सोमवार, 13 मई 2024

वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता-


आज शास्त्रों के शोधों से यह प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव, गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं हैं।

इन गोपों की उत्पत्ति स्वराट विष्णु के हृदय रोम कूपों से  हुई है अत: इनका वर्ण विष्णु से उत्पन्न होने के कारण ही वैष्णव है। वैष्णव वर्ण के शास्त्रों में प्रमाण हैं। जिन्हें हम आगे यथाक्रम प्रस्तुत करेंगे

विष्णु पद में सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय करने से वैष्णव शब्द बनता है। जिसका अर्थ है विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु की सन्तान !
और चातुर्य वर्ण के अन्तर्गत  प्रमुख ब्राह्मण ब्रह्मा ( पुल्लिंग ब्रह्मन् पद में अण् प्रत्यय लगाने बनता है। जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा कि सन्तान!
गोप साक्षात स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।

प्रस्तुत है  वर्ण व्यवस्था पर सारगर्भित आलेख-
प्रस्तुतिकरण:-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़) एवं इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)

गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह  गोपों की उत्पत्ति का वर्णन है।
यदि मान लिया जाए कि गोलोक में उत्पन्न गोप भिन्न और पृथ्वी लोक के गोप भिन्न हैं तो भी यह बात सही नहीं है।

क्योंकि इसी विश्वजित्खण्डः के अध्याय एकादश ( ग्यारह) में पृथ्वी के सभी यादवों को कृष्ण ने अपने सनातन विष्णु रूप का अंश बताया है।

प्रसंग देखें-

"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।

तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
तब कृष्ण नें कहा था

"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-
१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न)
२-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।
३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले।
४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।
५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में + सन् भावे अ प्रत्यय = जयेच्छायां ।
६- जित्वा= जीतकर।
७-अरीन्= शत्रुओ को।
८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे।
९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।
१०-बलिं = भेंट /उपहार।
११- दिशाम् = दिशाओं में।
सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)
अनुवाद:-
समस्‍त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोकों, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार भी लायेंगे।७।

ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा गर्ग सहिता में भी गोपों को स्वराटविष्णु- (गोलोक वासी कृष्ण) के हृदय- रोम कूपों से  उत्पन्न  बताया है।
देखें निम्न श्लोक-

कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ! "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१। सन्दर्भ:-(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( स्वराट्-विष्णु ) के समान थे। वास्तव में स्वराट्- विष्णु का ही गोलोक धाम का रूप  कृष्ण है। जो सदैव किशोर अवस्था में रहते हैं।

इसी प्रकार  गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।

जिसे हम निम्न श्लोकों में दर्शाते हैं।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥

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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के हृदय- रोमकूप) से उत्पन्न होने से अञ्श रूप में वैष्णव ही थे। वैष्णव  ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण-व्यवस्था से  पृथक वर्ण है।

चातुर्य- वर्णव्यवस्था ब्रह्मा की सृष्टि है तो पाँचवाँ वर्ण वैष्णव वर्ण विष्णु की सृष्टि है।

चातुर्य वर्ण व्यवस्था में ब्रह्मा की मुखज सन्तान होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।
परन्तु विष्णु के हृदय रोम कूपों से उत्पन्न होने से गोप ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।

व्याकरणीय नियम से  ब्राह्मण शब्द ( पुल्लिंग  शब्द-ब्रह्मन् से +अण् प्रत्यय )= करने पर  तद्धित प्रत्ययान्त पद के रूप में सिद्ध होता है।
जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा की सन्तान-

ब्रह्मन्- शब्द नपुसंसक लिंग में होने पर परम-ब्रह्म का वाचक है। परन्तु पुल्लिंग रूप में केवल ब्रह्मा का वाचक है। ब्रह्मा  जो ब्राह्मणों के पिता और सांसारिक सृष्टि के रचयिता हैं।

देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा भी ब्राह्मणों की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालती है। 

इस विषय में ऋचा कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय बाहों से, वैश्य उरू ( नाभि और जंघा के मध्य भाग) से और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए हैं।

"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12)

श्लोक का  अनवय युक्त अनुवाद:- इस विराटपुरुष (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरणों से शूद्र  की उत्पत्ति हुई।(10/90/12)

इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की ही सृष्टि हैं। जबकि विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप भी हैं- विष्णु का ही सांसारिक व मूल गोलोकवासी रूप कृष्ण है।

विष्णु का गो तथा गोपो से सनातन सम्बन्ध है। पृथ्वी पर जब भी स्वराज विष्णु अवतार लेते हैं तो वे केवल गोपों के ही बीच में लेते हैं।

वेदों में विष्णु लोक का वर्णन करते हुए अनेक ऋचाऐं यह उद्घोष करती हैं। विष्णु के लोक में बहुत सी स्वर्ण मण्डित गायें रहती हैं।

भारतीय वेदों में विष्णु का वर्णन "गोप" के रूप में ही हुआ  है। देखें निम्न ऋचा -

"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥ तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
(ऋग्वेद 1/22/18)

उस अविनाशी विष्णु ने गोप रूप में सम्पूर्ण लोकों को तीन पग में अभिगमन कर लिया वही धर्म को धारण करने वाला है।

शास्त्रों में पंचम वर्ण के विषय में उपर्युक्त जानकारी है। परन्तु कोई भी तथाकथित पुरोहित या कथा वाचक कभी भी यह जानकारी समाज को नहीं देता है। इसके विषय में आज तक कोई चर्चा नही होती है।

परन्तु आभीर लोग यदि आज भी ब्राह्मणों को स्वयं से श्रेष्ठ मानकर इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं ।

तो ब्राह्मण लोग  उन्हें वैश्य और शूद्र वर्ण  ही मानते हैं। और स्मृति ग्रन्थों में विशेषत: मनुस्मृति में इस प्रकार की काल्पनिक मन गड़न्त श्लोक  भी बनाकर जोड़े गये हैं। जिसमें तथाकथित ब्राह्मणो ने अहीरों अपनी अवैध सन्तान बताया है। इसके लिए
मनुस्मृति का अध्याय दश का पन्द्रहवाँ श्लोक देखें-

विचार करना होगा कि जो गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर ( हृदय रोम कूप) से उत्पन्न हैं । और जबकि ब्राह्मण विष्णु के नाभि कमल की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं ।  तो इन दौंनों में किसकी श्रेष्ठता है। कालान्तर में धर्म की ठेकेदारी ब्राह्मणों ने अपने हाथ में लेकर अपने आप को बिना मतलब ही श्रेष्ठ बना कर लिख दिया- यहाँ तक की ब्राह्मण व्यभिचारी और कुकर्मी भी हो तो भी वह पूज्य है ।

तुलसी दास तभी  जहालत में लिख गये  "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।"
(रामचरित.मानस. ३।३४।२)

अर्थः "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"

तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति, पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों में लिखी गयी । जैसे

"दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क: परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् (पाराशर-स्मृति 192)

शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्ति अथवा चरित्र है।  — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।

विशेष—बौद्ध शास्त्रों में दस शील कहे गए हैं—हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्य गीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह इन सब का त्याग।

उपर्युक्त गद्यांशों में केवल शील का अर्थ बताना है।
तुलसी दु:शील ब्राह्मण को पूजने की बात कह रहे हैं
वह भी  धर्म ग्रन्थ की आढ़ में

परन्तु शूद्र कही जाने वाली मेहनत कश जाति के काबिल और विद्वान होने पर भी सम्मानित न करने की भी बात भी कह रहें हैं।
ये कैसी सामाजिकता?

मतलब धर्म और समाज का ठेका  पुरोहितों ने ही ले लिया। वह भी दर दर भीख माँग कर - शा~ आ ~~बास!!!

दु:शील का मतलब चरित्रहीन भी है। ऐसे ब्राह्मणों को पूजने का विधान बनाकर धर्म का सत्यानाश ही किया गया है ।

दुर्जना दासवर्गाश्च पटहाः पशवस्तथा ।
ताडिता मार्दवं यान्ति दुष्टा स्त्री व्यसनी नरः।५५।

दुर्जन= गँवार। दास = शूद्र! पटह = बड़ा ढोल! पशव = पशुगण। ताडिता ( प्रताडिता- पिटे हुए होकर- मार्दव= कोमलता (अधीनता) को प्राप्त होते हैं।
दुष्ट नारी और व्यसनी नर भी प्रताणित होकर कोमल हो जाते हैं।
अनुवाद:-
दुष्ट, दास, बड़े ढोल और पशु और दुष्टा नारी ।
मार खाकर  ही मृदुता ( अधीनता) को डरते मारे  प्राप्त हो जाते हैं ।

तुलसी दास ने ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी की चौपाई यहीं से इ़अनुवाद की है। यहाँ भी ता जन का अर्थ पीटना ही है। नकि समझाना-

गोपों को भी स्मृतिग्रन्थों नीच और  दुष्कर्म से उत्पन्न सन्तान दर्शाकर धर्म शास्त्रों की मर्यादा को तोड़ा है।

अत: गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं यह बात प्राचीन ग्रन्थों में दर्ज ही है।।

इसका साक्ष्य पद्मपुराण उत्तर खण्ड, वृहद-नारदपुराण-
ब्रह्म-वैवर्त पुराण ब्रह्म-खण्ड और गर्ग संहिता विश्व जित्खण्ड में है।

पञ्चम वर्ण वैष्णव के पक्ष में ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा पद्म पुराण उत्तराखण्ड से   निम्न श्लोक देखने योग्य हैं।

👇
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) में चार वर्णों से पृथक पाँचवा वर्ण वैष्णव की एक स्वतंत्र जाति आभीर का वर्णन किया है।

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रोजातयोयथा। स्वतन्त्राजातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।

अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति गोप है।(१.२.४३)

___________
सन्दर्भ:-(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय ग्यारह)-१/२/४३
_________

उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।

वैष्णव ही इन अहीरों का  वर्ण है ।
अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही हैं ।

परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित वर्णन व्यवस्था में शामिल कर उन्हें वैश्य तथा शूद्र बनाने का असफल प्रयास किया है।

और वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-

"सर्वेषांचैववर्णानांवैष्णवःश्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥ ४
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक आदमी का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।

प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।-

भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।

"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥

"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥

"विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)

अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।

हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए।
बाद में विराट पुरुष ( ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।
उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥

पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए कोई क्षत्रिय हुआ तो कोई वैश्य- और कोई शूद्र हो गया।

महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है

"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)

अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥

परन्तु आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का ज्ञाता व पालन करने वाले ! हुए ।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।

विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।

वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।

विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।

अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।

"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।

भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।

परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-

१- आ=समन्तात् + भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है

- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।

अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।

"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है। वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।

जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।

"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"

क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।

अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।

वैवाहिक मर्यादा के लिए समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी पति -पत्नी न बन सकें क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।

      "जय श्री राधे कृष्णाभ्याम् नमो नम: !



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