कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति परशुरामचरितकथनम्।। 1।।
शान्तिपर्व अध्याय अड़तालीसवाँ अध्याय ।वासुदेव उवाच। | |
शृणु कौन्तेय रामस्य प्रभावो यो मया श्रुतः। महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च।12-48-1 | |
यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः। उद्भूता राजवंशेषु ये भूयो भारते हताः।।2। ________________ | |
जह्नोरजस्तु तनयो बलाकाश्चस्तु तत्सुतः। कुशिको नाम धर्मज्ञस्तस्य पुत्रो महीपते।।3। | |
अग्र्यं तपः समातिष्ठत्सहस्राक्षसमो भुवि। पुत्रं लभेयमजितं त्रिलोकेश्वरमित्युत।।4। | |
तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरंदरः। समर्थं पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत।।5। | |
पुत्रत्वमगमद्राजंस्तस्य लोकेश्वरेश्वरः। गाधिर्नामाभवत्पुत्रः कौशिकःपाकशासनः।।6। | |
तस्य कन्याऽभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती प्रभो। तां गाधिर्भृगुपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः।।7। | |
ततस्तया हि कौन्तेय भार्गवः कुरुनदनः। पुत्रार्थं श्रपयामास चरुं गाधेस्तथैव च।।8। | |
आहूय चाह तां भार्यामृचीको भार्गवस्तदा। उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्राऽप्ययं तव।।9। | |
तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्षभः। अजय्यः क्षत्रियैर्लोके क्षत्रियर्षभसूदनः।।10। | |
तवापि पुत्रं कल्याणि धृतिमन्तं शमात्मकम्। तपोन्वितं द्विजश्रेष्ठं चरुरेष विधास्यति।।11। | |
इत्येवमुक्त्वा तां भार्यां ऋचीको भृगुनन्दनः। तपस्यभिरतः श्रीमाञ्जगामारण्यमेव हि।।12। | |
एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः। गाधिः सदारः संप्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति।।13। | |
चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा। भर्त्रा दत्तं प्रसन्नेन मात्रे हृष्टा न्यवेदयत्।।14। | |
माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ। तस्याश्ररुमथाज्ञातमात्मसंस्थं चकार ह।।15। | |
अथ सत्यवती गर्भं क्षत्रियान्तकरं तदा। धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम्।।16। | |
तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन भारत। अब्रवीद्भृगुशार्दूलः स्वां भार्यां देवरूपिणीम्।।17। | |
मात्राऽसि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना। तस्माज्जनिष्यते पुत्रः क्रूरकर्माऽत्यमर्षणः। जनयिष्यति माता ते ब्रह्मभूतं तपोधनम्।।18। | |
विश्वं हि ब्रह्म सुमहच्चरौ तव समाहितम्। क्षत्रवीर्यं च सकलं तव मात्रे समर्पितम्।।19। | |
विपर्ययेण ते भद्रे नैतदेवं भविष्यति। मातुस्ते ब्राह्मणो भूयात्तव च क्षत्रियः सुतः।।20। | |
सैवमुक्ता महाभागा भर्त्रा सत्यवती तदा। पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम्।।21। | |
नार्होऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः। ब्राह्मणापशदं पुत्रं प्राप्स्यसीति हि मां प्रभो।।22। | |
।ऋचीक उवाच। | |
नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि। उग्रकर्मा भवेत्पुत्रश्चरुव्यत्यासहेतुना।।23। | |
।सत्यवत्युवाच। | |
इच्छँल्लोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनः सुतम्। शमात्मकमृजुं पुत्रं दातुमर्हसि मे प्रभो।।24। | |
।ऋचीक उवाच। | |
नोक्तपूर्वं मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं वचः। किमुताग्निं समाधाय मन्त्रवच्चरुसाधने।।25। | |
[दृष्टमेतत्पुरा भद्रे ज्ञातं च तपसा मया। ब्रह्मभूतं हि सकलं पितुस्तव कुलं भवेत्।।26। | |
।सत्यवत्युवाच। | |
काममेवं भवेत्पौत्रो मामैवं तनयः प्रभो। शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं जपतां वर।।27 | |
।ऋचीक उवाच। | |
पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे च वरवर्णिनि। यथा त्वयोक्तं वचनं तथा भद्रे भविष्यति।।28 | |
।वासुदेव उवाच। | |
ततः सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम्। तपस्यभिरतं शान्तं जमदग्निं यतव्रतम्।।29। | |
विश्वामित्रं च दायादं गाधिः कुशिकनन्दनः। प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम्।।30। | |
ऋचीको जनयामास जमदग्निं तपोनिधिम्। सोऽपि पुत्रं ह्यजनयज्जमदग्निः सुदारुणम्।।31। | |
सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदस्य पारगम्। रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम्।।32। | |
[तेषयित्वा महादेवं पर्वते गन्धमादने। अस्त्राणि वरयामास परशुं चातितेजसम्।।33। | |
स तेनाकुण्ठधारेण ज्वलितानलवर्चसा। कुठारेणाप्रमेयेण लोकेष्वप्रतिमोऽभवत्।।34। | |
एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली। अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयाधिपः।।35। | |
दत्तात्रेयप्रसादेन राजा बाहुसहस्रवान्। चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्वमेधिके।।36। | |
ददौ स पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्। सबाह्वस्त्रबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्।।37। | |
तृषितेन च कौन्तेय भिक्षितश्चित्रभानुना। सहस्त्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्नये।।38। | |
ग्रामान्पुराणि राष्ट्राणि घोषांश्चैव तु वीर्यवान्। जज्वाल तस्य वाणेद्धचित्रभानुर्दिधक्षया।।39। | |
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महौजसः। ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानपि धरामपि।।40। | |
स शून्यमाश्रमारण्यमापवस्य महात्मनः। ददाह पवनेनेद्धश्चित्रभानुः सहैहयः।।41। ______________ | |
आपवस्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत। दग्धे श्रमे महाबाहो कार्तवीर्येण वीर्यवान्।।42। | |
त्वया न वर्जितं यस्मान्ममेदं हि महद्वनम्। दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते च्छेत्स्यतेऽर्जुन।।43। | |
अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्मकः। ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत। नाचिन्तयत्तदा शापं तेन दत्तं महात्मना।।44। | |
तस्य पुत्राः सुबलिनः शापेनासन्पितुर्वधे। निमित्तमवलिप्ता वै नृशंसाश्चैव नित्यदा।।45। | |
जमदग्नेस्तु धेन्वास्ते वत्समानिन्युरच्युत। अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हैहयेन्द्रस्य धीमतः।।46। | |
तन्निमित्तमभूद्युद्धं जामदग्नेर्महात्मनः। ततोऽर्जुनस्य बाहून्स चिच्छेद रुषितोऽनघ।।47। | |
तं भ्रमन्तं ततो वत्सं जामदग्न्यः स्वमाश्रमम्। प्रत्यानयत राजेन्द्र तेषामन्तः पुरात्प्रभुः।।48। | |
अर्जुनस्य सुतास्ते तु संभूयाबुद्धयस्तदा। गत्वाऽऽश्रममसंबुद्धा जमदग्नेर्महात्मनः। अपातयन्त भल्लाग्रैः शिरः कायान्नराधिप।।49। | |
समित्कुशार्थं रामस्य निर्यातस्य यशस्विनः। `प्रत्यक्षं राममातुश्च तथैवाश्रमवासिनाम्।।50। | |
श्रुत्वा रामस्तमर्थं च क्रुद्धः कालानलोपमः। धनुर्वेदेऽद्वितीयो हि दिव्यास्त्रैः समलंकृतः।।51। | |
चन्द्रबिम्बार्धसंकाशं परशुं गृह्य भार्गवः।' ततः पितृवधामर्षाद्रामः परममन्युमान्। निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्य महीं शस्त्रमगृह्णत।।52। | |
ततः स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान्। विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान्पौत्रांश्च सर्वशः।।53। | |
स हैहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान्। महीं सागरपर्यन्तां चकार रुधिरोक्षिताम्।।54। | |
स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। कृपया परयाऽऽविष्टो वनमेव जगाम ह।।55। | |
ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचित्। कोपं संप्राप्तवांस्तत्र प्रकृत्या कोपनः प्रभुः।।56। | |
विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः। परावसुर्महाराज क्षिप्त्वाऽऽह जनसंसदि।।57। | |
ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तः समागताः। प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते।।58। | |
मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि। भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।।59। | |
सा पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवी सर्वतः स्तृता। परावसोर्वचः श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।।60। | |
ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।।61। | |
स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप। गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदा।।62। | |
जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः।।63। | |
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।।64। | |
स क्षत्रियाणां शेषार्थं करेणोद्दिश्य कश्यपः। स्रुक्प्रग्रहवता राजंस्ततो वाक्यमथाब्रवीत्।।65। | |
गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने। न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हिचित्।।66। | |
"पृथिवी दक्षिणा दत्ता वाजिमेधे मम त्वया। पुनरस्याः पृथिव्या हि दत्त्वा दातुमनीश्वरः।।67। | |
ततः शूर्पाकरं देशं सागरस्तस्य निर्ममे। संत्रासाज्जामदग्न्यस्य सोऽपरान्तमहीतलम्।।68। | |
कश्यपस्तां महाराज प्रतिगृह्य वसुंधराम्। कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविष्टः सुमहद्वनम्।।69। | |
ततः शूद्राश्च वैश्याश्च यथा स्वैरप्रचारिणः।70। अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ।। | |
अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः। वध्यन्ते न हि वित्तेषु प्रभुत्वं कस्यचित्तदा।।71। | |
`ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शृद्राश्चोत्पथगामिनः। परस्परं समाश्रित्य घातयन्त्यपथस्थिताः।।72। | |
स्वधर्मं ब्राह्मणास्त्यक्त्वा पाषण्डत्वं समाश्रिताः। चौरिकानृतमायाश्च सर्वे चैव प्रकुर्वते।।73। | |
स्वधर्मस्थान्द्विजान्हत्वा तथाऽऽश्रमनिवासिनः। वैश्याः सत्पथसंस्थाश्च शूद्रा ये चैव धार्मिकाः।।74। | |
तान्सर्वान्घातयन्ति स्म दुराचाराः सुनिर्भयाः। यज्ञाध्ययनशीलांश्च आश्रमस्थांस्तपस्विनिः।।75। | |
गोबालवृद्धनारीणां नाशं कुर्वन्ति चापरे। आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता न च नीतिः प्रवर्तते।।76। | |
व्रात्यतां समनुप्राप्ता बहवो हि द्विजातयः। अधरोत्तरापचारेण म्लेच्छभूताश्च सर्वशः।।77। | |
ततः कालेन पृथिवी पीड्यमाना दुरात्मभिः। विपर्ययेण तेनाशु प्रविवेश पसातलम्। अरक्ष्यमाणा विधिवत्क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः।।78। | |
तां दृष्ट्वा द्रवतीं तत्र संत्रासात्स महामनाः। ऊरुणा धारयामास कश्यपः पृथिवीं ततः। निमज्जन्तीं ततो राजंस्तेनोर्वीति मही स्मृता।।79। | |
रक्षणार्थं समुद्दिश्य ययाचे पृथिवी तदा। प्रसाद्य कश्यपं देवी क्षत्रियान्बाहुशालिनः।।80। | |
।पृथिव्युवाच। | |
सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः। हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।।81। | |
अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो। ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।।82। | |
तथाऽनुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः।।83। | |
सर्वकर्माणि कुरुते शूद्रवत्तस्य स द्विजः। सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स मां रक्षतु पार्थिवः।।84। | |
शिबिपुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः। वने संवर्धितो गोभिः सोऽभिरक्षतु मां मुने।।85। | |
प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महाबलः। वत्सैः संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः।।86। | |
दधिवाहनपुत्रस्तु पौत्रो दिविरथस्य च। अङ्गः स गौतमेनासीद्गङ्गाकूलेऽभिरक्षितः।।87। | |
बृहद्रथो महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः। गोलाङ्गूलैर्महाभागो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः।।88। | |
मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिताः क्षत्रियात्मजाः। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः।।89। | |
एते क्षत्रियदायादास्तत्रतत्र परिश्रुताः। व्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं समाश्रिताः।।90। | |
यदि मामभिरक्षन्ति ततः स्थास्यामि निश्चला। एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः।।91। | |
मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा। तेषामपचितिश्चैव मया कार्या महामुने।।92। | |
न ह्यहं कामये नित्यमतिक्रान्तेन रक्षणम्। वर्तमानेन वर्तेयं तत्क्षिप्रं संविधीयताम्।।93। | |
।वासुदेव उवाच। | |
ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः। अभ्यषिञ्चन्महीपालान्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्।।94। | |
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः। एवमेतत्पुरावृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्डव।।95। | |
वैशंपायन उवाच | |
एवं ब्रुवंस्तं च यदुप्रवीरो_ युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्। रथेन तेनाशु ययौ यथाऽर्को विशन्प्रभाभिर्भगवांस्त्रिलोकीम्।।96। | |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि।। राजधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48।। अष्टचत्वारिंश(48) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में राजा युधिष्ठिर का प्रश्न ! वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण, राजा युधिष्ठिर, कृपाचार्य आदि सब लोग तथा शेष चारों पाण्डव ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित एवं शीघ्रगामी घोड़ों द्वारा संचालित नगराकार विशाल रथों से शीघ्रतापूर्वक कुरुक्षेत्र की ओर बढ़े। वे सब लोग केश, मज्जा और हड्डियों से भरे हुए करुक्षेत्र में उतरे, जहाँ महामनस्वी क्षत्रियवीरों ने अपने शरीर का त्याग किया था। वहाँ हाथियों और घोड़ों के शरीरों तथा हड्डियों के अनेकानेक पहाड़ों जैसे ढेर लगे हुए थे। सब ओर शंख के समान सफेद नरमुण्डों की खोपडि़याँ फैली हुई थीं। उस भूमि में सहस्रों चिताएँ जली थीं, कवच और अस्त्र-शस्त्रों से वह स्थान ढका हुआ था। देखने पर ऐसा जान पड़ता था, मानों वह काल के खान-पान की भूमि हो । और काल ने वहाँ खान-पान करके उच्छिष्ट करके छोड़ दिया हो। जहाँ झुंड-के-झुंड भूत विचर रहे थे और राक्षसगण निवास करते थे, उस कुरुक्षेत्र को देखते हुए वे सभी महारथी शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में चलते-चलते ही महाबाहु भगवान् यादवनन्दन श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को जमदग्निकुमार परशुरामजी का पराक्रम सुनाने लगे- ‘कुन्तीनन्दन ! ये जो पाँच सरोवर कुछ दूर से दिखायी देते हैं, ‘राम-ह्रद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं इन्हीं में उन्होंने क्षत्रियों के रक्त से अपने पितरों का तर्पण किया था। शक्तिशाली परशुराम इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य करके यहीं आने के पश्चात् अब उस कर्म से विरक्त हो गये हैं’। ___________________ युधिष्ठिर ने पूछा - प्रभो ! आपने यह बताया है कि पहले परशुरामजी ने इक्कीस बार यह पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी थी, इस विषय में मुझे बहुत बड़ा संदेह हो गया है। अमित पराक्रमी यदुनाथ! जब परशुरामजी ने क्षत्रियों का बीज तक दग्ध कर दिया, तब फिर क्षत्रिय जाति की उत्पति कैसे हुुुई? यदुपुगंव! परशुराम ने क्षत्रियों का संहार किस लिये किया और उसके बाद इस जाति की वृद्धि कैसे हुई ? ____________________________ वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! महारथयुद्ध के द्वारा जब करोड़ो क्षत्रिय मारे गये होंगे, उस समय उनकी लाशों से यह सारी पृथ्वी ढक गयी होगी। यदुसिंह ! भृगुवंशी महात्मा परशुराम ने पूर्वकाल में कुरुक्षेत्र में यह क्षत्रियों का संहार किस लिये किया? गरुड़ध्वज श्रीकृष्ण ! इन्द्र के छोटे भाई उपेन्द्र ! आप मेरे संदेह का निवारण कीजिये; क्योंकि कोई भी शास्त्र आपसे बढ़कर नहीं हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के इस प्रकार पूछने पर गदाग्रज भगवान् श्रीकृष्ण ने अप्रतिम तेजस्वी युधिष्ठिर से वह सारा वृत्तांत यथार्थ रूप से कह सुनाया कि किस प्रकार यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों की लाशों से ढक गयी थी। इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में परशुराम के उपाख्यान का आरम्भविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद परशुराम के उपाख्यान में क्षत्रियों के विनाश और पुनः उत्पन्न होने की कथा। भगवान श्रीकृष्ण बोले-कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियो के मुख से परशुराम के प्रभाव, पराक्रम तथा जन्म की कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये। जिस प्रकार जगदग्निन्दन परशुराम ने करोड़ों क्षत्रियों का संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशों में उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्ध में मारे गये। _________________________________________ ★-महाभारत शान्ति पर्व में। परशुराम इन्द्र के अवतार थे। प्राचीन काल में जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्र का नाम था अज। पृथ्वीनाथ ! अज से बलाकाश्व नामक पुत्र का जन्म हुआ। बलाकाश्व के कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे। वे इस भूतल पर सहस्र नेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकों का शासक होने के साथ ही किसी से पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की। उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनें में समर्थ जानकर लोकपालों के स्वामी सहस्र नेत्रों वाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए। ______________________________________ राजन् ! कुशिक का वह पुत्र गाधिनाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रभो! गाधि के एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधि ने अपनी इस कन्या का विवाह भृगुपुत्र ऋचीक के साथ कर दिया। कुरुनन्दन ! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचार से रहती थी। उसकी शुद्धता से प्रसन्न हो ऋचीक मुनि ने उसे तथा राजा गाधि को भी पुत्र होने के लिये चरू तैयार किया।भृगुवंशी ऋचीक ने उस समय अपनी पत्नी सत्यवती को बुलाकर कहा- यह चरू तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँ को खिला देना। तुम्हारी माता के जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत् के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे। वह बडे-बडे क्षत्रियों का संहार करने वाला होगा। कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरू तैयार किया है, यह तुम्हें धैर्यवान, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा। अपनी पत्नी से ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान ऋचीक मुनि तपस्या में तत्पर हो जंगल में चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नी के साथ ऋचीक के मुनि के आश्रम पर आये। राजन् ! उस समय सत्यवती वह दोनों चरू लेकर शान्तभाव से माता के पास गयी और बड़े हर्ष के साथ पति की कही हुई बात को उससे निवेदित किया। कुन्तीकुमाा र! सत्यवती की माता ने अज्ञानवश अपना चरू तो पुत्री को दे दिया और उसका चरू लेकर भोजन द्वारा अपने में स्थित कर लिया। तदनन्तर सत्यवती ने अपने तेजस्वी शरीर से एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियों का विनाश करने वाला था और देखने में बडा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवती के गर्भपात बालक को देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी उस देवरूपिणी पत्नी से कहा- भद्रे! तुम्हारी माता ने चुरू बदलकर तुम्हें ठग लिया। ______________________________________ तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करने वाला होगा। परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप् एवं तपस्या परायण होगा। तुम्हारे चरू में मैने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्म की प्रतिष्ठा की थी । और तुम्हारी माता के लिये जो चरू था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल पराक्रम का समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि। चरू के बदल देने से अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माता का पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय। ___________________ एकोनपंचाशत्तम (49) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद पति के ऐसा कहने पर महाभागा सत्यवती उनके चरणों में सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली- प्रभो! भगवन् ! आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी। ऋचीक बोले- कल्याणि! मैंने यह सकंल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरू बदल जाने के कारण तुम्हें भयंकर कर्म करने वाले पुत्र को जन्म देना पड़ रहा है। सत्यवती बोली- मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकों की नयी सृष्टि कर सकते है; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करने की तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाव वाला पुत्र ही प्रदान कीजिये। ऋचीक बोले - भद्रे! मैंने कभी हास-परिहास में भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्नि की स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरू तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्या द्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिता का समस्त कुल ब्राह्मण होगा। सत्यवती बोली - प्रभो ! आप जप करने वाले ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ है, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभाग हो जायः परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभाव का ही मिलना चाहिये। ऋचीक बोले -सुन्दरी !मेरे लिये पुत्र और पौत्र में कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। श्रीकृष्ण बोले- राजन् !तदन्तर सत्यवती ने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्रि को पुत्र के रूप् में उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधि ने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न थे और ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुए। ऋचीक ने तपस्या के भंडार जमदग्रिकी को जन्म दिया और जमदग्रि ने अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले जिस पुत्र को उत्पन्न किया, वहीं ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेद के पारंगत विद्वान प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुरामजी है। परशुरामजी ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुरामजी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये। इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवंश का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था। कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया। ______________________________________ पंचाशत्तम (50) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व) महाभारत: शान्ति पर्व: पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद - __________________________________ श्रीकृष्ण द्वारा भीष्मजी के गुण-प्रभाव का सविस्तार वर्णन वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन्! परशुराम जी का वह अलौकिक कर्म सुनकर राजा युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे भगवान श्रीकृष्ण से बोले-। ‘वृष्णिनन्दन! महात्मा परशुराम का पराक्रम तो इन्द्र के समान अत्यन्त अद्भुत है, जिन्होंने क्रोध करके यह सारी पृथ्वी क्षत्रियों से सूनी कर दी। ________________________ क्षत्रियों के कुल का भार वहन करने वाले श्रेष्ठ पुरुष परशुरामजी के भय से उद्विग्न हो छिपे हुए थे और गाय, समुंद्र, लंगूर, रीछ तथा वानरों द्वारा उनकी रक्षा हुई थी। ’अहो ! यह मनुष्यलोक धन्य है और इस भूतल के मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं, जहाँ द्विजवर परशुराम ने ऐसा धर्मसंगत कार्य किया। तात ! युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण इस प्रकार बातचीत करते हूए उस स्थान जा पहुँचे, जहाँ प्रभावशाली गंगानन्दन भीष्म बाणशय्या पर सोये हुए थे। उन्होंने देखा कि भीष्मजी शरशय्या पर सो रहे हैं और अपनी किरणों से घिरे हुए सायंकालिक सूर्य के समान प्रकाशित होते हैं। जैसे देवता इन्द्र की उपासना करते हैं, उसी प्रकार बहुत-से महर्षि ओघवती नदी के तट पर परम धर्ममय स्थान में उनके पास बैठे हुए थे। श्रीकृष्ण, धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर, अन्य चारों पांडव तथा कृपाचार्य आदि सब लोग दूर से ही उन्हें देखकर अपने-अपने रथ से उतर गये और चंचल मन को काबू में करके सम्पूर्ण इन्द्रियों को एकाग्र कर वहाँ बैठे हुए महामुनियों की सेवा में उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा अन्य राजाओं ने व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके गंगानन्दन भीष्म को मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे सभी यदुवंशी और कौरव नरश्रेष्ठ बूढे़ गंगानन्दन भीष्मजी का दर्शन करके उन्हें चारो ओर से घेरकर बैठ गये। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन कुछ दुखी हो बुझती हुई आग के समान दिखायी देने वाले गंगानन्दन भीष्म को सुनाकर इस प्रकार कहाँ-। ’वक्ताओं में श्रेष्ठ भीष्म जी! क्या आपकी सारी ज्ञानेन्द्रियाँ पहले की ही भाँति प्रसन्न हैं? आपकी बुद्धि व्याकुल तो नहीं हुई है? ’आपको बाणों की चोट सहने का जो कष्ट उठाना पड़ा है उससे आपके शरीर में विशेष पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्योंकि मानसिक दुःख से शारीरिक दुःख अधिक प्रबल होता है-उसे सहना कठिन हो जाता है। ’प्रभो! आपने निरन्तर धर्म में तत्पर रहने वाले पिता शान्तनु के वरदान से मृत्यु को अपने अधीन कर लिया है। जब आपकी इच्छा हो तभी मृत्यु हो सकती है अन्यथा नहीं। यह आपके पिता के वरदान का ही प्रभाव हैं, मेरा नहीं। ’राजन्! यदि शरीर मे कोई महीन-से-महीन भी काँटा गड़ जाये तो वह भारी वेदना पैदा करता हैं। फिर जो बाणों के समूह से चुन दिया गया है, उस आपके शरीर की पीड़ा के विषय में तो कहना ही क्या हैं। ’भरतनन्दन ! अवश्य ही आपके सामने यह कहना उचित न होगा कि’सभी प्राणियों के जन्म और मरण प्रारब्ध के अनुसार नियत हैं। अतः आपको दैव का विधान समझकर अपने मन में कोई दुःख नहीं मानना चाहिये। ’ आपको कोई क्या उपदेश देगा? आप तो देवताओं को भी उपदेश देने में समर्थ हैं। ’पुरुषप्रवर भीष्म! आप ज्ञान में सबसे बढ़े-चढ़े हैं। आपकी बुद्धि में भूत, भविष्य और वर्तमान् सब कुछ प्रतिष्ठित है। ’महामते! प्राणियों का संहार कब होता है? धर्म का क्या फल हैं? और उसका उदय कब होता है? ये सारी बातें आपको ज्ञात है; क्योंकि आप धर्म के प्रचुर भण्डार हैं। |
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति परशुरामचरितकथनम्।। 1।।
।वासुदेव उवाच। | |
शृणु कौन्तेय रामस्य प्रभावो यो मया श्रुतः। महर्षीणां कथयतां कारणं तस्य जन्म च।।१२-४८-१। | |
यथा च जामदग्न्येन कोटिशः क्षत्रिया हताः। उद्भूता राजवंशेषु ये भूयो भारते हताः।।२। | |
जह्नोरजस्तु तनयो बलाकाश्चस्तु तत्सुतः। कुशिको नाम धर्मज्ञस्तस्य पुत्रो महीपते।।३। | |
अग्र्यं तपः समातिष्ठत्सहस्राक्षसमो भुवि। पुत्रं लभेयमजितं त्रिलोकेश्वरमित्युत।।४। | |
तमुग्रतपसं दृष्ट्वा सहस्राक्षः पुरंदरः। समर्थं पुत्रजनने स्वयमेवैत्य भारत।।५। | |
पुत्रत्वमगमद्राजंस्तस्य लोकेश्वरेश्वरः। गाधिर्नामाभवत्पुत्रः कौशिकः पाकशासनः।।६। | |
तस्य कन्याऽभवद्राजन्नाम्ना सत्यवती प्रभो। तां गाधिर्भृगुपुत्राय ऋचीकाय ददौ प्रभुः।।७। | |
ततस्तया हि कौन्तेय भार्गवः कुरुनदनः। पुत्रार्थं श्रपयामास चरुं गाधेस्तथैव च।।८। | |
आहूय चाह तां भार्यामृचीको भार्गवस्तदा। उपयोज्यश्चरुरयं त्वया मात्राऽप्ययं तव।।९। | |
तस्या जनिष्यते पुत्रो दीप्तिमान्क्षत्रियर्षभः। अजय्यः क्षत्रियैर्लोके क्षत्रियर्षभसूदनः।।१०। | |
तवापि पुत्रं कल्याणि धृतिमन्तं शमात्मकम्। तपोन्वितं द्विजश्रेष्ठं चरुरेष विधास्यति।।११। | |
इत्येवमुक्त्वा तां भार्यां सर्चीको भृगुनन्दनः। तपस्यभिरतः श्रीमाञ्जगामारण्यमेव हि।।१२। | |
एतस्मिन्नेव काले तु तीर्थयात्रापरो नृपः। गाधिः सदारः संप्राप्त ऋचीकस्याश्रमं प्रति।।१३। | |
चरुद्वयं गृहीत्वा तु राजन्सत्यवती तदा। भर्त्रा दत्तं प्रसन्नेन मात्रे हृष्टा न्यवेदयत्।।१४। | |
माता तु तस्याः कौन्तेय दुहित्रे स्वं चरुं ददौ। तस्याश्ररुमथाज्ञातमात्मसंस्थं चकार ह।।१५। | |
अथ सत्यवती गर्भं क्षत्रियान्तकरं तदा। धारयामास दीप्तेन वपुषा घोरदर्शनम्।।१६। | |
तामृचीकस्तदा दृष्ट्वा ध्यानयोगेन भारत। अब्रवीद्भृगुशार्दूलः स्वां भार्यां देवरूपिणीम्।१७। | |
मात्राऽसि व्यंसिता भद्रे चरुव्यत्यासहेतुना। तस्माज्जनिष्यते पुत्रः क्रूरकर्माऽत्यमर्षणः। `जनयिष्यति माता ते ब्रह्मभूतं तपोधनम्।।१८। | |
विश्वं हि ब्रह्म सुमहच्चरौ तव समाहितम्। क्षत्रवीर्यं च सकलं तव मात्रे समर्पितम्।।१९। | |
विपर्ययेण ते भद्रे नैतदेवं भविष्यति। मातुस्ते ब्राह्मणो भूयात्तव च क्षत्रियः सुतः।।२०। | |
सैवमुक्ता महाभागा भर्त्रा सत्यवती तदा। पपात शिरसा तस्मै वेपन्ती चाब्रवीदिदम्।।२१। | |
नार्होऽसि भगवन्नद्य वक्तुमेवंविधं वचः। ब्राह्मणापशदं पुत्रं प्राप्स्यसीति हि मां प्रभो।।२२। | |
।ऋचीक उवाच। | |
नैष संकल्पितः कामो मया भद्रे तथा त्वयि। उग्रकर्मा भवेत्पुत्रश्चरुव्यत्यासहेतुना।।२३। | |
।सत्यवत्युवाच। | |
इच्छँल्लोकानपि मुने सृजेथाः किं पुनः सुतम्। शमात्मकमृजुं पुत्रं दातुमर्हसि मे प्रभो।।२४। | |
।ऋचीक उवाच। | |
नोक्तपूर्वं मया भद्रे स्वैरेष्वप्यनृतं वचः। किमुताग्निं समाधाय मन्त्रवच्चरुसाधने।।२५। | |
दृष्टमेतत्पुरा भद्रे ज्ञातं च तपसा मया। ब्रह्मभूतं हि सकलं पितुस्तव कुलं भवेत्।।२६। | |
।सत्यवत्युवाच। | |
काममेवं भवेत्पौत्रो मामैवं तनयः प्रभो। शमात्मकमृजुं पुत्रं लभेयं जपतां वर।।२७। | |
।ऋचीक उवाच। | |
पुत्रे नास्ति विशेषो मे पौत्रे च वरवर्णिनि। यथा त्वयोक्तं वचनं तथा भद्रे भविष्यति।।२८। | |
।वासुदेव उवाच। | |
ततः सत्यवती पुत्रं जनयामास भार्गवम्। तपस्यभिरतं शान्तं जमदग्निं यतव्रतम्।।२९। | |
विश्वामित्रं च दायादं गाधिः कुशिकनन्दनः। प्राप ब्रह्मर्षिसमितं विश्वेन ब्रह्मणा युतम्।।३०। | |
ऋचीको जनयामास जमदग्निं तपोनिधिम्। सोऽपि पुत्रं ह्यजनयज्जमदग्निः सुदारुणम्।।३१। | |
सर्वविद्यान्तगं श्रेष्ठं धनुर्वेदस्य पारगम्। रामं क्षत्रियहन्तारं प्रदीप्तमिव पावकम्।।३२। | |
तेषयित्वा महादेवं पर्वते गन्धमादने। अस्त्राणि वरयामास परशुं चातितेजसम्।।३३। | |
स तेनाकुण्ठधारेण ज्वलितानलवर्चसा। कुठारेणाप्रमेयेण लोकेष्वप्रतिमोऽभवत्।।३४। | |
एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली। अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैहयाधिपः।।३५। | |
दत्तात्रेयप्रसादेन राजा बाहुसहस्रवान्। चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्वमेधिके।।३६। | |
ददौ स पृथिवीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्। सबाह्वस्त्रबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्।।३७। | |
तृषितेन च कौन्तेय भिक्षितश्चित्रभानुना। सहस्त्रबाहुर्विक्रान्तः प्रादाद्भिक्षामथाग्नये।।३८। | |
ग्रामान्पुराणि राष्ट्राणि घोषांश्चैव तु वीर्यवान्। जज्वाल तस्य वाणेद्धचित्रभानुर्दिधक्षया।।३९। | |
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महौजसः। ददाह कार्तवीर्यस्य शैलानपि धरामपि।।४०। | |
स शून्यमाश्रमारण्यमापवस्य महात्मनः। ददाह पवनेनेद्धश्चित्रभानुः सहैहयः।।४१। | |
आपवस्तं ततो रोषाच्छशापार्जुनमच्युत। दग्धे श्रमे महाबाहो कार्तवीर्येण वीर्यवान्।।४२। | |
त्वया न वर्जितं यस्मान्ममेदं हि महद्वनम्। दग्धं तस्माद्रणे रामो बाहूंस्ते च्छेत्स्यतेऽर्जुन।।४३। | |
अर्जुनस्तु महातेजा बली नित्यं शमात्मकः। ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च दाता शूरश्च भारत। नाचिन्तयत्तदा शापं तेन दत्तं महात्मना।।४४। | |
तस्य पुत्राः सुबलिनः शापेनासन्पितुर्वधे। निमित्तमवलिप्ता वै नृशंसाश्चैव नित्यदा।।४५। | |
जमदग्नेस्तु धेन्वास्ते वत्समानिन्युरच्युत। अज्ञातं कार्तवीर्यस्य हैहयेन्द्रस्य धीमतः।।४६। | |
तन्निमित्तमभूद्युद्धं जामदग्नेर्महात्मनः। ततोऽर्जुनस्य बाहून्स चिच्छेद रुषितोऽनघ।।४७। | |
तं भ्रमन्तं ततो वत्सं जामदग्न्यः स्वमाश्रमम्। प्रत्यानयत राजेन्द्र तेषामन्तः पुरात्प्रभुः।।४८। | |
अर्जुनस्य सुतास्ते तु संभूयाबुद्धयस्तदा। गत्वाऽऽश्रममसंबुद्धा जमदग्नेर्महात्मनः। अपातयन्त भल्लाग्रैः शिरः कायान्नराधिप।।४९। | |
समित्कुशार्थं रामस्य निर्यातस्य यशस्विनः। `प्रत्यक्षं राममातुश्च तथैवाश्रमवासिनाम्।।५०। | |
श्रुत्वा रामस्तमर्थं च क्रुद्धः कालानलोपमः। धनुर्वेदेऽद्वितीयो हि दिव्यास्त्रैः समलंकृतः।।५१। | |
चन्द्रबिम्बार्धसंकाशं परशुं गृह्य भार्गवः।' ततः पितृवधामर्षाद्रामः परममन्युमान्। निःक्षत्रियां प्रतिश्रुत्य महीं शस्त्रमगृह्णत।।५२। | |
ततः स भृगुशार्दूलः कार्तवीर्यस्य वीर्यवान्। विक्रम्य निजघानाशु पुत्रान्पौत्रांश्च सर्वशः।।५३। | |
स हैहयसहस्राणि हत्वा परममन्युमान्। महीं सागरपर्यन्तां चकार रुधिरोक्षिताम्।।५४। | |
स तथा सुमहातेजाः कृत्वा निःक्षत्रियां महीम्। कृपया परयाऽऽविष्टो वनमेव जगाम ह।।५५। | |
ततो वर्षसहस्रेषु समतीतेषु केषुचित्। कोपं संप्राप्तवांस्तत्र प्रकृत्या कोपनः प्रभुः।५६। | |
विश्वामित्रस्य पौत्रस्तु रैभ्यपुत्रो महातपाः। परावसुर्महाराज क्षिप्त्वाऽऽह जनसंसदि।।५७। | |
ये ते ययातिपतने यज्ञे सन्तः समागताः। प्रतर्दनप्रभृतयो राम किं क्षत्रिया न ते।।५८। | |
मिथ्याप्रतिज्ञो राम त्वं कत्थसे जनसंसदि। भयात्क्षत्रियवीराणां पर्वतं समुपाश्रितः।।५९। | |
सा पुनः क्षत्रियशतैः पृथिवी सर्वतः स्तृता। परावसोर्वचः श्रुत्वा शस्त्रं जग्राह भार्गवः।।६०। | |
ततो ये क्षत्रिया राजञ्शतशस्तेन वर्जिताः। ते विवृद्धा महावीर्याः पृथिवीपतयोऽभवन्।। | |
स पुनस्ताञ्जघानाशु बालानपि नराधिप। गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ता पुनरेवाभवत्तदााा।।६२। | |
जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कांश्चित्तदा क्षत्रिययोषितः।।६३। | |
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।।६४। | |
स क्षत्रियाणां शेषार्थं करेणोद्दिश्य कश्यपः। स्रुक्प्रग्रहवता राजंस्ततो वाक्यमथाब्रवीत्।।६५। | |
गच्छ पारं समुद्रस्य दक्षिणस्य महामुने। न ते मद्विषये राम वस्तव्यमिह कर्हिचित्।।६६। | |
`पृथिवी दक्षिणा दत्ता वाजिमेधे मम त्वया। पुनरस्याः पृथिव्या हि दत्त्वा दातुमनीश्वरः।।'६७। | |
ततः शूर्पाकरं देशं सागरस्तस्य निर्ममे। संत्रासाज्जामदग्न्यस्य सोऽपरान्तमहीतलम्।।६८। | |
कश्यपस्तां महाराज प्रतिगृह्य वसुंधराम्। कृत्वा ब्राह्मणसंस्थां वै प्रविष्टः सुमहद्वनम्।।६९। | |
ततः शूद्राश्च वैश्याश्च यथा स्वैरप्रचारिणः। अवर्तन्त द्विजाग्र्याणां दारेषु भरतर्षभ।।७०। | |
अराजके जीवलोके दुर्बला बलवत्तरैः। वध्यन्ते न हि वित्तेषु प्रभुत्वं कस्यचित्तदा।।७१। | |
`ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शृद्राश्चोत्पथगामिनः। परस्परं समाश्रित्य घातयन्त्यपथस्थिता।।७२। | |
स्वधर्मं ब्राह्मणास्त्यक्त्वा पाषण्डत्वं समाश्रिताः। चौरिकानृतमायाश्च सर्वे चैव प्रकुर्वते।।७३। | |
स्वधर्मस्थान्द्विजान्हत्वा तथाऽऽश्रमनिवासिनः। वैश्याः सत्पथसंस्थाश्च शूद्रा ये चैव धार्मिकाः।।७४। | |
तान्सर्वान्घातयन्ति स्म दुराचाराः सुनिर्भयाः। यज्ञाध्ययनशीलांश्च आश्रमस्थांस्तपस्विनिः।।७५। | |
गोबालवृद्धनारीणां नाशं कुर्वन्ति चापरे। आन्वीक्षकी त्रयी वार्ता न च नीतिः प्रवर्तते।।७६। | |
व्रात्यतां समनुप्राप्ता बहवो हि द्विजातयः। अधरोत्तरापचारेण म्लेच्छभूताश्च सर्वशः।।७७। | |
ततः कालेन पृथिवी पीड्यमाना दुरात्मभिः। विपर्ययेण तेनाशु प्रविवेश पसातलम्। अरक्ष्यमाणा विधिवत्क्षत्रियैर्धर्मरक्षिभिः।।७८। | |
तां दृष्ट्वा द्रवतीं तत्र संत्रासात्स महामनाः। ऊरुणा धारयामास कश्यपः पृथिवीं ततः। निमज्जन्तीं ततो राजंस्तेनोर्वीति मही स्मृता।७९। | |
रक्षणार्थं समुद्दिश्य ययाचे पृथिवी तदा। प्रसाद्य कश्यपं देवी क्षत्रियान्बाहुशालिनः।।८०। | |
।पृथिव्युवाच। | |
सन्ति ब्रह्मन्मया गुप्ताः स्त्रीषु क्षत्रियपुङ्गवाः। हैहयानां कुले जातास्ते संरक्षन्तु मां मुने।।८१। | |
अस्ति पौरवदायादो विदूरथसुतः प्रभो। ऋक्षैः संवर्धितो विप्र ऋक्षवत्यथ पर्वते।।८२। | |
तथाऽनुकम्पमानेन यज्वनाथामितौजसा। पराशरेण दायादः सौदासस्याभिरक्षितः।।८३। | |
सर्वकर्माणि कुरुते शूद्रवत्तस्य स द्विजः। सर्वकर्मेत्यभिख्यातः स मां रक्षतु पार्थिवः।।८४। | |
शिबिपुत्रो महातेजा गोपतिर्नाम नामतः। वने संवर्धितो गोभिः सोऽभिरक्षतु मां मुने।।८५। | |
प्रतर्दनस्य पुत्रस्तु वत्सो नाम महाबलः। वत्सैः संवर्धितो गोष्ठे स मां रक्षतु पार्थिवः।।८६। | |
दधिवाहनपुत्रस्तु पौत्रो दिविरथस्य च। अङ्गः स गौतमेनासीद्गङ्गाकूलेऽभिरक्षितः।।८७। | |
बृहद्रथो महातेजा भूरिभूतिपरिष्कृतः। गोलाङ्गूलैर्महाभागो गृध्रकूटेऽभिरक्षितः।।८८। | |
मरुत्तस्यान्ववाये च रक्षिताः क्षत्रियात्मजाः। मरुत्पतिसमा वीर्ये समुद्रेणाभिरक्षिताः।।८९। | |
एते क्षत्रियदायादास्तत्रतत्र परिश्रुताः। व्योकारहेमकारादिजातिं नित्यं समाश्रिताः।।९०। | |
यदि मामभिरक्षन्ति ततःस्थास्यामि निश्चला। एतेषां पितरश्चैव तथैव च पितामहाः।।९१। | |
मदर्थं निहता युद्धे रामेणाक्लिष्टकर्मणा। तेषामपचितिश्चैव मया कार्या महामुने।।९२। | |
न ह्यहं कामये नित्यमतिक्रान्तेन रक्षणम्। वर्तमानेन वर्तेयं तत्क्षिप्रं संविधीयताम्।।९३। | |
।वासुदेव उवाच। | |
ततः पृथिव्या निर्दिष्टांस्तान्समानीय कश्यपः | |
तेषां पुत्राश्च पौत्राश्च येषां वंशाः प्रतिष्ठिताः। एवमेतत्पुरावृत्तं यन्मां पृच्छसि पाण्डव।।९५। | |
।वैशंपायन उवाच। | |
एवं ब्रुवंस्तं च यदुप्रवीरो युधिष्ठिरं धर्मभृतां वरिष्ठम्। रथेन तेनाशु ययौ यथाऽर्को विशन्प्रभाभिर्भगवांस्त्रिलोकीम्।।९६। | |
।।इतिश्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि।। राजधर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48।। कालिकापुराणम्/अध्यायः (८३) ।। त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।।
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