शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

श्रीकृष्ण लीला- और सिक्खगुरु-) लेखक- श्री गिरा दिया जी खन्ना-

(श्रीकृष्ण लीला- और सिक्खगुरु-)
     लेखक- श्री गुराँदिता जी खन्ना-
धाइ चली हरि के मिलबे कहुँ
                तउ सबके मनमेैं जब भायो।
कान्ह मानों मृगन जुवती 
               छलिबे कहु घंटक हेर बनायो।।
गइ आइ दसो दिसिते गुपिया                                          सबही रस कान्ह के साथ पगी               पिखिकै मुख कान्ह को चन्द्रकला                                सु चकोरनसी मनमैं उमगी।।
हरि को पुनि सुद्ध सुआनन पेखि                          ‌             किधौं तिनकी ठग डीठ लगी।
भगवान प्रसन्न भयो पिखिकै                                          कवि स्याम मनोमृगदेखि मृगी। 
 चन्द की चाँदनीमैं कवि "स्याम"
              जबै हरि खेलने रास लग्यो है ।
राधे को आनन  सुन्दर पेखि कै
              चाँद सो ताहि के बीच पग्यो है।।
हरिको तिन चित्त चुराइ लियो
            सो किधौं कवि को मन यों उमग्यो है।।
नैनन को रस दे भिलवा
              वृषभान ठगी भगवान ठग्यो है।।
गावत एक बजावत ताल 
             सबै ब्रजनारि महा हितसौं है।।
( गुरु गोविन्द सिंह उपर्युक्त कविता मैं अपना उपनाम "स्याम" लिखते हैं । बचपन नें इनकी माता ने इन्हें ये नाम दिया था।







भगवान को मान कह्यो तबही
     कवि स्याम कहे अति ही चितसौं।

इन सीख लई गति गामन ते 
सुर भामन ते  कि किधौं कितसौ।

अब मोहि इहै समझ्यो सु परै
जब कान्ह सिखै इनहूँ तितसौं।

एक नचै एक गावत गीत ।
बजावत ताल दिखावत भावन।

रास बिसै अति ही रससौं।
सु रिझावत काज सबै मनभावन ।

चाँदनी सुन्दर रात बिसै 
कवि " स्याम" कहै सुबिसै रससावन।

ग्वारनिया तजिकैं पुर को ।
मिलि खेल करै रस नीक ठिठावन

रुखनतें रस चूवन लाग।
झरैं झरना गिरि ते सुखदाई।
घास चुगै न मृगा बनकैं 
खग रीझि रहे धुनि जो सुनि पाई।

 गँधार बिलावल सारँग।
की रिझिके जिह तान बजाई।
देव सवै मिलि देखत कौतुक
जौं मुरली नँदलाल बजाई।।

ठाढ़ रही जमुना सुनिकैं 
धुनि राग भले सुनिबेकों चहे हैं।
मोह रहे बनके गज औ 
इकठे मिलि आवत सिंह सहे हैं।

आवत हैं सुर मण्डल के सुर 
त्याग सबै सुर ध्यान कहे हैं।

सुनिकै वनके खगवा
तरु ऊपर पंख पसार रहे हैं 

इसी सन्दर्भ मैं गुरु गोविन्द सिंह की उद्धव-गोपीसंवाद सम्बन्धी ब्रज मैं की गयी कविता के नमूने।
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ऊधव ग्वारिनसों इह भाँति कह्यो हरि सी बतियाँ सुनि लीजै । 
मारग जाहि कह्यो चलियै। जऊ काज कह्यो सोऊ  कारज कीजै।

जोगिनि फारि सब पट होबहु।
 यों तुमसौं कह्यो सोऊ करीजै।
ताहिकी ओर रहे चित्त लाइ री।
 यातै कछु तुमरो नहिं छीजै। 

चाँदनी रात भली छवि पाई  । 
सेत बहेै जमुना पुर है। 
समिति मोतिन हार हरे छबि  छाई।

 मैन चढ्यो सर लै वर कैं ।
बधते हमको विन जान कन्हाई।
सोऊ लियो कुबिजा बसकै 
टसक्यों नहिं यो कसक्यो न कसाई।
 फूलि रहे सिगरे ब्रज के। 
तरु फूल लता कि नसों लपटाई। 
फूल रहे सर सारस सुन्दर शोभा समूह बढ़ी अधिकाई।
चेत चढ्यो सुक सुन्दर कोकिल। कूजत कान्त विना न सुहाई।
दासि को संग रह्यो गहि हो।
टसक्यो नहिं या कसक्यों न कसाई  ।

जब ऊधव सों यह् भाँति कह्यो।
 तब ऊधव को मन दोष भरियो  है ।
और गई सुधि भूल सबै । 
मन तें सब ज्ञान हुतो सो टरियो है ।
 सो मिलिकैं संग ग्वारिन के अति प्रीति सी बात के संग ढरिय्यो है ।


जब ऊधव सों यह् भाँति कह्यो
ज्ञान के डार मनो कपड़े हित सी सरिता मैं कूदि पर्यो है ।।


 

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