जिस समय हम असमर्थ थे यादवीय वैदिक इतिहास को यादव समाज के समक्ष लाने में , और उस समय हमारा कोई मददगार भी नहीं नजर आ रहा था।
मन में लगातार यही इच्छा उद्वेलित निरन्तर हो रही थी कि स्वाभिमान और अपने जातीय इतिहास से वंचित अहीर जाति जो सदीयों से आज भी अनेक जातियों द्वारा हेय और ईर्ष्या की दृष्टि से देखी जाती रही है। उसके यथार्थ इतिहास को समाज के समक्ष कैसे लाऐं ?
विशेषत: जब जाति विशेष के कुछ रूढ़िवादी लोग अहीरों को कभी शूद्र तो कभी म्लेच्छ अथवा विदेशी भी कह कर निरन्तर पानी पी- पी कर परोक्ष रूप से ही गालियाँ देते थे तब हम्हें अत्यधिक दु:ख होता ही था।
क्योंकि जिस देश जाति में जन्म लिया बलिदान उसी पर हो जावे "
यह महावाक्य हमारी प्रार्थनाओं में सम्मिलित है।
हमारा जन्म भी घोषी अहीर जाति में हुआ है।
यद्यपि वैदिक काल में गोष (गां सनोति- सेवयति पालयति वा ) शब्द गोप का वाचक था जो लौकिक संस्कृत में आते -आते घोष हो गया और जो आभीर शब्द का ही ऑथेण्टिक पर्याय है।
वैसे आज अहीर जाति में अनेक गोत्र अथवा कबीले हैं। जैसी घोसी कमरिया किसनौत मझरौठ ढिढोर भरवाड़ आदि -
बात अहीरों के प्राचीन वैदिक इतिहास को समाज के समक्ष लाने की थी तो कोई अन्य जाति का व्यक्ति तो अहीरों के इतिहास लेखन में ईमानदार हो जाय तो यह तो सम्भव नहीं लगता-
ऐसे ही असाह्य और अभाव ग्रस्त समय में कन्हैया जी और राधा जी की प्रेरणा से
"माता प्रसाद जी आदिशक्ति राधा माता का साक्षात् प्रसाद बनकर हमारे साथ उपस्थित हो आये !
और यादवों की हीनता मिटाने के लिए तथा उनमें स्वाभिमान जाग्रत करने के लिए यदुवंश संहिता पुस्तक को समाज के समक्ष लाने के लिए कटिबद्ध (तैयार) हो गये।
यह सायद दिसम्बर का महीना था तीन -चार महीने में लगातार अपने संघर्ष और परिश्रम द्वारा स्वयं माता प्रसाद जी ने अपने ही आर्थिक बल पर यदुवंशसंहिता और राधा जी के प्रमाणित जीवन चरित्र पर आधारित पुस्तक यदुवंश समुद्भवा राधिका जी" तथा अहीर जाति में उत्पन्न -यदुवंश के अनेक कुलों तथा कुल गुरुओं पर हमारे शोध को पुस्तक रूप देकर प्रकाशित भी कराया ।
यह इनका तन -मन और धन द्वारा दिया गया योगदान हमारे लिए प्रभु का ही साक्षात् प्रसाद है।
यह हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी।
यद्यपि मूल ग्रन्थ से आधुनिक समाज के अनुकूल और सामयिक प्रसंग संकलित करना भी माता प्रसाद जी के द्वारा ही सम्पन्न हुआ।
अत: ये इस सम्मान के हकदार हैं।
समाज में धन सम्पन्न और प्रभुत्व शाली बहुत से लोग हैं परन्तु माता प्रसाद जी जैसे लोग कम ही हैं।
हमारे पास थेसिस और शोध सामग्री तो बहुत है परन्तु इतना धन नहीं कि हम प्रकाशित करा सकें।
क्योंकि लक्ष्मी जिसके पास है वह ज्ञान की देवी के दर्शन से प्राय: वञ्चित ही पाये जाते हैं।
परन्तु मुझे लगता यह सब भी ईश्वर का ही विधान था कि हम निमित्त कारण के रूप में एक युगान्तकारी थेसिस ( शोध पूर्ण सामग्री) यदुवंश संहिता के रूप में लाए माता प्रसाद ने पुस्तक के नामकरण का सुझाव दिया तो यदुवंश संहिता नाम जेहन में आया।
इस परियोजना का प्रारम्भ एक बार अचानक ईश्वरीय विधान से इस प्रकार हुआ।
कि जब हमने एक बार अपने "कैनन के पिण्टर से वेबसाइट लॉग पर लिखी गये शोध - अर्थात अपने दीर्घकालिक यादवीय इतिहास से सम्बंधित थेसिस( शोध) को "ज्ञात्याभीरम्महावीरम्" पुस्तक के रूप में प्रिण्ट निकाल कर फेसबुक पर सो( Show) किया था तो लोगों की शुभकामनाऐं प्राप्त हुईं।
इसी दौरान हमारे सारथि बनकर माता प्रसाद उसी समय उसी प्रकार आये जैसे मोहग्रस्त किंकर्तव्यविमूढ अर्जुन के साथ कृष्ण जी आये थे।
खेर माता प्रसाद भले ही कृष्ण न हो परन्तु कृष्ण की प्रेरणा ये अवश्य थे । और ये
इस पुनीत कार्य के लिए शीघ्र अग्रसर हुए ।
जिनसे हम पहले हम कभी न मिले थे।
फिर भी आप हमसे ऐसे मिले कि न जाने कितने समय से हम इस ऐतिहासिक प्रकाशन की योजना पर काम रहे हों।
जैसे लंगड़े और अन्धे मिलकर ही रास्ता तय करते है। उसी प्रकार हम दोनों इस यात्रा के तय करने में सम्पूरक बने।
समाज के समक्ष यदुवंश-संहिता लाने में इनकी भूमिका का वर्णन अनिर्वचनीय है। इसका श्रेय इनको मिलन ही चाहिए
इन्होंने ही हमारे द्वारा लिखित "ज्ञात्याभीरम्महावीरम्" ग्रन्थ के विशाल कलेवर से सारगर्भित और सामयिक तथ्यों को संकलित ( सम्पादित) कर दिल्ली में महान समाज सेवी चिरञ्जीव लाल यादव जी की प्रेस से मुद्रित भी कराया।
जिनका इसी उद्देश्य से दिल्ली भी कई बार शीत और बरसात जैसे दिनों में आना -जाना लगा रहा।मथुरा से "शेरा यादव" इनके इस दिल्ली यात्रा के सहभागी बने रहे ।
शेरा यादव के सहयोग से ही वृन्दावन में गोविन्द मठ में पुस्तक विमोचन का कार्य सम्पन्न हो सका -
माता प्रसाद जी गम्भीर और धैर्यवान् व्यक्तित्व के धनी होते हुए भी एक व्यवहार कुशल और यादव समाज के हित की बात करने वाले आज सबसे समर्पित समाज सेवी हैं।
ऐसे लोग ही हमारा सम्बल और बल हैं।
"इतिहास में कहीं न कहीं इस प्रकार के उदारचेता का नाम दर्ज होना इतिहास को गौरवान्वित करना ही है।
"माताप्रसाद जी को सम्पादक के संग्राहक पद पर हमने ही प्रतिष्ठित किया था अन्यथा यह बन्दा तो केवल समाज के समक्ष बिना किसी स्वार्थ के तत्पर थे। सम्पादन का कार्य इन्होंने किया भी है।
यदुवंश के विशाल-काय इतिहास से सारगर्भित और सामयिक तथ्य चुनकर यदुवंश संहिता में सम्पादित करना माता प्रसाद जी के द्वारा ही सम्पन्न हुआ है।
गुण दोष तो यद्यपि सभी मनुष्यों में होते ही हैं।
व्यक्ति के गुण-दोषों का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात जब गुणों का अनुपात अधिक हो तो उस व्यक्ति को गुणवान् मानकर सम्मानित करना ही चाहिए।
गुण- दोष हम सब में कहीं न कहीं होते ही हैं। भले ही स्वयं हम उनका अवलोकन हम न कर सकें !
परन्तु माता प्रसाद जी के हम केवल गुणों के अन्वेषक और आकाँक्षी हैं।
उन लोगों से तो ये कई गुना अच्छे हैं जिन्होंने हमारा केवल उपयोग ही नहीं अपितु उपभोग भी किया और हम्हें हाशिए पर छोड़ दिया था। और जो लोग दुहाई समाज के स्वाभिमान और उत्थान की देते रहे।
माता प्रसाद जी आज हमारे सबसे नजदीकी साथी हैं। इसमें कोई सन्देह की गुँजाइश नहीं है।
ये महानुभाव हमसे आयु में तो बड़े हैं ही परन्तु सामाजिक अनुभवों में भी हमसे कई सिद्ध हस्त हैं।
हमने केवल पुस्तक लिखी परन्तु आज मैं समझता पुस्तक लिखने की अपेक्षा उसे प्रकाशित कराना कठिन कार्य है क्योंकि ज्ञान की गहराई में उतरने वाले कभी कभी लक्ष्मी से भेंट नहीं कर पाते हैं।
माता प्रसाद जी ने पुस्तक प्रकाशित कराकर एक युगान्तकारी थेसिस समाज के समक्ष प्रस्तुत कर दिया।
इतिहास में इनका नाम अवश्य दर्ज होगा -
हम सभी सांसारिक लोग हैं और हमारे स्वार्थ और इच्छाऐं कहीं न कहीं हम्हें दोषी सिद्ध कर ही देती हैं।
परन्तु हम्हें तो लोगों के गुणों को ही आत्मसात करना चाहिए।
क्योंकि दोषों को ही देखना जीवन का मूल्यांकन नहीं होता है।
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