वासना " तृष्णा " लोभ " मोह " और लालसा" एक ही परिवार के सदस्य नहीं है। अपितु यह एक भाव ही सभी अवान्तर भूमिकाओं में भिन्न भिन्न नाम धारण किए हुए है।
और "आवश्यकता" (जरूरत) नामक जो भाव है वह इन सबसे पृथक जीवन के अस्तित्व का अवधारक है। जरूरतें जैविक अवधान हैं सृष्टा द्वारा निर्धारित जीवन का विधान हैं।
और जो वस्तु जीवन के लिए आवश्यक है वहीउसी रूप और अनुपात में उतनी ही सुन्दर भी है।
यद्यपि प्रत्येक इन्सान में गुण- दोष होते ही हैं व्यक्ति स्वयं अपने दोषों पर गौर नहीं करता परन्तु हम्हें तो उसके गुण ही ग्रहण करने चाहिए सायद वे हमारे लिए गुण न हों क्योंकि हम जिसे एक बार शत्रु मान लेते हैं उस व्यक्ति में चाहें कितने भी गुण हों वह हम्हें दोष ही दिखाई देते हैं। क्यों कि उस शत्रु भाव से हमारे दृष्टि के लेन्स का कलर ही बदल जाता है।
शत्रुता "ईर्ष्या" घृणा अथवा विरोध सभी भाव मूलत: उस व्यक्ति के हमारी प्रति वैचारिक प्रतिकूलता के प्रतिबिम्बित रूप हैं।
यहीं से हमारे मस्तिष्क में पूर्वदुराग्रह का जन्म होता है।
ऐसी स्थिति में हमारा निर्णय कभी भी निष्पक्ष नहीं होता है।
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