यह अपने अस्तित्व का अवधारणा मूलक स्रोत है इसके अस्तित्व के लिए सबूत भाषा वैज्ञानिकों द्वारा प्रदान किए गए हैं: ।
वैदिक काल में उष्ट्रा भैंस को कहा जाता था और उष्ट्र जैसे को यह बाद में ऊँट के लिए तत्सम रूप में रूप हो गया -
महिषी -
महिषी शब्द संस्कृत भाषा में ......मह् = पूजायाम् (१/४८५ तथा १०/२९२ उ० महयति अर्थात् मह् धातु में से बनता है जिसकी पूजा या महिमा सर्वत्र है।
और हम सब आज भी भैंस का सबसे अधिक दूध पीते हैं ! और हमने जिसका एक बार दूध पी लिया वह हमारी वस्तुतः माता ही हो गयी इसमें किसी भी प्रकार का संदेह नहीं परन्तु तेरा सत्यानाश हो! स्वार्थ
आज भौतिकता की चकाचोंध अन्धा व स्वार्थ प्रवण हम कितने भ्रान्त,क्लान्त अशान्त व ,रोगी और अल्प आयु होते चले आ रहे हैं !
परन्तु फिर भी हमने कभी एक क्षण भी रुक कर,धैर्य पूर्वक अपने इस जीवन की विकृत प्रवृत्तियों का तनिक भी निश्पक्ष दृष्टि से आत्म कल्याण की भावना से निरीक्षण नहीं किया है ?
और हम अपनी अन्तरात्मा की सात्विकता के साथ निरन्तर व्यभिचार करते रहे ,जीवन के समग्र नैतिक मूल्यों का भौतिकता की ध्वान्त वेदी पर हमने हवन कर दिया है ,और आज भी" रोहि" अज्ञान की दीर्घ कालिक तमस् निशा में समय के पथ पर कभी मूर्छित हो और कभी ठोकरें खाकर जीवन की गाड़ी को घसीट रहे हैं !!!
हमारी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतनाऐं अन्धविश्वास और रूढि वादिता की गिरफ्त में आज दम तोड़ रहीं है ।
आज हम धनवान् होते हुए भी निर्धन हैं क्यों ? कि हमारी संस्कृति की फ़सल उजड़ गयी ,हमारा चरित्र रूपी वित्त(धन)भी लुट गया ,हमारे पास अब कोई अक्षय सम्पत्ति नहीं बची है। !!!
हमने अपने आप को लुटने दिया ,मिटने दिया !! इतना ही नहीं हमने अपनी उस माता को भी नीलाम कर दिया जिसने हम्हें जीवन दिया था
वह माता जो निर्माण करती है ,जीवन के हर पक्ष का "माता निर्माता भवति" के पवित्र भाव को हम विस्मृत कर बैठे , गो और भैंस हमारी माताऐं हैं ।
जिनके दुग्ध धारा से हमारी संस्कृतियों की वल्लरीयाँ सिंचित होकर सदैव हरित रहीं ।
माता (माँ) माननीय ,सम्माननीय ही नहीं, हमारे जीवन का सर्वथा आधार भी है |
हमने नाम और विशेषण विशेषता को दृष्टि गत करके ही दिए
"प्राचीन काल में गौ (cow ) विश्व संस्कृति की आत्मा थी प्राचीन मैसो-पोटामिया अर्थात् आज का ईराक ईरान और सुमेरियन संस्कृति में गौ (🐂) एक पवित्र पशु था और सुमेरियन गाय की पूजा करते थे।
"देव संस्कृति की सम्वाहक भी गाय थी परन्तु गौ की महानता को आधार मानकर दैविक संस्कृतियो मैं ही पश्चिमीय एशिया के धरातल पर एक विभेदक रेखा खिंच गयी यद्यपि पवित्र तो गाय को दौनों शाखाओं ने माना
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परन्तु पवित्रता के मानक भिन्न भिन्न थे ।
सायद यह मानक भेद बाद में ही हुआ । बहुत सम्भव है ।
"यस्मिन् । अश्वासः । ऋषभासः । उक्षणः । वशाः । मेषाः । अवऽसृष्टासः । आऽहुताः । कीलालऽपे । सोमऽपृष्ठाय । वेधसे । हृदा । मतिम् । जनये । चारुम् । अग्नये ॥१४।
यस्मिन्) जिस यज्ञ में- (उक्षणः) oxen लक्षण: बैल-(अश्वासः) घोड़े (ऋषभासः) वृषभ (साँड) (वशाः) गौऐं (मेषाः) ऊन देनेवाली भेड़ (अवसृष्टासः) पर्याप्त बनायी (आहुताः) आहूति को (कीलालपे) उस अन्नरक्षक (सोमपृष्ठाय) वह पर्वत जिसकी पीठ पर सोम हो उसके लिए (वेधसे-अग्नये) उस वेधस अग्नि के लिए (हृदा-चारुं मतिं जनये) हृदय से मन से अतिसुन्दर मति उत्पन्न करता हूँ।
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सायण भाष्य-
“यस्मिन् अग्नौ “उक्षणः उक्षाणः । ‘ वा षपूर्वस्य निगमे ' इति दीर्घविकल्पः । सेचनसमर्थाः “अश्वासः अश्वाः “ऋषभासः वृषभाश्च “वशाः स्वभाववन्ध्याश्च “मेषाः च "अवसृष्टासः देवतार्थम् अवसृष्टाः परित्यक्ताः सन्तोऽश्वमेधे "आहुताः आभिमुख्येन हुता भवन्ति “कीलालपे सौत्रामण्यां सुरां पिबते । “कीलालम्' इत्युदकनामसु पाठात् । उदकं पिबते "सोमपृष्ठाय सोमयुक्तः पृष्ठ उपरिभागो यस्य तस्मै सोमपृष्ठाय “वेधसे विधात्रे तस्मै “अग्नये “हृदा हृदयेन “चारुं कल्याणीं "मतिं स्तुतिं “जनये जनयामि । उत्पादयामि ॥
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भारतीय आर्यों के ग्रन्थ त्रृग्वेद (rigved ) १०/८६/१४
उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥ (ऋग्वेद१०/८६/१)
सायण भाष्य:-
अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः वृषभान् "साकं सह मम भार्ययेन्द्राण्या प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति ।
“उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव “इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥
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पर तथा १०/९१/१४ पर भी देवों की बलि के लिए गौ वध के उद्धरण हैं ।
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वाजसनेयी संहित्ता तथा तैत्तीरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मणों के द्वारा गौ-मेध के पश्चात् गौ मांस भक्षण का उल्लेख भी है ।
इतना ही नहीं बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ग्रन्थ मनुस्मृति में भी ब्राह्मणों द्वारा बलि के पश्चात् बहुतायत से मांस खाने का उल्लेख है |
बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ।। (मनुस्मृति 5/23)
अर्थात् ब्राह्मण यज्ञ के लिए बडे़ मृग (चौपाए) पशु और पक्षियों का वध करें ! और ब्राह्मण अपनी इच्छा के अनुसार धुले हुए मांस को खाएं !!!
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अतःमनुस्मृति में ब्राह्मणों द्वारा पशुओ का वध करके मांस खाने का जिक्र बहुत से स्थलों पर है |
परन्तु फिर भी ब्राह्मणों में ही परस्पर पशुओं की बलि (मेध) को लेकर वैचारिक भिन्नताऐं थीं
उपनिषद कालीन ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु वध के सशक्त विरोधी भी थे ।
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वस्तुतः वह गौः ही थी जो हमारे जीवन के भौतिक (सभ्यता परक )और आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दौनो ही पक्षौं को गति प्रदान करने बाली थी और आज भी है ! यह तथ्य अब भी प्रासंगिक है स्वयं गौः शब्द का व्युत्पत्ति परक ( etymologically) विश्लेषण इसी तथ्य का प्रकासन करता है |
"गच्छति निर्भयेन अनेन इति गौः " गम् धातु में संज्ञा करण में " डो" प्रत्यय करने पर गौः शब्द बनता है।
"गाय प्राचीन काल मैं निर्भय होकर गमन करती थी आज गाय की इस प्रवृत्ति के अनुकूल परिस्थतियाँ नहीं रह गयीं हैं।
आज गाय का जीवन संकट ग्रस्त है ।
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विश्व की माता गाय --"गावो विश्वस्य मातरः " आज विपत्ति में भटक रही है गौः सृष्टि का प्रथम पाल्य पशु है !! भारोपीय ( भारत और यूरोप ) वर्ग की सभी भाषाओं में गौः शब्द अल्प परिवर्तन के साथ विद्यमान् है ।
संस्कृत गौः ईरानी भाषा में गाव के रूप मैं है तो जर्मन भाषा में कुह (kuh) पुरानी अंग्रेजी में कु (ku) इसी का बहुवचन रूप काइ (cy) या काँइनस्( coins) = सिक्के फ्राँस भाषा में काँइन (coin) = बिल्ला - वेज़ जिससे सटाम्प मनी (money) को रंगा जाता था यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में क्वनियस् ( cuneus) = wedge बिल्ला , जर्मन भाषा से निकली हुई मध्य इंग्लिश में यह शब्द क्येन( kyen) आयर्लेण्ड की भाषा में यह शब्द बहुवचन रूप में काँइन है।
अर्थात् बहुत सी गायें काँइन( coin) शब्द आज धन मुद्रा पैसा आदि के अर्थ में रूढ़ है !!! Coin कॉइन अंग्रेजी शब्द पाइस ( piece) समान अर्थक है ।
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और यह इतिहास का एक प्रमाणित तथ्य है कि प्राचीन विश्व में हमारी व्यापारिक गतिविधियों का माध्यम प्रत्यक्ष वस्तु प्रणाली थी अर्थात् वस्तुऔं की आपस में अदला बदली थी यह गौः नामक पशु ही हमारी धन सम्पदा थी
संस्कृत पशु शब्द का ग्रीक (यूनानी) भाषा में पाउस ( pouch) रूप है पुरानी अंग्रेजी में यह शब्द फ्यू ( feoh) पोए है जर्मन भाषा में यह शब्द वीह( vieh) है पुरानी नॉर्स में ,फी, रूप है जो बाद में फ़ीस ( शुल्क) होगया थी वास्तव में गाय और भैंस दूर के रिश्ते में सगी वहिनें थी अतः दौनो ही पूज्या मौसी और माताऐं है।
यह कोई उपहास नहीं बल्कि सत्य कथन है ।
भूमध्य रेखीय दक्षिणा वर्ती भूस्थलों में जब देव संस्कृति के अनुयायीयों का स्कैण्डीनेविया ( बाल्टिक सागर) की ओर से प्रथम आगमन हुआ तब उन्होने गाय के समान जिस काले विशाल पशु को देखा उसे महिषः 🐃🐃.कहा अर्थात् महि = गाय क्यों कि गाय पूजनीया थी मह् = पूजा करना धातु मूलक शब्द है महि और महि के समान होने से भैंस भी महिषी कह लायी थी महिषी रूप प्राचीन मैसो- पोटामिया की सैमेटिक शाखा असीरी संस्कृति का सम्वाहक था जिसे पुराणों में असुर कहा है
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ग्रीक ( यूनान) के आर्यों ने महिषी ( भैंस को बॉबेलॉस ( Boubalos) कहा ,तथा इटालियन भाषा में यह शब्द बुफैलॉ ( buffalo) है जिसका अर्थ होता है गाय के समान ग्रीक भाषा में बॉस् ( bous ) का अर्थ है गौः भारोपीय भाषा ओं म, "ब," वर्ण कभी कभी " ग" रूप म में परिवर्तित होता है ,जैसे जर्मन में वॉडेन woden से गॉडेन शब्द बना और फिर गॉडेन से गॉड god शब्द बना है।
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.सांस्कृतिक द्वेष के कारण भी गौः शब्द का अर्थ पूज्य व भगवती के रूप में रूढ़ भी हुआ |
और महिषी का भोग परक अर्थ हुआ जैसे राजा की पटरानी, दासी ,सैरन्ध्री तथा व्यभि चारिणी स्त्रीयों को महिषी की संज्ञा दी गयी इतिहास में प्रमाण है कि पुराने समय में पारसी जरत्उष्ट्रः के अनुयायी भी गाय की पूजा करते थे ।
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इतना ही नही इस्लामीय शरीयत में भी गाय के पूज्य व महान होने का प्रमाण है .।
१४🐃.देखें बुख़ारी की हदीस 📖 कंसुलअम्बिया पृष्ठ १५/ हदीसी व़ाकयात इस प्रकार है ।
कि जिब्राईल फरिश्ता ख़लीक़ सलल्लाहु अलैहि वसल्लम हज़रत मोहम्मद बताते हैं कि फिरदौस( paradise ) जिसे वेदों में "प्रद्यौस्" भी कहा है उस फिरदौस में एक गाय जिसके सत्तर हजार सींग हैं ,जिसके सींग ज़मीन में गढे हुए हैं और वह गाय
( वकर) मछली की पीठ पर खड़ी है अगर वह तनिक हिल जाय तो सारी का़यनात नेस्तनाबूद हो जाय ।
भारतीय पौराणिक मान्यता के अनुसार पाताल के जल पर खडी़ हुई जिस गौ के सींग पर पृथ्वी खण्ड टिका है वस्तुतः यह वर्णन प्रतीकात्मक ही है।
🐂 और इन धारणाओं का श्रोत प्राचीन सुमेरियन संस्कृति है |
इस्लामीय शरीयत मैं जो ""व़कर ईद़"" शब्द है वह सुमेरियन है जैसे आदम ,तथा नूह और नवी शब्द भी है अरबी भाषा में पहले बक़र ईद़ का अर्थ गाय की पूजा था अरबी में वक़र शब्द का एक अर्थ है "" महान ""
संस्कृत भाषा में वर्करः गाय तथा बकरी का वाचक है | कृष्ण हों, अथवा ईसा या ,फिर मोहम्मद गाय की महानता का सभी ने वख़ान किया है परन्तु प्राक् इतिहास के कुछ काले पन्ने भी थे गौ की महत्ता को आधार मान कर पश्चिमीय एशिया में आर्यों की दो विरोधी संस्कृतियाँ अस्तित्व में आयीं 'त्रग्वेद अतिथि का वाचक गौघ्न = गां हन्ति तस्मै उसके लिए गाय मारी जाय जो अतिथि आया हुआ है।
"आरे ते गौघ्नयुत पुरूषघ्नं क्षयत्वीरं सुम्न भस्मेते अस्तु त्रग्वेद ० १/११४/१०
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इतना ही नहीं वेद में अतिथि का वाचक गविष्टः शब्द भी आया है प्रचिकित्सा गविषटौः त्रग्वेद वेद ६/३१/३ तथा युध्यं कुयवं गविष्टोः अंग्रेजी में यही शब्द गैष्ट ( guest) बन गया है। अर्थात् गाय जिसके लिए इष्ट (इच्छित) वास्तव में शब्द संस्कृतियों के सम्प्रेषक होते हैं। अथर्ववेद में गौ वध करने बालों को कि यदि गौ हन्ता कहीं मिलजाय तो उसे मार दो ? यदि नो गाम् हंसि तम् त्वा सीसेन वध्यामो त्र- ग्१/१५/५ 📖
Whatsapp⬇ 8979503784. 🐂🐂🐂🐂🐃🐂 कलि काल देखकर हँसा गौमाता की दुर्दशा व्याकुल क्षुदा से
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