ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है ।
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं ।
तथा आसीत् "अस्" धातु का लड्. लकार का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है ।
तथा अजायत क्रिया जन् धातु का आत्मनेपदीय एक वचन रूप है।
एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषः
"अजायत "अजायेताम् "अजायन्त ।
मध्यमपुरुषः "अजायथाः "अजायेथाम् अजायध्वम् ।
उत्तमपुरुषः "अजाये अजायावहि अजायामहि
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा में लड्.(अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो वैदिक ऋचाओं के वर्णन में असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है ।
क्योंकि इस लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो। ऐतिहासिक विवरण के लिए कभी भी इस लकार का प्रयोग नहीं होता अपितु ऐतिहासिक विवरण के लिए केवल लिट्- लकार का प्रयोग ही होता है।
और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट्-लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है क्योंकि इसका अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है।
और वेदों की घटना ऐतिहासिक विवरण ही है। और वह भी प्रागैतिहासिक
और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त की लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है । वैदिक नहीं-और ऋग्वेद आदि में लिपिबद्ध करने वाला भूल गया कि इसे लिट्- लकार में लिखना था।
लिट्- लकार का आत्मनेपदीय क्रिया रूप अस्- धातु के ---निम्नलिखित हैं।
प्रथमपुरुषः "जज्ञे- "जज्ञाते- "जज्ञिरे
मध्यमपुरुषः "जज्ञिषे -"जज्ञाथे- "जज्ञिध्वे -
उत्तमपुरुषः. जज्ञे - जज्ञिवहे - जज्ञिमहे -
लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है ।
इनका कुछ और स्पष्टीकरण:-
2. लङ् -- Past tense - imperfect (Indefinite) इसमें हिन्दी वाक्यों में एक भूतकालिक क्रिया पद का प्रयोग होता है।
(लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल )
आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो घटना हुई हो । जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था ।
भूतकाल का एक और लकार :--
3. लुङ् -- Past tense - aorist
लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो केवल आज ही बीत चुका हो ।
जैसे :- मैंने आज गाना खाया ।
व्याकरण शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है aorist ,
अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें---
4. लिट् -- Past tense - perfect ( पूर्ण भूतकाल )
लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल । जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो
जैसे :- राम ने रावण को मारा था । राम: रावणं ममार।
संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं
5. लुट् -- Future tense - likely
6. लृट् -- Future tense - certain
7. लृङ् -- Conditional mood
8. विधिलिङ् -- Potential mood
9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood
10. लोट् -- Imperative mood
लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं --
लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है।
दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं।
इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-
(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)।
जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं।
इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है।
तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है।
इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।
तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है.
(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है।
वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है।
जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं।
उदाहरणार्थ पठ् से पठतु लोट् और पठेत् विधिलिड् ये दोनों बनते हैं।
वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive)
(जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)।
इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्. प्रकृति से भी बनते हैं।
इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है।
जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।
निश्चित रूप से पुरुष सूक्त पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ है ।
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है ।
क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
विशेषत: लेट लकार का ..
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।
ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी ।
जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे ।
वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था ।
और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे ।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया ।
यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी ।
ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं ।
क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ?
ब्राह्मण मन्त्रों का उच्चस्वर में उच्चारण करने वाले
धार्मिक क्रियाओं का सम्पादन करते थे ।
युद्ध इनका कार्य नहीं था ।
ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे ।
शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे । जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे।
और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे ।
उनसे ही इनकी जीविका चलती थी ।
ये यौद्धा अथवा वीरों के लिए देवों से स्तुति तथा युद्ध में विजयी होने की प्रार्थना तथा धार्मिक करें- काण्ड करते थे ।
वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था आज भी वही है बस !
धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया है ।
आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे !
उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।
वास्तव में ये सब गोलमाल है ।
कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है ।
न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...
क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है ।
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ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: !
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !!
(ऋग्वेद 10/90/12)
जबकि इससे पहले की ऋचा ऋग्वेद के नवम मण्डल में है 👇
"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।।
(ऋग्वेद 9/112//3)
अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है ।
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यादव योगेश कुमार 'रोहि'
एवम् वी कुमार यादव -----
सम्पर्क सूत्र 8077160219
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