रविवार, 10 फ़रवरी 2019

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या | तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ||31||

अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या | तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः ||31|| अर्थ - (अष्टचक्रा, नव द्वारा अयोध्या देवानां पूः) आठ चक्र और नौ द्वारों वाली अयोध्या देवों की पुरी है, (तस्यां हिरण्ययः कोशः) उसमें प्रकाष वाला कोष है , (स्वर्गः ज्योतिषा आवृतः) जो आनन्द और प्रकाश से युक्त है | व्याख्या मनुष्य का शरीर ही देवों की अयोध्या पुरी है | इसमें आठ चक्र हैं | आठ् चक्र Plexes - नाड़ी गुच्छक (Ganglia)** शरीरस्थ मेरुदण्ड के दाहिने बाँये तथा सिर, गले छाती आदि अनेक स्थानों पर होते हैं | ये गुच्छक परस्पर तन्तुओं (Filaments) द्वारा नथे रहते हैं और मस्तिष्क तथा मेरु विभाग से ज्ञान और शक्ति तन्तुओं (motor and censory nerves) द्वारा सम्बन्धित रहते हैं | इन्हीं गुच्छकों से अगणित तन्तु निकल कर शरीर के अवयवों और रुधिर की नालियों इत्यादि में जाल की तरह फैले रहते हैं | क‍ईं स्थानों पर ये तन्तु एकत्रित हो जाते हैं | उन्हीं को नाड़ी ग्रन्थि या चक्र (Plexus) कहते हैं | ये चक्र दस कहे जाते हैं, परन्तु उनमें से मुख्य आठ हैं :- (1) मूलाधार चक्र - रीढ़ की हड्डी के नीचे गुदा के पास है | इसमें उत्तेजना प्राप्त होने से वीर्य स्थिर और मनुष्य उर्ध्वरेता होता है | (2) स्वाधिष्ठान चक्र - मूलाधार से चार अंगुल ऊपर है | इसके उत्तेजित होने से प्रेम और अहिंसा के भाव जागृत होते हैं | शरीर के रोग और थकावट दूर होकर स्वस्थता लाभ होती है | (3)मणिपूरक चक्र - ठीक नाभि स्थान में है | इसमें उत्तेजना आने से शरीर संयत रहता है | (4) सूर्य चक्र - नाभि से कुछ ऊपर ह्रदय की धुकधुकी के ठीक पीछे मेरुदण्ड् के दोनो और इसका स्थान है | इसका अधिकार भीतरी सभी अवयवों पर है | प्राण का खजाना यहीं रहता है | इस पर चोट लगने से मनुष्य तत्काल मर जाता है | (पहलवान इसी पर हल्की चोट लगाकर प्रतिद्वन्दी को बलहीन कर देता है) | प्राण के लिए मस्तिष्क को भी इसी का आश्रय लेना पड़ता है | यह पेट का मस्तिष्क ही समझा जाता है | (5) अनाहत चक्र - ह्रदय स्थान में है | ह्रदय के समस्त व्यापार इससे नियमित होते हैं | ह्रदय में बल, प्रेम और भक्ति इसमें हुई उत्तेजना के फल होते हैं | (6) विशुद्धि चक्र - कण्ठ में है | कण्ठ के मूल में जहाँ दोनों और की हड्डियां आती हैं उनके बीच में अँगुष्ठ मात्रा वाला नरम स्थान इस चक्र का स्थान है | इस पर संयम करने से बाह्य जगत् की विस्मृति और आन्तरिक कार्य का प्रारम्भ होता है | तारुण्य और उत्साह प्राप्‍त होता है | (7) आज्ञा चक्र - दोनों भवों के मध्य में है | इसमें उत्तेजना आने से शरीर पर प्रभुत्व, नाड़ी और नसों में स्वाधीनता आती है और यह अनुभव होने लगता है कि आत्मा की आज्ञा ही से समस्त शरीर व्यापार चल रहा है | (8) सहस्त्रार चक्र - तालु के स्थान के ऊपर मस्तिष्क में है और समस्त शक्तियों का केन्द्र है | नव (9) द्वार - दो आँख, दो कान, दो नाक, एक मुख, एक मल द्वार और एक मलमूत्र कुल नव द्वार |

2 टिप्‍पणियां:

  1. अयोध्या का अर्थ है संसय रहित द्वंद रहित चित्त की अवस्था।

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    1. गलत , अयोध्या का अर्थ है ये भौतिक शरीर , जिसके ८ चक्र और ९ द्वार है और जिस पर दशरथ ( १० इन्द्रिया ) का शासन है और जिसकी ३ पत्नी ( जागृत , स्वप्न , सुष्पती ) और ४ पुत्र ( ४ अंतकरण) है !

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