रविवार, 26 दिसंबर 2021

जीवन की प्रयोगशाला-

हम्हें तनहा रहने दो , 
हम्हें तन्हाई ही मञ्जूर है ।

उनकी राहें हमसे जुदा   ,
और मञ्जिल भी बहुत दूर है ।

उन्हें अफशोस हमसे मिलकर 
 यह भी हमारा ही कसूर है ।

उनकी निष्ठा और प्रतिष्ठा 
 उनकी नज़रों में जरूर है ।

हमारे जज्बातों से खेलें 
'रोहि' जिन्हें दोैलत पै गुरूर है ।

एक हुश्न है उनकी दौलत 
-जो अभी तक तो भरपूर है ।

ये संस्कृति और सभ्यता को 
 कितना गिराऐंगी नहीं पता ।

इनका नंगापन और  चञ्चल मन ।
 तूफानों के दौर में हो जाएगी ख़ता ।

ये कभी-कभी हमको लगता 
 दिन रात ये मन भी सुलगता ।

बात आज की नहीं ये सदीयों  पुरानी रीति है- 
सफलता उसने पायी "रोहि" जिसने चंचलता जीती है ।।

–हमने बोला भी वहीं 
  जहाँ विचारों को मान्यता मिली ।
जो बैकद्र , मगरूर मजलिशें 
    वहाँ जुवाँ अपनी 'न हिली।।   

एक आवेश हो मन में और चंचलता क्षण क्षण 
समझो तूफानों का दौर है  तब होगी बड़ी गड़बड़।।

  ये उमंग और रंगत , लगें मोहक नजारे
  सयंम की राह हे मन पकड़ !इधर उधर 'न जारे।

–सच बयान करने वाले मुख नहीं 
    दुनियाँ  में अब महज चहरे होते हैं ।
उस चहरें  में भी आँखें को देखो 
   जहाँ केवल सच ही ठहरे होते हैं 

केवल शब्दों की ही भाषा सुनने वाले ।
        लोग तो अक्सर बहरे होते हैं ।।

अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले ।
       वो भाव ही असली तेरे होते हैं।

उमड़ आते हैं  वे एकदम चहरे पर
     बर्षों से दिल में जो  ठहरे होते हैं ।।

दर्द देते  हमको वीरानी राहों में "रोहि" अक्सर 
    तन्हाई में अपने जब कहीं बसेरे होते हैं ।

अपमान हेयता की चोटों के जख़्म ,
    जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।।

–दान दीन को दीजिए
     भिक्षा जो मोहताज ।

और दक्षिणा दक्ष को 
     जिसका श्रममूलक काज ।।

परन्तु रीति विपरीत है 
     सब जगह देख लो आज ।

श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी 
     जैसे नैन - मटका वाज ।।

जैसे डिग्रीयों में अब नहीं,
       रही योग्यता की आवाज ।।

–ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताएें  जीवन की एक सम्पादिका !
जिनकी बजह से खरीदा और बेका भी बहुत 
   परन्तु अपना कभी चरित्र  नहीं  बिका ।।

प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती 
जिनसे निर्धारित जातियाँ ।

आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति
सुलगती जीवन बातियाँ ।।

ये कर्म अस्तित्व है जीवन का 
धड़कने श्वाँस के साँचे।

समय और परिवर्तन मिलकर 
जगत् के गीत सब बाँचे ।।

–क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं
न किया कभी उन्हें याद !

तैरहीं खाने अाते हैं वे 
उसके मरने के वाद ।

कर्ज लेकर कर इलाज कराया 
जैसे खुजली में दाद ।

खेती बाड़ी सभी बिक गयी 
हो गया गरीब बर्वाद ।

पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में 
फिर भी ले रहे  स्वाद ।

घर की हालत खश्ता  इतनी 
छाया  है शोक विषाद ।

किस मूरख ने यह कह डाला ?
तैरहीं  ब्राह्मणों को  प्रसाद !

आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
मुझे तुमने धन्य कर दिया साध!

धुल गया वो पाप सारा
सब क्षमा जघन्य अपराध !!
तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद ।

–अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
उजाले  इल्म के होंगे ! 
उन्हें  न ये मालुम थी ।।

–धड़कने थम जाने पर 
श्वाँसें कब चलती हैं ?

–बहारे गुजर जाती  जहाँ 
वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

–हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा 
ये इच्छा वैशाखी है।
दर्द तो दिल में बहुत है लोगों ,
बस अब सिसकना बाकी है ।

–वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।
काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश 
उसी प्रकार सन्निहित है !

–जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है।
जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है ।

परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

–एक अनजान और अजीव 
देखा मैंने वह जीव ।

जीवन की एक किताब 
पढ़ न पाया  तरतीब ।।

१-साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है । 
परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।

साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है । 
ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है 
जैसे अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।।

इतिहास है भूत का एक दर्पण।
गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।।

२- कोई नहीं किसी का मददगार होता है ।
आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।

छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।।

बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है । 
स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।

स्वार्थ है जीवन का वाहक । 
और अहं जीवन की सत्ता है ।।

अहंकार और स्वार्थ ही है ।
हर प्राणी की गुणवत्ता है  ।।

३- विश्वास को भ्रम , 
और दुष्कर्म को श्रम कह रहे । 
आज लूट के व्यवसाय को , 
अब कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

व्यभिचार है,पाखण्ड है ,
ईमान भी खण्ड खण्ड है । 
संसार जल रहा है हर तरफ से 
ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।
साधना से हीन साधु 
सन्त शान्ति से विहीन ।
दान भी उनको नहीं मिलता 
जो वास्तव में बने हैं दीन।।

व्यभिचार में डूबा हुआ ।
भक्त उसको परम कह रहे ।
रूढ़ियों जो सड़ गयीं  
लोग उनके धर्म कह रहे ।।

४- इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है ।
ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है ।।

५- धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर । स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।।

साज़ लेकर संवेदनाओं का ।
दु:ख सुख की ये सरग़में ।

आहों के आलाप में ।
ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।।

सुने पथ के ओ पथिक !
तुम सीखो जीवन रीति को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को 
तब गाओ जीवन गीत को ।।

सिसकियों की तान जिसमें 
एक राग है अरमान का ।। 
प्राणों के झँकृत तार पर । 
उस चिर- निनादित गान का ।।

विस्तृत मत कर देना तुम ,
इस दायित पुनीत को ।।

स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।। 
ताप न तड़पन रहेगी।

जब श्वाँस से धड़कन कहेगी ।। 
हो जोश में तनकर खड़ा।

विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा । 
बनती हैं सम्बल बड़ा ।।

तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।।

६- खो गये कहीं बेख़ुदी में । 
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
लापता हैं मञ्जिलें । 
अब मिट गये सब रास्ते ।।

न तो होश है न ही जोश है ।।
ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।।

बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते ।।
ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !!

एक साद़गी की तलाश में , 
हम परछाँयियों से आमिले ।।

दूर से भी काँच हमको। 
मणियों जैसे भासते ।।

सज़दा किया मज्दा किया ।।
कुर्बान जिसके वास्ते।।
हम मानते उनको ख़ुदा ।। 
जो कभी न हमारे ख़ास थे ।।

किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा ।।
वो खुद होकर हमसे ज़ुदा ।
ओझल हो गया फिर आस्ते ।।

खो गये कहीं बेख़ुदी में । 
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।

७- जिन्द़गी की किश्ती ! आशाओं के सागर ।। 
बीच में ही डूब गये ; कुछ लोग तो घबराकर ।।

किसी आश़िक को पूछ लो ।
अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।

दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।। 
किसी कँवारी से मत पूछना
सहानुभूति थोड़ी भी दिखाकर ।।

तड़फड़ाती फिरती है '
वह जैसे खोई प्यासी लहर ।।

असीमित आशाओं के डोर में । 
बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।।

मञ्जिलों से पहले ही यहाँं ,
भटक जातों हैं अक्सर बटोही

क्यों कि ! बख़्त की राहों पर ! 
जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।।

जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं ।
और न कोई सफ़र ही आखिर है ।।

आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं ।
'वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।।

बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति !

८- अपनों ने कहा पागल हमको । 
ग़ैरों ने कहा आवारा है । 
जिसने भी देखा पास हम्हें । 
उसने ही हम्हें फटकारा है ।।

९- कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है ।

क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है । 
और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है । 
देखो ! 
आप नवीन वस्त्र और उसी का
अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! 
अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।

और यह ज्ञान वही प्रकाश है । 
जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है । 
और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है । 
फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । समझे !
अभी नहीं समझे !

अनुभव उम्र की कषौटी है ।
ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है ।
क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान  केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है
भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत !

परिस्थितियों के साँचे में ।
   'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
बदलती है दुनियाँ उनकी ,
जिनका केवल मन बदलता है।

मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं

जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है ।
आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है ।
और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।

समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है ?
अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।

क्यों कि लोग अहं में जीते है ।
जिसमें फजीते ही फजीते हैं ।
परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो 
वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।।
बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !

दर्शन ( Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ !
दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है ।
और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है ,
--जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

ताउम्र बुझती नहीं "रोहि "
   जिन्द़गी  'वह  प्यास है ।

आनन्द की एक बूँद के लिए भी ,
आदमी इच्छाओं का दास है ।।

परन्तु दु:ख सुख की मृग मरीचि का में 
उसका ये सारा  प्रयास है।।

आस जब तलक छोड़ी नहीं 
  थीं धड़कने और श्वाँस ।
जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम 
और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स..

ये नींद सरिता की अविरल धारा.
जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा।

हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ...
क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....

शिक्षा का व्यवसायी करण 
दु:खद व पतनकारी हे भगवन् !
शिक्षा अन्धेरे में दिया 
इसके विना सूना जीवन ।

आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं ।

जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं ।
ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों 
ऐसा लगता है ।

जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है 
केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है।
इन्हें -जब समझ में आये 
कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं !
-जैसे साक्षरता  शिक्षाकार  नहीं ।
योग्यता एक तपश्चर्या है ।

--जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है ।
वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है ।
यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर 
रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती ।

जिन्हें अपने संसारी पद का ,
       "रोहि" हद से ज्यादा मद है ।

सन्त और विद्वान समागम ,
       उनका  छोटा क़द है ।

उनके पास कुछ टुकड़े हैं ।
       क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के ,
उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको ,
         बड़ते पैसों की खनक के ।।

उनकी उपलब्धियों की भी ,
          संसार में यही सरहद है ।

ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।

जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
   जिसका पाथेय उपनिषद् है ।

पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।
   --जो राहों का गहन विशारद है ...

सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे !
व्यक्ति की छोटी शोच , मोच  पैरों की नाँसे !!

बातचीत करके और व्यवहार परख कर
चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे !

सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।

नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।।

कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे।
नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।।

महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में ।

चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।।

भव सागर है कठिन डगर है ।
हम कर बैठे खुद से समझौते !

डूब न जाए जीवन की किश्ती ।
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।

मन का पतवार बीच की धार।
रोही उम्र बीत गई रोते-रोते।

प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं ।
लहरों के भी कितने छल हैं ।

बस बच गए हैं हम खोते खोते।
सद्बुद्धि केवटिया  बन जा ।
इन लहरों पर सीधा तंजा ।

प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा।
रोही अन्तर घट  ये धोते-धोते।।

तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं ।
जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।

पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
हर तरफ मेरे मालिक ! घोर स्वार्थो की दहाड़ है ।

जिसकी  दृष्टि में भय मिश्रित छल है।
रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है।
परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है ।

यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं।

व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं ।
अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं ।

अनजान और अजीव , 
ऐसा था एक जीव ।।
वक्त की राहों पर 
चल पड़ा बेतरतीव ।।

शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं ।
वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।

ये हुश़्न भी "कोई "
            ख़ूबसूरत ब़ला है ! 
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बड़े बड़े आलिमों  को ,  इसने छला है !!
इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं  भाई!
ना  इससे पहले किसी का चला है !
ये आँधी है , तूफान है ये हर ब़ला है

परछाँयियों का खेल ये 
सदीयों  का सिलस़िला है !

आश़िकों को जलाने के लिए 
     इसकी एक च़िगारी काफी है ,
जलाकर राख कर देना ।
      फिर इसमें ना कोई माफी है ।
सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।
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ये अ़दाऐं बिजलीयाँ हैं , इन हुश़्न वालों की-💥
सौन्दर्य वेत्ता भी तारीफ़ करते हैं , 'रोहि' इनके बालों की ,
झटका इतना जबरद़स्त कि  !
किसी की ज़िन्दगी पुर्जा पुर्जा हिला है !

लुटाकर चले , सब कुछ खाली हाथ ,
कर्म- संस्कारों का बस जख़ीरा मिला है .

समझा दो मन को .नज़रों से कह दो 
अरे ! हुश़्न के नजारों से ना किसी का भला है !

ये 'रोहि' की ग़ुजारिश है तुमसे नौंजवानो .
मन को निगरानी में लो ,और खुद़ को भी जानो !

यह मेरी आख़िरी सलाह है !
  और यही इत्तला है ।

मौहब्बत खूब सूरत दोखा ।
जहाँ  हुश़्न एक अनोखी बल़ा है ।।

छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
क्यों कि ज्ञान  सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है ।
-वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है ।

संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है ।
उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है।
और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं ।
प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है ।

लव तलब मतलब 
इन हयातों का सबब ! 
दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी है ।
कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है ।।

आमीन !!! आपका शुभ चिन्तक यादव योगेश कुमार "रोहि" ~~
इस शुभ उद् गार को  सभी अाश़िकों मे प्रेषित कर दो -----📡.....

_____________________________________ 
आपका दास ! रूढ़िवादी यों से हताश ! यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्क-सूत्र:–8077160219../

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