अलंकार (Figure of speech) का स्वरूप और भेद --- __________________________________________
भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले कुशलतापूर्ण मनोरञ्जक ढंग को अलंकार कहते है।
जैसे"
संस्कृत में एक विद्वान ने केशव ,कंस तथा माया शब्दों का वर्ण संयोजन- वियोजन कर के
लाटानुप्रास अलंकार के द्वारा शब्दों को न परिवर्तित करके केवल अन्वय -भेद से ही प्रश्न को उत्तर बना कर चमत्कार उत्पन्न करने की चेष्टा की है 👇
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का मायास्ति तु या वृत्तिः के शवं तर्पयन्ति ये
कं संननाश वै कृष्णः को दण्डः प्रबलो हरेः
प्रश्न:- " का मायास्ति तु या वृत्तिः? — जीव की कौनसी वृत्ति माया कहलाती है ?
उत्तर:- कामाय अस्ति तु या वृत्तिः — जो वृत्ति कामपूर्ति के लिए होती है।
प्रश्न:- "के शवं तर्पयन्ति ये ?— कौन हैं जो सच में मृत व्यक्ति का तर्पण करते हैं।
उत्तर:- "केशवं तर्पयन्ति ये — वे जो भगवान केशव को सन्तुष्ट करते हैं।
प्रश्न:- कं संननाश वै कृष्णः? — कृष्ण ने किसका नाश किया?
उत्तर :- कंसं ननाश वै कृष्णः — कृष्ण ने कंस का नाश किया
प्रश्न :- "को दण्डः प्रबलो हरेः ?— हरि का कौनसा दण्ड प्रबल है ?
उत्तर :- कोदण्डः प्रबलो हरेः — हरि का धनुष बहुत प्रबल है।
शब्दों के चमत्कार और भी हैं ।👇
संस्कृत भाषा में कुछ प्रहेलिका भी शब्दो के कौशल पू्ण चयन से चमत्कार उत्पन्न करती हैं ।
जैसे 👇
पानीयं पातुमिच्छामि त्वत्तः कमललोचने !
यदि दास्यसि नेच्छामि न दास्यसि पिवाम्यहम् ||
१- हे कमलनयनी ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है |
--अगर तुम पानी देती हो तो मुझे नहीं चाहिए, यदि नहीं देती तो मैं पी लूंगा |
२ - यदि तुम दासी हो तो मुझे पानी नहीं चाहिए, यदि नहीं हो तो पी लूंगा |
उपर्युक्त श्लोक में दो विपरीत अर्थ केवल पदों के अन्वय करने पर हो जाता हैं । जैसे 👇
दास्यसि - तुम देती हो
(दा धातु का लट्लकार में क्रिया-पद मध्यमपुरुषः एकवचन)
दास्यसि --> दासी + असि - तुम दासी हो ( यण् सन्धि के "इकोयणचि" इक् ( इ,उ,ऋ,लृ,) का यण्( य,व,र,ल,) अच् (सभी स्वर परे होने पर परन्तु असवर्ण ) दासी दास का स्त्रीलिङ्ग रूप तथा असि लट्लकार मध्यम पुरुष एकवचन का क्रिया-पद।
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हतो हनुमतारामो सीता दृष्ट्वा सा हर्षनिर्भरा ।
रुदन्ति राक्षसास्सर्वे हाहारामो हतो हतः॥
पद-अन्वय एवं टिप्पड़ी :- हत: ( नष्ट किया गया ) हनुमता ( तृत्तीया विभक्ति एकवचन हनुमान के द्वारा) आराम: (आरम्यतेऽत्र आ + रम-आधारे घञ् प्रत्यय।
कृत्रिम वन (उद्यान)
“आत्मारामाविहितरतयोनिर्विकल्पे समाधौ” (वेणीसंहार )
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बाह्य रूप से इस श्लोक का पाठ करने पर अर्थ प्रतीक होता है । कि
आभाषित-अर्थ:-जब हनुमान ने राम को मारा, वानर प्रफुल्लित हुए,
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! राम मारे गए |
परन्तु पद - अन्वय करने पर
हतो हनुमताराम: = हतो हनुमता+ आराम:( हनुमान के द्वारा नष्ट हुआ उद्यान)
जब हनुमान ने अशोक-वाटिका को उजाड़ दिया तो सीता प्रफुल्लित हुईं ।
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! आराम: (उद्यान) नष्ट हो गया |
वास्तविक-अर्थ :- -जब नष्ट किया गया उद्यान को सभी राक्षस देखकर रोते हैं हा ! आराम: हा !आराम:
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जैसे कोई स्त्री आभूषण पहन कर सौभाग्यवती व समाज में शोभनीय प्रतीत होती है ।
और यदि आभूषण न पहने हो तो विधवा के समान अशुभ व अमंगल कारिणी प्रतीत होती है ।
बस अलंकारों युक्त कविता भी एक सौभाग्य शाली स्त्री है ।
वैदिक भाषाओं में अलंकार के स्थान पर अरङ्कार रूप प्राप्त होता है । जो लौकिक भाषाओं में अलंकार हो गया है ।
अथर्वेदमें देखें---
👇
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भूम्यां देवेभ्यो ददाति यज्ञं हव्यम् ☘अरङ्कृतम् ।
भूम्यां मनुष्याSजीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्या:।।
सा नो भूमि: प्राणमायुर्दधातु जरदिष्टं
मा पृथिवी कृणोतु।।
अथर्ववेद(12/1/22) शब्दार्थ:- मनुष्या: = मनुष्यगण ।भूम्यां= पृथ्वी पर । देवेभ्य:= देवों के लिए । अरङ्कृतम् = सुसज्जित। जरदिष्टं = वृद्धावस्था के इच्छित को । दधातु = धारण करावें ।
कृणोतु = करें । अनुवादित रूप:- मनुष्य पृथ्वी पर देवों के लिए यज्ञ करते हैं ; तथा सुसज्जित हविष् प्रदान करते हैं । मरण-धर्मा मनुष्य पितरों को देने योग्य अन्न के आधार पर जीवित रहते हैं । इस प्रकार वह हम सबको प्राण और दीर्घ आयु धारण करावें ।
यह पृथ्वी मुझको वृद्धा अवस्था में भी कार्य कराने की सामर्थ्य से युक्त करे ।। _______________________________________ अर्थात् अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सदीयों से सौन्दर्योपासक रहा है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
अलंकार वस्तुत सौन्दर्य -वर्धक तत्व हैं।
परन्तु यह सौन्दर्य कवि शब्द चयन सम्बन्धी कौशल पर आधारित है ।
पुरुष की दृष्टि में स्त्री की कोमलता सौन्दर्य मूलक है । क्यों कि 'वह पुरुष परुषता ( कठोरता) का प्रतिनिधि रूप है ।
और 'वह अपने पूर्णत्व के लिए कोमलता का सहज आकाँक्षी है ।
क्यों हर विपरीत आवेश अपने विपरीत आवेश से ही प्रतिक्रिया करता है ।
और यह प्रतिक्रिया एक ग्रहणीयता है।
अर्थात् ग्रहण करने की क्रिया। और यही भाव स्त्रीयों में सौन्दर्य मूलक वृत्तियों का प्रारूप है ; कि वे कोमल व्यक्तित्व वाली स्त्रीयाँ कठोरता की सहज आकाँक्षी है। और कठोरता उनके लिए अपेक्षित है ।
क्यों कि इसकी उन महिलाओं में कमी है ।
और सत्य भी है कि "सुन्दरता वस्तुत एक अावश्यकता मूलक दृष्टि कोण है ।
जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत है।
परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत: समाप्त नहीं होती हैं । जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ; वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है । इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की । जैसे कि उद्गार प्रकट हुआ 👇
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कवि जीवन की संगिनी ।
उसके स्वप्नों की प्रेयसी ।।
कवि पुरुरवा है "रोहि"।
कविता उसके उर-वसी ।।
हृदय सागर की अप्सराओं ।
संवेदन लहरों से विकसी ।।
एक रस बस प्रेम-रस ।
सृष्टि नहीं कोई काव्य सी ।
पुरुरवा और उर्वसी वैदिक कालीन नायक-नायिका हैं । यह साहित्य मनीषीयों को सर्वविदित ही है।
उपर्युक्त काव्य पक्तियों में हमने पुरुरवा और उर्वसी सदृश्य श्लिष्ट पदों द्वारा एक तथ्य व्यक्त किया गया है । इसी सन्दर्भ में यह बात भी ज्ञातव्य है कि अलंकार में महत्वपूर्ण तत्व मूलत: शब्द-कौशल है ।
काव्य का सौन्दर्य पक्ष वस्तुत कवि के शब्द- चयन सम्बन्धी कौशल पर ही आधारित होता है ।
और यह सौन्दर्य शब्दों पर आधारित भाव का अनुपूरक है ।
कौशल ,कुशीलव जैसा हो और कुशीलव कुश-लव जैसा वैसे कवि शब्द की व्युत्पत्ति कु कुङ् शब्दे :- कौति रौति इति कवि के रूप में हुआ है ।
कुङ् का परिवर्तित रूप कव् भी हुआ।
अत: कवि का शाब्दिक अर्थ है जो शब्द तत्व को सम्यक् रूप से जानता है ।
कवि तथा कुशीलव जैसे शब्द परस्पर पर्याय वाची व समान भावार्थों को सूचित करने वाले हैं ।
कालान्तरण में इन शब्दों के अर्थ-गरिमा का पतन भी हुआ। और तारानाथ वाचस्पत्यम् ने कुशीलव शब्द की काल्पनिक व मनगड़न्त व्युत्पत्ति इस प्रकार कर डाली 👇
कुत्सितं शीलं यस्य स अस्त्यर्थे व (कु+शील+व) कुशीलं + वाति वा-क-व= कुशीलव ।
१ कीर्त्तिसञ्चारके नटे, २ चारणे, ३ गायके च कुशीलववृत्त्यर्थं नाट्यप्रचारकत्वात् ४ वाल्मीकौ मुनौ ५ नटमात्रे अमरः । “यन्नाट्यवस्तुनःपूर्व्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये” कुशीलवाः प्रकुर्व्वन्ति साहित्य दर्पण
कुशश्च लवश्च पृशोदरत्वाद समास से ।
६ कुशलवयोः द्विवचन हेमचन्द्र कोश । “अभिषिच्य महात्मानावुभौ रामः कुशीलवौ” रामायण सुन्दर-काण्ड१०७। त्रिकाण्डशेषे कुशीवशः इति वाल्मीक्यर्थे पाठः लिपिकरप्रमादकृतः । ________________________________________ संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।
रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है।
फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निर्धारित करने की चेष्टा की गयी है। 'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है।
अलं शब्द संस्कृत की अल् धातु से व्युत्पन्न है । अल् = पर्याप्त, वारण, भूषणेषु । अल् धातु का भी मूल रूप अर् (ऋ) है ।अर्थात् अर् (ऋ) धातु से "आर" अथवा "अर" शब्द भी विकसित हुआ ।
आर कामदेव का वाचक है ।
अब अलं शब्द अरं का परवर्ती तद्भव रूप है। अलंकार श्रृँगार के सर्जक तत्व हैं । और श्रृँगार कामोद्रेक रूप है 👇
एक स्थान पर अल का अर्थ संस्कृत में कला है । कला वस्तुत कौशल्य पूर्ण ढ़ंग से सौन्दर्य की अभिव्यक्त है । और लीला उसका विलास या अभिनेयता तथा क्रियात्मक रूप है ।
लीला शब्द लल् धातु से व्युत्पन्न है । लल् = ईप्सायाम् विलासे च - लालयते लालन लीला आदि को ध्वनित करने वाली धातु । श्रृँग - लिंग + आर - उद्दीप्त करना अर्थात् जिस भाव से पुरुष की जननेन्द्रिय उत्तेजित हो जाय वह श्रृँगार है । वही अलंकार है । ________________________________________ शृङ्गारः, पुंल्लिंग (शृङ्गं कामोद्रेकम् ऋच्छतीति । ऋ गतौ + “कर्म्मण्यण् ।३ । २ । १ । सुरतः । नाट्यरसः । गजभूषणम् । इति मेदिनी ॥ नाट्यरसस्य लक्षणं यथा, -- “पुंसः स्त्रियां स्त्रियाः पुंसि संयोगं प्रति या स्पृहा । स शृङ्गार इति ख्यातो रतिक्रीडादिकारणम् ।।” इत्यमरटीकायां भरतः ॥ अपि च ।
“श्रृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः । उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः श्रृङ्गार इष्यते । __________________________________________ इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलं + कार अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए ही नहीं, अपितु भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं।
अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं।
वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-नीति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्न , पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है सञ्चारी भाव हैं ।।
भाषा के नहीं। इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है ;तो किसी के विचार से अनिवार्य।
फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। अलंकार का महत्त्व:--- काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दण्डी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है।
काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।👇
जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है।
जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है।
बिना अलंकार के कविता विधवा है।
तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।
अलंकारों से 'वह सुहागिन है ।
अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है।
जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही।
इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।👇 _________________________________________ अलंकार के भेद:-- अलंकार के तीन भेद होते है:- (1)शब्दालंकार (2)अर्थालंकार (3)उभयालंकार ________________________________________ (1)शब्दालंकार :- जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है। दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।
शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है।
शब्द + अलंकार शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।
शब्दालंकार :- (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रास:-वर्णगत यमक :-शब्दगत हैं तो लाटानुप्रयास वाक्यगत शब्द अलंकार है शब्दालंकार के भेद:- शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-
(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) (ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) (iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) (iv) वक्रोक्ति अलंकार (The Crooked Speech) (v) वीप्सा अलंकार (Vipsa Alankar) वि + आप--सन्-अच ईत्-अ अभ्यासलोपश्च । व्याप्तौ (vi) प्रश्न अलंकार (Prshn Alankar) _________________________________________ (i)अनुप्रास अलंकार(Alliteration) :- वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है। आवृत्ति (दोहराव) का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है। अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्र + आस' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- पीछे तथा 'प्रास' का अर्थ है प्रकृष्ट रूप में रखना ।
(समान वर्णों का प्रकृष्ट रूप में रखना ही प्रास है ) जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप। जन वर्ण समूह के कारण यहाँं अनुप्रास जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है। अनुप्रास के प्रकार:-👇
अनुप्रास के तीन प्रकार है- (क)छेकानुप्रास (ख) वृत्यनुप्रास (ग) लाटानुप्रास (क)छेकानुप्रास- जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति एक बार हो या जोड़े से हो , वहाँ छेकानुप्रास होता है। छेक का अर्थ चतुर है ।
और यह व्यक्ति के तात्पर्य को प्रकट करता है । यह चतुर व्यक्तियों के द्वारा प्रयोग किया जाता था । इसमें व्यञ्जन वर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है।
क्यों कि यहाँं वर्ण क्रम भंग है ।
जबकि 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है।
महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-👇 __________________________________________ रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई। यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-👇
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।
यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है।
चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है। (ख)वृत्यनुप्रास- वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यञ्जन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं। उदाहरण इस प्रकार है-
(i) सपने सुनहले मन भाये। यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है। (ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं। ताहि अहीर की छौरिया छछियावर छाछ पर नाच नचावें । (रसखान के पद)
यहाँ 'स' वर्ण और छ वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है। छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर- 👇
छेकानुप्रास में अनेक व्यञ्जनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
जबकि इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।👇
(ग) लाटानुप्रास- जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।
उदाहरण- तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ, तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ। इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं। दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है- वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है।
पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।
(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यञ्जन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा है- सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यञ्जनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।'' दूसरे शब्दों में- जिस काव्य में समान शब्द के अलग-अलग अर्थों में आवृत्ति हो, उसे यमक अलंकार कहते हैं।
यानी जहाँ एक ही शब्द जितनी बार आए उतने ही अलग-अलग अर्थ दे।
जैसे-
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है। दूसरा उदाहरण- जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं; पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।
यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है। _________________________________________ यमक और लाटानुप्रास में भेद :- यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, औरअर्थ बदलते जाते है; पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।
(iii)श्लेष अलंकार(Paranomasia) :- श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है। दूसरे शब्दों में- 'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। जिस शब्द में एकाधिक अर्थ हों, उसे ही श्लेष अलंकार कहते हैं।
इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों। इनमें दो बातें आवश्यक है-
(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो
(ख) एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों। उदाहरण- माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।
यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी। ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।
दूसरा उदाहरण-
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
(विहारीसतसई) यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है। अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में। श्लेष के भेद👇
श्लेष के दो भेद होते है- (1) अभंग श्लेष (2) सभंग श्लेष। अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किन्तु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा- अभंग श्लेष- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। ( रहीम )
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।
परन्तु कुछ विद्वानों के मत में पानी शब्द के अनेक वार प्रयुक्त होने पर तथा अर्थ हर वार भिन्न भिन्न होने पर यमक अलंकार का भाव भी है ।
सभंग श्लेष- सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।
(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)- जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं। दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।🌹
( कक-उण् ) । १ शोकभीत्यादिभिर्ध्वनेर्विकारे,अर्थात् शोक ,भय आदिसे ध्वनि का परिवर्तित होना ।
विरुद्ध अर्थ । अलङ्कारप्रसिद्धे २
विरुद्धार्थकल्पके नञादौ शब्देच । “कामे-कान्ते सा रसिका काकुरुतेन” (साहित्य दर्पण ) “प्रणिजगदुरकाकु श्रावकाःस्निग्धकण्ठाः” माघः । (साहित्य दर्पण ) साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है- ''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।
👇 'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे। एक उदाहरण लीजिये :- एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए मित्त' ।। किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये। यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ? अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।
जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है। भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।
रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है- (1) श्लेष वक्रोक्ति (2) काकु वक्रोक्ति (1) श्लेष वक्रोक्ति- काकु =छिपी हुई चुटीली बात । व्यंग । तनज । ताना । उदाहरण— (क) राम बिरह दशरथ दुखित कहत केकयी काकु । कुसमय जाय उपाय सब केवल कर्मविपाकु (तुलसी शब्दावली) । (ख) —बिनु समझे निज अघपरिपाकू । जारिउ जाय जननि कहि काकू ।
—तुलसी (शब्दावली) २. अलंकार में वक्रोक्ति के दो भेदों में से एक जिसमें शब्दों के अन्यार्थ या अनेकार्थ से नहीं बल्कि ध्वनि ही से दूसरा अभिप्राय ग्रहण किया जाय । जैसे, —क्या वह इतने पर भी न आवेगा? अर्थात् आवेगा । उ०—आलिकुल कोकिल कलित यह ललित वसंत बहार । कहु सखि नहिं ऐ हैं कहा प्यारे अबहुँ अगार (शब्दावली) । ३. अस्पष्ट कथन (को०) । ४. जिह्वा (को०) । ५. जोर देना । बल देना (को०) ।
श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति (ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति (i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है- प्रश्न - अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?
उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा, अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?
यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है।
नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी;
क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था।
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नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !''
अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।
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