बुद्धि (Intelligence) वह मानसिक शक्ति है जो वस्तुओं एवं तथ्यों को समझने, उनमें आपसी सम्बन्ध खोजने तथा तर्कपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में प्राणी की सहायक होती है।
यह 'भावना' और अन्तःप्रज्ञा ) अथवा सहज बोध या कहें सहज-ज्ञान से भी भिन्न तत्व है ।
अन्य शब्दों में यह प्रतिभा= (Intuition/इंट्युसन) से भी अलग है।
बुद्धि ही मनुष्य को नवीन परिस्थितियों को ठीक से समझने और उसके साथ अनुकूलित (adapt) होने में सहायता करती है।
बुद्धि को 'सूचना के प्रसंस्करण की योग्यता' की तरह भी समझा जा सकता है।
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प्रस्तावना -
प्राचीन काल से ही बुद्धि ज्ञानात्मक क्रियाओं में चर्चा का विषय रही है।
बुद्धि की चेतना वाणी कि प्रखरता और स्पष्टता मैं निहित है।
व्यक्ति के वाक्चातुर्य से ही बुद्धि की गुणवत्ता का संज्ञान हो जाता है। वाणी की प्रखरता प्राणी चेतना के समानान्तर है ।
इसी के कारण ही मानव अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है क्यों कि मनुष्य की वाणी सभी प्राणीयों से विशेष और उत्कृष्ट है ।
मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी बुद्धि चर्चा का विषय रही है।
हजारों वर्ष पूर्व से ही व्यक्तियों को बुद्धि के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बांटा गया था।
(कुछ व्यक्ति बुद्धिमान कहलाते हैं, कुछ कम बुद्धि के, कुछ मूढ बुद्धि के तो कुछ जड़ बुद्धि के भी कहलाते हैं।)
परन्तु बुद्धि के स्वरूप को समझना बड़ा कठिन है।
बुद्धि के स्वरूप पर प्राचीन काल से ही मतभेद चले आ रहे हैं ; तथा आज भी मनोवैज्ञानिकों तथा शिक्षाविदों के लिए भी बुद्धि तत्व वाद-विवाद का विषय बना हुआ है।
19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध से भी बुद्धि के स्वरूप को समझने हेतु मनोवैज्ञानिकों ने प्रयास प्रारम्भ किए परन्तु वे भी इसमें सफल नहीं हुए तथा बुद्धि की सर्वसम्मत परिभाषा न दे सके।
"वर्तमान में भी बुद्धि के स्वरूप के सम्बंध में मनोवैज्ञानिकों के विचारों में असमानता है। अलग-अलग मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के स्वरूप को अलग-अलग ढंग से पारिभाषित किया।
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भारतीय शास्त्रों नें बुद्धि के स्वरूप की मीमांसा जो की है ; वह बड़ी दार्शनिक है ।
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अंतःकरण:– जिसका अर्थ है आंतरिक अंग या आंतरिक साधन) भारतीय दर्शन में एक अवधारणा है, जो मन के चार स्तरों की समग्रता का वर्णन करती है,
अर्थात् बुद्धि =(बुद्धि या मन की निर्णय शक्ति) और मनस्= (मन की मनन शक्ति)
अंतःकरण के चित भाग को जिसमें चेतना का समायोजन है और , जो मन का पुनर्जन्म वाला भाग भी है ।
वेदान्त साहित्य में, यह अंतःकरण नाम का (आंतरिक अंग) चार भागों में व्यवस्थित है:
१-अहंकार (अहंकार) - जिसके द्वारा शरीर के साथ 'मैं' के रूप में आत्मा (स्वयं) की पहचान करता है।
२- बुद्धि (बुद्धि) -निर्णय लेने की क्रिया को नियंत्रित करती है।
३-मनस् (मन) - संकल्प के मूर्तरूप (इच्छा) को नियंत्रित करता है
३-चित्त (स्मृति) - याद रखने और भूलने से संबंधित है चेतना का प्रतिरूप है यह चित जन्मान्तरण के संस्कारों का समुच्चय है
जिसमें संचित क्रियमाण और प्रारब्ध सभी संस्कार जन्मान्तरणों से विद्यमान होते हैं ।
एक अन्य विवरण में कहा गया है कि यह "अंतःकरण" मन और भावनाओं सहित संपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को संदर्भित करता है,
जैसा कि ऊपर वर्णित है, कि जो मन के स्तरों की रचना करता है , जिन्हें एक इकाई के रूप में वर्णित किया गया है जो समग्र रूप से एक साथ काम करने वाले सभी भागों के साथ कार्य करता है वही अन्त:करण है ।
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चित्त का स्वरूप :-
चित्त अन्तः करण का ही एक अंग है जिसमें हमारे सभी संस्कारों, स्मृतियों का संग्रह (संचयन) होता है इसी लिए इसकी चित संज्ञा है। यह चित्त सत्त्वगुण, रजोगुण, और तमोगुण से मिलकर बना एक संस्कारमयी अन्त:करण का रूप है ।
जिससे चित्त तीन प्रकार के स्वभाव वाला ( प्रकाशशील, गतिशील, और स्थैर्यशील अथवा जड़ रूप है।
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इसी त्रिगुणात्मक स्वभाव के कारण चित्त के तीन रूप होते हैं;- 1. प्रख्या, 2. प्रवृति, और 3. स्थिति ।
‘प्रख्या’ सत्त्वगुण प्रधान,‘ तो रजोगुण प्रधान, प्रवृत्ति’ है व ‘स्थिति’ तमोगुण प्रधान होती है।
‘प्रख्या’★- :- जब चित्त में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है तो उसमें ज्ञान का प्रकाश होने से व्यक्ति में धर्म, ज्ञान, और वैराग्य की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था में व्यक्ति शुभ कार्यों में प्रवृत (लगता ) रहता है।
यह बुद्धि प्रभा। कांति। दीप्ति वाली होने से प्रख्यात है ।
‘प्रवृत्ति’★- :- जब चित्त में रजोगुण की प्रधानता होती है तो व्यक्ति श्रमशील स्वभाव वाला होता है जिसके फलस्वरूप वह समाज में मान– सम्मान, धन– दौलत, यश– कीर्ति को प्राप्त करने में प्रवृत्त रहता है।
‘स्थिति’ ★- :- जब व्यक्ति के चित्त में तमोगुण प्रधान होता है तो वह आलस्य, प्रमाद, तंद्रा, अज्ञान, व अकर्मण्यता आदि भावों में प्रवृत्त होता है। इस अवस्था में वह अज्ञानता के वशीभूत होकर सभी निकृष्ट ( दूषित ) कार्य करता है ।
१.वेदांतसार के अनुसार अंतःकरण की चार वृत्तियाँ है— मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते है , निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि कहते है ।
और इन्हीं दोनों के अंतर्गत जन्मान्तरण के कर्म संस्कार मय वृत्ति को चित्त और अभिमानात्मक वृत्ति को अंहकार कहते हैं ।
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पंचदशी में इंद्रियो के नियंता मन ही को अंतःकरण माना है ।
आंतरिक व्यापार में मन स्वतंत्र है, पर बाह्य व्यापार में इंद्रियाँ परतंत्र हैं । पंचभूतों की गुणसमष्टि से अंतःकरण उत्पन्न होता है जिसकी दो मुख्य वृत्तियाँ हैं :- १-मन और २-बुद्धि ।
मन मननात्मक वृत्ति और बुद्धि निश्चयात्मक वृत्ति है ।
वेदांत में प्राण को मन का प्राण कहा है । मृत्यु होने पर मन इसी प्राण में लय हो जाता है । इसपर शंकराचार्य कहते हैं कि प्राण में मन की वृत्ति लय हो जाती है, उसका स्वरूप नहीं । क्षणिकवादी बौद्ध चित्त ही को आत्मा मानते हैं।
वे कहते हैं कि जिस प्रकार अग्नि अपने को प्रकाशित करके दूसरी वस्तु को भी प्रकाशित करती है, उसी प्रकार चित्त भी करता है ।
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बौद्ध लोग-
चित्त के चार भेद करते हैं—१-कामावचर २-रूपावचर, ३-अरूपावचर औऱ ४-लोकोत्तर ।
चार्वाक के मत से मन ही आत्मा है । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश स्वीकार नहीं करते ।
वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर एक अलग प्रकाशक का रूप मानते हैं जिसे आत्मा कहते हैं ।
उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, ।
अत: कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती ।
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योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई है—१-क्षिप्त, २-मूड़, ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध।
तीन प्रमाण-
प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द प्रमाण;
(एक में दूसरे का भ्रम—विपर्यय); (स्वरूप ज्ञान के बिना कल्पना— विकल्प;) (सब विषयों के अभाव का बोध—निद्रा) और कालांतर में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है ! यह चित्त का स्वरूप है इसमें अनेक कर्म संस्कारों समुच्चय है ।
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पञ्चदशी तथा दार्शनिक ग्रंथों में मन या चित्त का स्थान हृदय लिखा है । पर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान अंत:करण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में मानता है जो मस्तिष्क सब ज्ञानतंतुओं का केंद्रस्थान है ।
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खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, वही अंत:करण है ।
उसी के सूक्ष्म मज्जा-तंतु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापार होते हैं
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है,
केवल व्यापार- विशेष का नाम है, जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमश:बढ़ता जाता है ।
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इस व्यापार का प्राणरस( जीवदृव्य) (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य संबंध है ।
प्राणरस के ये विकार अत्यंत निम्न श्रेणी के जीवों में प्राय: शरीरभर में होते हैं; पर उच्च कशेरुकीय प्राणियों में क्रमश: इन विकारों के लिये विशेष स्थान नियत होते जाते हैं और उनसे इंद्रियों तथा मस्तिष्क की सृष्टि होती है ।
चित वह मानसिक शक्ति है जिससे धारणा, भावना आदि की जाती हैं । अंत:करण । जी । मन आदि इसके नाम हैं ।
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इसके अलावा, जब मन के स्तर को शरीर मानते हैं, तो वे इस प्रकार हैं:
विशेष—वेदांती लोग मनुष्य में पाँच कोशों की कल्पना करते हैं— १-अन्नमयकोश, २-प्राणमयकोश, ३-मनोमयकोश, ४-विज्ञानमयकोश और ५-आनन्दमयकोश ।
अन्न से उत्पन्न और अन्न ही के आधार पर रहने के कारण वह अन्नमय हैं । पंच कर्मोंद्रियों के सहित प्राण, अपान आदि पंचप्राणों को प्राणमय कोश कहते हैं,
जिसके साथ मिलकर देह सब क्रियाएँ करती है । श्रोत्र, चक्षु आदि पाँच ज्ञानद्रियों के सहित मन को मनोमय कोश कहते हैं । यही मनोमय कोश अविद्या रूप है और इसी से सांसारिक विषयों की प्रतीति होती है ।
पंच ज्ञानेद्रियों के सहित बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहते हैं । यही विज्ञानमय कोश कर्तृत्व, भोक्तृत्व सुख- दुःख आदि अहंकारविशिष्ट पुरुष के संसार का कारण है ।
सत्वगुणविशिष्ट परमात्मा के आवरक का नाम आनंदमय कोश है
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मन, बुद्धि, चित्त, प्राण, तन्मात्राओं तथा इन्द्रियों में अन्तर और इनका पारस्परिक सम्बन्ध
नवागन्तुक अध्यात्म की ओर आने वाले लोगों को लगता है कि मन की शक्ति सबसे बड़ी है, जबकि ऐसा नहीं है।
यह भ्रम इसीलिए होता है क्योंकि उन्हें परिभाषाओं का स्पष्टीकरण ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। जैसे बुद्धि की स्थिति मन से परे है ।
और बुद्धि से परे चित की स्थिति है और यह चित्त ही आत्मा से संपृक्त होकर चेतना और प्रेरक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है इससे परे अहंकार है जो आत्मा को सीमित स्वरूप का बोध कराता है ।
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(अत: मन सबसे शक्तिशाली तत्व नहीं है। मन वकील है, वह तर्क वितर्क ही करता है। वह मोलभाव करता है, सङ्कल्प विकल्प करता है। इसीलिए वह सबसे शक्तिशाली नहीं है।
जो विचारों को निर्णय करती है वह बुद्धि न्यायधीश है ।)
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प्राणशक्ति जिसमें हो वही प्राणी है। इस प्राण शक्ति का प्रत्यक्ष रूप श्वास है और यही श्वास जब विशेष रूप में शरीर से नियंत्रित और स्वचालित
न होकर मन से संचालित होने लगे तो प्राणायाम हो गया। प्राण का जीवात्मा से यही सम्बन्ध है कि यह शरीर में आत्मा की ऊर्जा को प्रसारित करने का कार्य करता है।
प्राण शरीर और आत्मा के बीच सम्पर्क का माध्यम है।
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यद्यपि कोमा ( निश्चेतना) और निद्रा मस्तिष्क की क्रमश कृत्रिम और प्राकृतिक प्रक्रियां हैं
निद्रा काल मैं प्राण तो शरीर नें रहता है परन्तु चेतना चित्त मैं विलीन हो जाती है ।
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प्राण या विकास भोजन और आयु ते अनुपात से होता है ।
जैसे विकलांग के भी पैर होते हैं, गूंगे का भी वाक्-शक्ति होती है लेकिन वह उस स्तर पर क्रियाशील नहीं रहता।
आत्मा और शरीर के मध्य जिस स्तर का प्राण चाहिए, उतनी पर्याप्त प्राण शक्ति न रहने को ही मैंने प्राण का अभाव बताया है, क्योंकि ऐसे में शरीर आत्मा की ऊर्जा से संचालित होने वाले मुख्य कार्य नहीं कर पाता।
यह प्राण पन्द्रह सप्ताह में अचानक से निर्मित देह में मस्तिष्क के आधार पर व्याप्त हो जाता है।
यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते
अन्वय-
यत् प्राणेन न प्राणिति। येन प्राणः प्रणीयते। तत् एव त्वं ब्रह्म विद्धि। यत् इदं उपासते इदं न ॥
'वह' जो श्वास के द्वारा श्वास नहीं लेता,जिसके द्वारा प्राण-वायु स्वयं अपने पथ पर आगे ले जाया जाता है, 'उसे' ही तुम 'ब्रह्म' जानो, न कि इसे जिसकी मनुष्य यहां उपासना करते हैं।
अथवा, ''जिसका व्यक्ति मन के द्वारा चिन्तन नहीं करता है ।''
अथवा, ''जिसे व्यक्ति चक्षु के द्वारा नहीं देखता है
अथवा, ''जिसका व्यक्ति कर्ण के द्वारा श्रवण नहीं करता है । ''
अथवा, ''जिसका व्यक्ति श्वास के द्वारा श्वसन नहीं करता।'' (अर्थात् सूँघता नहीं है।)'
प्राण वह तत्व है, जिसकी उपस्थिति से शरीर की चैतन्यता प्रत्यक्ष होती है।
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वायु पुराण में जीवन प्रक्रिया के विकास का वर्णन इस प्रकार है ।
।।वायुरुवाच ।।
न चैवमागतो ज्ञानाद्रागात् कर्म्म समाचरेत्।
राजसं तामसं वापि भुक्त्वा तत्रैव युज्यते।१४.१।
तथा सुकृतकर्म्मा तु फलं स्वर्गे समश्रुते।
तस्मात् स्थानात् पुनर्भ्रष्टो मानुष्यमनुपद्यते ।। १४.२ ।।
तस्माद्ब्रह्म परं सूक्ष्मं ब्रह्म शाश्वतमुच्यते।
ब्रह्म एव हि सेवेत ब्रह्मैव परमं सुखम् ।।१४.३।।
परिश्रमस्तु यज्ञानां महतार्थेन वर्त्तते।
भूयो मृत्युवशं याति तस्मान्मोक्षः परं सुखम् ।। १४.४।।
अथ वै ध्यानसंयुक्तो ब्रह्मयज्ञपरायणः ।
न स स्याद् व्यापितुं शक्यो मन्वन्तरशतैरपि ।। १४.५ ।।
दृष्ट्वा तु पुरुषं दिव्यं विश्वाख्यं विश्वरूपिणम्।
विश्वपाद शिरोग्रीवं विश्वेशं विश्वभावनम्।
विश्वगन्धं विश्वमाल्यं विश्वाम्बरधरं प्रभुम् ।१४.६।
गोभिर्मही संयतते पतत्रिणं महात्मानं परममतिं वरेण्यम्।
कविं पुराणमनुशासितारं सूक्ष्माच्च सूक्ष्मं महतो महान्तम्।
योगेन पश्यन्ति न चक्षुषा तं निरिन्द्रियं पुरुषं रुक्मवर्णम् ।। १४.७ ।।
अलिङ्गिनं पुरुषं रुक्मवर्णं सलिङ्गिनं निर्गुणं चेतनं च।
नित्यं सदा सर्वगतन्तु शौचं पश्यन्ति युक्त्या ह्यचलं प्रकाशम् ।। १४.८ ।।
तद्भावितस्तेजसा दीप्यमानः अपाणिपादोदरपार्श्वजिह्वः।
अतीन्द्रियोऽद्यापि सुसूक्ष्म एकः पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः ।। १४.९ ।।
नास्यास्त्यबुद्धं न च बुद्धिरस्ति स वेद सर्वं न च वेदवेद्यः।
तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तं सचेतनं सर्व्वगतं सुसूक्ष्मम् ।। १४.१० ।।
तामाहुर्मुनयः सर्व्वे लोके प्रसवधर्मिणीम्।
प्रकृतिं सर्व्वभूतानां युक्ताः पश्यन्ति चेतसा ।। १४.११ ।।
सर्व्वतः पाणिपादान्तं सर्व्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्व्वतः श्रुति (म) माँल्लोके सर्व्वमावृत्य तिष्ठति ।। १४.१२ ।।
युक्ता योगेन चेशानं सर्व्वतश्च सनातनम्।
पुरुषं सर्व्वभूतानां तस्माद्ध्याता न मुह्यते।१४.१३।
भूतात्मानं महात्मानं परमात्मानमव्ययम्।
सर्व्वात्मानं परं ब्रह्म तद्वै ध्यात्वा न मुह्यति। १४.१४।
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पवनो हि यथा ग्राह्यो विचरन् सर्व्वमूर्तिषु।
पुरि शेते तथाभ्रे च तस्मात् पुरुष उच्यते।
अथ चेल्लुप्तधर्म्मात्तु सविशेषैश्च कर्म्माभिः ।। १४.१५ ।।
ततस्तु ब्रह्म योन्यां वै शुक्रशोणितसंयुतम्।
स्त्रीपुमांसप्रयोगेण जायते हि पुनः पुनः।१४.१६ ।।
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ततस्तु गर्भकाले तु कलनं नाम जायते।
कालेन कलनञ्चापि बुद्बुदश्च प्रजायते।१४.१७
मृत्पिण्डस्तु यथा चक्रे चक्रवातेन पीडितः।
हस्ताभ्यां क्रियमाणस्तु विश्वत्वमुपगच्छति। १४.१८ ।।
एवमात्मास्थिसंयुक्तो वायुना समुदीरितः।
जायते मानुषस्तत्र यथा रूपं तथा मनः।१४.१९ ।।
वायुः सम्भवते तेषां वातात् सञ्जायते जलम्।
जलात्संभवति प्राणः प्राणाच्छुक्रं विवर्द्धते। १४.२० ।।
रक्तभागास्त्रयस्त्रिंशच्छुक्र भागाश्चतुर्द्दश।
भागतोऽर्द्धपलं कृत्वा ततो गर्भे निषेवते ।१४.२१
रक्तभागास्त्रयस्त्रिंशच्छुक्र भागाश्चतुर्द्दश।भागतोऽर्द्धपलं कृत्वा ततो गर्भे निषेवते।१४.२१।
ततस्तु गर्भसंयुक्तः पञ्चभिर्वायुभिर्वृतः।
पितुः शरीरात् प्रत्यङ्गरूपमस्योपजायते ।१४.२२।
ततोऽस्य मातुराहारात् पीतलीढप्रवेशितम्।
नाभि स्रोतःप्रवेशेन प्राणाधारो हि देहिनाम् ।। १४.२३ ।।
नवमासान् परिक्लिष्टः संवेष्टितशिरोधरः ।
वेष्टितः सर्व्वगात्रैश्च अपर्य्यायक्रमागतः।
नवमासोषितश्चैव योनिच्छिद्रादवाङ्मुखः ।। १४.२४ ।।
ततस्तु कर्म्मभिः पापैर्निरयं प्रतिपद्यते।
असिपत्रवनञ्चैव शाल्मलीच्छेदभेदयोः।१४.२५।
तत्र निर्भर्त्सनञ्चैव तथा शोणितभोजनम् ।
एतास्तु यातन् घोराः कुम्भीपाकसुदुःसहाः ।। १४.२६ ।।
यथा ह्यापस्तु विच्छिन्नाः स्वरूपमुपयान्ति वै ।
तस्माच्छिन्नाश्च भिन्नाश्च यातनास्थानमागतः ।। १४.२७ ।।
एवं जीवस्तु तैः पापैस्तप्यमानः स्वयं कृतैः ।
प्राप्नुयात् कर्म्मभिर्दुःखं शेषं वा यादि चेतरम् ।। १४.२८ ।।
एकेनैव तु गन्तव्यं सर्व्वमृत्युनिवेशनम्।
एकनैव च भोक्तव्यं तस्मात् सुकृतमाचरेत् ।। १४.२९ ।।
न ह्येनं प्रस्थितं कश्चिद्गच्छन्तमनुगच्छति।
यदनेन कृतं कर्म्म तदेनमनुगच्छति ।१४.३०।
ते नित्यं यमविषये विभिन्नदेहाः क्रोशन्तः सततमनिष्टसंप्रयोगैः।
शुष्यन्ते परिगतवेदनाशरीराः बह्वीभिः सुभृशमधर्म्मयातनाभिः ।। १४.३१ ।।
कर्मणाः मनसा वाचा यदभीष्टं निषेव्यते।
तत् प्रसद्य हरेत् पापं तस्मात् सुकृतमाचरेत् ।। १४.३२ ।।
यादृग् जातानि पापानि पूर्व्वं कर्म्माणि देहिनः।
संसारं तामसं तादृक् षह्विधं प्रतिपद्यते ।। १४.३३ ।।
मानुष्यं पशुभावञ्च पशुभावान्मृगो भवेत्।
मृगत्वात् पक्षिभावन्तु तस्माच्चैव सरीसृपः ।। १४.३४ ।।
सरीसृपत्वाद्गच्छोद्धि।
स्थावरत्वन्न संशयः।
स्थावरत्वं पुनः प्राप्तो
यावदुन्मिषते नरः।
कुलालचकवद्भान्तस्तत्रैवपरिकीर्तितः।१४.३५।
इत्येवं हि मनुष्यादिः संसारे स्थावरान्तके।
विज्ञेयस्तामसो नाम तत्रैव परिवर्त्तते ।। १४.३६।
सात्त्विकश्चापि संसारो ब्रह्मादिः परिकीर्त्तितः।
पिशाचान्तः सविज्ञेयः स्वर्गस्थानेषु देहिनाम् ।। १४.३७ ।।
ब्राह्मे तु केवलं सत्त्वं स्थावरे केवलं तमः।
चतुर्द्दशानां स्थानानां मध्ये विष्टम्भकं रजः।
मर्मसु च्छिद्यमानेषु वेदनार्त्तस्य देहिनः।१४.३८
ततस्तु परमं ब्रह्म कथं विप्रः स्मरिष्यति ।
संस्कारात् पूर्वधर्मस्य भावनायां प्रणोदितः।
मानुष्यं भजते नित्यं तस्मान्नित्यं समादधेत् ।। १४.३९ ।।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते पाशुपतयोगो नाम चतुर्द्दशोऽध्यायः ।। १४ ।।
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जल से प्राण उत्पन्न होता है और यह प्राण ही आगे प्रजनन शक्ति का धारक भी है।
किन्तु केवल जल से नहीं, अपितु जलयुक्त देह से ही यह वायुरूप में उत्पन्न होता है।
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प्राणः स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम् ।
इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु त्वसत्स्विव ॥ १,२३८.१२ ॥
श्रीगरुडमहापुराणम् २३९
इति श्रीगारुडे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे ब्रह्मगीतासारवर्णनं -२३८वाँ अध्यायः
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यमाश्च नियमाः प्रोक्ताः प्राणायामं निबोधत ।
प्राणः स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम् ।। ११.३०
( कूर्मपुराण उत्तर भाग ११ वाँ अध्याय)
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धारण करने का कार्य पहले इंद्रियों के माध्यम से मन में जाता है।
वहां मन में उहापोह होता है, जिसके बाद अधिक शुद्ध होकर वह तथ्य बुद्धि के पास अर्थविज्ञान हेतु जाता है।
अर्थविज्ञान दृढ़ होने पर अहंकार तत्व उसे चित्त को साक्षी और संग्रहण हेतु निमित्त बनाकर आचरण में प्रवृत्त करता है।
इस पूरी प्रक्रिया में लगे सभी मन आदि तत्वों की श्रृंखला या समूह की 'धी' संज्ञा है।
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यदि मन के मध्य हुए उह एवं अपोह (उहापोह या पक्षापक्ष) में धर्म का पक्ष अर्थविज्ञान से सिद्ध हुआ तो उसे सुधी या विवेक कहते हैं।
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शास्त्रों का आश्रय लेकर ही धर्म और अधर्म दोनों किये जा सकते हैं, बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति का पलड़ा जिधर भारी हुआ, उधर से धर्म और न हुआ तो अधर्म का ।
यदा पुनर्निश्चिनुते तदा सा स्याद्बुद्धिसंज्ञा।
(प्रपञ्चसारतंत्र, प्रथम पटल,१०३)
निश्चयात्मिका होने पर प्रकृति की बुद्धि संज्ञा होती है। जब इसके निश्चय का माध्यम आत्मोद्धूत होता है तब यह स्वप्रत्यनेया है, अन्यथा परप्रत्यनेया।
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स्वप्रत्यनेया :- वामदेव एवं दत्तात्रेय जी की ब्रह्मज्ञान हेतु बुद्धि की अन्तःस्थित प्रेरणा।
परप्रत्यनेया :- नचिकेता एवं इन्द्र आदि की ब्रह्मज्ञान हेतु बुद्धि की बाह्याचारों (यमराज एवं उमा) से उद्भूत प्रेरणा।
परेण धाम्ना समनुप्रबुद्धा मनस्तदा सा तु महाप्रभावा,
यदा तु सङ्कल्पविकल्पकृत्या यदा पुनर्निश्चिनुते तदा सा।
स्याद्बुद्धिसंज्ञा च यदा प्रवेत्ति ज्ञातारमात्मानमहंकृतिः स्यात्,
तदा यदा सा त्वभिलीयतेऽन्तश्चित्तं च निर्धारितमर्थमेषा॥
(प्रपञ्चसारतंत्र, प्रथम पटल, १०२-१०३)
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साक्षी, कारण तथा अंतर्यामी के रूप में परं धाम चिद्रूप पुरुष के साथ सम्बद्ध महाप्रभावशालिनी यह प्रकृति जब संकल्प-विकल्प करती है तब इसे मन कहा जाता है।
निश्चयात्मिका होने पर बुद्धि
और कर्तापन के अभिमान से युक्त होकर पुरुष के स्थान पर स्वयं को कर्ता मानने पर अहंकार कहलाती है।
साक्षीभूत आत्मा में लीन होने पर इसी प्रकृति की चित्त संज्ञा हो जाती है।
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संस्कार उन सूक्ष्म स्मृतियों को कहते हैं जो हमारे कर्मफल के कारण हमारे चित्त में सुरक्षित हो जाते हैं।
वे भौतिक शरीर के नष्ट होने पर भी समाप्त नहीं होते और नवीन शरीर के साथ पुनः जागृत होते हैं।
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इन संस्कारों के दो भेद होते हैं, आगत एवं अर्जित।
आगत संस्कार पिछले कर्मफल के समूह होते हैं जो प्रारब्ध रूप में साथ चलते हैं।
अर्जित संस्कारों के चार समान भाग होते हैं :-
१-अपनी स्वयं की बुद्धि जो वस्तुतः आगत संस्कारों से प्रेरित होती है।
२-जीवन के अलग अलग परिस्थितियों में बिताए गए समय के अनुसार मिली चित्तवृत्तियां।
३-साथ में बिताए गए कर्मचारी, सहपाठी, पड़ोसी, गुरुजन आदि की संगति के प्रभाव।
४-आहार, चिंतन, आदि के कारण बने शरीर में ऊर्जा प्रवाह आदि।
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आप अपने नेत्र खुले रहेंगे तो आप ही केवल सबको देख सकते हैं।
ऐसे ही जिसे आत्मबोध होगा केवल वही सभी को ब्रह्म देख सकता है। लेकिन आप यदि घर में आंख खोलकर एक बार देख लें और फिर बाहर खड़े होकर बन्द कर दें तो आपको बाहर नहीं दिखेगा।
ऐसे ही आत्मबोध जिस रूप में हुआ है उसी रूप में आपको ब्रह्मदर्शन होगा।
जिस जिस स्थान या रूपभेद में आपने नहीं खोला, वहां नहीं दिखेगा।
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अद्वैतं ते परं रूपं वेदागमसुनिश्चितम्। नमामो ब्रह्म विज्ञानगम्यं परम गोपितम्॥
सृष्ट्यर्थं सशरीरा त्वं प्रधानं पुरुष: स्वयम्। कल्पितं श्रुतिभिस्तेन द्वैतरूपा त्वमुच्यसे॥_____________________________
ब्रह्म अद्वैत है, यही परमसत्य है किंतु जब वह सृष्टि हेतु सगुण रूप धारण करता है तो हम उसे द्वैत के रूप में कल्पित कर लेते हैं ऐसा वेद और तन्त्र का निश्चय है।
(महाभागवत में द्वैताद्वैत की शंका के सन्दर्भ में त्रिदेवों का एकमत से निर्णय)
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जैसे स्फटिक के ऊपर लाल फूल रखने से स्फटिक भी लाल वर्ण का प्रतीत होने लगा लगता है वैसे ही बुद्धि और इन्द्रिय के सानिध्य से आत्मा की भी वैसी ही विकृतियुक्त प्रतीति होती है।
वस्तुतः मन, बुद्धि एवं अहंकार ही फल के भोक्ता हैं किंतु उनसे अपने आप को भिन्न न मानने के कारण वह उपभोग आत्मा को प्राप्त होते प्रतीत होते हैं :-
बुद्धीन्द्रियादिसामीप्यादात्मनोऽपि तथा गतिः।मनोबुद्धिरहंकारो जीवस्य सहकारिणः॥
स्वकर्मवशतस्तात फलभोक्तार एव ते। सर्वं वैषयिकं तात सुखं वा दुःखमेव वा॥
(महाभागवत)
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जैसे जल के साथ ठंडक हो जाने से हम उसे बर्फ के रूप में ठोस देखने लगते हैं ऐसे ही मन आदि से युक्त होकर आत्मा भी सविकार लगने लगता है।
जल का गुण ही शीतलता है। बर्फ में उसका गुण ठंडक नहीं, तुषार कहाता है।
जल में तुषार या ऊष्मा की प्रतीति शीत या ताप आदि गुणों के कारण है जबकि शीतलता उसका सहज स्वभाव है।
ऐसे ही आत्मा जब चित्त आदि से युक्त होती है तो उपभोक्ता के जैसे प्रतिभासित होती है।
जैसे रस्सी में सांप की प्रतीति होने पर भय लगता है किंतु आपके भय के कारण रस्सी आपको काट नहीं सकती, भले ही आपका भय कितना भी वास्तविक क्यों न हो, ऐसे ही आत्मा केवल सुख दुख आदि का उपभोग करने वाली लगती है।
चाहे वह अनुभव कितना भी वास्तविक क्यों न लगे, उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं पड़ता यदि वह मोहमुक्त है तो।
ज्ञान ही ब्रह्म है और ज्ञान का अभाव ही अज्ञान है। अज्ञान कोई अलग तत्व नहीं है।
अज्ञान एक स्थिति है जो माया से निर्मित है। आप स्वयं को देह से भिन्न नहीं देख पा रहे जबकि ज्ञानी देख पा रहा है।
इसीलिए भ्रम के कारण आपने अनेकों जन्मों में मृत्यु का स्वाद चखा है और उसके अनुभव से परिचित होने के कारण भय लगता है।
ऊपर हमने योगदर्शन की इसी बात को अभिनिवेश के नाम से कहा।
भ्रम से ही भय होता है। यह भ्रम ही है कि आप देह हैं।
यह भी भ्रम ही है कि आपकी मृत्यु होती है। आपको ज्ञात नहीं कि आप देह नहीं हैं, और मृत्यु देह की होती है।
इसीलिए भ्रम से भय होता है।, ज्ञान से अभय होता है।
जैसे स्वप्न में भोजन करने से यहां पेट नहीं भरता। स्वप्न में नहाने से यहां नहीं भीगते, वैसे ही जगत के भोगों के प्रति आत्मा निर्लेप रहती है।
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महाप्रभावा यदा तु सङ्कल्पविकल्पकृत्या
(प्रपञ्चसार तन्त्र में
लेकिन मन से बड़ी बुद्धि है क्योंकि वह निर्णय देती है, निश्चयात्मिका शक्ति की स्वामिनी होने से बुद्धि, मनरूपी वकील से बड़ी है, वह न्यायाधीश है।
यदा पुनर्निश्चिनुते तदा सा स्याद्बुद्धिसंज्ञा
(प्रपञ्चसार तन्त्र में )
हालांकि बुद्धि की अपेक्षा चित्त की प्रधानता है, साक्षीभाव का स्वामी होने से, वृत्तियों का संग्राहक होने से वह बुद्धि से भी श्रेष्ठ है।
यदा सा त्वभिलीयतेऽन्तश्चित्तं च निर्धारितमर्थमेषा॥
(प्रपञ्चसार तन्त्र में )
आद्यशंकराचार्य जी ने कहा है :- चिदचिद्ग्रंथिश्चेतस्तत्
जब शक्ति चेतन के अंदर होती है, तो उस शक्ति को माया और चेतन को ब्रह्म कहते हैं। और यदि बाहर रहती है, तो अविद्या कहाती है।
यह अविद्या योगदर्शन में वर्णित अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश आदि के साथ रहने वाली पहली अविद्या नाम वाली क्लेश है जो मोक्ष में बाधक है। इस समय उसी चेतन की जीव संज्ञा होती है।
इसी व्यतिक्रम में मायाकृत जड़ और ब्रह्मांश जीव के मध्य जो ग्रंथि है, वह चित्त है और वही सबसे शक्तिशाली है।
वह सबसे शक्तिशाली इसीलिए है क्योंकि मन, बुद्धि आदि के लीन हो जाने पर भी वह मोक्षप्राप्ति तक बना रहता है :- अक्षयं ज्ञेयमामोक्षात्।
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चित्त के अधीन बुद्धि है और बुद्धि के अधीन मन है, मन के अधीन प्राणशक्ति है जो तन्मात्राओं का नियंत्रण करता है।
उन तन्मात्राओं से इंद्रियां कार्य करती हैं जो देह के चैतन्यमय होने का अनुभव कराती हैं।
प्राणानां आध्यात्मिकानामिन्द्रियाणां पतिर्मुख्यः प्राणः
(महाभारत)
इंद्रियों का स्वामी प्राणवायु है। यह दो प्रकार की होती है, मुख्य और क्षुद्र।
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मुख्य प्राणों में प्राण:- अपान, व्यान, समान और उदान होते हैं।
क्षुद्र प्राण:- में नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय होते हैं।
ये पूरे शरीर का नियंत्रण कक्ष के समान हैं।
छींक आने से लेकर भूख लगने तक, पलक झपकने से लेकर हृदय धड़कने तक, प्रसव कराने से लेकर बाल बढ़ने तक गर्मी या ठंड लगने से उंगलियों को चटकाने तक, भोजन पचाने से लेकर शौच कराने तक का काम ये सब संचालित करती हैं।
इसमें पुनः प्राण, अपान, व्यान आदि के भी सात सात भेद होते हैं।
उदाहरण के लिए प्राण शक्ति के प्रथम भेद यानी मुख्य प्राणों में प्रथम प्राण के भी उर्ध्वनामक अग्नि, प्रौढ़नामक आदित्य, अभ्यूढ़ नामक चन्द्रमा, विभुनामक पवमान अथवा वायु, योनिनामक अप् अथवा जल, प्रियनामक पशु, और अपरिमित नामक प्रजा आदि प्रकार होते हैं।
सप्त प्राणाः सप्तापानाः सप्त व्यानाः ॥
योऽस्य प्रथमः प्राण ऊर्ध्वो नामायं सो अग्निः॥
योऽस्य द्वितीयः प्राणः प्रौढो नामासौ स आदित्यः।।
योऽस्य तृतीयः प्राणोऽभ्यूढो नामासौ स चन्द्रमाः ॥
योऽस्य चतुर्थः प्राणो विभूर्नामायं स पवमानः
योऽस्य पञ्चमः प्राणो योनिर्नाम ता इमा आपः
योऽस्य षष्ठः प्राणः प्रियो नाम त इमे पशवः ॥
योऽस्य सप्तमः प्राणोऽपरिमितो नाम ता इमाः प्रजाः ॥
(अथर्ववेद)
इसमें भी एक प्रकार आपके इन्द्रिय, मन, आदि पर बहुत शूक्ष्म प्रभाव डालता है। जैसे प्राणशक्ति का प्रथम प्रकार (मुख्य) के भी प्रथम प्रकार प्राणवायु का जो छठा भेद है, जिसे हमने प्रियनामक पशु संज्ञक कहा, उसे ही कारण आपके दिमाग में लज्जा, भय अथवा लोभ जैसी भावनाएं आती हैं।
इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने तीसरे अध्याय में कहा :-
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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
बाह्य परिच्छिन्न और स्थूल देह की अपेक्षा सूक्ष्म अन्तरस्थ और व्यापक आदि गुणों से युक्त होनेके कारण श्रोत्रादि पञ्च ज्ञानेन्द्रियोंको पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं।
तथा इन्द्रियोंकी अपेक्षा संकल्पविकल्पात्मक मन को श्रेष्ठ कहते हैं और मन की अपेक्षा निश्चयात्मिका बुद्धि को श्रेष्ठ बताते हैं।
एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थों के अन्तरव्यापी है।
जिसके विषय में कहा है कि उस आत्माको इन्द्रियादि आश्रयों से युक्त काम ज्ञानावरण द्वारा मोहित किया करता है वह (बुद्धि का द्रष्टा चेतन) है।
मन की शक्ति सङ्कल्प विकल्प करने की है, निर्णय लेने की, निश्चय करने की नहीं।
सङ्कल्पो वाव मनसो भूयान्यदा वै सङ्कल्पयतेऽथ मनस्यत्यथ वाचमीरयति तामु नाम्नीरयति नाम्नि मन्त्रा एकं भवन्ति मन्त्रेषु कर्माणि।
(छान्दोग्योपनिषत्)
इसी प्रकार मन से जो श्रेष्ठता से युक्त है, वह बुद्धि तर्क वितर्क नहीं करती, वह निर्णय देती है, निश्चय करती है। तो क्या सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क करने वाला मन छोटा हो गया, महत्वहीन हो गया ? नहीं ऐसा नहीं है।
तानि ह वा एतानि सङ्कल्पैकायनानि सङ्कल्पात्मकानि सङ्कल्पे प्रतिष्ठितानि समकॢपतां द्यावापृथिवी समकल्पेतां वायुश्चाकाशं च समकल्पन्तापश्च तेजश्च तेषाँ सङ्कॢप्त्यै वर्षँ सङ्कल्पते वर्षस्य सङ्कॢप्त्या अन्नँ सङ्कल्पतेऽन्नस्य सङ्कॢप्त्यै प्राणाः सङ्कल्पन्ते प्राणानाँ सङ्कॢप्त्यै मन्त्राः सङ्कल्पन्ते मन्त्राणाँ सङ्कॢप्त्यै कर्माणि सङ्कल्पन्ते कर्मणां सङ्कॢप्त्यै लोकः सङ्कल्पते लोकस्य सङ्कॢप्त्यै सर्वँ सङ्कल्पते स एष सङ्कल्पः सङ्कल्पमुपास्स्वेति
(छान्दोग्योपनिषत्)
सङ्कल्प की शक्ति अद्भुत है। सङ्कल्प विकल्प, तर्क वितर्क, उहापोह (आज की भाषा में साईंटिफिक रिसर्च) की शक्ति के ही कारण आकाश, पृथ्वी, अंतरिक्ष, प्रकाश, ध्वनि, तरंग, अन्न, अनेकों प्रकार की प्राण शक्ति आदि का ज्ञान सम्भव है।
इससे मन प्राण, शरीर आदि को निर्देश कर पाता है, इसी ज्ञान के कारण सही निर्णय तक पहुंचकर कर्म करने की योग्यता आती है, इसीलिए इस शक्ति की, मन की अधिवक्ता शक्ति को धारण करना चाहिए।
तन्मात्रा वह माध्यम है जिससे इंद्रियों को अपने सम्बंधित विषयों को ग्रहण करने की शक्ति मिलती हैं। जैसे आप अपने वाहन के माध्यम से गंतव्य तक जाते हैं वैसे ही इंद्रियों को अपने विषय तक पहुंचने के लिए तन्मात्रा की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, नेत्र रूपी इन्द्रिय, रूप तन्मात्रा के माध्यम में दृश्य रूपी विषय को ग्रहण करती है। अथवा कर्ण रूपी इन्द्रिय, शब्द तन्मात्रा के माध्यम से ध्वनि रूपी विषय को ग्रहण करती है। यदि तन्मात्रा न रहे तो आंख और कान रहने पर भी व्यक्ति अंधा या बहरा हो जाएगा।
अपने शरीर की तन्मात्रा का संचालन प्राण करता है। वही इंद्रियों के तन्मात्रा से प्राप्त विषयों को मन तक ले जाता है।
जैसे जब शरीर की ऊर्जा क्षीण होती है तो कृकल नाम का क्षुद्र प्राणवायु मन को यह सन्देश देता है कि भूख लग रही है और तब वह ऐसे हॉरमोन या रसायन को निकालता है जिससे व्यक्ति की भोजन करने की इच्छा होती है।
ऐसे ही जब हमारी आंखों को पलक झपकाना होता है तो यहां कूर्म नामक क्षुद्र प्राणवायु कार्य करता है।
जम्हाई लेने के लिए देवदत्त नामक क्षुद्र प्राणवायु का प्रयोग किया जाता है।
ऊपर हमने सभी के नाम और विभाजन लिखे हुए हैं।
कूर्म उन्मीलने तु सः। कृकलः क्षुतकायैव देवदत्तो विजृंभणे॥
(लिंगपुराण)
इन्द्रिय और विषय की कड़ी तन्मात्रा है, यहां विषय छोटा है और इन्द्रिय बड़ी।
इन्द्रिय और मन की कड़ी प्राणवायु है, यहां इन्द्रिय छोटा है और मन बड़ा।
धी और आत्मा की कड़ी चित्त है, यहां धी छोटी है और आत्मा बड़ी।
इसी बात को संक्षेप में हमने ऊपर श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक का उदाहरण देकर कहा है।
सामान्य रूप से धी शब्द का प्रयोग बुद्धि के लिए किया जाता हूं किन्तु वास्तव में धी के गुणों और चर्चा करें तो यहां इंद्रियों की ग्रहण शक्ति, मन की तर्क वितर्क की शक्ति, बुद्धि की निर्णयशक्ति और चित्त की साक्षीभाव की शक्ति सब सम्मिलित है, इसीलिए कह सकते हैं ।
कि किसी भी वस्तु को देखने या सुनने के बाद, सोचने विचारने के बाद, निर्णय लेकर क्रियान्वयन करने तक की प्रक्रिया में लगे समस्त तत्वों का समूह ही धी कहाता है।
अष्टाभिर्गुणैः शुश्रूषा श्रवणं ग्रहणं धारणमूहनमपोहनं विज्ञानं तत्त्वज्ञानं चेति तैः॥
(महाभारत)
इस धी के लक्षण में ऊपर दिए सूत्र में विज्ञान शब्द भी आया है। इस विज्ञान से जो वस्तु हम नहीं जानते, जिस बात का हमें बोध नहीं होता, वो बात भी हम जान जाते हैं, उस बात का निश्चयात्मिका रीति से बोध भी हमें हो जाता है, यह हमारे सनातन धर्म का उद्घोष है।
अविज्ञातस्य विज्ञानं विज्ञातस्य च निश्चयः
(अग्निपुराण)
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मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बुद्धि की परिभाषा -
मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की परिभाषाओं को तीन वर्गों में रखा है-
- बुद्धि -सामान्य योग्यता है।
- बुद्धि- दो या तीन योग्यताओं का योग है।
- बुद्धि- समस्त विशिष्ट योग्यताओं का योग है।
इन तीन वर्गों के अन्तर्गत बुद्धि को जिस तरह पारिभाषित किया गया उनका उल्लेख इस प्रकार है-
बुद्धि -सामान्य योग्यता -
इस प्रकार की विचारधारा को मानने वाले मनोवैज्ञानिक (टर्मन, एम्बिगास, स्टाऊट, बर्ट गॉल्टन स्टर्न )आदि हैं।
इन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बुद्धि व्यक्ति की सामान्य योग्यता है, जो उसकी हर क्रिया में पायी जाती है। इन मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की है-
- टर्मन (Termn) के अनुसार अमूर्त वस्तुओं के सम्बंध में विचार करने की योग्यता ही बुद्धि है।
- (Intelligence is the ability to carry out abstract thinking)
अतः टर्मन के अनुसार बुद्धि समस्या को हल करने की योग्यता है।
- एबिंगास (Ebbinghous) के अनुसार, बुद्धि विभिन्न भागों को मिलाने की शक्ति है।
- (Intelligence is the power of combining parts.)
- गाल्टन (Galton) के अनुसार, बुद्धि विभेद करने एवं चयन करने की शक्ति है।
- (Intelligence is the power of discrimination and selection.)
- स्टर्न (Stern) के मतानुसार, नवीन परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की योग्यता ही बुद्धि है।
- (Intelligence is the ability to adjust oneself to a new situation.)
बुद्धि- दो या तीन योग्यताओं का योग है
इस प्रकार की विचारधारा को मानने वालों में (स्टेनफोर्ड बिने) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। बिने (Binet) के अनुसार,'
बुद्धि तर्क, निर्णय एवं आत्म आलोचन की योग्यता एवं क्षमता है।
- (Intelligence is the ability and capacity to reason well to judge well and to be self-critical.)
बुद्धि -समस्त विशिष्ट योग्यताओं का योग है।
बुद्धि के इस वर्ग की परिभाषाओं के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार की विशिष्ट योग्यताओं के योग को बुद्धि की संज्ञा दी है।
इन विचारों को मानने वाले थार्नडाइक, थर्स्टन, थॉमसन, वेस्लर तथा स्टोडार्ड हैं।
- थार्नडाइक (Thorndike) महोदय के अनुसार,
- उत्तम क्रिया करने तथा नई परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की योग्यता को बुद्धि कहते हैं।
- (Intelligence is the ability to make good responses and is demonstrated by the capacity to deal affectivity with new
situations.)
- स्टोडार्ड (Stoddard) के मतानुसार,
- बुद्धि (क) कठिनता (ख) जटिलता (ग) अमूर्तता (घ) आर्थिकता (ङ) उद्देश्य प्राप्यता (च) सामाजिक मूल्य तथा (छ) मौलिकता से सम्बंधित समस्याओं को समझने की योग्यता है।
- (Intelligence is the ability to understand problems that are characterised by (a) difficulty (b) complexity (c) abstractness (d)
economy (e) adaptations to a goal (f) social value and (g) commergence of originals under such conditions that demand a concentration of energy and resistance to emotional forces.)
बुद्धि के सिद्धान्त -★
बुद्धि के स्वरूप एवं बुद्धि के सिद्धान्त (Theories of Intelligence) -
दोनों ही बुद्धि के विषय के बारे में विचार प्रकट करते हैं परन्तु फिर भी दोनों में भिन्नता दृष्टिगत होती है। बुद्धि के सिद्धान्त उसकी संरचना को स्पष्ट करते हैं जबकि स्वरूप उसके कार्यों पर प्रकाश डालते हैं।
गत शताब्दी के प्रथम दशक से ही विभिन्न देशों के मनोवैज्ञानिकों में इस बात की रूचि बढ़ी की बुद्धि की संरचना कैसी है तथा इसमें किन-किन कारकों का समावेश है।
इन्हीं प्रश्नों के परिणाम स्वरूप विभिन्न कारकों के आधार पर बुद्धि की संरचना की व्याख्या होने लगी।
अमेरिका के थार्सटन, थार्नडाईक, थॉमसन आदि मनोवैज्ञानिकों ने कारकों (factors) के आधार पर 'बुद्धि के स्वरूप' विषय में अपने-अपने विचार व्यक्त किये।
इसी तरह फ्रांस में अल्फ्रेड बिने, ब्रिटेन में स्पीयरमेन ने भी बुद्धि के स्वरूप के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किये।
बिने का एक-कारक सिद्धान्त-
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एक-कारक सिद्धान्त (Uni-factor Theory) का प्रतिपादन फ्रांस के मनोवैज्ञानिक अल्फ्रेड बिने (Alfred Binet) ने किया तथा अमेरिका के मनोवैज्ञानिक टर्मन तथा जर्मनी के मनोवैज्ञानिक एंबिगास ने इसका समर्थन किया।
यह एक एकत्व का खंड है जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता है।
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इसी एक कारकीय सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए
१-बिने ने "बुद्धि को व्याख्या-और निर्णय की योग्यता माना है"।
२- टर्मन ने "इसे विचार करने की योग्यता माना है तथा
३-".स्टर्न ने इसे नवीन परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की योग्यता के रूप में माना है"।
द्वितत्व सिद्धान्त -
द्वितत्व सिद्धान्त (Bi-factor Theory) के प्रवर्तक ब्रिटेन के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्पीयर मेन हैं।
उन्होंने अपने प्रयोगात्मक अध्ययनों तथा अनुभवों के आधार पर बुद्धि के इस द्वि-तत्व सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
उनके मतानुसार बुद्धि दो शक्तियों के रूप में है या बुद्धि की संरचना में दो कारक हैं।
सामान्य कारक से उनका तात्पर्य यह है कि सभी व्यक्तियों में कार्य करने की एक सामान्य योग्यता होती है।
अतः प्रत्येक व्यक्ति कुछ सीमा तक प्रत्येक कार्य कर सकता है। ये कार्य उसकी सामान्य बुद्धि के कारण ही होते हैं।
सामान्य कारक व्यक्ति की सम्पूर्ण मानसिक एवं बौद्धिक क्रियाओं में पाया जाता है परन्तु यह विभिन्न मात्राओं में होता है।
बुद्धि का यह सामान्य कारक जन्मजात होता है तथा व्यक्तियों को सफलता की ओर इंगित करता है।
व्यक्ति की विशेष क्रियाएं बुद्धि के एक विशेष कारक द्वारा होती है।
यह कारक बुद्धि का विशिष्ट कारक (specific factor) कहलाता है।
एक प्रकार की विशिष्ट क्रिया में बुद्धि का एक विशिष्ट कारक कार्य करता है तो दूसरी क्रिया में दूसरा विशिष्ट कारक।
अतः भिन्न-भिन्न प्रकार की विशिष्ट क्रियाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के विशिष्ट कारकों की आवश्यकता होती है।
ये विशिष्ट कारक भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। इसी कारण वैयक्तिक भिन्नताएं पाई जाती हैं।
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बुद्धि के सामान्य कारक जन्मजात होते हैं जबकि विशिष्ट कारक अधिकांशतः अर्जित होते हैं।
बुद्धि के इस दो-कारक सिद्धान्त के अनुसार सभी प्रकार की मानसिक क्रियाओं में बुद्धि के सामान्य कारक कार्य करते हैं ।
जबकि विशिष्ट मानसिक क्रियाओं में विशिष्ट कारकों को स्वतंत्र रूप से काम में लिया जाता है। व्यक्ति के एक ही क्रिया में एक या कई विशिष्ट कारकों की आवश्यकता होती है।
परन्तु प्रत्येक मानसिक क्रिया में उस क्रिया से संबंधित विशिष्ट कारक के साथ-साथ सामान्य कारक भी आवश्यक होते हैं।
जैसे- सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, दर्शन एवं शास्त्र अध्ययन जैसे विषयों को जानने और समझने के लिए सामान्य कारक महत्वपूर्ण समझे जाते हैं वहीं यांत्रिक, हस्तकला, कला, संगीत कला जैसे विशिष्ट विषयोंं को जानने ओर समझने के लिए विशिष्ट कारकों की प्रमुख रूप से आवश्यकता होती है।
इससे स्पष्ट है कि किसी विशेष विषय या कला को सीखने के लिए दोनों कारकों का होना अत्यन्त अनिवार्य है।
त्रिकारक बुद्धि सिद्धान्त-★
- सामान्य कारक
- विशिष्ट कारक
- समूह कारक
सम्मिलित किये गये हैं।
स्पीयरमेन के विचार में सामान्य तथा विशिष्ट कारकों के अतिरिक्त समूह कारक भी समस्त मानसिक क्रियाओं में साथ रहता है।
कुछ विशेष योग्यताएं जैसे यांत्रिक योग्यता, आंकिक योग्यता, शाब्दिक योग्यता, संगीत योग्यता, स्मृति योग्यता, तार्किक योग्यता तथा बौद्धिक योग्यता आदि के संचालन में समूह कारक भी विशेष भूमिका निभाते हैं।
समूह कारक स्वयं अपने आप में कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रखता बल्कि विभिन्न विशिष्ट कारकों तथा सामान्य कारक के मिश्रण से यह अपना समूह बनाता है।
इसीलिए इसे समूह कारक कहा गया है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस सिद्धान्त में किसी प्रकार की नवीनता नहीं है।
थार्नडाइक जैसे मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा है कि समूह कारक कोई नवीन कारक नहीं है ।
अपितु यह सामान्य एवं विशिष्ट कारकों का मिश्रण मात्र है।
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थार्नडाइक का बहुकारक बुद्धि सिद्धान्त-
थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त में बुद्धि को विभिन्न कारकों का मिश्रण माना है। जिसमें कई योग्यताएं निहित होती हैं।
उनके अनुसार किसी भी मानसिक कार्य के लिए, विभिन्न कारक एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। थार्नडाइक ने पूर्व सिद्धान्तों में प्रस्तुत 'सामान्य कारकों' की आलोचना की और अपने सिद्धान्त में सामान्य कारकों की जगह मूल कारकों (Primary factors) तथा सर्वनिष्ठ कारकों (कॉमन फैक्टर्स) का उल्लेख किया।
मूल कारकों में मूल मानसिक योग्यताओं को सम्मिलित किया है। ये योग्यताएं जैसे- शाब्दिक योग्यता, आंकिक योग्यता, यांत्रिक योग्यता, स्मृति योग्यता, तार्किक योग्यता तथा भाषण देने की योग्यता आदि हैं।
उनके अनुसार ये योग्यताएं व्यक्ति के समस्त मानसिक कार्यों को प्रभावित करती है।
थार्नडाइक इस बात को भी मानते हैं कि हर व्यक्ति में कोई न कोई विशिष्ट योग्यता अवश्य पायी जाती है।
परन्तु उनका यह भी मानना है कि व्यक्ति की एक विषय की योग्यता से दूसरे विषय में योग्यता का अनुमान लगाना कठिन है। जैसे कि एक व्यक्ति यांत्रिक कला में प्रवीण है तो यह आवश्यक नहीं कि वह संगीत में भी निपुण होगा।
उनके अनुसार जब दो मानसिक क्रियाओं के प्रतिपादन में यदि धनात्मक सहसंबंध पाया जाता है तो उसका अर्थ व्यक्ति में सर्वनिष्ट कारक भी हैं। ये उभयनिष्ठ कारक कितनी मात्रा में हैं यह सहसंबंध की मात्रा से ज्ञात हो सकता है।
थार्नडाइक ने बुद्धि को तीन प्रकार का बताया है ।
- 1-मूर्त बुद्धि- जैसे राजगीर इंजीनियर
- 2-अमूर्त बुद्धि-डाक्टर चित्रकार मनोवैज्ञानिक
- 3-सामाजिक बुद्धि- नेता समाजसेवी
थर्स्टन का समूह कारक बुद्धि सिद्धान्त-
थर्स्टन (Thurston) के समूह कारक बुद्धि सिद्धान्त (Group factors Intelligence Theory) के अनुसार बुद्धि न तो सामान्य कारकों का प्रदर्शन है, न ही विभिन्न विशिष्ट कारकों का, अपितु इसमें कुछ ऐसी निश्चित मानसिक क्रियाएं होती हैं जो सामान्य रूप से मूल कारकों में सम्मिलित होती है।
ये मानसिक क्रियाएं समूह का निर्माण करती हैं जो मनोवैज्ञानिक एवं क्रियात्मक एकता प्रदान करते हैं।
थर्स्टन ने अपने सिद्धान्त को कारक विश्लेषण के आधार पर प्रस्तुत किया। उनके अनुसार बुद्धि की संरचना कुछ मौलिक कारकों के समूह से होती है। दो या अधिक मूल कारक मिलकर एक समूह का निर्माण कर लेते हैं जो व्यक्ति के किसी क्षेत्र में उसकी बुद्धि का प्रदर्शन करते हैं। इन मौलिक कारकों में उन्होंने आंकिक योग्यता, प्रत्यक्षीकरण की योग्यता (Perceptual ability), शाब्दिक योग्यता (Verbal ability), दैशिक योग्यता (Spatial ability), शब्द प्रवाह (Word fluency), तर्क शक्ति और स्मृति शक्ति (mental power) को मुख्य माना।
थर्स्टन ने यह स्पष्ट किया कि बुद्धि कई प्रकार की योग्यताओं का मिश्रण है जो विभिन्न समूहों में पाई जाती है। उनके अनुसार मानसिक योग्यताएं क्रियात्मक रूप से स्वतंत्र है फिर भी जब ये समूह में कार्य करती है तो उनमें परस्पर संबंध या समानता पाई जाती है।
कुछ विशिष्ट योग्यताएं एक ही समूह की होती हैं और उनमें आपस में सह-संबंध पाया जाता है। जैसे विज्ञान विषयों के समूह में भौतिक, रसायन, गणित तथा जीव-विज्ञान भौतिकी एवं रसायन आदि।
इसी प्रकार संगीत कला को प्रदर्शित करने के लिए तबला, हारमोनियम, सितार आदि बजाने में परस्पर सह-संबंध रहता है।
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थॉमसन का प्रतिदर्श सिद्धान्त-
थॉमसन (Thomson) ने बुद्धि के प्रतिदर्श सिद्धान्त (Sampling Theory of Intelligence) को प्रस्तुत किया।
उनके मतानुसार व्यक्ति का प्रत्येक कार्य निश्चित योग्यताओं का प्रतिदर्श होता है। किसी भी विशेष कार्य को करने में व्यक्ति अपनी समस्त मानसिक योग्यताओं में से कुछ का प्रतिदर्श के रूप में चुनाव कर लेता है।
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इस सिद्धान्त में उन्होंने सामान्य कारकों (G-factors) की व्यावहारिकता को महत्व दिया है। थॉमसन के अनुसार व्यक्ति का बौद्धिक व्यवहार अनेक स्वतंत्र योग्यताओं पर निर्भर करता है परन्तु परीक्षा करते समय उनका प्रतिदर्श ही सामने आता है।
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कैटल का बुद्धि सिद्धान्त-
रेमण्ड वी. केटल (1971) ने दो प्रकार की सामान्य बुद्धि का वर्णन किया है। ये हैं फ्लूड (Fluid) तथा क्रिस्टलाईज्ड (Crystallized)। उनके अनुसार बुद्धि की फ्लूड सामान्य योग्यता वंशानुक्रम कारकों पर निर्भर करती है।
जबकि क्रिस्टलाईज्ड योग्यता अर्जित कारकों के रूप में होती है।
फ्लूड सामान्य योग्यता मुख्य रूप से संस्कृति युक्त, गति-स्थितियों तथा नई स्थितियों के अनुकूलता वाले परीक्षणों में पाई जाती है। क्रिस्टलाईज्ड सामान्य योग्यता अर्जित सांस्कृतिक उपलब्धियों, कौशलताओं तथा नई स्थिति से सम्बंधित वाले परीक्षणों में एक कारक के रूप में मापी जाती है।
फ्लूड सामान्य योग्यता (gf) को शरीर की वंशानुक्रम विभक्ता के रूप में लिया जा सकता है जो जैवरासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा संचालित होती है।
जबकि क्रिस्टलाईज्ड सामान्य योग्यता (gc) सामाजिक अधिगम एवं पर्यावरण प्रभावों से संचालित होती है।
केटल के अनुसार फ्लुड सामान्य बुद्धि वंशानुक्रम से सम्बिंधत है तथा जन्मजात होती है जबकि क्रिस्टलाईज्ड सामान्य बुद्धि अर्जित है।
बर्ट तथा वर्नन का पदानुक्रमित बुद्धि सिद्धान्त-
बर्ट एवं वर्नन (Burt and Vernon's 1965) ने पदानुक्रमित बुद्धि सिद्धान्त (Hirarchical Theory of Intelligence) का प्रतिपादन किया। बुद्धि सिद्धान्तों के क्षेत्र में यह नवीन सिद्धान्त माना जाता है। इस सिद्धान्त में बर्ट एवं वर्नन ने मानसिक योग्यताओं को क्रमिक महत्व प्रदान किया है। उन्होंने मानसिक योग्यताओं को चार स्तरों पर विभिक्त किया-
- (१) सामान्य मानसिक योग्यता
- (2) मुख्य समूह कारक
- (3) लघु समूह कारक
- (4) विशिष्ट मानसिक योग्यता
सामान्य मानसिक योग्यताओं में भी योग्यताओं को उन्होंने स्तरों के आधार पर दो वर्गां में विभाजित किया। पहले वर्ग में उन्होंने क्रियात्मक (Practical), यांत्रिक (Machenical) एवं शारीरिक योग्यताओं को रखा है। इस मुख्य वर्ग को उन्होंने k.m. नाम दिया। योग्यताओं के दूसरे समूह में उन्होंने शाब्दिक (Verbal), आंकिक तथा शैक्षिक योग्यताओं को रखा है और इस समूह को उन्होंने v.ed. नाम दिया है। अंतिम स्तर पर उन्होंने विशिष्ट मानसिक योग्यताओं को रखा जिनका सम्बंध विभिन्न ज्ञानात्मक क्रियाओं से है।
इस सिद्धान्त की नवीनता एवं अपनी विशेष योग्यताओं के कारण कई मनोवैज्ञानिकों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ है।
गिलफोर्ड का त्रि-आयाम बुद्धि सिद्धान्त-
गिलफोर्ड (Guilford 1959, 1961, 1967) तथा उसके सहयोगियों ने तीन मानसिक योग्यताओं के आधार पर बुद्धि संरचना की व्याख्या प्रस्तुत की।
गिलफोर्ड का यह बुद्धि संरचना सिद्धान्त त्रि-विमीय बौद्धिक मॉडल (Three Dimentional model) कहलाता है।
उन्होंने बुद्धि कारकों को तीन श्रेणियों में बांटा है, अर्थात् मानसिक योग्यताओं को तीन विमाओं (डाइमेंशन्स) में बांटा है। ये हैं-
- संक्रिया (Operation)
- विषय-वस्तु (Contents)
- उत्पाद (Products)
कारक विश्लेषण (Factor Analysis) से बुद्धि की ये तीनों विमाएं पर्याप्त रूप से भिन्न है। 5×4×6=120 तत्वों में वर्गीकृत किया गया है
बहुबुद्धि सिद्धान्त-
इन सबके अलावा बुद्धि का एक सिद्धान्त है जिसे 'हॉवर्ड गार्डनर' ने प्रतिपादित किया, इसे बहुबुद्धि सिद्धान्त कहा जाता है।
इसके अनुसार हर इंसान मे अलग प्रकार की बुद्धि होती है,जैसे कोई संगीत मे पारंगत हो सकता है तो कोई अभिनय मे तो कोई लेखन मे,कोई तार्किक क्षमता मे आदि।
इन्होंने बुद्धि के इस सिद्धान्त को समझाने के लिए इसे नौ क्षेत्रों मे विभाजित किया है जो इस प्रकार हैं-
1-भाषागत
2-तार्किक-गणितीय
3-देैशिक
4-संगीतात्मक
5-शारीरिक-गतिसंवेदी
6-अंतर्वैयक्तिक
7-अन्तः व्यक्ति
8-प्रकृतिवादी
9-अस्तित्ववादी
गार्डनर ने अपनी पुस्तक "फ्रेम्स ऑफ माइंड : द थ्योरी ऑफ मल्टीपल इंटेलिजेंस" में इसे काफी अच्छे से विस्तारपूर्वक बताया है।
"सन्दर्भ"
- ↑ Sternberg RJ; Salter W (1982). Handbook of human intelligence. Cambridge, UK: Cambridge University Press. OCLC 11226466 38083152 8170650
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के मान की जाँच करें (मदद). आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-521-29687-0. - ↑ Binet, Alfred (1916) [1905]. "New methods for the diagnosis of the intellectual level of subnormals". The development of intelligence in children: The Binet-Simon Scale. E.S. Kite (Trans.). Baltimore: Williams & Wilkins. पपृ॰ 37–90. मूल से 19 जून 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 10 जुलाई 2010.
originally published as Méthodes nouvelles pour le diagnostic du niveau intellectuel des anormaux. L'Année Psychologique, 11, 191-244
वेक्स्लर एडल्ट इंटेलिजेंस स्केल
वेचस्लेर एडल्ट इंटेलिजेंस स्केल ( WAIS ) एक है बुद्धि परीक्षण को मापने के लिए तैयार किया गया खुफिया और संज्ञानात्मक क्षमता वयस्कों और पुराने किशोरों में।
मूल( WAIS ) को फरवरी १९५५ में डेविड वेक्स्लर द्वारा प्रकाशित किया गया था , जो १९३९ में जारी वेक्स्लर-बेलेव्यू इंटेलिजेंस स्केल के संशोधन के रूप में था।
यह वर्तमान में अपने चौथे संस्करण ( WAIS-IV ) में जारी है।
यह 2008 में पियर्सन द्वारा , और दुनिया में वयस्कों और बड़े किशोरों दोनों के लिए सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला आईक्यू टेस्ट है।
अगले संस्करण के लिए डेटा संग्रह ( WAIS 5) 2016 में शुरू हुआ और 2020 के वसंत में समाप्त होने की उम्मीद है।
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इतिहास----
WAIS की स्थापना वेक्स्लर की बुद्धि की परिभाषा पर की गई है , जिसे उन्होंने "... किसी व्यक्ति की उद्देश्यपूर्ण ढंग से कार्य करने, तर्कसंगत रूप से सोचने और अपने पर्यावरण से प्रभावी ढंग से निपटने की वैश्विक क्षमता" के रूप में परिभाषित किया है।
उनका मानना था कि बुद्धि विशिष्ट तत्वों से बनी होती है जिन्हें अलग किया जा सकता है, परिभाषित किया जा सकता है और बाद में मापा जा सकता है। हालाँकि, ये व्यक्तिगत तत्व पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं थे, लेकिन सभी परस्पर जुड़े हुए थे। उनका तर्क, दूसरे शब्दों में, यह है कि सामान्य बुद्धि विभिन्न विशिष्ट और परस्पर संबंधित कार्यों या तत्वों से बनी होती है जिन्हें व्यक्तिगत रूप से मापा जा सकता है।
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यह सिद्धांत बिनेट पैमाने से काफी भिन्न था , जिसे वेक्स्लर के दिनों में, आमतौर पर खुफिया परीक्षण के संबंध में सर्वोच्च अधिकार माना जाता था। 1937 में जारी बिनेट स्केल के एक बड़े पैमाने पर संशोधित नए संस्करण को डेविड वेक्स्लर (जिसके बाद मूल वेक्स्लर-बेलेव्यू इंटेलिजेंस स्केल और आधुनिक वेक्स्लर एडल्ट इंटेलिजेंस स्केल IV का नाम दिया गया है) से काफी आलोचना मिली ।
- वेक्स्लर गैर-बौद्धिक कारकों की अवधारणा के लिए एक बहुत प्रभावशाली वकील थे, और उन्होंने महसूस किया कि 1937 के बिनेट पैमाने ने इन कारकों को पैमाने में शामिल करने का अच्छा काम नहीं किया (गैर-बौद्धिक कारक चर हैं जो समग्र स्कोर में योगदान करते हैं। बुद्धि, लेकिन बुद्धि से संबंधित वस्तुओं से नहीं बने हैं। इनमें आत्मविश्वास की कमी, असफलता का डर, दृष्टिकोण आदि जैसी चीजें शामिल हैं)।
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- वेक्स्लर बिनेट परीक्षण द्वारा दिए गए एक अंक के विचार से सहमत नहीं थे।
- वेक्स्लर ने तर्क दिया कि बिनेट स्केल आइटम वयस्क परीक्षार्थियों के लिए मान्य नहीं थे क्योंकि आइटम विशेष रूप से बच्चों के उपयोग के लिए चुने गए थे।
- "बिनेट स्केल का गति पर जोर, समयबद्ध कार्यों के साथ पूरे पैमाने पर बिखरे हुए, पुराने वयस्कों को अनावश्यक रूप से विकलांग करने के लिए।"
- वेक्स्लर का मानना था कि "मानसिक आयु मानदंड स्पष्ट रूप से वयस्कों पर लागू नहीं होते हैं।"
- वेक्स्लर ने तत्कालीन मौजूदा बिनेट पैमाने की आलोचना की क्योंकि "यह नहीं माना जाता था कि बौद्धिक प्रदर्शन एक व्यक्ति के बड़े होने पर बिगड़ सकता है।"
१९३७ के बिनेट परीक्षण की इन आलोचनाओं ने १९३९ में जारी वेक्स्लर-बेलेव्यू पैमाने का निर्माण करने में मदद की।
हालाँकि, वर्तमान में WAIS-IV ने इनमें से कई आलोचनाओं का खंडन किया है, जिसमें एक समग्र स्कोर को शामिल करते हुए, कई समय के कार्यों का उपयोग करते हुए, बौद्धिक पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
आइटम और अन्य तरीके। हालांकि इस पैमाने को संशोधित किया गया है (जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान दिन WAIS-IV), वेक्स्लर ने तर्क दिया कि कई मूल अवधारणाएं मनोवैज्ञानिक परीक्षण में मानक बन गई हैं , जिसमें बिंदु-पैमाने की अवधारणा और प्रदर्शन-पैमाने की अवधारणा शामिल है।
WAIS
WAIS को शुरू में Wechsler- Bellevue Intelligence Scale (WBIS) के संशोधन के रूप में बनाया गया था , जो 1939 में Wechsler द्वारा प्रकाशित परीक्षणों की एक बैटरी थी। WBIS उप-परीक्षणों से बना था जो उस समय के विभिन्न अन्य खुफिया परीक्षणों में पाया जा सकता था, जैसे रॉबर्ट यरकेस का सेना परीक्षण कार्यक्रम और बिनेट - साइमन स्केल। WAIS को पहली बार फरवरी 1955 में डेविड वेक्स्लर द्वारा जारी किया गया था ।
क्योंकि वेक्स्लर परीक्षणों में गैर-मौखिक आइटम ( प्रदर्शन स्केल के रूप में जाना जाता है ) के साथ-साथ सभी परीक्षार्थियों के लिए मौखिक आइटम शामिल थे, और क्योंकि लुईस टर्मन के स्टैनफोर्ड-बिनेट इंटेलिजेंस स्केल का 1960 का रूप पिछले संस्करणों की तुलना में कम सावधानी से विकसित किया गया था, फॉर्म WAIS के I ने 1960 के दशक तक लोकप्रियता में स्टैनफोर्ड-बिनेट परीक्षणों को पीछे छोड़ दिया।
WAIS-R
WAIS-R, WAIS का एक संशोधित रूप, 1981 में जारी किया गया था और इसमें छह मौखिक और पांच प्रदर्शन उप-परीक्षण शामिल थे। मौखिक परीक्षण थे: सूचना, समझ, अंकगणित, अंक अवधि, समानताएं और शब्दावली। प्रदर्शन उप-परीक्षण थे: पिक्चर अरेंजमेंट, पिक्चर कंप्लीशन, ब्लॉक डिजाइन, ऑब्जेक्ट असेंबली और डिजिट सिंबल। एक मौखिक आईक्यू, प्रदर्शन आईक्यू और पूर्ण पैमाने पर आईक्यू प्राप्त किया गया।
इस संशोधित संस्करण ने नया वैधता डेटा प्रदान नहीं किया, लेकिन मूल WAIS के डेटा का उपयोग किया; हालाँकि नए मानदंड प्रदान किए गए, सावधानीपूर्वक स्तरीकृत किए गए।
डब्ल्यूएआईएस-III
WAIS-III, WAIS और WAIS-R का एक बाद का संशोधन, 1997 में जारी किया गया था। इसने चार माध्यमिक सूचकांकों (मौखिक समझ, कार्यशील मेमोरी, अवधारणात्मक) के साथ मौखिक IQ, प्रदर्शन IQ और पूर्ण स्केल IQ के लिए स्कोर प्रदान किया। संगठन, और प्रसंस्करण गति)।
मौखिक बुद्धि (VIQ)
सात परीक्षण शामिल हैं और दो उप-सूचकांक प्रदान किए गए हैं; मौखिक समझ और कार्यशील स्मृति ।
मौखिक समझ सूचकांक (VCI) में निम्नलिखित परीक्षण शामिल थे:
- जानकारी
- समानताएँ
- शब्दावली
वर्किंग मेमोरी इंडेक्स (WMI) में शामिल हैं:
- अंकगणित
- अंक अवधि
- पत्र-संख्या-अनुक्रमण
उप-सूचकांकों में उप-परीक्षण शामिल नहीं हैं:
- समझना
अनुपूरक उप-परीक्षण (केवल कुल VIQ अनुक्रमणिका स्कोरिंग और निर्दिष्ट उप-सूचकांक के लिए उपयोग किए जाने के लिए):
- पत्र-संख्या-अनुक्रमण
प्रदर्शन आईक्यू (पीआईक्यू)
इसमें छह परीक्षण शामिल थे और इसने दो उप-सूचकांक भी प्रदान किए; अवधारणात्मक संगठन और प्रसंस्करण गति।
अवधारणात्मक संगठन सूचकांक (पीओआई) में शामिल हैं:
- ब्लॉक डिजाइन
- मैट्रिक्स रीजनिंग
- चित्र समापन
प्रोसेसिंग स्पीड इंडेक्स (PSI) में शामिल हैं:
- अंक प्रतीक-कोडिंग
- प्रतीक खोज
उप-सूचकांकों में उप-परीक्षण शामिल नहीं हैं:
- चित्र व्यवस्था
अनुपूरक उप-परीक्षण (केवल कुल PIQ सूचकांक स्कोरिंग और निर्दिष्ट उप-सूचकांक के लिए उपयोग किए जाने के लिए):
- ऑब्जेक्ट असेंबली
- प्रतीक खोज
बुद्धि का आकलन:
- 1905 में, अल्फ्रेड बिने और थियोडोर साइमन ने औपचारिक रूप से बुद्धि को मापने का पहला सफल प्रयास किया।
- 1908 में, जब पैमाने को संशोधित किया गया था, तो उन्होंने मानसिक आयु (एमए) की अवधारणा दी, जो कि उस आयु वर्ग के लोगों के सापेक्ष एक व्यक्ति के बौद्धिक विकास की एक माप है।
Key Points
- 5 वर्ष की मानसिक आयु का अर्थ है कि एक बुद्धि परीक्षण पर एक बच्चे का प्रदर्शन 5 वर्ष के बच्चों के समूह के औसत प्रदर्शन स्तर के बराबर है।
- कालानुक्रमिक आयु (CA) जन्म से जैविक आयु है।
- एक उज्ज्वल बच्चे की मानसिक आयु उसकी कालानुक्रमिक आयु से अधिक होती है; एक सुस्त बच्चे के लिए, मानसिक आयु, कालानुक्रमिक आयु से कम होती है।
- अवरोध को बिने और साइमन द्वारा कालानुक्रमिक आयु से दो वर्ष कम मानसिक आयु के रूप में परिभाषित किया गया था।
Important Points
- 1912 में, एक जर्मन मनोवैज्ञानिक विलियम स्टर्न ने बुद्धि लब्धि (आईक्यू) की अवधारणा को तैयार किया।
- आईक्यू मानसिक आयु को कालानुक्रमिक आयु से विभाजित करने और 100 से गुणा करने को संदर्भित करता है।
- IQ =
- १००दशमलव बिंदु को हटाने के लिए 100 संख्या का उपयोग गुणक के रूप में किया जाता है।
- जब मानसिक आयु, कालानुक्रमिक आयु के बराबर होती है, तो आईक्यू, 100 के बराबर होता है।
- यदि मानसिक आयु, कालानुक्रमिक आयु से अधिक है, तो आईक्यू, 100 से अधिक होता है।
- जब मानसिक आयु, कालानुक्रमिक आयु से कम होती है, तो आईक्यू, 100 से कम हो जाता है।
इसलिए, बुद्धि लब्धि (आईक्यू) की अवधारणा को विलियम स्टर्न द्वारा दिया गया था।
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