मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

        राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है !

                  राष्ट्र धर्म सर्वोपरि है !
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जातियाँ बनती हैं , केवल खून के रिश्तों से ।
और रिश्ते बनते हैं  उम्र भर की किश्तों से ।

धर्म की समानताऐं हैं ; रोहि उन सब्ज दरख्तों से
जैसे सियासतें चुपकती हों  ताज और तख्तों से ।
तुम्हेें कुछ खाने को हासिल नहीं इन मन्दिरों के दर
क्यों भीख माँगते हों इन अन्ध भक्तों से

                      और फिर ...
जिन्द़गीयाँ आबाद होती है ,तहजीब के सायों में मजहबों की अकीदत है,जहाँ रुहानी फरिश्तों से ।।

हम भाषाओं को महज अपने तजवीजों को
जाहिर करने का एक जरिया समझते हैं ।

हम धर्म के विरोधी हैं ।
या मुसलमानों के हिमायती हैं।
कुछ अन्धे फ़कत  ऐसा  बकते हैं ।

इसलिए 'मैं अपनी भाषा परिवर्तित करता हूँ ।
ताकि कोई रूढ़िवादी हिन्दु , मुझ पर मुसलमानों का पैरोकार होने का आरोप न लगा दें।

क्यों कि रूढ़िवादी हिन्दु मुसलमान को सहन नहीं करता, और कट्टर हलाला परस्त मुसलमान भी हिन्दु को सहन नहीं करता है ।

अब आग से आग कहाँ बुझती है ? 🔥🔥

यद्यपि मजहब का मतलब रास्ता , पगदण्डी है ; और
धर्म का मतलब जी. टी. रोड़ (G.T.Road)
दौनों का एक जगह मिलन भी है ।
जैसे छोटे छोटे रास्ते किसी एक मुख्य व विस्तृत मार्ग में  समायोजित हो जाते हैं।
ऐसे ही ये सारे फिरके , मजहब अथवा शरीयतैें एक ही
तौहीद की तश्दीक करते हैं।
अब आप कहें की तौहीद कहाँ से आ टपका
तो सुनो !
वाहिद सैमेटिक शब्द वैदिक बृहद् से सम्बद्ध है ।
बृहद् अथवा बृह्म हैं ।
अब आप कहें कि बृह्म तो संस्कृत का है तो यूरोपीय भाषाओं में ब्रेग्मॉस  βρεγμός (bregmós)
βρεχμός (brekhmós)
βρέχμα (brékhma) ये ब्रेन ही ब्रह्मा है ।
जिसकी शक्ति अनन्त है ।
और धर्म इसी इसी सत्ता के व्याख्यान का उपक्रम है ।

अर्थात्‌ इस वाहिद अथवा कहें बृहद् में समाविष्ट होकर मानवता एकाकार हो जाती है ।
यह बृहद्  शब्द बृह्म का वाचक है ।
जो  अनन्त और सर्व-व्यापी सत्ता है ।
यह एक है और आदि और अन्त की सीमाओं से परे है

    धर्म शब्द का प्रवेश हुआ मूल भारोपीय संस्कृतियों से
मेसोपोटेमिया की पुरालिपियों में (तरेम)
तथा दरिम  के रूप में ।

और जिसका भी श्रोत कैल्टिक संस्कृति में सर्वमान्य द्रविड़ो के द्रुमा से है ।
जो संस्कृत भाषा में द्रुद्रुम: के रूप में वृक्ष का वाचक है

वन्य संस्कृतियों के परिपोषक ये -द्रविड ही थे ।
जिन्होंने दुनियाँ को सर्वप्रथम धर्म  की
जीवन में उपादेयताऐं प्रतिपादित की

दुनियाँ को सर्वप्रथम जीवन और जगत् का ज्ञान देने वाले ये लोग थे ।

वृक्ष स्थिर रहते हुए किस प्रकार सर्दी ,गर्मी और बरसात को सहन करता है ।
    उसकी यह सहनशीलता उसकी तितिक्षा एक आदर्श है । धर्म का चोला रहने वालों के लिए ।

   वृक्ष के इसी स्वभाव जन्य गुण से धर्म का विकास हुआ जिसको मूल में संयम का भाव सर्वोपरि था ।
वैदिक भाषाओं में धृ, दृ तृ परस्पर विकसित धातु रूप हैं
धाञ् धारणपोषणयो: धृड्./धृञ् संयमे च १।६४१ उ०धरति धरते / धारयति  धारयते ।

धरति लोकान् ध्रियते पुण्यात्मभिरिति वा ।
(धृ + मन् )“अर्त्तिस्तुहुस्रिति ।” उणां १। १३९ ।

तत्पर्य्यायः ।१ पुण्यम् २ श्रेयः ३ सुकृतम् ४ वृषः
५ संयम इत्यमरः कोश। १ । ४ । २४ ॥
६-न्यायः । ७-स्वभावः । ८-आचारः । ९- उपमा । १०क्रतुः । (यथा  महाभारते । १४ । ८८ । २१ ।
“कृत्वा प्रवर्ग्यं धर्म्माख्यं यथावत् द्विजसत्तमाः ।
चक्रुस्ते विधिवद्राजंस्तथैवाभिषवं द्बिजाः)
११-अहिंसा । उपनिषत् । इति मेदिनी कोश।
(यथा   योगसार वेदान्त ग्रन्थ में धर्म का अर्थ👇

“प्राणायामस्तथा ध्यानं प्रत्याहारोऽथ धारणा । स्मरणञ्चैव योगेऽस्मिन् पञ्च धर्म्माः प्रकीर्त्तिताः ।।

  
और ओ३म्  शब्द भी इन्हीं द्रविड़ो की अवधारणा थी ।
    जिसे भारतीय संस्कृति में संस्कृति के आधार स्तम्भ रूप में ग्रहण किया गया ।
   द्रविड़ो की विरासत को  रोमन तथा ग्रीस संस्कृतियों ने भी समानान्तरण ग्रहण किया ।
रोमन संस्कृति में  पुरानी लैटिन में धर्मण /धर्म
Latin (terminus) के रूप में है  जिसका बहुवचन रूप   termini) है । यह धर्म का ही प्रतिरूप है ।

   जो मूल ,आधार अथवा मर्यादा का भाव -बोधक है ।
यद्यपि संस्कृत भाषा में धृड्.(धृ ) धातु अवस्थाने - अर्थात्‌ स्थिर करने में - तथा तॄ :- तारयति( तरति)

आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में  पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया ।
क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं ।
तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है ।
और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं ।
सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है
जिसका अर्थ है ।
दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि
शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा
एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है ।
हिम ये यम और यम से यह्व अथवा यहोवा का सैमेटिक विकास हुआ ।

Hittite tarma- शीलक  tarmaizzi "he limits;
'वह मर्यादित होता है "

ग्रीक भाषा में  terma  "boundary, end-point, limit," termon "border;"

Gothic þairh, धैर्ह

Old English þurh "through;" धरॉ

Old English þyrel "hole;"

Old Norse þrömr ध्रॉम "edge-धार chip -टुकड़ा splinter-किरच.

"The Hittite noun and the usage in Latin suggest that the PIE word denoted a concrete object which came to refer to a boundary-stone."( आधार -शिला )

In ancient Rome, Terminus was the name of the deity who presided over boundaries and landmarks, focus of the important Roman festival of Terminalia ...

रोमन धर्म में, टर्मिनस वह देवता था।
जिसने सीमा की रक्षा की है ।
प्रत्येक सीमा पत्थर को पवित्र करने के लिए किया गया था।

रोमन संस्कृति में धर्म या टर्म 'वह शिला है --जो सदैव एक स्थान पर स्थिर रहती है ।
धर्म के सदीयों से न्याय का प्रतिनिधि माना जाता रहा ।

सम्भवत इसकी प्रेरणा रोमनों ने ईसाईयों से ली ।
हजरत मूसा के दश-आदेशों की शिला से ..

रोमन संस्कृति में  23 फरवरी को, टर्मिनलिन नामक एक त्यौहार को टर्मिनस के सम्मान में मनाया गया था।
जिसमें उन प्रथाओं को शामिल किया जाता था।
जिसे इस संस्कार के अनुष्ठान का एक प्रतिबिंब या "वार्षिक नवीनीकरण" माना जा सकता है।
यहाँं से धर्म कर्मकाण्ड परक भूमिका का निर्वहन करता है ।

इन संस्कारों का अभ्यास निजी ज़मींदारों द्वारा किया जाता था, लेकिन संबंधित सार्वजनिक समारोह भी होते थे।
ओविद रोम से लॉरेंटिना के साथ छठे मील के पत्थर पर टर्मिनलिया के दिन एक भेड़ के बलिदान को संदर्भित करता है।

संभावना है कि यह लॉरेंटम में प्रारंभिक रोमनों और उनके पड़ोसियों के बीच सीमा को चिह्नित करने के लिए  यह शब्द प्रयुक्त करने को  सोचा गया था।

इसके अलावा, टर्मिनस का एक पत्थर या वेदी रोम के कैपिटोलिन हिल पर बृहस्पति ऑप्टिमस मैक्सिमस के मंदिर में स्थित था।

इस धारणा के कारण कि इस पत्थर को आकाश के संपर्क में आना था, इसके ठीक ऊपर की छत में एक छोटा सा छेद था।
  इस अवसर पर जुपिटर के साथ टर्मिनस के संबंध में उस देवता के एक पहलू के रूप में टर्मिनस के बारे में विस्तार किया गया; 
हैलिकार्नासस के डायोनिसियस का तात्पर्य "बृहस्पति टर्मिनलिस" से है, और एक शिलालेख में एक देवता का नाम "ज्यूपिटर टेर" है ।
यद्यपि रोमन मिथकों में ये परिकल्पनाऐं धर्म को लेकर अनेक प्रकार से की गयीं ।

कुछ सबूत हैं कि टर्मिनस के संघों की संपत्ति सीमाओं से लेकर आम तौर पर अधिक सीमा तक हो सकती है। रिपब्लिकन कैलेंडर के तहत, जब एक महीने में इंटरकॉलरी महीने को जोड़ा गया था, तो इसे 23 फरवरी या 24 फरवरी के बाद रखा गया था और कुछ प्राचीन लेखकों का मानना ​​था कि 23 फरवरी को टर्मिनल एक बार वर्ष का अंत हो गया था।

303 ईस्वी  में 23 फरवरी को ईसाइयों के उत्पीड़न को शुरू करने के लिए डायोक्लेटियन के निर्णय को "ईसाई धर्म की प्रगति की सीमा लगाने के लिए" टर्मिनस को सूचीबद्ध करने के प्रयास के रूप में देखा गया है।

प्राचीन लेखकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि टर्मिनस की पूजा सबीन मूल की थी, जो कि रोम के संस्थापक राजा रोमुलस के सबाइन सहयोगी
(रोमन शासन के 753-17 परम्परागत शासनकाल के टाइटस टटियस के साथ रोम में अपना परिचय बताते हुए।
या रोमुलस के उत्तराधिकारी नुमा पोम्पिलियस के लिए थी।
जिन लेखकों ने नुमा को श्रेय दिया, उन्होंने अपनी प्रेरणा को संपत्ति पर हिंसक विवादों की रोकथाम के रूप में समझाया।
प्लूटार्क आगे कहते हैं कि शांति के गारंटर के रूप में टर्मिनस के चरित्र को ध्यान में रखते हुए, उनकी प्रारंभिक पूजा में रक्त बलिदान नहीं हुआ था।

19 वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं सदी के अधिकांश समय के दौरान प्रमुख विद्वानों के अनुसार, रोमन धर्म मूल रूप से एनिमिस्टिक था, जो विशिष्ट वस्तुओं या गतिविधियों से जुड़ी आत्माओं की ओर निर्देशित था, जिन्हें बाद में स्वतंत्र व्यक्तिगत अस्तित्व वाले देवताओं के रूप में माना जाता था।

टर्मिनस, पौराणिक कथाओं की कमी और एक भौतिक वस्तु के साथ उनके घनिष्ठ संबंध के साथ, एक ऐसे देवता का स्पष्ट उदाहरण प्रतीत होता है, जो इस तरह के मंच से बहुत कम विकसित हुए थे।

टर्मिनस का यह दृश्य कुछ हालिया अनुयायियों को बनाए रखता है।
लेकिन अन्य विद्वानों ने इण्डो यूरोपीयन समानता से यह तर्क दिया है कि रोमन धर्म के व्यक्तिगत देवता शहर की नींव से पहले रहे होंगे।
जॉर्जेस डुमेज़िल ने वैदिक मित्र, अर्यमन् और भग के रूप में क्रमशः रोमन देवताओं की तुलना करते हुए बृहस्पति, जुवेंटस और टर्मिनस को एक प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ट्रायड का रोमन रूप माना। इस दृष्टि से संप्रभु देवता (बृहस्पति / मित्र) दो नाबालिग देवताओं से जुड़ा था, एक का संबंध समाज में पुरुषों (जुवेंटस / आर्यमन) से था और दूसरा उनके सामान (टर्मिनेट / भगा) के उचित विभाजन से था।

 
प्राचीन रोम में, टर्मिनस (टर्मिनल) और स्थलों की अध्यक्षता करने वाले देवता का नाम था, जो टर्मिनल के महत्वपूर्ण रोमन त्योहार  का ध्यान केंद्रित करता है।

धर्म वस्तुत: जीवन जीने की उद्देश्य पूर्ण केवल 'वह पद्धति है ।
जो  मानवता का चिर-शाश्वत आश्रय अथवा -आवास !

इस धर्म की आधार-शिलाऐं स्थित  होती हैं ।
आध्यात्मिक के धरातलों पर !

जिसमें नैतिकता की ईंटैं संयम की सीमेण्ट
और सदाचरण की बालू भी है ।

इन सबसे मिलकर बनती है ।
कर्तव्यों की एक सुदृढ़ (भित्ति)
सत्य ही इस धर्म के आवास की छत है ।

समग्र मानवता का चिर-शाश्वत बसेरा है धर्म ।

दस धर्मादेश या दस फ़रमान जिनको अंग्रेज़ी अनुवादकों ने  Ten Commandments,  भी कहा इस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं ।

वस्तुत यह यहूदियों के लिए जीवन- की पवित्र पद्धति के निमित्त ये दश व्रत या आदेश थे ।

जिस पर मजहब की नींब रखी गयी ।
मजहब जहोवा से सम्बद्ध है ।
परन्तु विद्वानों ने मदहव या धाव रास्ते से सम्बद्ध कर दिया ।
इन दश लक्षणों के बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे।

इन धर्मों के अनुयायिओं की मान्यता है कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे।
जलती हुई झाड़ी में यहोवा  ने
पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है।

कुछ परिवर्तित रूपों में ये नैतिक मूल्यों के आधार-स्तम्भ भी हैं 👇

हजरत मूसा के दस धर्मादेश----

ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान  के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे👇
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1. Thou shalt have no other Gods before me
2. Thou shalt not make unto thee any graven image
3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain
4. Remember the Sabbath day, to keep it holy
5. Honor thy father and thy mother
6. Thou shalt not kill
7. Thou shalt not commit adultery
8. Thou shalt not steal
9. Thou shalt not bear false witness
10. Thou shalt not covet
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१. तुम मेरे अलावा किसी अन्य देवता को नहीं मानोगे
२. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे
३. तुम अपने ईश्वर का नाम अकारण नहीं लोगे
४. सैबथ ( शनिवार) का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना
५. अपने माता और पिता का आदर करो
६. तुम हत्या नहीं करोगे
७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे
८. तुम चोरी नहीं करोगे
९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे
१०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे

टिपण्णी १ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है।
धर्म की कुछ ऐसी ही मान्यताऐं भारतीय ग्रन्थों में हैं ।
यम को विश्व की कई प्राचीन संस्कृतियों में
धर्म का प्रतिरूप माना गया है ।
यम कैनानायटी संस्कृतियों में एल ( El )या इलु का पुत्र है ।
जो सैमेटिक संस्कृतियों में अल-इलाह या इलॉही के रूप में विद्यमान है ।

यहूदियों की प्राचीनत्त लेखों में यम का भी वर्णन है परन्तु बाद में यम से यहोवा का विकास हुआ --जो धर्म का मूल है ।

असुरों या असीरियन जन-जाति  की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है ।
परन्तु इसका सर्व मान्य रूप एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है ।

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक
अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।
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"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९
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अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है ,
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है ।
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" विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
               ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्
              स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद--१०/२८/१
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ऋषि पत्नी कहती है !  कि  सब देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए  जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )
प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है ।

देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।
सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है ।
जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है
ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध है।
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हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम को मानने वाली
धार्मिक परम्पराओं में मान्यता है ,कि
कुरान से पहले भी अल्लाह की तीन और किताबें थीं , जिनके नाम तौरेत , जबूर और इञ्जील हैं ।

, इस्लामी मान्यता के अनुसार अल्लाह ने जैसे मुहम्मद साहब पर कुरान नाज़िल की थी ,उसी तरह हजरत मूसा को तौरेत , दाऊद को जबूर और ईसा को इञ्जील नाज़िल की थी
. यहूदी सिर्फ तौरेत और जबूर को और ईसाई इन तीनों में आस्था रखते हैं ,क्योंकि स्वयं कुरान में कहा है ,
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1-कुरान और तौरेत का अल्लाह एक है:---
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"कहो हम ईमान लाये उस चीज पर जो ,जो हम पर भी उतारी गयी है , और तुम पर भी उतारी गयी है , और हमारा इलाह और तुम्हारा इलाह एक ही है . हम उसी के मुस्लिम हैं " (सूरा -अल अनकबूत 29:46)
""We believe in that which has been revealed to us and revealed to you. And our God and your God is one; and we are Muslims [in submission] to Him."(Sura -al ankabut 29;46 )"وَإِلَـٰهُنَا وَإِلَـٰهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ "
इलाहुना व् इलाहकुम वाहिद , व् नहनु लहु मुस्लिमून "
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यही नहीं कुरान के अलावा अल्लाह की किताबों में तौरेत इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुरान में तौरेत शब्द 18 बार और उसके रसूल मूसा का नाम 136 बार आया है !
, यही नहीं मुहम्मद साहब भी तौरेत और उसके लाने वाले मूसा पर ईमान रखते थे , जैसा की इस हदीस में कहा है , "अब्दुल्लाह इब्न उमर ने कहा कि एक बार यहूदियों ने रसूल को अपने मदरसे में बुलाया और ,अबुल कासिम नामक व्यक्ति का फैसला करने को कहा , जिसने एक औरत के साथ व्यभिचार किया था . लोगों ने रसूल को बैठने के लिए एक गद्दी दी , लेकिन रसूल ने उस पर तौरेत रख दी ।
और कहा मैं तुझ पर और उस पर ईमान रखता हूँ और जिस पर तू नाजिल की गयी है , फिर रसूल ने कहा तुम लोग वाही करो जो तौरेत में लिखाहै . यानी व्यभिचारि को पत्थर मार कर मौत की सजा , (महम्मद साहब ने अरबी में कहा "आमन्तु बिक व् मन अंजलक - ‏ آمَنْتُ بِكِ وَبِمَنْ أَنْزَلَكِ ‏"‏ ‏.‏ "
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I believed in thee and in Him Who revealed thee. सुन्नन अबी दाऊद -किताब 39 हदीस 4434 इन कुरान और हदीस के हवालों से सिद्ध होता है कि यहूदियों और मुसलमानों का अल्लाह एक ही है और तौरेत भी कुरान की तरह प्रामाणिक है . चूँकि लेख अल्लाह और उसकी पत्नी के बारे में है इसलिए हमें यहूदी धर्म से काफी पहले के धर्म और उनकी संस्कृति के बारे में जानना भी जरूरी है .
लगे , और यहोवा यहूदियों के ईश्वर की तरह यरूशलेम में पूजा जाने लगा ।
यहोवा यह्व अथवा यम का रूपान्तरण है ।

भारतीय धरा पर
महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित  यम के पाँच रूप हैं 👇

1-अहिंसा
2-सत्य
3-अस्तेय
4-ब्रह्मचर्य
5-अपरिग्रह
तो कुछ उपनिषदों में जैसे
शाण्डिल्य उपनिषद में  स्वात्माराम द्वारा वर्णित दश
यम हैं
1-अहिंसा
2-सत्य
3-अस्तेय
4-ब्रह्मचर्य
5-क्षमा
6-धृति
7-दया
8-आर्जव
9-मितहार
10-शौच

मनु स्मृति कार सुमित भार्गव ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
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धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।
(मनुस्‍मृति ६.९२)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )

याज्ञवल्क्य स्मृति में  धर्म के नौ (9)
लक्षण गिनाए हैं:

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।।
(याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)

(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय),
शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।

संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।

अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।

नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )

महाभारत में महात्मा विदुर ने धर्म के आठ अंग  बताए हैं -

महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग -

इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि),

अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।

उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।

ब्राह्मण पद्म-पुराण में

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ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।

अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।
एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत।।

(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)

धर्मसर्वस्वम् नामक ग्रन्थ में

जिस नैतिक नियम को आजकल 'गोल्डेन रूल' या 'एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी' कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे 'धर्मसर्वस्वम्"
(=धर्म का सब कुछ) कहा गया है:

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।

(पद्म-पुराण, श्रृष्टि -खण्ड 19/357-358)
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)

परन्तु क्या धर्म आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अपने इन सब प्रतिमानों पर मूल्यांकित है ?
क्या इन मानते के अनुकूल है ?
सायद नहीं
परन्तु जहाँ सदाचरण न हो  केवल भेद भाव और दुराचरण  हो तब !

धर्म के ठेकेदार
धर्म को  केवल व्यभिचार संगत बनाकर
भावुक और अल्पज्ञानीयों के सर्वांग शोषण का माध्यम बनाते हैं  ।
आज धर्म के नाम पर दुश्मनी , हत्या,  वैमनस्य ,भदभाव ऊँच-नीच अपने चरम पर है ।

सत्य तो यह है कि सदीयों से केवल कुछ विशेष वर्गों के लोगों ने समाज में अपने आपको अपने निज स्वार्थों से प्रेरित होकर धर्म को अपने स्वार्थों की ढा़ल बनाया ।

कुछ निश्चल जनजातियों  के प्रति तथा कथित कुछ ब्राह्मणों के द्वारा द्वेष भाव का कपट पूर्ण नीति निर्वहन किया गया जाता रहा ।
      पूजा - स्थलों को तब अपने धनोपार्जन का आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिष्ठान बनाया जाने लगा ।
   कुछ भोली -भाली जन-जातियों को शूद्र वर्ण में प्रतिष्ठित कर उनके लिए शिक्षा और संस्कारों के द्वार भी पूर्ण रूप से बन्द कर दिए गये .

. जैसा कि परिष्कार - दर्पण में वेणिमाधव शुक्ल लिखते हैं ।👇
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अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया
"स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेsपि
"निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते ।

" अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  यह कह कर  उनके लिए वैदिक विधान का परिधान पहना कर इसे ईश्वरीय विधान भी सिद्ध किया गया ।

जबकि ईश्वरीय अनुभूति से ये लोग कोशों दूर थे ।
ये कर्मकाण्ड परक भूमिका का निर्वहन करते थे  स्वर्ग की प्राप्ति के लिए ताकि सुन्दर सुन्दर अप्सराओं का काम उपभोग कर सकें
यही रूढ़िवादी हिन्दुस्तान के पतन की इबारत
अपने काल्पनिक असामाजिक व जाति-व्यवस्था के पोषक ग्रन्थों में लिखते हैं ।

... क्यों कि वह तथाकथित समाज के स्वमभू अधिपति जानते थे ;

कि शिक्षा अथवा ज्ञान के द्वारा संस्कारों से युक्त होकर ये  लोग अपना उत्थान कर सकते हैं  !

अतः इनके शिक्षा के द्वार ही बन्द कर दो ।
क्यों कि  शिक्षा से वञ्चित व्यक्ति सदीयों तक गुलाम रहता है ।
और जब लोग धर्म से लाभान्वित होगये तो हमारी गुलामी कौन करेगा ....

इसीलिए हम्हें शिक्षित और जागरूक होकर
देश की उन्नति और अपनी सद्गति के विषय में विचार करना चाहिए ..

..शिक्षा हमारी प्रवृत्तिगत स्वाभाविकतओं का संयम पूर्वक दमन करती है;  अतः दमन संयम है और संयम यम अथवा धर्म है ।
हम्हें दमन देश के गद्दारों का तो करना चाहिए ।
परन्तु पहले अपने मन की  दुृष्प्रवृत्तियों का
इस लिए आज कोई धर्म नहीं है ।

यदि धर्म ही होता तो आशाराम , राम रहीम  अथवा नित्यानन्द या वीरेन्द्र दीक्षित जैसे धर्माचार्य भी  संयम हीन होकर उन्मुक्त होकर कुमारी कन्यायों का शारीरिक रूप से कौमार्य-भंग कर तथा भावनात्मक रूप से शोषण न करते 

ऐसे धर्म से हम नकारते हैं
अत: यह भारत
देश सबसे पहले है ! 
धर्म के नाम पर ये पाखण्डीयों की उदण्ड लीला  नहीं चलेगी ।
मूर्खों धर्म के नाम पर अब दुकाने नहीं चलेगी ।
   ये हिन्दु और मुसलमानों की राजनीति करके अपना उल्लू पालते हो ताकि लक्ष्मी तुम्हारी दासी बन जाए
   
देश बनता है केवल जन्म के रिश्ते से जिसने इस देश में जन्म लिया यह देश उसका है ।.  
     चाहें 'वह हिन्दु है या मुसलमान या सिख या बौद्ध या जैन या किन्नर आदि
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                                यादव योगेश कुमार "रोही"

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