शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

मांस मदिरा पितर और कनागत( सूर्य का कन्या राशि में प्रवेश होने पर श्राद्ध तर्पण में मांस का विधान और पुरोहितों द्वारा शूद्रा महिला के साथ रमण से पितरों की तृप्ति होना -

'श्राद्धपक्ष में विशेष'
"मनुस्मृति में श्राद्ध विधान"
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★आखिर किसकी तृप्ति ? पितरों की या पुरोहितों की ? तार्किक व तथ्यपूर्ण लेख.


★-मनुस्मृति के अध्याय तीन में श्लोक संख्या 122 से लेकर श्लोक संख्या 283 तक, यानी 162 श्लोकों में 'पितर श्राद्ध' से संबन्धित कर्मकाण्ड का विधान है। 

जिनमें ब्राह्मणों को सादर आमंत्रित करके, उनकी पूजा अर्चना के बाद उन्हें जिमाने की व्यवस्था है। 
जिसमें बताया गया है कि, ब्राह्मणों को क्या-2 खिलाने से, पितरों को कितने-2 समय तक की तृप्ति मिलती है ? 
प्रस्तुत हैं, उन्हीं में से अर्थ सहित कुछ चुने हुए श्लोक...
पित्रणां मासिकं
श्राद्धमन्वाहार्यं विदुर्बुधा।
       तच्चामिषेण कर्तव्यं
        प्रशस्तेन प्रयत्नतः।।
          मनुस्मृति 3/123
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भावार्थ- पितरों के मासिक श्राद्ध को, विद्वान 'पिण्डान्वाहार्यक' नामक श्राद्ध कहते हैं। और इसे यत्नपूर्वक उत्तम 'मांस' के द्वारा सम्पन्न करना चाहिए।
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पूर्वेद्युरपरेद्युर्वा
श्राद्धकर्मण्युपस्थिते। निमन्त्रयेत त्र्यवरान्
सम्यक् विप्रान् यथोदितान्।।
              मनुस्मृति- 3/187

भावार्थ- श्राद्ध का समय आने पर, पहले दिन अथवा अगले दिन उपरोक्त कथनानुसार कम से कम तीन ब्राह्मणों को अवश्य निमन्त्रण दे।
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उपवेश्य तु तान्विप्रान्
       आसनेष्वजुगुप्सितान्।
गन्धमाल्यैः सुरभिभिः
          अर्चयेत् देवपूर्वकम्।।
          मनुस्मृति 3/209
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भावार्थ- उन अनिन्दित ब्राह्मणों को आसनों पर बिठाकर सुगंधियों से युक्त चन्दन, केशर आदि पदार्थों तथा मालाओं से देवताओं की तरह उनका पूजन करे।

पाणिभ्यां तूपसंगृह्य
         स्वयमन्नस्य वर्धितम्।
विप्रान्तिके पित्रन्ध्यायन् शनकैरुपनिक्षिपेत्।।
        मनुस्मृति 3/224
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भावार्थ- अन्न से भरे पात्रों को स्वयं पकड़कर, पितरों का ध्यान करते हुए धीरे से ब्राह्मणों के पास रखे।

भक्ष्यं भोज्यं च विविधं
           मूलानि च फलानि च।
ह्रद्यानि चैव मांसानि
            पानानि सुरभीणि च।।
       (मनुस्मृति 3/227)
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भावार्थ- विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ, मूल और फल, उत्तम प्रकार के मांस तथा सुगन्धित पेय पदार्थ उनके सामने रखे।

हर्षयेद्ब्राह्मणांस्तुष्टो
           भोजयेच्च शनैः शनैः।
अन्नाद्येनासकृच्चैतान्गुणैश्च
          परिचोदयेत्।। मनुस्मृति 3/233
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भावार्थ- हर्ष पूर्वक, ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करते हुए उन्हें खिलावे। खाद्य पदार्थों के गुणों का वर्णन करते हुए बार-2 और लेने का आग्रह करे।

👌अब देखिए! किस चतुराई से, जिह्वालिप्सा के साथ लिंग- इन्द्रिय की लिप्सा की पूर्ति का भी विधान बनाया।

पद्मपुराणम्‎ | खण्डः -(७) (क्रियाखण्डः)
← अध्यायः (२१)

                      ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाःश्रेष्ठाः पूजनीयाःसदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम|६|
सभी ही ब्राह्मण श्रेष्ठ और पूजनीय सदैव होते है। ब्राह्मण चोर होने पर भी पूजनीय है .

अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरः स्मृताः||७|

ब्रह्मोवाच ।
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि ।
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम।६॥

अर्था⬇
ब्राह्मण बलात्कारी व्यभिचारी भी पूजनीय है
और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
_________

आमन्त्रितस्तु यः
          श्राद्धे वृषल्या सह मोदते।
दातुर्यद्दुष्कृतं किंचित्तत्सर्वं
           प्रतिपद्यते।। मनुस्मृति 3/191
____________________________    
अर्थ- और जो ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित किए जाने पर वृषली स्त्री के संग रमण (मैथुन) करता है तो, दाता का जितना भी पाप है, उस सबको वही प्राप्त करता है।

आमन्त्रितस्तु यः
          श्राद्धे वृषल्या सह मोदते।
दातुर्यद्दुष्कृतं किंचित्तत्सर्वं
           प्रतिपद्यते।। )मनुस्मृति 3/191)

आमन्त्रित:=  बुलाया हुआ  ।तु  = तो । य:  =जो ।श्राद्धे = श्राद्ध में ।वृषल्या  सह मोदते =  वृषली के साथ रमण करता है। दातु:= दाता के । य:= जो दुष्कृतम्  किञ्चित् तत् सर्वम् प्रतिपद्यते = जो कुछ पाप हैं उन सबको वह उस  श्राद्ध कर्ता की रजस्वला कन्या से संभोग करके अपने ऊपर ले लेता है ।
______________________
(याति =प्रतिपद्यते आप्नोति -प्राप्त कर्ता है ।)
 वृषली=स्मृतियों आदि के अनुसार वह कन्या जो रजस्वला तो गई हो, पर जिसका अभी विवाह न हुआ हो। 
विशेष—कहते हैं, ऐसी कन्या का पिता बड़ा पातकी होता है और उसे कन्या की भ्रूणहत्या करने का पाप लगता है। जैसा कि वर्णन किया गया है ।

पितुर्गेहे च नारी रजः पश्यत्यसंस्कृता । भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वृषली स्मृता” इत्यु- क्तायां पितृगृंहे दृष्टरजस्कायामनूढ़ायां 

आमन्त्रितस्तु यः
          श्राद्धे वृषल्या सह मोदते।
दातुर्यद्दुष्कृतं किंचित्तत्सर्वं
           प्रतिपद्यते।। मनुस्मृति 3/191

आमन्त्रित:=  बुलाया हुआ  ।तु  = तो । य:  =जो ।श्राद्धे = श्राद्ध में ।वृषल्या  सह मोदते =  वृषली के साथ रमण करता है। दातु:= दाता के । य:= जो दुष्कृतम्  किञ्चित् तत् सर्वम् प्रतिपद्यते = जो कुछ पाप हैं उन सबको वह उस  श्राद्ध कर्ता की रजस्वला कन्या से संभोग करके अपने ऊपर ले लेता है ।
______________________
(याति =प्रतिपद्यते आप्नोति -प्राप्त कर्ता है ।)
 वृषली=स्मृतियों आदि के अनुसार वह कन्या जो रजस्वला तो गई हो, पर जिसका अभी विवाह न हुआ हो। 
विशेष—कहते हैं, ऐसी कन्या का पिता बड़ा पातकी होता है और उसे कन्या की भ्रूणहत्या करने का पाप लगता है। जैसा कि वर्णन किया गया है ।

पितुर्गेहे च नारी रजः पश्यत्यसंस्कृता । भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वृषली स्मृता” इत्यु- क्तायां पितृगृंहे दृष्टरजस्कायामनूढ़ायां 
____________________________    
अर्थ- और जो ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित किए जाने पर  वृषली ( रजस्वला कन्या)के संग रमण (मैथुन) करता है तो, दाता का जितना भी पाप है, उस सबको वही प्राप्त करता है।
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अर्थ- और जो ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रित किए जाने पर  वृषली ( रजस्वला कन्या)के संग रमण (मैथुन) करता है तो, दाता का जितना भी पाप है, उस सबको वही प्राप्त करता है।
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★इस मन्त्र के मोह में, धर्मभीरु कितने, भोले-भाले लोग, अपने सिर का पाप उतारने के लालच में, अपनी पत्नियों का भी समर्पण कर देते होंगे?

👇क्या खिलाने से कितने दिनों की पितृतृप्ति?
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तिलैव्रींहियवैर्मापैरद्भिर्मृलफलेन वा। 
दत्तेन मासं तृप्यन्ति विधिवत्पितरो नृणाम्।।
       मनुस्मृति- 3/267
भावार्थ- तिल, चावल, जौ, उड़द, जल, कन्दमूल अथवा फल विधिवत देने से मनुष्यों के पितर एक महीने तक तृप्त रहते हैं।

द्वौ मासौ मत्स्येनमासेन
           त्रीनमासान्हरिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरो
           शाकुनेनाथ पञ्च वै।।
       मनुस्मृति- 3/268
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भावार्थ- मछली के मांस से दो महीने, हिरण के मांस से तीन महीने, भेड़ के मांस से चार महीने, तथा पक्षी के मांस से पांच महीने तक पितर तृप्त रहते हैं।

षणमासांश्छागमांसेन
             पार्षतेन च सप्त वै।
    अष्टावेणस्य मांसेन
                 रौरवेण नवैव तु।।
        मनुस्मृति- 3/269
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अर्थात- बकरे के मास से छह महीने, प्रषत (चित्रमृग) के मास से सात महीने, एण (कृष्णमृग) के मास से आठ महीने और रुरु नामक मृग के मास से नौ महीने तक पितरों की तृप्ति होती है।

दशमासांस्तु तृप्यन्ति
           वराहमहिषामिषैः।
शशकूर्मयोस्तु मांसेन
            मासानेकादशैव तु।।
      मनुस्मृति- 3/270
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भावार्थ- सुअर और भैंसे के मांस से दस महीने तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक पितर तृप्त रहते हैं।

संवत्सरं तु गव्येन
           पयसा पायसेन च।
वार्ध्रीणसस्य मांसेन
           तृप्तिर्द्वादशवार्षिकी।।
 मनुस्मृति- 3/271
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भावार्थ- गौ के दूध व खीर से एक वर्ष तक तथा वार्ध्रीणस (पानी पीते समय जिसके कान पानी में भींगते हों) बकरे के मांस से बारह वर्ष तक पितरों की तृप्ति होती है।

कालशाकं महाशल्काः
              खङ्गलोहामिषं मधु।
आनन्त्यायैव कल्पन्ते
              मुन्यन्नानि च सर्वशः।।
     मनुस्मृति- 3/272
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भावार्थ- कांटेदार मछली, गेंडा और लाल वर्ण के बकरे का मांस, मधु तथा सभी तरह के मुनिअन्नों से पितरों को अनन्त काल तक तृप्ति होती है।

★यह सारा विधान तो अन्य वर्णों के लिए है। ब्राह्मणों के लिए तो पितृ तर्पण हेतु अंजुलिभर जल ही पर्याप्त है।
👎यथा-

यदेव तर्पयत्यद्भिः
          पित्रृन्स्नात्वा द्विजोत्तमः।
तेनैव कृत्स्नमाप्नोति
           पितृयज्ञक्रियाफलम्।।
     मनुस्मृति- 3/283
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भावार्थ- ब्राह्मण स्नान करके जो जल से पितृतर्पण करता है, उसी से वह नित्य श्राद्धक्रिया का फल पाता है।

★पितरों की तृप्ति के नाम पर, आत्मतृप्ति और मनमानी मौजमस्ती का कितना बढ़िया पाखंडपूर्ण विधान? 
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गुरुजी भीष्म पाल यादव इन तथ्यों पर व्यंग करते हुए कहते हैं 

          हाथ हिले ना पइयाँ।
    बैठे ही देइ गुसइयाँ।।
अमानवीय और शोषणकारी इस व्यवस्था को देखकर ही, कदाचित किसी दिलजले की जुबाँ से निकला होगा...

   आए कनागत फूले काँस।
          वामन ऊले नौ-नौ बाँस।।

पुराणों में भारतीय संस्कृति का श्रोत व आधार विद्यमान है ‌
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(देवी भागवत पुराण के सप्तमस्कन्ध के नवम अध्याय में इक्ष्वाकु पुत्र विकुक्षि का एक आख्यान वर्णित है 
 जिसमें वे श्राद्ध के लिए निश्चित मांस में से खरगोश का मांस खा लेते है। )

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देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ०७/अध्यायः९

               मान्धातोत्पत्तिवर्णनम्

                   -व्यास उवाच -
कदाचिदष्टकाश्राद्धे विकुक्षिं पृथिवीपतिः ।
आज्ञापयदसंमूढो मांसमानय सत्वरम् ॥ १॥

व्यास जी ने कहा हे महाराज किसी समय इक्ष्वाकु राजा के पुत्र विकुक्षि राजा हुए एक दिन महाराज इक्ष्वाकु ने अष्टक श्राद्ध ( पार्षण) में मांस लाने के लिए विकुक्षि से कहा हे पुत्र तुम वन में जाकर  श्राद्ध -यज्ञ के निमित्त शीघ्र ही कोई उत्तम मांस लाओ ।

उपर्युक्त श्लोक में इक्ष्वाकु के पुत्र विकुक्षि को राजा मांस लाने की शीघ्र आज्ञा देता है ।

मेध्यं श्राद्धार्थमधुना वने गत्वा सूतादरात् ।
उत्युक्तोऽसौ तथेत्याशु जगाम वनमस्त्रभृत् ॥ २॥

ऐसी आज्ञा पाते ही वे अस्त्र धारण करके  तत्काल जंगल में शिकार की खोज में चले गये १-२

तब  विकुक्षि श्राद्ध के लिए पशु लाने वन में शस्त्र धारण कर जाते है ।

गत्वा जघान बाणैः स वराहान्सूकरान्मृगान् ।
शशांश्चापि परिश्रान्तो बभूवाथ बुभूक्षितः ॥३॥

विस्मृता चाष्टका तस्य शशं चाददसौ वने ।
शेषं निवेदयामास पित्रे मांसमनुत्तमम् ॥४॥

विकुक्षि ने वन में जाकर वाणों से अनेक सूअर खरगोश और मृग मारे उस समय वह शिकार करते करते विकुक्षि थक गया उसे भूख भी लग गयी जिसमें उसने एक खरगोश पकाकर वहीं खा लिया शेष मांस ले जाकर उसने अपने पिता को दे दिया ३-४ 

अर्थात जाकर वालों से विकुक्षि  वराह मृग सूअर खरगोश आदि का बध करते थक जाता है तब उसे भूख लगती है । और वह भूल जाता है कि अष्टक श्राद्ध में मांस की आवश्यकता है भूख से व्याकुल वह खरगोश को खा लेता है ।और शेष जन्तुओं का मास पिता को समर्पित कर देता है 

प्रोक्षणाय समानीतं मांसं दृष्ट्वा गुरुस्तदा ।
अनर्हमिति तज्ज्ञात्वा चुकोप मुनिसत्तमः ॥५॥

भुक्तशेषं तु न श्राद्धे प्रोक्षणीयमिति स्थितिः ।
राज्ञे निवेदयामास वसिष्ठः पाकदूषणम् ॥६॥

जब श्राद्ध युक्त सामिग्री के प्रोक्षण ( पोंछने धोने)उनके गुरु वशिष्ठ जी आये तो देखा कि वह सामिग्री अशुद्ध हो गयी है क्योंकि उसमें से कुछ मांस खा लिया गया है । ऐसा जानकर वशिष्ठ मुनि अत्यन्त क्रोधित हुए क्योंकि उच्छिष्ट ( खाकर बचा हुआ) पदार्थ  श्राद्ध के योग्य नहीं होता है । यही शास्त्रीय विधान है ।५-६

पुत्रस्य कर्म तज्ज्ञात्वा भूपतिर्गुरुणोदितम् ।
चुकोप विधिलोपात्तं देशान्निःसारयत्ततः ॥७॥

शशाप इति विख्यातो नाम्ना जातो नृपात्मजः ।
गतो वने शशादस्तु पितृकोपादसम्भ्रमः ॥८॥

कि श्राद्ध में झूँठा पदार्थ सर्वथा त्याज्य है । अत: वशिष्ठ मुनि ने अपने योग बल से जान लिया कि इस मांस मैं से कुछ मांस विकुक्षि ने भूल से खा लिया है ।

यह बात वशिष्ठ ने इक्ष्वाकु को बता दी वशिष्ठ के कथनानुसार अपने पुत्र विकुक्षि का वह कुकृत्य जानकर श्राद्ध भंग होने कम कारण अपने पुत्र विकुक्षि को उसी समय राज्य से निकाल दिया ।७।

 तभी शश ( खरगोश का अदन ( भोजन करने के कारण विकुक्षि का नाम संसार में "शशाद" हुआ इस प्रकार वे पिता से अभिशप्त राज्य से निर्वासित हो कर वन में घूमते रहे ।।८


वन्येन वर्तयन्कालं नीतवान् धर्मतत्परः ।
पितर्युपरते राज्यं प्राप्तं तेन महात्मना ॥९॥

कालान्तर में वन में ही बहुत समय तक नीति और धर्म मैं तत्पर रहते हुए पिता के स्वर्ग वासी होने पर राज्य को प्राप्त किया ।

शशादस्त्वकरोद्‌राज्यमयोध्यायाः पतिः स्वयम् ।
यज्ञाननेकशः पूर्णांश्चकार सरयूतटे ॥१०॥

शशाद ने अयोध्या में राज्य किया और इस अयोध्या- पति ने अनेक यज्ञ सरयू नदी के तट पर पूर्ण किये ।

शशादस्याभवत्पुत्रः ककुत्स्थ इति विश्रुतः ।
तस्यैव नामभेदाद्वै इन्द्रवाहः पुरञ्जयः ॥११॥

शशाद के पुत्र ककुत्स्थ हुए उनके ही  अन्य दो  नाम इन्द्र वह  और पुरुञ्जय भी थे । 


                 -जनमेजय उवाच -
नामभेदः कथं जातो राजपुत्रस्य चानघ ।
कारणं ब्रूहि मे सर्वं कर्मणा येन चाभवत् ॥१२॥

जनमेजय बोले राजा उस पुत्र को नाम भेद कैसे हुआ निष्पाप: ! यह कारण मुझसे कहिए जो उनके क्रमानुसार हुए ।
                     -व्यास उवाच -
शशादे स्वर्गते राजा ककुत्स्थ इति चाभवत् ।
[राज्यं चकार धर्मज्ञः पितृपैतामहं बलात् ।]

शशाद के स्वर्ग चले जाने पर ककुत्स्थ राजा हुए उन्होंने धर्मज्ञ राजा ने शक्ति से पुश्तनी राज्य कि पालन किया।

एतस्मिन्नन्तरे देवा दैत्यैः सर्वे पराजिताः ॥ १३॥

इसी अन्तराल में देव और दैत्य सभी इनसे पराजित हो गये थे ।

जग्मुस्त्रिलोकाधिपतिं विष्णुं शरणमव्ययम् ।
तान्प्रोवाच महाविष्णुस्तदा देवान्सनातनः ॥ १४॥
                      -विष्णुरुवाच -
पार्ष्णिग्राहं महीपालं प्रार्थयन्तु शशादजम् ।
स हनिष्यति वै दैत्यान्संग्रामे सुरसत्तमाः ॥१५॥

आगमिष्यति धर्मात्मा साहाय्यार्थं धनुर्धरः ।
पराशक्तेः प्रसादेन सामर्थ्यं तस्य चातुलम् ॥१६॥


हरेः सुवचनाद्देवा ययुः सर्वे सवासवाः।
अयोध्यायां महाराज शशादतनयं प्रति ॥१७॥

तानागतान् सुरान् राजा पूजयामास धर्मतः ।
पप्रच्छागमने राजा प्रयोजनमतन्द्रितः ॥१८॥
                     -राजोवाच -
धन्योऽहं पावितश्चास्मि जीवितं सफलं मम ।
यदागत्य गृहे देवा ददुश्च दर्शनं महत् ॥ १९॥

ब्रुवन्तु कृत्यं देवेशा दुःसाध्यमपि मानवैः ।
करिष्यामि महत्कार्यं सर्वथा भवतां महत् ॥२०॥
                     देवा ऊचुः -
साहाय्यं कुरु राजेन्द्र सखा भव शचीपतेः ।
संग्रामे जय दैत्येन्द्रान्दुर्जयांस्त्रिदशैरपि ॥ २१ ॥

पराशक्तिप्रसादेन दुर्लभं नास्ति ते क्वचित् ।
विष्णुना प्रेरिताश्चैवमागतास्तव सन्निधौ ॥ २२ ॥
                        -राजोवाच -
पार्ष्णिग्राहो भवाम्यद्य देवानां सुरसत्तमाः ।
इन्द्रो मे वाहनं तत्र भवेद्यदि सुराधिपः ॥२३॥

संग्रामं तु करिष्यामि दैत्यैर्देवकृतेऽधुना ।
आरुह्येन्द्रं गमिष्यामि सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥२४॥

तदोचुर्वासवं देवाः कर्तव्यं कार्यमद्‌भुतम् ।
पत्रं भव नरेन्द्रस्य त्यक्त्वा लज्जां शचीपते ॥ २५॥

लज्जमानस्तदा शक्रः प्रेरितो हरिणा भृशम् ।
बभूव वृषभस्तूर्णं रुद्रस्येवापरो महान् ॥ २६॥

तमारुरोह राजासौ संग्रामगमनाय वै ।
स्थितः ककुदि येनास्य ककुत्स्थस्तेन चाभवत् ॥२७॥

इन्द्रो वाहः कृतो येन तेन नाम्नेन्द्रवाहकः ।
पुरं जितं तु दैत्यानां तेनाभूच्च पुरञ्जयः ॥२८॥

जित्वा दैत्यान्महाबाहुर्धनं तेषां प्रदत्तवान् ।
पप्रच्छ चैवं राजर्षेरिति सख्यं बभूव ह ॥२९॥

ककुत्स्थश्चातिविख्यातो नृपतिस्तस्य वंशजाः ।
काकुत्स्था भुवि राजानो बभूवुर्बहुविश्रुताः ॥३०॥

ककुत्स्थस्याभवत्पुत्रो धर्मपत्‍न्यां महाबलः ।
अनेना विश्रुतस्तस्य पृथुः पुत्रश्च वीर्यवान् ॥३१॥

विष्णोरंशः स्मृतः साक्षात्पराशक्तिपदार्चकः ।
विश्वरन्धिस्तु विज्ञेयः पृथोः पुत्रो नराधिपः ॥३२॥

चन्द्रस्तस्य सुतः श्रीमान् राजा वंशकरः स्मृतः ।
तत्सुतो युवनाश्वस्तु तेजस्वी बलवत्तरः ॥३३॥

शावन्तो युवनाश्वस्य जज्ञे परमधार्मिकः ।
शावन्ती निर्मिता तेन पुरी शक्रपुरीसमा ॥३४॥

बृहदश्वस्तु पुत्रोऽभूच्छावन्तस्य महात्मनः ।
कुवलयाश्वः सुतस्तस्य बभूव पृथिवीपतिः ॥३५॥

धुन्धुर्नामा हतो दैत्यस्तेनासौ पृथिवीतले ।
धुन्धुमारेति विख्यातं नाम प्रापातिविश्रुतम् ॥३६॥

पुत्रस्तस्य दृढाश्वस्तु पालयामास मेदिनीम् ।
दृढाश्वस्य सुतः श्रीमान्हर्यश्व इति कीर्तितः ॥३७॥

निकुम्भस्तत्सुतः प्रोक्तो बभूव पृथिवीपतिः ।
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कुशाश्वस्तस्य वै सुतः ॥ ३८॥

प्रसेनजित्कृशाश्वस्य बलवान्सत्यविक्रमः ।
तस्य पुत्रो महाभागो यौवनाश्वेति विश्रुतः ॥ ३९॥

यौवनाश्वसुतः श्रीमान्मान्धातेति महीपतिः ।
अष्टोत्तरसहस्रं तु प्रासादा येन निर्मिताः ॥४०॥

भगवत्यास्तु तुष्ट्यर्थं महातीर्थेषु मानद ।
मातृगर्भे न जातोऽसावुत्पन्नो जनकोदरे ॥४१॥

निःसारितस्ततः पुत्रः कुक्षिं भित्त्वा पितुः पुनः ।
                     -राजोवाच -
न श्रुतं न च दृष्टं वा भवता तदुदाहृतम् ॥ ४२ ॥

असंभाव्यं महाभाग तस्य जन्म यथोदितम् ।
विस्तरेण वदस्वाद्य मान्धातुर्जन्मकारणम् ॥ ४३ ॥
राजोदरे यथोत्पन्नः पुत्रः सर्वाङ्गसुन्दरः ।
                     -व्यास उवाच -
यौवनाश्वोऽनपत्योऽभूद्‌राजा परमधार्मिकः ॥ ४४ ॥

भार्याणां च शतं तस्य बभूव नृपतेर्नृप ।
राजा चिन्तापरः प्रायश्चिन्तयामास नित्यशः ॥ ४५॥

अपत्यार्थे यौवनाश्वो दुःखितस्तु वनं गतः ।
ऋषीणामाश्रमे पुण्ये निर्विण्णः स च पार्थिवः ॥ ४६॥

मुमोच दुःखितः श्वासांस्तापसानां च पश्यताम् ।
दृष्ट्वा तु दुःखितं विप्रा बभूवुश्च कृपालवः ॥ ४७॥

तमूचुर्ब्राह्मणा राजन्कस्माच्छोचसि पार्थिव ।
किं ते दुःखं महाराज ब्रूहि सत्यं मनोगतम् ॥ ४८॥

प्रतीकारं करिष्यामो दुःखस्य तव सर्वथा ।
                  -यौवनाश्व उवाच -
राज्यं धनं सदश्वाश्च वर्तन्ते मुनयो मम ॥ ४९ ॥

भार्याणां च शतं शुद्धं वर्तते विशदप्रभम् ।
नारातिस्त्रिषु लोकेषु कोऽप्यस्ति बलवान्मम ॥ ५०॥

आज्ञाकरास्तु सामन्ता वर्तन्ते मन्त्रिणस्तथा ।
एकं सन्तानजं दुःखं नान्यत्पश्यामि तापसाः ॥ ५१॥

अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्माच्छोचामि विप्रेन्द्राः सन्तानार्थं भृशं ततः ॥ ५२॥

वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञास्तापसाश्च कृतश्रमाः ।
इष्टिं सन्तानकामस्य युक्तां ज्ञात्वा दिशन्तु मे ॥ ५३ ॥
कुर्वन्तु मम कार्यं वै कृपा चेदस्ति तापसाः ।
                  -व्यास उवाच -
तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञः कृपया पूर्णमानसाः ॥ ५४ ॥

कारयामासुरव्यग्रास्तस्येष्टिमिन्द्रदेवताम् ।
कलशः स्थापितस्तत्र जलपूर्णस्तु वाडवैः ॥ ५५ ॥

मन्त्रितो वेदमन्त्रैश्च पुत्रार्थं तस्य भूपतेः ।
राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टस्तृषितो निशि ॥ ५६ ॥

विप्रान्दृष्ट्वा शयानान्स पपौ मन्त्रजलं स्वयम् ।
भार्यार्थं संस्कृतं विप्रैर्मन्त्रितं विधिनोद्‌धृतम् ॥ ५७ ॥

पीतं राज्ञा तृषार्तेन तदज्ञानान्नृपोत्तम ।
व्युदकं कलशं दृष्ट्वा तदा विप्रा विशङ्‌किताः ॥ ५८ ॥

पप्रच्छुस्ते नृपं केन पीतं जलमिति द्विजाः ।
राज्ञा पीतं विदित्वा ते ज्ञात्वा दैवबलं महत् ॥ ५९ ॥

इष्टिं समापयामासुर्गतास्ते मुनयो गृहान् ।
गर्भं दधार नृपतिस्ततो मन्त्रबलादथ ॥ ६० ॥

ततः काले स उत्पन्नः कुक्षिं भित्त्वाऽस्य दक्षिणाम् ।
पुत्रं निष्कासमायासुर्मन्त्रिणस्तस्य भूपतेः ॥ ६१ ॥

देवानां कृपया तत्र न ममार महीपतिः ।
कं धास्यति कुमारोऽयं मन्त्रिणश्चुक्रुशुर्भृशम् ॥ ६२ ॥

तदेन्द्रो देशिनीं प्रादान्मां धातेत्यवदद्वचः ।
सोऽभवद्‌बलवान् राजा मान्धाता पृथिवीपतिः ।
तदुत्पत्तिस्तु भूपाल कथिता तव विस्तरात् ॥ ६३ ॥

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे मान्धातोत्पत्तिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे हनुमच्चरित्रं नाम एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।। ७९ ।।

धनुर्विभज्य समिति लब्धवान्मानिनोऽस्य च ।।
ततो मार्गे भृगुपतेर्दर्प्पमूढं चिरं स्मयन् ।। ७९-१३ ।।

व्यषनीयागमं पश्चादयोध्यां स्वपितुः पुरीम् ।।
ततो राज्ञाहमाज्ञाय प्रजाशीलनमानसः ।। ७९-१४ ।।

यौवराज्ये स्वयं प्रीत्या सम्मंत्र्यात्पैर्विकल्पितः ।।
तच्छुत्वा सुप्रिया भार्या कैकैयी भूपतिं मुने ।। ७९-१५ ।।

देवकार्यविधानार्थं विदूषितमतिर्जगौ ।।
पुत्रो मे भरतो नाम यौवराज्येऽभिषिच्यताम् ।। ७९-१६ ।।

रामश्चतुर्दशसमा दंडकान्प्रविवास्यताम् ।।
तदाकर्ण्या हमुद्युक्तोऽरण्यं भार्यानुजान्वितः ।। ७९-१७ ।।
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गंतुं नृपतिनानुक्तोऽप्यगमं चित्रकूटकम् ।।
तत्र नित्यं वन्यफलैर्मांसैश्चावर्तितक्रियः ।। ७९-१८ ।।

निवसन्नेव राज्ञस्तु निधनं चाप्यवागमम् ।।
ततो भरतशत्रुघ्नौ भ्रातरौ मम मानदौ ।। ७९-१९ ।।

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धनुर्विभज्य ..............भार्यानुजान्वितः

मैंने वहाँ धनुष को भंग करके सीता से विवाह किया मैनें मार्ग में परशुराम का घमण्ड चूर्ण किया तदनंतर मैं अपने पिता की पुरी अयोध्या पहुँचा उस समय राजा दशरथ ने मन्त्रीयों से मन्त्रणा की तथा प्रजा को मुझमें रत जानकर यौवराज पद देना चाहा हे मुने !

यह सुन कर राजा की प्रिया भार्या कैकेयी ने जिनकी बुद्धि देवगण ने देव कार्यार्थ विकृत किया था उन्होंने राजा से कहा मेरे पुत्र भरत को आप युवराज पद प्रदान करें राम को चौदह वर्ष दण्डकारण्य में रहने का आदेश दीजिये यह सुनकर पिता की सहमति न होने पर भी मैं पत्नी सीता और अनुज के साथ चित्रकूट चला आया वहाँ हम तीनों  जंगली फल तथा मांसाहार  द्वारा जीवन व्यतीत करने लगे १३-१८

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राम का चरित्र प्रागैतिहासिक है कई देशों की संस्कृतियों में राम के मिथक विद्यमान हैं । लोगों ने अपनी समाज की तत्कालीन मान्यताओं का राम के चरित्र पर आरोपण करते हुए उन्हें वर्णित किया जैसे शाक्य परम्परा में राम और सीता को भाई बहिन के रूप में जैसे दशरथ जातक में वर्णन है । तो मिश्र वालों ने भी रेमेसिस और सीतामुन के रूप में भाई बहिन के रूप में दाम्पत्य जीवन निर्वहन करने वाला वर्णन किया और प्राचीन ईरान और ईराक की संस्कृति में रामसिन सितासिन के रूप में तथा अक्काडियन मिथकों में भी अक्कड अवध का रूपांतरण है ।

राम मांस खाते थे अथवा नहीं - यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है ।  
कुछ लोगों की धारणा है कि वे क्षत्रिय वे अत: मांस खाते थे, परन्तु हमारे विचार में यह धारणा अशुद्ध है ।
यहां हम रामायण के कुछ स्थलों पर विचार करेंगे । वास्तव में वाल्मीकि रामायण पुष्यमित्र सुँग के काल की रचना है।  जब समाज में पशुओं की बलि और मदिरा पान दैविक कृत्य समझे जाते  थे जैसा कि स्वयं वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में सुरापान करना दैविक कार्य और संस्कृति मूलक परम्परा है  ।
उन्होंने राम के चरित्र पर भी उसी काल के समाज की मान्यताओं का और परम्पराओं का आरोपण कर दिया।
 जब श्रीराम को वन-गमन की आज्ञा हुई तब वे अपनी माता कौसल्या से आज्ञा लेने के लिए राजप्रासाद में आये माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन और खाने के लिए कुछ वस्तुएँ दीं, उस समय श्रीराम ने कहा -माते !
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चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने ।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवद्- आमिषम् ॥२९।
मैं मुनि की भाँति मांस युक्त भोजन त्याग करके कन्दमूल फलों से जीवन निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करुँगा।।
-सन्दर्भ:- अयोध्या काण्ड- २० वें सर्ग का २९ वाँ श्लोक
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अर्थात्- माता अब तो मुझे चौदह वर्ष तक घोर वन में निवास करना पड़ेगा । अत: मैं आमिष भोजन को छोड़कर मुनिजन-कथित कन्द-मूल, फल आदि खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह करूँगा ।

इस श्लोक में 'आामिष' शब्द को देखकर मांस-भक्षण की भावना करने वाले कहते हैं कि श्रीराम मांस-भक्षण करते थे तभी तो उन्होंने कहा - "मैं आमिष को छोड़कर कन्दमूल-फलों से निर्वाह करूंगा।" परन्तु ये मान्यताएं पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की हैं 

पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की एक और वानिगी निम्न श्लोक में प्रतिबिंबित है । राम सीता जैसे प्रागैतिहासिक पात्रों के ऊपर पुष्यमित्र सुँग कालीन पुरोहितों ने  राम और सीता को काम शास्त्रीय पद्धति में निरूपित किया है ।राम जब अशोक वन में प्रवेश करते तब वहाँ का विलास नयी वातावरण और आवास देखकर राम तो सीता के साथ काम क्रीड़ा करते हुए वर्णन किया जाता है।  वह भी राम के द्वारा स्वयं मैरेयक नामक सुरा का पान करते हुए और सीता को अपने हाथ से पान कराते हुए वह  भी शचि और इन्द्र के समान ।

देखें वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड से निम्न श्लोक 

यदि आप रामायण को वाल्मीकि की रचना मानते हो और वाल्मीकि रामायण की प्रत्येक बात सत्य मानते हो तो नीचे राम और सीता के विषय में वर्णित तथ्य को क्या मानोगे सभ्य भाषा में प्रमाण संगत प्रतिक्रिया अवश्य दें 

उत्तर काण्ड का बयालीसवां सर्ग में राम और सीता के विलासिता का दृश्य देखा जा सकता है। 

वहाँ राम स्वयं सीता को मैरेयक नामक मदिरा पिला रहे हैं  ताकि सैक्स की उत्तेजना में वृद्धि हो सके  जैसे यह दृश्य उसी प्रकार है जैसे शची को इन्द्र अपने हाथ से सुरा पिलाया करते हैं- सैक्स करने से पूर्व 

जब अशोक वन में राम और सीता जी का विहार और गर्भिणी सीता का तपोवन देखने की इच्छा करना होता है तब राम  उन्हें स्वीकृति देते हैं।

वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड के इस श्लोक में यही वर्णित है ।

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सीतामादाय हस्तेन मधु मैरेयकं शुचि।।            पाययामास ककुस्त्थ: शचीमिव पुरंदर:।।१८।।

सीताम्=सीता को । आदाय= लाकर ।हस्तेन=हाथ के द्वारा। मधु= मदिरा । मैरेयक= कामोत्पादक। शुचि= शृङ्गाररस अमरःकोश। पाययामास= पिलाई। ककुस्त्थ:=राम । शचीम् इव पुरन्दर= शचि को जैसे इन्द्र पिलाता है ।

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अर्थ:- जैसे पुरन्दर इन्द्र अपनी पत्नी शचि को  मैरेयक  नामक मधु (सुरा ) का पान कराते हैं उसी प्रकार ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अपने हाथ से लाकर काम अथवा श्रृँगाररस उत्पन्न करने हेतु सीता को  मैरेयक नामक मधु (सुरा) का पान कराया।१८।

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विशेष:-

 मैरेयकं-(मारं कामं जनयतीति इति मैरेयकं (मार +ढक् ) निपातनात् साधुः ) सेक्स उत्पन्न करने वाली  मद्यविशेषः ही मैरेयक है  । देखें  अमरःकोश । २। १० । ४२ ॥ 

मैरेयक की परिभाषा संस्कृत के प्राचीन कोश ग्रन्थों में  जैसे अमर कोश शब्द कल्प द्रुम वाचस्पत्यम् आदि में  काम -उत्पन्न करने वाली मदिरा ही  है।

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मैरेयम्, नपुंसकलिंग (मारं कामं जनयतीति । मार + ढक् । निपातनात् साधुः ।)
मद्यविशेषः । इत्यमरः कोश। २ । १० । ४२ ॥
“यद्यपि । ‘सीधुरिक्षुरसैः पक्वैरपक्वैरासवो भवेत् । मैरेयं धातकीपुष्पगुडधानाम्लसंहितम् ॥’ इति माधवेन भेदः कृतः ।
तथापि सूक्ष्ममनादृत्येदमुक्तम् । मारं कामं जनयति मैरेयं ष्णेयः । निपातनादात् ऐत्वम् ।”
इति भरतः ॥ (यथा, “मद्यन्तु सीधुर्मैरयमिरा च मदिरा सुरा । कादम्बरी वारुणी च हालापि बलवल्लभा ॥” इति भावप्रकाशस्य पूर्वखण्डे द्वितीये भागे ॥

अर्थ की खींचतान करना और शास्त्रों की प्रक्षिप्त व असंगत बात को भी सही सिद्ध करना अन्ध भक्ति का ही मौलिक गुण है । जो हमारी निर्णय शक्ति को कुण्ठित और प्रकाश हीन करती है। यदि तुम बादाम और दूध को ही मैरेयक मानती हो तो मांस का भक्षण भी आगामी श्लोक में राम और सीता को करते हुए वर्णित किया गया है इसपर क्या तर्क है आपका ?

समय ते अन्तराल में धर्म मैं अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं । जब धर्म केवल पुरोहित या किसी विशेष वर्ग के स्वार्थ पूर्ण मान्यताओं का पोषक बन जाता है । अपनी अनुचित बात के समर्थन के लिए पुराने आदर्श पात्रों के चरित्र को भी गलत तरीके से जब पुरोहित वर्ग चित्रित करता है अथावा उनको उस रूप में आरोपित करता है । जनसाधारण जनता पुरोहित वर्ग के इन षड्यंत्र मूलक कारनामों को अन्धभक्ति में रहने कारण कभी नहीं जान पाता  उसे पात्र और कुपात्र का भी वो ही हो पाता 

यही कारण था कि यज्ञ में पशुबलि मानव बलि और पितरों के श्राद्ध के नाम पर मांस मदिरा भक्षण और मन्दिर में देवदासीयों से रति अनुदान धर्म के अंग बन जाते हैं ।

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सीतामादायं हस्तेन मधुमैरेयकं शुचि ।
पाययामास काकुत्स्थः शचीमिव पुरन्दरः।७.४२.१८
 ।

वहाँ राम स्वयं सीता को नशीला मदिरा पिला रहे हैं जैसे शची को इंद्र पिलाया करते हैं-

मांसानि च समृष्टानि फलानि विविधानि च ।
रामस्याभ्यवहारार्थं किङ्करास्तूर्णमाहरन् ।७.४२.१९।।

और फिर उनके खाने के लिए सेवक अच्छी तरह पकाए गए मांस और भांति भांति के फल शीघ्र ले आते हैं-

उपानृत्यंश्च राजानं नृत्यगीतविशारदाः ।
बालाश्च रूपवत्यश्च स्त्रियः पानवशानुगाः ।। ७.४२.२० ।।

मनोभिरामा रामास्ता रामो रमयतां वरः ।
रमयामास धर्मात्मा नित्यं परमभूषितः ।७.४२.२१ ।।

स तया सीतया सार्धमासीनो विरराज ह ।
अरुन्धत्या सहासीनो वसिष्ठ इव तेजसा।७.४२.२२ ।।

एवं रामो मुदा युक्तः सीतां सुरसुतोपमाम् ।
रमयामास वैदेहीमहन्यहनि देववत् ।। ७.४२.२३ ।।

तथा तयोर्विहरतोः सीताराघवयोश्चिरम् ।
अत्यक्रामच्छुभः कालः शैशिरो भोगदः सदा। ७.४२.२४ 

(वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड ४२वाँ सर्ग)

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ते पिबन्तः सुगन्धीनि मधूनि मधुपिङ्गलाः ।
मांसानि च सुमृष्टानि मूलानि च फलानि च ।। ७.३९.२६ (उत्तर काण्ड ३९ वाँ सर्ग)

मधु के समान पिंगल वर्ण वाले वे वानर वहाँ सुगन्धित मधु पीते  मांस और मूली तथा मीठे फलों का भोजन करते ।

 ( उत्तर काण्ड ३९ वाँ सर्ग)

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मांसानि च सुमृष्टानि फलानि विविधानि च।।
रामास्याभ्यवहारार्थं किंकरास्तूर्तमाहरन्।। 19।।

एक रोचक बात यह भी है कि गीताप्रेस के अनुवाद में मांस का अर्थ राजोचित भोज्य पदार्थ दिया है जो कि वास्तविक अर्थ को छुपाना ही है । 

उक्त अध्याय का श्लोक 20 से 22 तक देखा जाए। वहाँ राम के रंगराग के और वर्णन है ।

मांसहेतोरपि विनोदार्थं च राजानो मृगान् घ्नन्ति, किं पुनरेवंविधविचित्रवस्तुलाभहेतोरिति भावः ।। 3.43.30 ।।
 मांस के लिए भी और विनोद करने के लिए भी राजा लोग मृगों का वध करते थे ।
(आरण्यकाण्डव्याख्याने त्रिचत्वारिंशः सर्गः ।४३।

 ‘सीधुरिक्षुरसैः पक्वैरपक्वैरासवो भवेत् ।
 मैरेयं धातकीपुष्पगुडधानाम्लसंहितम् ॥ 
’इति माधवेन भेदः कृतः । 
 तथापि सूक्ष्ममनादृत्येदमुक्तम् । 
 मारं कामं जनयति मैरेयं  (मार+ढक् (एय) । निपातनादात् ऐत्वम् । इति भरतः ॥ 
मदिरा के भेद तत्कालीन पुरोहित समाज में भी प्रचलित थे जैसे
 (यथा “ मद्यन्तु सीधुर्मैरयमिरा च मदिरा सुरा । कादम्बरी वारुणी च हालापि बलवल्लभा “ 
इति भावप्रकाशस्य पूर्वखण्डे द्वितीये भागे ॥ क्वचित्   पुंलिङ्गेऽपि दृश्यते ।  यथा -“ तीक्ष्णः कषायो मदकृत् दुर्नामकफगुल्महृत् । कृमिमेदोऽनिलहरो मैरयो मधुरो गुरुः ॥ 
“ इति सुश्रुते सूत्रस्थाने ४५ अध्याये ॥ )
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मैरेय- गुड़ और मधुक ( मउआ) के फूलों की बनी हुई एक प्रकार की प्राचीन काल की मदिरा जो कामोन्मत्त होने के लिए राजा महाराजाओं द्वारा पी जाती थी ।
वाल्मीकि रामायण में ही पुष्यमित्र सुँग कालीन धूर्त पुरोहितों ने राम को मांस का भोजन 
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"मांसानि च सुभृष्टानि फलानि विविधानि च।।
रामास्याभ्यवहारार्थं किंकरास्तूर्तमाहरन्।। १९।।

शब्दार्थ-मांसानि च सुभृष्टानि ( और अच्छी तरह से पकाया हुआ मांस )फलानि विविधानि च (और विभिन्न फल ) रामास्याभ्यवहारार्थं ( राम के आहार के लिए) 
किंकरास्तूर्तमाहरन्( किंकर- नौकर तुरन्त लाये )
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और फिर उनके खाने के लिए सेवक  तुरन्त अच्छी तरह पकाए गए मांस और भांति भांति के फल शीघ्र ले आते हैं-

यहाँ एक रोचक बात यह भी है कि गीताप्रेस के अनुवाद में मांस का अर्थ सत्य को छुपाते हुए राजोचित भोज्य पदार्थ ही दिया है जो कि असंगत ही है । 
उक्त अध्याय का श्लोक 20 से 22 तक देखा जाए। वहाँ राम के रंगराग के और भी विवरण हैं।

यद्यपि राम का चरित्र ऐसा नहीं था जैसा कि पुष्यमित्र सुँग कालीन वाल्मीकि रामायण में व और राम अनेक संस्कृतियों में जैसे अक्काडियन मिश्र मैक्सिको आदि में हैं ।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग कालीन वाल्मीकि रामायण में राम और सीता का चरित्र भी कृष्ण के चरित्र के समान और अधिक कामुक बना दया  है । 
यद्यपि मांस और मदिरा के प्रसंग कृष्ण चरित्र में नहीं है भले ही कृष्ण की सन्तानों को मदिरा पान करते हुए वर्णित किया गया हो ।।

और शिकार या मृगया भी कृष्ण के द्वारा कभी नहीं किया गया ।
परन्तु मांस सेवन के प्रसंग राम के पूर्वज इक्ष्वाकु के पुत्र विकुक्षि से ही प्रारम्भ हो जाते हैं ।  जैसा कि पूर्व में वर्णन किया गया है । यद्यपि राम एक प्रागैतिहासिक पुरुष हैं। जबकि कृष्ण ऐतिहासिक पुरुष हैं । राम का राज्यकाल हजारों वर्षों की सीमाओं में परिकल्पित है ।परन्तु कृष्ण का सौ या एकसौ बीस  वर्षो की सीमा में जो मानवोचित भी है 
यद्यपि राम काल्पनिक नहीं है परन्तु भारत भी राम की मूल जन्मभूमि नहीं है ।
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निम्न श्लोक में पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की एक झलक है ।

प्रमत्तान् अप्रमत्तान् वा नरा मांस- अशिनो भृशम् ।
विध्यन्ति विमुखाम् च अपि न च दोषो अत्र विद्यते ॥४-१८-३९॥

अर्थ-मांसाहारी क्षत्रिय मनुष्य सावधान, असावधान अथवा विमुख होकर भागने वाले पशुओं को भी वेधन करते ही हैं परन्तु उनके लिए मृगया दोष नहीं होता।।

यान्ति राजर्षयः च अत्र मृगयाम् धर्म कोविदाः ।
तस्मात् त्वम् निहतो युद्धे मया बाणेन वानर ।
अयुध्यन् प्रतियुध्यन् वा यस्मात् शाखा मृगो हि असि ॥४-१८-४०॥

अर्थ- हे वानर ! धर्मज्ञ राजा लोग भी इस संसार में शिकार के लिए जाते हैं और विविध जीवों का वध करते हैं इसी लिए तुमको भी मैंने युद्ध में अपना लक्ष्य बनाया तुम मुझसे युद्ध करते या नहीं करते तुम्हारी बध्यता में कोई अन्तर नहीं आता क्याें की तुम भी मृग हो परन्तु शाखा के और मृगया करने का क्षत्रिय को यह धर्म विधान है।

विशेष-
किस प्रकार अधर्म और अन्याय को भी धर्म का लबादा पहनाकर स्वार्थी लोग राम जैसे प्रागैतिहासिक पात्रों का आधार लेकर अपने ही अनुकूल मनोवृत्ति का चरित्र चित्रण करते  हैं ये बाते उपर्युक्त श्लोक में देखी जा सकती हैं।

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दुर्लभस्य च धर्मस्य जीवितस्य शुभस्य च ।
राजानो वानरश्रेष्ठ प्रदातारो न सम्शयः ॥४-१८-४१॥

वानर-श्रेष्ठ राजा लोग दुर्लभ धर्म  जीवन और लौकिक अभ्युदय को देने वाले होते हैं इसमें संशय नहीं ।

( क्या देखे से घायल किये गये सुग्रीव को राम ये बाते अच्छी लग रही होंगी ?)

तान् न हिंस्यात् न च आक्रोशेन् न आक्षिपेन् न अप्रियम् वदेत् ।
देवा मानुष रूपेण चरन्ति एते मही तले ॥४-१८-४२॥

 राम की यह बात भी संगत नहीं कि राजा लोगों की हिंसा न करें और नहीं उनकी निन्दा करें उनके प्रति आक्षेप भी न करें और न उनसे अप्रिय वचन बोलें  क्यों वे राजा वास्तव में देवता हैं  जो मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं ।

त्वम् तु धर्मम् अविज्ञाय केवलम् रोषम् आस्थितः ।
विदूषयसि माम् धर्मे पितृ पैतामहे स्थितम् ॥४-१८-४३॥

( जब राम वालि को विना किसी कारण के छुपकर वाण मारकर घायल करते हैं । और वालि से ये कहते हैं कि तुम धर्म के स्वरूप को न समझकर केवल रोष के वशीभूत हो गये हो इस लिए पिता और पितामह के धर्म पर चलने वाले मेरी निन्दा कर रहे हो ।

 ( क्या राम की वालि प्रति ये बातें स्वाभाविक थीं ? ।

एवम् उक्तः तु रामेण वाली प्रव्यथितो भृशम् ।
न दोषम् राघवे दध्यौ धर्मे अधिगत निश्चयः ॥४-१८-४४॥

श्री राम के ऐसा कहने पर वाली को बड़ी मन व्यथा हुई उसे धर्म के तत्व का निश्चय हो गया उसने राम के दोष का चिन्तन त्याग दिया।

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड अष्टादश: सर्ग 

आर्येण मम मान्धात्रा व्यसनम् घोरम् ईप्सितम् ।
श्रमणेन कृते पापे यथा पापम् कृतम् त्वया ॥४-१८-३३॥ (किष्किन्धाकाण्ड अष्टादश अध्याय)


अर्थ- हे वालि तुमने जैसा पाप किया है वैसा ही पाप प्राचीन काल में एक श्रमण ने किया था। उसे मेरे पूर्वज मान्धाता ने बड़ा कठोर दण्ड दिया ।जो शास्त्र के अनुसार अभीष्ट था ।
वाल्मीकि रामायण पुष्यमित्र सुँग के काल की रचना है जिसमें बौद्ध भिक्षु श्रमणो का वर्णन प्राचीनता का पुट देते हुए कर दिया गया है ।

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यदि आप वाल्मीकि रामायण को पूर्ण सत्य और वाल्मीकि की रचना मानते हो तो राम का उपर्युक्त चरित्र आदर्शोंन्मुख नहीं हो सकता है ।

अन्यथा कृष्ण चरित्र को भी धूर्तों ने काम शास्त्रीय पद्धति में निरूपित करके उनके गीता वर्णित आध्यात्मिक सिद्धान्त और विधानों की गरिमा को खण्डित किया ही है। 

साहित्य समाज का तत्कालीन दर्पण है और जिस समाज की जैसी पारम्परिक मान्यताएं और रिवाज होते हैं वे उन्ही के अनुरूप महापुरुषों के चरित्रों का चित्रण करते हैं। 

यही कारण है  आज कुछ उग्र प्रवृति के व्यक्ति जय श्री राम के उद्घोष में आतंक उत्पन्न भी करने लगे हैं । यही इस्लामिक संस्कृतियों में हजरत मुहम्मद साहब के अनुयायी बनकर लोग करते हैं ।

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पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।
( 3/68 मनुस्मृति)
धर्म शास्त्रों के एक तरफ ये विधान की गृहस्थ के घर में पाँच कत्ल के स्थान -

(पंच सूना गृहस्थस्य) गृहस्थ पुरुष के पाँच हिंसा के स्थान हैं। (चुल्ली) चूल्हा, (पेषणी) चक्की, (उपस्कर) झाड़ू, (कण्डनी) ओखली, (च) और (उदकुम्भः च) घड़ोंची (घड़ा) (बध्यते याः तु वाहयन्) इनका प्रयोग करने से मनुष्य को हिंसा दोष लगने की संभावना है।

अर्थात् प्रत्येक गृहस्थ चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली और घड़ा का प्रयोग करने में किसी न किसी प्राणी की हिंसा कर देता है।
परन्तु दूसरी तरफ हिंसा को धर्म के नाम पर खुला समर्थन नि:सन्देह दो गले विधान का ही रूप है ।
इन्हीं विरोधाभासी तथ्यों पर हम कुछ शास्त्रीय आधार पर विवेचन करेंगे- 
प्रथम रूप से तो मांस शब्द की ही व्युत्पत्ति पुष्यमित्र सुँग कालीन है जो केवल काल्पनिक है महाभारत और मनुस्मृति में मांस शब्द की व्युत्पत्ति समान है ।
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"मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् । 
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।।5/55

शब्दार्थ- माम्=मुझको स=वह  भक्षयिता=भक्षण करेगा । लुटलकार अन्य परुष
 एक वचन । यस्य = जिसका । इह = इस संसार से  ।
एतन् मासस्य  = इस मास का । प्रवदन्ति मनीषिण:= ऐसा मनीषी कहते हैं ।
महाभारत में भी यही व्युत्पत्ति मांस शब्द की है।
विद्वजन मांस के यह लक्षण कहते हैं कि जिसके मांस को मैं इस जन्म में खाता हूँ वह आगामी जन्म में मेरे मांस का भक्षण करेगा ।

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 इसी प्रकार मैथुन - व्यभिचार का विधान करना भी मनुस्मृति मेें विरूद्ध है ।  जैसे - ५।५२ में विधिपूर्वक मांस भक्षण का विधान है, और ५।५६ में सब प्रकार के मांस भक्षण का । २. ५।५३ - ५४ श्लोकों में मांस - भक्षण का खण्डन किया है और ५।५६ में मांस का विधान किया है।

क्या ऐसा परस्पर विरोधी कथन कोई विद्वान् कर सकता है ?
 (ग) ५।५२ में मृतकश्राद्ध का कथन है ।  ५।५५ में यह मान्यता भी निराधार है कि इस शरीर में जिसका जो मांस खाता है, अगले जन्म में उसका मांस वह (जिसका मांस खाया है) खायेगा ।
 अगला जन्म कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है, पता नहीं कौन कहाँ और किस योनि में जन्म लेगा ? फिर कौन किसका मांस कैसे खा सकेगा, यह सिद्धांत निर्धारण करना असम्भव ही है ।
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जिस प्राणी का मांस मैं इस जन्म में खाता हूं, वह प्राणी परजन्म में मुझे खावेगा, बुद्धिमान् लोग यह मांस का लक्षण बतलाते हैं (मां सः=मांसः)। इसलिए मांस भक्षण कभी न करना चाहिये। -
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•पशुश्चेनिन्हत: स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति,
•स्वपिता यज्ञमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।

अर्थात् यदि यज्ञ में मारा गया प्राणी स्वर्ग को जाता है,यदि तुमलोग उसको अच्छी जगह पहुँचाते हो तो यज्ञ में अपने पिता को क्यों नहीं मार देते हे आर्य ब्राह्मण ,जिस से वह बेचारा स्वर्ग के आनन्दो का उपभोग कर सके।

पुरोहित वैदिक ब्राह्मणों ने इस आक्षेप का स्वाभाविक उतर देते हुए कहा:-
•कस्मान्न हिंस्यते? तादृश-मंत्र-विनियोगाभावात्,
•यदि संप्राप्येत् तदा पितुरात्मनो वा संज्ञपने न कापि हानि:,

अर्थात् तुम पूछते हो कि पिता को यज्ञ में क्यों नहीं मार देते, इसका उतर है कि शास्त्रों में पिता को मारने का आदेश ही नहीं है,यदि होता तो उस को मारने में कोई हानि नहीं थी।


आद्य शंकराचार्य  अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिखते हैं:-

•शाश्त्रहेतुत्वाद् धर्माधर्म विज्ञानस्य शास्त्राच्च हिंसानुग्रहात्मको ज्योतिष्टोमो धर्म इत्यवधारित: तस्माद्विशुद्दं कर्म वैदिकं शिष्टैरनुष्ठीयमानत्वात् अनींद्यमानत्वाच्च। 
ब्रह्मसूत्र3/1/15,शांकरभाष्य

अर्थात् धर्म अधर्म का निर्णय शास्त्रों से होता है,शास्त्रों में हिंसामय ज्योतिष्टोम आदि वैदिक यज्ञों का विधान है,अतः वह हिंसा धर्म ही है।

इसी ब्रह्मसूत्र की व्याख्या में वैष्णव भक्ति मार्ग के बहुत बड़े ऊंचे आचार्य रामानुजाचार्य महाभाग जी अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं:-

•पशोहिर्संज्ञपननिमित्तां  स्वर्गलोकप्राप्तिम् वदन्तं शब्दमामनन्ति.हिरण्यशरीर ऊर्ध्वं स्वर्गं लोकमेति इत्यादिकम्.अतिशयाभ्युदयसाधनभूतो व्यापार अल्प दुःखदोऽपि न हिंसा, प्रत्युत रक्षणमेव।

अर्थात् शास्त्रों में कहा गया है कि जिस प्राणी की यज्ञहेतु हत्या की जाती है,वह सुवर्ण का देह धारण कर के स्वर्ग को जाता है,इस तरह यज्ञ में मारा जाने वाला थोड़ा कष्ट सह कर बहुत लाभ प्राप्त करता है,अतः यह उस के भले की ही बात है।

श्री रामानुजाचार्य महाभाग कहते हैं:-

‘हिंसनीयं प्रति अननुग्राहकत्व विशिष्ट प्राणवियोगानुकूल व्यापारत्वं हिंसात्वम्।
अतिशयिताभ्युदय साधनभूतो व्यापारोडल्पदुःखदो पि न हिंसा प्रत्युत रक्षणमेव।’

अर्थात् वही हिंसा है जो हिंसनीय का अननुग्राहक प्राण वियोगानुकूल व्यापार है। तात्पर्य कि हिंसनीय का अनुग्रह रहित प्राण-वियोग व्यापार ही हिंसा है। यज्ञादि में हिंसनीयननुग्राहक प्राण-वियोगानुकूल व्यापार नहीं है अतः वहाँ हिंसा नहीं अपितु रक्षा ही होती है ‘हिरण्यशरीरः ऊर्ध्वा स्वर्ग लोकमेति’ विधि-पूर्वक जिस पशु का आलम्भन होता है वह पशु हिरण्य-शरीर होकर ज्योतिर्मय शरीर धारण कर लेता है भगवत् कथामृत से सम्पूर्ण कल्मषों का हनन एवं दिव्य धर्म का आर्जन होता है।

इसी स्वर को भगवान मनु जी और भी ज्यादा मुखरित करते हुए उपदेश करते हैं।:-


यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा ।यज्ञो ऽ स्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।।5/39
यज्ञ के लिए पशुओं की सृष्टि स्वयं ही ब्रह्मा ने की यज्ञ में पशुओं का वध वध नहीं है ।
ये (५।२६ - ४२) सतरह श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) जिस मांस के विषय में मनु ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है -
(१) यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।। (११।९५)
२. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। (५।४८) 
 अर्थात् मांस राक्षसों का भोजन है । यह प्राणियों की हिंसा के बिना नहीं प्राप्त होता । और प्राणियों की हिंसा से सुख नहीं मिल सकता, इसलिये मांस - भक्षण कभी न करें । और ५।५१ में मांस खाने वाले को घातक - आठ पापियों में गिना है । क्या वही विद्वान् - मनु मांस भक्षण का विधान कर सकता है ? इसलिये ५।२६-३८ तक के मांस भक्षण के प्रतिपादक श्लोक मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने अहिंसा को परम धर्म माना है, फिर वह हिंसा का विधान कैसे कर सकता है ।
(ख) और यज में पशुबलि का विधान ५।३९ - ४२ में मनु की मान्यता के विरूद्ध है । जिस यज्ञ का एक ‘अध्वर - हिंसारहित’ सार्थक नाम शास्त्रों में बताया है और जिसे ‘यज्ञों वै श्रेष्ठतम कर्म’ कहकर सबसे उत्तम कर्म माना है, क्या उसमें प्राणियों की बलि करना कदापि संगत हो सकता है ? और यज्ञ का उद्देश्य है - वायु, जलादि की शुद्धि करना । इसलिये उसमें रोग नाशक, कीटाणु- नाशक, पौष्टिक, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति दी जाती है । यदि मांस की आहुति से यज्ञ के उद्देश्य, की पूर्ति होती हो तो मनुष्य को अन्त्येष्टि के समय सुगन्धित घृत, सामग्री चन्दनादि के प्रक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि उनके मत से तो मांस से ही उद्देश्य पूर्ति हो जायेगी । किन्तु यह प्रत्यक्षविरूद्ध है । अग्नि में मांस डालने से दुर्गन्ध ही फैलती है, सुगन्ध नहीं । और जिस मनु ने गृहस्थी के लिये पंच्चमहायज्ञों का इसलिये विधान किया है कि (३।६८-६९) घर में चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखल तथा जल - कलशादि के द्वारा अनजाने में भी जो हिंसा हो जाती है, उनके प्रायश्चित के लिये दैनिक महायज्ञों द्वारा परिहार हो । क्या वह मनु जान बूझकर यज्ञों में पशुओं के वध का विधान कर सकता है ? और उस पशु - वध का कोई प्रायश्चित भी नहीं लिखा ।
और मनु जी ने वेद को परम प्रमाण माना है । ‘धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ यह मनु जी का निश्चित सिद्धान्त है । जब वेदों में पशुओं की हिंसा के निषेध का स्पष्ट विधान किया गया है, तो मनु वेद - विरूद्ध पशुवध को कैसे कह सकते हैं ? वास्तव में ऐसी मिथ्या मान्यतायें वाम मार्गी लोगों की हैं, जिन्होंने मनु स्मृति जैसी प्रामाणिक स्मृति में भी अपनी मान्यता की पुष्टि में प्रक्षेप किया है । क्यों कि उनकी मान्यता है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन ये पांच्चमकार मोक्ष देने वाले हैं ।
(ग) ५।४२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ वाक्य से भी इन श्लोकों की प्रक्षिप्तता स्पष्ट हो रही है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न ही है । क्यों कि मनु की यह शैली नहीं है कि वह अपना नाम लेकर स्वयं प्रवचन करें ।
(घ) ५।४२ में यज्ञ से भिन्न मधुपर्क तथा श्राद्ध में भी पशुओं की हिंसा लिखी है, यह भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मधुपर्क, जिसमें मधु - शहद, घृत अथवा दही का ही मिश्रण होता है, उसमें भी मांस की बात कहना मधुपर्क को ही नहीं समझना है । और जिस श्राद्ध के लिये (३।८२ में) मनु ने अन्न, दूध फल, मूल, जलादि से विधान किया है, क्या वह अपने वचन के ही विरूद्ध श्राद्ध में मांस का विधान कर सकते हैं ? यथार्थ में यह मृतकश्राद्ध की कल्पना करने वालों का अयुक्तियुक्त प्रक्षेप है ।
(ड) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी कम नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि इनके बनाने वाले भिन्न - भिन्न व्यक्ति थे । क्यों कि एक व्यक्ति के लेख में ऐसे सामान्य विरोध नहीं हो सकते । जैसे - १. ५।३१ श्लोक में यज्ञ के लिये मांस का खाना देवों की विधि बताई है और यज्ञ से अन्यत्र शरीर - पुष्टि के लिये मांस खाना राक्षसों का कार्य माना है । यदि मांस खाने में दोष है, तो चाहे यज्ञ के निमित्त से खाये अथवा अन्य निमित्त से, दोष कैसे हटाया जा सकता है ? और देवता व राक्षस का इससे क्या भेद हुआ ? मांस तो दोनों ही खा रहे हैं ।
२. और ५।१४-१५ में मछलियों के खाने का सर्वथा निषेध किया हे और ५।१६ में हव्य - कव्य में मछलियों के खाने का विधान किया है । 
३. ५।२२ में कहा है कि सेवकों की आजीविका के लिये पशु - पक्षियों का वध करना चाहिये और ५।३८ में कहा है कि यज्ञ से अन्यत्र पशुओं का वध करने वाला जितने पशुओं को मारता है, उतने जन्मों तक वह बदले में मारा जाता है । ४. और ५।११-१९वें श्लाकों में कुछ पशुओं को भक्ष्य और कुछ को अभक्ष्य कहा है और ५।३० में कहा है कि ब्रह्मा ने सारे पशुओं व पक्षियों को खाने के लिये बनाया है । अतः इस प्रकार के परस्पर - विरोधी वचन किसी विद्वान् व्यक्ति के भी नहीं हो सकते, मनु के कहना तो अनर्गल प्रलाप ही है ।
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अर्थात् यज्ञ में किया गया वध, वध नहीं होता।वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ।।5/44
 (अस्मिन् चराचरे) इस लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म निकला है।

सत्य को स्वीकार करना कभी भी तथ्य हीन बहस नहीं है। गलतियाँ अगर हैं तो स्वीकार करो उन्हें छिपाने या सही साबित करने से तो अपनी जहालत ही जाहिर होती है । परन्तु दुर्भाग्य इस बात का है कि आज भी लोगों की बुद्धि कुण्ठित और प्रकाश हीन है उसमें सही और गलत की निर्णय शक्ति नहीं है ।
 धर्म किसी स्वार्थ का समर्थन नहीं करता जैसा कि पुरोहित वर्ग ने धर्म के नाम पर अपने लिए सभी भौतिक सुविधाओं का विधान बनाकर अन्य लोगों को गुलामी के विधान बनाए हैं।।
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             श्राद्धकल्पवर्णनम्
              ।।मुनय ऊचुः।।
भूयः प्रब्रूहि भगवञ्श्राद्धकल्पं सुविस्तरात्।
कथं क्व च कदा केषु कैस्तद्‌ब्रूहि तपोधन।।२२०.१।।

                  व्यास उवाच
श्रृणुध्वं मुनिशार्दूलाः श्राद्धकल्पं सुविस्तरात्।
यथा यत्र यदा येषु यैर्द्रव्यैस्तद्वदाम्यहम्।२२०.२।

ब्राह्मणैः क्षत्रियैर्वैश्यैः श्राद्धं स्ववरणोदितम्।
कुलधर्ममनुतिष्ठद्भिर्दातव्यं मन्त्रपूर्वकम्।२२०.३।

स्त्रीभिर्वर्णावरैः शूद्रैर्विप्राणामनुशासनात्।
अमन्त्रकं विधिपूर्वं वह्नियागविवर्जितम्।२२०.४।

पुष्करादिषु तीर्थेषु पुण्येष्वायतनेषु च।
शिखरेषु गिरीन्द्राणां पुण्यदेशेषु भो द्विजाः।। २२०.५ ।।

सरित्सु पुण्यतोयासु नदेषु च सरःसु च।
संगमेषु नदीनां च समुद्रेषु च सप्तसु।। २२०.६ ।।

स्वनुलिप्तेषु गेहेषु स्वष्वनुज्ञापितेषु च।
दिव्यपादपमूलेषु यज्ञियेषु ह्रदेषु च।। २२०.७ ।।

श्राद्धमेतेषु दातव्यं वर्ज्यमेतेषु चोच्यते।
किरातेषु कलिङ्गेषु कोङ्कणेषु कृमिष्वपि।। २२०.८ ।।

दशार्णेषु कुमार्येषु तङ्गणेषु क्रथेष्वपि।।
सिन्धोरुत्तरकूलेषु नर्मदायाश्च दक्षिणे।। २२०.९ ।।

पूर्वेषु करतोयाया न देयं श्राद्धमुच्यते।
श्राद्धं देयमुशन्तीह मासि मास्युडुपक्षये।। २२०.१० ।।

पौर्णमासेषु(?)श्राद्धं च कर्तव्यमृक्षगोचरे।
नित्यश्राद्धमदैवं च मनुष्यैः सह गीयते।। २२०.११ ।।

नैमित्तिकं सुरैः सार्धं नित्यं नैमित्तिकं तथा।
काम्यान्यन्यानि श्राद्धानि प्रतिसंवत्सरं द्विजैः।। २२०.१२ ।।

वृद्धिश्राद्धं च कर्तव्यं जातकर्मादिकेषु च।
तत्र युग्मान्द्विजानाहुर्मन्त्रपूर्वं तु वै द्विजाः।। २२०.१३ ।।

कन्यां गते सवितरि दिनानि दश पञ्च च।
पूर्वेणैवेह विधिना श्राद्धं तत्र विधीयते।२२०.१४।

प्रतिपद्धनलाभाय द्वितीया द्विपदप्रदा।
पुत्रार्थिनी तृतीया तु चतुर्थी शत्रुनासिनी।। २२०.१५ ।।

श्रियं प्राप्नोति पञ्चम्यां षष्ठ्यां पूज्यो भवेन्नरः।
गणाधिपत्यं सप्तम्यामष्टम्यां बुद्धिमुत्तमाम्।। २२०.१६ ।।

स्त्रियो नवम्यां प्राप्नोति दशम्यां पूर्णकामताम्।
वेदांस्तथाऽऽप्नुयात्सर्वानेकादश्यां क्रियापरः।। २२०.१७ ।।

द्वादश्यां जयलाभं च प्राप्नोति पितृपूजकः।
प्रजावृद्धिं पशुं मेधां स्वातन्त्र्यं पुष्टिमुत्तमाम्।। २२०.१८ ।।

दीर्घायुरथमैश्वर्यं कुर्वाणस्तु त्रयोदशीम्।
अवाप्नोति न संदेहः श्राद्धं श्रद्धासमन्वितः।। २२०.१९ ।।

यथासंभविनाऽन्नेन श्राद्धं श्रद्धासमन्वितः।
युवानः पितरो यस्य मृताः शस्त्रेण वा हताः।। २२०.२० ।।

तेन कार्यं चतुर्दश्यां तेषां तृप्तिमभीप्सता।
श्राद्धं कुर्वन्नमावास्यां यत्नेन पुरुषः शुचिः।। २२०.२१ ।।

सर्वान्कामानवाप्नोति स्वर्गं चानन्तमश्नुते।
अतः परं मुनिश्रेष्ठाः श्रृणुध्वं वदतो मम।२२०.२२।

पितॄणां प्रीतये यत्र यद्‌देयं प्रीतिकारिणा।
मासं तृप्तिः पितॄणां तु हविष्यान्नेन जायते।। २२०.२३ ।।

मासद्वयं मत्स्यमांसैस्तृप्तिं यान्ति पितामहाः।
त्रीन्मासान्हारिणं मांसं विज्ञेयं पितृतृप्तये।। २२०.२४ ।।

पुष्णाति चतुरो मासाञ्शशस्य पिशितं पितृन्।
शाकुनं पञ्च वै मासान्षण्मासाञ्शूकरामिषम्।। २२०.२५ ।।

छागलं सप्त वै मासानैणेयं चाष्टमासकान्।
करोति तृप्तिं नव वै रुरुमांसं न संशयः।२२०.२६।

गव्यं मांसं पितृतृप्तिं करोति दशमासिकीम्।
तथैकादश मासांस्तु औरभ्रं पितृतृप्तिदम्।। २२०.२७ ।।

संवत्सरं तथा गव्यं पयः पायसमेव च।
वाध्रीनमा(र्धोणसा)मिषं लोहं कालशाकं तथा मधु।। २२०.२८ ।।

रोहितामिषमन्नं च दत्तान्यात्मकुलोद्‌भवैः।
अनन्तं वै प्रयच्छन्ति तृप्तियोगं सुतांस्तथा।। २२०.२९ ।।

पितॄणां नात्र संदोहो गयाश्राद्धं च भो द्विजाः।
यो ददाति गुडोन्मिश्रांस्तिलान्वा श्राद्धकर्मणि।। २२०.३० ।।

मधु वा मधुमिश्रं वा अक्षयं सर्वमेव तत्।
अपि नः स कुले भूयाद्यो नो दद्याज्जलाञ्जलिम्।। २२०.३१ ।।

पायसं मधुसंयुक्तं वर्षासु च मघासु च।
एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्येकोऽपि गयां व्रजेत्।। २२०.३२ ।।

गौरीं वाऽप्युद्वहेत्कन्यां नीलं वा वृषमुत्सृजेत्।
कृत्तिकासु पितॄनर्च्य स्वर्गमाप्नोति मानवः।। २२०.३३ ।।

अपत्यकामो रोहिण्यां सौम्ये तेजस्वितां लभेत्।
शौर्यमार्द्रासु चाऽऽप्नोति क्षेत्राणि च पुनर्वसौ।। २२०.३४ ।।

पुष्ये तु धनमक्षय्यमाश्लेषे चाऽऽयुरुत्तमम्।
मघासु च प्रजां पुष्टिं सौभाग्यं फाल्गुनीषु च।। २२०.३५ ।।

प्रधानशीलो भवति सापत्यश्चोत्तरासु च।
प्रयाति श्रेष्ठतां शास्त्रे हस्ते श्राद्धप्रदो नरः।। २२०.३६ ।।

रूपं तेजश्च चित्रासु तथाऽऽपत्यमवाप्नुयात्।
वाणिज्यलाभदा स्वाती विशाखा पुत्रकामदा।। २२०.३७ ।।

कुर्वन्तां चानुराधासु ता दद्युश्चक्रवर्तिताम्।
आधिपत्यं च ज्येष्ठासु मूले चाऽऽरोग्यमुत्तमम्।। २२०.३८ ।।

आषाढासु यशः प्राप्तिरुत्तरासु विशोकता।
श्रवणेन शुभांल्लोकान्धनिष्ठासु धनं महत्।। २२०.३९ ।।

वेदवित्त्वमभिजिति भिषक्सिद्धिं च वारुणे।
अजाविकं प्रौष्ठपद्यां विन्देद्‌गावस्त(श्च त)थोत्तरे।। २२०.४० ।।

रेवतीषु तथा कुप्यमश्विनीषु तुरङ्गमान्।
श्राद्धं कुर्वंस्तथाऽऽप्नोति भरणीष्वायुरुत्तमम्।। २२०.४१ ।।

एवं फलमवाप्नोति ऋक्षेष्वेतेषु तत्त्ववित्।
तस्मात्काम्यानि श्राद्धानि देयानि विधिवद्‌द्विजाः।। २२०.४२ ।।

कन्याराशिगते सूर्ये फलमत्यन्तमिच्छता।
यान्यान्कामानभिध्यायन्कन्याराशिगते रवौ।। २२०.४३ ।।

श्राद्धं कुर्वन्ति मनुजास्तांस्तान्कामाँल्लभन्ति ते।
नान्दीमुखानां कर्तव्यं कन्याराशिगते रवौ।। २२०.४४ ।।

पौर्णमास्यां तु कर्तव्यं वाराहवचनं यथा।
दिव्यभौमान्तरिक्षाणि स्थावराणि चराणि च।। २२०.४५ ।।

पिण्डमिच्छन्ति पितरः कन्याराशिगते रवौ।
कन्यां गते सवितरि यान्यहानि तु षोडश।। २२०.४६ ।।

क्रतुभिस्तानि तुल्यानि देवो नारायणोऽब्रवीत्।
राजसूयाश्वमेधाभ्यां य इच्छेद्‌दुर्लभं फलम्।। २२०.४७ ।।

अप्यम्बुशाकमूलाद्यैः पितॄन्कन्यागतेऽर्तयेत्।
उत्तराहस्तनक्षत्रगते तीक्ष्णांशुमालिनि।२२०.४८।

योऽर्चयेत्स्वपितॄन्भक्त्या तस्य वासस्त्रिविष्टपे।
हस्तर्क्षगे दिनकरे पितृराजानुशासनात्।। २२०.४९।

तावत्पितृरुरी शून्या यावद्‌वृश्चिकदर्शनम्।
वृश्चिके समतिक्रान्ते पितरो दैवतैः सह।२२०.५०।

निः श्वस्य प्रतिगच्छन्ति शापं दत्त्वा सुदुः सहम्।
अष्टकासु च कर्तव्यं श्राद्धं मन्वन्तरासु वै।। २२०.५१ ।।

अन्वष्टकासु क्रमशो मातृपूर्वं तदिष्यते।
ग्रहणे च व्यतीपाते रविचन्द्रसमागमे।२२०.५२।

जन्मर्क्षे ग्रहपीडायं श्राद्धं पार्वणमुच्यते।
अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्वितये तथा।२२०.५३।

संक्रान्तिषु च कर्तव्यं श्राद्धं विधिवदुत्तमम्।
एषु कार्यं द्विजाः श्राद्धं पिण्डनिर्वापणावृते। २२०.५४।

वैशाखस्य तृतीयायां नवम्यां कार्तिकस्य च।
श्राद्धं कार्यं तु शुक्लायां संक्रान्तिविधिना नरैः।। २२०.५५ ।

त्रयोदश्यां भाद्रपदे माघे चन्द्रक्षयेऽहनि।
श्राद्धं कार्यं पायसेन दक्षिणायनवच्च तत्।। २२०.५६ ।।

यदा च श्रोत्रियोऽभ्येति गेहं वेदविदग्निमान्।
तेनैकेन च कर्तव्यं श्राद्धं विधिवदुत्तमम्।। २२०.५७ ।।

श्राद्धीयद्रव्यसंप्राप्तिर्यदा स्यात्साधुसंमता।
पार्वणेन विधानेन श्राद्धं कार्यं तथा द्विजैः।। २२०.५८ ।।

प्रतिसंवत्सरं कार्यं मातापित्रोरमृतेऽहनि।
पितृव्यस्याप्यपुत्रस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य चैव हि।। २२०.५९ ।।

पार्वणं देवपूर्वं स्यादेकोद्दिष्टं सुरैर्विना।
द्वौ दैवे पितृकार्यं त्रीनेकैकमुभयत्र वा।२२०.६०।

मातामहानामप्येवं सर्वमूहेन कीर्तितम्।
प्रेतीभूतस्य सततं भुवि पिण्डं जलं तथा।। २२०.६१ ।।

सतिलं सकुशं दद्याद्‌बहिर्जलसमीपतः।
तृतीयेऽह्नि च कर्तव्यं प्रेतास्थिचयनं द्विजैः।। २२०.६२ ।।

दशाहे ब्राह्मणः शुद्धो द्वादशाहेन क्षत्रियः।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति।। २२०.६३ ।।

सूतकान्ते गृहे श्राद्धमेकोदिदष्टं प्रचक्षते।
द्वादशेऽहनि मासे च त्रिपक्षे च ततः परम्।। २२०.६४ ।।

मासि मासि च कर्तव्यं यावत्संवत्सरं द्विजाः।
ततः परतरं कार्यं सपिण्डिकरणं क्रमात्।। २२०.६५ ।।

कृते सपिण्डीकरणे पार्वणं प्रोच्यते पुनः।
ततः प्रभृति निर्मुक्ताः प्रेतत्वात्पितृतां गताः।। २२०.६६ ।।

अमूर्ता मूर्तिमन्तश्च पितरो द्विविधाः स्मृताः।
नान्दीमुखास्त्वमूर्ताः स्युमूर्तिमन्तोऽथ पार्वणाः।।
एकोद्दिष्टाशिनः प्रेताः पितॄणां निर्णयस्त्रिधा।। २२०.६७ ।।

                मुनय ऊचुः
कथं सपिण्डीकरणं कर्तव्यं द्विजसत्तम।
प्रेतिभूतस्य विधिवद्‌ब्रूहि नो वदतां वर।२२०.६८।

                    व्यास उवाच
सपिण्डीकरणं विप्राः श्रृणुध्वं वदतो मम।
तच्चापि देवरहितमेकार्घैकपवित्रकम्।२२०.६९ ।।

नैवाग्नौकरणं तत्र तच्चाऽऽवाहनवर्जितम्।
अपसव्यं च तत्रापि भोजयेदयुजो द्विजान्।। २२०.७० ।।

विशेषस्तत्र चान्योऽस्ति प्रतिमासक्रियादिकः।
तं कथ्यमानमेकाग्राः श्रृणुध्वं मे द्विजोत्तमाः।। २२०.७१ ।।

तिलगन्धोकैर्युक्तं तत्र पात्रचतुष्टयम्।
कुर्यात्पितॄणां त्रितयमेकं प्रेतस्य च द्विजाः।। २२०.७२ ।।

पात्रत्रये प्रेतपात्रादर्घं चैव प्रसेचयेत्।
ये समाना इति जपन्पूर्ववच्छेषमाचरेत्।२२०.७३।

स्त्रीणारमप्येवमेव स्यादेकोद्दिष्टमुदाहृतम्।
सपिण्डीकरणं तासां पुत्राभावे न विद्यते।। २२०.७४ ।।

प्रीतसंवत्सरं कार्यमेकोद्दिष्टं नरैः स्त्रियाः।
मृताहनि च तत्कार्यं पितॄणां विधिचोदितम्।। २२०.७५ ।।

पुत्राभावे सपिण्डास्तु तदभावे सहोदराः।
कुर्युरेतं विधिं सम्यक्पुत्रस्य च सुताः सुताः।। २२०.७६ ।।

कुर्यान्मातामहानां तु पुत्रिकातनयस्तथा।
व्द्यामुष्यायणसंज्ञास्तु मातामहपितामहान्।। २२०.७७ ।।

पूजयेयुर्यथान्यायं श्राद्धैर्नेमित्तिकैरपि।
सर्वाभावे स्त्रियः कुर्युः स्वभर्तॄणाममन्त्रकम्।। २२०.७८ ।।

तदाभावे च नृपतिः कारयेत्त्वकुटुम्बिनाम्।
तज्जातीयैर्नरैः सम्यग्वाहाद्याः सकलाः क्रियाः।। २२०.७९ ।।

सर्वेषामेव वर्णानां बान्धवो नृपतिर्यतः।
एता वः कथिता विप्रा नित्या नैमित्तिकास्तथा।। २२०.८० ।।

वक्ष्ये श्राद्धाश्रयामन्यां नित्यनैमित्तिकां क्रियाम्।
दर्शस्त(र्शं त)त्र निमित्तं तु विद्यादिन्दुक्षयान्वितः(तम्)।। २२०.८१ ।

नित्यस्तु नियतः कालस्तस्मिन्कुर्याद्यथोदितम्।
सपिण्डकरणादूर्ध्वं पितुर्यः प्रपितामहः।२२०.८२।

स तु लेपभुजं याति प्रलुप्तः पितृपिण्डतः।
तेषां हि यश्चतुर्थोऽन्यः स तु लेपभुजो भवेत्।। २२०.८३ ।।

सोऽपि संबन्धतो हीनमुपभोगं प्रपद्यते।
पिता पितामहश्चैव तथैव प्रपितामहः।२२०.८४ ।

पिण्डसंबन्धिनो ह्येते विज्ञेयाः पुरुषास्त्रयः।
लेपसंबन्धिनश्चान्ये पितामहपितामहात्।। २२०.८५ ।।

प्रभृत्युक्तास्त्रयस्तेषां यजमानश्च सप्तमः।
इत्येष मुनिभिः प्रोक्तः संबन्धः साप्तपौरुषः।। २२०.८६ ।।

यजमानात्प्रभृत्यूर्ध्वमनुलेपभुजस्तथा।
ततोऽन्ये पूर्वजाः सर्वे ये चान्ये नरकौकसः।। २२०.८७ ।।

येऽपि तिर्यक्त्वमापन्ना ये च भूतादिसंस्थिताः।
तान्सर्वान्यजमानो वै श्राद्धं कुर्वन्यथाविधि।। २२०.८८ ।।

स समाप्यायते विप्रा येन येन वदामि तत्।
अन्नप्रकिरणं यत्तु मनुष्यैः क्रियते भुवि।२२०.८९।

तेन तृप्तिमुपायान्ति ये पिशाचत्वमागताः।
यदम्बु स्नानवस्त्रोत्थं भूमौ पतति भो द्विजाः।। २२०.९० ।।

तेन ये तरुतां प्राप्तास्तेषां तृप्तिः प्रजायते।
यास्तु गन्धाम्बुकणिकाः पतन्ति धरणीतले।। २२०.९१ ।।

ताभिराप्यायनं तेषां देवत्वं ये कुले गताः।
उद्धतेष्वथ पिण्डेषु याश्चाम्बुकणिका भुवि।। २२०.९२ ।।

ताभिराप्यायनं तेषां ये तिर्यक्त्वं कुले गताः।
यो चादन्ताः कुले बालाः क्रियायोगाद्‌बहिष्कृताः।। २२०.९३ ।।

विपन्नास्त्वनधिकाराः संमार्जितजलाशिनः।
भुक्त्वा चाऽऽचामतां यच्च यज्जलं चाङ्‌घ्रिशौचजम्।। २२०.९४ ।।

ब्राह्मणानां तथैवान्यत्तेन तृप्तिं प्रयान्ति वै।
एवं यो यजमानस्य यश्च तेषां द्विजन्मनाम्।। २२०.९५ ।।

कश्चिज्जलान्नविक्षेपः शुचिरुच्छिष्ट एव वा।
तेनान्नेन कुले तत्र ये च योन्यन्तरं गताः।२२०.९६।

प्रयान्त्याप्यायनं विप्राः सम्यक्श्राद्धक्रियावताम्।
अन्यायोपार्जितैरर्थैर्यच्छ्राद्धं क्रियते नरैः।२२०.९७।

तृप्यन्ते ते न चाण्डालपुल्कसाद्यासु योनिषु।
एवमाप्यायनं विप्रा बहूनामेव बान्धवैः।। २२०.९८।

श्राद्धं कुर्वद्‌भिरत्राम्बुविक्षेपैः संप्रजायते।
तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकेनापि यथाविधि।। २२०.९९ ।।

कुर्वीत कुर्वतः श्राद्धं कुले कश्चिन्न सीदति।
श्राद्धं देयं तु विप्रेषु संयतेष्वग्निहोत्रिषु।। २२०.१०० ।।

अवदातेषु विद्वत्सु श्रोत्रियेषु विशेषतः।
त्रिणाचिकेतस्त्रिमधुस्त्रिसुपर्णः षडङ्गवित्।। २२०.१०१ ।।

मातापितृपरश्चैव स्वस्रीयः सामवेदवित्।
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यमुपाध्यायं च भोजयेत्।। २२०.१०२ ।।

मातुलः श्वशुरः श्यालः संबन्धी द्रोणपाठकः।
मण्डलब्राह्मणो यस्तु पुराणार्थविशारदः।। २२०.१०३ ।।

अकल्पः कल्पसंतृष्टः प्रतिग्रहविवर्जितः।
एते श्राद्धे नियोक्तव्या ब्राह्मणाः पङ्क्तिपावनाः।। २२०.१०४ ।।

निमन्त्रयेन पूर्वेद्युः पूर्वोक्तान्द्विजसत्तमान्।
दैवे नियोगे पित्र्ये च तांस्तथैवोपकल्पयेत्।। २२०.१०५ ।।

तैश्च संयमिभिर्भाध्यं यस्तु श्राद्धं करिष्यति।
श्राद्धं दत्त्वा च भुक्त्वा च मैथुनं योऽधिगच्छति।। २२०.१०६ ।।

पितरस्तस्य वै मासं तस्मिन्प्रेतसि शेरते।
गत्वां च योषितं श्राद्धं यो भुङ्क्ते यस्तु ग(य)च्छति।। २२०.१०७ ।।

रेतोमूत्रकृताहारास्तं मासं पितरस्तयोः।
तस्मात्त्व(त्तु)प्रथमं कार्यं प्राज्ञेनोपनिमन्त्रणम्।। २२०.१०८ ।।

अप्राप्तौ तद्दिने वाऽपि वर्ज्या योषित्प्रसङ्गिनः।
भिक्षार्थमागतांश्चापि कालेन संयतान्यतीन्।। २२०.१०९ ।।

भोजयेत्प्रणिपाताद्यैः प्रसाद्य यतमानसः।
योगिनश्च तदा श्राद्धे भोजनीया विपश्चिता।। २२०.११० ।।

योगाधारा हि पितरस्तस्मात्तान्पूजयेत्सदा।
ब्राह्मणानां सहस्राणि एको योगी भवेद्यदि।। २२०.१११ ।।

यजमानं च भोक्तॄंश्च नौरिवाम्भसि तारयेत्।
पितृगाथा तथैवात्र गीयते ब्रह्मवादिभिः।। २२०.११२ ।।

या गीता पितृभिः पूर्वमैलस्याऽऽसीन्महीपतेः।
कदा नः संततावग्य्रः कस्यचिद्भविता सुतः।। २२०.११३ ।।

यो योगिभुक्तशेषान्नो भुवि पिण्डान्प्रदास्यति।
गयायामथवा पिण्डं खड्गमांसं तथा हविः।। २२०.११४ ।।

कालशाकं तिलाज्यं च तृप्तये कृसरं च नः।
वैश्वदेवं च सौम्यं च खड्गमांसं परं हविः।। २२०.११५ ।।

विषाणवर्जं शिरसा पादादाशिषामहे।
दद्याच्छ्राद्धं त्रयोदश्यां मघासु च यथाविधि।। २२०.११६ ।।

मधुसर्पिःसमायुक्तं पायसं दक्षिणायने।
तस्मात्संपूजयेद्‌भक्त्या स्वपितॄन्विधिवन्नरः।। २२०.११७ ।।

कामानभिप्सन्सकलान्पापादात्मविमोचनम्।
वसून्रुद्रांस्तथाऽऽदित्यान्नक्षत्रग्रहतारकाः।। २२०.११८ ।।

प्रीणयन्ति मनुष्याणां पितरः श्राद्धतर्पिताः।
आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च।। २२०.११९ ।।

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः।
तथाऽपराह्णाः पूर्वाह्णात्पितॄणामतिरिच्यते।। २२०.१२० ।।

संपूज्य स्वागतेनैतान्सदनेऽभ्यागतान्द्विजान्।
पवित्रपाणिराचान्तानासनेषूपवेशयेत्।२२०.१२१।।

श्राद्धं कृत्वा विधानेन संभोज्य च द्विजोत्तमान्।
विसर्जयोत्प्रियाण्युक्त्वा प्रणिपत्य च भक्तितः।। २२०.१२२ ।।

आद्वारमनुगच्छेच्च आगच्छेदनुमोदितः।
ततो नित्यक्रियां कुर्याद्‌भोजयेच्च तथाऽतिथीन्।। २२०.१२३ ।।

नित्यक्रियां पितॄणां च केचिदिच्छन्ति सत्तमाः।
न पितॄणां तथैवान्ये शेषं पूर्ववदाचरेत्।। २२०.१२४ ।।

पृथक्त्वेन वदनत्यन्ये केचित्पूर्वं च पूर्ववत्।
ततस्तदन्नं भुञ्जीत सह भृत्यादिभिर्नरः।। २२०.१२५ ।।

एवं कुर्वीत धर्मज्ञः श्राद्धं पित्र्यं समाहितः।
यथा च विप्रमुख्यानां परितोषोऽभिजायते।। २२०.१२६ ।।

इदानीं संप्रवक्ष्यामि वर्जनीयान्द्विजाधमान्।
मित्रध्रुक्कुनखी क्लीबः क्षयी शुक्ली वणिक्पथः।। २२०.१२७ ।।

श्यावदन्तोऽथ खल्वाटः काणोऽन्धो बधिरो जडः।
मूकः पङ्गुः कुणिः षण्ढो दुश्चर्मा व्यङ्गकेकरौ।। २२०.१२८ ।।

कुष्ठी रक्तेक्षणः कुब्जो वामनो विकटोऽलसः।
मित्रसत्रुर्दुष्कुलीनः पशुपालो निरागृतिः।। २२०.१२९ ।।

परिवित्तिः परिवेत्ता परिवेदनिकासुतः।
वृषलीपतिस्तत्सुतश्च न भवेच्छ्राद्धभुग्द्विजः।। २२०.१३० ।।

वृषलीपुत्रसंस्कर्ता अनुढो दिधिषूपतिः।
भृतकाध्यापको यस्तु भृतकाध्यापितश्च यः।। २२०.१३१ ।।

सूतकान्नोपजीवी च मृगयुः सोमविक्रयी।
अभिशस्तस्तथा स्तेनः पतितो वार्धुषिः शठः।। २२०.१३२ ।।

पिशुनो वेदसंत्यागी दानाग्नित्यागनिष्ठुरः।
राज्ञः पुरोहितो भृत्यो विद्याहीनोऽथ मत्सरी।। २२०.१३३ ।।

वृद्धद्विड्दुर्धरः क्रूरो मूढो देवलकस्तथा।
नक्षत्रसूचकश्चैव पर्वकारश्च गर्हितः।२२०.१३४ ।।

अयाज्ययाजकः षण्ढो गर्हिता ये च येऽधमाः।
न ते श्राद्धे नियोक्तव्या दृष्ट्वाऽमी पङ्क्तिदूषकाः।। २२०.१३५ ।।

असतां प्रग्रहो यत्र सतां चैवावमानना।
दण्डो देवकृतस्तत्र सद्यः पतति दारुणः।। २२०.१३६ ।।

हित्वाऽऽगमं सुविहितं बालिशं यस्तु भोजयेत्।
आदिधर्मं समुत्सृज्य दाता तत्र विनश्यति।। २२०.१३७ ।।

यस्त्वाश्रितं द्विजं त्यक्त्वा अन्यमानीय भोजयेत्।
तन्नः श्वासाग्निनिर्दग्धस्तत्र दाता विनश्यति।। २२०.१३८ ।।

वस्त्राभावे क्रिया नास्ति यज्ञा वेदास्तपांसि च।
तस्माद्वासांसि देयानि श्राद्धकाले विशेषतः।। २२०.१३९ ।।

कौशेयं क्षौमकार्पासं दुकूलमहतं तथा।
श्राद्धे त्वेतानि यो दद्यात्कामानाप्नोति चोत्तमान्।। २२०.१४० ।।

यथा गोषु प्रभूतासु वत्सो विन्दति मातरम्।
तथाऽन्नं तत्र विप्राणां जन्तुर्यत्रावतिष्ठते।। २२०.१४१ ।।

नामगोत्रं च मन्त्राश्च दत्तमन्नं नयन्ति ते।
अपि ये निधनं प्राप्तास्तृप्तिस्तानुपतिष्ठते।। २२०.१४२ ।।

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च।
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव भवन्त्विति।। २२०.१४३ ।।

आद्यावसाने श्राद्धस्य त्रिरावृत्त्या जपेत्तदा।
पिण्डनिर्वपणे वाऽपि जपेदेवं समाहितः।। २२०.१४४ ।।

क्षिप्रमायान्ति पितरो राक्षसाः प्रद्रवन्ति च।
प्रीयन्ते त्रिषु लोकेषु मन्त्रोऽयं तारयत्युत।। २२०.१४५ ।।

क्षौमसूत्रं नवं दद्याच्छा(च्छो)णं कार्पासिकं तथा।
पत्रोर्णं पट्टसूत्रं च कौशेयं च विवर्जयेत्।। २२०.१४६ ।।

वर्जयेच्चादशं प्राज्ञो यद्यप्यव्याहतं भवेत्।
न प्रीणयन्त्यथैतानि दातुश्चाप्यनयो भवेत्।। २२०.१४७ ।।

न निवेद्ये भवेद्पिण्डः पितॄणां यस्तु जीवति।
इष्टेनान्नेन भक्ष्येण भोजयेत्तं यथाविधि।। २२०.१४८ ।।

पिण्डमग्नौ सदा दद्याद्‌भोगार्थो सततं नरः।
पत्न्यै दद्यात्प्रजार्थो च मध्यमं मन्त्रपूर्वकम्।। २२०.१४९ ।।

उत्तमां द्युतिमन्विच्छन्पिण्डं गोषु प्रयच्छति।
प्रज्ञो चैव यशः सीर्तिमप्सु चैव निवेदयेत्।। २२०.१५० ।।

प्रार्थयन्दीर्घमायुश्च वायसेभ्यः प्रयच्छति।
कुमारशालामन्विच्चन्कुक्कुटेभ्यः प्रयच्छति।। २२०.१५१ ।।

एके विप्राः पुनः प्राहुः पिण्डोद्धरणग्रतः।
अनुज्ञातस्तु विप्रैस्तैः काममुद्ध्रियतामिति।। २२०.१५२ ।।

तस्माच्छ्राद्धं तथा कार्यं यथोक्तमृषिभिः पुरा।
अन्यथा तु भवेद्दोषः पितॄणां नोपतिष्ठति।। २२०.१५३ ।।

यवैर्व्रीहितिलैर्माषैर्गोधूमैश्चणकैस्तथा।
संतर्पयेत्पितॄनमुद्‌गैः श्यामाकैः सर्षपद्रवैः।। २२०.१५४ ।।

नीवारैर्हस्तिश्यामाकैः प्रियङ्गुभिस्तथाऽऽर्घयेत्।
प्रसातिकां(अस्तिकाः)सतूलिकां द(तीलकान्द)द्याच्छ्राद्धे विचक्षणः।। २२०.१५५ ।।

आम्रमाम्रातकं बिल्वं दाडिमं बीजपूरकम्।
प्राचीनामलकं क्षीरं नारिकेलं परुषकम्।। २२०.१५६ ।।

नारङ्गं च सखर्जूरं द्राक्षानीलकपित्थकम्।
पटोलं च प्रियालं च कर्कन्धूबदराणि च।। २२०.१५७ ।।

विकङ्कतं वत्सकं च कस्त्वारु(र्कारू)र्वारकानपि।
एतानि फलजातानि श्राद्धे देयानि यत्नतः।। २२०.१५८ ।।

गुडशर्करमत्स्यण्डी देयं फाणितमूर्मुरम्।
गव्यं पयो दधि घृतं तैलं च तिलसंभवम्।। २२०.१५९ ।।

सैन्धवं सागरोत्थं च लवणं सारसं तथा।
निवेदयेच्छुचीन्गन्धांश्चन्दनागुरुकुङ्कुमान्।। २२०.१६० ।।

कालशाकं तन्दुलीयं वास्तुकं मूलकं तथा।
शाकमारण्यकं चापि दद्यात्पुण्पाण्यमूनि च।। २२०.१६१ ।।

जातिचम्पकलोध्राश्च मल्लिकाबाणबर्बरी।
वृन्ताशोकाटरूषं च तुलसी तिलकं तथा।। २२०.१६२ ।।

पावन्तीः शतपत्रां च गन्धशोफालिकामपि।
कुब्जकं तगरं चैव मृगमारण्यकेतकीम्।। २२०.१६३ ।।

यूथिकामतिमुक्तं च श्राद्धयोग्यानि भो द्विजाः।
कमलं कुमुदं पद्मं पुण्डरीकं च यत्नतः।। २२०.१६४ ।।

इन्दीवरं कोकनदं कह्लारं च नियोजयेत्।
कुष्ठं मांसी बालकं च कुक्कुटी जातिपत्रकम्।। २२०.१६५ ।।

नलिकोशीरमुस्तं च ग्रन्थिपर्णी च सुन्दरी।
पुनरप्येवमादीनि गन्धयोग्यानि चक्षते।। २२०.१६६ ।।

गुग्गुलुं चन्दनं चैव श्रीवासमगुरुं तथा।
धूपानि पितृयोग्यानि ऋषिगुग्गुलमेव च।। २२०.१६७ ।।

राजमाषांश्च चणकान्मसूरन्कोरदूषकान्।
विप्रुषान्मर्कटांश्चैव कोद्रवांश्चैव वर्जयेत्।। २२०.१६८ ।।

माहिषं चामरं मार्गमाविकैकशफोद्भवम्।
स्त्रैणमौष्ट्रमाविकं च दधि क्षीरं घृतं त्यजेत्।। २२०.१६९ ।।

तालं वरुणकाकोलौ बहुपत्रार्जुनीफलम्।
जम्बीरं रक्तबिल्वं च शालस्यापि फलं त्यजेत्।। २२०.१७० ।।

मत्स्यसूकरकूर्माश्च गावो वर्ज्या विशेषतः।
पूतिकं मृगनाभिं च रोचनां पद्मचन्दनम्।। २२०.१७१ ।।

कालेयकं तूग्रगन्धं तुरुष्कं चापि वर्जयेत्।
पालङ्कं च कुमारीं च किरातं पिण्डमूलकम्।। २२०.१७२ ।।

गृञ्जनं चुक्रिकां चुक्रं वरुमां चनपत्रिकाम्।
जीवं च शतपुष्पां च नालिकां गन्धशूकरम्।। २२०.१७३ ।।

हलभृत्यं सर्षपं च पलाण्डुं लशुनं त्यजेत्।
मानकन्दं विषकन्दं वज्रकन्दं गदास्थिकम्।। २२०.१७४ ।।

पुरुषाल्वं सपिण्डालुं श्राद्धकर्मणि वर्जयेत्।
अलाबुं तिक्तपर्णां च कूष्माण्डं कटुकत्रयम्।। २२०.१७५ ।।

वार्ताकं शिवजातं च लोमशानि वटानि च।
कालीयं रक्तवाणां च बलाकां लकुचं तथा।। २२०.१७६ ।।

श्राद्धकर्मणि वर्ज्यानि विभीतकफलं तथा।
आरनालं च शुक्तं च शीर्णं पर्युषितं तथा।। २२०.१७७ ।।

नोग्रागन्धं च दातव्यं कोविदारकशिग्रुकौ।
अत्यम्लं पिच्छिलं सूक्ष्मं यातयामं च सत्तमाः।। २२०.१७८ ।।

न च देयं गतरसं मद्यगन्धं च यद्भवेत्।
हिङ्गूग्रगन्धं फणिशं भूनिम्बं निम्बराजिके।। २२०.१७९ ।।

कुस्तुम्बुरुं कलिङ्गोत्थं वर्जयेदम्लवेतसम्।
दाडिमं मागधीं चैव नागरार्द्रकतित्तिडीः।। २२०.१८० ।।

आम्रातकं जीवकं च तुम्बुरुं च नियोजयेत्।
पायसं शाल्लीमुद्रान्मोदकादींश्च भक्तितः।। २२०.१८१ ।।

पानकं च रसालं च गोक्षीरं च निवेदयेत्।
यानि चाभ्यवहार्याणि स्वादुस्निग्धानि भो द्विजाः।। २२०.१८२ ।।

ईषदम्लकटून्येव देयानि श्राद्धकर्मणि।
अत्यम्लं चातिलवणमतिरिक्तकटूनि च।। २२०.१८३ ।।

आसुराणीह भोज्यानि तान्यतो दूरतस्त्यजेत्।
मृष्टस्निग्धानि यानि स्युरीषत्कट्‌वम्लकानि च।। २२०.१८४ ।।

स्वादूनि देवभोज्यानि तानि श्राद्धे नियोजयेत्।
छागमांसं वार्तिकं च तैत्तिरं शशकामिषम्।। २२०.१८५ ।।

शिवालावकराजीवमांसं श्राद्धे नियोजयेत्।
वाघ्रीणसं रक्तशिवं लोहं शल्कसमन्वितम्।। २२०.१८६ ।।

सिंहतुण्डं च खड्गं च श्राद्धे योज्यं तथोच्यते।
यदप्युक्तं हि मनुना रोहितं प्रतियोजयेत्।। २२०.१८७ ।।

योक्तव्यं हव्यकव्येषु तथा न विप्रयोजयेत्।
एवमुक्तं मया विप्रा वाराहेणावलोकितम्।। २२०.१८८ ।।

मया निषिद्धं भुञ्जानो रौरवं नरकं व्रजेत्।
एतानि च निषिद्धानि वाराहेण तपोधनाः।। २२०.१८९ ।।

अभक्ष्याणि द्विजातीनां न देयानि पितृष्वपि।
रोहितं शूकरं कूर्मं गोधाहंसं च वर्जयेत्।। २२०.१९० ।।

चक्रवाकं च मद्गुं च शल्कहीनांश्च मत्स्यकान्।
कुररं च निरस्थिं च वासहातं च(?)कुक्कुटान्।। २२०.१९१ ।।

कलविङ्कमयूरांश्च भारद्वाजांश्च शार्ङ्गकान्।
नकुलोलूकमार्जारांल्लोपानन्यान्सुदुर्ग्रहान्।। २२०.१९२ ।।

टिट्टिभान्सार्धजम्बूकान्व्याघ्रॠक्षतरक्षुकान्।
एतानन्यांश्च संदुष्टान्यो भक्षयति दुर्मतिः।।। २२०.१९३ ।।

स महापापकारी तु रौरवं नरकं व्रजेत्।
पितृष्वेतांस्तु यो दद्यात्पापात्मा गर्हितामिषान्।। २२०.१९४ ।।

स स्वर्गस्थानपि पितॄन्नरके पातयिष्यति।
कुसुम्भशाकं जम्बीरं सिग्रुकं कोविदारकम्।। २२०.१९५ ।।

पिण्याकं विप्रुषं चैव मसूरं गृञ्जनं शणम्।
कोद्रवं कोकिलाक्षं च चक्रं कम्बुकपद्मकम्।। २२०.१९६ ।।

चकोरश्येनमांसं च बर्तुलालबुतालिनीम्।
फलं तालतरूणां च भुक्त्या नरकमृच्छति।। २२०.१९७ ।।

दत्त्वा पितृषु तैः सार्धः ब्रजेत्पूयवहं नरः।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन नाऽऽहरेत्तु विचक्षणः।। २२०.१९८ ।।

निषिद्धानि वराहेण स्वयं पित्रर्थमादरात्।
वरमेवाऽऽत्ममांसस्य भक्षणं मुनयः कृतम्।। २२०.१९९ ।।

न त्वेव हि निषिद्धानामादानं पुंभिरादरात्।
अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा सकृदेतानि च द्विजाः।। २२०.२०० ।।

भक्षितानि निषिद्धानि प्रायश्चित्तं ततश्चरेत्।
फलमूलदधिक्षीरतक्रगोमूत्रयावकैः।। २२०.२०१ ।।

भोज्यान्नभोज्यसंभुक्ते प्रत्येकं दिनसप्तकम्।
एवं निषिद्धाचरणे कृते सकृदपि द्विजैः।। २२०.२०२ ।।

शुद्धिं नेयं शरीरं तु विष्णुभक्तैर्विशेषतः।
निषिद्धं वर्जयेद्‌द्रव्यं यथोक्तं च द्विजोत्तमाः।। २२०.२०३ ।।

समाहृत्य ततः श्राद्धं कर्तव्यं निजशक्तितः।
एवं विधानतः श्राद्धं कृत्वा स्वविभवोचितम्।।
आब्रह्यस्तम्बपर्यन्तं जगत्प्रीणाति मानव।। २२०.२०४ ।।

मुनय ऊचुः
पिता जीवति यस्याथ मृतौ द्वौ पितरौ पितुः।
श्राद्धं हि कर्तव्यमेतद्विस्तरशो वद।। २२०.२०५ ।।

व्यास उवाच
यस्मै दद्यात्पिता श्राद्धं तस्मै दद्यात्सुतः स्वयम्।
एवं न हीयते धर्मो लौकिको वैदिकस्तथा।। २२०.२०६ ।।

मुनय ऊचुः
मृतः पिता जीवति च यस्य ब्रह्मन्पितामहः।
स हि श्राद्धं कथं कुर्यादेतत्त्वं वक्तुमर्हसि।। २२०.२०७ ।।

व्यास उवाच
पितुः पिण्डं प्रदद्याच्च भोजयेच्च पितामहम्।
प्रपितामहास्य पिण्डं वैह्यं शास्त्रेषु निर्णयः।। २२०.२०८ ।।

मृतेषु पिण्डं दातव्यं जीवन्तं चापि भोजयेत्।
सपिण्डीकरणं नास्ति न च पार्वणमिष्यते।। २२०.२०९ ।।

आचारमाचरेद्यस्तु पितृमेधाश्रितं नरः।
आयुषा धनुपुत्रैश्च वर्धत्याशु न संशयः।। २२०.२१० ।।

पितृमेधाध्यायमिमं श्राद्धकालेषु यः पठेत्।
तदन्नमस्य पितरोऽश्नन्ति च त्रियुगं द्विजाः।। २२०.२११ ।।

एवं मयोक्तः पितृमेधकल्पः, पापापहः पुण्यविवर्धनश्च।
श्रोतव्य एष प्रयतैर्नरैश्च, श्राद्धेषु चैवाप्यनुकीर्तयेत।। २२०.२१२ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे व्यासर्षिसंवादे श्राद्धकल्पनिरूपणं नाम विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। २२० ।।


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पद्म पुराण क्रिया योग खण्ड अध्याय (२१)

                 -व्यास उवाच-
ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा हरिशर्मा द्विजोत्तमः
भूयोऽपितं नमस्कृत्य भक्त्या प्राहेति जैमिने१।
                 हरिशर्मोवाच-
प्रोक्तानि यानि दानानि सुखहूनि त्वया प्रभो
कस्मै देयानि दानानि तन्मे गदितुमर्हसि ।२।
                 -ब्रह्मोवाच-
सर्वेषामेव वर्णानां ब्राह्मणः परमो गुरुः
तस्मै देयानि दानानि भक्तिश्रद्धासमन्वितैः ।३।
सभी जातियों का ब्राह्मण ही परम गुरु है। 
जिसे भक्ति से युक्त होकर दान देना चाहिए।३।
______________________

सर्वदेवाश्रयो विप्रः प्रत्यक्षस्त्रिदशो भुवि
स तारयति दातारं दुस्तरे विश्वसागरे ।४।

ब्राह्मण सभी देवताओं का आश्रय है। साक्षात  पृथ्वी पर एक देवता है। वह संसार के इस महासागर में जिसे पार करना मुश्किल है दान करने वाले को बचाता है।४।

              -ब्राह्मण उवाच-
सर्ववर्णगुरुर्विप्रस्त्वया प्रोक्तः सुरोत्तम
तेषां मध्ये तु कः श्रेष्ठः कस्मै दानं प्रदीयते ।५।
ब्राह्मण ने कहा : हे श्रेष्ठ भगवान, आपने ब्राह्मण को सभी जातियों में सबसे अधिक सम्मानित घोषित किया है। लेकिन उनमें से (अर्थात ब्राह्मण ) सबसे महान कौन है? दान किसे दिया जाता है।५।

                    -ब्रह्मोवाच-
सर्वेऽपि ब्राह्मणाः श्रेष्ठाः पूजनीयाः सदैव हि
स्तेयादिदोषतप्ता ये ब्राह्मणा ब्राह्मणोत्तम ।६।
                    -ब्रह्मा ने कहा-
  ब्रह्मा वोले- हे ब्राह्मण में उत्तम ! सभी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, और सभी हमेशा आदरणीय हैं।  ब्राह्मण जो चोरी जैसे दोषों से दूषित हो गए हैं वे भी हमारे आदरणीय  हैं ।६।
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अस्माकं द्वेषिणस्ते च परेभ्यो न कदाचन
अनाचारा द्विजाः पूज्या न च शूद्रा जितेन्द्रियाः
अभक्ष्यभक्षका गावो लोकानां मातरःस्मृताः७।
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हमसे द्वेष करने वाले वे सब और दूसरों के द्वारा कभी नहीं अनाचारी द्विज पूज्य होते हैं परन्तु शूद्र जितेन्द्री होने पर भी पूज्य नहीं है ।
ब्राह्मण जो अभक्ष्य भी खाता है वह भी पूज्य है।। ७।

माहात्म्यं भूमिदेवानां विशेषादुच्यते मया
तव स्नेहाद्द्विजश्रेष्ठ निशामय समाहितः ।८।

हे श्रेष्ठ ब्राह्मण, अब मैं विशेष रूप से आपके लिए स्नेह के माध्यम से ब्राह्मणों की महानता को बता रहा हूं। इसे ध्यान से सुनें।८।
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