शनिवार, 3 जून 2023

नास्तिक की गति और मति-



नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में उछलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता और जो शान्ति से रहित व्यक्ति   सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ? आनन्द रहित व्यक्ति नीरस और निराशाओं में जीवन में सदैव अतृप्त ही रह जीवन बिता देता है।


दर-असल नास्तिकता जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। 

जिसकी गिरफ्त हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार अन्त:करण की मलीनता( गन्दिगी) के लिए उत्तरदायी है।

अन्त:करण ( मन ,बुद्धि, चित्त ,और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप ) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।

और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
अहंकार व्यक्ति को सीमित और संकुचित दायरे में कैद कर देता है ।

वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है। जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बित करता है। वह अनन्त और सनातन है।

मानवीय बुद्धि उसका एक अनुमान तो कर सकती है परन्तु अन्य पात्रता हीन व्यक्तियों के सामने व्याख्यान नहीं कर सकती हैं।


संसार में कर्म इच्छओं  से कभी रहित नहीं होता है 


कर्म में इच्छा और इच्छाओं के मूल में संकल्प और संकल्प अहंकार का विकार -है।

भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है ।

जब एक बार किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाय तो जनसाधारण उनकी गलत बातों को भी सही मानते हैं। धर्म के क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू है।
क्योंकि श्रद्धा तर्क विचार और विश्लेषण के द्वार बन्द कर देती है।

जब जब व्यक्ति अपनी प्राप्तव्य वस्तु के अनुरूप योग्यता अर्जित कर लेता है वह वस्तु उसे प्राप्त हो के ही रहती है।
देर भले ही हो जाय !




प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि -

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