मनुस्मृति यदि मनु की रचना है तो इसमें सात्त्वतों और उन्ही की शाखा आभीर को वर्णसंकर और शूद्र धर्मी क्यों लिखा है ? क्रोष्टा वंश की वृष्णि कुल के ये आभीर गोप यादव आदि विशेषणों से अभिहित हैं ।
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अर्थ- वैश्य वर्ण की स्त्री के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
वैश्य वर्ण की एक ही जाति की स्त्री से उत्पन्न व्रात्य पुत्र को सुधन्वाचार्य, करुषी, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहा जाता है।
परन्तु मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक प्रक्षिप्त तथा नकली है ।
क्योंकि सात्वत जाति प्राचीन काल में शूरसेन (आधुनिक ब्रज प्रदेश) में बसने वाली यादव जाति थी ।
सात्वत लोग, जो मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर भी चले गये थे।
वेदोत्तर ग्रन्थ 'ऐतरेय ब्राह्मण' में दक्षिण के सात्वतों द्वारा इन्द्र के अभिषेक का उल्लेख मिलता है परन्तु यह भ्रान्ति ही है ये नवीन भक्ति मूलक भागवत धर्म के प्रवर्तक थे। यह मालूम होता है कि सात्वतों का दक्षिणगमन उससे पहले हो चुका था।
वे अपने साथ अपनी धार्मिक परम्पराएँ भी अवश्य लेते गये होंगे।
- जैसा कि प्रारम्भ में 'भागवत' उपासना-मार्ग शूरसेन में बसने वाली सात्वत जाति में सीमित था, परन्तु इसका प्रचार कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के फलस्वरूप ई.पू. दूसरी-तीसरी शताब्दियों में ही पश्चिम की ओर भी हो गया था तथा कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे। यह आभीरों का धर्मसूत्र था । इनके साथ हूण ,यवन, किरात, और खस आदि भी थे ।
- दक्षिण के प्राचीन तमिल साहित्य में 'वासुदेव', 'संकर्षण' तथा 'कृष्ण' के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं।
- वहाँ कृष्ण को आय्यर जाति के वसुदेव की सन्तान कहा है ।
- इन सन्दर्भों के आधार पर अनुमान किया गया है कि सात्वत लोग, एक जाति विशेष के थे, मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर और ।दक्षिण को भी गये।
- मार्ग में सात्वतों में से कुछ लोग पालव ( पाल) और उसके दक्षिण की ओर बस गये और वहीं से दक्षिण देश के सम्पूर्ण उत्तरी क्षेत्र तथा कोंकण में फैल गये। इन्हीं में से कुछ और दक्षिण की ओर चले गये।
- दक्षिण के 'अद्विया', 'अण्डार' और 'इडैयर' जातियों के लोग पशुपालक 'अहीर' या 'आभीरों'की ही सजाति थे ।
- सात्वत जाति भी पशुपालक आभीर यादव क्षत्रियों की जाति थी।
- प्रारम्भ में 'भागवत' उपासना-मार्ग शूरसेन में बसने वाली सात्वत जाति में ही सीमित था, परन्तु इसका प्रचार कदाचित सात्वतों के स्थानान्तरण के फलस्वरूप ई.पू. दूसरी-तीसरी शताब्दियों में ही पश्चिम और दक्षिणी भारत भी हुआ तथा कुछ विदेशी (यूनानी) लोग भी इसे मानने लगे थे।
- दक्षिण के प्राचीन तमिल साहित्य में 'वासुदेव', 'संकर्षण' तथा 'कृष्ण' के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इन सन्दर्भों के आधार पर अनुमान किया गया है कि सात्वत लोग, जो वैदिक यदुवंश की एक जाति विशेष के थे, मगध के राजा जरासंध द्वारा आक्रान्ता होने के कारण कुरुपांचाल के शूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर चले गये।
- परन्तु रूढ़िवादी पुरोहित वर्ग को इन अहीरों के धर्म विधायक सिद्धान्त मान्य नहीं हुए इसी लिए परवर्ती मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में आभीर और सात्त्वतों को वर्णसंकर बना कर शूद्र धर्मी घोषित करने का भी दुष्प्रयास किया गया ।
- परन्तु पुराणों आभीर और सात्त्वत धर्म विधायक थे । गायत्री आभीर कन्या जिसे गोप और यादव कन्या के रूप में भी यामल ग्रन्थों में वर्णन किया गया है। सबसे पहले हम सात्त्वतों के पौराणिक वर्णन को प्रस्तुत करते हैं । जिसमें उन्हें यादव वंश की शाखा और पाञ्चरात्र तथा भागवत धर्म का प्रवर्तक बताया है ।
- ब्राह्मणों ने सात्त्वतों को वर्णसंकर और शूद्र धर्मी इसलिए घोषित किया क्योंकि इन्होंने ने स्त्री और शूद्र समझे जाने वाली जातियों को भागवत धर्म की दीक्षा देकर उनके लिए ईश्वर भक्ति के द्वार खोल दिये ।
- रूढ़िवादी पुरोहित वर्ग को यह सहन नहीं हुआ।
- भागवत पुराण में सात्त्वतों का वर्णन-
कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्ह सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥
शूरो मातामहः कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः॥२६ ॥
सप्त स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥२७॥
कच्चित् राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः
हृदीकः ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥२८॥
आसते कुशलं कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः॥२९॥
प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥
सुषेणश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥
तथैवानुचराः शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥
सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है। सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है। सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है। अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है।
- सातत्व का शाब्दिक अर्थ-
- संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (५) यदुवंशी । यादव (५)
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- मनुसंहिता के लेखक ने भागवत धर्म के प्रवर्तक आभीर यादव सात्वतों को चालाकी से वर्ण-व्यवस्था न मानने के कारण तथा महिलाओं और शूद्रों को ईश्वर उपासना के द्वार खोलने के कारण ही कही आभीर तो कहीं सात्वत के रूप में शूद्र तथा वर्ण संकर जाति वर्णन किया है।
- जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान (६) सात्वत के अनुयायी । वैष्णव (को०) (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है ।
या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का उपदेश नहीं ।
परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव -संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे ।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇
इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है ।
श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं कि कृष्ण की
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं ।
श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।
यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है ।
अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं
मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।
मनुःस्मृति में वर्णन है कि 👇
" सामवेद: स्मृत: पित्र्यस्तस्मात्तस्याशुचिर्ध्वनि:
( मनुःस्मृति चतुर्थ अध्याय 4/124 वाँ श्लोक )
अर्थात् सामवेद का अधिष्ठात्री पितर देवता है ।
इस कारण इस साम वेद की ध्वनि
अपवित्र व अश्रव्य है ।
मनुःस्मृति में सामवेद को हेय
और ऋग्वेद को उपादेय माना ।
वस्तुत अब यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भगवद् गीता और वेद या मनुःस्मृति एक ही ईश्वर की वाणी नहीं हैं ।
अथवा इनका प्रतिपाद्य विषय एक नहीं ।
क्यों कि श्रीमद्भगवद् गीता के दशवें अध्याय के बाइसवें श्लोक (10/22) में कृष्ण के मुखार-बिन्दु से नि:सृत वाणी है।👇
"वेदानां सामवेदोऽस्मि = वेदों में सामवेद मैं हूँ" और इसके विरुद्ध मनुःस्मृति में तो यहाँं तक वर्णन है कि "👇
सामध्वनावृग्ययजुषी नाधीयीत कदाचन" मनुःस्मृति(4/123)
सामवेद की ध्वनि सुनायी पड़ने पर ऋग्वेद और यजुर्वेद का अध्ययन कभी न करें !
अब तात्पर्य यह कि यहाँं अन्य तीनों वेदों को हेय और केवल सामवेद को उपादेय माना।
वैसे भी सामवेद संगीत का आदि रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित साँग (Song) शब्द भी साम शब्द से व्युपन्न है ।
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शब्द कल्पद्रुम संस्कृत कोष सात्त्वत के रूप में भागवत धर्म के प्रवर्तक कृष्ण बलदेव आदि यादवों को सन्दर्भित करता है । ये यदुवंश के वैष्णव भक्त रजा सात्यवत की सन्तान थे ।
(सात्त्वतस्यापत्यं पुमानिति । सात्त्वत + अञ् । ) बलदेवः । इति हेमचन्द्रः ॥
(कृष्णः । यथा
महाभारते गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण ।१।२१७। १२। “
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ततस्तत्र महाबाहुः शयानः शयने शुभे। तीर्थानां पल्वलानां च पर्वतानां च दर्शनम्। आपगानां वनानां च कथयामास सात्वते ।१२। |
अर्थ- वहाँ सुन्दर शय्या पर सोये हुएमहाबाहू अर्जुन ने सात्त्वत भगवान् श्रीकृष्ण से अनेक तीर्थों कुण्डों,पर्वतों, नदियों तथा वनों के दर्शन सम्बन्धी अनुुुभभ की विचित्र बातें कहीं ।।१२।
महाभारत आदिपर्व का हरणाहरण नामक उपपर्व १ । २२०। ३। (गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण) अर्जुन भी सात्त्वतों की सात्विक प्रवृत्तियों को जानता था।
“अर्थलुब्धान् न वः पार्थो मन्यते सात्त्वतान् सदा । स्वयंवरमनाधृष्यं मन्यते चापि पाण्डवः ॥ ३ ॥
अर्थ- पाण्डुपुत्र अर्जुन यह जानते हैं कि सात्त्वतवंश के लोग सदा से ही धन के लोभी नहीं हैं। अत: धन देकर कन्या नहीं ली जा सकती । साथ ही पाण्डुपुत्र अर्जुन को यह भी मालुम है कि स्वयंवर में कन्या के मिल जने का पूर्ण निश्चय नहीं रहता अत: वह भी अग्राह्या ही है ।३।
"गोलोकधामाधिपते रमापते
गोविंद दामोदर दीनवत्सल ॥
राधापते माधव सात्वतां पते
सिंहासनेऽस्मिन्मम संमुखो भव ॥२॥
गर्ग संहिता विज्ञान खण्ड अध्याय (९)
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सत्त्वमेव सात्त्वं तत् तनोतीति । तन + डः ) विष्णुः । इति त्रिकाण्डशेषः ॥
(सच्छब्देन सत्त्वमूर्त्तिर्भगवान् । स उपास्यतया विद्यते ऽस्येति । मतुप् । ततः स्वार्थे अण् । ) विष्णु- भक्तविशेषः । यथा
“सत्त्वं सत्त्वाश्रयं सत्त्वगुणं सेवेत केशवम् । योऽनन्यत्वेन मनसा सात्त्वतः समुदाहृतः ॥
विहाय काम्यकर्म्मादीन् भजेदेकाकिनं हरिम् ।
सत्यं सत्त्वगुणोपेतो भक्त्या तं सात्त्वतं विदुः ॥ मुकुन्दपादसेवायां तन्नामश्रवणेऽपि च ।
कीर्त्तने च रतो भक्तो नाम्नः स्यात् स्मरणे हरेः ॥ वन्दनार्च्चनयोर्भक्तिरनिशं दास्यसख्ययोः ।
रतिरात्मार्पणे यस्य दृढानन्तस्य सात्त्वतः ॥
“ इति पाद्मोत्तरखण्डे ९९ अध्यायः ॥ * ॥ यदुवंशीयसत्त्वतराजपुत्त्रः ।
देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नंदनः
मधुर्नाममहातेजा मधोः कुरुवशः स्मृतः।२७।
आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।
वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।
सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्या सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
भजमानस्य सृंजय्यां भाजनामा सुतोभवत्
सृंजयस्य सुतायां तु भाजकास्तु ततोभवन्।३२।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय (१३)
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यथा “अनोस्तु पुरुकुत्सोऽभूदंशुस्तस्य तु रिक्थभाक् । अथांशोः सत्त्वतो नाम विष्णुभक्तः प्रतापवान् ॥
महात्मा दाननिरतो धनुर्व्वेदविदां वरः । स नारदस्य वचनाद्वासुदेवार्च्चनान्वितः ॥
शास्त्रं प्रवर्त्तयामास कुण्डगोलादिभिः श्रुतम् । तस्य नाम्ना तु विख्यातं सात्त्वतं नाम शोभनम् ॥
प्रवर्त्तते महाशास्त्रं कुण्डादीनां हितावहम् । सात्त्वतस्तस्य पुत्त्रोऽभूत् सर्व्वशास्त्रविशारदः ॥
पुण्यश्लोको महाराजस्तेन चैतत् प्रकीर्त्तितम् । सात्त्वतः सत्त्वसम्पन्नः कौशल्यान् सुषुवे सुतात् ॥
अन्धकं वैमहं भोजं विष्णुं देवावृधं नृपम् ॥
“ इति कौर्म्मे पूर्व्वभागे यदुवंशानुकीर्त्तने । २४ । ३१ -- ३६ ॥
(सङ्करजातिविशेषः । यथा मनुस्मृति । १० । २३ । “ वैश्यात्तु जायते व्रात्यात् सुधन्वाचार्य्य एवच । कारूषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्त्वत एवच ॥ “ )
(कूर्मपुराण में सात्त्वत वर्णन)
अथांशोःरन्धको नाम विष्णुभक्तः प्रतापवान् ।महात्मा दाननिरतो धनुर्वेदविदां वरः ।। २४.३०
स नारदस्य वचनाद् वासुदेवार्चने रतः । शास्त्रं प्रवर्तयामास कुण्डगोलादिभिः श्रुतम् ।। २४.३१
तस्य नाम्ना तु विख्यातं सात्त्वतं नाम शोभनम् ।प्रवर्तते महाशास्त्रं कुण्डादीनां हितावहम् ।। २४.३२
सात्त्वतस्तस्य पुत्रोऽभूत् सर्वशास्त्रविशारदः ।पुण्यश्लोको महाराजस्तेन वै तत्प्रवर्तितम् ।। २४.३३
सात्त्वतः सत्त्वसंपन्नः कौशल्यां सुषुवे सुतान् ।अन्धकं वै महाभोजं वृष्णिं देवावृधं नृपम् ।२४.३४
ज्येष्ठं च भजमानाख्यं धनुर्वेदविदां वरम् ।तेषां देवावृधो राजा चचार परमं तपः ।२४.३५
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तम॥ ५६.३५॥
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः॥ ५६.३६॥
पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की एक और वानिगी निम्न श्लोक में प्रतिबिंबित है । राम सीता जैसे प्रागैतिहासिक पात्रों के ऊपर पुष्यमित्र सुँग कालीन पुरोहितों ने राम और सीता को काम शास्त्रीय पद्धति में निरूपित किया है राम जब अशोक वन में प्रवेश करते तब वहाँ का विलास नयी वातावरण और आवास देखकर राम तो सीता के साथ काम क्रीड़ा करते हुए वर्णन किया जाता है। वह भी राम के द्वारा स्वयं मैरेयक नामक सुरा का पान करते हुए और सीता को अपने हाथ से पान कराते हुए वह भी शचि और इन्द्र के समान ।
देखें वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड से निम्न श्लोक
यदि आप रामायण को वाल्मीकि की रचना मानते हो और वाल्मीकि रामायण की प्रत्येक बात सत्य मानते हो तो नीचे राम और सीता के विषय में वर्णित तथ्य को क्या मानोगे सभ्य भाषा में प्रमाण संगत प्रतिक्रिया अवश्य दें
उत्तर काण्ड का बयालीसवां सर्ग में राम और सीता के विलासिता का दृश्य देखा जा सकता है।
वहाँ राम स्वयं सीता को मैरेयक नामक मदिरा पिला रहे हैं ताकि सैक्स की उत्तेजना में वृद्धि हो सके जैसे यह दृश्य उसी प्रकार है जैसे शची को इन्द्र अपने हाथ से सुरा पिलाया करते हैं- सैक्स करने से पूर्व
जब अशोक वन में राम और सीता जी का विहार और गर्भिणी सीता का तपोवन देखने की इच्छा करना होता है तब राम उन्हें स्वीकृति देते हैं।
वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड के इस श्लोक में यही वर्णित है ।
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सीतामादाय हस्तेन मधु मैरेयकं शुचि।। पाययामास ककुस्त्थ: शचीमिव पुरंदर:।।१८।।
सीताम्=सीता को । आदाय= लाकर ।हस्तेन=हाथ के द्वारा। मधु= मदिरा । मैरेयक= कामोत्पादक। शुचि= शृङ्गाररस अमरःकोश। पाययामास= पिलाई। ककुस्त्थ:=राम । शचीम् इव पुरन्दर= शचि को जैसे इन्द्र पिलाता है ।
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अर्थ:- जैसे पुरन्दर इन्द्र अपनी पत्नी शचि को मैरेयक नामक मधु (सुरा ) का पान कराते हैं उसी प्रकार ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अपने हाथ से लाकर काम अथवा श्रृँगाररस उत्पन्न करने हेतु सीता को मैरेयक नामक मधु (सुरा) का पान कराया।१८।
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विशेष:-
मैरेयकं-(मारं कामं जनयतीति इति मैरेयकं (मार +ढक् ) निपातनात् साधुः ) सेक्स उत्पन्न करने वाली मद्यविशेषः ही मैरेयक है । देखें अमरःकोश । २। १० । ४२ ॥
मैरेयक की परिभाषा संस्कृत के प्राचीन कोश ग्रन्थों में जैसे अमर कोश शब्द कल्प द्रुम वाचस्पत्यम् आदि में काम -उत्पन्न करने वाली मदिरा ही है।
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मैरेयम्, नपुंसकलिंग (मारं कामं जनयतीति । मार + ढक् । निपातनात् साधुः ।)
मद्यविशेषः । इत्यमरः कोश। २ । १० । ४२ ॥
“यद्यपि । ‘सीधुरिक्षुरसैः पक्वैरपक्वैरासवो भवेत् । मैरेयं धातकीपुष्पगुडधानाम्लसंहितम् ॥’ इति माधवेन भेदः कृतः ।
तथापि सूक्ष्ममनादृत्येदमुक्तम् । मारं कामं जनयति मैरेयं ष्णेयः । निपातनादात् ऐत्वम् ।”
इति भरतः ॥ (यथा, “मद्यन्तु सीधुर्मैरयमिरा च मदिरा सुरा । कादम्बरी वारुणी च हालापि बलवल्लभा ॥” इति भावप्रकाशस्य पूर्वखण्डे द्वितीये भागे ॥
अर्थ की खींचतान करना और शास्त्रों की प्रक्षिप्त व असंगत बात को भी सही सिद्ध करना अन्ध भक्ति का ही मौलिक गुण है । जो हमारी निर्णय शक्ति को कुण्ठित और प्रकाश हीन करती है। यदि तुम बादाम और दूध को ही मैरेयक मानती हो तो मांस का भक्षण भी आगामी श्लोक में राम और सीता को करते हुए वर्णित किया गया है इसपर क्या तर्क है आपका ?
समय ते अन्तराल में धर्म मैं अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं जब धर्म केवल पुरोहित या किसी विशेष वर्ग के स्वार्थ पूर्ण मान्यताओं का पोषक बन जाता है । अपनी अनुचित बात के समर्थन के लिए पुराने आदर्श पात्रों के चरित्र को भी गलत तरीके से जब पुरोहित वर्ग चित्रित करता है अथावा उनको उस रूप में आरोपित करता है । जनसाधारण जनता पुरोहित वर्ग के इन षड्यंत्र मूलक कारनामों को अन्धभक्ति में रहने कारण कभी नहीं जान पाता उसे पात्र और कुपात्र का भी वो ही हो पाता
यही कारण था कि यज्ञ में पशुबलि मानव बलि और पितरों के श्राद्ध के नाम पर मांस मदिरा भक्षण और मन्दिर में देवदासीयों से रति अनुदान धर्म के अंग बन जाते हैं ।
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सीतामादायं हस्तेन मधुमैरेयकं शुचि ।
पाययामास काकुत्स्थः शचीमिव पुरन्दरः।७.४२.१८ ।
वहाँ राम स्वयं सीता को नशीला मदिरा पिला रहे हैं जैसे शची को इंद्र पिलाया करते हैं-
मांसानि च समृष्टानि फलानि विविधानि च ।
रामस्याभ्यवहारार्थं किङ्करास्तूर्णमाहरन् ।७.४२.१९।।
और फिर उनके खाने के लिए सेवक अच्छी तरह पकाए गए मांस और भांति भांति के फल शीघ्र ले आते हैं-
उपानृत्यंश्च राजानं नृत्यगीतविशारदाः ।
बालाश्च रूपवत्यश्च स्त्रियः पानवशानुगाः ।। ७.४२.२० ।।
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