रडुओं का क्या हाल होता है भक्तो
सुनो- क्वार कनागत कुत्ता रोवे।
तिरिया रोवे तीज त्यौहार ।
आधी रात पै रडुआ रोवे
सुनके पायल की झंकार ।।
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भावार्थ:- अश्वनी मास अर्थात क्वार के महीने में जब कनागत आते हैं यानी सूर्य कन्या राशि में आता है तब श्राद्ध पक्ष में कुत्तों की और कौवा की बहार तो होती ही है
और आपको पता है कि उस समय कुत्तों का इलेक्शन भी चलता है जिसे शास्त्रीय शैली में कुत्ते -कुत्तियों का मैथुन काल कहते हैं ।
कुत्ते - अक्सर कुत्तियों का खयाल कर करके आकाश की ओर मुख करके रोते हैं।
तब शादी-सुदा लोग इसे अशुभ मानकर कुत्तों को मार कर भगा देते हैं ।
इस लिए कवि कहता है कि "क्वार कनगत कुत्ता रोवे"
और आपने सुना भी होगा कि कोई भी महिला जब अपने मायके आती है या मायके से जाती है तो वह अपने भैया, बबूला औल मइया अथवा स्वर्ग सिधारे हुए परिवार के व्यक्तियों के लिए परम्परागत रूप में रोतीं हैं ।
और यह प्राय: त्योैहार या उत्सवों में होता है ।
ग्रामीण संस्कृतियों में ये परम्पराऐं आज भी अस्तित्व बनाऐ हुए हैं ।
इसी लिए कवि कहता है "तिरिया रोवे तीज त्योैहार"
अर्थात गुजरे हुए भाइयों के लिए या बंधुओं के लिए परंपरागत रूप से महिलाओं का रोना स्वाभाविक भी है है ।
अब बात आती है उन व्यक्तियों की जिन की किसी कारण से शादी नहीं हुई
--जो रढ़ुआ रफाड़े रह गये ।
या भावावेश में सन्यासी बन गये ।
परन्तु यौवन की दुपहरी जिनको तपा रही हो
और --जो बाद में पछता रहे हों !
तो उनके भी प्रेम-सुधा की आकाँक्षा होना स्वाभाविक व प्राकृतिक नियमों के अनुरूप तो है ही
अब यौवन अवस्था में छिप कर सुन्दर महिलाओं को देखते हैं बैचारे , बात बनती नहीं ।
या उन महिलाओं की वाणी में माधुर्य का आभास करते हैं
परन्तु कब तक !
और -जब आधी रात को महिलाओं की पायल का एहसास झींगुर या झिल्ली की आवाज में करके
बैचारे रो पड़ते हैं ।
इसी लिए कवि कहता है कि "आधी रात पै रढ़ुआ रोवे "
सच्चाई तो यही है लोगो परन्तु आप कुछ भी कहो -
भक्तो राँड़ का पुल्लिंग रडुआ है
परन्तु राँड़ संस्कृत रण्डिका का तद्भव रूप है ।
जैसे- हड्डिका से हड़िया शब्द विकसित हुआ ।
कालान्तरण में लोगों ने समझा या हुआ की जवान विधवा वैश्या वृत्ति करने लगीं कहीं कहीं तो फिर तो रूढ़िवादी लोग सब विधवाऔं को ही राँड़ कहने लगे !
यह शब्द के अर्थ की अवनति हुई ।
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