शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

मत्स्य पुराण के 113 वें अध्याय में आभीर

वाल्हीका वाटधानाश्च आभीरा: कालतोयका:। पुरन्धा्रराश्चैव शूद्राश्च पल्लवाश्चात्ताखण्डिका:॥ 40॥ गान्धारा यवनाश्चैव सिन्धुसौवीरमद्रका:। शका दु्रह्या: पुलिन्दाश्च पारदाहारमूर्त्तिका:॥ 41॥ रामठा कंटकाराश्च कैकेया दशनामका:। क्षत्रियोपनिवेश्याश्च वैश्या: शूद्रकुलानि च॥ 42॥ अत्रायो थभरद्वाजा: प्रस्थला: सदसेरका:। लम्पकास्तलगानाश्च सैनिका: सहजागलै:। एतेदेशाउदीच्यास्तु...........................॥ 43॥ अर्थात् ''वाल्हीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्धार, शूद्र पल्लव, आत्तखंडिक, गान्धार, यवन, सिन्धु-सौवीर, मद्रक, शक, दु्रह्य, पुलिन्द, पारदाहारमूर्त्तिक, रामठ, कण्टकार, केकय, दशनामक, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के देश, अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल सदसेरक, लम्पक-तलगान, सैनिक और जंगल ये उत्तर भारत के देश हैं॥ इसी वाटधन देश के राजा और जमींदार (भूमिपति) ब्राह्मण नकुल विजय के बाद बलि लेकर आये थे। गान्धारादि देशों में ब्राह्मण रहते हैं इसमें चीनी यात्री 'हुईसंग' (Hwi Seng) और 'संगयुन' (Sungyun) आदि की भी सम्मत्ति मिलती हैं, जो सन् 517 ई. के लगभग भारत यात्रा को आये थे। यह बात 'फाह्यान और संगयुन की यात्रा’ (Travels of Fah-Hian and Sungyun) नामक पुस्तक में मिलती हैं। उसमें काश्मीर, गान्धार, बुखारा आदि कई देशों में जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों का वर्णन करते हुए 197वें पृष्ठ में गान्धार के विषय में लिखा हैं कि “The people of the country belonged entirely to the Brahman caste. They had a great respect for the law of Budha, and loved to read the Sacred books.” अर्थात् गान्धार देशवासी सभी के सभी ब्राह्मण थे और बुद्ध अनुशासन से बहुत प्रेम रखते और पवित्र पुस्तकें पढ़ा करते थे। और यह उचित भी हैं। क्योंकि उन देशों में एक प्रकार के सारस्वत विप्र, जिनकी संज्ञा 'भूमिहार' शब्द के सदृश और इसी अर्थवाली 'महियाल या महीवाल हैं, रहा करते हैं। इसलिए 'भारत भ्रमण' ग्रन्थ के 52वें पृष्ठ में जो पूर्वोक्त मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय के नाम पर मिथ्या ही यह लिखा गया कि वाल्हीक, वाटधन, आभीर, कालतोयक यह शूद्रों के देश हैं और पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार यह यवनों के देश हैं'' वह असंगत हैं। साथ ही, उस 113वें अध्याय का अर्थ भी अभी कर चुके हैं। उसमें इस प्रकार के कहीं भी नहीं लिखा हैं।

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