गुरुवार, 1 जून 2023

सामवेद की मनुस्मृति कार ने ध्वनि अपवित्र बताकर की कृष्ण की अवहेलना -

जब कृष्ण ने सामवेद को अपनी विभूति बताया तो मनुस्मृति कार ने क्यों  सामवेद की ध्वनि को अपवित्र बता दिया। यह कैसा विरोधाभास शास्त्रों में निश्चित ही यह विरोधाभास कालान्तर में शास्त्रों में उनके पूर्ण रूप से पढ़े बिना जोड़े गये सिद्धान्त हीन श्लोकों के परिणाम स्वरूप भी हुआ।

"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।२२।
श्रीमद्भगवद्गीता के १०वें अध्याय के २२वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं-'मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना अर्थात् जीवनी शक्ति हूँ ।

ऋग्वेदो देवदैवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः ।
सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः । ४.१२४ ।
ऋग्वेद देवताओं से सम्बन्धित है तो यजुर्वेद यज्ञ से सम्बन्धित है जिस यज्ञ को द्वारा देवताओं को प्रसन्न किया जाता है।अत: यजुर्वेद भी परोक्ष रूप से देव विषयक वेद है। 

मनुस्मृति कार ने स्पष्ट शब्दों में सामवेद को पितरों से सम्बन्धित बताया जबकि साम वेद संगीत का वेद है और संगीत नाद ब्रह्म की प्रत्यक्ष उपासना और सृष्टि की आदिम विद्या है।
नवजात शिशु का प्रारम्भिक रुदन स्वरों का आलाप मयी प्रवाह है।

जबकि ऋग्वेद में भी पितरों से सम्बंधित ऋचाऐं हैं।देवता: यमः ऋषि: यमः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

य॒मो नो॑ गा॒तुं प्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑ । यत्रा॑ न॒: पूर्वे॑ पि॒तर॑: परे॒युरे॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒३॒॑ अनु॒ स्वाः ॥

ऋग्वेद / मण्डल:10/ सूक्त:14/ ऋचा 2  
पदों का अर्थ विश्लेषण:- (यमः नः गातुं प्रथमः विवेद) यम राज ने  हमारी शरीर को प्रथम से ही प्राप्त किया हुआ है, अत एव (एषा गव्यूतिः-न-अपभर्तवा-उ) यह मार्ग किसी तरह त्यागा नहीं जा सकता (यत्रा नः पूर्वे पितरः परेयुः) जिस मार्ग में हमसे पूर्व उत्पन्न जनक आदि पालक जन भी कुल परम्परा से यात्रा करते चले आये हैं और (एना जज्ञानाः स्वाः पथ्या-अनु) इसी मार्ग से उत्पन्न हुए सभी प्राणी और वनस्पति आदि पदार्थ निज मार्गो  का अनुगमन करते हैं, ॥२॥



सामवेद गीत-संगीत प्रधान है। प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों मे से ९९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं। केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है, जिसका एक कारण गीता में कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है।

सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। । महाभारत में गीता के अतिरिक्त अनुशासन पर्व में भी सामवेेेद की महत्ता को दर्शाया गया है- सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रीयम्। ।अग्नि पुराण के अनुसार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मुक्त हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है, तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिवेणी है। ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक विद्वान् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छंद, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग नृत्य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।

नामाकरण
सामवेद को उदगीथों का रस कहा गया है, छान्दोग्य उपनिषद में। अथर्ववेद के चौदहवें कांड, ऐतरेय ब्राह्मण (८-२७) और बृहदारण्यक उपनिषद (जो शुक्ल यजुर्वेद का उपनिषद् है, ६.४.२७), में सामवेद और ऋग्वेद को पति-पत्नी के जोड़े के रूप में दिखाया गया है -

अमो अहम अस्मि सात्वम् सामहमस्मि ऋक त्वम् , द्यौरहंपृथ्वीत्वं, ताविह संभवाह प्रजयामावहै।

अर्थात (अमो अहम अस्मि सात्वम् ) मैं -पति - अम हूं, सा तुम हो, (द्यौरहंपृथ्वीत्वं) मैं द्यौ (द्युलोक) हूं तुम पृथ्वी हो। (ताविह संभवाह प्रजयामावहै) हम साथ बढ़े और प्रजावाले हों। ।

जिस प्रकार से ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा कहते हैं और यजुर्वेद के मंत्रों को यजूँषि कहते हैं उसी प्रकार सामवेद के मंत्रों को सामानि कहते हैं। ऋगवेद में साम या सामानि का वर्णन २१ स्थलों पर आता है (जैसे ५.४४.१४, १.६२.२, २.२३.१७, ९.९७.२२)।
_________________________________
सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदा चन ।
वेदस्याधीत्य वाप्यन्तं आरण्यकं अधीत्य च । । ४.१२३ । 

गंगानाथ झा द्वारा व्याख्यात्मक नोट्स
इस श्लोक का पहला भाग वीरमित्रोदय (संस्कार, पृष्ठ संख्या- 533) में इस प्रभाव के लिए उद्धृत किया गया है कि जिस समय के दौरान साम का उच्चारण किया जाता है, वह केवल ऋग्वेद और यजुर्वेद के पढ़ने के लिए अयोग्य होता है।

यह श्लोक स्मृतिचन्द्रिका (संस्कार, पृष्ठ संख्या. 160) में भी उद्धृत है ; - पुरुषार्थचिंतामणी में (पृष्ठ संख्या  443); - हेमाद्रि में (काल, पृष्ठ संख्या. 768); - और गदाधरपद्धति (काल, पृष्ठ संख्या 196) में भी है।

विभिन्न लेखकों द्वारा तुलनात्मक नोट्स
गौतम (16.21)।—'ऋक और यजुष श्लोकों का तब तक पठन नहीं होना चाहिए जब तक साम-गान की ध्वनि है।'

बौधायन (1.11.23)—'जब हवा में सड़न की गंध आती है, या जब कोहरा होता है, और जब साम की आवाजें आती हैं, तब तक यह अध्ययन के लिए अप्रकाशित रहता है। वे टिकाऊ हैं।'

आपस्तम्ब धर्मसूत्र (1.10.19) —'साम की ध्वनियाँ  अपित्र हैं।'

। (1.11.6)।—'उस दिन उस अध्याय का पाठ नहीं करना चाहिए जिसके उपाकर्म किए हों।'

विष्णु (30.26) — 'जब तक साम की ध्वनियाँ हैं, तब तक ऋग्वेद और यजुर्वेद को नहीं पढ़ा जाएगा।'

याज्ञवल्क्य (1.145.148) —'वेद को पूरा करने पर, और आरण्यक को पढ़ने के बाद, यह शेष दिन और रात के दौरान अध्ययन के लिए अनुपयुक्त होगा।
_____________________
 साथ ही जब कुत्ते की आवाजें आती हैं.......... और साम-गायन की तब ऋग्वेद और यजुर्वेद नही पढ़ना चाहिए ये दौनो ही अशुभ हैं।'

पारस्कर (2.11.6)। -'यह उस समय के दौरान अध्ययन के लिए अनुपयुक्त होगा जब ........... साम की ध्वनियाँ हों।'

अंगिरस (चतुर्वर्गचिंतामणि, परिभाष-काल, अध्याय 14)। - 'श्मशान-भूमि के पितर ( भूतप्रेत) के लिए जितना बलिदान सामवेद के साथ चढ़ाया जाता है,इस लिए इस वेद की ध्वनि अशुद्ध है।'

यम (वीरमित्रोदय-संस्कार, पृष्ठ 534) - 'ऋग्वेद और यजुर्वेद को तब तक नहीं पढ़ा जाना चाहिए जब तक कि साम-गान की ध्वनि  हो; या जब बहुत तेज हवा चल रही हो।'

__________________________________

सामध्वनावृग्यजुषी नाधीयीत कदा चन।
वेदस्याधीत्य वाप्यन्तं आरण्यकं अधीत्य च ४/१२३/
अनुवाद:- जहाँ वह सामवेद के मन्त्रों का उच्चारण हो  ऋग्वेद और यजुर्वेद का पाठ नहीं करें ; न वेद के अंत को  अथवा आरण्यक को भी न  पढ़े।—(123)।

"ऋग्वेदो देवदैवत्यो यजुर्वेदस्तु मानुषः।
सामवेदः स्मृतः पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनिः ४/१२४

अनुवाद:-ऋग्वेद देवता संबंधित होता हैं यजुर्वेद मनुष्य संबंधित हैं सामवेद पितृसंबधित हैं इसलिए इनका ध्वनि अपवित्र होती हैं ।

तात्पर्य यही है कि मनुस्मृति कार ने साम वेद की ध्वनि को अपवित्र बता कर कृष्ण के विभूति स्वरूप की अवहेलना ही की है।

सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो  मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है ।
या फिर  श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का उपदेश नहीं।

परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के  विद्रोही  पुरुष थे।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों  में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है ।

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के  कि कृष्ण 
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ को नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

श्रीमद्भागवतम्

भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन  »  श्लोक 13

श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥
 
शब्दार्थ:-यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाना; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.
 
अनुवाद:-वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
 
तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने निम्नलिखित कथन दिया है—
यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥

यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥

इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की संस्तुति करते हैं। 
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।

और किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 

यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।

इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।

किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है,

क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।

 इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है,

विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कलमा पढकर करते हैं ।

क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है। देवता माँस भक्षी हैं क्या?

यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ को नाम पर पशु वध का निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।
अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।

इसी लिए इस बोध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।
इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—
"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥

अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61

विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।

देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★
 कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★
तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।    
            
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।       
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ 
वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
 वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★
यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
___________

विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 
जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही थी और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में  रोककर निषिद्ध दिया था। 
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:-  कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

____________
यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती 
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।

मनुःस्मृति में वर्णन है कि 👇
" सामवेद: स्मृत: पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनि:

( मनुःस्मृति चतुर्थ अध्याय 4/124 वाँ श्लोक )

अर्थात्‌ सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है ।
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि
अपवित्र व अश्रव्य है ।

मनुःस्मृति में सामवेद को हेय
और ऋग्वेद को उपादेय माना ।

वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही ईश्वर की वाणी नहीं हैं ।
अथवा इनका प्रतिपाद्य विषय एक नहीं ।

क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें अध्याय के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇

  "वेदानां सामवेदोऽस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ" और इसके विरुद्ध  मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि "👇

सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)

सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !

अब तात्पर्य यह कि यहाँं अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।

वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) शब्द भी साम शब्द से व्युपन्न है ।

पता होना चाहिए कि कृष्ण मुरली को बजाने  वाले और सबको नाच नचाने वाले श्रेष्ठ संगीतकार थे ।
परन्तु इनकी संगीत भी आध्यात्मिक नाद -ब्रह्म का गायन था ।👇

साम‘ शब्द का अर्थ है ‘गान‘। सामवेद में संकलित मंत्रों को देवताओं की स्तुति के समय गाया जाता था। सामवेद में कुल 1875 ऋचायें हैं। जिनमें 75 से अतिरिक्त शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं। इन ऋचाओं का गान सोमयज्ञ के समय ‘उदगाता‘ करते थे। सामदेव की तीन महत्त्वपूर्ण शाखायें हैं-

  1. कौथुमीय,
  2. जैमिनीय एवं
  3. राणायनीय।

देवता विषयक विवेचन की दृष्ठि से सामवेद का प्रमुख देवता ‘सविता‘ या ‘सूर्य‘ है, इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है। भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है। सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के शिष्य जैमिनि को माना जाता है।

  • सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रन्थ जिसके मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय हों।
  • यज्ञ, अनुष्ठान और हवन के समय ये मन्त्र गाये जाते हैं।
  • सामवेद में मूल रूप से 99 मन्त्र हैं और शेष ऋग्वेद से लिये गये हैं।
  • इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है।
  • इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं।
  • इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं।
  • सामवेद में ऋग्वेद की कुछ ॠचाएं आकलित है।
  • वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सामग (साम गान करने वाले) कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं।
  • सामगान व्यावहारिक संगीत था। उसका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं हैं।

प्रस्तुति करण :-यादव योगेश कुमार रोहि -


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें