आद्या राधा का विवाह कृष्ण के साथ हुआ द्वितीया छाया राधा (राधाच्छाया )का विवाह रायाण गोप से हुआ जो मूल राधा की प्रतिबिम्ब राधा थी रायाण गोप कृष्ण का ही अंश था। और तीसरी अनुराधा का विवाह उपमन्यु गोप से हुआ और आराधिका का विवाह अयन घोष से हुआ। व्रज में उस समय चार राधा नाम की गोपियाँ रहती थीं।
शास्त्रीय सन्दर्भों में राधा के पति कृष्ण हैं।
का क्षमा तं पतिं कर्तुं विना लक्षमीं सरस्वतीम् ।।
चतुर्भुजस्य द्वे भार्ये हरेर्वैकुण्ठशाथिनः ।३८।
गोलोके द्विभुजस्यापि श्रीवंशीवदनस्य च ।
किशोरगोपवेषस्य परिपूर्णतमस्य च ।। ३९ ।।
तस्य भार्या स्वयं राधा महालक्ष्मीः परात्परा ।
ब्रह्मस्वरूपा परमा परमात्मानमीश्वरम् । ४०।
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"श्रीभगवानुवाच
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।। १३५ ।।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।। १३६ ।।
वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि ।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८ ।।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति ।१३९ ।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।।
च गोकुले ।१४०।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी ।। १४१ ।।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसंनिभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् ।। १४२ ।।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३।
क्षयो भवेति वाक्यं च मयोक्तं कोपभीतया ।
वारत्रयं पुनर्वक्तुं वारयामास भास्करः ।। १४४ ।।
सत्ये च परिपूर्णोऽयं यथापूर्वो यथाऽधुना ।
त्रिपादश्चापि त्रेतायां द्वापदो द्विपरे तथा ।। १४५ ।।
एकपादश्च दर्मोऽयं कलेश्च प्रथमे हरे ।
शेषे कलाषोडशांशः पुनः सत्ये यथा पुरा ।। १४६ ।।
त्रिर्निर्गतं मम मुखात्क्षयस्तेन ततः क्रमात्
पुनरुक्ते च मनसि वारयामास भास्करः ।। १४७ ।।
तेनैव रेतुनाऽयं च करिशेषे कलामयः ।
तथा शप्तः स्थितो दुर्गे कलिशेषे तथा ध्रुवम् ।। १४८ ।।
एतस्मिन्नन्तरे नन्द ददृशुर्देवता रथम् ।
गोलोकादागतं वेगादतीव सुन्दरं शुभम् ।। १४९ ।।
अमूल्यरत्ननिर्माणं हीरहारपरिष्कृतम् ।
मणिमाणिक्यमुक्ताभिर्वस्त्रैश्च श्वेतचामरै। ।। १५०।
विभूषितं भूषणौश्च रुचिरै स्तनदर्पणैः ।
नत्वा हरिं हरं वृन्दा ब्रह्माणं सर्वदेवताः ।। १५१ ।।
समारुङ्य रथं दृष्ट्वा गोलोकं च जगाम सा ।
देवा जग्मुश्च स्वस्थानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १५२ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखणड उत्तरार्द्ध अध्याय ।86।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
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धर्म ने कहा- वृन्दे! जो इच्छारहित, तर्कण करने के अयोग्य, ऐश्वर्यशाली, निर्गुण, निराकार और भक्तानुग्रहमूर्ति हैं; उन परमात्मा को पति बनाने के लिए लक्ष्मी और सरस्वती के अतिरिक्त दूसरी कौन स्त्री समर्थ हो सकती है?
वैकुण्ठशायी चतुर्भुज भगवान की ये ही दो भार्याएँ हैं।
गोलोक में भी जो द्विभुज, वंशी बजाने वाले, किशोर गोप-वेषधारी, परिपूर्णतम श्रीकृष्ण हैं; उनकी पत्नी स्वयं परात्परा महालक्ष्मी राधा हैं।
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वे परमब्रह्मा स्वरूपिणी राधा उन श्यामसुंदर की, जो परम आत्मबल से संपन्न, ऐश्वर्यशाली, शमपरायण और परम सौंदर्यशाली हैं, जिनका सुंदर शरीर करोड़ों कामदेवों के सौंदर्य की निन्दा करने वाला, अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित, सत्यस्वरूप और अविनाशी है तथा जो रमणीय पीताम्बर धारण करने वाले और संपूर्ण संपत्तियों के दाता हैं; सदा सेवा करती रहती हैं।
वे श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज रूप से दो रूपों में विभक्त हैं। वे स्वयं चतुर्भुज-रूप से वैकुण्ठ में और द्विभुज-रूप से गोलोक में वास करते हैं।
पचीस हजार युग बीतने के बाद इंद्र का पतन होता है, ऐसे चौदह इंद्रों का शासनकाल लोकों के विधाता ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है।
ऐसे तीस दिन का एक मास और बारह मास का एक वर्ष होता है।
ऐसे सौ वर्ष तक ब्रह्मा की आयु समझनी चाहिए। उन ब्रह्मा की आयु समाप्ति, जिनका एक निमेष होता है, सनक आदि महर्षि जिनकी जीवनपर्यन्त सेवा करते रहते हैं, परंतु करोड़ों-करोड़ों कल्पों में भी जो विभु साध्य नहीं होते। सहस्रमुखधारी शेषनाग अरबों-खरबों कल्पों तक जिनकी भक्तिपूर्वक रात-दिन सेवा तथा नाम जप करते रहते हैं; परंतु वे परात्पर, दुराराध्य, हितकारी भगवान साध्य नहीं होते।
श्रीकृष्ण जी पत्नी राधा के मूल रूप का विवाह कृष्ण के साथ हुआ। यह बात ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में भी वर्णित है।
वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि ।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।। १३७ ।।मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।। १३८ ।।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी ।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति ।। १३९ ।।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।।
च गोकुले ।। १४० ।।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न रि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी ।। १४१ ।।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसंनिभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् ।। १४२ ।।
श्रीब्रह्म- वैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड नारदनाo भगवन्नन्दसंo
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