शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

स्मृतियों में काल्पनिक मनगड़न्त जाति-उत्पत्ति

कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
                             (ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय 5)
कृष्ण के लोम- रूपों से  गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण कार लिखता है कि "
                    प्रभु-उवाच
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
                                ( ब्रह्म-वैवर्त पुराण 128/33)
हे वैश्येन्द्र ! कलि युग प्रारम्भ होने से  कलिधर्म प्रचलित होगें पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।

योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
                                      (ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।

जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति वर्णन करते हैं ।👇

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महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् ।।
आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।

तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।

दुग्धं दधि घृतं  तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।

अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो उत्पन्न होता है 'वह अाभीर है ।
और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर ही उत्पन्न होता है । इनका समूह घोष( गो -आवास) में
रहता है ।  जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो  तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है भेड़ ,बकरी , गो ,भैंस आदि को चराना इनका काम है ।तथा दूध, दही मट्ठा ये धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से कुछ हीन हैं ।

मनु-स्मृति कार इसके विपरीत लिखता है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇

ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15

शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇

मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए!  परन्तु इन श्लोकों की शैलीऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—

कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।

वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)

द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक
समायोजित किए गये हैं।
5. अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇

(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।

किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है

(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।

(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है । यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।

अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं'' 

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