गुरुवार, 15 जून 2023

ईश्वर की प्रतीक विधान प्रतिमा-

ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है।

उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है।

क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।  जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी ।

"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39। (श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
 
अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है।

जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है।
परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है
जागता सोता मरता और जीता है।
ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है। जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गद्य नहीं है।
फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है।
अहं( ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है।
परन्तु स्व ( स्वयं) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है।

अहं से हम और हम के भाव से स्व( आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम( कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी
अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।

वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था।

"कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥( ऋग्वेद १०/१३०/३)

“{प्रमा= प्रमाणम्} 
“प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता ।

परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है।दर-असल   ईश्वर को  जानना ही श्रेयकर है।

ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय  पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए  ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। 

अन्त:करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।  ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है।  यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है।

उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का  कोई उपमान अथवा मानक  ही नही है।
 पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है।

वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । 

भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी 
तब यह कहा -

"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है।

जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है।

इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में  उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा-

हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के  द्वारा  मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं।

ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए 
प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। 

और सन्त भी  पूजा( साधना ) करने वाले होते थे।
अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। 
दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी  बनाते थे।

अरब  का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही  सनम- तो कहीं  "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। 

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का 
लट् लकार (वर्तमान) में  रूप निम्नलिखित हैं ।

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति
(वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं।

मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ
( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/

उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः
( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/

मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था।
अरबी में 
 صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , " मूर्ति विक्रेता )        (
है।

सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो  से मिलकर यह शब्द बनता है।।

इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति  बुतपरस्ती  के माध्यम से  ही प्रकट होती रही है।

प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों।
मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था।

"सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है।

अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ।

हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है  एक स्तुति वाचक शब्द है।

जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। 

चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत  के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ  है।

प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। 

उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। 
दरअसल न और ल में बदलाव  की प्रवृत्ति भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है।

मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं।
यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है।

इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है।

दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م‎ है ! 

जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है।
अत: सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है।

जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है।

ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था।

लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं का आशय रहा। 

बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया।

इस सिलसिले की दिलचस्प बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया।

संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है।

यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण  अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार।

सगुण (साकार)  पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है।
जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को  मात्र  ईश्वर की मानकर पूजा जाता है।

भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र 
सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के नामों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है।
चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है।

सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है 
मत्स्यपुराण के अनुसार संत शब्द की निम्न परिभाषा है :

ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:।
सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
अनुवाद:-
ब्राह्मण ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं।

मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे ।
अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वंतो ये भवंत्युत ।
साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। 
सन्दर्भ:-
(ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)

सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि अर्थ है।

सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥  
(यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। 

रघुवंशम्-1.10

श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
अनुवाद:-
उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। 
सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥

एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है।

एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् ।
कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥

प्रस्तुतिकरण :- यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219-

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