सोमवार, 25 जनवरी 2021

एकैव वंश जाते: तिस्रविशेषणा: वृत्ते: प्रवृत्तेश्च वंशानाम् प्रकारा: सन्ति !


                       

गोपाभीर यादवा: एकैव वंश जाते: तिस्रविशेषणा:  वृत्ते: प्रवृत्तेश्च वंशानाम् प्रकारा: सन्ति !


                       -(प्रस्तावना )-

अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत जब ग़ुम थी ।उजाले  इल्म के भी होंगे ! हमारे विरोधियों को न ये मालुम थी ।।

धड़कने थम जाने पर श्वाँसें कब चलती हैं ?–बहारे गुजर जाती  जहाँ 'रोहि' खामोशियाँ मचलती हैं ! 

-संवाद शैली से तेरी भावनाऐं प्रतिबिम्बित हो गयी हैं शब्दों से न हमको भरमा तेरी वारगाह से अब मेरी ,वफाऐं निलम्बित हो गयी हैं !  वाकई जो लोग अपने फरेव और ऐब छुपा कर  ऐसे  छल करतेहैं  ! 

वे कभी हमारे निष्कर्षों पर  पहुँचना ही नहीं चाहते हैं ।  

प्रचीन ऋषियों के ग्रन्थों में पूर्व काल में  जो सत्य प्रतिष्ठित था ;  जिससे समाज चारित्रिक रूप से सकारात्मक था ;  क्योंकि लोग आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत और संयमी प्रवृत्तियों से समन्वित थे ;

जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात् करना ही परम ध्येय था ।    

          

                            (प्रथम चरण)

परन्तु काल के प्रवाह में आध्यात्मिक गंगाजल की  स्वच्छ धाराओं के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड जनित गन्दगी भी आयी वही गन्दिगी मिलाबट के जोड़ तोड़ के रूप में तब्दील होकर  ;  मिथको की मिथ्या बन गये जो शास्त्रों में विरोधाभास और कल्पनाओं का आभास कराने लगी।

 ऐसा इसलिये भी हुआ क्यों कि संयम और आध्यात्मिक भावों के लोप होने से पुरोहितों में भौतिकता पूर्ण भोग -लिप्सा स्वार्थ, झूँठी शान -शौकत और समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की मंशा लम्बे समय तक बन गयी

जिसकी आपूर्ति के लिए आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों भेंट देती गयी !! और पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा ।



  

                       (द्वितीय चरण)

यह वह दौर था जब धर्म के नाम पर देश में  जुल्म घनघोर था गिरने वाले उठ रहे थे; और उठने वाले गिर रहे थे । ऊँच नीच और मानवीय भेद भाव अपनी पराकाष्ठा पर थे ।

और जो कालान्तरण में धर्मशास्त्रों स्मृति आदि ग्रन्थों में इतिहास की गाथाओं थीं ; कल्पनाओं की परतें उनपर  निरन्तर चढ़ती गयी और सत्य परतों कि सघनता में विलुप्त ही हो गया। 

बुद्ध भारतीय इतिहास के एक नि:सात बिन्दु के रूप में 

प्रतिष्ठित हुए ।

शतधन्वन का पुत्र बृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक था। उसका शासन १८७ ईसापूर्व से १८० ईसापूर्व तक था। वह भी बौद्ध धर्म का अनुयायी था। पुष्य मित्र द्वारा वृहद्रथ की मौत के बाद !पुन: पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में बौद्धों, जैनों और अन्य भागवत आदि धर्मों के विरोध स्वरूप ब्राह्मणीय वर्चस्व के पुनरोत्थान के लिए पतंजलि आदि पुरोहितों के साथ वैदिक कर्म काण्डों की प्रतिष्ठा हुई ; 


                       (तृतीय चरण )

👇महात्मा बुद्ध शाक्यमुनि के नाम से प्रसिद्ध थे ;वे 563 ईसा पूर्व से 483 ईसा पूर्व तक रहे !

सभी पुराणों महाभारत और वाल्मीकि रामायण मैं भी तथागत बुद्ध का वर्णन विष्णु अवतारों के रूप में ही हुआ है । परन्तु वाल्मीकि रामायण और भविष्य पुराण में बुद्ध कि निन्दा की गयी है ।

यद्यपि ब्राह्मणों का एक धड़ा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का स्थापन अपने तप और साधना की परिणति के रूप में कर रहा था ; 

वे उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय सत्ताओं का सैद्धांतिक विवेचन कर रहे थे ।

उन्हें वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण वाद या 'कर्म'काण्ड मूलक  याज्ञिक - विधियों से कोई मतलब नहीं था ! 

 इनके लिए सदाचरण और तप मन की शुद्धता के प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित है ।


                         ( चतुर्थ चरण )

;'परन्तु कुछ  पुरोहित ऐसे भी थे जिन्होंने बौौद्ध , जैैै नन और भागवत आदि धर्म के अनुयायीयों से अपने अपने स्तर से मुकाबला करने के  लिए प्रयासरत थे अनेेक  ग्रन्थों का लेखन  पूूूूर्व्व   दुुराग्रह से युुुक्त  होकर भी हुआ,मिलाबट हुई और अलंकारों की सजाबटेें भी काव्यों की शैली में पुराण लिखे गये ।

 क्योंकि जो तथ्य पूर्व कल में सत्य थे उनमें पूर्वाग्रह एक निष्कर्ष के तौर पर समाविष्ट हुए ,वे यथावत ही नहीं बने रहे उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई और कितनी आलंकारिता ये वक्त के खण्डरों में दफन है ।


                         (पञ्चम चरण)

जैसा कोई नवीन वस्त्र अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं की अवस्थाओं में नवीन और अन्तिम क्रिया- अवस्था में जीर्ण और शीर्ण हो जाता है । इसी प्रकार भारतीय पुराण ग्रन्थों में हुआ 'परन्तु मिलाबट के बावजूद  भी बहुत सी बाते सत्य ही बनी रहीं । जो आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रतिष्ठित थीं ।

 क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी कुत्सित  निशानियाँ तो छोड़ती ही है । जैसे फूलों से रस को मधुमक्खीयाँ सहजता से निकालती हैं और मोम( 🐧 )अलग छोड़ देती हैं । उसी प्रकार  हमने भी इन पुराण ग्रन्थों से कुछ तथ्य निकाले हैं । 

 जैसे  किसी वस्तु की अच्छाइयों और बुराईयों को प्रस्तुत करना समीक्षात्मक शैली है । और हमने भी यही अपनायी हमने कभी कोई भी निर्णय या निष्कर्ष स्थापित नहीं किया क्योंकि निर्णय की मौलिकताओं मेंं 

पूर्वाग्रह का समायोजन होता है । अधिकतर हमारे लेख इसी प्रकार   विना-पूर्वाग्रह  के होते हैं । कारण यह है कि हम निर्णय पाठकों से आमन्त्रित करते हैं ।

 इसी लिए कुछ पाठक- वृन्द प्राय: हमसे शिकायत करते हैं कि वे हमारी पोष्ट पढ़कर कन्फ्यूज होते हैं और कोई कोई तो बैचारा फ्यूज हो जाता है ।वास्तव में हमारी पोष्ट सब के लिए नहीं जिसका जैसा बौद्धिक स्तर है वह वहीं तक वह उसको ग्राह्य है और वह वहीं तक पहँच भी पाता है।

                        (षष्ठ चरण)

जिसने बड़े सिद्दत से जज्वातों को संजोया है ।जो रातों में भी जागा है;ना कभी गफलत में सोया है और केवल अपने गम से नहीं बल्कि दु:खियों के ग़म से रोया है । 

इस ऐतिहासिक विवेचनात्मक प्रस्तुति करण के शुभ अवसर  पर यादवों के इतिहास के प्राचीन गूढ़ तथ्यों का अनावरण करने में हमारे सम्बल और भविष्य का उज्ज्वल कल अर्थात्" हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण में सम्बल और यादवों के स्वाभिमान का कल  उन महान शख्शियत  श्रृद्धेय परम आदरणीय  गुरु जी सुमन्त कुमार यादव 'जौरा' के श्री चरणों में नमन करते हुए ;   आज हम पुन: यादव इतिहास के बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही क्रियान्वयन कर रहे हैं ;  

हमारी इस प्रारम्भिक श्रृंखला में तीन युगों  के दीर्घ काय यादव वंश के प्राचीनत्तम इतिहास को अथवा कहें तीन हजार वर्षों के अतीत वृत्त को यदि लगभग दो  घण्टे में  प्रदर्शित करने का एक उद्यम ही है ; परन्तु हमारा यह प्रयास जिज्ञासुओं के समक्ष भले ही गागर में सागर भरने के समान न हो "


                       (सप्तम् चरण)    

 परन्तु हम फिर भी  मान सकते हैं कि यह यादवों के इतिहास की प्राचीन शास्त्रीय विवेचनाओं का सूत्रात्मक शैली में सम्पूर्ण सार गर्भित तथ्यों का   प्रथम प्रस्तुति करण है ।

यादव इतिहास  के पृष्ठ जो वर्तमान इतिहास कारों से छूट गये हैं । उन्हीं बिखरे हुए पृष्ठों को  पुन :संकलित कर प्रस्तुत करने का  उपक्रम है । और फिर  आप किसी सागर को लोटे में तो भर नहीं सकते हो ?

 मैं यादव योगेश कुमार रोहि " अपनी इन भावनाओं से समन्वित होकर  और  यादव स्वाभिमान से प्रेरित होकर जीने की दवा - जज्वा लेकर इस पथ पर  निरन्तर अग्रसर हूँ ।

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 क्योंकि महान होने वाले ही सभी ख़य्याम नहीं होते ।उनकी महानता के भी 'रोहि' कोई  इनाम नहीं होते ।

फर्क नहीं पढ़ता उनकी शख्सियत में कुछ भी ,ग़मों में सम्हल जाते हैं वो;  जो कभी नाकाम नहीं होते।।

बड़ी सिद्दत से संजोया है ठोकरों के अनुभवों को ,अनुभवों से प्रमाणित ज्ञान के कभी कोई दाम नहीं होते ।।

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                      ( अष्टम चरण ) 

 आने वाली अगली पीढी़याँ उन्हें ज़ेहन में संजोती हैं याद करती हैं उन्हें मुशीबतों में और तब उनके के लिए रोती हैं।।

जो समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए कुछ खा़स और नया उपक्रम करते हैं । 

सारी दुनियाँ सब सोती हैं ; परन्तु वे रात तक श्रम करते हैं । 

उनको मैं नमन करता हूँ !"यदु वंश के बिखरे हुए अंश" नामक  शीर्षक से हम  आज इस अभियान का आगाज कर रहे हैं ।इस अभियान को हमने  लगभग सौ (१००) चरणों में पूर्ण किया है । 

जो एक अपवाद ही है क्योंकि सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।

नियमों में भी अक्सर  'रोहि' अपवाद होते हैं ।।

कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे।नियम भी सिद्धान्तों का तभी, जाके अनुवाद होते हैं ।

 महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में । चमत्कारी तो लोग  प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।।


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                               -१-

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

भारतीय समाज की यह सदीयों पुरानी विडम्बना ही रही कि धर्म के कुछ तथा कथित ठेकेदार , कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों ने धर्म के नाम भारतीय समाज पर कुछ प्रवञ्चनाऐं आरोपित कीं ...

जिसका दुष्परिणाम विभाजित मानवता परस्पर विरोधी संस्कृतियों और मानवीय द्वेषों के रूप में हुई 

यदुवंश के इतिहास के सन्दर्भ में हम इन्हीं तथ्यों का व्याख्यान कर रहे हैं ।

प्राचीन काल में  विश्व सभ्यताओं में राजतन्त्र की लोक-परम्परा के अनुसार  किसी राजा का बड़ा पुत्र ही उसके राज्य अथवा रियासत की-विरासत का वैध उत्तराधिकारी होता था ।

परन्तु ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को इस विरासत का उत्तराधिकारी न बनाकर इस परम्परा को खण्डित किया कारण ! 

 शुक्राचार्य के शाप से ययाति पर युवा अवस्था में आयी हुई वृद्धावस्था के निवारण के लिए जब ययाति ने यदु से उसका  यौवन माँगा तो ; 


                           (२)

यदु ने पिता ययाति का यह प्रस्ताव पापपूर्ण और अनैतिक मानकर  अस्वीकार कर दिया।

 क्योंकि यदु का का मानना था , कि मेरे द्वारा प्रदत्त यौवन से पिता जी आप मेरी माताओं से ही साहचर्य-सम्बन्ध स्थापित करोगे तो यह मेरे यौवन या कारण स्वरूप पाप ही है ;अत: मैं स्वयं यह पाप-कृत्य नहीं कर सकता ;

 परन्तु ययाति को  वासनाओं के आवेग में पुत्र का यह प्रस्ताव रास नहीं आया;

 क्वं तत्किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति॥2-2(अभिज्ञान शाकुन्तलम्)

अर्थात् कामी स्वय को ही दृष्टि गत करता है अथवा कामी स्व केन्द्रित ही होता है ।



                            -(३)-


              ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

इसी कारण कुपित होकर ययाति ने यदु को राजपद के उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया था । अर्थात् ययाति अपने जिस जिस पुत्र पर यौवन न देने के कारण क्रुद्ध हुए उसी उसी पुत्र के ये विरुद्ध भी हुए । 

परन्तु शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (छोटे ) पुत्र पुरु  द्वारा ययाति को यौवन देने के कारण उसे ही राज पद का अधिकारी घोषित कर दिया ।

परन्तु पद्म पुराण में संख्या क्रम और नाम में भेद है 

पदम पुराण नें वर्णन है कि अस्सी हजार वर्षो तक ययाति ने शासन किया और उनके चार पुत्र थे ।

जिनमें ज्येष्ठ पुत्र तुरूरु: और पुरु: उससे छोटा  और कुरु:

तीसरे क्रम का और चतुर्थ क्रम में यदु कि वर्णन है 

नीचे श्लोक संख्या ११-१२-१३पर देखें 👇

श्रीपद्मपुराणे भूमिखंडे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थमाहात्म्ये चतुःषष्टितमोऽध्यायः( ६४) में निम्न वर्णन है ।

ययातिं सत्यसंपन्नं धर्मवीर्यं महामतिम्
एंद्रं पदं गतो राजा तस्य पुत्रः पदे स्वके ।७।


ययातिः सत्यसंपन्नः प्रजा धर्मेण पालयेत्
स्वयमेव प्रपश्येत्स प्रजाकर्माणि तान्यपि ।८।


याजयामास धर्मज्ञः श्रुत्वा धर्ममनुत्तमम्
यज्ञतीर्थादिकं सर्वं दानपुण्यं चकार सः ।९।


राज्यं चकार मेधावी सत्यधर्मेण वै तदा
यावदशीतिसहस्राणि वर्षाणां नृपनंदनः ।१०।


तावत्कालं गतं तस्य ययातेस्तु महात्मनः
तस्य पुत्राश्च चत्वारस्तद्वीर्यबलविक्रमाः ।११।


तेषां नामानि वक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसः
तस्यासीज्ज्येष्ठपुत्रस्तु रुरुर्नाम महाबलः ।१२।


पुरुर्नाम द्वितीयोऽभूत्कुरुश्चान्यस्तृतीयकः
यदुर्नाम स धर्मात्मा चतुर्थो नृपतेः सुतः ।१३


एवं चत्वारः पुत्राश्च ययातेस्तु महात्मनः
तेजसा पौरुषेणापि पितृतुल्यपराक्रमाः ।१४।


एवं राज्यं कृतं तेन धर्मेणापि ययातिना
तस्य कीर्तिर्यशो भावस्त्रैलोक्ये प्रचुरोभवत् ।१५।

परन्तु महाभारत भागवत पुराण और और देवी भागवत पुराण आदि में यदु ही ज्येष्ठ पुत्र है।

पद्म पुराण के उपरोक्त श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं ।

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(विष्णु पुराण चतुर्थांश अध्याय दश)


पूरोः सकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम् ।
राज्येऽभिषिच्य पूरुञ्च प्रययौ तपसे वनम् ।। ४-१०-१६ ।।

दिशि दक्षिणपूर्व्वंस्यां तुर्व्वसुं प्रत्यथादिशत् ।
प्रतीच्याञ्च तथा द्रु ह्यु दक्षिणापथतो यदुम् ।। ४-१०-१७ ।।

उदीच्याञ्च तथैवानुं कृत्वा मणडलिनो नृपान् ।
सर्व्वपृथ्वीपतिं पूरु सोऽभिषिच्य वनं ययौ ।। ४-१०-१८ ।।

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ययातिर्दिशि पूर्व्वस्यां यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत्।
मध्ये पुरुं च राजानमभ्यषिञ्चत् स नाहुषः॥ १२.१९ ॥

दिशि दक्षिणपूर्व्वस्यां तुर्व्वसुं मतिमान्नृपः।
तैरियं पृथिवी सर्व्वा सप्तद्वीपा सपत्तना॥ १२.२० ॥

यथाप्रदेशमद्यापि धर्म्मेण प्रतिपाल्यते।
प्रजास्तेषां पुरस्तात्तु वक्ष्यामि मुनिसत्तमाः॥ १२.२१ ॥

धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च पञ्चभिः पुरुषर्षभैः।
जरावानभवद्राजा भारमावेश्य बन्धुषु॥ १२.२२ ॥

विक्षिप्तशस्त्रः पृथिवीं चचार पृथिवीपतिः।
प्रीतिमानभवद्राजा ययातिरपराजितः॥ १२.२३ ॥

एवं विभज्य पृथिवीं ययातिर्यदुमब्रवीत्।
जरां मे प्रतिगृह्णीष्व पुत्र कृत्यान्तरेण वै॥ १२.२४ ॥

तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम।
जरां त्वयि समाधाय तं यदुः प्रत्युवाच ह॥ १२.२५ ॥

यदुरुवाच
अनिर्दिष्टा मया भिक्षा ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुता।
अनपाकृत्य तां ग्रहीष्यमि ते जराम्॥ १२.२६ ॥

जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः।
तस्माज्जरां न ते राजन् ग्रहीतुमहमुत्सहे॥ १२.२७ ॥

सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप।
प्रतिग्रहीतुं धर्म्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै॥ १२.२८ ॥

स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्॥ १२.२९ ॥

ययातिरुवाच
क आश्रमस्तवान्योऽस्ति को वा धर्म्मो विधीयत्।
मामनादृत्य दुर्व्बुद्धे यदहं तव देशिकः॥ १२.३० ॥

एवमुक्त्वा यदुं विप्राः शशापैनं स मन्युमान।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति न संशयः॥ १२.३१ ॥

द्रुहयुं च तुर्व्वसुं चैवाप्यनुं च द्विजसत्तमाः।
एवमेवाब्रवीद्राजा प्रत्याख्यातश्च तैरपि॥ १२.३२ ॥

शशेप तानतिक्रुद्धो ययातिरपराजितः।
यथावत् कथितं सर्व्वं मयास्य द्विजसत्तममाः॥ १२.३३ ॥

एवं शप्त्वा सुतान् सर्व्वाश्चतुरः पुरुपुर्व्वजान्।
तदेव वचनं राजा पुरुमप्याह भो द्विजाः॥ १२.३४ ॥

तरुणास्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम्।
जरां त्वयि समाधाय त्वं पुरो यदि मन्यसे॥ १२.३५ ॥

स जरां प्रतिजग्राह पितुः पुरुः प्रतापवान्।
ययातिरपि रूपेम पुरोः पर्य्यचरन् महीम्॥ १२.३६ ॥

स मार्गमाणः कामानामन्तं नृपतिसत्तमः॥
विश्वाच्या सहितो रेमे वने चैत्ररथे प्रभुः॥ १२.३७ ॥

यदा स तृप्तः कामेषु भोगेषु च नराधिपः।
तदा पुरोः सकाशाद्वै स्वां जरां प्रत्यपद्यत॥ १२.३८ ॥

यत्र गाथा मुनिश्रेष्ठा गीताः किल ययातिना।
याभिः प्रत्याहरेत्कामान् सर्वशोऽङ्गानि कूर्म्मवत्॥ १२.३९ ॥

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥ १२.४० ॥

यत्पुथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पश्वः स्त्रियः।
नालमेकस्य तत्सर्वमिति कृत्वा न मुह्यति॥ १२.४१ ॥

यदा भावं न कुरुते सर्व्वभूतेषु पापकम्।
कर्म्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ १२.४२ ॥

यदा तेभ्यो न बिभेति यदा चास्मान्न बिब्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ १२.४३ ॥

या दुस्त्यजा दुर्म्मतिभिर्या न जीर्य्यति जीर्य्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ १२.४४ ॥

जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः केशा दन्ता जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः।
धनाशा जीविताशा चजीर्य्यतोऽपि न जीर्य्यति॥ १२.४५ ॥

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्माक्षयसुखस्यैते नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥ १२.४६ ॥

एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद्वनम्।
कालेन महता नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥ १२.४७ ॥

भृगुतुङ्गे गतिं प्राप तपसोऽन्ते महायशाः।
अनश्नन् देहमुत्सृज्य सदारः स्वर्गमाप्तवान्॥ १२.४८ ॥

तस्य वंशे मुनिश्रेष्ठाः पञ्च राजर्षिसत्तमाः।
यैर्व्याप्ता पृतिवी सर्व्वा सूर्य्यस्येव गभस्तिभिः॥ १२.४९ ॥

यदोस्तु वंशं वक्ष्यामि श्रुणुध्वं राजसत्कृतम्।
यत्र नारायणो जज्ञे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः॥ १२.५० ॥

सुस्तः प्रजावानायुष्मान् कीर्त्तिमांश्च भवेन्नरः।
ययातिचरितं नित्यमिदं श्रुण्वन् द्विजोत्तमाः॥ १२.५१ ॥

इति श्रीब्राह्मे महापुराणे सोमवंशे ययातिचरितनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२ ॥


ययातिर्दिशि पूर्व्वस्यां यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत्।
मध्ये पुरुं च राजानमभ्यषिञ्चत् स नाहुषः॥ १२.१९ ॥

दिशि दक्षिणपूर्व्वस्यां तुर्व्वसुं मतिमान्नृपः।
तैरियं पृथिवी सर्व्वा सप्तद्वीपा सपत्तना॥ १२.२० ॥

यथाप्रदेशमद्यापि धर्म्मेण प्रतिपाल्यते।
प्रजास्तेषां पुरस्तात्तु वक्ष्यामि मुनिसत्तमाः॥ १२.२१ ॥

धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च पञ्चभिः पुरुषर्षभैः।
जरावानभवद्राजा भारमावेश्य बन्धुषु॥ १२.२२ ॥

विक्षिप्तशस्त्रः पृथिवीं चचार पृथिवीपतिः।
प्रीतिमानभवद्राजा ययातिरपराजितः॥ १२.२३ ॥

एवं विभज्य पृथिवीं ययातिर्यदुमब्रवीत्।
जरां मे प्रतिगृह्णीष्व पुत्र कृत्यान्तरेण वै॥ १२.२४ ॥

तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम।
जरां त्वयि समाधाय तं यदुः प्रत्युवाच ह॥ १२.२५ ॥

यदुरुवाच
अनिर्दिष्टा मया भिक्षा ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुता।
अनपाकृत्य तां ग्रहीष्यमि ते जराम्॥ १२.२६ ॥

जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः।
तस्माज्जरां न ते राजन् ग्रहीतुमहमुत्सहे॥ १२.२७ ॥

सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप।
प्रतिग्रहीतुं धर्म्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै॥ १२.२८ ॥

स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्॥ १२.२९ ॥

ययातिरुवाच
क आश्रमस्तवान्योऽस्ति को वा धर्म्मो विधीयत्।
मामनादृत्य दुर्व्बुद्धे यदहं तव देशिकः॥ १२.३० ॥

एवमुक्त्वा यदुं विप्राः शशापैनं स मन्युमान।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति न संशयः॥ १२.३१ ॥

द्रुहयुं च तुर्व्वसुं चैवाप्यनुं च द्विजसत्तमाः।
एवमेवाब्रवीद्राजा प्रत्याख्यातश्च तैरपि॥ १२.३२ ॥

शशेप तानतिक्रुद्धो ययातिरपराजितः।
यथावत् कथितं सर्व्वं मयास्य द्विजसत्तममाः॥ १२.३३ ॥

एवं शप्त्वा सुतान् सर्व्वाश्चतुरः पुरुपुर्व्वजान्।
तदेव वचनं राजा पुरुमप्याह भो द्विजाः॥ १२.३४ ॥

तरुणास्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम्।
जरां त्वयि समाधाय त्वं पुरो यदि मन्यसे॥ १२.३५ ॥

स जरां प्रतिजग्राह पितुः पुरुः प्रतापवान्।
ययातिरपि रूपेम पुरोः पर्य्यचरन् महीम्॥ १२.३६ ॥

स मार्गमाणः कामानामन्तं नृपतिसत्तमः॥
विश्वाच्या सहितो रेमे वने चैत्ररथे प्रभुः॥ १२.३७ ॥

यदा स तृप्तः कामेषु भोगेषु च नराधिपः।
तदा पुरोः सकाशाद्वै स्वां जरां प्रत्यपद्यत॥ १२.३८ ॥

यत्र गाथा मुनिश्रेष्ठा गीताः किल ययातिना।
याभिः प्रत्याहरेत्कामान् सर्वशोऽङ्गानि कूर्म्मवत्॥ १२.३९ ॥

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥ १२.४० ॥

यत्पुथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पश्वः स्त्रियः।
नालमेकस्य तत्सर्वमिति कृत्वा न मुह्यति॥ १२.४१ ॥

यदा भावं न कुरुते सर्व्वभूतेषु पापकम्।
कर्म्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ १२.४२ ॥

यदा तेभ्यो न बिभेति यदा चास्मान्न बिब्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ १२.४३ ॥

या दुस्त्यजा दुर्म्मतिभिर्या न जीर्य्यति जीर्य्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ १२.४४ ॥

जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः केशा दन्ता जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः।
धनाशा जीविताशा चजीर्य्यतोऽपि न जीर्य्यति॥ १२.४५ ॥

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्माक्षयसुखस्यैते नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥ १२.४६ ॥

एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद्वनम्।
कालेन महता नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥ १२.४७ ॥

भृगुतुङ्गे गतिं प्राप तपसोऽन्ते महायशाः।
अनश्नन् देहमुत्सृज्य सदारः स्वर्गमाप्तवान्॥ १२.४८ ॥

तस्य वंशे मुनिश्रेष्ठाः पञ्च राजर्षिसत्तमाः।
यैर्व्याप्ता पृतिवी सर्व्वा सूर्य्यस्येव गभस्तिभिः॥ १२.४९ ॥

यदोस्तु वंशं वक्ष्यामि श्रुणुध्वं राजसत्कृतम्।
यत्र नारायणो जज्ञे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः॥ १२.५० ॥

सुस्तः प्रजावानायुष्मान् कीर्त्तिमांश्च भवेन्नरः।
ययातिचरितं नित्यमिदं श्रुण्वन् द्विजोत्तमाः॥ १२.५१ ॥

इति श्रीब्राह्मे महापुराणे सोमवंशे ययातिचरितनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२ ॥

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प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥

सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्य दायादास्त्रयः परमधार्म्मिकाः॥ १३.१५४ ॥

हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५ ॥

धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥ १३.१५७ ॥

दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥ १३.१५८ ॥

कुतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः॥ १३.१५९ ॥

योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा॥ १३.१६० ॥

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्॥ १३.१६१ ॥

तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥ १३.१६२ ॥

अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्॥ १३.१६३ ॥

संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥ १३.१६४ ॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥ १३.१६५ ॥

तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥ १३.१६६ ॥


                              -४-

                (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

यद्यपि तत्कालीन कुछ ऋषियों ने ययाति की इस सनातन लोक परम्परा से विस्थापित राजतन्त्र -व्यवस्था का विरोध भी किया । 

परन्तु ययाति क्रोधवश अपनी बात पर अडिग रहे ययाति के द्वारा यदु और तुरवसु के साथ इस प्रकार का व्यवहार करने के कारणों का पुराणों में यह प्रसंग है ________________________________________

 महाभारत के (आदिपर्व) के अन्तर्गत (सम्भवपर्व) के (82) बयासीवें अध्याय में भी यह आख्यान है ।

 👇और मत्स्य पुराण में भी 

ययाति प्रकरण से सम्बंधित ये निम्न  श्लोक दोनों ग्रन्थों में समान हैं।

महाभारत के अनुसार  👇वैशंपायन उवाच।

जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि।

पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।।१/७८/१।

_____________________________________

और मत्स्य पुराण में तैतीसवें अध्याय में प्रथम श्लोक  👇शौनक उवाच।

जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि।पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।। ३३/१ ।।

और बुढ़ापा पाकर ययाति अपने नगर को पहुँचकरअपने बड़े पुत्र यदु से यह वचन बोले ।।                  

                            -४-

         ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

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परन्तु यदु ने राजा के प्रस्ताव को अनुचित मानकर  अस्वीकार कर दिया

हरिवंश पुराण में भी यह वर्णन इस प्रकार से है !

स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित:उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।

•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।

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                            -५-

            -(यदु वंश के बिखरे हुए अंश)-

क आश्रय: तव अन्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते ।

माम् अनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।28।

•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। 

मैं तो तेरा  (देशिक)गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।

किंतु महाराज ययाति ने भी परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को राजा न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।

और अन्त नें ज्येष्ठ पुत्र यदु को दक्षिण दिशा में जाकर रहने और  राज्य हीन होने का ययाति द्वारा शाप दे दिया गया जैसा कि आगामी श्लोक वर्णन करता है।

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दशम  स्कन्ध  के पैंतालीसवें अध्याय में एक स्थान पर भागवत पुराणकार ने ययाति के यदु को दिए गये शाप का वर्णन तो किया परन्तु भागवतपुराणकार की बातों का समन्वयपरक प्रस्तुतिकरण संगत नहीं हैं । क्यों कि यदुवंशी उग्रसेन भी थे और कृष्ण भी परन्तु कृष्ण यदुवंशी होने से राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं । परन्तु उग्रसेन क्यों बैठते हैं जैसा कि भागवत के इन श्लोकों में दर्शाया है। देखिए निम्न श्लोकों को 

                              -६-

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)       "एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३। 
(श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय)

अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।

और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !

"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।

अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह शाप उनपर क्यों लागू नहीं हुआ?

गर्ग संहिता विश्वजित ् खण्ड अध्याय षष्ठम् 

में वर्णन है ।

उग्रसेनो यादवेन्द्रो राजराजेश्वरो महान् ॥

जंबूद्वीपनृपाञ्जित्वा राजसूयं करिष्यति ॥४॥

 फिर तो यह तथ्य असंगत ही है ;कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।

यद्यपि कालान्तरण में ग्रन्थों के प्रकाशन काल में अनेक मिलाबटों के रूप में जोड़ तोड़ हो जाने पर अनेक प्रक्षेप व विरोधाभासी श्लोक देखने को मिलते हैं ।जैसे भागवत पुराण में देखें ये कुछ विरोधाभास श्लोक 👇

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रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८

    (भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)
भगवन् आपने बताया कि बलराम  रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ?  दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ।।८।।

तब द्वित्तीय अध्याय  के श्लोक संख्या (८) में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6।

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।

रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले ।।अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8।
अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सबकुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं। तब उन्होंने अपना योगमाया को आदेश दिया।6। 

 कि  देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ  वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है । वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं ।उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।

 इस समय मेरा अंश जिसे शेष कहते हैं  देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8।

 कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ  देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से पुत्री बन कर जन्म लेना ।9।

अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं 👇
गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहुः: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।
अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच जाने के कारण से (संकर्षणात्)  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।

चलो ये संकर्षण की व्युत्पत्ति तो कुछ सही है ।

जैसा कि  धातु पाठ क्षीरतरंगिणी आदि में कृष् धातु का अर्थ है खुरचना तथा हल-चलाना (कृष्- विलेखने हलोत्किरणम् कर्षति इति कृष्ण संकर्षण वा )

 परन्तु अब भागवत पुराण के  दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में ही गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization)  दूूूसरी प्रकार से करते हैं ।

जो व्याकरण सम्मत नहीं है । 👇


अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति  ! बलाधिक्याद् बलं विदु:
(यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत)।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा ।  यह अपने सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा  ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा । इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होोगा। यहाँ तक तो  रौहिणेय ,  और   राम  और बल शब्दों की व्युत्पत्ति सही हैं 

परन्तु संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति- ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है । ---जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇


संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराण कार ने कहा कि  इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि 
" यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा  इसी लिए इसका नाम संकर्षण भी होगा 👈👅

यहाँ संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण सम्मत नहीं है ।

हरिवंश  पद्म आदि पुराणों में वसुदेव को गोपों  घर में जन्म लेना वर्णन किया है परन्तु भागवत पुराण के प्रकाशन काल में द्वेष वश कुछ पुरोहितों ने यादवों और गोपों को अलग दिखाने के लिए इन प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना की इसका प्रमाण दशम स्कन्ध के आठवें अध्याय का उपरोक्त बारहवाँ श्लोक है ।

राजपूत समाज के लोग इन्हीं प्रक्षिप्त श्लोकों से भ्रान्त होकर  दोनो या अहीरों को यादवों अलग करने की कोशिश करते हैं ।

भागवतपुराण में  इसी  प्रकार एक स्थान पर पूर्व में ही (पहले ही ) गोविन्द शब्द का प्रयोग है । दशम् स्कन्ध अध्याय( 6 )  के श्लोक 25 में   👇
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव 25। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की , परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार (मान) की रक्षा करे । खेलते समय गोविन्द रक्षा करे  !लेटते समय माधव रक्षा करे !

अब प्रश्न यह भी उठता है कि 
कृष्ण को इन्द्र ने गोविन्द नाम  का प्रथम  सम्बोधन किस  प्रकार  इन्द्र ने  दिया ?

जबकि ऋग्वेद में भी गोविन्द शब्द आया है ।

क्योंकि   दशम् स्कन्ध के अध्याय 28 में  वर्णन है कि 👇
शुकोवाच-  
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि: पयसा८८त्मन:।
जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।
इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:।
अभ्यषिञ्चित दाशार्हं  गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।23।
अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर  कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ  यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको( गोविन्द )नाम प्रदान किया !

भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22
दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।

और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।

भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक हैं 
जैसे- 👇
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् ( पाठान्तरण-भयार्दितान्)।
यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।।15।
सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान् ।
न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।।16
अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे उन यदुवंशी वृष्णि वंशी अन्धक वंशी मधुवंशी दाशार्हं वंशी और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़  ढूँढ़  कर बुलाया !अब यहाँ  भी विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वृष्णिि, अन्धक ,मधु, दाशार्हं ,और कुकुर वंशी यादव नहीं थे !👅

______________________________________

 अधिक तर  परवर्ती पुराणों में कृष्ण को द्वेष वश ही मर्यादा विध्वंसक के रूप में वर्णित किया है ।

एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराण कार ने वर्णित किया है कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति ---जो केकय देश में ब्याही थी  की पुत्री भद्रा थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही कृष्ण के साथ भद्रा का विवाह कर दिया।
श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि:।।56।

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भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के 31वें अध्याय के 24 वें श्लोक में वर्णन है कि 
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आये। वहाँसबको बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की वीर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है

                             -७-        

            ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि" ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।  तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैंहरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।

भागवत पुराण के प्रक्षेपों की कोई सीमा नहीं है 

भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें हैं ।
देखें--- 
षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में  कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । 
जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में 
____________________________________________ 👇
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।


अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७।

परन्तु भागवत पुराण में  अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय भी बताया गया है ।
______________________

" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत ।
नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९।।


वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।

अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,
तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।

हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पहले हम इस बात को बता चुके हैं उसे यहाँ पुन: प्रस्तुत करना अपेक्षित है  👇

प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
____________________________________________
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह 
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
__________________________________________
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में 
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें---
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।

उपर्युक्त संस्कृत भाषा का 
अनुवादित रूप इस प्रकार है 
:-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा 
।२१। कि हे कश्यप आपने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं 
२४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --)

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)

विदित हो कि गायत्री परिवार के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में  गोरखपुर गीता प्रेस के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में भेद है ।
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
______________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? 
अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।

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अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥ १६ ॥

(देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध तृतीय अध्याय श्लोक संख्या १६)

अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।

कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । 
जैसे ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि 
" नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : 
अर्थात् नन्द क्षत्रिय हैं गोपलन करने से ही गोप कहलाते हैं ।
( इति ब्रह्म पुराण) और भागवतपुराण में  अभिवादन रीति से यही संकेत मिलता है ।वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् ।

पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। भागवत पुराण (10/5/20/22 )
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।
और नन्द से वसुदेवअनामय शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ।


ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।
                              अथवा
ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।

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कूर्म पुराण अध्याय १२का २५वाँ श्लोक

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम् ।

वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव तु ।। १२.२५

संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है ; कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ । 
" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है । 
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु ।
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।

प्रसिद्ध पर्जन्य गोप के प्राणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब इस प्रकार  तो गोप और यादव एक हुए ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि 
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।

अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक उत्पन्न हुए थे 
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अध्याय 13,38,39,में 
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर: 
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94।

•-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; 

तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है
और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
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परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करता है ।
परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में वर्णन किया है ।


 हरिवंश पुराण में भी ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन इस प्रकार से है !

स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित:

उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।

•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।

ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!इसका प्रमाण भी प्रस्तुत है ।👇हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय सैंतीसवाँ  पर है कि 

सत्त्ववतात् सत्त्व सम्पन्नान् कौशल्या सुषुवे सुतान् ।भजिनं भजमानं च देवावृधं नृपम् ।।१।

                            -८-

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

(अन्धकं च महाबाहु वृष्णिं च यदु नन्दनम् ,तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह ताञ्छृणु ।।२। वैशम्पायन जी कहते हैं ---जनमेजय ! सत्वान् उपनाम वाले  सत्तवत से कौशल्या ने १-भजिन , २-भजमान, ३-(दिव्य राजा देवावृध) ४-महाबाहु अन्धक  और ५- यदुनन्दन वृष्णि  नामक  पाँच सत्व-संपन्न पुत्रों को उत्पन्न किया उनके चार के वंश चले उनको आप विस्तार पूर्वक सुनिए !१-२ यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च । 

अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरो८लभतात्मजान्।कुकुरं भजमानं च शमिं कम्बलबर्हिषम्।।१७।

अन्धक से काशिराज (दृढाश्वव) की  पुत्री द्वारा कुकुर ,भजमान,शमि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्र उत्पन्‍न हुए ।।।१७।

द्वितीय श्लोक 

 कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोस्तु तनयस्तथा । कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।१८।।

कुकुर के पुत्र धृष्णु और धृष्णु के पुत्र कपोतरोमा हुए ।१८।

                            -९- 
           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः। तस्य वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल ।।१९।

तैत्तिरीय के पुत्र पुनर्वसु हुए पुनर्वसु के अभिजित् हुए और अभिजित के एक पुत्र और एक पुत्री ये दो सन्तानें जुड़वाँ रूप में हुईं ऐसी बात सुनी जाती है ।१९।

आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ”। इमां च उदाहरन्ति अत्र गाथां प्रति तमाहुकम्।।२०।

ख्याति प्राप्त लोगों में वे  दोनों आहुक और आहुकी नाम से प्रसिद्ध हुए , इन आहुक के सम्बन्ध में मनुष्य इस गाथा को गाया करते हैं ।

आहुकीं चाप्यवन्तिभ्य: स्वसारं ददुर् अन्धका:।आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ सम्बभूवतु:।।२६।

अन्धक वंशीयों ने आहुक की बहिन आहुकी को अवन्ति के राजवंश में व्याह दिया और आहुक के काशिराज की पुत्री से  दो पुत्र उत्पन्न हुए ।२६।__________________________

                            -१०-       

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।देवकस्याभवन्पुत्राश्चत्वारस्त्रिदशोपमा:।२७।

देव कुमारों  के समान सुन्दर देवक और उग्रसेन नाम के पुत्रों के दौरान  उत्पन्न हुए देवक के देव- कुमारों जैसे

 १-देववान , २-उपदेव ३-वसुदेव, और ४-देवरक्षित नामक के चार पुत्र उत्पन्न हुए ।।२७। 

नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजःन्यग्रोधश्च सुनामा च कंक: शंकु:सुभूमिप।।३०।

उग्रसेन के नौ पुत्र थे उनमें कंस सबसे बड़ा (पूर्वज) पूर्व में जन्म लेने वाला था 

शेष के नाम इस प्रकार हैं १-न्यग्रोध , २-सुनामा, ३-कंक, ४-शंकु ,५-सुभूमिप ,६-राष्ट्रपाल, ७-सुतनु,, ८अनाधृष्टि,और ९-पुष्टिमान 

(हरिवंश  हरिवंश पर्व ३८ अध्याय) (पृष्ठ संख्या १७३ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)

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                          -११-        

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि 
(उग्रा सेना यस्य स उग्रसेन) मथुरादेशस्य राजविशेषः 

स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च  इति श्रीभागवतम पुराणम् --

इस प्रकार यदु के पुत्र क्रोष्टा के वंश में कृष्ण और उग्रसेन का भी जन्म होने से दोनों यादव ही थे ।

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                           -१२-


         - (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)-


हरिवंश पुराण में वर्णन है कि -

एवमुक्त्वा यदुं तात शशाप ऐनं स मन्युमान्।

अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९

•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।

अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।

वस्तुत:  ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था ।

जहाँ कामना होगी वहाँ काम का आवेग भी होगा 

कामनाऐं साँसारिक उपभोग की पिपासा या प्यास ही हैं 

कामनाओं के आवेग ही संसार रूपी सिन्धु की उद्वेलित लहरें हैं ;इनके आवेगों  से उत्पन्न मोह के भँवर और लोभ के गोते भी मनुष्य को अपने आगोश में समेटते  और अन्त में मेटते ही हैं ! कामनाओं की वशीभूत ययाति अपने साथ यही किया ।अन्त: करण चतुष्टय में अहंकार का शुद्धिकरण होने का अर्थ है उसका स्व के रूप में परिवर्तन स्व ही आत्मसत्ता की विश्व व्यापी अनुभूति है । और जब यही सीमित और एकाकी हो जाती है तो इसे ही अहंकार कहा जाता है। 

और यही अहंकार क्रोधभाव से समन्वित होकर संकल्प को उत्पन्न करता है और संकल्प से इच्छा का जन्म होता है ।

                              -१३-    

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

यही इच्छा अज्ञानता से प्रेरित संसार का उपभोग करने के लिए उतावली होकर जीव को अनेक अच्छे बुरे कर्म करने को वाध्य करती है !

यही  प्रवृत्तियों के साँचे में इच्छाऐं अपने को ढाल लेती हैं 

अहंकार से संकल्प की उत्पत्ति और यही संकल्प संवेगित होकर इच्छा का रूप धारण करता है ...

और इच्छाऐं अनन्त होकर कभी तृप्त न होने वाली हैं ।

आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में  पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया ।


 क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं ।


 तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है । और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं । सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है जिसका अर्थ है । दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है ।

                            -१४-       


           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

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शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार 

 शाप भी  वही दे सकता है 

जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है जो वस्तुत: पीड़क है !


परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही जो वास्तव दोषी ही था ;  जो अपने पुत्र के यौवन से ही पुत्र की माता का उपभोग करना चाहता है ।


और बात करता था धर्म कि अत: राजा ययाति का यौवन प्रस्ताव पुत्र की दृष्टि में धर्म विरुद्ध ही था ।


अतः वह पिता के लिए अदेय ही था ।


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                               -१५-


               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परन्तु मिथकों में ययाति की बात नैतिक बताकर  शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी गयी ..

यदु का इस अन्याय पूर्ण राजतन्त्र व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह होने से ही कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को ही बदलकर लोक तन्त्र की व्यवस्था की  अपने समाज में स्थापना की 

ये ही यदुवंशी  कालान्तर में आभीर रूप में इतिहास में उदय हुए ________________________________________

वेदों के पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करना ही ...

इस बात का प्रमाण अथवा साक्ष्य है कि  

यादवों देव संस्कृति और ययाति समर्थक पुरोहितों की समाज शोषक व्यवस्थाओं के खिलाफ थे ।

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                              -१६-


               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


वैदिक ऋचाओं में पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना ...

प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः।नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् l8l

अन्वय:- प्रि॒यासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। यादवम्। शि॒शी॒हि॒। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन् ॥८॥

  ( ऋग्वेद -मण्डल:-सूक्त: ऋचा  : 7/19/8)

पदों का हिन्दी अन्वयार्थ -बहुत सा धन देनेवाले इन्द्र  मित्र होते हुए  प्रसन्न हुए हम लोग आपके लिए सब ओर से प्रिय आपकी सङ्गति में व शरणागत  में आनन्दित हों। 

 हे इन्द्र ! आप (तुर्वशम्). तुरवसु को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) यादवों को भी (नि) (शिशीहि )निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिए(शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्)  कार्य करते हुए बनिए  ॥८॥

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                              -१७-  


             ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश )

यही ऋचा अथर्ववेद में भी 

(काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है 

हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान

अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा

तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।

और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !

पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य ने इसका अर्थ सायण सम्मत इस प्रकार किया है ।


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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना आज की ही नहीं अपितु वैदिक काल में भी थी 

इसी प्रकार की यह ऋचा भी है ।


अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ (9/61/1)

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                             -१८- 

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ । अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥ (ऋग्वेद 9/61/1)अन्वायार्थ  -(इन्दो) हे सेनापते ! (यः) जो शत्रु (ते) तुम्हारे (मदेषु) सर्वसुखकारक प्रजापालन में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से अभिभूत करो और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। 

उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

पुर॑: स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शम्ब॑रम् । अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदु॑म्है

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् । अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥ (ऋग्वेद  9/61/2)

हे इन्द्र तुमने (इत्थाधिये दिवोदासाय) सत्य बुद्धिवाले दि वो दास के लिए (शम्बर को  और तुर्वशम् यदुम्) के  पुरों को ध्वंसन करो ॥२॥

 अर्थात्  शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु   तथा यदु क  शासन (वश) में किया ।२।

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                              -१९-


           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में कुछ  ऋचाऐं हैं ..

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्।

व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४५/२७

हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।

“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्”

 (ऋ० ८, ४५, २७ )

यदु को दास अथवा असुर कहना भी  सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सैमेटिक यहूदीयों के पूर्वज यहुदह् ही थे । क्योंकि असुर और दास जैसे शब्द देवों से भिन्न संस्कृतियों के उपासकों के वाहक थे । यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।

यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।

ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।

अब  इसी लिए देव उपासक पुरोहितों ने यदु और तुरवसु के विरोध में और इनके वंश को विश्रृंखल करने के लिए  अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे 

तुम्हारे शत्रु और विद्रोही तुम्हारे लिए कभी अच्छी कामनाऐं नहीं करेंगे ।भारतीय पुराणों में वर्णित यदु को भी वेदों में गोप और गोपालक के रूप में वर्णन किया है 


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                             - २०-


                (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

कालान्तरण में यदु के वंशज ही इतिहास में आभीर गोप अथवा गोपालकों के रूप में दृष्टिगोचर हुए ।

गायों  का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण ही

इन आभीर वीरों  के संकल्प में समाहित थे ..

जिन लोगों ने इन पुरोहितों के समाजविरोधी कार्यों का विरोध किया वे ही विद्रोही कहलाए और जिन्होंने अनुरोध किया वे इनकी वर्ण व्यवस्था के निर्धारण में उच्च

पायदान पर रखा गये । 

जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।

सायद तब तक दास का अर्थ पतित हो रहा था ।

और फिर कालान्तरण में  जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।

और इसी लिए रूढ़िवादी पुरोहित यादवों असली रूप अहीर अथवा गोपों को शूद्र या दास के रूप में मान्य करते हैं ।

परन्तु यह दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है !

'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।

कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय...

ऋग्वेद में यदु के गोप होने के  विषय में लिखा है कि

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                              -२१-


              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी।गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋग्वेद १०/६२/१०)

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं

हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।

यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;गो-पालक ही गोप होते हैं

उपरोक्त ऋचा में यदु और तुरवसु के लिए (मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।

वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।

प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।

क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;

परन्तु सम्भवतः दास का एक अर्थ दाता भी था वैदिक निघण्टु में यह निर्देश है ।

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                              -२२-


           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश )


परन्तु ऋग्वेद की प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।

दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है

समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी,  तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु डकैत भी कहा है । 


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                                 -२३-

                 (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


क्योंकि जिन्होंने रूढ़िवादी लोगों की दासता को स्वीकार नहीं किया वही विद्रोही ही दस्यु कहलाए थे 

वैदिक काल में दास और दस्यु शब्द समानार्थी ही थे 

और इनके अर्थ आज के गुलाम के अर्थो में नहीं थे 👇

यादवों से घृणा  रूढ़ि वादी ब्राह्मण समाज की अर्वाचीन (आजकल की ही सोच या दृष्टिकोण ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है।वैदिक ऋचाओं में इसके साक्ष्य विद्यमान  हैं ही 


ययाति पुत्र यदु को ही सूर्यवंशी इक्ष्वाकु पुत्र राजा हर्यश्व की पत्नी मधुमती में योग बल से पुन:जन्म  देने कि प्रकरण भी पुरोहित वर्ग ने निर्मित किया  ..


परन्तु लिंग पुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )


का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे 


आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:ये सात पुत्र थे ।


आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष  इनका ज्येष्ठ पुत्र था 


नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।

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                             -२४-


             ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन है इस प्रकार है ) 👇


पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी ( चन्द्र वंशी) हैं )।


तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे 


जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष का पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था) ।


वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में वर्णन है कि  👇

शीघ्रगस्त्वग्रिवर्णस्य शीघ्रगस्य मरु: सुत: ।


मरो:प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अम्बरीष: प्रशुश्रुकात्।।४१।।

अम्बरीषस्य  पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:


नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।

नाभागस्य बभूव अज अजाद् दशरथोऽभवत् ।


अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।४३।


(वाल्मकि  रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें )


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                            -२५-


             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


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अनुवाद :-- अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।


और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।


 नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।


अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं। यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की ।


उपरोक्त श्लोकों में नभग पुत्र ना भाग का वर्णन है ।


नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातर: कविम्।


यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्।।१।


मनु पुत्र नाग के पुत्र नाभाग का वर्णन है ।


जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्म चर्च का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)


( परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी थे )


क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही  तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था 


कृष्ण से लेकर  जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण पुरुष के रूप में आप्त पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे।


                             -२६-

                  (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है 

दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी  निरन्तर  सक्रिय रहे  ।

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                              -२७-


               (यदुवंश के बिखरे हुए)


विश्व इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।


द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है ।


तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ।


शास्त्रों में सूत को वर्णसंकर के रूप मे शूद्र-वर्ण कहा है 


जैसे कि मनुस्मृति में वर्णन है ।


क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः” । “सूतानामश्वसारथ्यमम्यष्ठानां चिकित्सितम्” ।


(क्षत्रिय से विप्र कन्या में सूत उत्पन्न होता है 


जो सारथि का कार्य करता है )


सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् ।


वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः। 


(मनु स्मृति 10/47 )


महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है।


जो पुष्यमित्र सुँग के समय सम्पादित हुआ ।


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                            -२८-


              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


अर्थात्  सूत  सारथि का कर्म करें अम्बष्ठ चिकित्सा का कार्य करें और वैदहक स्त्रियों के श्रृंगार (प्रसाधन का कार्य करें और मागध वाणिज्य का कार्य करें )


परन्तु मनुस्मृति में अन्यत्र यह एक प्राचीन जाति वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है ।


 इस जाति के लोग वंशक्रम से विरुदावली का वर्णन करते हैं और प्रायः 'भाट' कहलाते हैं । 


युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने लोगों की उच्छिष्ठ पत्तल उठा कर भी एक सफाई कर्मचारी का कार्य किया 


यह भी शूद्र की भूमिका थी ।


यह कृष्ण का वर्ण व्यवस्था को न मानने का ही कारण था 


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जिसके वंशजों ने कभी भी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया जैसे कि


कृष्ण ने भी स्वयं  सारथी (सूत ) की भूमिका से शूद्र वर्ण की भूमिका कि पालन किया तो  गोपालन से वैश्य वर्ण का था


 परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।


और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ...


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                              -२९-  


            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


क्योंकि वर्ण- व्यवस्था का पालन तो जीवन पर्यन्त एक ही वर्ण में रहकर उसके अन्तर्गत विधान किये हुए कर्मों को ही करना होता है ।


परन्तु कृष्ण ने इस वर्ण-व्यवस्था परक विधान का पालन नहीं किया।


परन्तु श्रीमद भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय का यह तैरहवाँ श्लोक प्रक्षेप ही है ।

'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः,

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

चारों वर्ण मेरे द्वारा गुण कर्म के विभाग से सृजित किए हुए हैं;उसमें मैं अकर्ता के रूप में अव्यय हूं ऐसा मुझको जान (4/13)

वस्तुत: यहाँ इस श्लोक का मन्तव्य वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था से ही है नकि जन्मजात मूलक वर्ण व्यवस्था से

अन्यथा गोप यदि वैश्य होते तो नारायणी सेना के योद्धा क्यों हुए ? क्योंकि वैश्य का युद्ध करना तथा शस्त्र लेना भी शास्त्र- विरुद्ध ही है ।

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                            -३०-


                (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


जैसा कि पुराणों में वर्णन है:- राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में (विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)

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मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए 


 वर्णित है अर्थात् 

( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि  ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है 

और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।

त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मन् |

तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ||30||

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उपर्युक्त श्लोक जो  मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है 


उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।


अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।


 तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे  वे वैश्य कहाँ हुए ?

और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा 

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;

तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे ।
यही आज भूटानी कहे जाते हैं ।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।

क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?

'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।

उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं  क्षत्रिय हूँ । 
तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।

•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।

उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
________
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।

•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।

•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
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अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।

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                             -३१-


                   (यदुवंश के बिखरे हुए)


यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की

नारायणी सेना का निर्माण क्यों करते ?

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महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है 

नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य  योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे  थे ।

महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है ।

और इस अध्याय के श्लोक ‌सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है 

अथ नारायणा: क्रुद्धा: विविधा आयुध पाणय:क्षोदयन्त: शरव्रातेै: परिवव्रुर्धनञ्जयम् ।।७।।

अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।


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                          -३२-


          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)


और आगे के श्लोक में वर्णन है कि 


अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।।८।।


अर्थ:-भरत श्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।।


और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छै: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं


भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याः शूर आभीरा दशेरकाः।६।।शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।

ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।७।।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिता:।।

अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।।६-७ ।

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                             -३३-

              ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)

महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और १९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।

मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् ।नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन: ।१८।

मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।

 उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।

ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।

विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे 

जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है

अथ कदाचित्प्राड्‌विपाको नाम मुनींद्रो
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥


सुयोधनेन संपूजितः परमादरेण
सोपचारेण महार्हसिंहासने स्थितोऽभूत् ॥७॥

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इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे दुर्योधनप्राड्‌विपाकसंवादे
बलदेवावतारकारणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

प्राय:  कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा  भ्रान्त-मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए !

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                            -३४-

          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 

यह श्लोक उद्धृत करते हैं ।

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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 

आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात्  वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय  में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है 

इसे भी देखें---_______________________________________

"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।

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                             -३५-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । 

कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में  अर्थात् पञ्चनद या पंजाब प्रदेश में  दुष्ट नारायणी सेना के  गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।

और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! 

(  श्रीमद्भगवद् पुराण प्रथम स्कन्द  अध्याय पन्द्रह वाँ श्लोक संख्या (२० १/१५/२० )

(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---

विदित हो कि महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।

और फिर यादव जो वृष्णिवंशी थे उन्हें यादवों के अतिरिक्त कौन वश में कर सकता है।

संहर्ता वृष्णिचक्रस्य नान्यो मद्विद्यते शुभे। 

अवध्यास्ते नरैरन्यैरपि वा देवदानवैः (11-25-49)

परस्परकृतं नाशं यतः प्राप्स्यन्ति यादवाः।। 49 1/2।।

                                -३६-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश

गान्धारी जब कृष्ण को शाप देती हैं तब कृष्ण उनके शाप को स्वीकार करते हम हुए कहते हैं 

शुभे ! वृष्णि कुल का संहार करने वाला मेरे सिवा दूसरा दुनियाँ में नहीं है ! ये यादव दूसरे मनुष्यों तथा देवताओं के लिए भी और दानवों के लिए भी अबध्य है ; इसी लिए ये आपस में ही लड़़कर 

नष्ट होंगे ।।49 1/2।।

।। इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणि

स्त्रीविलापपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः।। 25 ।।

अर्जुन भी महान योद्धा था उन्हें नारायण सेना के यादव गोपों के अतिरिक्त कौन परास्त कर सकता था ?

और जब वृष्णि कुल की कन्या सुभद्रा का अर्जुन ने काम पीडित होकर अपहरण किया था तब कृष्ण नें भी अर्जुन को इन शब्दों में धिकारा था 

जब अर्जुन और कृष्ण रैवतक पर्वत पर वहाँ समायोजित उत्सव की शोभा के अवसर पर टहल रहे थे।

तभी वहाँ  अपनी सहेलीयों के साथ आयी हुई।

                             -३७-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

सुभद्रा को देखकर अर्जुन में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी

  दृष्टिवा एव तामर्जुनस्य कन्दर्प: समजायत।

 तं तदैकाग्रमनसं कृष्ण: पार्थमलक्षयत्।।१५।

उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया 

कृष्ण ने अर्जुन की कामुकता को भाँप लिया।।१५।

अब्रवीत् पुरुष व्याघ्र: प्रहसन्निव भारत।

वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मन:।।१६।।

फिर वे पुरुषों में बाघ के समान कृष्ण हंसते हुए से बोले 

-अर्जुन यह क्या ? तुम जैसे वन वासी के मन भी काम से उन्मथित हो रहा है ? ।।१६।

(महाभारत आदिपर्वसुभद्राहरणपर्व दो सौअठारहवाँ अध्याय)

तब अर्जुन सुभद्रा का अपहरण करके ले जाता है तब वृष्णि कुल योद्धा उसको धिक्कारते हुए कहते हैं ।

                             -३८-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

को हि तत्रैव भुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।

मन्यमान: कुले जातमात्मानं पुरुष: क्वचित्।।२७।

अपने को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है जो जिस बर्तन में खाये ,उसी में छेद करे ।।२७।

(महाभारत आदि पर्व हरण पर्व दो सो उन्सीवाँ अध्याय)

सुभद्रा के अपहरण की खबर सुनते ही युद्धोन्माद से लाल नेत्रों वाले वृष्णिवंशी वीर अर्जुन के प्रति क्रोध से भर गये और गर्व से उछल पड़े ।।१६।

वृष्णि सत्वत वंश के थे ।

तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरा: ते मदसंरक्तलोचना:।

अमृष्यमाणा: पार्थस्य  समुत्पेतुरहंकृता:।।१६।

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 विदित  हो कि सुभद्रा वृष्णि कुल की कन्या थी 

और वसुदेव की बड़ी पत्नी रोहिणी की पुत्री थी 

और स्वयं रोहिणी पुरुवंशी भीष्म के पिता शन्तुनु के बड़े भाई बह्लीक की पुत्री थीं ।

और अर्जुन भी स्वयं पुरुवंशी

 था ।

        

                             -३९-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

इस लिए भी सुभद्रा अर्जुन के लिए मान पक्ष की थी परन्तु कामुकता वश वह उसे अपहरण कर के लेगया ।

इसी लिए वृष्णि वंशी गोप योद्धाओं ने पंचनद प्रदेश में वृष्णि वंश की अन्य हजारों स्त्रियों को द्वारका से इन्द्र प्रस्थान ले जाते हुए अपने कुल की स्त्रियों को अपने साथ लेने के लिए परास्त किया था।

यह बात भागवत पुराण के सन्दर्भ से उपरोक्त रूप में कह चुके हैं । सुभद्रा गोप कन्या के रूप में थी जैसा की अन्य गोप कन्याऐं उस काल में रहती थीं ।

महाभारत के इस श्लोक नें यही भाव -बोध है।

सुभद्रां त्वरमणाश्च  रक्तकौशेयवासिनीम् ।

पार्थ: प्रस्थापयामास कृत्वा गोपालिका वपु:।।१९।

(महाभारत आदिपर्व हरणाहरण पर्व दो सौ बीसवाँ

  अध्याय)

यह सुभद्रा रोहिणी की पुत्री और हद व सारण की सगी बहिन थी।(हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के श्रीकृष्ण जन्म वषयक पैंतीसवाँ अध्याय )के चतुर्थ श्लोक में 

रोहिणी के पिता और वंश का वर्णन करते हुए लिखा हुआ है कि 

रोहिणी के ज्येष्ठ पुत्र बलराम और (उनसे छोटे) सारण, शठ दुर्दम ,दमन श्वभ्र, पिण्डारक,और उशीनर हुए और चित्रा नाम की पुत्री हुई ( यह चित्रा एक अप्सरा थी जो रोहिणी के गर्भ में उत्पन्न होते ही मर गयी ।

                            -४०-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

मरते समय उसने धिक्कारा था स्वयं को कि मैं यादव कुल में जन्म धारण करके भी यदुवंश में उत्पन्न होने वाले भगवान की लीला न देख सकी इसी इच्छा के कारण  ) यह चित्रा ही दूसरी वार सुभद्रा बनकर उत्पन्न हुई ।

इस प्रकार रोहिणी की दश सन्तानें उत्पन्न हुईं ।

वसुदेव की चौदह रानी यहा

 थीं जिनमें रोहिणी उनसे छोटी इन्दिरा वैशाखी भद्रा और पाँचवीं सुनामि

  ये पाँचों पुरुवंश की थीं 

रोहिणी महाराज शान्तनु के बड़े भाई बाह्लीक

की बड़ी पुत्री थी ये दोनों प्रतीप के पुत्र थे ।

वे वसुदेव की बड़ी पत्नी थीं

पौरवी रोहिणी नाम बाह्लीकस्यात्मजाभवत् ।

ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिता८८नकदुन्दुभे:।।४।

लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणी शठमेव च।

दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकम् उशीनरम् ।।५।

चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश ।

चित्रा सुभद्रा इति पुनर्विख्याता कुरु नन्दन ।।६।

हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व का पैंतीस वे ं अध्याय के चतुर्थ पञ्चम और षष्ठ श्लोक उपरोक्त रूप में वर्णित हैं ।

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                           -४१-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परन्तु भागवत पुराण के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है।भागवत पुराण नवम स्कन्ध के (२४)वें अध्याय के ५५वें श्लोक में वर्णन है कि >•

अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरि: किल ।

सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही।।५५।

अर्थ:-दौंनों के आठवें पुत्र स्वयं  हरि ही थे 

परीक्षित् तुम्हारी सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी  जी की कन्या थीं ।५५।

वस्तुत भागवत पुराण में वर्णित श्लोक हरिवंश पुराण के विरोधी है ।

हरिवंश पुराण का कथन ही सही है कि सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है ।

विशेष:- टिप्पणी:-

हरिवंश पुराण में वर्णन है कि कृष्ण और उनकी पत्नी सत्यभामा  क्रोष्टा के वंश में उत्पन्न थे परन्तु पुराण की इस पहेली का हल करते हुए कहा कि क्षत्रियों के एक कुल होने पर भी सात पीढ़ीयाँ बीत जाने के बाद पुरोहित के गोत्र से यजमान क्षत्रिय का भी गोत्र बदल जाता है ;

और इस प्रकार गोत्र भेद से उनमें विवाह हो जाता है 

इसी क्रोष्टा के वंश में रुक्मिणी जी का जन्म हुआ ।

आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।





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                                -४२-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।

इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित है ।

अर्जुन और यादव गोपों की शत्रुता  अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण करने के कारण ही थी ।👇.

यादवों को गो पालक होनो से ही उनको गोप कहा गया है । यही संसार मेें कृषि संस्कृति के जनक हुए 

गर्ग संहिता में वर्णन है कि

गर्गसंहिता/खण्डः ३ (गिरिराजखण्डः)/अध्यायः ०१

← गर्गसंहिता/खण्डः ३ (गिरिराजखण्डः)गर्गसंहिता
खण्डः ३ (गिरिराजखण्डः)/अध्यायः ०१
गर्गमुनि
अध्यायः ०२ →


 श्रीगर्गसंहितायां श्रीगिरिराजखण्डे श्रीनारद बहुलाश्व संवादे प्रथमोऽध्यायः

श्रीगिरिराजपूजाविधिवर्णनम्  नामक अध्याय में नारद बहुलाश्व से गोपों को ही कृषि उत्पादन करने वाला कहते हैं ।

 श्रीनारद उवाच -
वार्षिकं हि करं राज्ञे यथा शक्राय वै तथा ।
 बलिं ददुः प्रावृडन्ते गोपाः सर्वे कृषीवलाः ॥ ३ ॥

; भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर  स्पष्ट वर्णित है|

ये आभीर या गोप यादवों की शाखा 

नन्द बाबा आदि के भी वृष्णि कुल से सम्बंधित कहा है 

👇 ______ 

नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।

वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥

●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|

 सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |

 ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।63|| 

हे भरत के वंशज जनमेजय ! ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||

 ( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109)..

ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है ।

 ___________________

                

                               -४३-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधारित हैं 👇शास्त्रों के मर्मज्ञ इतर विद्वानों ने जिसका भाष्य किया है " देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता: ।

अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।

अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं ।

अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।

अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।

सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।

अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया

और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।

गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य: यशस्विना।३।

अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए 

अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३

पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।

 ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपारुच्यन्ते ४

अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए 

ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।

                      

                           -४४-

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

गौपालनेन गोपा: निर्भीकेभ्यश्च  आभीरा ।

यादवा लोकेषु वृत्तिभि: प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।।

•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर

यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं ५

आ समन्तात् भियं राति ददाति ।

शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति ।६।

•-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६

अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।

वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।।७।

अर्थ:- ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है )उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।७

ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।

भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।

अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का 

ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।

देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।

राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे ।

देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।

                              -४५-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇

अन्धकस्य सुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव :

रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८। 

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है ।

 रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 

तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।

चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।४९

देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,

और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।

देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे ।

जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।

वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।

यदु प्रवीण: प्रख्याता  लोकपाला इवापरे ।।५०।

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सत्य प्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु

 ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए ।

_________________________________________

                               -४६-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘

और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।

'देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।

चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रो८न्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।

तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।

भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था । 

उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇

श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:। वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।

                  

                              -४७-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र हुए ।__________________________________________

 प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये ।

 द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा 

तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।

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 देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम्  तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।।

तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी ।और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।

उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं ।

उपनन्द बडे़ थे ।

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                             -४८-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

__________________________________               माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-

माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमो८थ गोप इति प्राहु।५७।

 एवमन्ये८पि गोपा यादवविशेष: 

एव वैश्योद् भवत्वात् । अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।

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 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।

हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।

पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-

भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति 

भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।

शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)

                               -४९-

               ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇

यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।

यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । 

इति मेदिनी कोष:)

परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।

और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे  अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।

आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।

'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 

आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 


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                           -५०-

              (यदुवंश के बिखरे हुए)

 गर्गसंहिता में भी अहीरों या गोपों को यादव ही कहा है । जैसे 

तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे । 

सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40|| 

 अन्वयार्थ ● हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।

हे राजन्- जो  मनुष्य-कलियुग में वहाँ जाकर- उन द्वारकेश को कृष्ण को देखते हैं- वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं-।40।।

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे:।

मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 

अन्वयार्थ ● जो कृष्ण और उनके साथ यादव गोपों के-गोलोक गमन - चरित्र को-  निश्चय ही- सुनता है-  वह मुक्ति को पाकर- सभी पापों से- मुक्त होता है-।41

( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय )

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 

कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥ २३ ॥

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                            -५१-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

 श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇

 ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇ 

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आभीरसुतां (सुभ्रुवां ) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |

अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या: सुविश्रुता:|83 

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अर्थ:- अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83|| 

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गर्ग संहिता का रचना  पुष्यमित्र सुँग के समकालीन है 

क्योंकि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड के त्रयोदश अध्याय में पतञ्जलि का वर्णन है

संहारकद्रुर्द्रवयुः कालाग्निः प्रलयो लयः ॥

 महाहिः पाणिनिः शास्त्रभाष्यकारः पतञ्जलिः ॥२२॥
 कात्यायनः पक्विमाभः स्फोटायन उरङ्गमः ॥
 वैकुंठो याज्ञिको यज्ञो वामनो हरिणो हरिः ॥२३॥
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे प्राड्‌विपाकदुर्योधनसंवादे
बलभद्रसहस्रनामवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
__________
मरीची क्रतुश्चौर्वको लोमशश्च
     पुलस्त्यो भृगुर्ब्रह्मरातो वसिष्ठः ।
 नरश्चापि नारायणो दत्त एव
     तथा पाणिनिः पिङ्‌गलो भाष्यकारः ॥ ९१ ॥
 सकात्यायनो विप्रपातञ्जलिश्चा-
     थ गर्गो गुरुर्गीष्पतिर्गौतमीशः ।
 मुनिर्जाजलिः कश्यपो गालवश्च
     द्विजः सौभरिश्चर्ष्यशृङ्‌गश्च कण्वः ॥ ९२ ॥
(गर्ग संहिता अश्वमेध खण्ड उनसठवाँ अध्याय)

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और  (गर्ग संहिता उद्धव -शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय )  👇 

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:। 

वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४। ____________________________

शिशुपाल उद्धव से कहता है कि 

 कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।

उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।

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गर्ग संहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि  इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु माता द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है

 यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।

गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः ।।१६।।

जरासंधनिरोधार्त नृपाणां मोक्षकारिणे ।।

नृगस्योद्धारिणे साक्षात्सुदाम्नोदैन्यहारिणे ।। १७।।

वासुदेवाय कृष्णाय नमः संकर्षणाय च ।।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय चतुर्व्यूहाय ते नमः ।।१८।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च 
सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।१९।।

इति श्रीमद्गर्गसंहितायां श्रीद्वारकाखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शंखोद्धारमाहात्म्यं नाम द्वादशोऽध्यायः ।। १२ ।।

                             -५२-

               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

 रूप गोस्वामी ने अपने मित्र  "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर ही कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया था 

"श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से ...

 परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा जिसमें परवर्ती

रूढ़िवादी यदु  दोषक पुरोहितों के मान्यता का भी सन्दर्भित करते हुए इस पुरोहित वर्ग के गोपालन वृत्ति 

के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण को भी वर्णन किया है 

जो स्मृतियों की मान्यता को पोषक थे ।

यद्यपि यह रूप स्वामी का अपना  कोई मौलिक मत नहीं था परन्तु देव संस्कृति के इन्द्र उपासक पुरोहतों का ही मत था 

जिसमें गोपों को पूर्व दुराग्रह वश वैश्य और शूद्र वर्ण में घसीटने की निरर्थक चेष्टा की है 

परन्तु माना यादव ही है जैसे 👇________________________________

 "ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।। 

भाषानुवाद–वे सब  व्रजवासी जन ही जो कृष्ण के परिवारी जन  हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल (गोपाल), विप्र, तथा बहिष्ठ (बाहर रहने वाले शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।

    

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                             - ५३-

                 (यदुवंश के बिखरे हुए)

विप्र का अर्थ गोंडा आभीर ब्राह्मण ही समझना चाहिए।

ज्वाला प्रसाद मिश्र ने जाति भास्कर ग्रन्थ में अहीरों को गोड ब्राह्मण ही लिखा है।

श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" में 

आगे सातवें श्लोक में रूप स्वामी जी लिखते हैं ।

पशुपाल: त्रिधा वैश्य आभीर गुर्जरा: तथा ।

गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

 भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।

इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से ही हुई है ।

( इसी वणिकों में समाहित बरसाने के  बारहसैनी बनिया भी अक्रूर यादव के वंशज हैं) ।

तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। 

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                           -५४-

         ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

आगे रूप गोस्वामी जी ने वर्णन किया है

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भाषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । 

और ये आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।

अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। 

 विदित हो की पर्जन्य की माता गुणवती वैश्य वर्ण से सम्बद्ध थी जैसा कि (भागवतपुराण  के दशम स्कन्द में वर्णन है 

जिसका भाष्य श्रीधर ने अपनी श्रीधरीटीका में किया है 

 वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर  श्रीधरीटीका का भाष्य पृष्ठ संख्या 910) पर स्पष्ट किया गया है । 👇

भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर् जात्वात् | 

अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : 

गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति ।

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    ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबंधुमनामयम्

वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ।२९।

(पद्म पुराण स्वर्ग खण्ड अध्याय 51)

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                             -५५-

                (भागवत पुराण में पर्जन्य)

पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ,  एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि-अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्रों  जो कृष्ण के पूर्वज भी थे !

 उनका भी वर्णन कर दिया है ...

यद्यपि यदुवशीयों की  महिला पात्र  (वरीयसी ) के वाचक शब्द 

वर्षीयसी का वर्षा से सम्बन्धित कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है ...

फिर भी यह  शब्द यहाँ  वर्षा का ही वाचक है यहाँ 

देवमीढ की पत्नी गुणवती थीं और पर्जन्य की पत्नी वरियसी जो वर्षीयसी का ही रूपान्तरण है ..देखें 👇_________

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं ( म्या उदमयं) वसु  स्व गोभिर् मोक्तुम् आरेभे पर्जन्य: काल आगते |5||

तडीत्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता: |

प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव ||6||

तप:कृशा देवमीढा आसीद् बर्षीयसी मही |

यथैव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्य तत्फलम् ||7||

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                              -५६-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये  क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं 

पर्जन्य देवमीढ के पुत्र और गुणवती के पुत्र और वर्षीयसी ( वरीयसी) उनकी पत्नी हैं ; 

पर्जन्य शब्द पृज् सम्पर्के धातु से बना है जिसका अर्थ या भाव

मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण  देवमीढ के पुत्र का पर्जन्य नाम भी हुआ 

गुणवती देवमीढ की पत्नी का नाम था 

पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं ।

परन्तु ये परिवार और  प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं 

नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !

__________

 अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः । 

अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् ।

वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है 

यह वृद्धतरा का वाचक है 

मह् पूजायाम् या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला !

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                           -५७-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ 

राजा पर्जन्य  भूमि वासी प्रजा से 

आठ महीने तक ही कर लेते हैं 

 वसु  (शूरसेन) भी अपनी गायों को मुक्त कर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं | 

और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||

जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है |

जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं  से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||

तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पत्नी और देवमीढ़ की पूजनीया गुण वती रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को प्राप्त कर लेती थीं 

जैसे देव =बादल   मीढ= जल  देवमीढ -बादलों का जल 

ज्येष्ठ -आषाढ  में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये ।



                             -५८-

               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है 

जैसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है ।

                          

परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |

और सत्य भी है कि  "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ 

 वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है ।

जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत है।

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                             -५९-

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

भगवत पुराण के "वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " वसुदेव यह सुनकर कि भाई नन्द आये हुए हैं" श्लोकांश की  श्ररीधरी टीका का अन्वयार्थ :~ यम् भ्रातरं÷ जिस भाई  को | 

वैश्य कन्यायां÷ चन्द्रगुप्त वणिक की पुत्री में। शूरवैमात्रेय ÷सूरसैन की विमाता ( सौतेली माँ) की सन्तान

विमात्रेय ( विमाता की सन्तान )

 यहाँ विमाता में "ढक्" प्रत्यय सन्तान बोधक है ।

जैसे

कुन्त्या:अपत्यम् ढक् । - “कौन्तेय! 

विनतायाः अपत्यं ढक् "-वैनतेय।

विमातृ मातृसपत्न्याम् ( माता की सौत) ढक् -वैमात्रेय (सौतेला भाई) |

भ्रातुर्जात्वात्÷ सूर के भाई पर्जन्य  के द्वारा उत्पन्न होने से - अर्थात्‌ नन्द से |

अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : ÷ इसीलिए ज्येष्ठ भाई इस प्रकार दुबारा कहा गया |

गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं÷ (गोपाों की वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण वैश्य होना )

रूढ़वादी पुरोहितों के द्वारा मान्य है |

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                           -६०-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परं च ते यादवा एव "÷  परन्तु  ये सभी गोप  यादव ही हैं ! 

ऐसा भी इस श्रीधरी टीका में स्पष्ट ही है 

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पर्जन्य की पत्नी वरियसी और देवमीढ की रानी का नाम

"गुणवती " था |

हिन्दी अनुवाद :● 

शूर की विमाता (सौतेली माँ)गुणवती के पुत्र पर्जन्य शूर के पिता की सन्तान होने से भाई ही हैं;  जो गोपालन के कारण वैश्य वृत्ति वाहक हुए अथवा वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण 

यद्यपि दौनों तर्क पूर्वदुराग्रह पूर्ण ही हैं ।

क्यों कि माता में भी पितृ बीज की ही प्रथानता होती है जैसे खेत में बीज के आधार पर फसल के स्वरूप का निर्धारण होता है।

 --दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है 

कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये 

परन्तु विचारणीय है कि गाय विश्व की माता है 

"गावो विश्वस्य मातर: " महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !

और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है ...

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शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥ ६० ॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा  शूरसेन नाम से हुए । और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने (वेश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! (शूरसेन और अग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥


इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ में वर्णन है कि


कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥

•-प्राचीन  समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।


द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै ॥ ५५ ॥

शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना ॥ ५६ ॥

(उसके पिता का नाम मधु )  वरदान पाकर वह  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ;  हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहां मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।

स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः ॥ ५७ ॥

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ॥ ५८ ॥

उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु  और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।


शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥

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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥ ६० ॥

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वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! 

तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

 उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और अग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था


अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ॥ ६२ ॥

अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।


दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।


कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।


तच्छ्रुत्वा वचनं कंसो विस्मितोऽभून्महाबलः ।
देववाचं तु तां मत्वा सत्यां चिन्तामवाप सः ॥ ६५ ॥


किं करोमीति सञ्चिन्त्य विमर्शमकरोत्तदा ।
निहत्यैनां न मे मृत्युर्भवेदद्यैव सत्वरम् ॥ ६६ ॥


उपायो नान्यथा चास्मिन्कार्ये मृत्युभयावहे ।
इयं पितृष्वसा पूज्या कथं हन्मीत्यचिन्तयत् ॥ ६७ ॥


पुनर्विचारयामास मरणं मेऽस्त्यहो स्वसा ।
पापेनापि प्रकर्तव्या देहरक्षा विपश्चिता ॥ ६८ ॥


प्रायश्चित्तेन पापस्य शुद्धिर्भवति सर्वदा ।
प्राणरक्षा प्रकर्तव्या बुधैरप्येनसा तथा ॥ ६९ ॥


विचिन्त्य मनसा कंसः खड्गमादाय सत्वरः ।
जग्राह तां वरारोहां केशेष्वाकृष्य पापकृत् ॥ ७० ॥


कोशात्खड्गमुपाकृष्य हन्तुकामो दुराशयः ।
पश्यतां सर्वलोकानां नवोढां तां चकर्ष ह ॥ ७१ ॥


हन्यमानाञ्च तां दृष्ट्वा हाहाकारो महानभूत् ।
वसुदेवानुगा वीरा युद्धायोद्यतकार्मुकाः ॥ ७२ ॥


मुञ्च मुञ्चेति प्रोचुस्तं ते तदाद्‌भुतसाहसाः ।
कृपया मोचयामासुर्देवकीं देवमातरम् ॥ ७३ ॥


तद्युद्धमभवद्‌ घोरं वीराणाञ्च परस्परम् ।
वसुदेवसहायानां कंसेन च महात्मना ॥ ७४ ॥


वर्तमाने तथा युद्धे दारुणे लोमहर्षणे ।
कंसं निवारयामासुर्वृद्धा ये यदुसत्तमाः ॥ ७५ ॥


पितृष्वसेयं ते वीर पूजनीया च बालिशा ।
न हन्तव्या त्वया वीर विवाहोत्सवसङ्गमे ॥ ७६ ॥


स्त्रीहत्या दुःसहा वीर कीर्तिघ्नी पापकृत्तमा ।
भूतभाषितमात्रेण न कर्तव्या विजानता ॥ ७७ ॥


अन्तर्हितेन केनापि शत्रुणा तव चास्य वा ।
उदितेति कुतो न स्याद्वागनर्थकरी विभो ॥ ७८ ॥


यशसस्ते विघाताय वसुदेवगृहस्य च ।
अरिणा रचिता वाणी गुणमायाविदा नृप ॥ ७९ ॥


बिभेषि वीरस्त्वं भूत्वा भूतभाषितभाषया ।
यशोमूलविघातार्थमुपायस्त्वरिणा कृतः ॥ ८० ॥


पितृष्वसा न हन्तव्या विवाहसमये पुनः ।
भवितव्यं महाराज भवेच्च कथमन्यथा ॥ ८१ ॥


एवं तैर्बोध्यमानोऽसौ निवृत्तो नाभवद्यदा ।
तदा तं वसुदेवोऽपि नीतिज्ञः प्रत्यभाषत ॥ ८२ ॥


कंस सत्यं ब्रवीम्यद्य सत्याधारं जगत्त्रयम् ।
दास्यामि देवकीपुत्रानुत्पन्नांस्तव सर्वशः ॥ ८३ ॥


जातं जातं सुतं तुभ्यं न दास्यामि यदि प्रभो ।
कुम्भीपाके तदा घोरे पतन्तु मम पूर्वजाः ॥ ८४ ॥


श्रुत्वाथ वचनं सत्यं पौरवा ये पुरःस्थिताः ।
ऊचुस्ते त्वरिताः कंसं साधु साधु पुनः पुनः ॥ ८५ ॥


न मिथ्या भाषते क्वापि वसुदेवो महामनाः ।
केशं मुञ्च महाभाग स्त्रीहत्या पातकं तथा ॥ ८६ ॥


                   (व्यास उवाच)

एवं प्रबोधितः कंसो यदुवृद्धैर्महात्मभिः ।
क्रोधं त्यक्त्वा स्थितस्तत्र सत्यवाक्यानुमोदितः ॥ ८७ ॥


ततो दुन्दुभयो नेदुर्वादित्राणि च सस्वनुः ।
जयशब्दस्तु सर्वेषामुत्पन्नस्तत्र संसदि ॥ ८८ ॥


प्रसाद्य कंसं प्रतिमोच्य देवकीं
     महायशाः शूरसुतस्तदानीम् ।
जगाम गेहं स्वजनानुवृत्तो
     नवोढया वीतभयस्तरस्वी ॥ ८९ ॥
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इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

जघान शक्रो वज्रेण सर्वान्धर्मबहिष्कृतान्
नहुषस्य प्रवक्ष्यामि पुत्रान्सप्तैव धार्मिकान्९१।


यतिर्ययातिश्शर्यातिरुत्तरः पर एव च
अयातिर्वियातिश्चैव सप्तैते वंशवर्द्धनाः।९२।


यतिः कुमारभावेपि योगी वैखानसोभवत्
ययातिरकरोद्राज्यं धर्मैकशरणः सदा९३।

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शर्मिष्ठा तस्य भार्याभूद्दुहिता वृषपर्वणः
भार्गवस्यात्मजा चैव देवयानी च सुव्रता९४।


ययातेः पंचदायादास्तान्प्रवक्ष्यामि नामतः
देवयानी यदुं पुत्रं तुर्वसुं चाप्यजीजनत् ।।९५।

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तथा द्रुह्यमणं पूरुं शर्मिष्ठाजनयत्सुतान्
यदुः पूरूश्च भरतस्ते वै वंशविवर्द्धनाः।।९६।


पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोसि पार्थिव
यदोस्तु यादवा जाता यत्र तौ बलकेशवौ९७।


भारावतारणार्थाय पांडवानां हिताय च
यदोः पुत्रा बभूवुश्च पंच देवसुतोपमाः९८।

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सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः९९।


शतजितश्च दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः
हैहयश्च हयश्चैव तथा तालहयश्च यः१०० 1.12.100


हैहयस्य तु दायादो धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः
धर्मनेत्रस्य कुंतिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः१०१।


संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नाम पार्थिवः
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रसेनः प्रतापवान्।।१०२।


वाराणस्यामभूद्राजा कथितः पूर्वमेव हि
भद्रसेनस्य पुत्रस्तु दुर्दमो नाम धार्मिकः।।१०३।

दुर्दमस्य सुतो भीमो धनको नाम वीर्यवान्
धनकस्य सुता ह्यासन्चत्वारो लोकविश्रुताः।१०४।

कृताग्निः कृतवीर्यश्च कृतधर्मा तथैव च
कृतौजाश्च चतुर्थोभूत्कृतवीर्याच्च सोर्जुनः।।१०५।

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पंचाशीतिसहस्राणि वर्षाणां च नराधिपः
सप्तद्वीपपृथिव्याश्च चक्रवर्ती बभूव ह११६।

स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हि
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोभवत् ।।११७।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे यदुवंशकीर्तनं नाम द्वादशोऽध्यायः१२।



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                            -६१-

          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

राजा लोग गो की रक्षा और पालन का पुनीत उत्तर दायित्व सदीयों से निर्वहन करते रहे हैं ।

 राजा दिलीप भी नन्दनी गाय की सेवा करते हैं परन्तु वे क्षत्रिय ही हैं गो सेवा करने से वैश्य नहीं हुए ..

परन्तु ये तर्क कोई दे कि दुग्ध विक्रय करने से यादव या गोप वैश्य हैं तो सभी किसान दुग्ध विक्रय के द्वारा अपनी आर्धिक आवश्यकताओं का निर्वहन करते ही हैं ...

और सबसे बड़े क्षत्रिय किसान ही हैं ।

अहीर अथवा गोप शूद्र हैं तो वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री शूद्रा क्यों नहीं है ?

गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी ।
न गायत्र्याः परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते ।। १४.५९

(कूर्म पुराण उत्तर भाग अध्याय १४का ५९वाँ श्लोक)


देखें पद्म पुराण के प्रथम सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ के श्लोक संख्या  में गायत्री माता को  नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।



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                              -६२-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोक

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।।

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                            -६३-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 

तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके 

परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये ।।

उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।।

इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? 

        और किस की पुत्री हो ।

उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र  देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।

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                              -६४-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।

 👇

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।

गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५।निम्न श्लोक में भी देखें ।

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका

तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है।

                              -६५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।

तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री को ब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।

 गायत्री जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं । 

गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं 

परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।

गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है।👇

अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।

प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

मत्संहनन तुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत्।

नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।

(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: 

(2।9।57।2।5)(अमरकोशः) 

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                          -६६-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: 

दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम  और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे । अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।

क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।

फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया ।

सरे आम बकवास है ये तो !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि

इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।

१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा 

 ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।

माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।

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                              -६७-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या १९ से  ३१ तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है ।

जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे

सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।

 दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ 
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।

यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता: ॥ २० ॥

चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक: ॥ २२ ॥

                            -६८-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

दुर्मदो भद्रसेनस्य धनक: कृतवीर्यसू: ।

कृताग्नि: कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजा: ॥ २३ ॥

अर्जुन: कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।

दत्तात्रेयाद्धरेरंशात् प्राप्तयोगमहागुण: ॥ २४ ॥

न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवा: ।

यज्ञदानतपोयोगै: श्रुतवीर्यदयादिभि: ॥ २५ ॥

पञ्चाशीतिसहस्राणि ह्यव्याहतबल: समा: ।

अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्‍वसु ॥ २६ ॥

तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता मृधे ।

जयध्वज: शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जित: ॥ २७ ॥

जयध्वजात् तालजङ्घस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।

क्षत्रं यत् तालजङ्घाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम् ॥ २८ ॥

तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णि: पुत्रो मधो: स्मृत: ।




                              -६९-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यत: कुलम् ॥ २९ ॥

माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिता: ।

यदुपुत्रस्य च क्रोष्टो: पुत्रो वृजिनवांस्तत: ।३०।।

स्वाहितोऽतो विषद्गुर्वै तस्य चित्ररथस्तत: ॥ 
शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ।३१।।

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                          -७०-

         (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

हरिवंश पुराण में आगे वर्णन है कि  सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 

इनके वंशज भैम कहलाये  

जब राजा भीम आनर्त देश (गुजरात) पर राज्य करते थे और तब उस समय 

अयोध्या में राम का शासन था ।

अब प्रश्न यह भी उदित होता है कि यदु के पुत्र 

अत: आभीर ही ययाति पुत्र यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित  ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु की सन्तानें कहाँ गये ?

वास्तव में वे आभीर नाम से ही इतिहास में वर्णन किए गये।

ये ही यदु की शुद्धत्तम सन्तानें हैं ।

आभीर आज तक गोपालन वृत्ति और कृषि वृत्ति से जीवन यापन कर रहे हैं ।

कृष्ण और बलराम कृषि संस्कृति के सूत्रधार और प्रवर्तक थे । चरावाहों से ही कृषि संस्कृति का विकास हुआ ये ही गोप  गोपालन वृत्ति से और आभीर वीरता अथवा निर्भीकता प्रवृत्ति से और यादव  वंश मूलक रूप से हुए (यदोर्गोत्रो८पत्यम् ) से यदु में सन्तान वाचक 'अण्' प्रत्यय करने पर यादव बना

ये मानव जाति यादव कहलायी ...

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                            - ७१-

प्रस्तुत हैं अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा !

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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौकिकम् ।

स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 

हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।

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गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 

हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०।

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                               -७२-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)

हरिवंशपुराणम्

अध्यायः ४०

जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा

चत्वारिंशोऽध्यायः

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ००९ में भी यही श्लोक कुछ पदों के अन्तर से है।

गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ॥ 

स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥ २६ ॥ 

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तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।

देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण

                         "ब्रह्मोवाच"

नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।

भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।

•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 

भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

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                             -७३-

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।

यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।

•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।

तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।

स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।

•–तथा उन समस्त असुरों का  संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !

–२०।

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।

जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।

•– विष्णो ! पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 

जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।

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                             -७४-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।

प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।

•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ नीयत खराब हो गयी।।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।

उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

•–तब वरुण मेरे पास आये  और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।

अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था ; वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।

                              -७५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।

चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।

•–  मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।

तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।

अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।

•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।

त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।

•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं

क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

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                           -७६-

             ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।

'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।

•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।

मम गाव:  प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।

•–इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।

मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए  तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।

या आत्मदेवता गावो या: गाव: सत्त्वमव्ययम् ।

लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।।३०।

•–इन गोऔं के देवता साक्षात् पर ब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 

आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।

  

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                               -७७-

               (यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

त्रातव्या: प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।

गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।

•–पहले गोओं की रक्षा करनी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोऐं ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 

गोऔं औ ब्राह्मणों की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।

गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।

•–विष्णु ! जल के स्वामी  वरुण के ऐसा कहने पर  गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।

स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।

•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।

 

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                             -७८-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।

तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।

•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ; तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक में जाऐंगी ।।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।

स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।

•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ  रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।

वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।

गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।

•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो

गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा 

जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।

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                           -७९-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य  कर दायक:।

तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।

•-जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।

अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ  होंगी ।३७।

देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।

सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।

•–बुद्धिमान वसुदेव की  देवकी  और रोहिणी 

दो भार्याऐं होंगी ।

उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।

वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।

•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप  बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये ।

ठीक वाले जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।

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                          -८०-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया ।

तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।

•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।

आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।

•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।

देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।

गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।

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                          -८१-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।

वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।

•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।

बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति ।।४४।

•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक  के रूप में व्रज में निवास करेंगे ।

उस समय सब लोगो आपके हाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे ( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।

त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।

गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५

•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।

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                          - ८२-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।

मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति के त्वयि ।। ४६।

•–जब  आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।

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                               -८३-

                 (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

  जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।

यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।

•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकर पुकारे जाने पर

आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: 

कश्यपादृते।

का चधारयितुंशक्ता

 त्वां विष्णो अदितिं विना।।४८।

•–विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?

देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।

वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए ,

हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।

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                             -८४-

                (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

                    "वैश्म्पायन उवाच"

स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।

जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।

•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।

त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।

•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।

आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।

•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।

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                            -८५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।

(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇

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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।

गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।

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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।

 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 

(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

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                           -८६-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।

और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।

हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 

पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !

देखें उस सन्दर्भ को ⬇

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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।

भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।

अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 

अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।

 और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।

यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 

अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है ।

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                        -८७-

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 

निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

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 गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् । 

स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९। 

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ?  अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९। 

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य 

तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में  यह श्लोक वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवें अध्याय पर है।

तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥


कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥


कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥


देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥


                    (राजोवाच)

किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥


कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥

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निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥


स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे ।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥


प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥


कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥


दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥


लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥ ५१ ॥


स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥ ५२ ॥


किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ॥ ५३ ॥


गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ॥


दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः ॥ ५५ ॥


प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥


सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना ॥ ५७ ॥


तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥


कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥ ५९ ॥


स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान् ।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६० ॥

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२।

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देवी भागवत पुराण में भी कश्यप का वसुदेव गोप के रूप में अपनी पत्नीयों के साथ गोकुल में अवतरित होना
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इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ का २३वाँ श्लोक देखें निम्न

कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥ २३ ॥



                (व्यास उवाच)
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥ १ ॥


वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २ ॥


एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥


वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

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किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे ॥ ५ ॥


भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥


मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥


              (  व्यास उवाच ! )
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥


कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥


जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥


अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥


कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया ॥ १२ ॥


धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥


संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥


ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥

_____________________________


अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥ १६ ॥


                (व्यास उवाच)
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ 


रथारुढस्ततोऽक्रूरः क्षणान्नन्दपुरं गतः ।
घोषेषु सबलं कृष्णमागच्छंतं ददर्श ह ॥ १० ॥

(गर्ग संहिता  मथुरा खण्ड तृतीय अध्याय)

रथ पर  सबार अक्रूर  उसके  नन्द गाँव गये

घोषों में बलवान कृष्ण को आते हुए  देखा !

घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम् ॥
 सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे ॥११

इति श्रीगर्गसंहितायां हयमेधखण्डे
रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥

घोष युवतियों का वर्णन किया है|

शूराभीराश्च दरदाः काश्मीराः पशुभिः सह ६२
खांडीकाश्च तुषाराश्च पद्मगा गिरिगह्वराः
आद्रेयाः सभिरादाजास्तथैव स्तनपोषकाः ६३
द्रोषकाश्च कलिंगाश्च किरातानां च जातयः
तोमरा हन्यमानाश्च तथैव करभंजकाः ६४
एते चान्ये जनपदाः प्राच्योदीच्यास्तथैव च
उद्देशमात्रेण मया देशाः संकीर्तिता द्विजाः
यथागुणबलं चापि त्रिवर्गस्य महाफलम् ६५
इति श्रीपाद्मे महापुराणे स्वर्गखंडे षष्ठोऽध्यायः ६

_____________________________

अन्ये हूणाः किराताश्च पुलिंदाः पुष्कसास्तथा
आभीराय वनाः कंकाः खसाद्याः पापयोनयः २०।

(पद्म पुराण पाताल खण्ड)

इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये

एकाशीतितमोऽध्यायः (८१)

महाभारतम्-16-मौसलपर्व-009
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षोडशपर्व
महाभारतम्-16-मौसलपर्व-009
वेदव्यासः
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अर्जुनेन व्यासाश्रमे तद्दर्शनम्।। 1 ।।
तस्मिन्द्वारकावृत्तान्तनिवेदनम्।। 2 ।।
व्यासेनार्जुनंप्रति युधिष्ठिरादीनामपि स्वर्गगमनसूचनम्।। 3 ।।
ततोऽर्जुनेन हास्तिनपुरमेत्य युधिष्ठिरे द्वारकावृत्तान्तादिनिवेदनम्।। 4 ।।

वैशम्पायन उवाच।16-9-1x
प्रविश्य त्वर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः।
ददर्शासीनमेकान्तो मुनिं सत्यवतीसुतम्।।
16-9-1a
16-9-1b
स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम्।
अर्जुनोस्मीति नामास्तै निवेद्याभ्यवदत्ततः।।
16-9-2a
16-9-2b
स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः।
आस्यतामिति होवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः।।
16-9-3a
16-9-3b
तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनःपुनः।
निर्विष्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम्।।
16-9-4a
16-9-4b
नखकेशदशाकुंभवारिणा किं समुक्षितः।
आवीरजानुगमनं ब्राह्मणो वा हतस्त्वया।।
16-9-5a
16-9-5b
युद्धे पराजितो वाऽसि दतश्रीरिव लक्ष्यसे।
न त्वां प्रभिन्नं जानामि किमिदं भरतर्षभ।
श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षश्रिप्रमाख्यातुमर्हसि।।
16-9-6a
16-9-6b
16-9-6c
अर्जुन उवाच।16-9-7x
यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पङ्कजलोचनः।
स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः।।
16-9-7a
16-9-7b
`तदनुस्मृत्य संमोहं तदा शोकं महामते।
प्रयामि सर्वदा मह्यं मुमूर्षा चोपजायते।।
16-9-8a
16-9-8b
तद्वाक्यस्पर्शनालोकसुखं चामृतसन्निभम्।
संस्मृत्य देवदेवस्य प्रमुह्यित्यमृतात्मनः।।'
16-9-9a
16-9-9b
मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः।
बभूव वीरान्तकरः प्रभासे रोमहर्षणः।।
16-9-10a
16-9-10b
एते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः।
भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि।।
16-9-11a
16-9-11b
गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः।
त एरकाभिर्निहताः पश्य कालस्य पर्ययम्।।
16-9-12a
16-9-12b
हतं पञ्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम्।
निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम्।।
16-9-13a
16-9-13b
पुनःपुनर्न मृष्यामि विनाशममितौजसाम्।
चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः।।
16-9-14a
16-9-14b
शोषणं सागरस्येव मन्दरस्येव चालनम्।
नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च।।
16-9-15a
16-9-15b
अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः।
न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः।।
16-9-16a
16-9-16b
इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद्वै तपोधन।
मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः।।
16-9-17a
16-9-17b
पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन्सहस्रशः।
आभीरैरभिभूयाजौ हृताः पञ्चनदालयैः।।
16-9-18a
16-9-18b
धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे।
यथापुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाऽभवत्।।
16-9-19a
16-9-19b
अस्त्राणि मे प्रनष्टानि विविधानि महामुने।
शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः।।
16-9-20a
16-9-20b
पुरुषस्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः।
चतुर्भुजः पीतवासाः श्यामः पद्मदलेक्षणः।।
16-9-21a
16-9-21b
यश्च याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः।
प्रदहन्रिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमद्य तम्।।
16-9-22a
16-9-22b
येन पूर्वं प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा।
शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चादशातयम्।।
16-9-23a
16-9-23b
तमपश्यन्विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम।
परिनिर्विण्णचेताश्च शान्तिं नोपलभेऽपि च।।
16-9-24a
16-9-24b
`देवकीनन्दनं देवं वासुदेवमजं प्रभुम्।'
विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे।।
16-9-25a
16-9-25b
श्रुत्वैव हि गतं विष्णुं ममापि मुमुहुर्दिशः।
प्रनष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः।।
16-9-26a
16-9-26b
उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम।।16-9-27a
व्यास उवाच।16-9-28x
`देवांशा देवभूतेन सम्भूतास्ते गतास्सह।
धर्मव्यवस्थारक्षार्थं देवेन समुपेक्षिताः'।।
16-9-28a
16-9-28b
ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकसमहारथाः।
विनष्टाः कुरुशार्दूल न ताञ्शोचितुमर्हसि।।
16-9-29a
16-9-29b
भवितव्यं तथा तच्च दिष्टमेतन्महात्मनाम्।
उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम्।।
16-9-9a
16-9-9b
त्रैलोक्यमपि गोविन्दः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम्।
प्रसहेदन्यथा कर्तुं कुतः शापं महात्मनाम्।।
16-9-31a
16-9-31b
`स्त्रियश्च ताः पुरा शप्ताः प्रभासे कुपितेन वै।
अष्टावक्रेण मुनिना तदर्थं त्वद्बलक्षयम्।।'
16-9-32a
16-9-32b
रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः।
तव स्नेहात्पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः।।
16-9-33a
16-9-33b
कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः।
मोक्षयित्वा तनुं प्राप्तः कृष्णः स्वस्थानमुत्तमम्।।
16-9-34a
16-9-34b
त्वयाऽपीह महत्कर्म देवानां पुरुषर्षभ।
कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज।।
16-9-35a
16-9-35b
कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान्कुरुपुङ्गव।
गमनं प्राप्तकालं व इदं श्रेयस्करं विभो।।
16-9-36a
16-9-36b
बलं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत।
भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये।।
16-9-37a
16-9-37b
कालमूलमिदं सर्वं जगद्बीजं धनंजय।
काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया।।
16-9-38a
16-9-38b
स एव बलवान्भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः।
स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः।।
16-9-39a
16-9-39b
कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम्।
पुनरेष्यन्ति ते हस्तं यदा कालो भविष्यति।।
16-9-40a
16-9-40b
कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत।
एतच्छ्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ।।
16-9-41a
16-9-41b
वैशम्पायन उवाच।16-9-42x
एतद्वचनमाज्ञाय व्यासस्यामिततेजसः।
अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम्।।
16-9-42a
16-9-42b
प्रविश्य च पुरीं वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम्।
आचष्ट तद्यथावृत्तं वृष्ण्यन्धककुलं प्रति।।
16-9-43a
16-9-43b
।। इति श्रीमन्महाभारते
शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां
मौसलपर्वणि नवमोध्यायः।। 9 ।।
।। मौसलपर्व समाप्तम् ।।
--------
अस्यानन्तरं महाप्रस्थानिकं पर्व भविष्यति
तस्यायमाद्यः श्लोकः।
जनमेजय उवाच।
0
एवं वृष्ण्यन्धककुले श्रुत्वा मौसलमाहवम्।
पाण्डवाः किमकुर्वन्त तथा कृष्णे दिवं गते।। 1 ।।
इदं मौसलपर्व कुंभघोणस्थेन
टी.आर्. कृष्णाचार्येण टी. आर्. व्यासाचार्येण च
मुम्बय्यां निर्णयसागरमुद्रायन्त्रे मुद्रापितम्।
शकाब्दाः 1832 सन 1910.।


प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥

सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्य दायादास्त्रयः परमधार्म्मिकाः॥ १३.१५४ ॥

हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५ ॥

धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥ १३.१५७ ॥

दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥ १३.१५८ ॥

कुतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः॥ १३.१५९ ॥

योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा॥ १३.१६० ॥

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्॥ १३.१६१ ॥

तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥ १३.१६२ ॥

अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्॥ १३.१६३ ॥

संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥ १३.१६४ ॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥ १३.१६५ ॥

तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥ १३.१६६ ॥


प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥

सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्य दायादास्त्रयः परमधार्म्मिकाः॥ १३.१५४ ॥

हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५ ॥

धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥ १३.१५७ ॥

दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥ १३.१५८ ॥

कुतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः॥ १३.१५९ ॥

योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा॥ १३.१६० ॥

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्॥ १३.१६१ ॥

तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥ १३.१६२ ॥

अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्॥ १३.१६३ ॥

संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥ १३.१६४ ॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥ १३.१६५ ॥

तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥ १३.१६६ ॥

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अघोरघोररूपाय घोराघोरतराय च।
नमः शिवाय शान्तायः नमः शान्ततमाय च॥ ४०.२४ ॥

नमो बुद्धाय शुद्धाय संविभागप्रियाय च।
पवनाय पतङ्गाय नमः सांख्यापराय च॥ ४०.२५ ॥
(ब्रह्म पुराण ४०वाँ अध्याय)

सुदुष्प्रापं विमूढानां मां कुयोगनिषेविणाम्।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तम॥ ५६.३५॥

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः॥ ५६.३६॥
(ब्रह्म पुराण ५६वाँ अध्याय)

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैः
गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ४९
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २०वाँ अध्याय)

प्रस्तुति करण:-

धन्यवाद ! यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219

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