्तर्ज्ञान कहा है
संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना---
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन।
संगठन से तात्पर्य बुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है।
उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है।
वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है।
संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।
स्किनर, ग्रेस और विलियम स्किनर को सुसक्वाहाना, पेंसिल्वेनिया में जन्मे थे। उनके पिता एक वकील थे। उन के भाई का १६ साल कि उम्र मे मस्तिष्क रक्तश्राव के वजह से निधन हो गया। लेखक बनने के इरादे से उनहोंने न्यूयार्क के हैमिलटन कालेज में दाखला ली। १९२६ में अंग्रेज़ीसाहित्य में बी ए हासिल करने पर वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय गये जहाँ वे अनुसंधानिक, शिक्षक और आखिर में प्रतिष्ठित बोर्ड के सदस्य बने। हार्वर्ड में उन के सहपाठी फ्रेड केलर ने उन्हे व्यवाहार के अध्ययन से एक प्रयोगिक विज्ञान बनाने का प्रोत्साहन दिया। इस की बदौलत उनका स्किनर बाक्स का अविष्कार किया और केलर के साथ मिल के छोटे प्रयोगोंके लिये उपकरणों का निर्माण किया।
बी वाटसन् के व्यवहारिक्ता से परिचित होने पर उनहोंने मनोविज्ञान का अध्यायन शुरू किया और व्यवहारिक्ता पर अपना संस्करण विकसित किया।
स्किनर ने १९३१ मे हार्वर्ड से पी एच डी हासिल की और १९३६ तक शोधकरता के रूप मे वहां रहे।
फिर वे मिनेपोलिस मे मिनेसोटा विश्वविध्यालय और फिर ईनडिआना विश्वविध्यालय मे पढाने लगे जहां वे मनोविज्ञन विभाग के अध्यक्ष थे और १९४८ मे हार्वर्ड् वापस लौट आये।
१९३६ मे उन की विवाह युवान ब्लू से हुई और उन के दो बेटियाँ हुई।
अगस्त १९९० मे लुकेमिया से उन कि मौत हुई। अपने मृत्यु के कुछ दिन पहले तक भी वे काम करते रहे। अमेरिकन साईकोलोगिकल एसोसिएशन द्वारा उनहे लैफटैम अचीवमेंट पुरस्कार दिया गया वहां अपने काम के विशय मे १५ मिनिट का भाशण भी दिया।
मानव व्यवहार का अध्ययन करने के लिये वैज्ञानिक द्र्ष्टिकोण लाने के लिए सम्मानित किये गये हैं।
मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के लिए योगदान-
स्किनर ने व्यवहार के अध्यायन के अपने द्रष्टिकोण को कट्टरपंथी व्यवहारिकता कहा है। व्यवहार विज्ञान दर्शन का मानना है कि व्यवहार, सुदृढीकरण के परयावरिण इतिहास का परिणाम है।
पद्धति व्यवहार के विपरित,स्किनर के कट्टरपंथी व्यवहारवाद विचारों,भावनाओं और निजी घटनाओं के खुले व्यवहार के नियमों को प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया-।
सुदृढीकरण-
सुदृढीकरण, व्यवहारिकता का एक महत्वपूर्ण अवधारण,व्यवहार को आकार और नियंत्रित करने का प्राथमिक प्रक्रीया है और दो तरीके से होता है,'सकारात्मक' और 'नकारात्मक। बिहेव्यर एफ ओरगेनिसम्स में स्किनर ने यह परिभाषित किया है की नकारात्मक सिदृढीकरण सज़ा है। किसी घटना के घटने से व्यवहार का मज़बूत होना सकारात्मक सिदृढीकरण है( जैसे किसी अच्छे व्यवहार पर प्रशंसा पाना)।
ज्ञानात्मक योग्यताओं की जाँच करने के लिए एक प्रशन का उदाहरण: प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ व्यक्तिगत गुण, योग्यताएँ होतीं हैं जिनमें से कुछ पूर्वनिर्मित होतीं हैं और कुछ का विकास सीखकर किया जाता है।
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में स्किनर ने लिखा है कि शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में वह सभी ज्ञान तथा प्रविधियाँ (तक्नीकें) से सम्बंधित है जो सीखने की प्रक्रिया को अच्छी प्रकार से समझाने तथा अधिक निपुणता से निर्धारित करने से सम्बंधित हैं।
आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञानिकों के अनुसार शिक्षा मनोविज्ञान के प्रमुख क्षेत्र निम्न प्रकार है-
शिक्षा की महत्वपूर्ण समस्याओं के समाधान में मनोविज्ञान सहायक होता है और यही सब समस्याएं व उनका समाधान शिक्षा मनोविज्ञान का कार्यक्षेत्र बनते हैं -
(१) शिक्षा कौन दे, अर्थात् शिक्षक कैसा हो? मनोविज्ञान शिक्षक को अपने छात्रों को समझने में सहायता प्रदान करता है साथ ही यह भी बताता है कि शिक्षक को छात्रों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। शिक्षक का व्यवहार पक्षपात रहित हो। उसमें सहनशीलता, धैर्य व अर्जनात्मक शक्ति होनी चाहिए।
(२) विकास की विशेषताएं समझने में सहायता देता है। प्रत्येक छात्र विकास की कुछ निश्चित अवस्थाओं से गुजरता है जैसे शैशवास्था (0-2 वर्ष) बाल्यावस्था (3-12 वर्ष) किशोरावस्था (13-18 वर्ष) प्रौढ़ावस्था (18-21 वर्ष)। विकास की दृष्टि से इन अवस्थाओं की विशिष्ट विशेषताएं होती हैं।
यदि शिक्षक इन विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताओं से परिचित होता है वह अपने छात्रों को भली प्रकार समझ सकता है और छात्रों को उसी प्रकार निर्देशन देकर उनको लक्ष्य प्राप्ति में सहायता कर सकता है।
(३) शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान शिक्षक को सीखने की प्रक्रिया से परिचित कराता है। ऐसा देखा जाता है कि कुछ शिक्षक कक्षा में पढ़ाते समय अधिक सफल साबित होते हैं तथा कुछ अपने विषय पर अच्छा ज्ञान होने पर भी कक्षा शिक्षण में असफल होते हैं। प्रभावपूर्ण ढंग से शिक्षण करने के लिए शिक्षक को सीखने के विभिन्न सिद्धान्तों का ज्ञान, सीखने की समस्याओं एवं सीखने को प्रभावित करने वाले कारणों और उनको दूर करने के उपायों की जानकारी होनी चाहिए। तभी वह छात्रों को सीखने के लिए प्रेरित कर सकता है।
(४) शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्तिगत भिन्नता का ज्ञान कराता है। संसार के कोई भी दो व्यक्ति बिल्कुल एक से नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति अपने में विशिष्ट व्यक्ति है। एक कक्षा में शिक्षक को 30 से लेकर 50 छात्रों को पढ़ाना होता है जिनमें अत्यधिक व्यक्तिगत भिन्नता होती है। यदि शिक्षक को इस बात का ज्ञान हो जाए तो वह अपना शिक्षण सम्पूर्ण छात्रों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला बना सकता है।
(५) व्यक्ति के विकास पर वंशानुक्रम एवं वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है, यह मनोविज्ञान बताता है। वंशानुक्रम किसी भी गुण की सीमा निर्धारित करता है और वातावरण उस गुण का विकास उसी सीमा तक करता है। अच्छा वातावरण भी गुण को उस सीमा के आगे विकसित नहीं कर सकता।
(६) पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता - विभिन्न स्तरों के छात्रों के लिए पाठ्यक्रम बनाते समय मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त सहायता पहुंचाते हैं। छात्रों की आवश्यकताओं, उनके विकास की विशेषताओं, सीखने के तरीके व समाज की आवश्यकताएं - यह सब पाठ्यक्रम में परिलक्षित होनी चाहिए। पाठ्यक्रम में व्यक्ति व समाज दोनों की आवश्यकताओं को सम्मिश्रित रूप में रखना चाहिए।
(७) मनोविज्ञान विशिष्ट बालकों की समस्याओं एवं आवश्यकताओं का ज्ञान शिक्षक को देता है जिससे शिक्षक इन बच्चों को अपनी कक्षा में पहचान सकें। उनको आवश्यकतानुसार मदद कर सकें। उनके लिए विशेष कक्षाओं का आयोजन कर सकें व परामर्श दे सकें।
(८) मानसिक स्वास्थ्य का ज्ञान भी शिक्षक के लिए लाभकारी होता है। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षणों को पहचानना तथा ऐसा प्रयास करना कि उनकी इस स्वस्थता को बनाए रखा जा सके।
(९) मापन व मूल्यांकन के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का ज्ञान भी मनोविज्ञान से मिलता है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली से उत्पन्न छात्रों में डर, चिन्ता, नकारात्मक प्रवृत्ति जैसे आत्महत्या करने से छात्रों के व्यक्तित्व का विघटन साथ ही समाज का भी विघटन होता है। अतः सीखने के परिणामों का उचित मूल्यांकन करना तथा उपचारात्मक शिक्षण देना शिक्षक का ध्येय होना चाहिए।
(१०) शिक्षा मनोविज्ञान समूह गतिकी (ग्रुप डायनेमिक्स) का ज्ञान कराता है। वास्तव में शिक्षक एक अच्छा पथ-प्रदर्शक, निर्देशक व कुशल नेता होता है। समूह गतिकी के ज्ञान से वह कक्षा रूपी समूह को भली प्रकार संचालित कर सकता है और छात्रों के सर्वांगीण विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दे सकता है।
(११) शिक्षा मनोविज्ञान बच्चों को शिक्षित करने सम्बन्धी विभिन्न विधियों के बारे में अध्ययन करता है और खोज करता है कि विभिन्न विषयों जैसे गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, भाषा, साहित्य को सीखने से सम्बन्धित सामान्य सिद्धान्त क्या हैं।
(१२) शिक्षा मनोविज्ञान विभिन्न प्रकार के रूचिकर प्रश्नों - जैसे, बच्चे भाषा का प्रयोग करना कैसे सीखते हैं या बच्चों द्वारा बनायी गयी ड्राइंग का शैक्षिक महत्व क्या होता है- पर भी विचार करता है।
केली (Kelly) ने शिक्षा मनोविज्ञान के कार्यो का निम्न प्रकार विश्लेषण किया है -
(१) बच्चें की प्रकृति के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
(२) शिक्षा की प्रकृति एवं उद्देश्यों को समझने में सहायता प्रदान करता है।
(३) ऐसे वैज्ञानिक विधियों व प्रक्रियाओं को समझाता है जिनका शिक्षा मनोविज्ञान के तथ्यों एवं सिद्धान्तों को निकालने में उपयोग किया जाता है।
(४) शिक्षण एवं अधिगम के सिद्धान्तों एवं तकनीकों को प्रस्तुत करता है।
(५) विद्यालयी विषयों में उपलब्धि एवं छात्रों की योग्यताओं को मापने की विधियों में प्रशिक्षण देता है।
(६) बच्चों के वृद्धि एवं विकास के बारे में ज्ञान प्रदान करता है।
(७) बच्चों के अच्छे समायोजन में सहायता प्रदान करता है और कुसमायोजन से बचाता है।
शिक्षा और मनोविज्ञान का संबंध★
शिक्षा मनोविज्ञान का सम्बन्ध सीखने एवं सीखने की विधियों अर्थात पढ़ाने से है। शिक्षा तथा मनोविज्ञान ज्ञान की दो स्पष्ट शाखाएं है, परंतु इन दोनो का परस्पर घनिष्ठ संबंध हैं आधुनिक शिक्षा का आधार मनोविज्ञान है। बच्चे को उसकी रूचियों, रूझानों, सम्भावनाओं तथा व्यक्तित्व का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके शिक्षा दी जाती है। आज शिक्षा तथा मनोविज्ञान एक दूसरे के पूरक है। स्किनर स्किनर का मत है कि ‘‘शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा का एक आवश्यकतत्व है। इसकी सहायता के बिना शिक्षा की गुत्थी सुलझाई नहीं जा सकती। शिक्षा तथा मनोविज्ञान दोनों का संबंध व्यवहार के साथ है। मनोविज्ञान की खोजों की शिक्षा के दूसरे पहलुओं पर गहरी छाप है।’’
शिक्षा तथा मनोविज्ञान सिद्धांत तथा व्यवहार का समन्वय है, शिक्षा तथा मनोविज्ञान का पारस्परिक संबंध का ज्ञान मानव के समन्वित संतुलित विकास के लिये आवश्यक है। शिक्षा के समान कार्य, मनोविज्ञान क सिद्धांतों पर आधारित है। क्रो एण्ड क्रो के अनुसार ‘‘मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान हैं’’ मनोविज्ञान सीखने से संबंधित मानव विकास की व्याख्या करता है। शिक्षा, सीखने की प्रक्रिया को करने की चेष्टा प्रदान करती है। शिक्षा मनोविज्ञान सीखने के क्यों और कब से संबंधित है।’’
शिक्षा और मनोविज्ञान को जोड़ने वाली कड़ी है ‘‘मानव व्यवहार’’। इस संबंध में दो विद्वानों के विचार दृष्टव्य है :-
ब्राउन- ‘‘शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है।’’
पिल्सबरी- ‘‘मनोविज्ञान मानव व्यवहार का विज्ञान है।’’
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि शिक्षा और मनोविज्ञान दोनों का संबंध मानव व्यवहार से है। शिक्षा मानव व्यवहार में परिवर्तन करके उसे उत्तम बनाती है। मनोविज्ञान मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। इस प्रकार शिक्षा और मनोविज्ञान के संबंध होना स्वाभाविक है पर इस संबंध में मनोविज्ञान को आधार प्रदान करता है। शिक्षा को अपने प्रत्येक कार्य के लिए मनोविज्ञान की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती है। बी.एन. झा ने ठीक ही लिखा है- ‘‘शिक्षा जो कुछ करती है और जिस प्रकार वह किया जाता है उसके लिये इसे मनोवैज्ञानिक खोजों पर निर्भर होना पड़ता है।’’
मनोविज्ञान को यह स्थान इसलिए प्राप्त हुआ है क्योंकि उसने शिक्षा के सब क्षेत्रों को प्रभावित करके उनमें क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है। इस संदर्भ में रायन के ये सारगर्भित वाक्य उल्लेखनीय है-
आधुनिक समय के अनेक विद्यालयों में हम भिन्नता और संघर्ष का वातावरण पाते है। अब इनमें परम्परागत, औपचारिकता, मजबूर, मौन, तनाव और दण्ड की अधिकता दर्शित नहीं होती है।
यह सब शिक्षा मनोविज्ञान के उपयोग के कारण संभव हुआ है।
मनोविज्ञान का शिक्षा के साथ संबंध★
1. मनोविज्ञान तथा शिक्षा के उद्देश्य - मनोविज्ञान के द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है अथवा नहीं। शिक्षक ने अपने उद्देश्य में कितनी सफलता प्राप्त की है यह भी मनोविज्ञान के द्वारा जाना जा सकता है।
2. मनोविज्ञान तथा पाठ्यक्रम - मनोविज्ञान ने बालक के सर्वागींण विकास में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को महत्वपूर्ण बनाया है। इसीलिये विद्यालयों में खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की विषेष रूप से व्यवस्था की जाती है।
3. मनोविज्ञान तथा पाठ्य पुस्तकें - पाठ्य पुस्तकों का निर्माण बालक की आयु, रूचियों और मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिये।
4. मनोविज्ञान तथा समय सारणी - शिक्षा में मनोविज्ञान द्वारा दिया जाने वाला मुख्य सिद्धान्त है कि नवीन ज्ञान का विकास पूर्व ज्ञान के आधार पर किया जाना चाहिये।
5. मनोविज्ञान तथा शिक्षा विधियां - मनोविज्ञान के द्वारा शिक्षण विधियों में बालक के स्वयं सीखने पर बल दिया गया। इस उद्देश्य से ‘करके सीखना’, खेल द्वारा सीखना, रेड़ियो पर्यटन, चलचित्र आदि को शिक्षण विधियों में स्थान दिया गया।
6. मनोविज्ञान तथा अनुशासन - मनोविज्ञान द्वारा प्रेम, प्रशंसा और सहानुभूति को अनुशासन के लिये एक अच्छा आधार माना है।
7. मनोविज्ञान तथा अनुसंधान - मनोविज्ञान ने सीखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में खोज करके अनेक अच्छे नियम बनायें हैं। इनका प्रयोग करने से बालक कम समय में और अधिक अच्छी प्रकार से सीख सकता है।
8. मनोविज्ञान तथा परीक्षायें - मनोविज्ञान द्वारा बुद्धि परीक्षा, व्यक्तित्व परीक्षा तथा वस्तुनिष्ठ परीक्षा जैसी नई विधियों को मूल्यांकन के लिये चयनित किया गया है।
9. मनोविज्ञान तथा अध्यापक - शिक्षा में तीन प्रकार के सम्बन्ध होते हैं - बालक तथा शिक्षक का सम्बन्ध, बालक और समाज का सम्बन्ध तथा बालक और विषय का सम्बन्ध। शिक्षा में सफलता तभी मिल सकती है जब इन तीनों का सम्बन्ध उचित हो।
भरत धुरिया बिवार जिला हमीरपुर
मनोविज्ञान -का शिक्षा में योगदान-
संक्षेप में मनोविज्ञान ने शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित योगदान किया है-
1. बालक का महत्व
2. बालकों की विभिन्न अवस्थाओं का महत्व
3. बालकों की रूचियों व मूल प्रवृत्तियों का महत्व
4. बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का महत्व
5. पाठ्यक्रम में सुधार
6. पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं पर बल
7. सीखने की प्रक्रिया में उन्नति
8. मूल्यांकन की नई विधियां
9. शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति व सफलता
10. नये ज्ञान का आधारपूर्ण ज्ञान
शिक्षा की समस्याएं उसके उद्देश्यों, विषय वस्तु, साधनों एवं विधियों से सम्बन्धित है। मनोविज्ञान इन चारों क्षेत्रों में समस्याओं को सुलझाने में सहायता प्रदान करता है।
शिक्षा के उद्देश्य
शिक्षा मनोविज्ञान का उद्देश्य शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करना है। शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का अधिकतम संभव, सहज, स्वभाविक तथा सर्वांगीण विकास करके उसे समाज का एक उपयोगी नागरिक बनाना है। मनोविज्ञान शिक्षा के उद्देश्यों को अच्छी तरह से समझने में निम्न प्रकार सहायता प्रदान करता है।
(१) उद्देश्यों को परिभाषित करके - उदाहरणार्थ जैसे कि शिक्षा का एक उद्देश्य है अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करना। इसमें अच्छे नागरिक से क्या तात्पर्य है। अतः अच्छे नागरिक को व्यवहारिक रूप में परिभाषित करना चाहिए।
(२) उद्देश्यों को स्पष्ट करके - उपर्युक्त उदाहरण के अनुसार व्यक्ति के कौन से व्यवहार अथवा लक्षण अच्छे नागरिक में होने चाहिए। अर्थात् ऐसे कौन से व्यवहार हैं या लक्षण हैं जो अच्छे नागरिक में नहीं पाए जाते और इसके विपरीत जिनकों हम अच्छा नागरिक कहते हैं उनमें वे व्यवहार पाए जाते हैं।
(३) उद्देश्य प्राप्ति की सीमा निर्धारित करके - वर्तमान परिस्थिति में शिक्षा देते समय एक कक्षा के शत प्रतिशत विद्यार्थियों को शत प्रतिशत अच्छे नागरिक बनाना असंभव हो जाता है। अतः इसकी सीमा निर्धारित करना जैसे 80 प्रतिशत विद्यार्थियों के 80 प्रतिशत व्यवहार अच्छे नागरिक को परिलक्षित करेंगे।
(४) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्या करना है अथवा क्या नही - प्राथमिक स्तर पर अच्छे नागरिक के गुणों को विकास करने के लिए शिक्षक को भिन्न व्यवहार करना होगा और उच्च स्तर पर इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भिन्न व्यवहार करना होगा।
(५) नए पेहलुओं पर सुझाव देना - उदाहरणार्थ, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन में सभी छात्रों को एक समान परीक्षण क्यों दिया जाए जब एक ही कक्षा में भिन्न योग्यता और क्षमता वाले छात्रों को प्रवेश दिया जाता है।
शिक्षा की विषयवस्तु -
शिक्षा की विषयवस्तु को समझने व उसका निर्धारण छात्र के विकास के अनुरूप करने में मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। किस कक्षा के छात्रों के लिए विषयवस्तु क्या हो? अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम (विद्यालय का सामान्य वातावरण) किस प्रकार का हो जिससे छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े आदि महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान मनोविज्ञान करता है। मनोविज्ञान की सहायता से मानवजाति को विश्व के कल्याण हेतु प्रयुक्त कर सकते है।
शिक्षा के साधन-
मनोविज्ञान शिक्षा के साधनों को समझने में सहयोग प्रदान करता है, क्योंकि-
(अ) अभिभावको, शिक्षकों एवं मित्रों की बुद्धि एवं चरित्र उनको शिक्षित करने का महत्वपूर्ण साधन होती है।
(आ) शिक्षा के अन्य साधनों जैसे पुस्तक, मानचित्र, उपकरणों का प्रयोग तभी सफल होता है जब जिनके लिए इनका प्रयोग किया जाता है, उनकी प्रकृति समझ में आए।
शिक्षा की विधियाँ-
मनोविज्ञान शिक्षण की विधियों के बारे में ज्ञान तीन प्रकार से देता है -
(अ) मानव प्रकृति के नियमों के आधार पर शिक्षण विधि निर्धारित करना, जैसे
स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
ज्ञात से अज्ञात की ओर,
सरल से जटिल की ओर,
करके सीखना
(आ) स्वयं के शिक्षण अनुभव के आधार पर विधि का चयन करना
शिक्षक-छात्र अनुपात 1 अनुपात 5 या 1 अनुपात 60 की तुलना में 1 अनुपात 25 ज्यादा उपयुक्त होता है।
छात्र के चरित्र निर्माण में विधयालय वातावरण से ज्यादा पारिवारिक जीवन का प्रभाव पड़ता है।
विदेशी भाषा को हू-ब-हू की तुलना में वार्तालाप से ज्यादा अच्छा सीखा जा सकता है।
(इ) छात्र के ज्ञान व कौशल को मापने के तरीके इस प्रकार बताता है -
किस विधि से किस विषयवस्तु के अर्जन को मूल्यांकित करना है जैसे गध (संज्ञानात्मक) एवं पध (भावात्मक)।
मूल्यांकन का उद्देश्य छात्र को सिर्फ सही अथवा गलत प्रतिक्रिया बताना नही है वरन् उसकी प्रतिक्रियाओं का निदान करना व उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना है।
डेविस (Davis) ने शिक्षा मनोविज्ञान के महत्व की इस प्रकार विवेचना की है - मनोविज्ञान ने छात्रों की अभिक्षमताओं एवं उनमें पाए जाने वाले विभिन्नताओं का विश्लेषण करके शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसने विद्यालयी वर्षो में छात्र की वृद्धि एवं विकास के ढंग के बारे में ज्ञान प्रदान करके भी योगदान दिया है।
ब्लेयर (Blair) ने शिक्षा मनोविज्ञान के महत्व को निम्न शब्दों में बताया है -
वर्तमान समय में यदि शिक्षक को अपने कार्य में सफल होना है तो उसे बाल मनोविज्ञान का ज्ञान जैसे उनकी वृद्धि, विकास, सीखने की प्रक्रिया व समायोजन की योग्यता के बारे में समझ होनी चाहिए। वह छात्रों की शिक्षा सम्बन्धी विशिष्ट कठिनाईयों को पहचान सके तथा उपचारात्मक शिक्षण देने की कुशलता रखता हो। उसको आवश्यक शैक्षिक एवं व्यवसायिक निर्देशन देना आना चाहिए। इस प्रकार कोई भी व्यक्ति यदि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों व विधियों के बारे में शिक्षित नही है तो वह शिक्षक के दायित्व को भली भांति नहीं निभा सकता।
शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र★
विभिन्न लेखकों ने शिक्षा मनोविज्ञान की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी है। इसलिए शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा मनोवैज्ञानिक एक नया तथा पनपता विज्ञान है। इसके क्षेत्र अनिश्चित है और धारणाएं गुप्त है। इसके क्षेत्रों में अभी बहुत सी खोज हो रही है और संभव है कि शिक्षा मनोविज्ञान की नई धारणाएं, नियम और सिद्धांत प्राप्त हो जाये। इसका भाव यह है कि शिक्षा मनोविज्ञान का क्षेत्र और समस्याएं अनिश्चित तथा परिवर्तनशील है। चाहे कुछ भी हो निम्नलिखित क्षेत्र या समस्याओं को शिक्षा मनोविज्ञान के कार्य क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है। क्रो एण्ड क्रो- ‘‘शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री का संबंध सीखने को प्रभावित करने वाली दशाओं से है।’’
1. व्यवहार की समस्या
2. व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समस्या
3. विकास की अवस्थाएं
4. बच्चों का अध्ययन
5. सीखने की क्रियाओं का अध्ययन
6. व्यक्तित्व तथा बुद्धि
7. नाप तथा मूल्यांकन
8. निर्देश तथा परामर्श
शिक्षा मनोविज्ञान -★
शिक्षा मनोविज्ञान को व्यवहारिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाने लगा है। विज्ञान होने के कारण इसके अध्ययन में भी अनेक विधियों का विकास हुआ। ये विधियां वैज्ञानिक हैं। जार्ज ए लुण्डबर्ग के शब्दों में -
सामाजिक वैज्ञानिकों में यह विश्वास पूर्ण हो गया है कि उनके सामने जो समस्याऐं है उनको हल करने के लिए सामाजिक घटनाओं के निष्पक्ष एवं व्यवस्थित निरीक्षण, सत्यापन, वर्गीकरण तथा विश्लेषण का प्रयोग करना होगा। ठोस एवं सफल होने का कारण ऐसे दृष्टिकोण को वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।
शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन और अनुसंधान के लिए सामान्य रूप से जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनको दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैः-
आत्म निरीक्षण विधि को अर्न्तदर्शन, अन्तर्निरीक्षण विधि (Introspection) भी कहते है। स्टाउट के अनुसार ‘‘अपना मानसिक क्रियाओं का क्रमबद्ध अध्ययन ही अन्तर्निरीक्षण कहलाता है।’’ वुडवर्थ ने इस विधि को आत्मनिरीक्षण कहा है। इस विधि में व्यक्ति की मानसिक क्रियाएं आत्मगत होती हे। आत्मगत होने के कारण आत्मनिरीक्षण या अन्तर्दर्शन विधि अधिक उपयोगी होती हे। लॉक के अनुसार - मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण।
परिचय : पूर्वकाल के मनोवैज्ञानिक अपनी मस्तिष्क क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिये इसी विधि पर निर्भर थे। वे इसका प्रयोग अपने अनुभवों का पुनः स्मरण और भावनाओं का मूल्यांकन करने के लिये करते थे। वे सुख, दुख, क्रोध और शान्ति, घृणा और प्रेम के समय अपनी भावनाओं और मानसिक दशाओं का निरीक्षण करके उनका वर्णन करते थे।
अर्थ : अन्तर्दर्शन का अर्थ है- ‘‘अपने आप में देखना।’’ इसकी व्याख्या करते हुए बी.एन. झा ने लिखा है ‘‘आत्मनिरीक्षण अपने स्वयं के मन का निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का आत्मनिरीक्षण है जिसमें हम किसी मानसिक क्रिया के समय अपने मन में उत्पन्न होने वाली स्वयं की भावनाओं और सब प्रकार की प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण, विश्लेषण और वर्णन करते हैं।’’
मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि : डगलस व हालैण्ड के अनुसार - ‘‘मनोविज्ञान ने इस विधि का प्रयोग करके हमारे मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि की है।’’
अन्य विधियों में सहायक : डगलस व हालैण्ड के अनुसार ‘‘यह विधि अन्य विधियों द्वारा प्राप्त किये गये तथ्यों नियमों और सिद्धांन्तों की व्याख्या करने में सहायता देती है।’’
यंत्र व सामग्री की आवश्यकता : रॉस के अनुसार ‘‘यह विधि खर्चीली नहीं है क्योंकि इसमें किसी विशेष यंत्र या सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है।’’
प्रयोगशाला की आवश्यकता : यह विधि बहुत सरल है। क्योंकि इसमें किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। रॉस के शब्दों में ‘‘मनोवैज्ञानिकों का स्वयं का मस्तिष्क प्रयोगशाला होता है और क्योंकि वह सदैव उसके साथ रहता है इसलिए वह अपनी इच्छानुसार कभी भी निरीक्षण कर सकता है।’’
जीवन इतिहास विधि या व्यक्ति अध्ययन विधि -
व्यक्ति अध्ययन विधि (Case study or case history method) का प्रयोग मनोवैज्ञानिकों द्वारा मानसिक रोगियों, अपराधियों एवं समाज विरोधी कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिये किया जाता है। बहुधा मनोवैज्ञानिक का अनेक प्रकार के व्यक्तियों से पाला पड़ता है। इनमें कोई अपराधी, कोई मानसिक रोगी, कोई झगडालू, कोई समाज विरोधी कार्य करने वाला और कोई समस्या बालक होता है। मनोवैज्ञानिक के विचार से व्यक्ति का भौतिक, पारिवारिक व सामाजिक वातावरण उसमें मानसिक असंतुलन उत्पन्न कर देता है। जिसके फलस्वरूप वह अवांछनीय व्यवहार करने लगता है। इसका वास्तविक कारण जानने के लिए वह व्यक्ति के पूर्व इतिहास की कड़ियों को जोड़ता है।
इस उद्देश्य से वह व्यक्ति उसके माता पिता, शिक्षकों, संबंधियों, पड़ोसियों, मित्रों आदि से भेंट करके पूछताछ करता है। इस प्रकार वह व्यक्ति के वंशानुक्रम, पारिवारिक और सामाजिक वातावरण, रूचियों, क्रियाओं, शारीरिक स्वास्थ्य, शैक्षिक और संवेगात्मक विकास के संबंध में तथ्य एकत्र करता है जिनके फलस्वरूप व्यक्ति मनोविकारों का शिकार बनकर अनुचित आचरण करने लगता है।
इस प्रकार इस विधि का उद्देश्य व्यक्ति के किसी विशिष्ट व्यवहार के कारण की खोज करना है। क्रो व क्रो ने लिखा है ‘‘जीवन इतिहास विधि का मुख्य उद्देश्य किसी कारण का निदान करना है।’’
बहिर्दर्शन या अवलोकन विधि-
बहिर्दर्शन विधि (Extrospection) को अवलोकन या निरीक्षण विधि (observational method) भी कहा जाता है।
अवलोकन या निरीक्षण का सामान्य अर्थ है- ध्यानपूर्वक देखना। हम किसी के व्यवहार,आचरण एवं क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं आदि को बाहर से ध्यानपूर्वक देखकर उसकी आंतरिक मनःस्थिति का अनुमान लगा सकते है।
उदाहरणार्थः- यदि कोई व्यक्ति जोर-जोर से बोल रहा है और उसके नेत्र लाल है तो हम जान सकते है कि वह क्रोध मे है। किसी व्यक्ति को हंसता हुआ देखकर उसके खुश होने का अनुमान लगा सकते हैं।
निरीक्षण विधि में निरीक्षणकर्ता, अध्ययन किये जाने वाले व्यवहार का निरीक्षण करता है और उसी के आधार पर वह विषय के बारे में अपनी धारणा बनाता है। व्यवहारवादियों ने इस विधि को विशेष महत्व दिया है।
कोलेसनिक के अनुसार निरीक्षण दो प्रकार का होता है-
(1) औपचारिक, और
(2) अनौपचारिक।
औपचारिक निरीक्षण नियंत्रित दशाओं में और अनौपचारिक निरीक्षण अनियंत्रित दशाओं में किया जाता है।
इनमें से अनौपचारिक निरीक्षण, शिक्षक के लिये अधिक उपयोगी है। उसे कक्षा और कक्षा के बाहर अपने छात्रों के व्यवहार का निरीक्षण करने के लिए अनेक अवसर प्राप्त होते है। वह इस निरीक्षण के आधार पर उनके व्यवहार के प्रतिमानो का ज्ञान प्राप्त करके उनको उपयुक्त निर्देशन दे सकता है
प्रश्नावली -
गुड तथा हैट (Good & Hatt) के अनुसार - "सामान्यतः प्रश्नावली शाब्दिक प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की विधि है, जिसमें व्यक्ति को स्वयं ही प्रारूप में भरकर देने होते हैं। इस विधि में प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके समस्या संबंधी तथ्य एकत्र करना मुख्य होता है। प्रश्नावली एक प्रकार से लिखित प्रश्नों की योजनाबद्ध सूची होती है। इसमें सम्भावित उत्तरों के लिए या तो स्थान रखा जाता है या सम्भावित उत्तर लिखे रहते हैं।"
साक्षात्कार -
इस विधि में व्यक्तियों से भेंट कर के समस्या संबंधी तथ्य एकत्रित करना मुख्य होता है। इस विधि के द्वारा व्यक्ति की समस्याओं तथा गुणों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
इसमें दो व्यक्तियों में आमने-सामने मौखिक वार्तालाप होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति की समस्याओं का समाधान खोजने तथा शारीरिक और मानसिक दशाओं का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।
गुड एवं हैट के शब्दों में - किसी उद्देश्य से किया गया गम्भीर वार्तालाप ही साक्षात्कार है।
प्रयोग विधि
‘‘पूर्व निर्धारित दशाओं में मानव व्यवहार का अध्ययन।’’
विधि में प्रयोगकर्ता स्वयं अपने द्वारा निर्धारित की हुई परिस्थितियों या वातावरण में किसी व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है या किसी समस्या के संबंध में तथ्य एकत्र करता है।
मनोचिकित्सीय विधि -
‘‘व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके उपचार करना।’’
इस विधि के द्वारा व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके, उसकी अतृप्त इच्छाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है।
तदुपरांत उन इच्छाओं का परिष्कार या मार्गान्तीकरण करके व्यक्ति का उपचार किया जाता है और इस प्रकार इसके व्यवहार को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाता है
सिग्मंड फ्रायड ( 6 मई 1856 -- 23 सितम्बर 1939 ) आस्ट्रिया के तंत्रिकाविज्ञानी (neurologist) तथा मनोविश्लेषण के संस्थापक थे।
सिग्मंड फ्रायड★-
मैक्स हैलबर्स्टाट द्वारा, सिगमंड फ्रायड, ल. 1921
जन्म-सिगिस्मंड श्लोमो फ्रायड
6 मई 1856
माहरेन में फ्रीबर्ग, मोराविया, ऑस्ट्रियाई साम्राज्य
(अब प्रिबोर, चेक गणराज्य)
मृत्यु- 23 सितम्बर 1939 (उम्र 83)
हैम्पस्टीड, लंदन, यूनाइटेड किंगडम
क्षेत्र-तंत्रिकाविज्ञान, मनोचिकित्सा, मनोविश्लेषण
संस्थान
विएना विश्वविद्यालय
शिक्षा
विएना विश्वविद्यालय (MD)
अकादमी सलाहकार
फ्रांज ब्रेंटानो
अर्नस्ट ब्रुके
कार्ल क्लॉस
प्रसिद्धि
मनोविश्लेषण
प्रभाव
Brentano Breuer Charcot Darwin Dostoyevsky Empedocles Fechner Fliess Goethe von Hartmann Herbart Kierkegaard Nietzsche Plato Schopenhauer Shakespeare Sophocles
प्रभावित
List of psychoanalysts
List of psychoanalytical theorists
उल्लेखनीय सम्मान
Goethe Prize (1930)
Foreign Member of the Royal Society
जीवन परिचय संपादित करें
सिग्मुण्ड फ्रायड का जन्म आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के फ्रीबर्ग (Freiberg) शहर में हुआ। उनके माता-पिता यहूदी थे।
फ्रायड के पिता ऊन के व्यापारी थे और माता इनके पिता की तीसरी पत्नी थीं। फ्रायड अपने सात भाई-बहनों में सबसे बड़े थे।
3 साल की उम्र में फ्रायड के पिता लिपजिग (Leipzig) आ गए और उसके एक साल बाद वियना चले गए, जहाँ वे करीब 80 सालों तक रहे। फ्रायड ने वियना विश्वविद्यालय से १८८१ में डॉक्टर ऑफ मेडिसिन किया।
सन् 1938 में हिटलर के नाजी विद्रोह के कारण फ्रायड भागकर लन्दन चले गए। लन्दन में ही सन् 1939 के सितम्बर महीने में उनकी मृत्यु हो गई।
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ के कुछ समय पहले मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित हुआ।
इससे पहले मनोविज्ञान को दर्शन के अंतर्गत पढ़ा जाता था।
उस वक्त मनोविज्ञान का उद्देश्य वयस्क मानव की चेतना का विश्लेषण और अध्ययन करना था। फ्रायड ने इस परम्परागत "चेतना के मनोविज्ञान " का विरोध किया और मनोविश्लेषण सम्बन्धी कई नई संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जिसपर हमारा आधुनिक मनोविज्ञान टिका हुआ है।
फ्रायड के प्रारम्भिक जीवन को देखने पर हम पाते हैं कि आरम्भ से ही उनका झुकाव तंत्रिका विज्ञान की ओर था।
सन् 1873 से 1881 के बीच उनका संपर्क उस समय के मशहूर तंत्रिका विज्ञानी अर्नस्ट ब्रुकी (Ernst Brucke) से हुआ।
फ्रायड, अर्नस्ट ब्रुकी से प्रभावित हुए और उनकी प्रयोगशाला में कार्य प्रारम्भ किया।
शरीर विज्ञान और तंत्रिका विज्ञान में कई शोध पत्र प्रकाशित करने के बाद फ्रायड अर्नस्ट ब्रुकी से अलग हुए और उन्होंने अपना निजी व्यवसाय चिकित्सक के रूप में प्रारम्भ किया।
सन् 1881 में फ्रायड ने वियना विश्वविद्यालय से एम.डी (M.D) की उपाधि प्राप्त की।
इससे ठीक थोड़े से वक्त पहले फ्रायड का संपर्क जोसेफ ब्रियुवर (Joseph Breuer) से हुआ।
फ्रायड ने जोसेफ ब्रियुवर के साथ शोधपत्र "स्टडीज इन हिस्टीरिया" लिखा।
"स्टडीज इन हिस्टीरिया" एक रोगी के विश्लेषण पर आधारित था, जिसका काल्पनिक नाम "अन्ना ओ" था।
यह माना जाता है कि इसी शोधपत्र में मनोविश्लेषणवाद के बीज छिपे हुए थे। यह शोध बहुत मशहूर हुआ। सन् 1896 में ब्रियुवर तथा फ्रायड में पेशेवर असहमति हुई और वे अलग हो गये।
सन् 1900 फ्रायड के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वर्ष था।
इसी वर्ष उनकी बहुचर्चित पुस्तक "इंटरप्रटेशन ऑफ़ ड्रीम" का प्रकाशन हुआ, जो उनके और उनके रोगियों के स्वप्नों के विश्लेषण के आधार पर लिखी गई थी।
इसमें उन्होंने बताया कि सपने हमारी अतृप्त इच्छाओं का प्रतिबिम्ब होते हैं। इस पुस्तक ने उन्हें प्रसिद्ध बना दिया। कई समकालीन बुद्धिजीवी और मनोविज्ञानी उनकी ओर आकर्षित हुए। इनमें कार्ल जुंग, अल्फ्रेड एडलर, ओटो रैंक और सैनडोर फ्रैन्क्जी के नाम प्रमुख है। इन सभी व्यक्तियों से फ्रायड का अच्छा संपर्क था, पर बाद में मतभिन्नता हुई और लोग उनसे अलग होते गये।
सन् 1909 में क्लार्क विश्व विद्यालय के मशहूर मनोविज्ञानी जी.एस. हाल द्वारा फ्रायड को मनोविश्लेषण पर व्याख्यान देने का निमंत्रण प्राप्त हुआ, जो उनकी प्रसिद्धि में मील का पत्थर साबित हुआ. इसमें फ्रायड के अलावा युंग, व्रील, जोन्स, फेरेन्कजी तथा कई अन्य मशहूर मनोविज्ञानी उपस्थित थे।
यहॉं से फ्रायड जल्द ही वापस लौट गए, क्योंकि अमेरिका का वातावरण उन्हें अच्छा नही लगा. यहाँ फ्रायड को पेट में गड़बड़ी की शिकायत रहने लगी थी, जिसका कारण उन्होंने विविध अमेरिकी खाद्य सामग्री को बताया।
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जुंग और एडलर, फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के कई बिन्दुओं से सहमत थे।
परन्तु फ्रायड द्वारा सेक्स पर अत्यधिक बल दिए जाने को उन्होंने अस्वीकृत कर दिया।
इससे अलग-अलग समय में वे दोनों भी इनसे अलग हो गए। जुंग ने मनोविश्लेषण में सांस्कृतिक विरासत के दखल पर और एडलर ने सामाजिकता पर बल दिया।
यद्यपि यह सही है की पेशेवर सहकर्मी उनसे एक-एक कर अलग हो रहे थे फिर भी उनकी प्रसिद्धि को इससे कोई फर्क नही पड़ा। सन् 1923 में फ्रायड के मुह में कैंसर का पता चला जिसका कारण उनका जरुरत से ज्यादा सिगार पीना बताया गया।
सन् 1933 में हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। उसने साफ कहा कि फ्रायड वाद के लिए उसकी सत्ता में कोई जगह नही है।
हिटलर ने फ्रायड की सारी पुस्तकों और हस्तलिपियों को जला दिया।
वह शायद इससे भी अधिक बुरा व्यवहार करता लेकिन राजनीतिक दबाव और तत्कालीन अमेरिकन राजदूत के हस्तक्षेप के बाद हिटलर ने फ्रायड से जबर्दस्ती एक कागज पर हस्ताक्षर करवाया कि सैनिकों ने उनके साथ कोई बुरा व्यवहार नही किया है।
इसके बाद उन्हें वियना छोड़कर लन्दन जाने का आदेश दिया।
लन्दन में उनका भव्य स्वागत हुआ।
उन्हें तुरंत ही रायल सोसाइटी का सदस्य बना लिया गया। यहाँ उन्होंने अपनी अंतिम पुस्तक "मोजेज एंड मोनेथिज्म" का प्रकाशन करवाया।
फ्रॉइड के अनुसार मन के तीन 'छिपे हुए' तत्व ; हिमखण्ड, मन के तीन भागों को इंगित करता है जो जो चेतन में नहीं आ पाते
फ्रायड ने मन या व्यक्तित्व के स्वरुप को गत्यात्मक माना है।
उनके अनुसार व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क एवं शरीर की क्रियाओं का नाम है।
फ्रायड के मानसिक तत्व होते हैं जो चेतन में नहीं आ पाते या सम्मोहन अथवा चेतना लोप की स्थिति में चेतन में आते हैं।
इसमें बाल्यकाल की इच्छाएं, लैंगिक इच्छाएं और मानसिक संघर्ष आदि से सम्बंधित वे इच्छाएं होती हैं, जिनका ज्ञान स्वयं व्यक्ति को भी नहीं होता। इन्हें सामान्यतः व्यक्ति अपने प्रतिदिन की जिंदगी में पूरा नही कर पाता और ये विकृत रूप धारण करके या तो सपनों के रूप में या फिर उन्माद के दौरे के रूप में व्यक्ति के सामने उपस्थित होती हैं। फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व का गत्यात्मक पक्ष तीन अवस्थाओं द्वारा निर्मित होता है -
१. इदं (Id )
२. अहम् (ego)
३. पराअहम् (super ego)
इदं की उत्पति मनुष्य के जन्म के साथ ही हो जाती है।
फ्रायड इसे व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मानता था। इसकी विषयवस्तु वे इच्छाएं हैं जो लिबिडो (यौन मूल प्रवृति की ऊर्जा) से सम्बंधित हैं और तात्कालिक संतुष्टि चाहती हैं। ऊर्जा की वृद्धि इदं नहीं सहन कर पाता और अगर इसे सही ढंग से अभिव्यक्ति नही मिलती तब यह विकृत स्वरुप धारण करके व्यक्ति को प्रभावित करता है।
अहम् (ego) फ्रायड के लिए स्व-चेतना की तरह थी जिसे उसने मानव के व्यवहार का द्वितीयक नियामक बताया।
यह इदं का संगठित भाग है, इसका उद्देश्य इदं के लक्ष्यों को आगे बढ़ाना है। परा अहम् एक प्रकार का व्यवहार प्रतिमानक होता है, जिससे नैतिक व्यवहार नियोजित होते हैं।
इसका विकास अपेक्षाकृत देर से होता है। फ्रायड के व्यक्तित्व सम्बन्धी विचारों को मनोलैंगिक विकास का सिद्धांत भी कहा जाता है। इसे फ्रायड ने 5 अवस्थाओं में बांटा है -
१. मौखिक अवस्था (oral stage) - जन्म से एक वर्ष
२. गुदा अवस्था (Anal stage ) - २ से ३ वर्ष
३. लैंगिक अवस्था (Phallic stage) - ४ से ५ वर्ष
४. सुषुप्ता वस्था (Latency stage) - ६ से १२ वर्ष
५ जननिक अवस्था (Gental stage ) - १२ से २० वर्ष
इन्ही के आधार पर उसने विवादास्पद इलेक्ट्रा और ओडिपस काम्प्लेक्स की अवधारणा दी जिसके अनुसार शिशु की लैंगिक शक्ति प्रारंभ में खुद के लिए प्रभावी होती है, जो धीरे -धीरे दूसरे व्यक्तिओं की ओर उन्मुख होती है।
इसी कारण पुत्र माता की ओर तथा पुत्री पिता की ओर अधिक आकर्षित होते हैं। इसके कारण लड़कों में माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति प्रतिद्वंदिता उत्पन्न होती है, जिसे फ्रायड द्वारा ओडिपस काम्प्लेक्स का नाम दिया।
यह बहुत विवादास्पद और चर्चित अवधारणा रही है।
फ्रायड इन संकल्पनाओं की सत्यता साबित करने के लिए आंकड़े नही दे पाए.
उन पर आलोचकों ने यह आरोप लगाया की उन्होंने अपने अनुभवों को इन प्रेक्षणों के साथ मिश्रित किया है और जो कुछ भी उनके रोगियों ने कहा उस पर उन्होंने आँख बंद कर विश्वास किया है।
फ्रायड पर यह भी आरोप लगे कि वह मनोविज्ञान में जरुरत से अधिक कल्पनाशीलता और मिथकीय ग्रंथों का घालमेल कर रहे हैं, यौन आवश्यकताओं को जरुरत से अधिक स्थान दे रहे हैं।
फ्रायड के कार्य और उन पर आधारित उनकी मान्यताओं के देखने पर हम यह पाते हैं कि फ्रायड ने मानव की पाशविक प्रवृति पर जरुरत से अधिक बल डाला था।
उन्होंने यह स्पष्ट किया कि निम्नतर पशुओं के बहुत सारे गुण और विशेषताएं मनुष्यों में भी दिखाई देती हैं। उनके द्वारा परिभाषित मूल प्रवृति की संकल्पना भी इसके अंतर्गत आती है।
फ्रायड का यह मत था कि वयस्क व्यक्ति के स्वभाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसके व्यक्तित्व की नींव बचपन में ही पड़ जाती है, जिसे किसी भी तरीके से बदला नही जा सकता.
हालाँकि बाद के शोधों से यह साबित हो चुका है कि मनुष्य मूलतः भविष्य उन्मुख होता है। एक शैक्षिक (अकादमिक) मनोविज्ञानी के समान फ्रायड के मनोविज्ञान में क्रमबद्धता नहीं दिखाई देती परन्तु उन्होंने मनोविज्ञान को एक नई परिभाषा दी जिसके आधार पर हम आधुनिक मनोविश्लेषानात्मक मनोविज्ञान को खड़ा पाते हैं और तमाम आलोचनाओं के बाद भी असामान्य मनोविज्ञान और नैदानिक मनोविज्ञान में फ्रायड के योगदान को अनदेखा नही किया जा सकाता.
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोविश्लेषण का संप्रदाय अपनी लोकप्रियता के करण बहुत चर्चित रहा. फ्रायड ने कई पुस्तके लिखीं जिनमें से "इंटर प्रटेशन ऑफ़ ड्रीम्स", "ग्रुप साइकोलोजी एंड द एनेलेसिस ऑफ़ दि इगो ", "टोटेम एंड टैबू " और "सिविलाईजेसन एंड इट्स डिसकानटेंट्स " प्रमुख हैं। 23 सितम्बर 1939 को लन्दन में इनकी मृत्यु हुई।
रचनाएँ ★
द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स,"इंटर प्रटेशन ऑफ़ ड्रीम्स", "ग्रुप साइकोलोजी एंड द एनेलेसिस ऑफ़ दि इगो ", "टोटेम एंड टैबू " और "सिविलाईजेसन एंड इट्स डिसकानटेंट्स "
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लिव सिमनोविच वाइगोत्सकी (रूसी : Лев Семёнович Вы́готский or Выго́тский, जन्मनाम: Лев Симхович Выгодский ; 1896 - 1934) सोवियत संघ के मनोवैज्ञानिक थे तथा वाइगोत्स्की मण्डल के नेता थे। उन्होने मानव के सांस्कृतिक तथा जैव-सामाजिक विकास का सिद्धान्त दिया जिसे सांस्कृतिक-ऐतिहासिक मनोविज्ञान कहा जाता है।
________________
ले_____ व वाइगोत्सकी (Lev Vygotsky)
जन्म
19 नवम्बर 1896
ओरशा, रूसी साम्राज्य, अब यह बेलारुस है।
मृत्यु
जून 11, 1934 (उम्र 37)
मॉस्को, सोवियत संघ
क्षेत्र
मनोविज्ञान
शिक्षा
मास्को विश्वविद्यालय
Shaniavskii Moscow City People's University
उल्लेखनीय शिष्य
Alexander Luria
प्रसिद्धि
Cultural-historical psychology, Zone of proximal development
प्रभाव
Wilhelm von Humboldt, Alexander Potebnia, Alfred Adler, Kurt Koffka, Kurt Lewin, Max Wertheimer, Wolfgang Köhler, Kurt Goldstein
प्रभावित
Vygotsky Circle, Evald Ilyenkov, Jean Piaget, Urie Bronfenbrenner
उनका मुख्य कार्यक्षेत्र विकास मनोविज्ञान था। उन्होने बच्चों में उच्च संज्ञानात्मक कार्यों के विकास से सम्बन्धित एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। अपने करीअर के आरम्भिक काल में उनका तर्क था कि तर्क-शक्ति का विकास चिह्नों एवं प्रतीकों के माध्यम से होता है।
वाइगोत्स्की का सामाजिक दृषिटकोण संज्ञानात्मक विकास का एक प्रगतिशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
वस्तुत: वाइगोत्सकी ने बालक के संज्ञानात्मक विकास में समाज एवं उसके सांस्कृतिक संबन्धों के बीच संवाद को एक महत्त्वपूर्ण आयाम घोषित किया।
ज़ीन प्याज़े की तरह वाइगोत्स्की भी यह मानते थे कि बच्चे ज्ञान का निर्माण करते हैं।
किन्तु इनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास एकाकी नहीं हो सकता, यह भाषा-विकास, सामाजिक-विकास, यहाँ तक कि शारीरिक-विकास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में होता है।
वाइगोत्सकी के अनुसार बच्चे के संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए एक विकासात्मक उपागम की आवश्यकता है।
जो कि इसका शुरू से परीक्षण करे तथा विभिन्न रूपों में हुए परिवर्तन को ठीक से पहचान पाए। इस प्रकार एक विशिष्ट मानसिक कार्य जैसे- आत्म-भाषा को विकासात्मक प्रक्रियाओं के रूप में मूल्यांकित किया जाए, न कि एकाकी रूप से।
वाइगोत्सकी के अनुसार संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए उन औजारों का परीक्षण अति आवश्यक है जो संज्ञानात्मक विकास में मध्यस्थता करते हैं तथा उसे रूप प्रदान करते हैं। इसी के आधार पर वे यह भी मानते हैं
कि भाषा संज्ञानात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण औजार है।
इनके अनुसार आरमिभक बाल्यकाल में ही बच्चा अपने कार्यों के नियोजन एवं समस्या समाधान में भाषा का औजार की तरह उपयोग करने लग जाता है।
वाइगोत्सकी का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त संपादित करें
वाइगोत्सकी ने सन 1924-34 में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलाजी (मास्को) में अध्ययन किया।
यहां पर उन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर विशेष कार्य किया, विशेषकर भाषा और चिन्तन के सम्बन्ध पर।
उनके अध्ययन में संज्ञान के विकास के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारकों के प्रभाव का वर्णन किया गया है।
वायगास्की के अनुसार भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख सांकेतिक उपकरण है जो कि बालक के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
जिस प्रकार हम जल के अणु का अध्ययन उसके भागों (H & O) के द्वारा नहीं कर सकते, उसी प्रकार व्यक्ति का अध्ययन भी उसके वातावरण से पृथक होकर नही किया जा सकता।
व्यक्ति का उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक सन्दर्भ में अध्ययन ही हमें उसकी समग्र जानकारी प्रदान करता है। वायगास्की ने संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के दौरान प्याजे का अध्ययन किया और फिर अपना दृष्टिकोण विकसित किया।
प्याज़े के अनुसार विकास और अधिगम (सीखना) दो अलग धारणाएं हैं जिनमें संज्ञान भाषा के विकास को एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में प्रभावित करता है।
विकास हो जाने के पश्चात् उस विशेष अवस्था में आवश्यक कौशलों की प्राप्ति ही अधिगम है।
इस प्रकार प्याजे के सिद्धान्त के अनुसार विकास, अधिगम की पूर्वावस्था है न कि इसका परिणाम। अर्थात् अधिगम का स्तर विकास के ऊपर है।
प्याज़े के अनुसार अधिगम के लिए सर्वप्रथम एक निश्चित विकास स्तर पर पहुंचना आवश्यक है।
वाइगोत्सकी के अनुसार अधिगम और विकास की पारस्परिक प्रक्रिया में बालक की सक्रिय भागीदारी होती है जिसमें भाषा का संज्ञान पर सीधा प्रभाव होता है।
अधिगम और विकास अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाएं है जो छात्र के जीवन के पहले दिन से प्रारम्भ हो जाती हैं।
वाइगोत्सकी के अनुसार विभिन्न बालकों के अलग-अलग विकास स्तर पर अधिगम की व्यवस्था समरूप तो हो सकती है किन्तु एकरूप नहीं, क्योंकि सभी बच्चों का सामाजिक अनुभव अलग होता है।
उनके अनुसार अधिगम विकास को प्रेरित करता है। उनका यह दृष्टिकोण प्याज़े के सिद्धान्त एवं अन्य सिद्धान्तों से भिन्न है।
वायगास्की अपने सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के लिए जाने जाते है। इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक अन्तःक्रिया (इण्टरैक्शन) ही बालक की सोच व व्यवहार में निरन्तर बदलाव लाता है जो एक संस्कृति से दूसरे में भिन्न हो सकता है। उनके अनुसार किसी बालक का संज्ञानात्मक विकास उसके अन्य व्यक्तियों से अन्तर्सम्बन्धों पर निर्भर करता है।
वायगास्की ने अपने सिद्धान्त में संज्ञान और सामाजिक वातावरण का सम्मिश्रण किया। बालक अपने से बड़े और ज्ञानी व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर चिन्तन और व्यवहार के संस्कृति अनुरूप तरीके सीखते है।
सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के कई प्रमुख तत्व है। प्रथम महत्वपूर्ण तत्व है- व्यक्तिगत भाषा।
इसमें बालक अपने व्यवहार को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए स्वयं से बातचीत करते है।
सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है- निकटतम विकास का क्षेत्र।
वायगास्की ने शिक्षक के रूप में अनुभव के दौरान यह जाना है कि बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते है यदि उन्हें थोड़ा निर्देश मिल जाए।
इस स्तर को वायगास्की ने सम्भावित विकास कहा।
बालक के वास्तविक विकास स्तर और सम्भावित विकास स्तर के बीच के अन्तर/क्षेत्र को वायगास्की ने निकटतम विकास का क्षेत्र कहा।
कृतियाँ ----
Consciousness as a problem in the Psychology of Behavior, essay, 1925
Educational Psychology, 1926
Historical meaning of the crisis in Psychology, 1927
The Problem of the Cultural Development of the Child, essay 1929
The Fundamental Problems of Defectology, article 1929
The Socialist alteration of Man, 1930
Ape, Primitive Man, and Child: Essays in the History of Behaviour, A. R. Luria and L. S. Vygotsky., 1930
Paedology of the Adolescent, 1931
Play and its role in the Mental development of the Child, essay 1933
Thinking and Speech, 1934
Tool and symbol in child development, 1934
Mind in Society: The Development of Higher Psychological Processes, 1978
Thought and Language, 1986
The Collected Works of L. S. Vygotsky, 1987 overview
प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत, मनुष्य के जीवन में होने वाले बदलावों और विकास को बताता
जीन प्याज़े द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है।
प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
प्याज़े का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।
जीन प्याज़े★
व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।
जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है।
पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है।
चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त (STAGE THEORY ) भी कहा जाता है।
संज्ञानात्मक विका स की अवस्थाएँ संपादित करें
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
________________
(१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष
(२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
(३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष
(४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 12से 15 वर्ष
संवेदी पेशीय अवस्था
जन्म के 2 वर्ष
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है।
बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसों एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।
उन्होंने इस अवस्था को छः उपवस्थाओं मे बांटा है :
1- सहज क्रियाओं की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक)
2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 1 माह से 4 माह)
3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 4 माह से 8 माह)
4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था ( 8 माह से 12 माह )
5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 12 माह से 18 माह )
6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था ( 18 माह से 24 माह )
पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था संपादित करें
इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र-निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है।
धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुकरणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणों मे परिपक्वता आ जाती है। इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है।
(क) पूर्व सम्प्रत्यात्मक काल (Pre–conceptional या Symbolic function substage ; 2-4 वर्ष) : पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। बालक संकेत तथा चिह्न को मस्तिष्क में ग्रहण करते हैं। बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझते हैं।आत्मकेंद्रित हो जाता है बालक।
संकेतों एवं भाषा का विकास तेज होने लगता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है।
छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है।
दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है।
(ख) अंतःप्रज्ञक काल (Intuitive thought substage ; 4-7 वर्ष) : बालक छोटी छोटी गणनाओं जैसे जोड़-घटाना आदि सीख लेता है। संख्या प्रयोग करने लगता है। इसमें क्रमबद्ध तर्क नही होता है।
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था संपादित करें
इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारम्भ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है। इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था, किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है|
औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था संपादित करें
यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-
तार्किक चिन्तन की क्षमता का विकास
समस्या समाधान की क्षमता का विकास
वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
विसंगतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास
जीन पियाजे ने इस अवस्था को अन्तर्ज्ञान कहा है
संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन। संगठन से तात्पर्य बुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है। उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है।
वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।
बाहरी कड़ियाँ संपादित करें
संज्ञानात्मक विकास दृष्टिकोण (दिल्ली विश्वविद्यालय)
पयाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय)
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त
जीन पियाजे (Dr. jean piaget, 1896-1980) एक स्विस मनोविज्ञानिक थे तथा मूलरूप से वे प्राणी विज्ञान (zoology) के विद्वान थे
ऐसे में हम इस लेख के जरिये आपके लिए बाल विकास एवं शिक्षाशास्त्र के विगत वर्षों में पुछे गए 30 महत्वपूर्ण प्रश्नों का संग्रह लेकर आए हैं। जिसपे आपको एक नजर अवश्य डालनी चाहिए। इसका अध्ययन कर के आप अपनी तैयारी को और भी अच्छा कर सकते हैं।
प्रश्न : ‘संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है यह कथन निम्नांकित में से किसका है?
पियाजे
वुडवर्थ
वैलेन्टाइन
रॉस
उत्तर : 2
प्रश्न : शैक्षिक विकास में मूल्यांकन का अर्थ है
छात्रों की प्रगति का आकलन
कक्षा अभिलेखों का मूल्यांकन
कार्य निष्पादन का मूल्यांकन
ज्ञान क्षमता का मूल्यांकन
उत्तर : 4
प्रश्न : पूर्वाग्रही किशोर/किशोरी अपनी …………. के प्रति कठोर होंगे।
समस्या
जीवनशैली
सम्प्रत्यय
वास्तविकता
उत्तर : 1
प्रश्न : संज्ञानात्मक विकास के चार चरणों ……….. संवेदी पेशीय, पूर्व संक्रियात्मक, स्थूल संक्रियात्मक और औपचारिक संक्रियात्मक की पहचान की गई है।
हिलगार्ड द्वारा
स्टॉट द्वारा
हरलॉक द्वारा
पियाजे द्वारा
उत्तर : 4
प्रश्न : कौन-से गुण अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के नहीं हैं?
नियमित जीवन, संवेगात्मक परिपक्वता
आत्मविश्वास, सहनशीलता
बहुत विनीत, स्वयं में सीमित
वास्तविकता की स्वीकृति, स्व-मूल्यांकन की योग्यता
उत्तर : 3
प्रश्न : अधिगम क्षमता निम्नलिखित में से किससे प्रभावित नहीं होती?
आनुवंशिकता
वातावरण
प्रशिक्षण/शिक्षण
राष्ट्रीयता
उत्तर : 4
प्रश्न : किस अधिगम मनोवैज्ञानिक ने बाल-अधिगम विकास में पुरस्कार को महत्त्व नहीं दिया है?
थार्नडाइक
पावलॉव
स्किनर
गुथरी,
उत्तर : 4
प्रश्न : निम्नलिखित में से किस एक से शिशु के अधिगम को सहायता नहीं मिलती?
अनुकरण
अभिप्रेरणा
स्कूल का बस्ता
पुरस्कार
उत्तर : 3
प्रश्न : स्व-केन्द्रित अवस्था होती है बालक के
जन्म से 2 वर्ष तक
3 से 6 वर्ष तक
7 वर्ष से किशोरावस्था तक
किशोरावस्था में
उत्तर : 2
प्रश्न : माँ-बाप के साये से बाहर निकल अपने साथी बालकों की संगत को पसन्द करना सम्बन्धित है
किशोरावस्था से
पूर्व किशोरावस्था से
उत्तर बाल्यावस्था से
शैशवावस्था से
उत्तर : 2
प्रश्न : सीखने का प्राथमिक मूलभूत नियम सम्बन्धित है
अभ्यास कार्य से
परिणाम की अपेक्षा से
प्रशंसा से
तत्परता से
उत्तर : 4
प्रश्न : मानसिक परिपक्वता की ऊँचाइयों को छूने के लिए, प्रयत्नरत रहना सम्बन्धित है
किशोरावस्था से
प्रौढावस्था से
पूर्व बाल्यावस्था से
उत्तर बाल्यावस्था से
उत्तर : 1
प्रश्न : सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक हैं
अनुकरण
प्रशंसा एवं निन्दा
प्रतियोगिता
ये सभी
उत्तर : 4
प्रश्न : बालकों के सीखने में प्रेरणा को किस रूप में उपयोगी माना जाता है?
बालक की वैयक्तिकता का आदर
पुरस्कार एवं दण्ड
प्रशंसा एवं भर्त्सना
उपरोक्त सभी
उत्तर : 4
प्रश्न : कक्षा में विद्यार्थियों को अधिगम के लिए प्रेरित करने हेतु किस युक्ति का अनुप्रयोग आप नहीं करते हैं?
छात्रों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा स्थापित करना
उन्हें आत्म गौरव की अनुभूति कराना
उनकी अत्यधिक प्रशंसा करना
गतिविधि आधारित शिक्षण अधिगम विधियों का अनुप्रयोग करना
उत्तर : 3
प्रश्न : बुद्धि एवं सृजनात्मकता में किस प्रकार का सहसम्बन्ध पाया गया है?
धनात्मक
ऋणात्मक
शून्य
ये सभी
उत्तर : 1
प्रश्न : कक्षा में अनुशासन बनाए रखने के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली उपाय क्या है?
अनुशासनहीन छात्रों को कक्षा से बाहर निकाल देना
शिक्षण को रोचक एवं व्यवहारिक बनाना
छात्रों के अभिभावकों को सूचित करना
अनुशासनहीन छात्रों को विशिष्ट सुविधाएँ प्रदान करना
उत्तर : 2
प्रश्न : शैशवावस्था में बच्चों के क्रिया-कलाप……………होते हैं।
मूलप्रवृत्यात्मक
संरक्षित
संज्ञानात्मक
संवेगात्मक
उत्तर : 1
प्रश्न : जिन विद्यालयों में समेकित शिक्षा दी जाती है उसके शिक्षकों को किस क्षेत्र विशेष में प्रशिक्षित करना चाहिए?
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान और शिक्षण
व्याख्यान विधि द्वारा शिक्षण
क्रियात्मकता के साथ शिक्षण
उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर : 1
प्रश्न : निम्नलिखित में से किस समूह के बच्चों को समायोजन की समस्या होती है?
औसत बुद्धि के बच्चे
ग्रामीण बच्चे
अध्ययनशील बच्चे
कुशाग्र बुद्धि के बच्चे
उत्तर : 4
प्रश्न : किसी शिक्षक को यदि यह लगता है कि उसका एक विद्यार्थी जो पहले विषय-वस्तु को भली प्रकार सीख रहा था। उसमें स्थिरता आ गई है। शिक्षक को इसे
सीखने की प्रक्रिया की स्वाभाविक स्थिति मानना चाहिए
विषय को स्पष्टता से पढ़ाना चाहिए
विद्यार्थी को प्रेरित करना चाहिए
उपचारात्मक शिक्षण करना चाहिए
उत्तर : 1
प्रश्न : अपनी कक्षा के एक विद्यार्थी की प्रवृत्ति को यदि शिक्षक बदलना चाहता है, तो उसे ……….
विद्यार्थी के साथ कड़ाई से पेश आना होगा
कक्षा के अन्य विद्यार्थियों को उससे न जानने योग्य दूरी बनाए रखने के लिए कहना होगा
उसके समूह के सभी सदस्यों की प्रवृत्ति बदलनी होगी
विद्यार्थी को पढ़ने के प्रति प्रेरित करना होगा
उत्तर : 3
प्रश्न : विकास का वही सम्बन्ध परिपक्वता से है जो उद्दीपन का … से
परिवर्तन
प्रतिक्रिया
प्रयास
परिणाम
उत्तर : 2
प्रश्न : पियाजे मुख्यतः …………. के क्षेत्र में योगदान के लिए जाने जाते हैं।
भाषा विकास
ज्ञानात्मक विकास
नैतिक विकास
सामाजिक विकास
उत्तर : 2
प्रश्न : “जब कभी दो या अधिक व्यक्ति एकसाथ मिलते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं” यह कथन
आंशिक रूप से सत्य है
सत्य है
कदाचित सत्य है
असत्य है
उत्तर : 2
प्रश्न : शिक्षण-प्रकिया में निम्नलिखित में किसका भली प्रकार ध्यान रखना चाहिए?
विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता
अनुशासन और नियमित उपस्थिति
गृहकार्य की जाँच में लगन
विषय-वस्तु का कठिनाई स्तर
उत्तर : 1
प्रश्न : निम्नलिखित व्यक्तियों में से कौन अपने बच्चे/बच्चों को आन्तरिक प्रेरणा दे रहा है?
फादर रॉबर्ट अपनी कक्षा के उन बच्चों को चॉकलेट देते हैं जो अच्छा व्यवहार करते हैं
अगली कक्षा में कक्षोन्नति पाने पर नन्द कुमार अपने पुत्र को कहानी की पुस्तकें देते हैं
अपने पुत्र के जन्मदिन पर गिरिजेश कुमार दावत देते हैं।
विज्ञान विषयों में सर्वोच्च अंक पाने पर राकेश कुमार अपने पुत्र की प्रशंसा करते हैं
उत्तर : 4
प्रश्न : बच्चों के सामाजिक विकास में ……… का विशेष महत्त्व है।
खेल
बाल साहित्य
दिनचर्या
संचार माध्यम
उत्तर : 1
प्रश्न : भाटिया बैटरी का प्रयोग निम्न में से किसके परीक्षण हेतु किया जाता है?
व्यक्तित्व
बुद्धि
सृजनात्मकता
अभिवृत्ति
उत्तर : 2
प्रश्न : कोहलबर्ग का विकास सिद्धान्त निम्न में से किससे सम्बन्धित है?
भाषा विकास
संज्ञानात्मक विकास
नैतिक विकास
सामाजिक विकास
उत्तर : ??
इस प्रश्न का सही उत्तर क्या होगा? हमें अपना जवाब कमेंट सेक्शन में जरूर दें।
सिग्मंड फ्रायड
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इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है।
फ्रायड ( 6 मई 1856 -- 23 सितम्बर 1939 ) आस्ट्रिया के तंत्रिकाविज्ञानी (neurologist) तथा मनोविश्लेषण के संस्थापक थे।
माहरेन में फ्रीबर्ग, मोराविया, ऑस्ट्रियाई साम्राज्य
(अब प्रिबोर, चेक गणराज्य)
मृत्यु
23 सितम्बर 1939 (उम्र 83)
हैम्पस्टीड, लंदन, यूनाइटेड किंगडम
क्षेत्र
तंत्रिकाविज्ञान, मनोचिकित्सा, मनोविश्लेषण
संस्थान
विएना विश्वविद्यालय
शिक्षा
विएना विश्वविद्यालय (MD)
अकादमी सलाहकार
फ्रांज ब्रेंटानो
अर्नस्ट ब्रुके
कार्ल क्लॉस
प्रसिद्धि
मनोविश्लेषण
प्रभाव
Brentano Breuer Charcot Darwin Dostoyevsky Empedocles Fechner Fliess Goethe von Hartmann Herbart Kierkegaard Nietzsche Plato Schopenhauer Shakespeare Sophocles
प्रभावित
List of psychoanalysts
List of psychoanalytical theorists
उल्लेखनीय सम्मान
Goethe Prize (1930)
Foreign Member of the Royal Society
जीवन परिचय -
सिग्मुण्ड फ्रायड का जन्म आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के फ्रीबर्ग (Freiberg) शहर में हुआ। उनके माता-पिता यहूदी थे।
फ्रायड के पिता ऊन के व्यापारी थे और माता इनके पिता की तीसरी पत्नी थीं।
फ्रायड अपने सात भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। 3 साल की उम्र में फ्रायड के पिता लिपजिग (Leipzig) आ गए और उसके एक साल बाद वियना चले गए, जहाँ वे करीब 80 सालों तक रहे। फ्रायड ने वियना विश्वविद्यालय से १८८१ में डॉक्टर ऑफ मेडिसिन किया।
सन् 1938 में हिटलर के नाजी विद्रोह के कारण फ्रायड भागकर लन्दन चले गए। लन्दन में ही सन् 1939 के सितम्बर महीने में उनकी मृत्यु हो गई।
उन्नीसवीं सदी के आरम्भ के कुछ समय पहले मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित हुआ।
इससे पहले मनोविज्ञान को दर्शन के अंतर्गत पढ़ा जाता था।
उस वक्त मनोविज्ञान का उद्देश्य वयस्क मानव की चेतना का विश्लेषण और अध्ययन करना था। फ्रायड ने इस परम्परागत "चेतना के मनोविज्ञान " का विरोध किया और मनोविश्लेषण सम्बन्धी कई नई संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जिसपर हमारा आधुनिक मनोविज्ञान टिका हुआ है।
फ्रायड के प्रारम्भिक जीवन को देखने पर हम पाते हैं कि आरम्भ से ही उनका झुकाव तंत्रिका विज्ञान की ओर था। सन् 1873 से 1881 के बीच उनका संपर्क उस समय के मशहूर तंत्रिका विज्ञानी अर्नस्ट ब्रुकी (Ernst Brucke) से हुआ। फ्रायड, अर्नस्ट ब्रुकी से प्रभावित हुए और उनकी प्रयोगशाला में कार्य प्रारम्भ किया।
शरीर विज्ञान और तंत्रिका विज्ञान में कई शोध पत्र प्रकाशित करने के बाद फ्रायड अर्नस्ट ब्रुकी से अलग हुए और उन्होंने अपना निजी व्यवसाय चिकित्सक के रूप में प्रारम्भ किया। सन् 1881 में फ्रायड ने वियना विश्वविद्यालय से एम.डी (M.D) की उपाधि प्राप्त की।
इससे ठीक थोड़े से वक्त पहले फ्रायड का संपर्क जोसेफ ब्रियुवर (Joseph Breuer) से हुआ।
फ्रायड ने जोसेफ ब्रियुवर के साथ शोधपत्र "स्टडीज इन हिस्टीरिया" लिखा।
"स्टडीज इन हिस्टीरिया" एक रोगी के विश्लेषण पर आधारित था, जिसका काल्पनिक नाम "अन्ना ओ" था। यह माना जाता है कि इसी शोधपत्र में मनोविश्लेषणवाद के बीज छिपे हुए थे। यह शोध बहुत मशहूर हुआ। सन् 1896 में ब्रियुवर तथा फ्रायड में पेशेवर असहमति हुई और वे अलग हो गये।
सन् 1900 फ्रायड के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वर्ष था। इसी वर्ष उनकी बहुचर्चित पुस्तक "इंटरप्रटेशन ऑफ़ ड्रीम" का प्रकाशन हुआ, जो उनके और उनके रोगियों के स्वप्नों के विश्लेषण के आधार पर लिखी गई थी।
इसमें उन्होंने बताया कि सपने हमारी अतृप्त इच्छाओं का प्रतिबिम्ब होते हैं। इस पुस्तक ने उन्हें प्रसिद्ध बना दिया।
कई समकालीन बुद्धिजीवी और मनोविज्ञानी उनकी ओर आकर्षित हुए।
इनमें कार्ल जुंग, अल्फ्रेड एडलर, ओटो रैंक और सैनडोर फ्रैन्क्जी के नाम प्रमुख है। इन सभी व्यक्तियों से फ्रायड का अच्छा संपर्क था, पर बाद में मतभिन्नता हुई और लोग उनसे अलग होते गये।
सन् 1909 में क्लार्क विश्व विद्यालय के मशहूर मनोविज्ञानी जी.एस. हाल द्वारा फ्रायड को मनोविश्लेषण पर व्याख्यान देने का निमंत्रण प्राप्त हुआ, जो उनकी प्रसिद्धि में मील का पत्थर साबित हुआ.
इसमें फ्रायड के अलावा युंग, व्रील, जोन्स, फेरेन्कजी तथा कई अन्य मशहूर मनोविज्ञानी उपस्थित थे। यहॉं से फ्रायड जल्द ही वापस लौट गए, क्योंकि अमेरिका का वातावरण उन्हें अच्छा नही लगा. यहाँ फ्रायड को पेट में गड़बड़ी की शिकायत रहने लगी थी, जिसका कारण उन्होंने विविध अमेरिकी खाद्य सामग्री को बताया।
जुंग और एडलर, फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद के कई बिन्दुओं से सहमत थे। परन्तु फ्रायड द्वारा सेक्स पर अत्यधिक बल दिए जाने को उन्होंने अस्वीकृत कर दिया। इससे अलग-अलग समय में वे दोनों भी इनसे अलग हो गए। जुंग ने मनोविश्लेषण में सांस्कृतिक विरासत के दखल पर और एडलर ने सामाजिकता पर बल दिया। यद्यपि यह सही है की पेशेवर सहकर्मी उनसे एक-एक कर अलग हो रहे थे फिर भी उनकी प्रसिद्धि को इससे कोई फर्क नही पड़ा। सन् 1923 में फ्रायड के मुह में कैंसर का पता चला जिसका कारण उनका जरुरत से ज्यादा सिगार पीना बताया गया।
सन् 1933 में हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।
उसने साफ कहा कि फ्रायड वाद के लिए उसकी सत्ता में कोई जगह नही है। हिटलर ने फ्रायड की सारी पुस्तकों और हस्तलिपियों को जला दिया। वह शायद इससे भी अधिक बुरा व्यवहार करता लेकिन राजनीतिक दबाव और तत्कालीन अमेरिकन राजदूत के हस्तक्षेप के बाद हिटलर ने फ्रायड से जबर्दस्ती एक कागज पर हस्ताक्षर करवाया कि सैनिकों ने उनके साथ कोई बुरा व्यवहार नही किया है। इसके बाद उन्हें वियना छोड़कर लन्दन जाने का आदेश दिया।
लन्दन में उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्हें तुरंत ही रायल सोसाइटी का सदस्य बना लिया गया। यहाँ उन्होंने अपनी अंतिम पुस्तक "मोजेज एंड मोनेथिज्म" का प्रकाशन करवाया।
फ्रॉइड के अनुसार मन के तीन 'छिपे हुए' तत्व ; हिमखण्ड, मन के तीन भागों को इंगित करता है जो जो चेतन में नहीं आ पाते
फ्रायड ने मन या व्यक्तित्व के स्वरुप को गत्यात्मक माना है।
उनके अनुसार व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क एवं शरीर की क्रियाओं का नाम है। फ्रायड के मानसिक तत्व होते हैं जो चेतन में नहीं आ पाते या सम्मोहन अथवा चेतना लोप की स्थिति में चेतन में आते हैं।
इसमें बाल्यकाल की इच्छाएं, लैंगिक इच्छाएं और मानसिक संघर्ष आदि से सम्बंधित वे इच्छाएं होती हैं, जिनका ज्ञान स्वयं व्यक्ति को भी नहीं होता। इन्हें सामान्यतः व्यक्ति अपने प्रतिदिन की जिंदगी में पूरा नही कर पाता और ये विकृत रूप धारण करके या तो सपनों के रूप में या फिर उन्माद के दौरे के रूप में व्यक्ति के सामने उपस्थित होती हैं। फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व का गत्यात्मक पक्ष तीन अवस्थाओं द्वारा निर्मित होता है -
१. इदं (Id )
२. अहम् (ego)
३. पराअहम् (super ego)
इदं की उत्पति मनुष्य के जन्म के साथ ही हो जाती है। फ्रायड इसे व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मानता था। इसकी विषयवस्तु वे इच्छाएं हैं जो लिबिडो (यौन मूल प्रवृति की ऊर्जा) से सम्बंधित हैं और तात्कालिक संतुष्टि चाहती हैं। ऊर्जा की वृद्धि इदं नहीं सहन कर पाता और अगर इसे सही ढंग से अभिव्यक्ति नही मिलती तब यह विकृत स्वरुप धारण करके व्यक्ति को प्रभावित करता है। अहम् (ego) फ्रायड के लिए स्व-चेतना की तरह थी जिसे उसने मानव के व्यवहार का द्वितीयक नियामक बताया। यह इदं का संगठित भाग है, इसका उद्देश्य इदं के लक्ष्यों को आगे बढ़ाना है। परा अहम् एक प्रकार का व्यवहार प्रतिमानक होता है, जिससे नैतिक व्यवहार नियोजित होते हैं। इसका विकास अपेक्षाकृत देर से होता है। फ्रायड के व्यक्तित्व सम्बन्धी विचारों को मनोलैं_गिक विकास का सिद्धांत भी कहा जाता है। इसे फ्रायड ने 5 अवस्थाओं में बांटा है -
_______
१. मौखिक अवस्था (oral stage) - जन्म से एक वर्ष
२. गुदा अवस्था (Anal stage ) - २ से ३ वर्ष
३. लैंगिक अवस्था (Phallic stage) - ४ से ५ वर्ष
४. सुषुप्ता वस्था (Latency stage) - ६ से १२ वर्ष
५ जननिक अवस्था (Gental stage ) - १२ से २० वर्ष
इन्ही के आधार पर उसने विवादास्पद इलेक्ट्रा और ओडिपस काम्प्लेक्स की अवधारणा दी जिसके अनुसार शिशु की लैंगिक शक्ति प्रारंभ में खुद के लिए प्रभावी होती है, जो धीरे -धीरे दूसरे व्यक्तिओं की ओर उन्मुख होती है। इसी कारण पुत्र माता की ओर तथा पुत्री पिता की ओर अधिक आकर्षित होते हैं। इसके कारण लड़कों में माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति प्रतिद्वंदिता उत्पन्न होती है, जिसे फ्रायड द्वारा ओडिपस काम्प्लेक्स का नाम दिया।
यह बहुत विवादास्पद और चर्चित अवधारणा रही है। फ्रायड इन संकल्पनाओं की सत्यता साबित करने के लिए आंकड़े नही दे पाए. उन पर आलोचकों ने यह आरोप लगाया की उन्होंने अपने अनुभवों को इन प्रेक्षणों के साथ मिश्रित किया है और जो कुछ भी उनके रोगियों ने कहा उस पर उन्होंने आँख बंद कर विश्वास किया है। फ्रायड पर यह भी आरोप लगे कि वह मनोविज्ञान में जरुरत से अधिक कल्पनाशीलता और मिथकीय ग्रंथों का घालमेल कर रहे हैं, यौन आवश्यकताओं को जरुरत से अधिक स्थान दे रहे हैं।
फ्रायड के कार्य और उन पर आधारित उनकी मान्यताओं के देखने पर हम यह पाते हैं कि फ्रायड ने मानव की पाशविक प्रवृति पर जरुरत से अधिक बल डाला था। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि निम्नतर पशुओं के बहुत सारे गुण और विशेषताएं मनुष्यों में भी दिखाई देती हैं। उनके द्वारा परिभाषित मूल प्रवृति की संकल्पना भी इसके अंतर्गत आती है।
फ्रायड का यह मत था कि वयस्क व्यक्ति के स्वभाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसके व्यक्तित्व की नींव बचपन में ही पड़ जाती है, जिसे किसी भी तरीके से बदला नही जा सकता. हालाँकि बाद के शोधों से यह साबित हो चुका है कि मनुष्य मूलतः भविष्य उन्मुख होता है।
एक शैक्षिक (अकादमिक) मनोविज्ञानी के समान फ्रायड के मनोविज्ञान में क्रमबद्धता नहीं दिखाई देती परन्तु उन्होंने मनोविज्ञान को एक नई परिभाषा दी जिसके आधार पर हम आधुनिक मनोविश्लेषानात्मक मनोविज्ञान को खड़ा पाते हैं और तमाम आलोचनाओं के बाद भी असामान्य मनोविज्ञान और नैदानिक मनोविज्ञान में फ्रायड के योगदान को अनदेखा नही किया जा सकाता.
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोविश्लेषण का संप्रदाय अपनी लोकप्रियता के करण बहुत चर्चित रहा.
फ्रायड ने कई पुस्तके लिखीं जिनमें से "इंटर प्रटेशन ऑफ़ ड्रीम्स", "ग्रुप साइकोलोजी एंड द एनेलेसिस ऑफ़ दि इगो ", "टोटेम एंड टैबू " और "सिविलाईजेसन______________________ एंड इट्स डिसकानटेंट्स " प्रमुख हैं।
23 सितम्बर 1939 को लन्दन में इनकी मृत्यु हुई।
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रचनाएँ -
द इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स,"इंटर प्रटेशन ऑफ़ ड्रीम्स", "ग्रुप साइकोलोजी एंड द एनेलेसिस ऑफ़ दि इगो ", "टोटेम एंड टैबू " और "सिविलाईजेसन एंड इट्स डिसकानटेंट्स "
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लिव सिमनोविच वाइगोत्सकी (रूसी : Лев Семёнович Вы́готский or Выго́тский, जन्मनाम: Лев Симхович Выгодский ; 1896 - 1934) सोवियत संघ के मनोवैज्ञानिक थे तथा वाइगोत्स्की मण्डल के नेता थे। उन्होने मानव के सांस्कृतिक तथा जैव-सामाजिक विकास का सिद्धान्त दिया जिसे सांस्कृतिक-ऐतिहासिक मनोविज्ञान कहा जाता है।
लेव वाइगोत्सकी (Lev Vygotsky)
जन्म
19 नवम्बर 1896
ओरशा, रूसी साम्राज्य, अब यह बेलारुस है।
मृत्यु
जून 11, 1934 (उम्र 37)
मॉस्को, सोवियत संघ
क्षेत्र
मनोविज्ञान
शिक्षा
मास्को विश्वविद्यालय
Shaniavskii Moscow City People's University
उल्लेखनीय शिष्य
Alexander Luria
प्रसिद्धि
Cultural-historical psychology, Zone of proximal development
प्रभाव
Wilhelm von Humboldt, Alexander Potebnia, Alfred Adler, Kurt Koffka, Kurt Lewin, Max Wertheimer, Wolfgang Köhler, Kurt Goldstein
प्रभावित
Vygotsky Circle, Evald Ilyenkov, Jean Piaget, Urie Bronfenbrenner
उनका मुख्य कार्यक्षेत्र विकास मनोविज्ञान था। उन्होने बच्चों में उच्च संज्ञानात्मक कार्यों के विकास से सम्बन्धित एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। अपने करीअर के आरम्भिक काल में उनका तर्क था कि तर्क-शक्ति का विकास चिह्नों एवं प्रतीकों के माध्यम से होता है।
वाइगोत्स्की का सामाजिक दृषिटकोण संज्ञानात्मक विकास का एक प्रगतिशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
वस्तुत: वाइगोत्सकी ने बालक के संज्ञानात्मक विकास में समाज एवं उसके सांस्कृतिक संबन्धों के बीच संवाद को एक महत्त्वपूर्ण आयाम घोषित किया।
ज़ीन प्याज़े की तरह वाइगोत्स्की भी यह मानते थे कि बच्चे ज्ञान का निर्माण करते हैं। किन्तु इनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास एकाकी नहीं हो सकता, यह भाषा-विकास, सामाजिक-विकास, यहाँ तक कि शारीरिक-विकास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में होता है।[1]
वाइगोत्सकी के अनुसार बच्चे के संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए एक विकासात्मक उपागम की आवश्यकता है। जो कि इसका शुरू से परीक्षण करे तथा विभिन्न रूपों में हुए परिवर्तन को ठीक से पहचान पाए। इस प्रकार एक विशिष्ट मानसिक कार्य जैसे- आत्म-भाषा को विकासात्मक प्रक्रियाओं के रूप में मूल्यांकित किया जाए, न कि एकाकी रूप से।
वाइगोत्सकी के अनुसार संज्ञानात्मक विकास को समझने के लिए उन औजारों का परीक्षण अति आवश्यक है जो संज्ञानात्मक विकास में मध्यस्थता करते हैं तथा उसे रूप प्रदान करते हैं। इसी के आधार पर वे यह भी मानते हैं कि भाषा संज्ञानात्मक विकास का महत्त्वपूर्ण औजार है। इनके अनुसार आरमिभक बाल्यकाल में ही बच्चा अपने कार्यों के नियोजन एवं समस्या समाधान में भाषा का औजार की तरह उपयोग करने लग जाता है।
वाइगोत्सकी का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त संपादित करें
वाइगोत्सकी ने सन 1924-34 में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलाजी (मास्को) में अध्ययन किया।
यहां पर उन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर विशेष कार्य किया, विशेषकर भाषा और चिन्तन के सम्बन्ध पर। उनके अध्ययन में संज्ञान के विकास के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारकों के प्रभाव का वर्णन किया गया है। वायगास्की के अनुसार भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख सांकेतिक उपकरण है जो कि बालक के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
जिस प्रकार हम जल के अणु का अध्ययन उसके भागों (H & O) के द्वारा नहीं कर सकते, उसी प्रकार व्यक्ति का अध्ययन भी उसके वातावरण से पृथक होकर नही किया जा सकता।
व्यक्ति का उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक सन्दर्भ में अध्ययन ही हमें उसकी समग्र जानकारी प्रदान करता है। वायगास्की ने संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के दौरान प्याजे का अध्ययन किया और फिर अपना दृष्टिकोण विकसित किया।
प्याज़े के अनुसार विकास और अधिगम (सीखना) दो अलग धारणाएं हैं जिनमें संज्ञान भाषा के विकास को एक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में प्रभावित करता है।
विकास हो जाने के पश्चात् उस विशेष अवस्था में आवश्यक कौशलों की प्राप्ति ही अधिगम है।
इस प्रकार प्याजे के सिद्धान्त के अनुसार विकास, अधिगम की पूर्वावस्था है न कि इसका परिणाम। अर्थात् अधिगम का स्तर विकास के ऊपर है। प्याज़े के अनुसार अधिगम के लिए सर्वप्रथम एक निश्चित विकास स्तर पर पहुंचना आवश्यक है।
वाइगोत्सकी के अनुसार अधिगम और विकास की पारस्परिक प्रक्रिया में बालक की सक्रिय भागीदारी होती है जिसमें भाषा का संज्ञान पर सीधा प्रभाव होता है।
अधिगम और विकास अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाएं है जो छात्र के जीवन के पहले दिन से प्रारम्भ हो जाती हैं।
वाइगोत्सकी के अनुसार विभिन्न बालकों के अलग-अलग विकास स्तर पर अधिगम की व्यवस्था समरूप तो हो सकती है किन्तु एकरूप नहीं, क्योंकि सभी बच्चों का सामाजिक अनुभव अलग होता है।
उनके अनुसार अधिगम विकास को प्रेरित करता है।
उनका यह दृष्टिकोण प्याज़े के सिद्धान्त एवं अन्य सिद्धान्तों से भिन्न है।
वायगास्की अपने सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के लिए जाने जाते है।
इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक अन्तःक्रिया (इन्तरैक्शन) ही बालक की सोच व व्यवहार में निरन्तर बदलाव लाता है जो एक संस्कृति से दूसरे में भिन्न हो सकता है। उनके अनुसार किसी बालक का संज्ञानात्मक विकास उसके अन्य व्यक्तियों से अन्तर्सम्बन्धों पर निर्भर करता है।
वायगास्की ने अपने सिद्धान्त में संज्ञान और सामाजिक वातावरण का सम्मिश्रण किया। बालक अपने से बड़े और ज्ञानी व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर चिन्तन और व्यवहार के संस्कृति अनुरूप तरीके सीखते है।
सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के कई प्रमुख तत्व है।
प्रथम महत्वपूर्ण तत्व है- व्यक्तिगत भाषा। इसमें बालक अपने व्यवहार को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए स्वयं से बातचीत करते है।
सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है- निकटतम विकास का क्षेत्र।
वायगास्की ने शिक्षक के रूप में अनुभव के दौरान यह जाना है कि बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते है यदि उन्हें थोड़ा निर्देश मिल जाए।
इस स्तर को वायगास्की ने सम्भावित विकास कहा। बालक के वास्तविक विकास स्तर और सम्भावित विकास स्तर के बीच के अन्तर/क्षेत्र को वायगास्की ने निकटतम विकास का क्षेत्र कहा।
कृतियाँ ★
Consciousness as a problem in the Psychology of Behavior, essay, 1925
Educational Psychology, 1926
Historical meaning of the crisis in Psychology, 1927
The Problem of the Cultural Development of the Child, essay 1929
The Fundamental Problems of Defectology, article 1929
The Socialist alteration of Man, 1930
Ape, Primitive Man, and Child: Essays in the History of Behaviour, A. R. Luria and L. S. Vygotsky., 1930
Paedology of the Adolescent, 1931
Play and its role in the Mental development of the Child, essay 1933
Thinking and Speech, 1934
Tool and symbol in child development, 1934
Mind in Society: The Development of Higher Psychological Processes, 1978
Thought and Language, 1986
The Collected Works of L. S. Vygotsky, 1987 overview
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प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त
पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत, मनुष्य के जीवन में होने वाले बदलावों और विकास को बताता
जीन प्याज़े द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त (theory of cognitive development) मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
प्याज़े का सिद्धान्त, विकासी अवस्था सिद्धान्त (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।
जीन प्याज़े
व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं।
जीन प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को विकासात्मक सिद्धान्त भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे अवस्था सिद्धान्त (STAGE THEORY ) भी कहा जाता है।
संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ संपादित करें
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
(१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के 2 वर्ष
(२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
(३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से12 वर्ष
(४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 12से 15 वर्ष
संवेदी पेशीय अवस्था संपादित करें
जन्म के 2 वर्ष
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ (Reflexes) होती हैं। इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं, स्पर्श, रसों एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।
उन्होंने इस अवस्था को छः उपवस्थाओं मे बांटा है :
1- सहज क्रियाओं की अवस्था (जन्म से 30 दिन तक)
2- प्रमुख वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 1 माह से 4 माह)
3- गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 4 माह से 8 माह)
4- गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था ( 8 माह से 12 माह )
5- तृतीय वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था ( 12 माह से 18 माह )
6- मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था ( 18 माह से 24 माह )
पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था संपादित करें
इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है। अब वह खेल, अनुकरण, चित्र-निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है।
धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। इस अवस्था में अनुकरणशीलता पायी जाती है। इस अवस्था मे बालक के अनुकरणों मे परिपक्वता आ जाती है। इस अवस्था मे प्रकट होने वाले लक्षण दो प्रकार के होने से इसे दो भागों में बांटा गया है।
(क) पूर्व सम्प्रत्यात्मक काल (Pre–conceptional या Symbolic function substage ; 2-4 वर्ष) : पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। बालक संकेत तथा चिह्न को मस्तिष्क में ग्रहण करते हैं। बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझते हैं।आत्मकेंद्रित हो जाता है बालक।
संकेतों एवं भाषा का विकास तेज होने लगता है।
इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है अर्थात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, शब्द आदि का प्रयोग कर लेता है।
छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है।
बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं।
इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है।
दो वर्ष का बालक एक या दो शब्दों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस शब्दों के वाक्य बोल लेता है।
(ख) अंतःप्रज्ञक काल (Intuitive thought substage ; 4-7 वर्ष) : बालक छोटी छोटी गणनाओं जैसे जोड़-घटाना आदि सीख लेता है। संख्या प्रयोग करने लगता है। इसमें क्रमबद्ध तर्क नही होता है।
मूर्त संक्रियात्मक अवस्था संपादित करें
इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारम्भ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है।
इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण, क्रमानुसार व्यवस्था, किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है।
वह तर्क कर सकता है।
संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है|
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औपचारिक या अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था
यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-
तार्किक चिन्तन की क्षमता का विकास
समस्या समाधान की क्षमता का विकास
वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
विसंगतियों के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास
जीन पियाजे ने इस अवस्था को अन्तर्ज्ञान कहा है
संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं संरचना
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन।
संगठन से तात्पर्य बुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है।
उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नहीं करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है।
वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।
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जीन पियाजे (Dr. jean piaget, 1896-1980) एक स्विस मनोविज्ञानिक थे तथा मूलरूप से वे प्राणी विज्ञान (zoology) के विद्वान थे।
प्रश्न : ‘संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है यह कथन निम्नांकित में से किसका है?
पियाजे
वुडवर्थ
वैलेन्टाइन
रॉस
उत्तर : 2
प्रश्न : शैक्षिक विकास में मूल्यांकन का अर्थ है
छात्रों की प्रगति का आकलन
कक्षा अभिलेखों का मूल्यांकन
कार्य निष्पादन का मूल्यांकन
ज्ञान क्षमता का मूल्यांकन
उत्तर : 4
प्रश्न : पूर्वाग्रही किशोर/किशोरी अपनी …………. के प्रति कठोर होंगे।
समस्या
जीवनशैली
सम्प्रत्यय
वास्तविकता
उत्तर : 1
प्रश्न : संज्ञानात्मक विकास के चार चरणों ……….. संवेदी पेशीय, पूर्व संक्रियात्मक, स्थूल संक्रियात्मक और औपचारिक संक्रियात्मक की पहचान की गई है।
हिलगार्ड द्वारा
स्टॉट द्वारा
हरलॉक द्वारा
पियाजे द्वारा
उत्तर : 4
प्रश्न : कौन-से गुण अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के नहीं हैं?
नियमित जीवन, संवेगात्मक परिपक्वता
आत्मविश्वास, सहनशीलता
बहुत विनीत, स्वयं में सीमित
वास्तविकता की स्वीकृति, स्व-मूल्यांकन की योग्यता
उत्तर : 3
प्रश्न : अधिगम क्षमता निम्नलिखित में से किससे प्रभावित नहीं होती?
आनुवंशिकता
वातावरण
प्रशिक्षण/शिक्षण
राष्ट्रीयता
उत्तर : 4
प्रश्न : किस अधिगम मनोवैज्ञानिक ने बाल-अधिगम विकास में पुरस्कार को महत्त्व नहीं दिया है?
थार्नडाइक
पावलॉव
स्किनर
गुथरी,
उत्तर : 4
प्रश्न : निम्नलिखित में से किस एक से शिशु के अधिगम को सहायता नहीं मिलती?
अनुकरण
अभिप्रेरणा
स्कूल का बस्ता
पुरस्कार
उत्तर : 3
प्रश्न : स्व-केन्द्रित अवस्था होती है बालक के
जन्म से 2 वर्ष तक
3 से 6 वर्ष तक
7 वर्ष से किशोरावस्था तक
किशोरावस्था में
उत्तर : 2
प्रश्न : माँ-बाप के साये से बाहर निकल अपने साथी बालकों की संगत को पसन्द करना सम्बन्धित है
किशोरावस्था से
पूर्व किशोरावस्था से
उत्तर बाल्यावस्था से
शैशवावस्था से
उत्तर : 2
प्रश्न : सीखने का प्राथमिक मूलभूत नियम सम्बन्धित है
अभ्यास कार्य से
परिणाम की अपेक्षा से
प्रशंसा से
तत्परता से
उत्तर : 4
प्रश्न : मानसिक परिपक्वता की ऊँचाइयों को छूने के लिए, प्रयत्नरत रहना सम्बन्धित है
किशोरावस्था से
प्रौढावस्था से
पूर्व बाल्यावस्था से
उत्तर बाल्यावस्था से
उत्तर : 1
प्रश्न : सीखने की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक हैं
अनुकरण
प्रशंसा एवं निन्दा
प्रतियोगिता
ये सभी
उत्तर : 4
प्रश्न : बालकों के सीखने में प्रेरणा को किस रूप में उपयोगी माना जाता है?
बालक की वैयक्तिकता का आदर
पुरस्कार एवं दण्ड
प्रशंसा एवं भर्त्सना
उपरोक्त सभी
उत्तर : 4
प्रश्न : कक्षा में विद्यार्थियों को अधिगम के लिए प्रेरित करने हेतु किस युक्ति का अनुप्रयोग आप नहीं करते हैं?
छात्रों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा स्थापित करना
उन्हें आत्म गौरव की अनुभूति कराना
उनकी अत्यधिक प्रशंसा करना
गतिविधि आधारित शिक्षण अधिगम विधियों का अनुप्रयोग करना
उत्तर : 3
प्रश्न : बुद्धि एवं सृजनात्मकता में किस प्रकार का सहसम्बन्ध पाया गया है?
धनात्मक
ऋणात्मक
शून्य
ये सभी
उत्तर : 1
प्रश्न : कक्षा में अनुशासन बनाए रखने के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली उपाय क्या है?
अनुशासनहीन छात्रों को कक्षा से बाहर निकाल देना
शिक्षण को रोचक एवं व्यवहारिक बनाना
छात्रों के अभिभावकों को सूचित करना
अनुशासनहीन छात्रों को विशिष्ट सुविधाएँ प्रदान करना
उत्तर : 2
प्रश्न : शैशवावस्था में बच्चों के क्रिया-कलाप……………होते हैं।
मूलप्रवृत्यात्मक
संरक्षित
संज्ञानात्मक
संवेगात्मक
उत्तर : 1
प्रश्न : जिन विद्यालयों में समेकित शिक्षा दी जाती है उसके शिक्षकों को किस क्षेत्र विशेष में प्रशिक्षित करना चाहिए?
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की पहचान और शिक्षण
व्याख्यान विधि द्वारा शिक्षण
क्रियात्मकता के साथ शिक्षण
उपरोक्त में से कोई नहीं
उत्तर : 1
प्रश्न : निम्नलिखित में से किस समूह के बच्चों को समायोजन की समस्या होती है?
औसत बुद्धि के बच्चे
ग्रामीण बच्चे
अध्ययनशील बच्चे
कुशाग्र बुद्धि के बच्चे
उत्तर : 4
प्रश्न : किसी शिक्षक को यदि यह लगता है कि उसका एक विद्यार्थी जो पहले विषय-वस्तु को भली प्रकार सीख रहा था। उसमें स्थिरता आ गई है। शिक्षक को इसे
सीखने की प्रक्रिया की स्वाभाविक स्थिति मानना चाहिए
विषय को स्पष्टता से पढ़ाना चाहिए
विद्यार्थी को प्रेरित करना चाहिए
उपचारात्मक शिक्षण करना चाहिए
उत्तर : 1
प्रश्न : अपनी कक्षा के एक विद्यार्थी की प्रवृत्ति को यदि शिक्षक बदलना चाहता है, तो उसे ……….
विद्यार्थी के साथ कड़ाई से पेश आना होगा
कक्षा के अन्य विद्यार्थियों को उससे न जानने योग्य दूरी बनाए रखने के लिए कहना होगा
उसके समूह के सभी सदस्यों की प्रवृत्ति बदलनी होगी
विद्यार्थी को पढ़ने के प्रति प्रेरित करना होगा
उत्तर : 3
प्रश्न : विकास का वही सम्बन्ध परिपक्वता से है जो उद्दीपन का … से
परिवर्तन
प्रतिक्रिया
प्रयास
परिणाम
उत्तर : 2
प्रश्न : पियाजे मुख्यतः …………. के क्षेत्र में योगदान के लिए जाने जाते हैं।
भाषा विकास
ज्ञानात्मक विकास
नैतिक विकास
सामाजिक विकास
उत्तर : 2
प्रश्न : “जब कभी दो या अधिक व्यक्ति एकसाथ मिलते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, तो वे एक सामाजिक समूह का निर्माण करते हैं” यह कथन
आंशिक रूप से सत्य है
सत्य है
कदाचित सत्य है
असत्य है
उत्तर : 2
प्रश्न : शिक्षण-प्रकिया में निम्नलिखित में किसका भली प्रकार ध्यान रखना चाहिए?
विद्यार्थियों की सक्रिय सहभागिता
अनुशासन और नियमित उपस्थिति
गृहकार्य की जाँच में लगन
विषय-वस्तु का कठिनाई स्तर
उत्तर : 1
प्रश्न : निम्नलिखित व्यक्तियों में से कौन अपने बच्चे/बच्चों को आन्तरिक प्रेरणा दे रहा है?
फादर रॉबर्ट अपनी कक्षा के उन बच्चों को चॉकलेट देते हैं जो अच्छा व्यवहार करते हैं
अगली कक्षा में कक्षोन्नति पाने पर नन्द कुमार अपने पुत्र को कहानी की पुस्तकें देते हैं
अपने पुत्र के जन्मदिन पर गिरिजेश कुमार दावत देते हैं
विज्ञान विषयों में सर्वोच्च अंक पाने पर राकेश कुमार अपने पुत्र की प्रशंसा करते हैं
उत्तर : 4
प्रश्न : बच्चों के सामाजिक विकास में ……… का विशेष महत्त्व है।
खेल
बाल साहित्य
दिनचर्या
संचार माध्यम
उत्तर : 1
प्रश्न : भाटिया बैटरी का प्रयोग निम्न में से किसके परीक्षण हेतु किया जाता है?
व्यक्तित्व
बुद्धि
सृजनात्मकता
अभिवृत्ति
उत्तर : 2
प्रश्न : कोहलबर्ग का विकास सिद्धान्त निम्न में से किससे सम्बन्धित है?
भाषा विकास
संज्ञानात्मक विकास
नैतिक विकास
सामाजिक विकास
उत्तर : ??
इस प्रश्न का सही उत्तर क्या होगा? हमें अपना जवाब कमेंट सेक्शन में जरूर दें।
___________
निगमन विधि / Inductive & Deductive Method
Deductive, Inductive
आगमन विधि – (Inductive Method)
आगमन विधि उस विधि को कहते हैं जिसमें विशेष तथ्यों तथा घटनाओं के निरीक्षण तथा विश्लेषण द्वारा सामान्य नियमों अथवा सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता हैं।
इस विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर, विशिष्ट से सामान्य की ओर तथा मूर्त से अमूर्त की ओर नामक शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता हैं।
दूसरे शब्दों में, इस विधि का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों के सामने पहले उन्हीें के अनुभव क्षेत्र से विभिन्न उदाहरणों के सम्बन्ध में निरीक्षण, परीक्षण तथा ध्यानपूर्वक सोच विचार करके सामान्य नियम अथवा सिद्धान्त निकलवाता है। इस प्रकार आगमन विधि में विशिष्ट उदाहरणों द्वारा बालकों को सामान्यीकरण अथवा सामान्य नियमों को निकलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं।
उदाहरण के लिये व्याकरण पढ़ाते समय बालकों के सामने विभिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं तथा स्थानों एवं गुणों के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करके विश्लेषण द्वारा यह सामान्य नियम निकलवाया जा सकता हैं कि किसी व्यक्ति, वस्तु तथा स्थान एवं गुण को संज्ञा कहते हैं।
जिस प्रकार आगमन विधि का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है, उसी प्रकार इस विधि को इतिहास, भूगोल, गणित, नागरिक शास्त्र, तथा अर्थशास्त्र आदि अनेक विषयों के शिक्षण में भी सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। आगमन विधि में शिक्षण क्रम को निम्नलिखित सोपाणो में बांटा जाता है-
उदाहरणों की प्रस्तुतीकरण--
इस सोपान में बालकों के सामने एक ही प्रकार के अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं l
विश्लेषण
ऐसे सोपान में प्रस्तुत किए हुए उदाहरणों का बालकों से निरीक्षण कराया जाता है तत्पश्चात शिक्षक बालकों से विश्लेषणात्मक प्रश्न पूछता है अंत में उन्हें उदाहरणों में से सामान्य तत्व की खोज करके एक ही परिणाम पर पहुंचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
सामान्यीकरण
इस सोपान में बालक सामान्य नियम निकालते हैं.
परीक्षण
इस सोपान में बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों की विभिन्न उदाहरणों द्वारा परीक्षा की जाती है l
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आगमन विधि के गुण
आगमन विधि के निम्नलिखित गुण है
आगमन विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान के खोजने का प्रशिक्षण मिलता है l यह प्रशिक्षण उन्हें जीवन में नए नए तथ्यों को खोज निकालने के लिए सदैव प्रेरित करता रहता है l
अतः विधि शिक्षण की एक मनोवैज्ञानिक विधि हैl
आगमन विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा सरल से जटिल की ओर चलकर मूर्त उदाहरणों द्वारा बालकों से सामान्य नियम निकलवाए जाते हैंl इससे वे सक्रिय तथा प्रसन्न रहते हैं ज्ञानार्जन हेतु उनकी रुचि निरंतर बनी रहती है एवं उनमें रचनात्मक चिंतन, आत्मविश्वास आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं l
आगमन विधि में ज्ञान प्राप्त करते हुए बालक को सीखने के प्रत्येक स्तर को पार करना पड़ता है l इससे शिक्षण प्रभावशाली बन जाता हैl
इस विधि में बालक उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए सामान्य नियम एवं स्वयं निकाल लेते हैंl इससे उनका मानसिक विकास सफलतापूर्वक हो जाता हैl
इस विधि द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं बालकों का खोजा हुआ ज्ञान होता हैl अतः ऐसा ज्ञान उनके मस्तिष्क का स्थाई अंग बन जाता हैl
यह विधि व्यवहारिक जीवन के लिए अत्यंत लाभप्रद है अतः यह विधि एक प्राकृतिक विधि हैl
आगमन विधि के दोष
आगमन विधि के निम्नलिखित दोष हैं-
इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैंl
यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हैl इसका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकता हैl सामान्य बुद्धि वाले बालक तो प्रायः प्रतिभाशाली बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मिचकर स्वीकार कर लेते हैंl
आगमन विधि द्वारा सीखते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की ओर पहुंच जाए तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैl
आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती है l
यह विधि स्वयं में अपूर्ण हैl इसके द्वारा खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक हैl
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आगमन विधि ही ऐसी विधि है जिसके द्वारा सामान्य नियमों अथवा सिद्धांतों की खोज की जा सकती है l
अतः इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय यह आवश्यक है कि शिक्षक उदाहरणों तथा प्रश्नों का प्रयोग बालकों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए करें इससे उसकी नवीन ज्ञान को सीखने में उत्सुकता निरंतर बढ़ती रहेगीl
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निगमन विधि (INDUCTIVE METHODS)
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शिक्षण के निगमन विधि उस विधि को कहते हैं जिसमें सामान्य से विशिष्ट अथवा सामान्य नियम से विशिष्ट उदाहरण की ओर बढ़ा जाता है l इस प्रकार निगमन विधि आगमन विधि के बिल्कुल विपरीत है l __
इस विधि का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों के सामने पहले किसी सामान्य नियम को प्रस्तुत करता हैl
तत्पश्चात उस नियम की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए विभिन्न उदाहरणों का प्रयोग करता हैl
कहने का तात्पर्य है कि निगमन विधि में विभिन्न प्रयोगों तथा उदाहरणों के माध्यम से किसी सामान्य नियम की सभ्यता घोषित करवाया जाता हैl
उदाहरण के लिए, विज्ञान की शिक्षा देते समय बालकों से किसी भी सामान्य नियम को अनेक प्रयोग द्वारा सिद्ध कराया जा सकता है l
इस प्रकार इस विधि का प्रयोग विज्ञान के शिक्षण में की या जा सकता है l
उसी प्रकार इसका प्रयोग सामाजिक विज्ञान, व्याकरण, अंक गणित, ज्यामिति आदि अन्य विषयों के शिक्षण में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है l निगमण विधि में निम्नलिखित सोपाण होते हैं-
सामान्य नियमों का प्रस्तुतीकरण-★
इस सवाल में शिक्षक का लोगों के सामने सामान्य नियमों को कर्म पूर्वक प्रस्तुत करता हैl
संबंधों की स्थापना
इस सप्ताह में विश्लेषण की प्रक्रिया आरंभ होती है l
दूसरों शब्दों में, शिक्षक प्रस्तुत किए हुए नियमों के अंदर तर्कयुक्त संबंधों का पर निरूपण करता हैl
इस सोपाण में सामान्य नियमों की परीक्षा करने के लिए विभिन्न उदाहरणों को ढूंढा जाता है l दूसरे शब्दों में सामान्य नियमों _का विभिन्न परिस्थितियों में प्रयोग किया जाता है l इस सत्यता का ठीक-ठीक परीक्षण हो जाए l
निगमन विधि के गुण-★
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निगमन विधि के गुण में निम्नलिखित हैं
या विधि प्रत्येक विषय को पढ़ने के लिए उपयुक्त है.
निगमन विधि द्वारा पालक शुद्ध नियमों की जानकारी प्राप्त करते हैं उन्हें अशुद्ध नियमों को जानने का कोई अवसर नहीं मिलता.
इस विधि द्वारा कक्षा के सभी बालकों को एक ही समय में पढ़ाया जा सकता है.
इस विधि के प्रयोग से समय तथा शक्ति दोनों की बचत होती है.
निगमन विधि में शिक्षक बने बनाए नियमों को बालकों के सामने प्रस्तुत करता हैl इस विधि में शिक्षक का कार्य अत्यंत सरल होता हैl
निगमन विधि के दोष
इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान अस्पष्ट एवं अस्थायी होता है।
इस विधि में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्नों के लिए अनेक सूत्र याद करने होते हैं जो कठिन कार्य है। इसमें क्रियाशीलता का सिद्धान्त लागू नहीं होता।
यह विधि बालक की तर्क, विचार व निर्णय शक्ति के विकास में सहायक नहीं है।
यह विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के विपरीत है क्योंकि यह स्मृति केन्द्रित विधि है।
यह विधि खोज करने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देती है।
अतः छात्र की मानसिक शक्ति का विकास नहीं होता हैं
हिन्दी प्रारम्भ करने वालों के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है।
यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए विभिन्न सूत्रों, नियमों आदि को समझना बहुत कठिन होता हैं।
इस विधि के प्रयोग से अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया अरुचिकर तथा नीरस बनी रहती हैं।
स्वतन्त्रतापूर्वक इस विधि का प्रयोग सम्भव नहीं हो सकता।
इस विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान अर्जित करने के अवसर नहीं मिलते हैं।
छात्र में आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं होता हैं।
इस विधि में बालक यन्त्रवत् कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नहीं रहता है कि वे अमुक कार्य इस प्रकार ही क्यों कर रहे हैं।
इस विधि में तर्क, चिन्तन एवं अन्वेषण जैसी शक्तियों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।
इसके द्वारा अर्जित ज्ञान स्थायी नहीं होता है।
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आगमन विधि एवं निगमन विधि के बारे में जानकारी
Important post for inductive and deductive teaching method…
आगमन विधि कक्षा शिक्षण की महत्वपूर्ण विधि है।
इस विधि में विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण के दौरान सबसे पहले उदाहरण दिए जाते हैं तत्पश्चात सामान्य सिध्दांत का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
आगमन विधि की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1- उदाहरण से नियम की ओर
2- स्थूल से सूक्ष्म की ओर
3- विशिष्ट से सामान्य की ओर
4- ज्ञात से अज्ञात की ओर
5- मूर्त से अमूर्त की ओर
6- प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर
आगमन विधि को प्राय: थकान वाली शिक्षण विधि माना जाता है क्योंकि इसमें शिक्षण प्रक्रिया काफी लम्बी होती है।
आगमन विधि अरस्तू ने दी थी।
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निगमन विधि
कक्षा शिक्षण में निगमन विधि का महत्वपूर्ण स्थान है यह विधि विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए अत्यंत उपयोगी है।
निगमन विधि के प्रतिपादक अरस्तू हैं।
निगमन विधि की शिक्षण के दौरान प्रस्तुत विषयवस्तु प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
1- सूक्ष्म से स्थूल की ओर
2- सामान्य से विशिष्ट की ओर
3- अज्ञात से ज्ञात की ओर
4- प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
5- अमूर्त से मूर्त की ओर
शिक्षण की निगमन विधि में शिक्षण प्रक्रिया सामान्य से विशिष्ट की ओर उन्मुख होती है॥
इस विधि में पाठ्यचर्या का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर होता है। विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण का क्रम अमूर्त से मूर्त की तरफ होता है। कक्षा शिक्षण प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर होता है एवं विषयवस्तु की प्रकृति अज्ञात से ज्ञात की ओर होती है।
निगमन विधि को विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए उपयोगी माना जाता है लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं इस शिक्षण की इस विधि में विद्यार्थी रटने की प्रवृत्ति को ओर बढने लगते हैं जो शिक्षण अधिगम की गति को धीमी करता है।
“ मनोज गुणों का वह गत्यात्मक संगठन है, जो पर्यावरण के प्रति होने वाले इसके पूर्व संयोजन का निर्धारण करता है”।
– ऑलपोर्ट
आर.बी. कैटल ने व्यक्तित्व का मापन किस आधार पर किया।
– शील गुणों के आधार पर
‘मास्टर ग्लैंड’ किस ग्रंथि को कहा जाता है। – पीयूष ग्रंथि
रोर्शा स्याही धब्बा परीक्षण में प्रयुक्त कार्डों की संख्या बताइए ।–
10
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किसके अनुसार‘ व्यक्तित्व जन्मजात और अर्जित प्रवृत्तियों का योग है’। – वेलेंटाइन
मूल्यों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण किसने किया।
– स्प्रेगर ने
जून गने ने व्यक्तित्व के कितने प्रकार बताए हैं – 3
व्यक्तित्व की संरचना विक्रम और किसका सम्मिलित योगदान रहता है
– पर्यावरण
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एकांत प्रिय, कल्पनाशीलता चिंतनशील व्यक्ति किस प्रकार की अभिव्यक्त व वाले होते हैं –
★-अंतर्मुखी
किस विचारक की दृष्टि से व्यक्तियों को तीन भागों में बांटा गया है – थार्नडाइक।
अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों में पाया जाने वाला व्यक्तित्व होता है – उभयमुखी।
व्यक्तित्व को निर्धारित करने वाले दो कारक कौन-कौन से हैं –
1. जैविक कारक 2. वातावरण जन्य
व्यक्ति को व्यक्ति के किन गुणों का समग्र रूप कहा है – आंतरिक एवं बाह्य गुणों का
दर्शन शास्त्र के अनुसार आत्म गुण का दूसरा नाम क्या है – व्यक्तित्व।
व्यक्तित्व किस का गुणनफल है – वंशानुक्रम एवं वातावरण।
पिछड़ापन मापने की इकाई क्या होती है – शैक्षणिक लब्धि।
किस प्रकार के बालकों की बुद्धि लब्धि 85 होती है – पिछड़े बालक उनकी।
व्यक्तिगत विभिन्नता’ शब्द का प्रयोग किस मनोवैज्ञानिक ने किया था – गाल्टन ने।
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व्यक्तिगत विभिन्नता का कारण बताइए – 1. वंशानुक्रम , 2.वातावरण , 3.जाति, प्रजाति संस्कृति और राष्ट्र , 4.परिपक्वता, 5.आयु , 6.लिंग।
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NIVH का पूरा नाम क्या है – National Institute of visually haadicapped
(राष्ट्रीय दृष्टिहीन विकलांग संस्थान)
NIVH कहां स्थित है – देहरादून में
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NIOH का पूरा नाम क्या है – National Institute of orthopatic Handicappes
NIOH कहां स्थित है – कोलकाता
राष्ट्रीय
हड्डी रोग संस्थान
विकलांग
NIMH का पूरा नाम क्या है – National Institute of Meantal Handicapped
NIMH कहां पर स्थित है – सिकंदराबाद
NIHH का पूरा नाम लिखिए – National Institute of Hearing Handicapped
NIHH का पूरा नाम क्या है – मुंबई
“जिन बालकों की बुद्धि लब्धि 70 से कम होती है उन्हें मंदबुद्धि कहते हैं” यह कथन किसने दिया – क्रो एवं क्रो का ने।
प्रतिभाशाली बालक इन बालकों की श्रेणी में आते हैं – विशिष्ट बालक।
मानसिक न्यूनता वाले बालकों को क्या कहते हैं – मंदबुद्धि बालक
“ पिछड़ा बालक वह है जो स्कूल के जीवन के मध्य में अपनी आयु स्तर, की कक्षा से एक सीढ़ी नीचे की कक्षा का कार्य करने में असमर्थ हो”यह कथन है – सिरिल बर्ट।
टर्मन के अनुसार प्रतिभाशाली बालक की बुद्धि लब्धि कितनी होनी चाहिए – 140 से ऊपर।
छात्रों को कैसे विषय देने चाहिए – रुचि एवं योग्यता के अनुसार।
AAMR का पूरा नाम क्या है – American Association of mentally retired।
AAMD का अर्थ क्या होता है – American Association of mentally deficiency।
आर्मी अल्फा बुद्धि परीक्षण किस प्रकार का परीक्षण होता है – शाब्दिक, सामूहिक परीक्षण
बाकर मेहंदी का संबंध किससे है – सृजनात्मक परीक्षण से
किसने सर्वप्रथम प्रयोगशाला खोलकर बुद्धि परीक्षण के कार्य को वैज्ञानिक आधार दिया – वुण्ट ने
वुण्ट ने मे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की प्रयोगशाला कब स्थापित की – 1879 ई.
सामूहिक बुद्धि परीक्षण किस देश में सर्वप्रथम प्रारंभ हुआ – अमेरिका
बुद्धि के समूह कारक सिद्धांत का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया – थर्स्टन
डॉक्टर भाटिया द्वारा क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण माला का निर्माण कब किया गया – 1955 ई. में
बाधित बुद्धि परीक्षण में प्रयोज्य की बुद्धि का मापन करने में किसका प्रयोग किया जाता है – भाषा या शब्दों का
भारत में सृजनात्मक परीक्षण की रचना किसने की – बाकर मेहंदी
बुद्धि परीक्षण में सबसे अधिक उपयोग किस परीक्षण का होता है – शाब्दिक
मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला किसने स्थापित की – विलियम वुण्टने
बी. एफ. स्किनर किस प्रकार के मनोवैज्ञानिक है – व्यवहारवादी
शिक्षण एवं अधिगम में अंतर होता है – शिक्षण में शिक्षक को अधिक क्रियाशील होना पड़ता है, जबकि अधिगम में छात्र को
प्रेरणा संबंधी चालक सिद्धांत के प्रतिपादक हैं – क्लार्क लियोनार्ड हल
अभी प्रेरण का मनोविश्लेषण सिद्धांत किसने दिया – सिगमंड फ्रायड ने
फ्राइड ने कितनी मूल प्रवृत्तियां बताएं – दो 1.जीवन मूल्य-प्रवृत्ति, 2.मृत्यु मूल- प्रवृत्ति
अभिप्रेरणा का मांग सिद्धांत (Need Theory)किसने दिया – अब्राहम मस्लो
अभिप्रेरणा की मूल प्रवृत्तियों का सिद्धांत किसने दिया – मेकडूगल ने
मैंक्डूगल ने कुल कितनी मूल प्रवृत्तियां बतलाई है – 14
स्पिनर ने पुनर्बलन के कितने प्रकार बताए हैं – दो
“व्यवहार में उत्तरोत्तर अनुकूलन की प्रक्रिया ही अधिगम है” – स्किंनर के अनुसार
पावलव के प्रयोग में कौन सा अस्वाभाविक उत्तेजक जोड़ दिया गया है – घंटी
प्रयत्न एवं भूल सिद्धांत को दर्शाने के लिए थार्नडाइक ने किस पर प्रयोग किया था – बिल्ली
थार्नडाइक ने अधिगम के कितने मुख्य व कितने गौण नियम बनाए हैं – क्रमशः 3 एवं 5
” क्रिया को उत्तेजित करने, नियमित करने तथा जारी रखने की प्रक्रिया को अभी प्रेरण कहते हैं” यह कथन किसका है – गुड का
” व्यक्ति का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों से संचालित होता है” कथन किसका है – मैंक्डूगल
संज्ञानात्मक क्षेत्र का सिद्धांत किसने दिया – कर्ट लेविन ने
अभिप्रेरणा का स्वास्थ्य सिद्धांत किसने दिया – एच. वर्ग ने
निंदा पुरस्कार आदि अभिप्रेरणा की कैसे साधन है -बाह्यय
क्रिया प्रसूत अनुबंध सिद्धांत का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया – बी . एफ. स्किनर
आवश्यकता, चालक व प्रोत्साहन का योग क्या कहलाता है – प्रेरक
अधिगम के अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत के प्रतिपादक कौन है – पावलव
परंपरागत अनुबंध सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया – आई.वी.पावलव
कोलेसिक ने बालक के विकास की कितनी अवस्थाएं बताई है – 8
माता पिता से संतान को हस्तांतरित होने वाले गुणों को क्या कहते हैं – वंशानुक्रम
“किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है” किसने कहा – किलपैट्रिक
“किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव तूफान एवं विरोध की अवस्था है” यह कथन किसका है – स्टैंनले हॉल
“ कल्पना सृष्टि का नामक स्वयं शिशु ही होता है” – फ्राइड ने
शैशव अवस्था को सीखने का आदर्श काल किसने कहा – वेलेंटाइन
“ व्यक्ति का मानसिक विकास 15 से 20 वर्ष की अवस्था में अपनी उच्चतम सीमा पर पहुंच जाता है” – वुडवर्थ ने
सीखने के गेस्टाल्ट सिद्धांत को और किस नाम से जाना जाता है – अंतर्दृष्टि अधिगम सिद्धांत, सूझ का सिद्धांत
सूजी के सिद्धांत के प्रतिपादक है – चार जर्मन मनोवैज्ञानिक मैक्स वर्दी मर ,कोहलर, कोफ्का ,लेविन
सामान्य रूप से मानव विकास को कितनी अवस्थाओं में बांटा गया है – 5
बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल किसने कहा है – रॉस ने
“हेरिडटरी जीनीयस ” नामक पुस्तक किसके द्वारा लिखी गई – फ्रांसीस गाल्टन
अपेक्षित अधिगम स्तर की संकल्पना किस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में की गई थी – 1986
बुनियादी शिक्षा के जनक है – महात्मा गाँधी
बुद्धि लब्धि क्या है? बुद्धि लब्धि परिभाषा, सूत्र, महत्वपूर्ण प्रश्न
बुद्धि लब्धि क्या है? बुद्धि लब्धि की परिभाषा, बुद्धि लब्धि का सूत्र, बुद्धि लब्धि पर आधारित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर – आज के इस आर्टिकल में बुद्धि लब्धि के बारे में पढ़ेंगे। और जानेंगे कि बालकों में बुद्धि लब्धि कितनी होने पर वो किस बुद्धि के होते हैं।
बुद्धि लब्धि क्या है? बुद्धि लब्धि की परिभाषा क्या है? बुद्धि लब्धि बुद्धि को मापने एक तरीका है। बुद्धि लब्धि द्वारा किसी इंसान की बुद्धि को परिभाषित किया जा सकता है कि वो किस बुद्धि का है।
बुद्धि लब्धि का सूत्र
बुद्धि लब्धि के सूत्र का अविष्कार किसने किया? बुद्धि लब्धि के सूत्र का अविष्कार टर्मन ने किया।
हांलाकि सबसे पहले बुद्धि लब्धि का सूत्र स्टर्न ने दिया था।
परंतु उसमे संशोधन की ज़रूरत थी। टर्मन ने उसमे सुधार करके उसे एक नया आयाम दिया। इस कारण बुद्धि लब्धि के सूत्र का श्रेय टर्मन को दिया जाता है।
बुद्धि लब्धि का सूत्र- बुद्धि लब्धि = ( मानसिक आयु / वास्तविक आयु) × 100
आइये इस सारणी द्वारा समझते हैं बुद्धि लब्धि को। –
बुद्धि लब्धि
प्रतिशतता
बुद्धि वर्ग
140 से ऊपर
1%
प्रतिभाशाली
120 से 140
5%
प्रखर/उत्कृष्ट
110 से 120
14%
श्रेष्ठ
90 से 110
60%
सामान्य/औसत
80 से 90
14%
मन्द बुद्धि
70 से 80
5%
क्षीण बुद्धि
50 से 70
1%
मूर्ख
25 से 50
1%
मूढ़
0 से 25
1%
जड़ बुद्धि
बुद्धि लब्धि पर आधारित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर
प्रश्न- बुद्धि लब्धि का सूत्र किसने दिया या इसके प्रतिपादक कौन हैं?
उत्तर- यदि विकल्प में स्टर्न है तो उसे लगाएं अन्यथा टर्मन उत्तर होगा।
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