मंगलवार, 21 दिसंबर 2021

रामसेतु" बनाम "रामायण"(सतथ्य तार्किक विश्लेषण)

"रामसेतु" बनाम "रामायण"
(सतथ्य तार्किक विश्लेषण)
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भारत से मात्र 31किमी की दूरी पर स्थित है सिंहल द्वीप, जिसे सन 1972 से, 'सीलोन' की बजाय लंका और 1978 से, 'श्रीलंका' कहा जाने लगा। श्रीलंका और भारत के बीच जो मूँगे की चट्टानों की श्रंखला है, उसे रामसेतु या आदमपुल (एडमब्रिज) कहा जाता है। यह वो स्थान है, जहाँ बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर की लहरें आकर टकराती हैं, और अपने साथ लाए अपशिष्ट को छोड़ती हैं। लहरों के परस्पर टकराने से वहाँ प्रचुर मात्रा में समुद्री फेन (झाग) उत्पन्न होता है। फेन और अपशिष्ट के समिश्रण के अनवरत जमाव से ही, वहाँ लहरों के ही आकार की, मूँगे की चट्टानों का निर्माण हुआ है। (प्रयाग स्थित गंगा-यमुना के संगम स्थान पर भी नदियों द्वारा लायी बालू के टीले बन जाते हैं)
   वायु मिश्रित झाग से बनी ये चट्टानें मधुमक्खी के छत्ते जैसी होती हैं, जिनका घनत्व पानी के घनत्व से कम होता है। इसीलिए इन चट्टानों का कोई टुकड़ा यदि पानी में डाला जाय तो वो, तैरने लगता है। धरती के तापमान में निरन्तर वृद्धि के चलते ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्रीय जल स्तर बढ़ने से, आज यह चट्टानीय श्रंखला पूर्णतः जलमग्न है किंतु, पूर्वकाल में लहर के आकार वाली यह चट्टानें, कहीं पानी की सतह पर दिखाई देती थीं तो कहीं सतह के नीचे अदृश्य थीं।
   जैसा कि, अभी हाल ही में किसी अमेरिकन टीवी चैनल द्वारा 'नासा' का हवाला देकर कहा गया है कि, वहाँ जो पत्थरों के ढेर हैं वो मानव निर्मित हैं और वो चार हजार वर्ष पुराने हैं, किन्तु नीचे की स्टोन सात हजार वर्ष पुरानी है। यदि उन निचले स्थानों में बाहरी पत्थरों के साक्ष्य मिलते हैं, तो निश्चित ही वह साक्ष्य, मार्ग निर्माण के मानवीय प्रयास के ही साक्ष्य माने जाएँगे। यह प्रश्न अलग है कि, जिन्होंने मार्ग बनाने  का प्रयत्न किया, वो 'मानव' आखिर कौन थे? दोनों ओर के मूल निवासी थे, जिन्हें आर-पार आवागमन की आवश्यकता थी, अथवा राम के सैनिक, आईये! अब इस प्रश्न पर भी विचार करते हैं।
   'रामसेतु' का उल्लेख 'वाल्मीकीय रामायण' में है। यदि चैनल की कथित 'नासा' वाली बात सच मानें तो फिर हमें राम कथा में कई परिवर्तन करने होंगे। चूँकि चैनल ने पत्थरों को चार हजार वर्ष पुराना माना है तो हमें राम काल को भी नौ लाख वर्ष की बजाय चार हजार वर्ष पूर्व का ही मानना पड़ेगा। वैसे भी मानव अपनी 'होमोनिड' से 'होमो सेपियन' तक की 30-40 लाख वर्ष की विकास यात्रा में 30-40 हजार वर्ष पूर्व ही प्रज्ञ मानव (क्रो-मैग्नान) की श्रेणी में आ पाया है। 9 लाख वर्ष पूर्व पुरा पाषाण युग में तो वह 'होमो इरेक्टस' श्रेणी में था, जिसने सीधा तन कर चलना शुरू किया था। राम का काल चार-पांच हजार साल पहले का होने की पुष्टि 'महाभारत' से भी होती है, जिसे 5000 वर्ष पूर्व का माना जाता है और जिसमें रामकाल के अनेक पात्रों जैसे परशुराम, वाणासुर, हनुमान, जामवंत आदि का उल्लेख है। जबकि निरोगी मनुष्य की पूर्ण आयु 100 वर्ष ही है, जिसकी पुष्टि ऋग्वेद भी बार-2 करता है। यथा-
शतं जीव शरदो वर्धमानः
  शतं हेमन्ताच्छतमु वसन्तान।
शतमिन्द्राग्नी सविता बृहस्पतिः
  शतायुषा हविषेमं पुनर्दु:।।
               ऋग्वेद 10-116-4.
अर्थ- हे रोगमुक्त मनुष्य! नित्यमेव वृद्धिशील होते हुए आप सौ शरद, सौ हेमन्त और सौ वसन्त तक सुखपूर्वक जीवित रहें। इंद्रदेव, अग्निदेव, सवितादेव और बृहस्पतिदेव हविष्यान्न द्वारा परितृप्त होकर आपको सौ वर्ष तक के लिए जीवनी शक्ति प्रदान करें।
 'रामायण' और 'महाभारत'  को 4-5 हजार वर्ष पूर्व का मानने में भी झोल है। क्योंकि तब तक लोहे की खोज नहीं हुई थी और भारत में तब तक घोड़ा भी नहीं था। इसी काल में विकसित हुई सिंधुघाटी सभ्यता में लोहा और घोड़ा होने का कोई साक्ष्य नहीं मिला। अतः रामायण और महाभारत में वर्णित लोहे के हथियारों को या तो हमें, लोहे की बजाय काँसे से निर्मित मानना होगा अथवा उन्हें ईसा पूर्व 1000 वर्ष बाद का मानना पड़ेगा क्योंकि, चार हजार वर्ष पूर्व मानव लोहे से परिचित नहीं था। तब काँस्य काल था। भारत के प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डॉ. वी. बी. लाल भी हस्तिनापुर उत्खनन से मिले साक्ष्यों के  आधार पर कौरव-पाण्डव युद्ध को ईसा पूर्व 900 का साबित कर चुके हैं। भारत में पुरातत्व विभाग को, लोहे के सर्वाधिक प्राचीन जो दो साक्ष्य मिले हैं, वो दोनों ही संयोग से हमारे 'एटा' जनपद से ही मिले हैं। 'अतरंजीखेड़ा' से उत्खनन में प्राप्त दरांती रेडियो-कार्बन तिथि निर्धारण पद्धति के अनुसार 1025 ईसा पूर्व की और 'नोहखेड़ा' से प्राप्त कुल्हाड़ी उसके कुछ बाद की है। (प्राचीन भारत का इतिहास - दिल्ली विश्वविद्यालय)
   वैसे रामायण खुद इस बात का पुख्ता प्रमाण देती है कि, उसकी रचना ईसा पूर्व 500 वर्ष के बाद ही हुई है। क्योंकि, ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार भारत में 'यवन', 'शक' आदि का आगमन बौद्ध काल के बाद ही हुआ है और रामायण में शकयवनादि का उल्लेख कई बार आया है। यथा-
★सीता को ढूढ़ने जाते खोजी दलों से सुग्रीव कहते हैं...

काम्बोजयवनाश्चैव
 शकानां पत्तनानि च।
   अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव 
    हिमवन्तं विचिन्वथ।।
     किष्किन्धा काण्ड 43/12
अर्थ-काम्बोज, यवन और शकों के नगरों-पत्तनों में खोजते हुए, दरददेश व हिमवन्त पर ढूढ़ना।
★जब 'कामधेनु' गाय को लेकर 'वशिष्ठ' और 'विश्वामित्र' में विवाद हुआ तब, वशिष्ठ के आह्वान पर 'कामधेनु' गाय ने अपने शरीर से योनि और गुदा मार्ग से क्रमशः यवन और शक सैनिकों को उत्पन्न किया तथा रोमकूपों से म्लेच्छ, हारीत और किरात प्रकट किए। उन सब वीरों ने तत्काल पैदल, हाथी, घोड़े और रथ सहित विश्वामित्र की सारी सेना का संहार कर डाला।

योनिदेशाश्च यवना:
  शकृद्देशाच्छकाः स्मृताः।
      रोमकूपेषु म्लेच्छाश्च 
        हारीता: सकिरातकाः।।
तैस्तन्निषूदितं सर्वं
विश्वामित्रस्य तत्क्षणात।
       सपदातिगजं साश्वं
          सरथं रघुनन्दन।।
             बालकाण्ड 55/3-4
    अब जो भी हो पर इतना तय है कि, जब रामायण की रचना हुई तब यह सेतु श्रंखला समुद्री सतह पर दृश्यमान रही होगी। कालान्तर में जलस्तर बढ़ने से द्वारिका, लोहछड़ा, घोड़ामारान आदि नगर और द्वीपों की तरह यह भी डूब गई होगी।
   एक तथ्य यह भी है कि, नए खुलासे में इसे मानव निर्मित कहा गया है, और इसका सम्बन्ध वानर सेना से है तो 'वानर' का अर्थ वन नर या वनवासी है, बन्दर नहीं।
   इस तथ्यात्मक लेख को लिखने का हेतु किसी की आस्था को प्रभावित करना कतई नहीं किन्तु आज ज्ञान-विज्ञान की इक्कीसवीं सदी में केवल यह संदेश देना और सवाल उठाना है कि, अन्ध आस्था के नाम पर आधारहीन असत्य को यह देश और समाज आखिर कब तक ढोएगा? 
            भीष्मपालसिंह यादव
                  (एम.ए., एम.जे.)
       संस्थापक-"सजग समाज"

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