मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

यादवों का इतिहास "प्रथम भाग"- (नवीन संस्करण)


    यादवों का इतिहास  "प्रथम भाग"- (नवीन संस्करण)

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
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प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के अल्पज्ञानी लोग आभीर और यादवों को पृथक दिखाने के लिए महाभारत के मूसल पर्व के अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं 👇
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में दक्षिणात्य ब्राह्मणों द्वारा रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।👇

इसे देखें-
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ;
उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया । और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका ! ( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २० (पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--- महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है। एक स्थान पर बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुया बताया गया है जो शक (सीथियन) किरात हूण तथा यूनानीयों का सहवर्ती बताया है ।
किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा:
आभीर शका यवना खशादय :।
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:।
(श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)
अर्थात् किरात, हूण ,पुलिन्द ,पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जातियाँ यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ; उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है। (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)

परन्तु इसके विरोधाभासी स्वरूप में होने से स्वत: प्रक्षिप्त ही हैं ।
महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये. क्यों कि महाभारत तो गणेश देवता ने आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व लिखा था, हिन्दु धर्मावलम्बीयों के अनुसार--
और यूनानीयों का भारत -आगमन ई०पू० 323 के समकक्ष है।
अत: दौनों बाते असंगत हैं महाभारत का मूसल पर्व और वाल्मीकि-रामायण  का अयोध्या ,युद्ध , व उत्तर काण्ड धूर्त और मूर्खों की ही रचनाऐं हैं।
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उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम । द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।

उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: ।
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।

तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो$यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन:।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।। (वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग)

अर्थात् समुद्र राम से बोला हे प्रभो !
जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२।
वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं। जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ;
सबके सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है । इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ ।
हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३।
निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है ।ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
यदि आप राम को त्रेता युग में उत्पन्न मानते हो तो राम का समय आज से नो लाख वर्ष है ।👇
129600 वर्ष की आयु त्रेता युग की मनु-स्मृति के काल खण्ड प्रकरण में निर्धारित की गयी है।

यह कलि युग की तीन गुणित है ।
अब अहीरों के विषय में मत भिन्न भिन्न होने से सभी प्रक्षिप्त या असत्य ही हैं ।
क्यों कि

"सत्य का कोई विकल्प नहीं होता और असत्य बहुरूपिया होता है ।

प्रक्षेपों से युक्त ग्रन्थों को लिखने वाले वे रूढ़िवादी ब्राह्मण थे
जिन में दार्शनिक बोध भी नहीं था
क्योंकि महाभारत के मूसल पर्व में गायों से गदहा और खच्चरियों से हाथी तथा कुत्तों से विलौटा भी उत्पन्न होते हैं। जीव-विज्ञान के किस सिद्धान्त के अनुसार यह सृष्टि होती है ? बौद्धिक क्षमता से परे ही है । देखें---निम्न श्लोक👇
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व्यजानयन्त खरा गोषु करभा८श्वतरीषु च ।
शुनीष्वापि बिडालश्च मूषिका नकुलीषु च।९।

अर्थात् गायों के पेट से गदहे तथा खच्चरियों से हाथी । कुतिया से बिलोटा ,और नेवलियों के गर्भ से चूहा उत्पन्न होने लगे ।
महाभारत मूसल पर्व द्वित्तीय अध्याय महाभारत मूसल पर्व में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का भी उल्लेख भागवतपुराण के ही समान है ।
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अब महाभारत के "खिल-भाग" हरिवंश पुराण में नन्द को तो गोप कहा ही है यह तो सर्व विदित है ही इस पूर्व वक्ता पुराणों में  वसुदेव को भी  गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) घर में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है
👇
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत्
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।२७।

गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)
हरिवंश पुराण की अन्य प्रकाशनों से प्रकाशित कृतियों में भी यही तथ्य कुछ श्लोक व अध्याय संख्यायों के अन्तर से विद्यमान हैं ।
ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) से सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा सम्पादित प्रति में 👇

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब  कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है 👇
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) के घर में क्यों हुए ? ।९।

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में यह बात वराहोत्पत्ति वर्णन "
नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)पर है ।
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है।
सम्भवत: पाठक अभी इन तथ्यों से सन्तुष्ट न हों कि यादव ,आभीर और गोप एक ही हैं !
तो इसका एक प्रबलत्तम पुष्टि करण पद्म-पुराण के सृष्टि खण्ड के पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है देखें--- पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।👇
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"स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : | आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।

न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८।

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७।

उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८।

गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन,यावत् सा गोप कन्यका।।९।।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो,गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है।
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।

देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु । गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें- देवीभागवत पुराण में :-- १०/१/२२ में स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । 👇
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।

आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४०।

एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४।

आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारम्भे प्रथमोदिवसोनाम षोडशोऽध्यायःसंपूर्णः)

ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्त है ।

अब दु:खद पहलू तो ऐैतिहासिक विकृतियों का यह कहा कि जिस आभीर अथवा गोप जन-जाति को पूर्व वर्ती संस्कृत ग्रन्थों में ईश्वरीय शक्ति तथा देवों से उच्चतर रूप में वर्णित क्या गया हो !
जिन गोपोंं में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म हुआ हो ।
उन्हीं गोपोंं को परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण से भी निम्न वर्ण में समायोजित करने का चेष्टा की गयी हो ।
नि: सन्देह यह इतिवृत्त नहीं अपितु द्वेष-प्रेरित विकृत मानसिकता की ही अभिव्यक्ति है ।

और इसके सूत्र तो वेदों में ही प्राप्त होते हैं ।
जब कृष्ण तथा उनके पूर्वज यदु को दास (दस्यु) असुर अथवा अदेव के सम्बोधनों से वर्णित किया गया हो
विस्तार भय से हम वैदिक सन्दर्भों को यहाँं न उद्धृत कर आगे उद्धृत करेंगे - हम यहाँं यह वर्णित करेंगे की

स्मृति-ग्रन्थों में देवों के अंश गोपों अथवा आभीरों को शूद्र कह कर वर्णित क्यों किया गया है ?

देखें-व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है :-
" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल गोप वा इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमें संशय नहीं ....
आगे  पाराशर स्मृति में वर्णित है कि:-
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" वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन:
एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि:
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट:
वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।

एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।

वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली ,
कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरी) ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति । धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति) नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०।

(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) स्मृतियों की रचना काशी में हुई ,वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे।
ब्राह्मणों की इन सब परियोजनाओं में उद्दीपन अनुभाव की भूमिका बौद्ध- विचारों का जन सामान्यत में अनुमोदन और ब्राह्मण- वर्चस्व भी समाज में शिथिल करण था  ब्राह्मणों की अहंवाद विखण्डन की ओर था ।
ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की
अठारहवीं सदी में परिवर्द्धित किए गये भविष्य पुराणों में आभीर लोधी और धीवरों आदि के विषय में लिखा 👇
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वेदाध्ययनमप्येत ब्राह्मण्यं प्रतिपद्यते ।। विप्रवद्वैश्यराजन्यौ राक्षसा रावण दया॥ १

शवृद चांडाल दासाशाच लुब्धकाभीर धीवराः ।। येन्येऽपि वृषलाः केचित्तेपि वेदान धीयते॥ २
शूद्रा देशान्तरं गत्त्वा ब्राह्मण्यं श्रिता ।।
व्यापाराकार भाषद्यैविप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः॥३

(भविष्य पुराण)
ब्राह्मण की भाँति क्षत्रिय और वैश्य भी वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है ।। रावण आदि राक्षस, श्वाद, चाण्डाल, दास, लुब्धक (लोधी) आभीर, धीवर आदि के समान वृषल (वर्णसंकर) जाति वाले भी वेदों का अध्ययन कर लेते हैं ।
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देखें-निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।

अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है । जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है। परन्तु इससे इतिहास का विध्वंसन हुआ

नि: सन्देह रूप से इन स्मृतियों की रचना बहुत बाद में  हुई ।
ब्राह्मणों के अहं-तुष्टिकरण व वर्चस्व को पुन:स्थापित करने हेतु की गयी
जिसमें भारत की अन्य सब जन-जातियों को ब्राह्मणों से निम्नत्तर व हेय वर्णित किया गया ।

इसमें अहीरों को सबसे अधिक निशाने पर लिया गया क्यों कि ये अभीर निर्भीकता पूर्वक अद्भुत कर्म करने वाली जन-जाति अत्यधिक पूज्य व देवतुल्य रही थी। 
हिब्रू बाइबिल में भी यहूदियों की एक युद्ध- प्रिय शाखा के रूप में इनका वर्णन हुआ है ।
और अबीर को ईश्वरीय शक्ति का पर्याय कहा ।
हिब्रू बाइबिल से तथ्यों को प्रसंग के अनुरूप अागे उद्धृत करेंगे ।
जैसा कि हमने उपर्युक्त सन्दर्भों में वर्णित किया
कि अहीरों को देवों का अंश या ईश्वरीय शक्ति का पर्याय कहा -
परन्तु भारतीय ब्राह्मण इस बात को कब सहन करते
उन्होनें अहीरों के इतिहास को विकृत कर दिया ।
ये सारी हास्यास्पद व विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों की हैं।

समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने में इनके आडम्बरीय रूप का ही योगदान है।
तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं ।
राम चरित मानस के युद्ध काण्ड में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में अहीरों के वध करने के लिए राम को दिया गया समुद्र सुझाव -👇

तुलसी दास ने वाल्मीकि-रामायण को उपजीव्य मान कर ही राम चरित मानस की रचना की है । रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने लिखा है कि आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे ।रामचरितमानस । ७ । १३० ।

अर्थात् अहीर, यूनानी बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयो को हे प्रभु तुम मार दो वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर इसी का मूल विद्यमान है।
और फिर इसी राम चरित मानस में यह भी अहीरों के विषय में कहा जाता है ।👇

राम चरित मानस के चौपाई में लिखा है -
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तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥

[ शब्दार्थ - उन्हीं (धर्माचरण रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गाय चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे (पसुराना)।
निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना या निवटना)
नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है।
(अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
अब यहाँं अहीरों को स्वाधीन , स्वतन्त्र और निर्मल मन भी कहा गया है । क्या तुलसी को उस समय कोई जन-जाति शुद्धता के प्रतिमान रूप में नहीं थी ।
यह भी विचारणीय है । कि एक ओर तो स्मृतियों मं अहीरों को अशुभ-दर्शी और दस्यु कहा है ।वहीं
पद्म-पुराण के उत्तर खण्ड में कृष्ण को आभीरों के घर में जन्म लेना वर्णित है ।

महाभारत यद्यपि किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है। जिन ब्राह्मणों ने महाभारत का लेखन किया निश्चित रूप से वे यादव विरोधी तो  थे ही ।
यह विरोध स्वाभाविक नहीं था । ऋग्वेद में इसके सूत्र विद्यमान हैं ।

अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक-- इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।

वह भी दास अथवा असुर रूप में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है।

परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि- कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 👇

वह भी गोपों को रूप में
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।

(ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है।  👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।

नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।

(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।

और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।... देखें--- 👇
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अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया।

यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।

असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी 👇

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि ।
(ऋग्वेद ८/४६/२

हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७
अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु:
शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।

अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे।

यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति । यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।

ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। यदु एेसे स्थान पर रहते थे।

जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति”
“नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें-👇

-ऋग्वेद में शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।👇

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६

यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है । ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है । ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है।

जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास
(गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
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"यह समग्र शोध श्रृंखला :- यादव योगेश कुमार' 'रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "

ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
जो अहीरों का वाचक है
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अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं। आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: (2।9।57।2।5 अमरकोशः)

कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥

पत्नी : आभीरी सेवक : गोपग्रामः वृत्ति : गौः गवां-स्वामिः गायों का स्वामी ।
कुछ लोग कहते हैं कि गोप अलग होते हैं यादवों  से तो ये भी भ्रमात्मक जानकारी है

उन्होंने यादवों के प्रधान विशेषण आभीर शब्द की प्रस्तुति दस्यु अथवा शूद्र रूप में की परन्तु नकारात्मक रूप में जैसे महाभारत में आभीरों को शूद्रों के सहवर्ती बताया गया है।👇
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शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिन: ।।१०।

महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व३२वाँ अध्याय में वर्णित किया गया है कि सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र और आभीर गण थे और उनके साथ मत्स्यजीवी धीवर जाति के लोग भी रहते थेे।
तथा पर्वतों पर निवास करने वाले जो दूसरे दूसरे मनुष्य थे सब नकुल ने जीत लिए। 👇

इन्द्र कृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखै:।
समुद्रनिष्कुटे जाता: पारेसिन्धु च मानवा:।११।
तो वैरामा : पारदाश्च आभीरा : कितवै: सह । विविधं बलिमादाय रत्नानि विधानि च।१२।

महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व ५१वाँ अध्याय में वर्णित है कि
- अर्थात् जो समु्द्र तटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्धु के उस पार रहते हैं।
वर्षा द्वारा इन्द्र के पैंदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न धान्यों द्वारा निर्वाह करते हैं।
वे वैराम ,पारद, आभीर ,तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भेंट सामग्री बकरी भेड़ गाय सुवर्ण ऊँट फल तैयार किया हुआ मधु लिए बाहर खड़े हुए हैं।
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चीनञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिन: ।२३ वार्ष्णेयान् हार हूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा । नीपानूपानधिगतान्विविधान् द्वारा वारितान् ।२४।

अर्थात् चीन ,शक ,ओड्र ,वनवासी बर्बर तथा वृष्णि वंशी वार्ष्णेय, हार, हूण , और कृष्ण भी हिमालय प्रदेशों के समीप और अनूप देशों से अनेक राजा को भेंट देने के लिए आये।

वस्तुत यहाँ वार्ष्णेय शब्द यदुवंशी वृष्णि की सन्तानों के लिए है।

समुद्र राम से निवेदन करता है ! हे प्रभु आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे--और उन अहीरों को नष्ट कर दें.. जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही मार देते हैं ।

परन्तु अहीर आज भी कलियुग में जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं।
उनके मारने में रामबाण भी चूक गया ।

निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) के विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है। कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ।
जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है जिनमें चेतना नहीं हैं फिर भी;
ब्राह्मणों ने राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना दिया । और हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं।

भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया ।

और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति का ! आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! "

इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट मय है ।
जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है । क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है।

कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी में निश्छलता का भाव प्रधान है।
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आइए अब  महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण स्पष्टत: गोपों को यादव कहता है और गोप ही अभीर या गौश्चर: ( गुर्जर:) हैं ।👇

" जित्वा गोपाल दायादं गत्वा यादवा कान्बहूनन्।
एष न: प्रथम: कल्पो जेष्याम् इति यादवान् ।२७।

अर्थात् हंस नाम का एक राजा कहता है --कृष्ण के सन्देश वाहक सात्यकि से :- मैं प्रतिज्ञा करता हूँ ;कि इस कृष्ण गोप को उसके सहायकों सहित बाँध कर यादवों के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को जीत लुँगा।२७।

हरिवंश पुराण " सात्यकि का हंस के समक्ष भाषण" नामक ७८वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ४०४
(संस्कृति संस्थान ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)

और यदि पुराणों की बात करें; तो महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप रूप में वर्णित किया गया है।

यह तथ्य पूर्व में वर्णित किया गया है ।
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) उसका हिन्दी में पृष्ठ भूमि मूलक अर्थ देखें--- जिसमें वसुदेव को भी गोप ही कहा यह देखें--- नीचे एक समय महात्मा वरुण के पास कुछ यज्ञ- काल के लिए दूध देने योग्य कुछ योग्य गायें थी ।
एक वार प्रजापति भगवान् कश्यप उन गायों को महात्मा वरुण से माँग कर ले गये ।
तो कश्यप की भार्याओं अदिति और सुरभि ने गायें वरुण को लोटाने में अनिच्छा प्रकट की ।१०-११।

तब ब्रह्मा जी ने विष्णु से कहा कि तब एक वार वरुण मेरे पास आकर तथा मुझे प्रणाम करके बोले भगवन् ! मेरी समस्त गायें मेरे पिता भगवान् कश्यप ने ले ली हैं।यद्यपि उनका कार्य सम्पन्न हो चुका है ।

किन्तु उन्होंने मेरी गायें नहीं लौटायीं हैं ।
और अपनी दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि का समर्थन कर रहे हैं।
हे पितामह ब्रह्मा चाहें कोई स्वामी हो , या गुरू हो अथवा कोई भी क्यों न हो ।

सभी को निर्धारित सीमा का उल्लंघन कने पर आप दण्डित अवश्य करते हो !
आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहायक नहीं है।
क्यों कि आप ही मेरे अत्यन्त हितैषी हो ।

यदि इस जगत् में अपराधी अपने अपराध के लिए नियमित रूप से दण्डित न हो!
तो इस समस्त संसार में अव्यवस्था उत्पन्न होकर संसार का विनाश हो जाएग तथा इसकी मर्यादा-भंग हो जाएगी ।१६-१७।

हे ब्रह्मन् इस सन्दर्भ में और कुछ नहीं कहना चाहता हूँ , केवल अपनी गायें वापस चाहता हूँ।
एक वार पुन: अपने मत को पुष्टिकरण हेतु हरिवंश पुराणों से यह उद्धरण -
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तथा संस्कृत में कुछ विशेष तथ्य देखें--- 👇

"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।

अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया।
तथा कहा ।२१।
कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया ।
उस पाप के प्रभाव वश होकर भूमण्डल पर आहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेना करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है ।

उसी पर पापा कंस के अधीन होकर गोकुल पर राजंय कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।

(उद्धृत सन्दर्भ ) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) यह तथ्य भी प्रमाणित ही है ;
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कि ऋग्वेद का रचना काल ई०पू० १५०० के समकक्ष है  ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र से युद्ध करने एक अदेव ( असुर) के रूप में वर्णित किया गया है।
जो यमुना नदी ( अंशुमती नदी) के तट पर गोवर्धन पर्वत की उपत्यका में गायें चराते हुए रहता  है।
अर्थात् ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या ९६ के श्लोक १३, १४,१५, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।
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अव द्रप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियान:कृष्णो दशाभि: सहस्रै:।
आवत्तमिन्द्र शच्या धमन्तमप
स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।। ऋ०8/85(96)13..👇

अर्थात् दश हजार सेना के साथ शीघ्र जाने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमति नदी के तट पर रहता था ।
इन्द्र ने उसकी सम्पूर्ण सेना का वध कर दिया

द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे
नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।। वो वृषणो युध्य ताजौ ।।14।

अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
ऋ० 8/85(96)15 
उपर्युक्त ऋचा की दो भागों में व्याखाया निम्न रूप में है
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(क)-अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे आधारयत्तन्वं तित्विषाण: । ऋ० 8/85(96)15
अर्थात् द्रुत गामी कृष्ण अंशुमति नदी के समीप दीप्तिमान होकर शरीर धारण करता है ।

(ख)-विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
ऋ० 8/85(96)15 
देवताओं को न मानने वाले उस कृष्ण का इन्द्र ने बृहस्पति के सहयोग  से वध कर दिया ।

अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार गोपों के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है ! और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है ।
आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है।
यहाँ कृष्ण के लिए अदेव विशेषण विचारणीय है। अर्थात् जो देव नहीं है अर्थात् देव संस्कृति का विद्रोही है "कृष्ण के पूर्वज यदु को वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया है " तो कृष्ण भी  इस व्यवस्था को क्यों मानने लगे , अदेव रूप में  ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर ही कहा  है ।
और फिर भारतीय पुराणों में भी इन्द्र और कृष्ण की शत्रुता सर्व विदित ही है ।

वेदान्त साहित्य के ज्ञान काण्ड छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें मिलता है।

छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् ।
वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते: ।।

कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
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क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है।
मनु-स्मृति कार सुमित भार्गव का यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है।

जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक निर्मित कृति है ।
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"शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज:
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।।

वर्मन्, दास, गुप्तः,शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षा- समन्वितम् ।। मनुःस्मृति.2.32. -

अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों, तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों।
और वैश्य के वाचक भूति अथवा दत्त हों तथा दास शूद्र का वाचक हो।

हरिवंश पुराण में भी इन्द्र ने कृष्ण को शूद्र कह कर सम्बोधित किया है  सम्भवत: यह प्रक्षिप्त श्लोक है देखें---👇

प्रमाण --
"तं वीक्ष्यं बालं महता तेजसा दीप्तमव्ययम् । गोप वेषधरं विष्णु प्रीति लेभे पुरन्दर:।४।
त साम्युजलद श्याम कृष्ण श्रीवत्स लक्षणम् । पर्याप्तनयन: शूद्र ।
(शक्र) सर्व नेत्रैर् उदक्षत् ।५।
दृष्टवा च एनं श्रिया जुष्टं मर्त्यलोके८मरोपमम्।
शूपविष्टं शिला पृष्ठे शक्र स ब्रीडितो८भवत् ।६।

अर्थात्:- जल युक्त मेघ के समान काले शूद्र कृष्ण को इन्द्र अपने हजारों नेत्रों से देखा जो हृदय पर श्रीवत्स लक्षणम् धारण किये हुए था ।४-५।
पृथ्वी के एक शिला खण्ड पर विराजमान उस तेजस्वी बालकी शोभा देकर इन्द्र बड़ा लज्जित हुआ ।६।
हरिवंश पुराण "श्रीकृष्ण का गोविन्द पद पर अभिषेक नामक ४९वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ३१४ सम्पादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)

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कृष्ण का सम्बन्ध मधु नामक असुर से स्थापित कर दिया है ।
और यादव और माधव पर्याय रूप में हैं ।
यादवों में मधु एक प्रतापी शासक माना जाता है ; यह इक्ष्वाकु वंशी राजा दिलीप द्वितीय का अथवा उसके उत्तराधिकारी दीर्घबाहु का समकालीन रहा है,
मधु के गुजरात से लेकर यमुना तट तक के स्वामी होने का वर्णन है। प्राय: मधु को `असुर`, दैत्य, दानव आदि विशेषणों से सम्बोधित किया गया है। 
साथ ही यह भी है कि मधु बड़ा धार्मिक एवं न्यायप्रिय शासक था ;मधु की स्त्री का नाम कुंभीनसी था, जिससे लवण का जन्म हुआ। 
लवण बड़ा होने पर लोगों को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने लगा । लवण को अत्याचारी राजा कहा गया है । इस पर दु:खी होकर कुछ ऋषियों ने अयोध्या जाकर श्री राम से सब बातें बताई और उनसे प्रार्थना की कि लवण के अत्याचारों से लोगों को शीघ्र छुटकारा दिलाया जाय ; अन्त में श्रीराम ने शत्रुघ्न को मधुपुर जाने की आज्ञा दी लवण को मार कर शत्रुघ्न ने उसके प्रदेश पर अपना अधिकार किया। 
पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण के अनुसार मधु के नाम पर मधुपुर या मधुपुरी नगर यमुना तट पर बसाया गया ।
यद्यपि अवान्तर काल में पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने वाल्मीकि-रामायण में बहुत सी काल्पनिक व विरोधाभासी कथाओं का समायोजन भी कर दिया ।

अत: रामायण में राम का कम मिलाबटराम का अधिक वर्णन है।
फिर वाल्मीकि-रामायण के आधार पर यादवों के प्रति ब्राह्मणों की भावना परिलक्षित होती है ।
वाल्मीकि-रामायण में वर्णन है कि इसके मथुरा के आसपास का घना वन `मधुवन` कहलाता था । मधु को लीला नामक असुर का ज्येष्ठ पुत्र लिखा है और उसे बड़ा धर्मात्मा, बुद्धिमान और परोपकारी राजा कहा गया है ।
मधु ने शिव की तपस्या कर उनसे एक अमोघ त्रिशूल प्राप्त किया ।
निश्चय ही लवण एक शक्तिशाली शासक था । किन्तु श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी के मतानुसार 'चन्द्रवंश की 61 वीं पीढ़ी में हुआ उक्त 'मधु' तथा लवण-पिता 'मधु' एक ही थे अथवा नही, यह विवादास्पद है ।
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परन्तु एक स्थान पर यदु का पुत्र मधु वर्णित है।
जिसने असुर संस्कृति का प्रसार किया। अस्तु ! ऐतिहासिक प्रणाम साक्षी हैं कि यहूदीयों का असीरियन जन-जाति से सेमेटिक होने से सजातीय सम्बन्ध है ।

अत: दौनो सोम अथवा साम वंशी हैं । अत: यादवों से असुरों के जातीय सम्बन्ध हैं । असीरियन जन-जाति को ही भारतीय पुराणों में असुर कहा है।
जिन्हें भारतीय पुराणों में असुर कहा गया है वह यहूदीयों के सहवर्ती तथा सजातीय सैमेटिक असीरियन लोग हैं।

साम अथवा सोम शब्द हिब्रू एवं संस्कृत भाषा में समान अर्थक हैं । जिसके आधार पर सोम वंश की अवधारणा की गयी जिसे भारतीय पुराणों में चन्द्र से जोड़ कर काल्पनिक पुट दिया गया है। 
क्यों चन्द्रमा पृथ्वी का 1/4 भाग तथा जीवन शून्य उपग्रह है । और फिर सूर्य का चन्द्रमा से क्या सहवर्तिता  सूर्य पृथ्वी से साढ़े तेरह लाख गुना बड़ा है ।

सूर्य वंश और चन्द्र वंश की कल्पना ही  साम और हाम के आधारों पर हुई ।
जिनका वर्णन मेसोपोटामिया की पुरा-कथाओं में वर्णित है ।
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यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोध पर आधारित असुरों का मैसॉपोटमिया की पुरातन कथाओं में एक परिचय :- थेसिस ( शोध श्रृंखला) पर आधारित हैं । ..

हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, के रूप में वर्णित किया गया है अर्थात् "असु राति इति असुर: अर्थात् जो प्राण देता है, वह असुर है "। इस रूप में चित्रित किया गया है।
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग (105) बार हुआ है। उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण-युक्त के अर्थ में किया गया है।

और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ है :-
प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न :-(असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार  अपने प्रारम्भिक रूपों में यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में भी व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द "इन्द्र"  "मित्र" तथा "वरुण" के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इन्द्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परन्तु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द'('असुर: महत् ') के नाम में विद्यमान होकर पूज्य है।

यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब  देव संस्कृति के अनुयायी स्वीडन वासी सुरों
( वैदिक आर्यों ) तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही ईश्वरीय शक्ति की उपासना में निरत रहते थे।

अन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया। 

और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।अर्थात् ईरानी आर्यों की भाषा में देव का अर्थ दुष्ट व्यभिचारी,
फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवेस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इन्द्र ने अपने वज्र से मार डाला था।

ईरानी आर्यों ने असुर शब्द पूज्य अर्थ में प्रयुक्त किया है (ऋक्. १०।१३८।३-४)।
शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं :-
(तेऽसुरा आत्तवचसो हेअलवो हेअलव इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
(शतपथ ब्राह्मण 3/2/1/23)
अर्थात् वे असुर हे अलव: हे अलव: इस प्रकार करते हुए पराजित हो गये ।
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ते८सुरा आत्तवचसो हे८लवो  हे८लव इति वदन्त पराबभूवु:

शतपथ ब्राह्मण 3/2/1/23
इन तथ्यों का विवरण यास्क ई०पू० 800 ने अपने निरुक्तकोश मे दिए हैं ।

विदित हो कि अरि वैदिक ऋचाओं में ईश्वर का वाचक है । --जो  असीरियन संस्कृतियों में एल या अलि के रूप में ईश्वर का ही वाचक है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वीं ऋचा में अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।
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"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९
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अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है ,
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )
ऋचा संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है ।
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" विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
               ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात्
              स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद--१०/२८/१
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ऋषि पत्नी कहती है ! कि  "सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये" (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,)
परन्तु "मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम ) यदि वे आ जाते तो भुने हुए  जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् ) और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )
प्रस्तुत सूक्त में अरि: देव वाचक है ।
देव संस्कृति के उपासकआर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी।

सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता है ।
जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है
ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध हैं।

विश्व एैतिहासिक सन्दर्भों में असुर मैसॉपोटमिया की संस्कृति में वर्णित असीरियन लोग थे।
जिनकी भाषा में "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में होता है ;वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है, कि देवता सुरा पान करने के कारण देव सुर कहलाए , और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे । बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये
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"सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता ।
अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।।बालकाण्ड सर्ग 45 के 38
वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं ।स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग ही भारतीय पुराणों में सुर देवों के रूप में सम्बद्ध हैं । यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup) के समान है ।यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते है।
यह उनकी संस्कृति के लिए स्वास्थ्य प्रद परम्परा है।कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है ।
फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप syrup ही कहते हैं । अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह अानुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।
परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति स्वीअर (Sviar) से हुआ है । असुर और सुर दौनों शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न हुई है पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
असुर संस्कृति असीरियन लोगों की संस्कृति थी । असीरियन अक्काडियन ,हिब्रू आदि जातियों के आवास वर्तमान ईराक और ईरान के प्राचीनत्तम रूप में थे । जिसे यूनानीयों ने मैसॉपोटामिया अर्थात् दजला और फ़रात के मध्य की आवासित सभ्यता माना -- उत्तरीय ध्रव से भू-मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों ने दीर्घ काल तक असीरियन लोगों से संघर्ष किया प्रणाम स्वरूप बहुत से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण किये वेदों में अरि शब्द देव वाची है; और असीरियन भाषा में भी अलि अथवा इलु के रूप में देव वाची ही है ।
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देखें-विश्ववो हि अन्यो अरि: आजगाम ।
मम इदह श्वशुरो न आजगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित पुनरस्तं जगायात् ।।. (10/28/1 ऋग्वेद ) अर्थात् ऋषि पत्नी कहती है कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आये ,परन्तु हमारे श्वशुर नहीं आये इस यज्ञ में यदि वे आते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते ।।10/28/1यहाँ अरि शब्द घर का वाचक है । तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद 8/51/9 -
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यस्यायं विश्वार्यो दास: शेवधिपा अरि:।
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।। अरि: आर्यों का प्रधान देव था आर्यों ने स्वयं को अरि पुत्र माना ;यहाँ अरि शब्द ईश्वर का वाचक है । असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अरि एल (el) इलु एलॉह elaoh तथा बहुवचन रूप एलोहिम Elohim हो गया । अरबों के अल्लाह शब्द का विकास अल् उपसर्ग Prefix के पश्चात् इलाह करने से हुआ है ।

निश्चित रूप से यादव मैसॉपोटमिया की पुरातन संस्कृति में यहुदह् के वंशज यहूदी हैं । तात्पर्य यही कि असुर संस्कृति यादव संस्कृति से सम्बद्ध थी ।
असुरों के इतिहास को भारतीय पुराणों में हेय रूप में वर्णित किया गया है ।
बाणासुर की पुत्री उषा का विवाह कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न से पुराणों में वर्णित है । बाणासुर तथा लवणासुर ये सभी असुर संस्कृति के उपासक थे। लवण ने अपने राज्य को विस्तृत कर लिया ।
इस काम में अपने बहनोई हृर्यश्व से मदद ली होगी । लवण ने राज्य की पूर्वी सीमा गंगा नदी तक बढ़ा ली और राम को कहलवाया कि 'मै तुम्हारे राज्य के निकट के ही राज्य का राजा हूँ ।'
लवण की चुनौती से स्पष्ट था कि लवण की शक्ति बढ़ गई थी ।
लवण के द्वारा रावण की सराहना तथा राम की निंदा इस बात की सूचक है कि रावण की नीति और कार्य उसे पसंद थे ।
इससे पता चलता है कि लवण और उसका पिता मधु संभवत: किसी अनार्य शाखा के थे।
प्राचीन साहित्य में मधु की नगरी मधुपुरी के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उस नगरी का स्थापत्य श्रेष्ठ कोटि का था ।
शत्रुघ्न भी उस मनमोहक नगर को देख कर आर्श्चयचकित हो गये ।

वैदिक साहित्य में अनार्यौं के विशाल तथा दृढ़ दुर्गों एव मकानों के वर्णन मिलते हैं।
संभवतः लवण-पिता मधु या उनके किसी पूर्वज ने यमुना के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया हो ;यह अधिकार लवण के समय से समाप्त हो गया ;मधुवन और मधुपुरी के निवासियों या लवण के अनुयायिओं को शत्रुघ्न ने समाप्त कर दिया होगा ।
संभवत: उन्होंने मधुपुरी को नष्ट नहीं किया । उन्होंने जंगल को साफ़ करवाया तथा प्राचीन मधुपुरी को एक नये ढंग से आबाद कर उसे सुशोभित किया ।
(प्राचीन पौराणिक उल्लेखों तथा रामायण के वर्णन से यही प्रकट होता है )
रामायण में देवों से वर माँगते हुए शत्रुघ्न कहते हैं- `हे देवतागण, मुझे वर दें कि यह सुन्दर मधुपुरी या मथुरा नगरी, जो ऐसी सुशोभित है मानों देवताओं ने स्वयं बनाई हो, शीघ्र बस जाय ।
` देवताओं ने `एवमस्तु` कहा और मथुरा नगरी बस गई यद्यपि ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने अधिक हैं ।
परन्तु इन व्यक्तित्वों के उपस्थिति के सूचक हैं । दास असुर अथवा शूद्र परस्पर पर्याय वाची हैं ।

अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है । परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं ।
पश्चिमीय पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त में .. और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ,और ईसाई भी ।
अहीर एशिया की सबसे बड़ी जन-जाति है ।
भारत में अहीरों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या गोप , गौश्चर: ये सब के सब यादवों के ही विशेषण हैं।
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