शनिवार, 18 मई 2024

"कण्हा पूजा" की प्राचीनता और उसकी उत्पत्ति-

कराह पूजा- शब्द जो आज पूर्वाञ्चल और बिहार आदि के जन-समुदाय  में प्रचलित है।  
वह व्रज की प्राचीन  गोप संस्कृति से सम्बन्धित पृथा है। कराह शब्द अपने मूल रूप में कृष्ण ही रूपान्तरण है।
दर असल इसका विकास क्रम कई चरणों से होकर गुजरता है।  कृष्ण वैदिक शब्द है जो जलवायु और स्थान विशेष के प्रभाव से कहीं प्राकृत भाषाओं में कण्ह
हुआ तो कहीं कन्ह भी हुआ है।  
इस प्रक्रिया में कृष्ण से कण्ह और कन्ह" रूप बनने के क्रम में वर्ण विपर्यय हुआ है।
एक वर्ण का दूसरे वर्ण के स्थान पर और दूसरे का पहले वर्ण के स्थान पर होना ही वर्ण विपर्यय है। 

प्राकृत भाषाओं (ऋ ) वर्ण प्राय:  विलुप्त हुआ है  । परन्तु मराठी और शौरसेनी प्राकृत में यह वर्ण कहीं-कहीं विद्यमान भी रहा है।

मराठी में कृष्ण के तीन रूप देखने को मिलते हैं। 

१- (कण्ह , कराह तथा कान्ह(खान ) व्रज की उपभाषाओं में कृष्ण का एक और रूप किशन भी विकसित हुआ ।
 नीचे कृष्ण से कराह (कण्हा) बनने के  जिनके ऐतिहासिक सन्दर्भ प्रस्तुत हैं।

कृष्ण नाम से विकसित कान्ह तथा खान शब्द
खानदेश (कान्ह-देश) के मूल में समाविष्ट हैं। खान देश -महाराष्ट्र के दक्षिणी पठार के उत्तरी-पश्चिमी कोने पर स्थित प्रसिद्ध ऐतिहासिक क्षेत्र है जो मुंबई से लगभग 300 किमी उत्तरपश्चिम में स्थित है। जिसमें प्राचीन काल में कभी आभीर जन बहुतायत से विद्यमान रहा करते थे। और वे आज भी बहुतायत से विद्यमान  हैं।

अंग्रेज़ी प्रभाव से भी तथा इससे भी पूर्व कृष्ण शब्द प्राकृत भाषाओं में "कण्ह" अवतार में आया।

जब "कण्हा- पर अंग्रेज़ी प्रभाव पढ़ा तो यही शब्द कराह" बन गया क्योंकि  "कण्हा शब्द में  टवर्गीय अनुनासिक वर्ण कहीं (न) वर्ण के रूप में उच्चारण हुआ तो कहीं (ड़) उत्क्षिप्त वर्ण के संक्रमण से (र) वर्ण के  रूप में भी उच्चारण हुआ।

मराठी में " कण्ह " का अनुवाद - हिन्दी शब्दकोश में कराह ही  है।

उदाहरण

एक दिन आधी रात को अपने पिता के कराहने की आवाज़ सुनकर मेरी नींद टूट गयी।
मराठी अनुवाद-
मध्यरात्री बाबा पुन्हा कण्हू लागले तेव्हा मला जाग आली

जैनों के प्राकृत भाषाओं के ग्रन्थों में कृष्ण का रूप कण्ह ही है।
यही कण्ह शब्द कन्हैया और कान्हा आदि रूपों में ब्रज भाषाओं में प्रचलित है।

कृष्ण ने इन्द्र पूजा को गोप संस्कृति से सदैव के लिए बन्द कराकर नयी  परम्परा गो- महिषी" वन और पर्वत की पूजा का सूत्रपात किया । 

जिस इन्द्र पूजा में  सदीयों से अनेक पशुओं की  हत्या करके  बलि चढ़ाई जाती थी पशुओं का कत्ले-आम होता था । कृष्ण ने उसी इन्द्र की पूजा को सदैव के लिए बन्द कराकर पशुओं की पूजा करने का विधान बनाकर प्रकृति ,पर्वत ( गोवर्धन) और पशु पक्षीओ को संरक्षण करने का संदेश समाज को दिया।

गोवर्धन पूजा के अवसर पर पशुओं की पूजा का भारत के इतिहास में यह पहला विधान श्रीकृष्ण ने ही किया। 
क्योंकि जो पशु हम्हारे लिए जीवन जीने का सहारा बने। जिनके दूध , दही और घी, मट्ठा( (मस्तु:) आदि से हमारे शरीर का पोषण होता है।
वे नि:सन्देह हमारे लिए पूज्य ही हैं।

इसी उपक्रम में अब हम यह बताऐंगे कि पृथ्वी पर गोप (यादव ) समाज में  गोवर्धन पूजा (गिरिपूजा) के साथ साथ कृष्ण (कण्ह) पूजा का प्रारम्भ कब हुआ ?

कण्ह पूजा में पशुओं के पूजा सम्मान का प्रदर्शन आज भी अवशेष है।

कण्हा पूजा के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए हम गोवर्धन पूजा की उत्पत्ति का पौराणिक एवं शास्त्रीय विश्लेषण कराह पूजा की पृष्ठ-भूमि  प्रस्तुत करते हैं।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व:  पन्द्रहवाँ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद देखें 
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इन्द्रोत्‍सव के विषय में श्रीकृष्ण की जिज्ञासा तथा एक वृद्ध गोप के द्वारा उसकी आवश्‍यकता का प्रतिपादन करना-

श्रीकृष्णेन गिरियज्ञ एवं गोपूजनस्य प्रस्तावं, शरद् ऋतु वर्णनम्

               "षोडशोऽध्यायः:

              "वैशम्पायन उवाच
गोपवृद्धस्य वचनं श्रुत्वा शक्रपरिग्रहे ।
प्रभावज्ञोऽपि शक्रस्य वाक्यं दामोदरोऽब्रवीत् ।१।

वयं वनचरा गोपाः सदा गोधनजीविनः ।
गावोऽस्मद्दैवतं विद्धि गिरयश्च वनानि च ।२।

कर्षुकाणां कृषिर्वृत्तिः पण्यं विपणिजीविनाम्।
गावोऽस्माकं परा वृत्तिरेतत् त्रैविद्यमुच्यते ।३।

विद्यया यो यया युक्तस्तस्य सा दैवतं परम्।
सैव पूज्यार्चनीया च सैव तस्योपकारिणी ।४।

****
योऽन्यस्य फलमश्नानः करोत्यन्यस्य सत्क्रियाम्।
द्वावनर्थौ स लभते प्रेत्य चेह च मानवः ।।५।।
कृष्यन्ता प्रथिता सीमा सीमान्तं श्रूयते वनम्।
वनान्ता गिरयः सर्वे ते चास्माकं गतिर्ध्रुवा ।६ ।


मन्त्रयज्ञपरा विप्राः सीतायज्ञाश्च कर्षुकाः ।
गिरियज्ञास्तथा गोपा इज्योऽस्माभिर्गिरिर्वने ।। 2.16.१०।
तन्मह्यं रोचते गोपा गिरियज्ञः प्रवर्तताम् ।
कर्म कृत्वा सुखस्थाने पादपेष्वथवा गिरौ ।११।

********
तत्र आहृत्वा पशून् मधि  इयान् वितत्यायतने शुभे।
सर्वघोषस्य संदोहः क्रियतां किं विचार्यते ।१२।


तं शरत्कुसुमापीडाः परिवार्य प्रदक्षिणम् ।
गावो गिरिवरं सर्वास्ततो यान्तु पुनर्व्रजम् ।।१३।।

प्राप्ता किलेयं हि गवां स्वादुतोयतृणा गुणैः ।
शरत् प्रमुदिता रम्या गतमेघजलाशया ।१४।

प्रियकैः पुष्पितैर्गौरं श्याम बाणासनैः क्वचित् ।
कठोरतृणमाभाति निर्मयूररुतं वनम् ।। १५ ।।


कारयिष्यामि गोयज्ञं बलादपि न संशयः ।
यद्यस्ति मयि वः प्रीतिर्यदि वा सुहृदो वयम् ।
गावो हि पूज्याः सततं सर्वेषां नात्र संशयः ।४५।


यदि साम्ना भवेत् प्रीतिर्भवतां वैभवाय च ।
एतन्मम वचस्तथ्यं क्रियतामविचारितम्।४६ ।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि शरद्वर्णने षोडशोऽध्यायः ।। १६ ।।

अनुवाद:-
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के इस प्रकार बाललीला में प्रवृत्त होकर वन में विचरते हुए वर्षा के दो मास महीने) व्‍यतीत हो गये।
______
एक दिन जब वे दोनों वीर अहीर व्रज (गोकुल - गायों और गोपों का स्थान) में आये, तब उन्होंने सुना कि इन्द्रयज्ञ के उत्‍सव का समय आ गया है
और समस्‍त गोप उस उत्‍सव को देखने के लिये लालायित हैं।

 तब श्रीकृष्ण ने कौतूहल वश उन गोपों से यह बात पूछी- यह इन्द्रयोग का उत्‍सव क्‍या है ? 

जिससे तुम लोगों को इतना हर्ष हो रहा है। उनके इस प्रकार पूछने पर उन गोपों में सबसे बड़े-बूढ़े एक गोप ने इस प्रकार कहा- तात ! सुनो, हमारे यहाँ इन्द्र के ध्‍वज की पूजा किसलिये की जाती है, यह बताता हूँ।

शत्रुदमन कृष्ण ! देवताओं और मेघों के स्‍वामी देवराज इन्द्र हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत के सनातन रक्षक हैं। उन्हीं का यह उत्‍सव मनाया जाता है। 

उन्हीं से प्रेरित हो उन्हीं के आयुध (इन्द्रधनुष) से विभूषित हुए मेघ उनकी ही आज्ञा का पालन करते हुए नूतन जल की वर्षा करके खेती को उपजाते हैं।

अनेक नामों से विभूषित भगवान पुरन्दर (इन्द्र) मेघ और जल के दाता हैं। वे प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत को तृप्‍त करते हैं।

उनके द्वारा सम्पन्न की हुई खेती से जो अन्न पैदा होता है, उसी को हम तथा दूसरे मनुष्य खाते हैं, उसी का धर्म के कार्य में भी उपयोग करते हैं। इस संसार में जब इन्द्रदेव वर्षा करते हैं, अब उसी से खेती की उपज बढ़ती है।

वर्षा से ही पृथ्‍वी के तृप्‍त होने पर सम्पूर्ण जगत सजल दिखायी देता है। तात! उस वर्षा से बढ़ी हुई घासों द्वारा ही सांड़ों सहित ये गौएं हष्ट-पुष्ट होकर बछड़े देती और बछड़े देने वाली होती हैं। 

श्रीकृष्ण ! इसीलिये यह वर्षा-ऋतु भूतल पर इन्द्रदेव की पूजा का समय है; अतएव समस्‍त राजा वर्षा-ऋतु में बड़ी प्रसन्नता के साथ नाना प्रकार के उत्‍सवों द्वारा देवराज की पूजा करते हैं। 

हम तथा दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही करते हैं।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णुपर्व में श्रीकृष्ण की बाललीला के प्रसंग में गोप का वाक्‍यविषयक पन्द्रहवां अध्‍याय सन्दर्भित है।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सोलहवाँ अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद:-

श्रीकृष्‍ण के द्वारा गोपों को  गिरियज्ञ (गोवर्धन पर्वत) एवं गो ,महिषी आदि के पूजन का प्रस्‍ताव करते हुए शरद्-ऋतु का वर्णन करना-

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इन्‍द्र-महोत्‍सव को स्‍वीकार करने के सम्‍बन्‍ध में उस बड़े-बूढ़े गोप का वचन सुनकर इन्द्र के प्रभाव को जानते हुए भी श्रीकृष्‍ण ने यह बात कही-
'आर्य !  हम लोग वन में रहने वाले गोप हैं।
और सदा गोधन( दूध दही मस्तु:( मट्ठा) घी आदि से अपनी जीविका चलाते हैं; अत: आपको मालूम होना चाहिये कि गौएं, पर्वत और वन- ये ही हमारे देवता हैं। न कि कोई इन्द्र हमारा देवता है।

किसानों की जीविका-वृत्ति है खरीद-विक्री और हम लोगों की सर्वोत्तम वृत्ति है गौओं का पालन।
ये वार्ता रूप विद्या के तीन भेद कहलाते हैं। जो जिस विद्या से युक्‍त है, उसके लिये वही सर्वोत्तम उसका देवता है, वही पूजा-अर्चा के योग्‍य है और वही उसके लिये उपकारिणी भी है। 
************
जो मनुष्‍य एक व्‍यक्ति से फल पाकर उसे भोगता है और दूसरे व्यक्ति की पूजा (आदर-सत्‍कार) करता है, वह इस लोक और परलोक में दो अनर्थों का भागी होता है। 

जहां-तक खेती होती है, वहाँ तक व्रज की सीमा विख्‍यात है। 

व्रज शब्द ग्राम ( गाँव ) के अर्थ नें रूढ़ होकर कृषकों (कृषाणों ) का विश्राम और श्रम स्थान बन गये सही पूछा जाय तो कृषाणों ( किसानों ) के आश्रम ही सामूहिक रूप में गाँव थे ।
जहाँ बहुतायत से पशुओं के लिए घास आदि की व्यवस्था होती थी। स्वयं ग्राम शब्द (ग्रस् + मन्) धातु प्रत्यय का यौगिक रूप है। जिसमें पूर्व ही ग्रास ( घास ) पशुओं के भोजन के अर्थ की प्रतीति होती है।

यूरोपीय भाषाओं में गाँव का वाचक विलेज (village) हो गया है। भारत की
प्राकृत, अपभ्रंश, तथा पैशाची भाषाओं में वैदिक भाषा का यह व्रज शब्द ( गायों का बाड़ा) बिलज बन गया है। यूरोपीय भाषाओं में भी वैदिक व्रज का विलेज होने का  प्रभाव दिखाई देता है।

"in Old French is vilage mean "houses and other buildings in a group" (usually smaller than a town), from Latin villaticum "farmstead"
पुरानी फ़्रेंच में गाँव का अर्थ है "एक समूह में घर और अन्य इमारतें" (आमतौर पर एक शहर से छोटी), लैटिन विलाटिकम "फ़ार्मस्टेड" से

आगे कृष्ण गोपों को वन की महिमा बताते
हुए कहते हैं। 

सीमा के अन्‍त में वन सुना जाता है और "वन" के अन्‍त में समस्‍त पर्वत हैं। वे पर्वत ही हमारे अविचल आश्रय (निवास) हैं। 
कृष्ण इस ऐतिहासिक तथ्य का संकेत करते हैं कि मनुष्य सभ्यता के आदिम चरण में पर्वतों की गुहाओं में निवास करता था। शाला और शिला जैसे शब्द व्युत्पन्न मूलक समताओं को आत्म सात किए हुए हैं।

जब वन के आश्रय में रहकर जीवन निर्वाह करने वाले लोग इन वनों या वन देवताओं को हानि पहुँचाते हैं, तब वे इच्छा के अनुसार रूप धारण करने वाले देवता राक्षसोचित हिंसा-कर्म के द्वारा उन दुराचारी मनुष्‍यों को निश्चय ही मार डालते हैं। 

ब्राह्मण लोग मन्‍त्र यज्ञ में तत्‍पर रहते हैं, किसान सीतायज्ञ ( हल- चालन) करते हैं ।

अर्थात खेतों को अच्‍छी तरह जोतते हैं और हल जोतने से जो रेखा बन जाती है, उसकी तथा हल की पूजा कृषक लोग करते हैं और समस्त गोपगण गिरियज्ञ करते हैं;।

इसलिए हम लोगों को इस वन में गिरियज्ञ करना चाहिये। गोपगण ! 

मुझे तो यही अच्‍छा लगता है कि गिरियज्ञ का आरम्‍भ हो। स्‍वस्तिवाचन आदि कर्म करके वृक्षों के नीचे अथवा पर्वत के समीप किसी सुखद स्‍थान पर पवित्र पशुओं को एकत्र करके उनके पास जाकर उनका विस्‍तारपूर्वक पूजन किया जाय।।

और एक शुभ मन्दिर में सारे व्रज के दूध का संग्रह कर लिया जाय। 
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इस विषय में आप लोग क्‍या विचार कर रहे हैं। फिर शरद्-ऋतु के फूलों से जिनके मस्‍तक का श्रृंगार किया गया हो ऐसी समस्‍त गौएं  गोवर्धन की दक्षिणावर्त परिक्रमा करके पुन: व्रज ( गायों का बाड़ा) में ले जायीं जायँ। 

इस समय प्रमोद पूर्ण रमणीय शरद्-ऋतु आ गयी है, जबकि जल और घास गौओं के लिये स्‍वादुता के गुणों से सम्‍पन्‍न जाते हैं।

वह गोवर्धन पर्वत ही हमारा देवता है। हम उसकी तथा इन गौओं की विशेष रूप से पूजा करें। गायों के सीगों में मुकुट और मोर पंख के समान बने हुए आभूषण बांधे जायँ।

उनके गले में बड़ी घंटियाँ लटका दी जायँ और व्रज के कल्‍याण के लिये शरद् में सुलभ होने वाले पुष्‍पों द्वारा गौओं की पूजा की जाय।

साथ ही ‘गिरियज्ञ’ आरम्‍भ कर दिया जाय। देवता लोग 'इन्‍द्र' की पूजा करें और हम गोप लोग गिरिराज गोवर्धन की पूजा करेंगे।

यदि आप लोगों का मुझ पर प्रेम है और यदि हम लोग एक-दूसरे के हितैषी सुहृद हैं तो मैं आपके द्वारा इन्द्र पूजा के विपरीत हठ एवं बलपूर्वक गोयज्ञ (गो-महिषी) आदि की पूजा कराऊँगा।

गौएं सदा ही सबके लिये पूजनीय हैं- इसमें संशय नहीं है। यदि मेरे ही वैभव (अभ्‍युदय) के लिये मेरी इस सच्‍ची बात को बिना विचारे मान लें और इसके अनुसार कार्य करें तो निश्चय ही महान कल्याण होगा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में सोलहवां अध्‍याय 

श्रीकृष्णेन गिरियज्ञ एवं गोपूजनस्य प्रस्तावं, शरद् ऋतु वर्णनम्

सप्तदशोऽध्यायः ( सत्रहवाँ अध्याय )

           "वैशम्पायन उवाच"
दामोदरवचः श्रुत्वा हृष्टास्ते गोषु जीविनः ।
तद्वागमृतमासाद्य प्रत्यूचुरविशङ्कया ।१।

तवैषा बाल महती गोपानां हितवर्द्धिनी ।
प्रीणयत्येव नः सर्वान् बुद्धिर्वृद्धिकरी गवाम् ।२।

त्वं गतिस्त्वं रतिश्चैव त्वं वेत्ता त्वं परायणम् ।
भयेष्वभयदस्त्वं नस्त्वमेव सुहृदां सुहृत् ।३।

त्वत्कृते कृष्ण घोषोऽयं क्षेमी मुदितगोकुलः ।
कृत्स्नो वसति शान्तारिर्यथा स्वर्गं गतस्तथा ।४।

जन्मप्रभृति कर्मैतद् देवैरसुकरं भुवि ।
बोद्धव्याश्चाभिमानाच्च विस्मितानि मनांसि नः।५।

बलेन च परार्ध्येन यशसा विक्रमेण च ।
उत्तमस्त्वं मनुष्येषु देवेष्विव पुरंदरः । ६ ।

प्रतापेन च तीक्ष्णेन दीप्त्या पूर्णतयापि च ।
उत्तमस्त्वं च मर्त्येषु देवेष्विव दिवाकरः । ७ ।

कान्त्या लक्ष्म्या प्रसादेन वदनेन स्मितेन च ।
उत्तमस्त्वं च मर्त्येषु देवेष्विव निशाकरः । ८ ।

बलेन वपुषा चैव बाल्येन चरितेन च ।
स्यात्ते शक्तिधरस्तुल्यो न तु कश्चन मानुषः ।९ ।

यत् त्वयाभिहितं वाक्यं गिरियज्ञं प्रति प्रभो ।
कस्तल्लङ्घयितुं शक्तो वेलामिव महोदधिः । 2.17.१० ।

स्थितः शक्रमहस्तात श्रीमान् गिरिमहस्त्वयम् ।
त्वत्प्रणीतोऽद्य गोपानां गवां हेतोः प्रवर्त्यताम् ।११।
भाजनान्युपकल्प्यन्तां पयसः पेशलानि च ।
कुम्भाश्च विनिवेश्यन्तामुदपानेषु शोभनाः ।१२।

पूर्यन्तां पयसा नद्यो द्रोण्यश्च विपुलायताः ।
भक्ष्यं भोज्यं च पेयं च तत्सर्वमुपनीयताम् । १३

भाजनानि च मांसस्य न्यस्यन्तामोदनस्य च ।
त्रिरात्रं चैव संदोहः सर्वघोषस्य गृह्यताम् ।१४।

विशस्यन्तां च पशवो भोज्या ये महिषादयः ।
प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।१५।

आनन्दजननो घोषो महान् मुदितगोकुलः ।
तूर्यप्रणादघोषैश्च वृषभाणां च गर्जितैः ।१६ ।

हम्भारवैश्च वत्सानां गोपानां हर्षवर्धनः ।
दध्नो ह्रदो घृतावर्तः पयःकुल्यासमाकुलः ।१७।

मांसराशिः प्रभूताढ्यः प्रकाशौदनपर्वतः।
सम्प्रावर्तत यज्ञोऽस्य गिरेर्गोभिः समाकुलः।
तुष्टगोपजनाकीर्णो गोपनारीमनोहरः।१८।

भक्ष्याणां राशयस्तत्र शतशश्चोपकल्पिताः ।
गन्धमाल्यैश्च विविधैर्धूपैरुच्चावचैस्तथा ।१९ ।

अथाधिशृतपर्यन्ते सम्प्राप्ते यज्ञसंविधौ ।
यज्ञं गिरेस्तिथौ सौम्ये चक्रुर्गोपा द्विजैः सह । 2.17.२० ।


यजनान्ते तदन्नं तु तत् पयो दधि चोत्तमम् ।
मांसं च मायया कृष्णो गिरिर्भूत्वा समश्नुते । २१।

तर्पिताश्चापि विप्राग्र्यास्तुष्टाः सम्पूर्णमानसाः ।
उत्तस्थुः प्रीतमनसः स्वस्ति वाच्यं यथासुखम् ।२२।

भुक्त्वा चावभृथे कृष्णः पयः पीत्वा च कामतः।
संतृप्तोऽस्मीति दिव्येन रूपेण प्रजहास वै।२३।

तं गोपाः पर्वताकारं दिव्यस्रगनुलेपनम् ।
गिरिमूर्ध्नि स्थितं दृष्ट्वा कृष्णं जग्मुः प्रधानतः । २४ ।

भगवानपि तेनैव रूपेणाच्छादितः प्रभुः ।
सहितैः प्रणतो गोपैर्ववन्दात्मानमात्मना ।२५।

तमूचुर्विस्मिता गोपा देवं गिरिवरे स्थितम् ।
भगवंस्त्वद्वशे युक्ता दासाः किं कुर्म किङ्कराः। २६ ।

स उवाच ततो गोपान् गिरिप्रभवया गिरा ।
अद्यप्रभृति चेज्योऽहं गोषु यद्यस्तु वो दया ।२७।

******

अहं वः प्रथमो देवः सर्वकामकरः शुभः ।
मम प्रभावाश्च गवामयुतान्येव भोक्ष्यथ ।२८।

शिवश्च वो भविष्यामि मद्भक्तानां वने वने ।
रंस्ये च सह युष्माभिर्यथा दिविगतस्तथा ।२९ ।

ये चेमे प्रथिता गोपा नन्दगोपपुरोगमाः ।
एषां प्रीतः प्रयच्छामि गोपानां विपुलं धनम् । 2.17.३० ।

पर्याप्नुवन्तु क्षिप्रं मां गावो वत्ससमाकुलाः ।
एवं मम परा प्रीतिर्भविष्यति न संशयः ।३१।

भक्तो नीराजनार्थं हि वृन्दशो गोकुलानि तम् ।
परिवव्रुर्गिरिवरं सवृषाणि समन्ततः ।३२ ।

ता गावः प्रद्रुता हृष्टाः सापीडस्तबकाङ्गदाः ।
सस्रजापीडशृङ्गाग्राः शतशोऽथ सहस्रशः । ३३ ।

अनुजग्मुश्च गोपालाः कालयन्तो धनानि च ।
भक्तिच्छेदानुलिप्ताङ्गा रक्तपीतसिताम्बराः ।३४।

मयूरचित्राङ्गदिनो भुजैः प्रहरणावृतैः ।
मयूरपत्रवृन्तानां केशबन्धैः सुयोजितैः ।। ३५ ।।

बभ्राजुरधिकं गोपाः समवाये तदाद्भुते ।
अन्ये वृषानारुरुहुर्नृत्यन्ति स्म परे मुदा ।। ३६ ।।

गोपालास्त्वपरे गाश्च जगृहुर्वेगगामिनः ।
तस्मिन् पर्यायनिर्वृत्ते गवां नीराजनोत्सवे ।।३७।।

अन्तर्धानं जगामाशु तेन देहेन सोऽचलः ।
कृष्णोऽपि गोपसहितो विवेश व्रजमेव ह ।। ३८ ।।

गिरियज्ञप्रवृत्तेन तेनाश्चर्येण विस्मिताः ।
गोपाः सबालवृद्धा वै तुष्टुवुर्मधुसूदनम् ।। ३९ ।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि गिरियज्ञप्रवर्तने सप्तदशोऽध्यायः।। १७ ।।



हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सत्रहवाँ अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद:-

गोपों द्वारा श्रीकृष्ण की बात को स्वीकार करके उपरान्त गिरियज्ञ( गोवर्धन पर्वत के पूजन का अनुष्ठान तथा भगवान कृष्ण का दिव्यरूप गोवर्धन रूप धारण करके उनकी पूजा ग्रहण करने के पश्चात उन्हें वर देना-

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय ! श्रीकृष्ण की बात सुनकर गौओं पर ही अपनी जीविका निर्भर करने वाले वे गोपगण प्रसन्नतापूर्वक उनके वचनामृत का आस्वादन करके नि:शंक होकर बोले- 'हमारे बाल गोपाल ! तुम्हारी यह बुद्धि- यह विचारधारा महत्त्वपूर्ण होने के साथ ही गोपों के लिये हितकर तथा गौओं की वृद्धि करने वाली है।

यह हम सब लोगों को तृप्ति ही प्रदान करती है। तुम्हीं हमारी गति हो, तुम्हीं रति (आनन्द) हो, तुम्हीं सर्वज्ञ और तुम्हीं हमारे सबसे बड़े आश्रय हो ! भय के अवसरों पर तुम्हीं हमें अभय देने वाले हो तथा तुम्ही हमारे लिये सुहृदों के भी सुहृद हो। श्रीकृष्ण ! तुम्हारे कारण ही यह गोष्ठ सकुशल हैं। यहाँ की गौओं का समुदाय प्रसन्न है । सारे शत्रु शान्त हो गये हैं तथा समस्त व्रज, जैसे स्वर्ग में रह रहा हो, इस तरह यहाँ सुखपूर्वक निवास करता है। जन्म काल से ही तुमने जो यह शकट-भंग और पूतना वध आदि कार्य किया है, यह इस भूतल पर देवताओं के लिये भी सुकर नहीं है।

यह सब देखकर तथा समझ में आने योग्य तुम्हारा जो अभिमानपूर्ण वचन है (कि मैं बलपूर्वक गो-यज्ञ आदि कराउँगा), उस पर ध्‍यान देकर हमारे चित्त चकित हो उठे हैं। तुम अपने पर उत्‍कृष्ट बल, सुयश और पराक्रम द्वारा मनुष्यों में सबसे उत्तम हो। ठीक उसी तरह जैसे देवताओं में इन्द्र सबसे श्रेष्ठ हैं। तुम अपने तीक्ष्ण प्रताप, अनुपम दीप्ति तथा पूर्णता की दृष्टि से भी मनुष्यों में उसी प्रकार सर्वश्रेष्ठ हो, जैसे देवताओं में दिवाकर (सूर्य)। मनोरम कान्ति, शोभा-सम्पत्ति प्रसाद, सुन्दर मुख और मुस्कराहट के कारण भी तुम देवताओं में चंद्रमा की भाँति मनुष्यों में सबसे उत्तम हो। बल, शरीर, बचपन और मनोहर चरित्र की दृष्टि से भी तुम्हारे समान शक्तिशाली मनुष्य दूसरा कोई नहीं है। 

प्रभो ! तुमने गिरियज्ञ के विषय में जो बात कही है, उसका उल्‍लंघन कौन कर सकता है? क्या महासागर कभी तटभूमि को लांघ सका है?

तात! आज से-इन्द्र-याग का उत्‍सव बन्द हो गया। अब यह शोभा सम्पन्न गिरियज्ञ गोवर्धन यज्ञ, जिसे तुमने चालू किया है, गौओं और गोपों के हित के लिये सम्पादित हो।

दूध से भरे हुए सुन्दर-सुन्दर पात्र एकत्र किये जायँ। कुओं पर सुन्दर-सुन्दर घड़े स्थापित किये जायँ। नयी बनायी हुई नहरों तथा बड़े-बड़े कुण्‍डों को दूध से भर दिया जाय।

भक्ष्य-भोज्य और पेय सब कुछ तैयार कर लिया जाय फल के गूदों तथा भात से भरे हुए पात्र रखे जायँ। सारे व्रज का तीन दिनों का सारा दूध संग्रहीत कर लिया जाय। भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उन्हें बड़े आदर के साथ उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस यज्ञ का आरम्भ हो।

फिर तो व्रज में आनन्दजनक महान कोलाहल होने लगा। सारा गोकुल हर्षोल्‍लास में मग्न हो गया। वाद्यों के गम्भीर घोष, सांड़ों की गर्जना और बछड़ों के रँभाने से जो सम्मिलित शब्‍द प्रकट हुआ, वह गोपों का हर्ष बढ़ाने लगा। दही के कुण्‍ड में ऊपर-ऊपर घी छा रहा था। दूध की अनेक नहरें बहनें लगीं। 

फलों के गूदों की बड़ी भारी राशि जमा हो गयी। बहुत-से संस्कारक द्रव्‍य संचित हो गये और उज्ज्वल भातों का पर्वताकार पुंज प्रकाशित होने लगा। इस प्रकार गौओं से भरा हुआ श्रीकृष्ण का गिरियज्ञ चालू हो गया। सन्तुष्ट हुए सभी गोपगण उसमें सम्मिलित होकर आवश्‍यक कार्य करते थे।

गोपागंनाओं ने अपनी उपस्थिति से उस महोत्‍सव को मनोहर बना दिया था।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्‍तदश अध्याय: श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद:-

वहाँ भक्ष्य पदार्थों के सैकड़ों ढ़ेर लगाये गये थे। नाना प्रकार के गन्ध, माल्‍य तथा भाँति-भाँति के धूपों से वह यज्ञ सुशोभित होता था। अग्नि के समीप जो आज्‍यस्‍थाली और चरुस्‍थाली आदि रखी गयी थी, वे उस यज्ञ का विधान आरम्भ होते ही आग पर चढ़ा दी गयी। ब्राह्मणों सहित गोपों ने किसी शुभ तिथि को उस यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया था। यज्ञ के अन्त में श्रीकृष्ण स्‍वयं ही माया से पर्वत के अधिष्ठाता देवता बनकर उस अन्न, दूध, दही और फलों के गूदों को भोग लगाने लगे। 

उस यज्ञ में श्रेष्ठ ब्राह्मणों को अन्न-पान से तृप्‍त और दक्षिणा से संतुष्ट किया गया था। उन सब के मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे सुखपूर्वक स्‍वस्तिवाचन करके प्रसन्नचित्त होकर उठे थे। यज्ञान्त स्‍नान के समय गिरिदेव के रूप में प्रकट हुए श्रीकृष्ण अपने को अर्पित किये गये भोज्‍य पदार्थों को खाकर और इच्छानुसार दूध पीकर बोले- ‘मैं पूर्णत: तृप्‍त हो गया।’ 

ऐसा कहकर वे उस दिव्य रूप के द्वारा जोर-जोर से हँसने लगे। दिव्य माला और अनुलेप धारण किये उन पर्वताकार देवता को पर्वत के शिखर पर खड़ा देख सब लोगों ने उन्हें प्रधानत: श्रीकृष्ण ही समझकर उनकी शरण ली।
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प्रभावशाली भगवान श्रीकृष्ण ने भी उसी रूप से अपने को छिपाये रखकर वहाँ एकत्र हुए गोपों के साथ नतमस्‍तक हो स्‍वयं ही अपने-आपको प्रणाम किया।

गिरिराज के शिखर पर खड़े हुए उन पर्वत देवता से समस्‍त गोपों ने विस्मि‍त होकर कहा- 'भगवन! हम आपके वश में हैं; आपके दास एवं सेवक हैं, बताइये! हम आपकी क्या सेवा करें।' तब उन्होंने पर्वत से प्रकट हुई वाणी द्वारा उन गोपों से कहा- 'यदि तुम लोगों में दयाभाव विद्यमान हो तो आज से तुम्हें गौओं के भीतर मेरी ही पूजा करनी चाहिये। मैं तुम लोगों का प्रथम देवता हूँ,

तुम्हारी सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला और शुभचिन्तक हूँ। तुम मेरे प्रभाव से दस हजार गौओं के स्‍वामी एवं (उनके दूध-दही आदि के) उपभोक्‍ता बने रहोगे। 

मुझमें भक्ति रखने वाले तुम गोपों के लिये मैं उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहूँगा, जैसे दिव्यधाम में रहा करता हूँ। ये जो नन्द आदि विख्‍यात गोप हैं, मैं प्रसन्न होकर इन सबको प्रचुर धन-सम्पति प्रदान करूँगा। अब बछड़ों सहित गौएं शीघ्र मेरी परिक्रमा करें। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, इसमें संशय नहीं है।' फिर तो झुंड-की-झुंड गौएं सांड़ों के साथ आकर परिक्रमा के लिये गिरिराज को सब ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं। उनके मस्‍तक पर फूलों के आभूषण बँधे हुए थे, चारों पैरों में पुष्प गुच्छों के ही बने हुए बाजूबंद पहनाये गये थे, सींगों के अग्रभाग में फूलों के गजरे और शिरोभूषण शोभा पा रहे थे, ऐसी सैकड़ों और हजारों गौएं हर्ष में भरकर एक साथ परिक्रमा के पथ पर दौड़ीं।

गोपगण अपने उन गोधनों को हांकते हुए उनके पीछे-पीछे चले। उन गोपों के विभिन्न अंगों में विभागपूर्वक नाना रंगों के अनुलेप लगे थे। वे लाल, पीले, और सफेद कपड़ों से सुशोभित थे। उनकी भुजाओं में मोरपत्र के विचित्र बाजूबंद बँधे हुए थे और उन्हीं हांथों मे डंडे भी शोभा पा रहे थे। उनके सुन्दर ढंग से बँधे हुए केशों में मोरपंख के वृन्त खोंसे गये थे। इन सबके कारण उस अद्भुत समुदाय या मेले में उन गोपों की अधिक शोभा हो रही थी। कुछ अन्य बहुत-से गोपाल वेगपूर्वक भागी जाती हुई गौओं को पकड़ते थे। गौओं द्वारा नीराजना (परिक्रमा) आरती करने तथा दीपक दिखाने  का वह उत्‍सव बारी-बारी से सम्पन्न हो जाने पर वे पर्वत देवता अपने उस दिव्य शरीर से शीघ्र ही अन्तर्धान हो गये। इधर श्रीकृष्ण भी गोपों के साथ व्रज में ही चले गये। 

गिरियज्ञ के अनुष्ठान से प्राप्‍त हुए उस महान आश्चर्य से चकित हो बालकों और वृद्धों सहित सम्पूर्ण गोप मधुसूदन श्रीकृष्ण की स्‍तुति करने लगे।

तभी से व्रज में गोप संस्कृति में गिरि पूजा के साथ बाद में कृष्ण पूजा भी प्रचलित हुई 
जो आज कराह पूजा ( कण्ह-पूजा) के रूप में प्रचलित है।
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इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में गिरियज्ञ का अनुष्ठान विषयक सत्रहवां अध्‍याय पूरा हुआ।

इन्द्र यज्ञों में किया जाने वाला पशु-वध श्रीकृष्ण नें द्वापर के अन्तिम चरण में पूर्णत: गोप समाज में प्रतिबन्धित कर दिया था ।

स्वयं भविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व में इन्द्र पूजा के प्रसंग में कृष्ण समस्त गोप समाज को इन्द्र की पशु हिंसा मूलक यज्ञ को न करने का दृढ़ आगे श और निर्देश देते हैं।
निम्न श्लोक इसके प्रमाण हैं।

"महदपुण्यं महत्पापं हिंसायज्ञेषु वर्तते ।
अतस्तु भगवान्कृष्णो हिंसायज्ञं कलौ युगे । । 3.4.19.।६०।

"समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके ।
अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले । ६१।

अनुवाद:- हिंसा मूलक
 यज्ञों में  महान पुण्यहीनता और महान पाप होता है। इस लिए भगवान् कृष्ण ने कलियुग के प्रारम्भ में ही इन यज्ञों को समाप्त कर कार्तिक मास की प्रतिपदा के शुक्ल पक्ष को अन्नकूट- यज्ञ की भूतल पर स्थापना की।६०-६१।


"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रति दुःखितः ।
व्रजं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम्  ।
प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

अनुवाद :- तब देवराज इन्द्र कृष्ण के प्रति क्रोधित हुए और व्रजं को जल से डुबो दिया तब कृष्ण ने  अपनी सनातन प्रकृति को  लोक -मंगल
 के लिए नियुक्त किया।
सन्दर्भ:- 

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः । १९
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गोवर्धन पूजा के ही समय कृष्ण ने सभी गोपों को निर्देश दिया था कि वे पशुओं को आहार - भोजन आदि से पूजा करें 
जिसका साक्ष्य हरिवंश पुराण विष्णु पर्व का निम्नलिखित श्लोक है।


शब्दार्थ:- विशस्यन्तां=   अभ्यर्चना/ प्रशंसा की जाए ।  च= और।  ये महिषादयः भोज्या=  जो भैंस गाय आदि पशु  हैं जिन्होंने अभी भोजन नहीं किया है अर्थात् जो भोजन करने योग्य है उन्हें भोजन कराय जाए।  प्रवर्त्यतां= प्रारम्भ किया जाए। यज्ञोऽयं = यह यजन कार्य। सर्वगोपसुसंकुलः = सभी गोप समुदाय ।
सन्दर्भ:-
(हरिवंश पुराण विष्णु पर्व 17 वा अध्याय)

प्रसंग - इन्द्र की यज्ञ बन्द कराकर कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत का यज्ञ कराया था उसका ही यहाँ वर्णन है।
अर्थ-
भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना (सम्मान- सत्कार) करें और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस गोवर्द्धन गिरि ( पर्वत) की  यज्ञ का आरम्भ किया जाये।१५।
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गाय और भैंस सदैव यादवों की पाल्या (पालने योग्य)  ही रहीं थीं  और आज भी हैं भी और भारतीय पुराणों में दोनों पशुओं गाय- भैंस को सजातीय और सुरभि गाय की सन्तान कहा गया है जो सुरभि भगवान कृष्ण के वाम भाग से ही गोलोकधाम उत्पन्न हुई थीं। 
इस लिए भी गाय- भैंस का गोपों से सनातन सम्बन्ध है।
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महाभारत का खिलभाग (हरिवंशपुराण) में भी गोवर्धन प्रकरण में गोवर्धन- यजन (पूजन ) के समारोह के अवसर पर जो पशु  जैसे महिषी ( भैंस) आदि भोजन करने योग्य थे  उनका भोजन कराकर उनका पूजन किया और समस्त गोप समुदाय को उनकी पूजा में जुट जाने का आदेश कृष्ण के द्वारा  दिया गया था। 

अत: सारे पशु वहीं एक व्रज (बाड़े) में  एकत्रित किए गये ।
देखें हरिवंश पुराण का निम्न श्लोक- इसका प्रबल साक्ष्य है जिसमें पशुओं की पूजा करने का विधान है।
जब भगवान श्री कृष्ण गोवर्धन महाराज की पूजा करते हैं तब वे कृष्ण स्वयं ही गोवर्धन पर्वत में प्रवेश कर गोवर्धन पर्वत रूप में गोपों के अन्नकूट( भोजन के संचित रूप को ग्रहण कर लेते हैं। गोप लोक कृष्ण के इस रहस्य को जान लेते हैं। कि कृष्ण ही साक्षात परम्- ब्रह्म परमेश्वर हैं। यही गोवर्धन गिरि हैं।

और उसके द्वितीय बार यह जानकर  सारे गोप लोग भगवान कृष्ण की ही पूजा करने लगते हैं क्योंकि वह जान जाते हैं कि कृष्ण कोई साधारण व्यक्ति नहीं है आप अलौकिक विभूतियों से संपन्न परम्- ब्रह्म परमेश्वर हैं तभी श्री कृष्ण पूजा का रूप प्राकृत आदि भाषाओं में  कण्ह पूजा और कराह पूजा हो गया है।

पशुओं की पूजा के विधान पर इसी सन्दर्भ में एक शास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत है।

"विशस्यन्तां च पशवो भोज्या  ये महिषादयः। प्रवर्त्यतां च यज्ञोऽयं सर्वगोपसुसंकुलः ।१५।
अर्थ-
भोजन कराने योग्य जो भैंस-गाय आदि व्रज के पशु हैं, उनकी बड़ी अभ्यर्चना करे और साथ ही उत्तमोत्तम पदार्थ खिलाये जायँ और इस प्रकार समस्त गोपों के सहयोग से सम्पन्न होने वाले इस यज्ञ को आरम्भ किया जाये।१५।

नोट- धातु पाठ में शंस धातु स्तुति और प्रशंसा तथा ईश्वर से प्रार्थना के अर्थ में ही रूढ़ थी । 
परन्तु शंस धातु का अर्थ हिंसा करना भी है।
उपर्युक्त विशस्यन्तां   क्रिया पद में यदि हिंसा अर्थ किया जाए तो कृष्ण की  हिंसा परक इन्द्र पूजा/ अथवा यज्ञ के  विरोध में चलाये गयी नयी परम्परा जिसमें पशुओं (गाय और महिष )तथा पर्वत, वृक्ष की पूजा का विधान निहित है। निरर्थक ही हो जाऐगी- 

अत: उपर्युक्त. विशस्यन्तां क्रिया पद उपर्युक्त श्लोक में स्तुति और प्रशंसा के अर्थ में ही है।
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महिषी की कभी पूज्या रही होगी इसी कारण से प्राचीन काल में पौराणिक ऋषियों ने इसको महिषी संज्ञा दी होगी -क्योंकि महिला" महिमा" और महिमान्य जैसे शब्द समूह भी (मह्=पूजा करना)धातु से व्युत्पन्न हैं। महिषी शब्द भी इसी मह्= पूजा करना ! धातु से उत्पन्न है।
 
"मंहति पूजयति लोका तस्या: इति महिषी नाम: ख्यातो" के रूप में इस शब्द की व्युत्पत्ति सिद्ध होती है। जिसकी संसारवासी पूजा करते हैं वह महिषी है।
 (महि + “ अधिमह्योष्टिषच् / ड़ीष् )  “ उणादि सूत्र से मह्=पूजायाम् धातु में "टिषच्" और स्त्रीलिंग में "ड़ीष्" प्रत्यय लगाने से महिषी शब्द सिद्ध होता है । १ । ४६ । स्वनामख्यातपशुविशेषः । 
सन्दर्भ•
(हरिवंशपुराण हरिवंशपर्व के १७ वाँ अध्याय )

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और अन्यत्र भी ब्रह्मपुराण के अध्याय (190) के अन्तर्गत कंस -अक्रूर संवाद में कंस अक्रूर जी को गोकुल में नन्द के पास से कृष्ण और बलराम को अपने साथ लाने के लिए तथा गोपों से महिषी ( भैंस) के उत्तम घृत और दधि को उपहार स्वरूप पाने की बात कहता है । देखे वह श्लोक-
"तदा निष्कंटकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीरगम्यताम् ।२१।
यथा च माहिषं सर्पिर्दधिचाप्युपहार्य वैै।
गोपास्समानयंत्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२।

यही श्लोक विष्णु पुराण में भी है।
"तदा निष्कण्टकं सर्वंराज्यमे तदयादवम्। प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्यै वीर गम्यताम्।। २१।
सन्दर्भ:- श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५)

"यथा च महिषीं सर्पदधि चाप्युपहार्य वै ।             गोपास्समानयन्त्वाशु तथा वाच्यास्त्वया च ते।२२। 
श्रीविष्णुमहापुराणेपंचमांशे पंचदशोऽध्यायः१५ )
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ये ही श्लोक ब्रह्म पुराण के १९० वें अध्याय में कुछ अन्तर के साथ हैं ।

ततो निष्कण्टकं सर्वं राज्यमेतदयादवम्।
प्रसाधिष्ये त्वया तस्मान्मत्प्रीत्या वीर गम्यताम्।। १९०.१८ ।।

यथा च महिषं सर्पिर्दधि चाप्युपहार्य वै।
गोपाः समानयन्त्याशु त्वया वाच्यास्तथा तथा।। १९०.१९ ।।
{-ब्रह्मपुराणअध्याय-(१९०)
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अर्थ-
तत्पश्चात आपके अतिरिक्त (अक्रूर) समस्त गोकुल वासी यादवों के बध का उपक्रम करुँगा ।  तब सम्पूर्ण राज्य का शासन आप की कृपा से  निष्कण्टक होकर कर भोग सकुँगा ।   हे वीर मेरी प्रसन्नता के लिए आप गोकुल जायें और वे गोप जल्दी ही भैंस का सर्पि (घी) और दहि आदि उपहार स्वरूप लेकर आयें  आप उनसे ऐसा कहना।१९।।

टिप्पणी:-
अन्नकूट:-अन्न का पहाड़ या ढेंर । उ०— गोवर्धन सिर तिलक चढ़ायौ, मेटि इंद्रं ठकुराइ ।
 अन्नकूट ऐसो रचि राख्यौ, गिरि की उपमा पाइ । —सूर०, १० ।८३२ । २. एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यंत यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं ।

कृष्ण ने इन्द्र का हिंसा मूलक यज्ञ द्वापर युग के अन्तिम चरण में प्रतिबन्धित कर दिया जो त्रैता युग में प्रारम्भ हुआ था। इन्द्र के हिंसा मूलक यज्ञ विधानों की पड़ताल ( शोध) महाभारत के  अश्वमेधिक पर्व के इक्यानवेवें अध्याय के निम्न श्लोकों से होता है।

 "एकनवतितम (91) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद:-  हिंसा मिश्रित यज्ञ और हिंसा मिश्रित धर्म की निन्दा-

जनमेजय ने कहा– प्रभो ! राजा लोग यज्ञ में संलग्‍न होते हैं,तो  महर्षि तपस्‍या में संलग्न रहते हैं और ब्राह्मण लोग शान्‍ति (मनोनिग्रह)– में स्‍थित होते हैं । मन का निग्रह हो जाने पर इन्‍द्रयों का संयम स्‍वत: ही सिद्ध हो जाता है । 

अत: यज्ञ फल की समानता करने वाला कोई कर्म यहां मुझे नहीं दिखाई देता है । यज्ञ के सम्‍बन्‍ध में मेरा तो ऐसा विचार है और नि:संदेह यही ठीक है।

 यज्ञों का अनुष्‍ठान करके बहुत – से राजा और श्रेष्‍ठ ब्राह्मण इहलोक में उत्‍तम कीर्ति पाकर मृत्‍यु के पश्‍चात् स्‍वर्गलोक में गये हैं।

सहस्र नेत्रधारी महातेजस्‍वी देवराज इन्‍द्र ने बहुत – सी दक्षिणा वाले बहुसंख्‍यक यज्ञों का अनुष्‍ठान करके देवताओं का समस्‍त साम्राज्‍य प्राप्‍त किया था। भीम और अर्जुन को आगे रखकर राजा युधिष्‍ठिर भी समृद्धि और पराक्रम की दृष्‍टि से देवराज इन्‍द्र के ही तुल्‍य थे। फिर उस नेवले ने महात्‍मा राजा युधिष्‍ठिर के उस अश्‍वमेध नामक यज्ञ की निन्‍दा क्‍यों की ? 

वैशम्‍पायनजी ने कहा – नरेश्‍वर ! भरतनन्‍दन ! मैं यज्ञ की श्रेष्‍ठ विधि और फल का यहां यथावत् वर्णन करता हूं, तुम मेरा कथन सुनो। राजन् ! प्राचीन काल की बात है, जब इन्‍द्र का यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मन्‍त्रोचारण कर रहे थे, ऋत्‍विज् लोग अपने –अपने कर्मों में लगे थे, यज्ञ का काम बड़े समारोह और विस्‍तार के साथ चल रहा था, उत्‍तम गुणों से युक्‍त आहुतियों का अग्‍नि में हवन किया जा रहा था, देवताओं का आवहान हो रहा था, बड़े – बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्‍नता के साथ वेदोक्‍त मन्‍त्रों का उत्‍तम स्‍वर से पाठ करते थे और शीघ्रकारी उत्‍तम अध्‍वर्युगण बिना किसी थकावट के अपने कर्तव्‍य का पालन कर रहे थे ।

इतने ही में पशुओं के आलभ्‍य का समय आया । महाराज ! जब पशु पकड़ लिये गये, तब महर्षियों को उन पर बड़ी दया आयी। उन पशुओं की दयनीय अवस्‍था देखकर वे तपोधन ऋषि इन्‍द्र के पास जाकर बोले –‘यह जो पशुवध का विधान आपके यज्ञ में  है, यह शुभ कारक नहीं है । हे ‘इन्द्र ! आप महान् धर्म की इच्‍छा करते हैं तो भी जो पशुवध के लिए उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है; क्‍योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्‍त्र में नहीं देखा गया है।‘

प्रभो ! आपने जो यज्ञ का समारम्‍भ किया है, यह धर्म को हानि पहुंचाने वाला है । यह यज्ञ धर्म के अनुकूल नहीं है, क्‍योंकि हिंसा को कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है। ‘यदि आपकी इच्‍छा हो तो ब्राह्मण लोग शास्‍त्र के अनुसार ही इस यज्ञ का अनुष्‍ठान करें ।

शास्‍त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ करने से आपको महान् धर्म की प्राप्‍ति होगी। ‘सहस्र नेत्रधारी इन्‍द्र ! आप तीन वर्ष के पुराने बीजों (जौ, गेहूं आदि अनाजों ) – से यज्ञ करें । यही महान् धर्म है और महान् गुणकारक फल की प्राप्‍ति कराने वाला है।

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 तत्‍वदर्शी ऋषियों के कहे हुए इस वचन को इन्‍द्र ने अभिमान वश नहीं स्‍वीकार किया ।

 वे मोह के वशीभूत हो गये थे। इन्द्र की पूजा अथवा यज्ञ विना पशु वध के सम्पन्न नहीं होता था। त्रेता युग में ही यह पशुओं की बलि का विधान पारित हो गयी था।

ऋग्वेद  में भी इन्द्र के लिए पशु बलि की बात के सन्दर्भ हम्हें प्राप्त होते हैं।

वेदों में भी यज्ञ में इन्द्र देव अपने भोजन के लिए बैलों को काटकर पकाने की स्वीकृति देता है।

ऋग्वेद की निम्न ऋचा इसका प्रमाण है।

"उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विञ्शतिम् । उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः॥

अनुवाद:-
“[इंद्र कहते हैं-]: उपासक मेरे लिए पंद्रह (और) बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाता हूं और मोटा हो जाता हूं, वे मेरे पेट के दोनों तरफ भर जाते हैं; इंद्र सब (संसार) से ऊपर है।”
यह सायण की टिप्पणी उनका: ऋग्वेद-भाष्य प्रस्तुत है।

"अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे =मदर्थं “पञ्चदश= पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं= विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः =वृषभान् "साकं =सह मम भार्ययेन्द्राण्या प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति ।

अनुवाद:-  अथेन्द्रो ब्रवीति = अब इन्द्र कहता है। “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव “इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा =उभौ “कुक्षी “पृणन्ति सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥

सायण द्वारा भाष्य: ऋग्वेद-भाष्य

इन्द्र कहते हैं: मेरे लिए उपासक पन्द्रह-बीस बैल तैयार करते हैं; मैं उन्हें खाकर मोटा हो जाता हूँ; वे मेरे पेट के दोनों ओर भर देते हैं; इन्द्र सब (संसारों) से ऊपर हैं

त्रेता युग में यज्ञ में पशु वध का विधान प्रारंभ हुआ था । कृष्ण ने द्वापर युग के अन्तिम चरण में इसे बन्द ( समाप्त ) करा दिया यह बात पुराण प्रसिद्ध है।

(मत्स्यपुराण)अध्याय 143 - के सन्दर्भ से हम इन्द्र के हिंसा मूलक यज्ञ के विधान की समीक्षा करेंगे-

            "त्रेतायुगे यज्ञविधिप्रवृत्तिः।

                   "ऋषय ऊचुः।
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।। 143.1 ।।


अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।। 143.2 ।।

औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।143.3 ।।

वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्।। 143.4 ।।

                   "सूत उवाच।
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।143.5।

दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।143.6 ।।

यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।। 143.7 ।।

सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।143.8 ।।

आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।। 143.9 ।।

य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये। 143.10 ।

अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा।
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।। 143.11 ।

अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।143.12 ।

अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। 143.13।।

विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।143.14 ।।

एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।। 143.15 ।।

तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।। 143.16 ।।

ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।
सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। 143.17 ।।
________
                "ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप!।
औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!।। 143.18 ।।

                 "सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।
वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।। 143.19 ।।

यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।
यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।143.20।

हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21।

दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।
तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।। 143.22 ।

यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।
तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।। 143.23।

एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।
अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।। 143.24 ।।

इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
ऊद्‌र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।। 143.25 ।।


वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।
धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।। 143.26 ।।

तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।
बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।। 143.27 ।।

तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।
देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।। 143.28।

तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।
ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.29 ।।

तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।
उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।। 143.30 ।।

एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।
अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।। 143.31।

ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।
सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।। 143.32।

द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।। 143.33।

ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।। 142.34 ।

एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।
ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।। 142.35 ।।

ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।
वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।। 143.36 ।।

गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।
श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।। 143.37 ।।

प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।
सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।। 143.38 ।

प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।
एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.39 ।।

राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।
तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।। 143.40 ।।

ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।
तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।। 143.41।

यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।
तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।।
 143.42 ।।

 (मत्स्यपुराण)अध्याय 143 - 

यज्ञ की प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-

ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकाल में स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ? जब कृतयुग (सतयुग) के साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुग की संधि प्राप्त हुई।

उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति ( बाजारीकरण) की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्रकर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई ?

हम लोगों के प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजी ने कहा 'आप लोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥ 14॥

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! विश्व-भोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐह-लौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रोंको प्रयुक्तकर देवताओंके साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया।  उनके उस अश्वमेध यज्ञ के आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्नि में अनेकों प्रकार के हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे। पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवों का आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होने वाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।


इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नामके विश्वभोक्ता  इन्द्र से पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है ? 

आप धर्म-प्राप्तिकी अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्म का विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये। सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्म के पालनसे यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकाल में ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।'

तत्त्वदर्शी ऋषियों द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भी विश्वभोक्ता इन्द्र ने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे। फिर तो इन्द्र और उन महर्षियोंके बीच 'स्थावरों या जङ्गमों में से किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बात को लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ।

यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसु से प्रश्न किया ।। 5- 17 ॥

ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगों का संशय दूर कीजिये ॥ 18 ॥

सूत जी कहते हैं। उन ऋषियों का प्रश्न  सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचित का कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रों का अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे।

उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलों से भी यज्ञ किया जा सकता है
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मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है।

इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रों के ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियों ने हिंसासूचक मन्त्रों को उत्पन्न किया है।

उसी को प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आप लोग मुझे क्षमा कीजियेगा। द्विजवरो! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।' वसु द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियों ने अपनी बुद्धि से विचार किया और अवश्यम्भावी विषय को जानकर राजा वसु को विमान से नीचे गिर जाने का तथा पाताल में प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।

ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातल में चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये। ऋषियोंके शाप से उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए ।19-26॥

इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशयका निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्म की गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है।

अतः देवताओं और ऋषियों के साथ-साथ, स्वायम्भुव मनु के अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्म के विषय में निश्चयपूर्व कोई निर्णय नहीं दे सकता। 

इसलिये पूर्वकाल में जैसा ऋषियों ने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये। हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबल से स्वर्गलोक को गये हैं।

इसी कारण महर्षि गण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते। वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निलभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवों पर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा, और धैर्य— ये सनातन धर्म के मूल ही हैं, जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं।
यज्ञ द्रव्य और मन्त्र द्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्या की सहायिका समता है। यज्ञों से देवताओं की तथा तपस्या से विराट् परम-ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।

कर्म (फल) का त्याग कर देने से ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञान से कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं ॥27-34ll

पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तर में यज्ञ की प्रथा प्रचलित होनेके अवसर पर देवताओं और ऋषियों के बीच इस प्रकार का महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियों ने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसु के कथन की उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। 

उन ऋषियों के चले जाने पर देवताओं ने यज्ञ की सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषय में ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय नरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी। प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं,

जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है। पूर्वकालमें ब्रह्मा ने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्‌को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है।

 इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगों क साथ प्रवर्तित हुआ ||35 - 42॥

कृष्ण ही एक परिपूरणत्तम व्यक्तित्व हैं।जिनकी पूजा करने से सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होते हैं।
कृष्ण पूजा के महत्व को अन्य देवों से तुलनात्मक रूप में यम राज और सावित्री के संवाद रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

सावित्री धर्मराज के प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्री को वरदान देने के प्रसंग में एक प्राचीन पौराणिक आख्यान है।
जिसमें विभिन्न देवी और देवों के पूजन और आराधना- साधना का फल तथा उनके महिमा मण्डित रूप का तुलनात्मक मूल्यांकन किया गया है। 
"अनुवाद:-

    {सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाकवर्णनम्}

                "श्रीनारायण उवाच
सावित्रीवचनं श्रुत्वा जगाम विस्मयं यमः ।
प्रहस्य वक्तुमारेभे कर्मपाकं तु जीविनाम् ॥१। 

"अनुवाद:-

श्रीनारायण बोले [हे नारद!] सावित्री की बात सुनकर यमराज आश्चर्यमें पड़ गये और हँसकर उन्होंने प्राणियों के कर्मफलके विषयमें बताना आरम्भ किया ॥1॥

                  "धर्म उवाच
कन्या द्वादशवर्षीया वत्से त्वं वयसाधुना।
ज्ञानं ते पूर्वविदुषां ज्ञानिनां योगिनां परम् ॥२॥

"अनुवाद:-

धर्म बोले- हे वत्से ! इस समय तुम्हारी अवस्था तो मात्र बारह वर्षकी है, किंतु तुम्हारा ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों और योगियोंसे भी बढ़कर है॥2॥

*सेवन्ते द्विभुजं कृष्णं परमात्मानमीश्वरम् ।
गोलोकं प्रति ते भक्ता दिव्यरूपविधारिणः ॥२७

"अनुवाद:-

हे साध्वी ! उन निष्काम जनों को पुनः इस लोक में नहीं आना पड़ता जो द्विभुज परमात्मा श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और अन्त में वे भक्त दिव्यरूप धारणकर गोलोक को ही प्राप्त होते हैं ॥27 ॥

सकामिनो वैष्णवाश्च गत्वा वैकुण्ठमेव च ।
भारतं पुनरायान्ति तेषां जन्म द्विजातिषु ॥२८॥

"अनुवाद:-

सकाम वैष्णव वैकुण्ठधाम में जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं और यहाँ पर द्विजातियों ( ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य) के कुलमें उनका जन्म होता है।२८। 

काले गते च निष्कामा भवन्त्येव क्रमेण च ।
भक्तिं च निर्मलां तेभ्यो दास्यामि निश्चितं पुनः॥ २९ ॥

"अनुवाद:-

वे सभी कुछ समय बीतने पर क्रमशः निष्काम भक्त बन जाते हैं और मैं उन्हें अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर देता हूँ; यह सर्वथा निश्चित है। २९।

*ब्राह्मणा वैष्णवाश्चैव सकामाः सर्वजन्मसु ।
न तेषां निर्मला बुद्धिर्विष्णुभक्तिविवर्जिताः॥३०॥

"अनुवाद:-

जो सकाम ब्राह्मण तथा वैष्णवजन हैं, अनेक जन्मों में भी विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं हो पाती ॥30 ॥

*मूलप्रकृतिभक्ता ये निष्कामा धर्मचारिणः।
मणिद्वीपं प्रयान्त्येव पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥३४॥

"अनुवाद:-

जो धर्मपरायण तथा निष्काम मानव मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की भक्ति करते हैं, वे मणिद्वीप  में जाते हैं और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आते ॥ 34 ॥

*स याति विष्णुलोकं च श्वेतद्वीपं मनोहरम् ।
तत्रैव निवसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥४९॥

"अनुवाद:-

जो मनुष्य ब्राह्मणोंको भूमि तथा प्रचुर धन प्रदान करता है, वह भगवान् विष्णुके श्वेतद्वीप नामक मनोहर लोक में पहुँच जाता है और वहाँ पर चन्द्र सूर्यकी स्थितिपर्यन्त निवास करता है।४९।

*अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देवतीर्थसहायेन कायव्यूहेन शुध्यति।
एतत्ते कथितं किञ्चित् किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ७०॥

(देवीभागवतपुराण)

कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥३९॥

शिवपुराण-8/23/39

शिवपुराण में कर्म- फल के विषय में एक प्राचीन प्रसंग है 

एक बार-देवर्षि नारद जी ने श्री सनकजी से कहाः "भगवन् ! मेरे मन में एक संदेह पैदा हो गया है। आपने कहा है कि जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, उन्हें कोटि सहस्र कल्पों तक उनका महान भोग प्राप्त होता रहता है। दूसरी ओर यह भी आपने बताया है कि प्राकृत प्रलय में सम्पूर्ण लोकों का नाश हो जाता है और एकमात्र भगवान स्वराट् विष्णु ही शेष रह जाते हैं। अतः मुझे यह संशय हुआ है कि क्या प्रलयकाल तक जीव के पुण्य और पापभोग की समाप्ति नहीं होती ? आप इस संदेह का निवारण कीजिये "
श्रीसनक जी बोलेः "महाप्राज्ञ ! भगवान स्वराट-विष्णु अविनाशी, अनंत, परम प्रकाशस्वरूप और सनातन पुरुष हैं। वे विशुद्ध, निर्गुण, नित्य और माया-मोह से रहित हैं। परमानंदस्वरूप श्रीहरि निर्गुण होते हुए भी सगुण से प्रतीत होते हैं। 
ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रूपों में व्यक्त होकर वे ही भेदभाव से दिखायी देते हैं। वे ही माया के संयोग से सम्पूर्ण जगत का कार्य करते हैं। 

ये ही श्री हरि ब्रह्माजी के रूप से सृष्टि तथा विष्णुरूप से जगत का पालन करते हैं और अंत में भगवान रूद्र के रूप से ही सबको अपना ग्रास बनाते हैं। यह निश्चित सत्य है। प्रलय काल व्यतीत होने पर भगवान जनार्दन ने शेषशय्या से उठकर ब्रह्माजी के रूप से सम्पूर्ण चराचर विश्व की पूर्वकल्पों में जो-जो स्थावर-जंगम जीव जहाँ-जहाँ स्थित थे, नूतन कल्प में ब्रह्माजी उस सम्पूर्ण जगत की पूर्ववत् सृष्टि कर देते हैं। 

अतः साधुशिरोमणे ! किये हुए पापों और पुण्यों का अक्षय फल अवश्य भोगना पड़ता है (प्रलय हो जाने पर जीव के जिन कर्मों का फल शेष रह जाता है, दूसरे कल्प में नयी सृष्टि होने पर वह जीव पुनः अपने पुरातन कर्मों का भोग भोगता है।) 

कोई भी कर्म सौ करोड़ कल्पों में भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।"

"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।
(नारद पुराणः पूर्व भागः 31.69-70)

अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मणां ह्यक्षयं फलम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।३१-६९।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
यो देवः सर्वलोकानामंतरात्मा जगन्मयः।

सर्वकर्मफलं भुक्ते परिपूर्णः सनातनः।३१-७०।
योऽसौ विश्वंभरो देवो गुणमेदव्यवस्थितः।

सूजत्यवति चात्त्येतत्सर्वं सर्वभुगव्यय:।३१-७१।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे प्रथमपादे यमदूतकृत्यनिरुपणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः।

(राम और कृष्ण की भक्ति का  भिन्न भिन्न फल-)

श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् ।
सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे ॥७६॥

पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत् ॥ ७७॥

         (कृष्ण की भक्ति का फल-)

कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् ।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा ।८५।

शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह ।
भारते पूजयेद्‍भक्त्या चोपचाराणि षोडश ।८६।

गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।
भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्‌दृढाम् ।८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो ।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।८८।

ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् ।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।८९।

शुक्लां वाप्यथवा कृष्णां करोत्येकादशीं च यः ।
वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।९०।

भारते पुनरागत्य कृष्णभक्तिं लभेद्‌ध्रुवम् ।
क्रमेण भक्तिं सुदृढां करोत्येकां हरेरहो ।९१।

देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः ।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं सम्प्राप्य पार्षदो भवेत्।९२।

पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।
अनुवाद:-

जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों (अहीरों) तथा गोपियों (अहीराणीयों) को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधासहित श्रीकृष्णकी पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थितिपर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। 
भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्णके समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है।
पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है । 85-89 ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाकवर्णनं नामैकोनत्रिशोऽध्यायः ॥२९॥

जो भारतवर्षमें कार्तिकपूर्णिमाको सैकड़ों गोपों तथा गोपियोंको साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमामें सोलहों प्रकारके पूजनोपचारोंसे भक्तिपूर्वक राधासहित श्रीकृष्णकी पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजीके स्थितिपर्यन्त गोलोकमें निवास करता है। पुनः भारतवर्षमें जन्म पाकर वह श्रीकृष्णकी स्थिर भक्ति प्राप्त करता है।

भगवान् श्रीहरिकी क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्यागके अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्णके समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। पुनः वहाँसे उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है ।। 85-89 ॥

जो व्यक्ति शुक्ल अथवा कृष्णपक्षको एकादशीका व्रत करता है, वह ब्रह्माके आयुपर्यन्त वैकुण्ठलोकमें आनन्दका भोग करता है।

पुनः भारतवर्षमें जन्म लेकर वह निश्चय ही श्रीकृष्णकी भक्ति प्राप्त करता है और वह क्रमशः एकमात्र श्रीहरिके प्रति अपनी भक्तिको सुदृढ़ करता जाता है। 

अन्त में मानव देह त्यागकर वह पुनः गोलोक चला जाता है और वहाँपर श्रीकृष्णका सारूप्य प्राप्त करके उनका पार्षद बन जाता है। 

वहाँसे पुनः संसारमें उसका आगमन नहीं होता और वह सदाके लिये जरा तथा मृत्युसे मुक्त हो जाता है । ll90 - 92 ॥

श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण की वाणी का स्पष्ट उद्घोष है।

मूल श्लोकः'

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय -(9)

शब्दार्थ:- ये अपि = जो भी (भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्यदेवता=  देवी देवताओं  का । यजन्ते- पूजन करते  श्रद्धान्विता- श्रद्धा से करते हैं ।  तेऽपि मामेव यजन्ति- 

वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  कौन्तेय - हे अर्जुन - अविधि पूर्वकं- किन्तु उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

 अनुवाद--

जो भी भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं  का  पूजन  श्रद्धा से करते हैं  ।  वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  किन्तु - हे अर्जुन  उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

वस्तुत: यह पूजा उसी प्रकार है जैसे कोई भक्त  किसी वृक्ष के मूल( जड़) को छोड़ कर उसकी टहनीयों की पूजा कर रहा हो।

इसी कृष्ण ने एक बात में ही सभी द्विविधाओं को निर्मूल कर दिया है।

र्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

सभी धर्मों विभिन्न धर्मो( सम्प्रदायों) का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।


भगवद्गीता के समस्त श्लोकों में यह श्लोक सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी अत्यधिक विवादास्पद बन गया है।


 इस श्लोक की व्याख्या करने में सभी अनुवादकों ? भाष्यकारों ,समीक्षकों और टीकाकारों ने अपनी सम्पूर्ण क्षमता एवं मौलिकता की पूँजी लगा दी है। व्यापक आशय के इस महान् श्लोक के माध्यम से प्रत्येक दार्शनिक ने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है।


 श्री रामानुजाचार्य के अनुसार सम्पूर्ण गीता का यह चरम श्लोक है। धर्म शब्द हिन्दू संस्कृति का हृदय है। विभिन्न सन्दर्भों में इस शब्द का प्रयोग किन्हीं विशेष अभिप्रायों से किया जाता है। यही कारण है कि भारतवर्ष के निवासियों ने इस पवित्र भूमि की आध्यात्मिक सम्पदा का आनन्द उपभोग किया और यहाँ के धर्म को सनातन धर्म की संज्ञा प्रदान की।हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है।


 अस्तित्व का नियम। किसी वस्तु का वह गुण जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व ( सत्ता) सिद्ध होती है ?


 अन्यथा नहीं?  वह गुण उस वस्तु का धर्म कहलाता है। उष्णता के कारण अग्नि का अग्नित्व सिद्ध होता है? उष्णता के अभाव में नहीं? इसलिए? अग्नि का धर्म उष्णता है। शीतल अग्नि से अभी हमारा परिचय होना शेष है मधुरता चीनी का धर्म है? कटु चीनी मिथ्या है जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है ? परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता।


 अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है? जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। 

किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य का निश्चित रूप से क्या धर्म है उसकी त्वचा का वर्ण? असंख्य और विविध प्रकार की भावनाएं और विचार? उसका स्वभाव (संस्कार)? उसके शरीर? मन और बुद्धि की अवस्थाएं और क्षमताएं ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है जबकि उसका वास्तविक धर्म चैतन्य स्वरूप आत्मतत्त्व है। 

यही आत्मा समस्त उपाधियों को सत्ता और चेतनता प्रदान करता है।

 इस आत्मा के बिना मनुष्य का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता। इसलिए? मनुष्य का वास्तविक धर्म सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है। यद्यपि नैतिकता? सदाचार? जीवन के समस्त कर्तव्य? श्रद्धा? दान? विश्व कल्याण की इच्छा इन सब को सूचित करने के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग किया जाता है तथापि मुख्य धर्म की उपयुक्त परिभाषा को समझ लेने पर इन दोनों का भेद स्पष्ट हो जाता है। 

सदाचार आदि को भी धर्म कहने का अभिप्राय यह है कि उनका पालन हमें अपने शुद्ध धर्म का बोध कराने में सहायक होता है। उसी प्रकार? सदाचार के माध्यम से ही मनुष्य का शुद्ध स्वरूप अभिव्यक्त होता है।

 इसलिए   धर्मशास्त्रों में ऐसे सभी शारीरिक? मानसिक एवं बौद्धिक कर्मों को धर्म की संज्ञा दी गयी है? जो आत्मसाक्षात्कार में सहायक होते हैं।

इसमें सन्देह नहीं है कि गीता के कतिपय श्लोकों में? भगवान् श्रीकृष्ण ने साधकों को किसी निश्चित जीवन पद्धति का अवलम्बन करने का आदेश दिया है और यह भी आश्वासन दिया है कि वे स्वयं उनका उद्धार करेंगे।

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 उद्धार का अर्थ भगवत्स्वरूप की प्राप्ति है। परन्तु इस श्लोक के समान कहीं भी उन्होंने इतने सीधे और स्पष्ट रूप में ? अपने भक्त के मोक्ष के उत्तरदायित्व को स्वीकार करने की अपनी तत्परता व्यक्त नहीं की हैं।

ध्यानयोग के साधकों को तीन गुणों को सम्पादित करना चाहिए। वे हैं (1) ज्ञानपूर्वक ध्यान के द्वारा सब धर्मों का त्याग? (2) मेरी (ईश्वर की) ही शरण में आना? और? (3) चिन्ता व शोक का परित्याग करना। इस साधना का पुरस्कार मोक्ष है मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। 

यह आश्वासन मानवमात्र के लिये दिया गया है। गीता एक सार्वभौमिक धर्मशास्त्र है यह मनुष्य की बाइबिल है? मानवता का कुरान और भारतीयों का शक्तिशाली धर्मग्रन्थ है।सर्वधर्मान् परित्यज्य (सब धर्मों का परित्याग करके) हम देख चुके हैं कि अस्तित्व का नियम धर्म है?

 और कोई भी वस्तु अपने धर्म का त्याग करके बनी नहीं रह सकती। और फिर भी? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को समस्त धर्मों का परित्याग करने का उपदेश दे रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्म की हमारी परिभाषा त्रुटिपूर्ण हैं।

 अथवा? क्या इस श्लोक में ही परस्पर विरोधी कथन है इस पर विचार करने की आवश्यकता है।


आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण मनुष्य अपने शरीर? मन और बुद्धि से तादात्म्य करके एक परिच्छिन्न? नश्वर जीव का जीवन जीता है। इन उपाधियों से तादात्म्य( एकरूपता) के फलस्वरूप उत्पन्न द्रष्टा ? मन्ता? ज्ञाता? कर्ता? भोक्ता रूप जीव ही संसार के दुखों को भोगता है।


 वह शरीरादि उपाधियों के जन्ममरणादि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु? वस्तुत? ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ अहंकार का नाश ही है।इसलिए? समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर? मन और बुद्धि की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है? उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं।


मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है? जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं।साधना के केवल निषेधात्मक पक्ष को ही बताने से भारतीय दार्शनिकों को सन्तोष नहीं होता है निषेधात्मक आदेशों की अपेक्षा विधेयात्मक उपदेशों में वे अधिक विश्वास रखते हैं।


 भारतीय दर्शन की स्वभावगत विशेषता है? उसकी व्यावहारिकता। और इस श्लोक में हमें यही विशेषता देखने को मिलती है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं? तुम मेरी शरण में आओ? मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा।


मा शुच (तुम शोक मत करो) उपर्युक्त दो गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक को ध्यानाभ्यास में एक अलौकिक शान्ति का अनुभव होता है। 


परन्तु यह शान्ति भी स्वरूपभूत शान्ति नहीं है। तथापि ऐसे शान्त मन का उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ स्थिति पाने के लिए करना चाहिए।


 परन्तु दुर्भाग्य से? आत्मसाक्षात्कार की व्याकुलता या उत्कण्ठा ही इस शान्ति को भंग कर देती है। चिन्ता का स्पर्श पाकर एक स्वाप्निक सेतु के समान यह शान्ति लुप्त हो जाती है। बाह्य विषयों तथा शरीरादि उपाधियों से मन के ध्यान को निवृत्त करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित कर लेने पर साधक को साक्षात्कार की उत्कण्ठा का भी त्याग कर देना चाहिए। ऐसी उत्कण्ठा भी चरम उपलब्धि में बाधक बन सकती है।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा) जो हमारे मन में विक्षेप उत्पन्न करके हमारी शक्तियों को बिखेर देता है? वह पाप कहलाता है। हमारे कर्म ही हमारी शक्ति का ह्रास कर सकते हैं? क्योंकि मन और बुद्धि की सहायता के बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता। संक्षेप में? कर्म मनुष्य के अन्तकरण में वासनाओं को अंकित करते जाते हैं? जिन से प्रेरित होकर मनुष्य बारम्बार कर्म में प्रवृत्त होता है।शुभ वासनाएं शुभ विचारों को जन्म देती हैं? तो अशुभ वासनाओं से अशुभ विचार ही उत्पन्न होते हैं।


 वृत्ति रूप मन है? अत जब तक शुभ या अशुभ वृत्तियों का प्रवाह बना रहता है? तब तक मन का भी अस्तित्व यथावत् बना रहता है।


 इसलिए वासनाक्षय का अर्थ ही वृत्तिशून्यता है? और यही मनोनाश भी है। मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप कृष्णतत्व का साक्षात्कार करना है।जिस मात्रा में एक साधक अनात्मा से तादात्म्य का त्याग करने और आत्मानुसंधान करने में सफल होता है? उसी मात्रा में वह इस आत्मदर्शन को प्राप्त करता है।


 इस नवप्राप्त अनुभव में? वह अपनी सूक्ष्मतर वासनाओं के प्रति अधिकाधिक जागरूक होता जाता है। वासनाओं का यह भान अत्यन्त पीड़ादायक होता है। अत? भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ आश्वासन देते हैं? तुम शोक मत करो। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा। मन को विचलित करने वाली? कर्मों की प्रेरक? इच्छा और विक्षेपों को उत्पन्न करने वाली ये वासनाएं ही पाप हैं।यह श्लोक महत्वपूर्ण है। कारण यह है कि यहाँ स्वयं सर्वशक्तिमान् भगवान् ही ऐसे साधक की सहायता करने के लिए तत्परता दिखाते हैं? जो उत्साह के साथ सर्वसंभव प्रयत्नों के द्वारा अपना योगदान देने को उत्सुक है। साधनाकाल में? यदि साधक अपने मन में दुर्दम्य आशावाद का स्वस्थ वातावरण बनाये रख पाता है? तो अध्यात्म मार्ग में उसकी प्रगति निश्चित होती है।इसके विपरीत? जिस साधक का मन नैराश्य और रुदन? विषाद और अवसाद से भरा रहता है वह कभी पूर्ण हृदय से आवश्यक प्रयत्न कर ही नहीं कर सकता है और? स्वाभाविक ही है कि उसके आत्मविकास का लक्ष्य कहीं दूरदूर तक भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। गूढ़ अभिप्रायों एवं व्यापक आशयों से पूर्ण यह एक श्लोक ही अपने आप में इस दार्शनिक काव्य गीता का उपसंहार है। इस अध्याय में सम्पूर्ण गीताशास्त्र के तत्त्वज्ञान का उपसंहार किया गया है। 


"यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥

चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।      घ्नन्तं तत्र पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥

भागवतपुराण दशम स्कन्ध- के अध्याय 69 के ये दोनों श्लोक कृष्ण चरित्र को पूर्णत: विपरीत हैं।

पहले हम भागवत पुराण के अनुसार ही इसका अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। उसके बाद इन दोनों श्लोकों का हम खण्डन करेंगे।

अनुवाद:- 

भागवत पुराण कार कहता है कि जब एक बार नारद मुनि कृष्ण की दिनचर्या देखने की इच्छा से द्वारिका गये तो वहाँ कृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ महल उनकी उतनी ही पत्नीयों अनुरूप थे।

जब नारद ने प्रत्येक महल में कृष्ण की अपनी विभिन्न रानीयों के साथ दिनचर्या देखना चाहा तो उनमें अनेक कृष्णों के अनेक आचरण अथवा कर्म थे।

भागवत पुराणकार ने बड़ी चालाकी से कृष्ण को विभिन्न देवताओं का यज्ञ करते हुए और यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए कृष्ण को पशुओं का वध करते हुए भी दिखाया है। जबकि असल जिन्दगी में कृष्ण पशु हिंसा मूलक यज्ञों के महा वरोधी  थे।

 परन्तु भागवत पुराण कार ने  कृष्ण को बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा समस्त देवताओं का यजन-पूजन करते और कहीं कुएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्म का आचरण करते हुए दिखाया है। 

कहीं तो कृष्ण को यादवों से घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़े पर चढ़कर मृगया( शिकार) करते हुए दिखाया हैं जो, इस प्रकार यज्ञ के लिये  मेध्य पशुओं ( बलि के पशुओं) का संग्रह कर रहे हैं।

 

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अब हम बताऐंगे कि कृष्ण ने ही विभिन्न देवी देवों की पूजा अथवा यज्ञ बन्द कराए जिनमे पशुओ की प्औराय बलि चढ़ाई जाती थी।

श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण की वाणी का  देव पूजा केविरुद्ध स्पष्ट उद्घोष है।

                  "मूल श्लोकः'

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय -(9)

शब्दार्थ:- ये अपि = जो भी (भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्यदेवता=  देवी देवताओं  का । यजन्ते- पूजन करते  श्रद्धान्विता- श्रद्धा से करते हैं ।  तेऽपि मामेव यजन्ति- 

वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  कौन्तेय - हे अर्जुन - अविधि पूर्वकं- किन्तु उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

 अनुवाद--

जो भी भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं  का  पूजन  श्रद्धा से करते हैं  ।  वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  किन्तु - हे अर्जुन  उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

वस्तुत: यह पूजा उसी प्रकार है जैसे कोई भक्त  किसी वृक्ष के मूल( जड़) को छोड़ कर उसकी टहनीयों की पूजा कर रहा हो।

इसी कृष्ण ने एक बात में ही सभी द्विविधाओं को निर्मूल कर दिया है।

र्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

सभी धर्मों विभिन्न धर्मो( सम्प्रदायों) का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।



भगवद्गीता के समस्त श्लोकों में यह श्लोक सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी अत्यधिक विवादास्पद बन गया है।


श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के  कि कृष्ण देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ को नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

 

भागवत पुराण कार ने   »  स्कन्ध 11:  »  अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन के बहाने से  »  श्लोक 13 में पशु बलि और सुरा सेवन की परम्परा को कृष्ण से अनुमोदित कराने की कोशिश की है।


श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 

"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।

एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या-इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥ 

शब्दार्थ:-यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघो; भक्ष:—खाना; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न— बध नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.

 

अनुवाद:-वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है।


 धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।

 

तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने निम्नलिखित कथन दिया है—

यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:। हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥

यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके। अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥

अनुवाद:-

इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की प्रसन्नता के लिए-यज्ञ में पशु की बलि( हिंसा) करने की भागवत पुराण कार सिफारिश करता है। 

किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।

और किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 


यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।


इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।


वास्तव में भागवत पुराण कार   उपर्युक्त श्लोकों में पशु हिंसा का समर्थक है। भागवत के पशु बलि से सम्बन्धित श्लोक  वैष्णव धर्म के विरुद्ध हैं।


और इस प्रकार पशुओं की बलि का समर्थ भागवत पुराण वैष्णव ग्रन्थ कदापि नहीं है।

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किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है, जो कृष्ण चरित्र के सच्चे व्याख्याता थे।


क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।


 इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि यज्ञ में  पशु-वध तथा मांसाहार वैध है,


विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल- कलमा पढकर ही करते हैं ।

क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है। देवता माँस भक्षी हैं क्या ? निश्चित यह सब मांस भक्षी पुरोहितों की कारश्तानी ( कारनामा) है।


यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को पूर्णत: बन्द करा दिया था।


क्योंकि अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।

इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।

इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—

"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।

केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥

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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।

अनुवाद:- ★-

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61


विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है ।यह गोवर्धन पूजा का ही एक भाग है। जहाँ कृष्ण ने प्रथम बार गोपों को पशुओं की पूजा अथवा उनकी अभ्यर्चना करने का का विधान बनाया।


 उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।


देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

अनुवाद:-★

 कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    


तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।

अनुवाद:- ★

तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।                

तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★

तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।

राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।

अनुवाद:-★ 

वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।

 वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।

अनुवाद:- ★

यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★

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विचार विश्लेषण-

इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 

जिसके साक्ष्य जहाँ- तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।

जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रहा था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।

तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था। 


पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी माध्यम चुना हो-

जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 


कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।


कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- 


 कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है । वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

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कृष्ण के अनुसार-

यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।

यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 











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