अलंकार (Figure of speech) का स्वरूप और भेद ---
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भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।
जैसे कोई स्त्री आभूषण पहन कर सोभाग्यवती व समाज में शोभनीय प्रतीत होती है ।
और यदि आभूषण न रहें तो विधवा के समान अशुभ व अमंगल कारिणी प्रतीत होती है ।
वैदिक भाषाओं में अरंकार रूप प्राप्त होता है ।
जो लौकिक भाषाओं में अलंकार हो गया है ।👇
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" भूम्यां देवेभ्यो ददाति यज्ञं
हव्यम् ☘अरङ्कृतम् ☘।
भूम्यां मनुष्याSजीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्या:।।
सा नो भूमि: प्राणमायुर्दधातु जरदिष्टं मा पृथिवी कृणोतु।।
अथर्ववेद(12/1/22)
शब्दार्थ:- मनुष्या: = मनुष्यगण ।भूम्यां= पृथ्वी पर ।
देवेभ्य:= देवों के लिए । अरङ्कृतम् = सुसज्जित।
जरदिष्टं = वृद्धावस्था के इच्छित को । दधातु = धारण करावें ।
कृणोतु = करें ।
अनुवादित रूप:- मनुष्य पृथ्वी पर देवों के लिए यज्ञ करते हैं तथा सुसज्जित हविष् प्रदान करते हैं ।
मरण-धर्मा मनुष्य पितरों को देने योग्य अन्न के आधार पर जीवित रहते हैं ।
इस प्रकार वे देव हम सबको प्राण और दीर्घ आयु धारण करावें ।
यह पृथ्वी मुझको वृद्धावस्था में भी कार्य कराने की सामर्थ्य से युक्त करे ।।
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अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'।
मानव समाज सदीयों से सौन्दर्योपासक रहा है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
अलंकार वस्तुत सौन्दर्य -वर्धक तत्व हैं।
पुरुष की दृष्टि में स्त्री की कोमलता सौन्दर्य मूलक है ।
क्यों कि 'वह पुरुष परुषता ( कठोरता) का प्रतिनिधि रूप है ।
और 'वह अपने पूर्णत्व के लिए कोमलता का सहज आकाँक्षी है ।
क्यों हर विपरीत आवेश अपने विपरीत आवेश से ही प्रतिक्रिया करता है ।
और यह प्रतिक्रिया एक ग्रहणीयता है ।
और यही भाव स्त्रीयों में सौन्दर्य मूलक वृत्तियों का प्रारूप है ;
कि वे कोमल व्यक्तित्व वाली स्त्रीयाँ कठोरता की सहज आकाँक्षी है।
क्यों कि कठोरता के लिए अपेक्षित हैं ।
क्यों कि इसकी उनमें कमी है ।
और सत्य भी है कि सुन्दरता वस्तुत एक अावश्यकता मूलक दृष्टि कोण है ।
जिसकी भी हम्हें जरूरत है ;
'वह वस्तु हमारे लिए तभी तक ख़ूबसूरत है।
परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत:
समाप्त नहीं होती हैं ।
जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ;
वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है ।
इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की
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इसी सन्दर्भ में यह बात भी ज्ञातव्य है कि
अलंकार में महत्वपूर्ण तत्व मूलत: शब्द-कौशल है ।
और काव्य का सौन्दर्य पक्ष भी वस्तुत कवि के शब्द- चयन सम्बन्धी कौशल पर ही आधारित है ।
शब्दों पर आधारित भाव का अनुपूरक है ।
कौशल कुशीलव जैसा हो और कुशीलव कुश-लव जैसा
वैसे कवि शब्द कु कुङ् =शब्दे :- कौति रौति इति कवि
कुङ् का कव् रूप भी हुआ।
अत: कवि का शाब्दिक अर्थ है जो शब्द तत्व को सम्यक् रूप से जानता है ।
कुत्सितं शीलं यस्य अस्ति अर्थे व प्रत्यय (कुशीलं वाति) वा--क--व।
१ कीर्त्तिसञ्चारक या नट २ चारण ३ गायक। कुशीलववृत्ति से तात्पर्य नाट्यप्रचार की क्रिया ४ वाल्मीकि (अमरकोश)
“यन्नाट्यवस्तुनःपूर्व्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये”
कुशीलवाः प्रकुर्व्वन्ति (साहित्यदर्पण )
कुशश्च लवश्च पृशोदरत्वाद समास से कुशीलव ।
६ कुशलवयोः द्विवचन हेमचन्द्र कोश ।
“अभिषिच्य महात्मानावुभौ रामः कुशीलवौ” रामायण सुन्दर काण्ड१०७ ।
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संस्कृत के अलंकार सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'-
काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।
रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है।
फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निर्धारित करने की चेष्टा की गयी है।
'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है।
अलं शब्द संस्कृत की अल् धातु से व्युत्पन्न है ।
अल् = पर्याप्त, वारण, भूषणेषु ।
अल् धातु का भी मूल रूप अर् (ऋ) है ।अर्थात्
अर् (ऋ) धातु से "आर" अथवा "अर" शब्द भी विकसित हुआ ।
आर कामदेव का वाचक है ।
अब अलं शब्द अरं का परवर्ती तद्भव रूप है।
अलंकार श्रृँगार के सर्जक तत्व हैं ।
और श्रृँगार कामोद्रेक रूप है ।👇
एक स्थान पर अल का अर्थ संस्कृत में कला है ।
कला वस्तुत कौशल्य पूर्ण ढ़ंग से सौन्दर्य की अभिव्यक्त
है ।
और लीला उसका विलास या अभिनेयता तथा क्रियात्मक रूप है ।
लीला शब्द लल् धातु से व्युत्पन्न है ।
लल् = ईप्सायाम् विलासे च - लालयते लालन लीला आदि को ध्वनित करने वाली धातु ।
श्रृँग - लिंग + आर - उद्दीप्त करना
अर्थात् जिस भाव से पुरुष की जननेन्द्रिय उत्तेजित हो जाय वह श्रृँगार है ।
वही अलंकार है ।
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शृङ्गारः पुंल्लिंग (शृङ्गं कामोद्रेकम् ऋच्छतीति ।
ऋ गतौ + “कर्म्मण्यण् ।३।२।१ ।
इत्यण् ।
“श्रृङ्गं हि मन्मथोद्भेदस्तदागमनहेतुकः ।
उत्तमप्रकृतिप्रायो रसः श्रृङ्गार इष्यते ।
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एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है।
दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए ही नहीं, अपितु भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं।
अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं।
इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है ;तो किसी के विचार से अनिवार्य।
फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
अलंकार का महत्त्व:---
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दण्डी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं।
इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है।
अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है।
काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था।
हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।👇
काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है।
जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है।
बिना अलंकार के कविता विधवा है।
तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।
अलंकारों से 'वह सुहागिन है ।
अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही।
इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।👇
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अलंकार के भेद:--
अलंकार के तीन भेद होते है:-
(1)शब्दालंकार
(2)अर्थालंकार
(3)उभयालंकार
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(1)शब्दालंकार :- जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।
शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है।
शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ।
ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टि होती है।
इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।
शब्दालंकार :-
(i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं।
अनुप्रास:-वर्णगत
यमक :-शब्दगत हैं
तो लाटानुप्रयास वाक्यगत शब्द अलंकार है ।
शब्दालंकार के भेद:-
शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-
(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration)
(ii) यमक अलंकार
(Repetition of same word)
(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia)
(iv) वक्रोक्ति अलंकार (The Crooked Speech)
(v) वीप्सा अलंकार (Vipsa Alankar)
वि + आप--सन्-अच ईत्-अ
अभ्यासलोपश्च।व्याप्तौ
(vi) प्रश्न अलंकारः
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(i)अनुप्रास :- वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति (दोहराव) का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।
अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्र + आस' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- पीछे तथा 'प्रास' का अर्थ है प्रकृष्ट रूप में रखना ।
(समान वर्णों का प्रकृष्ट रूप में रखना ही प्रास है )
जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है।
जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।
जन वर्ण समूह के कारण यहाँं अनुप्रास
जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।
अनुप्रास के प्रकार:-👇
अनुप्रास के तीन प्रकार है-
(क)छेकानुप्रास
(ख) वृत्यनुप्रास
(ग) लाटानुप्रास
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(क)छेकानुप्रास- जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति एक बार हो या जोड़े से हो , वहाँ छेकानुप्रास होता है।
छेक का अर्थ चतुर है ।
और यह व्यक्ति के तात्पर्य को प्रकट करता है ।
यह चतुर व्यक्तियों के द्वारा प्रयोग किया जाता था ।
इसमें व्यञ्जन वर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है।
'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है।
क्यों कि यहाँं वर्ण क्रम भंग है ।
जबकि 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है।
महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-👇
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रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।
यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-👇
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।
यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है;
क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है।
'छेक' का अर्थ चतुर है।
चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।
(ख)वृत्यनुप्रास- वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यञ्जन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।
उदाहरण इस प्रकार है-
(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।
(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं। ताहि अहीर की छौरिया छछियावर छाछ पर नाच नचावें । (रसखान के पद)
यहाँ 'स' वर्ण और छ वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।
छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर- 👇
छेकानुप्रास में अनेक व्यञ्जनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
जबकि इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं।
यदि अनेक व्यञ्जनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमशः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।👇
(ग) लाटानुप्रास- जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है।
इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।
उदाहरण-
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।
इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।
दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है।
यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है।
दोनों का अर्थ 'आदमी' है।
पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है।
पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।
(ii) यमक अलंकार
:-सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यञ्जन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।
साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यञ्जनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''
दूसरे शब्दों में- जिस काव्य में समान शब्द के अलग-अलग अर्थों में आवृत्ति हो, उसे यमक अलंकार कहते हैं।
यानी जहाँ एक ही शब्द जितनी बार आए उतने ही अलग-अलग अर्थ दे।
जैसे-
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।
दूसरा उदाहरण-
जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।
यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।
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यमक और लाटानुप्रास में भेद :- यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, औरअर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।
(iii)श्लेष अलंकार :- श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।
दूसरे शब्दों में- 'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ।
जिस शब्द में एकाधिक अर्थ हों, उसे ही श्लेष अलंकार कहते हैं।
इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-
(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो
(ख) एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।
उदाहरण-
माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।
यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्।
दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।
दूसरा उदाहरण-
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।। (विहारीसतसई)
यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।
अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।
श्लेष के भेद👇
श्लेष के दो भेद होते है- (1) अभंग श्लेष (2) सभंग श्लेष।
अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किन्तु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है।
यथा-
अभंग श्लेष-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। ( रहीम )
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।
परन्तु कुछ विद्वानों के मत में पानी शब्द के अनेक वार प्रयुक्त होने पर तथा अर्थ हर वार भिन्न भिन्न होने पर यमक अलंकार का भाव भी है ।
सभंग श्लेष-
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।
(iv) वक्रोक्ति- जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
( कक-उण् ) ।
१ शोकभीत्यादिभिर्ध्वनेर्विकारे,अर्थात् शोक ,भय आदिसे ध्वनि का परिवर्तित होना ।
विरुद्ध अर्थ।
“कामे-कान्ते सा रसिका काकुरुतेन”
(साहित्य दर्पण )
“प्रणिजगदुरकाकु श्रावकाःस्निग्धकण्ठाः” माघः । (साहित्य दर्पण )
साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-
''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।'👇
'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहने वाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।👇
केशवं पतितं दृष्ट्वा ,पाण्डवा हर्षनिर्भराः।
रुदन्ति कौरवस्सर्वे हा ! हा !केशव: केशव: 👇
पतित केशव को देखकर,,पाण्डव हर्ष से भर गये
सभी कौरव- रोते हैं हाय केशव, हाय केशव!
केशव शब्द के अन्वय और प्रकरण भेद से केवल अर्थ परिवर्तन चमत्कार करता है ।
(कं ) - पानी में
(शवं)- (मृत शरीर को)
(पा) +(अण्डवाः)
पा - पानी
अण्डवा: - अण्डे उत्पन्न करने वाली
मछली पानी में अण्डे पैदा करने के कारण
कौ रवा:
कौ - ध्वनि अनुकरण मूलक शब्द कॉऊ
रवा: - शोर कौरवा: (कोए)
पानी में गिरे हुए शव को देखकर, मछली परमानन्दित हुईं । जबकि कौऐ अथवा भेड़िये विलाप करते हैं क्योंकि उन्हें पानी में शव का एक टुकड़ा नहीं मिल सकता था !
इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।
एक उदाहरण लीजिये :-
एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए मित्त' ।।
किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।
जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं।
अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।
भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।
'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।
रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-
(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति
(1) श्लेष वक्रोक्ति-
काकु =छिपी हुई चुटीली बात । व्यंग । तनज । ताना ।
उदाहरण—
(क) राम बिरह दशरथ दुखित कहत केकयी काकु । कुसमय जाय उपाय सब केवल कर्मविपाकु (तुलसी)
(ख) —बिनु समझे निज अघपरिपाकू ।
जारिउ जाय जननि कहि काकू ।(तुलसी )
२. अलंकार में वक्रोक्ति के दो भेदों में से एक जिसमें शब्दों के अन्यार्थ या अनेकार्थ से नहीं बल्कि ध्वनि ही से दूसरा अभिप्राय ग्रहण किया जाय ।
जैसे, —क्या वह इतने पर भी न आवेगा? अर्थात् आवेगा ।आलिकुल कोकिल कलित यह ललित वसंत बहार । कहु सखि नहिं ऐ हैं कहा प्यारे अबहुँ अगार (शब्दावली) ३. अस्पष्ट कथन ।
४. जिह्वा ५. जोर देना । बल देना ।
👇
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया।👇
यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।
(iii)श्लेष अलंकार :- श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।
दूसरे शब्दों में- 'श्लेष' का अर्थ होता है- , चिपका हुआ। जिस शब्द में एकाधिक अर्थ हों, उसे ही श्लेष अलंकार कहते हैं।
इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-
(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो
(ख) एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।
उदाहरण-
माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।
यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।
दूसरा उदाहरण-
चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।
यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं।
'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।
अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में। श्लेष के भेद 👇
श्लेष के दो भेद होते है- (1) अभंग श्लेष (2) सभंग श्लेष।
अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-अभंग श्लेष-👇
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है।
इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।
सभंग श्लेष-
सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।
(iv) वक्रोक्ति - जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।
साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ का कथन है-
''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''
'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।
इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।
एक उदाहरण लीजिये :-
एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।
किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।
जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है।
'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं।
अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।
भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।
'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।
रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-
(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति
(1) श्लेष वक्रोक्ति-
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया।
यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।
श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-
प्रश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?
उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?
यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है।
नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी;
क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था।
नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा,
''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !''
अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।
''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है।
इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ? वह उड़ गया, सपर है।
यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया !
नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।
अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया।
यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।
(2)काकु वक्रोक्ति- कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं।
अतः यह अर्थालंकार है।
किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।
काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-
कह अंगद सलज्ज जग माहीं।
रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी।
हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास
रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।
वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:- दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है।
मुख्य अन्तर इतना ही है।
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श्लेष और यमक में भेद:- श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है।
यमक में अनेक अर्थ की व्यञ्जना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।
(v) वीप्सा अलंकार :- आदर, घबराहट, आश्चर्य, घृणा, रोचकता आदि प्रदर्शित करने के लिए किसी शब्द को दुहराना ही वीप्सा अलंकार है।
जैसे-
मधुर-मधुर मेरे दीपक जले।
कुछ अन्य उदाहरण:
विहग-विहग
फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज
कल-कूजित कर उर का निकुंज
चिर सुभग-सुभग।
(vi) प्रश्न अलंकार :- यदि पद में प्रश्न किया जाय तो उसमें प्रश्न अलंकार होता है।
जैसे-
जीवन क्या है ? निर्झर है।
मस्ती ही इसका पानी है।
(a) उसके आशय की थाह मिलेगी किसको,
जन कर जननी ही जान न पाई जिसको ?
(b) कौन रोक सकता है उसकी गति ?
गरज उठते जब मेघ,
कौन रोक सकता विपुल नाद ?
(c) दो सौ वर्ष आयु यदि होती तो क्या अधिक सुखी होता नर ?
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(2) अर्थालंकार:-जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में-
जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों।
अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।
जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है,
उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा;
क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है।
केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं।
जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।
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अर्थालंकार के भेद इसके प्रमुख भेद है- (1)उपमा(Simile)
(2)रूपक(Metaphor)
(3)उत्प्रेक्षा(Poetic Fancy) (4)अतिशयोक्ति(Hyperbole) (5)दृष्टान्त(Examplification)
(6)उपमेयोपमा
(7)प्रतिवस्तूपमा(Typical Comparison) (8)अर्थान्तरन्यास(Corroboration) (9)काव्यलिंग(Poetical reason)
(10)उल्लेख (11)विरोधाभास(Contradiction) (12) स्वभावोक्ति अलंकार(Natural Description) (13) सन्देह(Doubt)
(14) मालोपमा (Chain of Similes)
(15) अनन्वय (Self Comparison)
(16) प्रतीप (Converse)
(17) भ्रांतिमान् (Error)
(18) अपह्नुति (Concealment)
(19) दीपक (Illuminater)
(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)
(21) निदर्शना (Illustration)
(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)
(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)
(24) विभावना (Peculiar Causation)
(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)
(26) असंगति (Disconnection)
(27) परिसंख्या (Special mention)
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(1)उपमा अलंकार :- दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।
'उप' का अर्थ है- 'समीप से' और 'मा' का तौलना या देखना। 'उपमा' का अर्थ है- एक वस्तु दूसरी वस्तु को रखकर समानता दिखाना।
अतः जब दो भिन्न वस्तुओं में समान धर्म के कारण समानता दिखाई जाती है, तब वहाँ उपमा अलंकार होता है।
उपमा के चार अंग होते हैं-
(a) उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसकी समता दूसरे पदार्थ से दिखलाई जाय। जैसे- कर कमल-सा कोमल है। इस उदाहरण में 'कर' उपमेय है।
(b) उपमान- जिससे उपमा दी जाय, अर्थात उपमेय को जिसके समान बताया जाय। उक्त उदाहरण में 'कमल' उपमान है।
(c) साधारण धर्म- 'धर्म' का अर्थ है 'प्रकृति' या 'गुण'। उपमेय और उपमान में विद्यमान समान गुण को ही साधारण धर्म कहा जाता है।
उक्त उदाहरण में 'कमल' और 'कर' दोनों के समान धर्म हैं- कोमलता।
(d) वाचक- उपमेय और उपमान के बीच की समानता बताने के लिए जिन वाचक शब्दों का प्रयोग होता है, उन्हें ही वाचक कहा जाता है।
उपर्युक्त उदाहरण में 'सा' वाचक है।
(2) रूपक अलंकार:- उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।
जब उपमेय पर उपमान का निषेध-रहित आरोप करते हैं, तब रूपक अलंकार होता है।
उपमेय में उपमान के आरोप का अर्थ है- दोनों में अभिन्नता या अभेद दिखाना।
इस आरोप में निषेध नहीं होता है।
जैसे- यह जीवन क्या है ? निर्झर है।
'' इस उदाहरण में जीवन को निर्झर के समान न बताकर जीवन को ही निर्झर कहा गया है।
अतएव, यहाँ रूपक अलंकार हुआ।
दूसरा उदाहरण-
बीती विभावरी जागरी !
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी।
यहाँ, ऊषा में नागरी का, अम्बर में पनघट का और तारा में घट का निषेध-रहित आरोप हुआ है।
अतः यहाँ रूपक अलंकार है। कुछ अन्य उदाहरण : (क) मैया ! मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों।
(ख) चरण-कमल बन्दौं हरिराई।
(ग) राम कृपा भव-निसा सिरानी।
(घ) प्रेम-सलिल से द्वेष का सारा मल धूल जाएगा।
(ड•) चरण-सरोज पखारन लागा।
(च) पायो जी मैंने नाम-रतन धन पायो।
(छ) एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास
(3) उत्प्रेक्षा अलंकार :- उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।
जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना का वर्णन हो, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना। सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्चय से कुछ निचे होती है।
इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है।
अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।
फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।
यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो।
यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।
उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है।
जैसे- 'आकाश मानो अञ्जन बरसा रहा है'
(उत्प्रेक्षा) 'अञ्जन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।
उत्प्रेक्षा के वाचक पद (लक्षण): यदि पंक्ति में ज्यों, मानो, जानो, इव, मनु, जनु, जान पड़ता है- इत्यादि हो तो मानना चाहिए कि वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग हुआ है।
जैसे- सखि ! सोहत गोपाल के उर गुंजन की माल। बाहर लसत मनो पिए दावानल की ज्वाल।।
यहाँ उपमेय 'गुञ्जन की माल' में उपमान 'ज्वाला' की संभावना प्रकट की गई है। अन्य :
(a) पदमावती सब सखी बुलायी।
जनु फुलवारी सबै चली आई।।
(b) लता भवन ते प्रकट भे, तेहि अवसर दोउ भाय।
मनु निकसे जुग बिमल बिधु, जलद पटल बिलगाय।।
(4)अतिशयोक्ति अलंकार:-जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।
जैसे- बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से, मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से। यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है।
विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।
(a) हनुमान की पूँछ में, लग न पायी आग। लंका सगरी जल गई, गए निशाचर भाग।
(b) देख लो साकेत नगरी है यही।
स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही।
(5)दृष्टान्त अलंकार:-जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।
इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है।
पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं, किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ? यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है।
पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं।
एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।
तजि आसा तन प्रान की, दीपहिं मिलत पतंग।
दरसावत सब नरन को, परम प्रेम को ढंग।।
(6)उपमेयोपमा अलंकार:-उपमेय और उपमान को परस्पर उपमान और उपमेय बनाने की प्रक्रिया को 'उपमेयोपमा' कहते है।
इसमें दो तरह की भित्र उपमाएँ होती है।
जैसे राम के समान शम्भु सम राम है।
यहाँ दो उपमाएँ एक साथ आयी है, पर दोनों उपमाओं के उपमेय और उपमान क्रमशः उपमान और उपमेय में परिवर्तित हो गये है।
(7)प्रतिवस्तूपमा-अलंकार:-जहाँ उपमेय और उपमान के पृथक-पृथक वाक्यों में एक ही समानधर्म दो भित्र-भित्र शब्दों द्वारा कहा जाय, वहाँ 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार' होता है।
जैसे:- सिंहसुता क्या कभी स्यार से प्यार करेगी ? क्या परनर का हाथ कुलस्त्री कभी धरेगी ?
यहाँ दोनों वाक्यों में पूर्वार्द्ध (उपमानवाक्य) का धर्म 'प्यार करना' उत्तरार्द्ध (उपमेय-वाक्य) में 'हाथ धरना' के रूप में कथित है।
वस्तुतः दोनों का अर्थ एक ही है।
एक ही समानधर्म सिर्फ शब्दभेद से दो बार कहा गया है।
प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त में भेद- मुख्य भेद इस प्रकार है-
(क) प्रतिवस्तूपमा में समान धर्म एक ही रहता है, जिसे दो भित्र शब्दों के प्रयोग से कहा जाता है; किन्तु दृष्टान्त में समानधर्म दो होते है, जो दो शब्दों के प्रयोग से कहे जाते है।
(ख) प्रतिवस्तूपमा के दोनों वाक्यों में एक ही बात रहती है, जिसे दो वाक्यों द्वारा कहा जाता है।
दृष्टान्त में एक वाक्य का धर्म दूसरे में एक समान नहीं होता।
इन दो अलंकारों में इतनी समानता है कि पण्डितराज जगत्राथ ने इन्हें एक ही अलंकार का भेद माना है।
(8)अर्थान्तरन्यास अलंकार :-जब किसी सामान्य कथन से विशेष कथन का अथवा विशेष कथन से सामान्य कथन का समर्थन किया जाय, तो 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' होता है।
उदाहरण:- बड़े न हूजे गुनन बिनु, बिरद बड़ाई पाय। कहत धतूरे सों कनक, गहनो गढ़ो न जाय।
यहाँ सामान्य कथन का समर्थन विशेष बात से किया गया है। पूर्वार्द्ध में सामान्य बात कही गयी है और उसका समर्थन विशेष बात कहकर किया गया है।
(9)काव्यलिंग अलंकार:-किसी युक्ति से समर्थित की गयी बात को 'काव्यलिंग अलंकार' कहते है। यहाँ किसी बात के समर्थन में कोई-न कोई युक्ति या कारण अवश्य दिया जाता है।
बिना ऐसा किये वाक्य की बातें अधूरी रह जायेंगी।👇
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
उहि खाए बौरात नर, इहि पाए बौराय।
धतूरा खाने से नशा होता है, पर सुवर्ण पाने से ही नशा होता है।
यह एक अजीब बात है।
यहाँ इसी बात का समर्थन किया गया है कि सुवर्ण में धतूरे से अधिक मादकता है।
दोहे के उत्तरार्द्ध में इस कथन की युक्ति पुष्टि हुई है। धतूरा खाने से नशा चढ़ता है, किन्तु सुवर्ण पाने से ही मद की वृद्धि होती है, यह कारण देकर पूर्वार्द्ध की समर्थनीय बात की पुष्टि की गयी है।
(10)उल्लेख अलंकार :-जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाये, वहाँ 'उल्लेख अलंकार' होता है। जैसे- तू रूप है किरण में, सौन्दर्य है सुमन में, तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।
(11)विरोधाभास अलंकार :-जहाँ विरोध न होते हुए भी विरोध का आभास दिया जाय, वहाँ 'विरोधाभास अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ बाहर से तो विरोध जान पड़े,
किन्तु यथार्थ से विरोध न हो।
उसे विरोधाभास अलंकार कहते हैं।
जैसे- बैन सुन्या जबतें मधुर, तबतें सुनत न बैन।
यहाँ 'बैन सुन्यों' और 'सुनत न बैन' में विरोध दिखाई पड़ता है।
सच तो यह है कि दोनों में वास्तविक विरोध नहीं है।
यह विरोध तो प्रेम की तन्मयता का सूचक है।
अन्य उदाहरण-
(a) जब से है आँख लगी तबसे न आँख लगी।
(c) ना खुदा ही मिला ना बिसाले सनम ना इधर के रहे ना उधर के रहे।
(12) स्वभावोक्ति अलंकार:- किसी वस्तु के स्वाभाविक वर्णन को
'स्वभावोक्ति अलंकार' कहते है।
यहाँ सादगी में चमत्कार रहता हैं।
उदाहरण- चितवनि भोरे भाय की, गोरे मुख मुसकानि। लगनि लटकि आली गरे, चित खटकति नित आनि। नायक नायिका की सखी से कहता है कि उस नायिका की वह भोलेपन की चितवन, वह गोरे मुख की हँसी और वह लटक-लटककर सखी के गले लिपटना- ये चेष्टाएँ नित्य मेरे चित्त में खटका करती हैं।
यहाँ नायिका के जिन आंगिक व्यापारों का चित्रण हुआ है, वे सभी स्वाभाविक हैं।
कहीं भी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया गया।
इसमें वस्तु, दृश्य अथवा व्यक्ति की अवस्थाओं या स्थितियों का यथार्थ अंकन हुआ है।
(13) सन्देह:- उपमेय में जब उपमान का संशय हो तब उसे संदेह अलंकार कहते हैं।
जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति को देख कर संशय बना रहें, निश्चय न हो वहाँ सन्देह अलंकार होता है।
इस अलंकार में तीन बातों का होना आवश्यक है-
(क) विषय का अनिश्चित ज्ञान।
(ख) यह अनिश्चित समानता पर निर्भर हो।
(ग) अनिश्चय का चमत्कारपूर्ण वर्णन हो।
जैसे:- यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया। -साकेत
दुबली-पतली उर्मिला को देख कर लक्ष्मण यह निश्चय नहीं कर सके कि यह उर्मिला की काया है या उसका शरीर। यहाँ सन्देह बना है।
कुछ अन्य उदाहरण:
(a)विरह है अथवा यह वरदान !
(b)है उदित पूर्णेन्दु वह अथवा किसी कामिनी के वदन की छिटकी छटा ? मिट गया संदेह क्षण भर बाद ही पान कर संगीत की स्वर माधुरी।
(14) मालोपमा :- यदि एक वस्तु की अनेक वस्तुओं से उपमा दी जाय तो उसे मालोपमा कहते हैं।
(मालोपमा यदेकस्योपमानं बहु दृश्यते- विश्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।
'मालोपमा'= माला +उपमा अर्थात जहाँ उपमा की माला ही बन जाय।
उदाहरण- सिंहनी-सी काननों में, योगिनी-सी शैलों में, शफरी-सी जल में, विहंगिनी-सी व्योम में, जाती अभी और उन्हें खोजकर लाती मैं।
-मैथलीशरण गुप्त एक यशोधरा के लिए सिंहनी, योगिनी, शफरी तथा विहंगिनी- चार उपमान प्रस्तुत किये गये हैं। यहाँ उपमा की माला ही बन गयी है,
अतः 'मालोपमा' अलंकार है।
(15) अनन्वय :- एक ही वस्तु को उपमेय और उपमान- दोनों बना देना 'अनन्वय' अलंकार कहलाता है :
(एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वय:- वामन: काव्यालंकारसूत्र)।
जब कवि को उपमेय की समता के लिए कोई दूसरा उपमान नहीं मिलता तो वह उपमेय की समता के लिए उपमेय को ही उपमान बना डालता है।
यथा- निरुपम न उपमा आन राम
समानु राम, निगम कहे।
-तुलसीदास यहाँ 'राम समानु राम' में उपमेय-उपमान एक ही रहने के कारण अनन्वय अलंकार है।
(16) प्रतीप :- प्रसिद्ध उपमान को उपमेय बना देना 'प्रतीप' अलंकार कहलाता है।
'प्रतीप' का अर्थ है 'उलटा'।
मुख के लिए प्रसिद्ध उपमान चाँद है।
यदि चाँद को ही उपमेय बनाकर मुख से समता दिखायी जाय तो 'प्रतीप' अलंकार हो जाएगा।
- बिदा किये बहु विनय करि, फिरे पाइ मनकाम।
उतरि नहाये जमुन-जल, जो शरीर सम स्याम।। -तुलसीदास श्यामल शरीर की उपमा यमुना के नीले जल से दी जाती रही है, किन्तु यहाँ श्रीराम के श्यामल शरीर की तरह यमुना का जल बताया गया है, इसलिए यहाँ 'प्रतीप' अलंकार है।
(17) भ्रांतिमान् :- सादृश्य के कारण प्रस्तुत वस्तु मे अप्रस्तुत वस्तु के निश्चयात्मक ज्ञान को भ्रांतिमान् कहते हैं :
(सादृश्याद् वस्त्वन्तरप्रतीति: भ्रान्तिमान्-
रुय्यक : अलंकारसर्वस्व) ।
वस्तुतः दो वस्तुओं में इतना सादृश्य रहता है कि स्वाभाविक रूप से भ्रम हो जाता है, एक वस्तु दूसरी वस्तु समझ ली जाती है।
जैसे पायँ महावर दैन को, नाइन बैठी आय। फिरि-फिरि जानि महावरी, ऐंड़ी मींड़ति जाय।। -बिहारी नाइन नायिका की एड़ी को अत्यन्त लाली के कारण महावर की गोली समझकर बार-बार उसी को (एड़ी को) मलती जाती है।
अतः यहाँ 'भ्रान्तिमान' अलंकार है।
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(18) अपह्नुति :- उपमेय का निषेध करके उपमान के स्थापन को 'अपह्नुति' अलंकार कहते हैं। दूसरे शब्दों में- उपमेय पर उपमान का निषेध-रहित आरोप अपह्नुति अलंकार कहा जाता है। 'अपह्नुति' का अर्थ है 'छिपाना'।
यदि कहें कि 'यह मुख नहीं, चंद्र है' तो अपह्नुति हो जाएगी : (प्रकृतं प्रतिषिध्यान्यस्थापनं स्यादपहुति:- विश्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।
इस अलंकार में न, नहीं आदि निषेधवाचक अव्ययों की सहायता से उपमेय का निषेध कर उसमें उपमान का आरोप करते हैं।
जैसे:-नहिं पलास के पुहुप ये, हैं ये जरत अँगार।
यहाँ पलाश-पुष्प का निषेध कर जलते अंगार की स्थापना की गयी है, इसलिए 'अपह्नुति' अलंकार है। अन्य उदाहरण-
(a) नये सरोज, उरोज न थे, मंजुमीन, नहिं नैन।
कलित कलाधर, बदन नहिं मदनबान, नहिं सैन।।
यहाँ पहले उपमान का आरोप है, फिर उपमेय का निषेध।
(b) यह चेहरा नहीं गुलाब का ताजा फूल है।
अपह्नुति के मुख्यतः दो भेद हैं-
(क) शाब्दी अपह्नुति - जहाँ शब्दशः निषेध किया जाय।
(ख) आर्थी अपह्नुति- जहाँ छल, बहाना आदि के द्वारा निषेध किया जाय।
(19) दीपक :- जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत में एकधर्मसंबंध वर्णित हो वहाँ दीपक अलंकार होता है (प्रस्तुताप्रस्तुतयोदींपकंतु निगद्यते-विश्वनाथ : साहित्यदर्पण) ।
जिस प्रकार दीपक जलकर घर-बाहर सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, उसी प्रकार दीपक अलंकार निकटस्थ पदार्थों एवं दूरस्थ पदार्थों का एकधर्म-संबंध वर्णित करता है।
सुर महिसुर हरिजन अस गाई।
हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।।
-तुलसीदास यहाँ महिसुर एक प्रस्तुत तथा सुर, हरिजन तथा गाय अनेक प्रस्तुतों का 'सुराई' रूप एकधर्म-संबंध वर्णित हुआ है, इसलिए 'दीपक' अलंकार है।
(20) तुल्योगिता :- जहाँ अनेक प्रस्तुतों अथवा अप्रस्तुतों का एकधर्म-सम्बन्ध वर्णित हो वहाँ 'तुल्योगिता' अलंकार होता है।
साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ ने लिखा है-
पदार्थानां प्रस्तुतानाम् अन्येषां वा यदा भवेत्।
एकधर्माभिसम्बन्ध: स्यात्तदा तुल्ययोगिता।।
तुल्ययोगिता में तुल्यों अथवा समानों का योग किया जाता है। इसमें प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों दो असमानों का योग नहीं होता।
रूप-सुधा-आसव छक्यो, आसव पियत बनै न। प्याले ओठ, प्रिया-बदन, रह्मो लगाए नैन।।
-अज्ञात 'प्याले का ओठ' तथा 'नयन का प्रिया-बदन'-दोनों प्रस्तुतों का एकधर्म 'लगाए रह्मो' से संबंध वर्णित होना 'तुल्योगिता' अलंकार है।
(21) निदर्शना :- जहाँ वस्तुओं का पारस्परिक संबंध संभव अथवा असंभव होकर सदृशता का आधान करे, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है। विश्वनाथ ने कहा
सम्भवन वस्तुसम्बन्धोऽसम्भवन् वाऽपि कुत्रचित्।
यत्र बिम्बानुबिम्बत्वं बोधयेत् सा निदर्शना।।
उदाहरण- सुनु खगेस हरि भगति बिहाई।
जे सुख चाहहिं आन उपाई।
ते सठ महासिंधु बिन तरनी।
पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।।
महासिंधु का तैर कर पार जाना जिस प्रकार असंभव है उसी प्रकार हरि भक्ति के बिना सुख पाना भी असंभव है। यहाँ दो वाक्यों का सादृश्य दिलाया गया है, इसलिए 'निदर्शना' अलंकार है।
(22) समासोक्त:- जहाँ प्रस्तुत के वर्णन में अप्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है।
(प्रस्तुतादप्रस्तुतप्रतीति: समासोक्ति- साहित्यदर्पण)। समासोक्ति का अर्थ है- संक्षेपकथन।
प्रस्तुत का वर्णन हो और अप्रस्तुत की प्रतीति हो- यही संक्षेपकथन है।
यह संक्षेपकथन विशेषण, लिंग तथा कार्य के साम्य के आधार पर हो सकता है।
उदाहरण- जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला।
रे कब से जाग रही वह आँसू की नीरव माला।
पीली पर निर्बल कोमल कृश देहलता कुम्हलाई।
विवसना लाज में लिपटी साँसों में शून्य समाई।। -सुमित्रानंदन पंत यहाँ लिंगसाम्य के कारण निष्प्रभ चाँदनी के वर्णन से बीमार बालिका की प्रतीति हो रही है, अतः यहाँ 'समासोक्ति' अलंकार है।
(23) अप्रस्तुतप्रशंसा :- जहाँ अप्रस्तुत के वर्णन में प्रस्तुत की प्रतीति हो, वहाँ 'अप्रस्तुतप्रशंसा' अलंकार होता है ।
(अप्रस्तुतात् प्रस्तुत-प्रतीति: अप्रस्तुतप्रशंसो)।
अप्रस्तुत प्रशंसा का अर्थ है- अप्रस्तुत कथन।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित विनीत, सरल हो।
यहाँ अपस्तुत सर्प के विशेष वर्णन से सामान्य अर्थ की प्रतीति होती है कि शक्तिशाली पुरुष को ही क्षमादान शोभता है। यहाँ ' अप्रस्तुतप्रशंसा' है।
(24) विभावना:- कारण के अभाव में जहाँ कार्योत्पत्ति का वर्णन किया जाय वहाँ 'विभावना' अलंकार है (विभावना विना हेतुं कार्योत्पत्तिर्यदुच्यते- विश्वनाथ : साहित्यदर्पण) । 'विभावना' का अर्थ है विशिष्ट कल्पना (वि=विशिष्ट, भावना=भावना)।
जबतक कोई कारण नहीं हो तबतक कार्य नहीं होता। बिना कारण के कार्य होना विशिष्ट कल्पना नहीं तो और क्या है ? बिनु पद चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु कर्म करै बिधि नाना।।
आनन रहित सकल रसभोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी।।
यहाँ पैर (कारण) के अभाव में चलना (कार्य), हाथ (कारण) के अभाव में करना (कार्य), मुख (कारण) के अभाव में रसभोग (कार्य) आदि वर्णित किये गये हैं, इसलिए 'विभावना' अलंकार है।
(25) विशेषोक्ति :- कारण के रहते हुए कार्य का न होना 'विशेषोक्ति' अलंकार है (सति हेतौ फलाभाव: विशेषोक्तिर्निगद्यते- विश्वनाथ : साहित्य-दर्पण) ।
'विशेषोक्ति' का अर्थ है 'विशेष उक्ति'।
कारण के रहने पर कार्य होता है, किंतु कारण के रहने पर भी कार्य न होने में ही विशेष उक्ति है।
सोवत जागत सपन बस, रस रिस चैन कुचैन। सुरति श्याम घन की सुरति, बिसराये बिसरै न।। यहाँ भुलाने के साधनों (कारणों) के होने पर भी न भुला पाने (कार्य न होने) में 'विशेषोक्त' अलंकार है।
(26) असंगति :- जहाँ कारण कहीं और कार्य कहीं होने का वर्णन किया जाय वहाँ 'असंगति' अलंकार होता है (कार्यकारणयोर्भित्रदेशतायामसंगति:- साहित्यदर्पण)
'असंगति' का अर्थ होता है- नहीं संगति।
जहाँ कारण होता है, कार्य वहीं होना चाहिए।
चोट पाँव में लगे, तो दर्द वहीं होना चाहिए।
कारण कहीं, कार्य कहीं; चोट पाँव में लगे और दर्द सर में हो, तो यह असंगति हुई।
- तुमने पैरों में लगाई मेंहदी मेरी आँखों में समाई मेंहदी।
-अज्ञात मेंहदी लगाने का काम पाँव में हुआ, किंतु उसका परिणाम आँखों में दृष्टिगत हो रहा है।
इसलिए यहाँ 'असंगति' अलंकार है।
(27) परिसंख्या :-एक वस्तु की अनेकत्र संभावना होने पर भी, उसका अन्यत्र निषेध कर, एक स्थान में नियमन 'परिसंख्या' अलंकार कहलाता है (एकस्यानेकत्रप्राप्तावेकत्रनियमनं परिसंख्या)- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व) ।
परिसंख्या (परि + संख्या) में 'परि' वर्जनार्थ अव्यय है तथा 'संख्या' का अर्थ है 'बुद्धि' ।
इस प्रकार 'परिसंख्या' का अर्थ हुआ- वर्जन-बुद्धि, अर्थात किसी वस्तु का निषेध।
कोई वस्तु दूसरी जगहों में भी पायी जा सकती है, उसी का निषेध कर एक स्थान में नियमन परिसंख्या है।
'दण्ड'जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
ज़ीतौ मनसिज सुनिय अस रामचंद्र के राज।।
'दण्ड', 'भेद', 'जीत' का अन्य जगहों से निषेध कर 'जतिनकर', 'नर्तक नृत्य समाज' 'मनसिज' में नियमन करना परिसंख्या है।
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(3)उभयालंकार:- जो अलंकार शब्द और अर्थ दोनों पर आश्रित रहकर दोनों को चमत्कृत करते है, वे 'उभयालंकार' कहलाते है।
उदाहरण- 'कजरारी अंखियन में कजरारी न लखाय।' इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है।
उभयालंकार दो प्रकार के होते हैं-
(1) संसृष्टि - तिल-तण्डुल-न्याय से परस्पर-निरपेक्ष अनेक अलंकारों की स्थिति 'संसृष्टि' अलंकार है
(एषां तिलतण्डुल न्यायेन मिश्रत्वे संसृष्टि:- रुय्यक : अलंकारसर्वस्व)।
जैसे- तिल और तण्डुल (चावल) मिलकर भी पृथक् दिखाई पड़ते हैं, उसी प्रकार संसृष्टि अलंकार में कई अलंकार मिले रहते हैं, किन्तु उनकी पहचान में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती।
संसृष्टि में कई शब्दालंकार, कई अर्थालंकार अथवा कई शब्दालंकार और अर्थालंकार एक साथ रह सकते हैं।
दो अर्थालंकारों की संसृष्टि का उदाहरण लें-
भूपति भवनु सुभायँ सुहावा।
सुरपति सदनु न परतर पावा।
मनिमय रचित चारु चौबारे।
जनु रतिपति निज हाथ सँवारे।।
प्रथम दो चरणों में प्रतीप अलंकार है तथा बाद के दो चरणों में उत्प्रेक्षा अलंकार।
अतः यहाँ प्रतीप और उत्प्रेक्षा की संसृष्टि है।
(2) संकर - नीर-क्षीर-न्याय से परस्पर मिश्रित अलंकार 'संकर' अलंकार कहलाता है।
(क्षीर-नीर न्यायेन तु संकर:- रुय्यक
जैसे- नीर-क्षीर अर्थात पानी और दूध मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही संकर अलंकार में कई अलंकार इस प्रकार मिल जाते हैं जिनका पृथक्क़रण संभव नहीं होता।
उदाहरण- सठ सुधरहिं सत संगति पाई।
पारस-परस कुधातु सुहाई। (तुलसी)
'पारस-परस' में अनुप्रास तथा यमक- दोनों अलंकार इस प्रकार मिले हैं कि पृथक करना संभव नहीं है, इसलिए यहाँ 'संकर' अलंकार है।
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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
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