शुक्रवार, 2 जून 2023

धर्म विश्लेषण-




बिना साधना के साधु और बिना शान्ति  के  सन्त बने हुए जो मण्डलेश्वर या धर्माचार्य हैं।
वे  वैसे ही प्रतीत होते हैं  जैसे  नकल करके कोई बिना योग्यता वाला व्यक्ति  डिग्री लेकर डिग्रीधारी हो जाता है।
यही धर्म की आड़ में समाज में यही लोग कभी मन्दिर निर्माण तो कभी कथा भगवत वक्ता तो कभी लोगों की पर्ची निकलकर समस्या का समाधान करने की बात करके केवल धनोपार्जन और भोग विलास का भौतिक इन्द्रियों जन्य सुख भोगते हैं।
जन साधारण इन्हीं छुपे रुस्तमों को पहचान नहीं पाता और इनके चाल और छल भरे
कारनामों को चमत्कार समझकर समर्पित हो जाता है।   
नास्तिक व्यक्ति इन पाखण्डियों को ही धर्माचार्य जानकर धर्म और की आलोचना करते रहते है।
दर असल नास्तिकता मलीन चरित्र से प्रभावित मन की अवधारणा है।

दर असल आज धर्म का स्वरूप पूर्ण परिवर्तित है आज का धर्म धर्म है  नहीं हैं और उसी वर्तमान रूप देख रहे व्यक्ति धर्म के प्रति भौतिक दृष्टिकोण रखता  है।
अत: नास्तिक अभी किनारे पर ही है जिसने दूसरे किनारे पर पहुँचने के लिए कोई प्रयास ही नहीं क्या है। और पाखण्डी ढ़ोंगी बीच में या मझधार में उछलते डूबते हुए के समान हैं। और जो दूसरी पार( किनारे पर पहुँच गया है वही पारंगत- व्यक्ति है।
आप कभी व्यक्तिगत रूप से गहराई में उतरे नहीं और बात करते हों समुद्र की गहराई को नाम न  की ! वस्तुत: धर्म 
सार्वजनिक न होकर व्यक्तिगत जीवन की एक साधना है जो साधना में सहायक हैं वे साधन और  साध्य है मन की शुद्धता मन शुद्ध होने पर ही ईश्वरीय ज्ञान का परावर्तन स्वत: ही चित्त पर होने लगता है। चित्त एक दर्पण है जिस पर कई जन्मों से वासना और अहंकार कालिख पिता हुई है‌।
मन के शुद्धिकरण का कारण धर्म है धर्म नें नियम- संयम और सदाचरण का समावेश है। व्रत भी सदाचरण का क्लिष्ट वर्जन है। 

परन्तु आज धर्म को धन्धा बनाया गया है। आज धर्म को बहुतायत चालाक लोगों ने अपने स्वार्थ की सिद्धि का साधन बनाया है 

आज धर्म की आड़ में व्यभिचार है अनाचार भी है। और भगवा पापों काले कारनामों को छुपाने का लबादा इससे ज्यादा कुछ नहीं 
वैसे प्रत्येक व्यावसायिक वर्ग या कम्पनी का अपना एक गणवेष या ड्रेस तो होती होती ही है।
जिससे उस व्यक्ति के व्यवसाय और कम्पनी की पहचान हो जाय - धर्म के क्षेत्र में भी यह नियम लागू है। परन्तु इस नियम की आड़ में खेल भी खूब हुआ है। अधिकतर लोग अपने पापों और गुनाहों को छुपाने के लिए भग वा धरी
 बन गये परन्तु सभी धार्मिक व्यक्ति भी भग वा धरी  होते हुए भी व्यभिचारी या अनाचारी नहीं  हैं।
यह भी सत्य का एक पक्ष है मान्यवर !धर्म एक व्यक्तिगत साधना है एकल साधना है सामाहुहिक या चौपाल की साधना तो कभी नहीं है।
दान दीन को दिया गया वह धन है जिसके दाता का कोई प्रचार न हो।

आज पाखण्ड और धर्म के विकृत रूप को देकर अशुद्ध अन्त करण वाले व्यक्ति नास्तिक और घोर निराशा वादी होते चले जा रहे हैं।

नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में उछलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता और जो शान्ति से रहित व्यक्ति   सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ? आनन्द रहित व्यक्ति नीरस और निराशाओं में जीवन में सदैव अतृप्त ही रह जीवन बिता देता है।

दर-असल नास्तिकता जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। 

जिसकी गिरफ्त हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार अन्त:करण की मलीनता( गन्दिगी) के लिए उत्तरदायी है।

अन्त:करण ( मन ,बुद्धि, चित्त ,और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप ) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।

और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
अहंकार व्यक्ति को सीमित और संकुचित दायरे में कैद कर देता है ।

वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है। जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बित करता है। वह अनन्त और सनातन है।

मानवीय बुद्धि उसका एक अनुमान तो कर सकती है परन्तु अन्य पात्रता हीन व्यक्तियों के सामने व्याख्यान नहीं कर सकती हैं।
संसार में कर्म इच्छओं  से कभी रहित नहीं होता है। 
कर्म में इच्छा और इच्छाओं के मूल में संकल्प और संकल्प अहंकार का विकार -है।
भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है ।



नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में निरन्तर उच्छलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता है। 
और जो शान्ति से रहित व्यक्ति है  वह  कभी सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ?

दर- असल नास्तिकता व्यक्ति के  जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। जिसकी गिरफ्त में  हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार उसके अन्त:करण की गन्दिगी के लिए उत्तरदायी है।

अन्त:करण ( मन, बुद्धि, चित्त और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप (स्व:) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।
यद्यपि अन्त:करण शुद्धि अहंकार के रहते नहीं होता आवश्यक है। 

और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बत करता है।
कर्म जीवन के अस्तित्व का आधार है।
कर्म में इच्छाऐं  और इच्छाओं के मूल में संकल्प है। और संकल्प अहंकार का विकार -है। अर्थात् बिना अहंकार के संयोग के कभी कोई संकल्प कर ही नहीं सकता है।

अहंकार का विरोध भक्ति ने किया है।
भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है  अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है।

वर्तमान मिथकीय कथाऐं प्रागैतिहासिक कालीन हैं प्रतिबिम्ब है विष्णु इन्द्र अथवा अन्य देवी देवताओं का क्या चरित्र और चित्र था यह अज्ञात होते हुए भी अस्तित्व हीन तो नहीं है।
हाँ इतना अवश्य है कि व्यक्तियों ने इन देवी देवताओं का चरित्र अपनी मनोवृत्ति और अपने समय के समाज की गतिविधियों को दृष्टिगत करके रचा अत: ये मिथक मिथ्या होते हुए भी अस्तित्व हीन नहीं हैं।

कृष्ण को भी बलात्कारी बनाने के लिए कुछ इन्द्रोपासक अथवा कृष्ण द्रोही पुरोहितों ने अनेक आख्यान रच डाले हैं। यद्यपि कुछ पुरोहित भारत देश में ऐसे भी हुए की जिन्होंने सत्य नियम सयम  और दिखाबा या पाखण्ड का पुरजोर विरोध किया। यही लोग कृष्ण महावीर और बुद्ध के विचारों के समर्थक थे।

विष्णु सुमेरियन अर्द्ध नर मत्स्याकार देव था जिसे सुमेरियन में विक्सनु तथा सैमेटिक में दैवन कहा परन्तु भारती मिथकों में आते आते  चरित्र में भेद कर दिया। यह भेद सामाजिक प्रवृति और लाकाचारों के अनुरूप होता है।

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प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार रोहि -


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