विचार कीजिये कि सारा संसार किस तरह अपने कर्मों में लगा हुआ है; अतः आपको भी क्षत्रियोंचित कर्तव्य का ही पालन करना चाहिये। जो कर्मों को छोड़ बैठता है, उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती। इस प्रकार सन्यासी कर्म हीन होता है ।।
महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में भीमसेन का वचन-विषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
सन्यासत: सिद्धिंराजा कश्चिदवाप्नुयात्। पर्वताश्व चद्रुमाश्चैव क्षिप्तं शिद्धिमवाप्नुयु।२४।
यदि कोई राजा संन्यास से सिद्धि प्राप्त कर ले, तब तो पर्वत और वृक्ष बहुत जल्दी सिद्धि पा सकते हैं। क्योंकि ये नित्य संन्यासी, उपद्रव शून्य, परिग्रहरहित तथा निरन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले देखे जाते हैं। यदि अपने भाग्य में दूसरों के कर्मों से प्राप्त हुई सिद्धि आती, तब तो सभी को कर्म ही करना चाहिये। अकर्मण्य पुरुष को कभी कोई सिद्धि नहीं मिलती। (यदि अपने शरीर मात्र का भरण-पोषण करने से सिद्धि मिलती हो, तब तो) जल में रहने वाले जीवों तथा स्थावर प्राणियों को भी सिद्धि प्राप्त कर लेनी चाहिये; क्योंकि उन्हें केवल अपना ही भरण-पोषण करना रहता है। उनके पास दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जिसके भरण-पोषण का भार वे उठाते हों। देखिये और विचार कीजिये कि सारा संसार किस तरह अपने कर्मों में लगा हुआ है; अतः आपको भी क्षत्रियों-चित कर्तव्य का ही पालन करना चाहिये। जो कर्मों को छोड़ बैठता है, उसे कभी सिद्धि नहीं मिलती। |
श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि दशमोऽध्यायः।। 10।। |
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