बुधवार, 14 जून 2023

आज भागवत कथाऐं किस रूप में -


भागवत कथाओं के आयोजन आज  पैसे कमाने और समाज में अश्लीलता को धर्म की चादर में लपेटे हुए मनोरंजन क्लब हैं। 

कथावाचक केवल थोड़ा देशी तरजों पर हारमोनियम बजा लेते हैं और गा लेते हैं परन्तु उन्हें न तो संस्कृत का  ज्ञान है न संस्कृति और शास्त्रों का तो कोई ऑथेण्टिक ज्ञान है ही नहीं ।

भागवत में ये नाम के शास्त्री  केवल उन्हीं प्रसंगों को साप्ताहिक आयोजन में लेते हैं जिनसे चढ़ावा आये - जैसे कृष्ण जन्म- सुदामा कृष्ण मिलन" रुक्मिणी विवाह आदि आदि -

और इनकी फीस कम से कम पचास हजार से प्रारम्भ होकर पन्द्रह सोलह लाख तक है।

समाज के चारित्रिक उत्थान के लिए और उसके आध्यात्मिक ज्ञान के लिए कोई प्रसंग ये नहीं  लेते हैं 

जबकि भागवत पुराण में अनेक आध्यात्मिक प्रसंग हैं  सांख्य योग" भक्ति योग" और ज्ञान योग की मीमांसा भागवत में  है।

शास्त्री भी आज राधा और कृष्ण के नाम पर समाज के नव युवको और युवतियों को नचाते और उनकी कामवासनाओं में  घी डालते रहते हैं।

दरअसल ये कम जानकार केवल हारमोनियम छाप शास्त्री भी प्राय: स्वयं भी लंगोटी के कच्चे और चरित्र से डिगे हुए होते हैं ।

आल्हा के कड़के गाकर ये दान दाता के नाम पर नौजवानों का उत्साह बढ़ाते हैं । 

राधा का भागवत में वर्णन नहीं है परन्तु अन्य प्राचीन अथवा समकालिक पुराणों में वर्णन है।
यद्यपि राधा व्रज की अधिष्ठात्री भक्ति स्वरूपा हैं 
फिर भी ये राधा के नाम पर अश्लीलता ही फैलाते हैं। और तो और भागवत के साप्ताहिक आयोजन से  केवल जनता का मनोरंजन और नये लड़कों का सैटिंग प्लान जरूर हो जाता है विशेषत: ग्रामीण समाज में तो यही चल रहा है।

भारतीय पुराणों में स्वच्छ गंगाजल के साथ साथ कहीं कहीं  कुछ कचड़ा भी समाविष्ट है । क्योंकि परवर्ती काल में जोड़ तोड़ होने से ये विकृति आयी

यद्यपि भारतीय  शास्त्र हमारे सांस्कृतिक व्याख्याता हैं परन्तु  जिनमें प्राचीन समाज में घटित घटनाओं का अतिश्योक्ति पूर्ण काव्यात्मक वर्णन है।
जिसमें स्वच्छ गंगाजल के साथ कुछ कूड़ा कर कट भी है।

आवश्यकता है केवल गंगाजल को ग्रहण करने की

 परन्तु  व्यक्ति गंगाजल को ही कैसे ग्रहण करे 
अब धर्म विवेचना व्यक्ति कर नहीं सकता क्योंकि उसने जीवन के अधिकांश समय को केवल पैसे कमाने और  मोजमस्ती करने और अनैतिकता में ही व्यतीत कर दिया है।
अब वह जल्दी में वास्तविक धर्म को नहीं जान पाता उसका अन्त करण अनेक दुर्वासनाओं से दूषित है। परन्तु जीवन के पापपूर्ण कारनामों कि उसे कुछ आभास होता रहता है इस लिए वह अपने पापों को कम करने के लिए धर्म की शरण लेता है।

वर्तमान में धर्म तत्व के विवेचक कम लोग हैं जो समाज में मंचों पर नहीं आते हैं। केवल एकान्त साधना में जीवन व्यतीत करते हैं। और धर्म के नाम पर आज नकली धर्मगुरु भगवा वेष में समाज में पुजते और ऐष आराम की जिन्दगी बसर कर रहे हैं। 

इनको देखकर कुछ लोग धर्म यही समझ कर आलोचना करते हैं। मेरे विचार से ये दोनों ही एक जैसे हैं। एक सच देखना नहीं चाहता है और दूसरा सच दिखाना नहीं चाहता है।

धर्म कभी समाप्त होने वाली व्यवस्था नहीं है परन्तु समय  देश और परिस्थितियों के अनुरूप धर्म के सिद्धान्त भी बदल जाते हैं। और इसी लिए समय समय पर वह ईश्वरीय सत्ता  विशेष मानवों को नियुक्त करती है। कृष्ण ने धर्म की विवेचना युग के अनुरूप की थी और उद्घोष किया था ।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66। श्रीमद्भगवद्गीता

। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

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