बुधवार, 12 जून 2019

गुज्जर जाट और अहीर समानान्तरण जन-जातियाँ

अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं ।
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा जाट हैं।
अब कुछ जाट तो जो स्वयं को भरत पुर के राजा सूरजमल से जोड़ते हैं ।
जिसका समय सत्रहवीं सदी है ।
राजस्थानी क्षेत्र में भरत पुर में एक सूरजमल की प्रतिमा के निम्न तल में लिखा है की
" यादव वंशी राजा सूरजमल जाट"
चेची गोत्र के गुज्जर लोग को पुष्कर क्षेत्र के राजस्थानी पुरोहितों ने अहीर ही माना ।
राधा चेची गोत्र की कन्या थीं ।
ऐसा भी कुछ गुर्जर मानते हैं ।
नन्द और वृषभानु आदि को यद्यपि पुराणों में यदुवंशी गोप रहा गया है ।
अब हम महाभारत आदि ग्रन्थों से कुछ तथ्य इस विषय में उद् धृत करेते हैं ।👇

महाभारत आदि ग्रन्थों से उद्धृत प्रमाणों द्वारा

प्रथम वार अद्भुत प्रमाणित इतिहास
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दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है

इस इतिहास कार का पूरा नाम अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल-बरुनी या अल बेरुनी था।
यह एक फ़ारसी विद्वान लेखक,  धर्म वेत्ता तथा एवं इतिहास कार था।

अल बेरुनी की रचनाएँ वस्तुत अरबी भाषा में हैं परन्तु उसे अपनी मातृभाषा फ़ारसी के अलावा कम से कम तीन और भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था -
सीरियाई (सामी भाषा ) संस्कृत, और यूनानी आदि।
वो भारत और श्रीलंका की यात्रा पर ईस्वी सन् 1017-20 के मध्य आया था।

और उन्होंने कृष्ण से सम्बद्ध इतिहास का विवरण अपने  ग्रन्थ "तहकीक ए हिन्द"  में लिपिबद्ध किया ।
उन्होंने लिखा "कि भरत पुर के जाट अर्थात् (यदु ) के वंशज हैं ।

अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना..

गुर्जर समाज की नवीन पीढ़ी के लोग आज अपनी इतिहास कुषाण और हूण  जनजातियों में स्थापित करते हैं ।

घोसी अहीरों और गुज्जरों दौनों में हैं ।
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अहीर अपना इतिहास यदुवंश में मानते हैं ।
जो कि सत्य है ।
क्योंकि इनके पूर्वज यदु दास घोषित कर दिये थे ।.... और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिख रहे हैं ।
... वो यदु वंश के कभी नहीं हो सकते हैं ।
वैसे भी पुराणों में राजा का पुत्र को राजा कुमार रूप में अधिक वर्णन किया गया ।
राजपुत्र शब्द क्रत्रिम प्रयोग है ।

यदि वे जाटों या अहीरों से अपना अस्तित्व नहीं मानते हैं तो क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।

जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।

जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये और कुछ भारत में राजपूत अथवा नवी सदी में ठाकुर के रूप में उदित हुए तुर्को के प्रभाव से ठक्कुर(तेक्वुर tekvur
लकब धारण करने लगे ।

... यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं .... _______________________________________________

परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान हैं ... पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।

भारतीय गजेटियरों जादौन अफ्रीया (आभीरिया) से विकसित या समरूपक हैं ।

पश्चिमीय एशिया में यहुदह् को ही यदु कहा गया ... हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये" और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।
दौनों व्युत्पत्ति समानार्थक है ।
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वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं ।

न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये वेदों की छाया या परछाँईं हैं हैं ।।

और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी तक लिखा जाता रहा।

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आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : पाल: गुप्त: यादव - इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है।

अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है,।
यद्यपि इन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया
जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था

गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर:, वल्लभ, आदि बताये गए हैं।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर, अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं।
हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।

वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर, और घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है ।
हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं ।

तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।

आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।

एैसी कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का पूर्व

दुराग्रहों से ग्रस्त मान्यताऐं हैं ।
परन्तु उन ब्राह्मणों ने स्वयं को भारत का आदिवासी घोषित कर दिया है ।

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परन्तु प्रमाण तो यह भी हैं कि अहीर लोग , देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध भारतीय आर्यों से बहुत पहले ही इस भू- मध्य रेखीय देश भारत में आ गये थे, जब भरत नाम की इनकी सहवर्ती जन-जाति निवास कर कहा थी ।
भारत नामकरण भी यहीं से हुआ है...

भारत दक्षिण में रहने वाली एक जंगली या पहाड़ी जाति।
संस्कृत कोश कारों ने भरत के अन्य अर्थ कियेे  २. जंगली। वहशी। ३. शूद्र तथा  भीलों से सम्बद्ध जन-जाति। ४.
ब्राह्मणों को जिस जन-जाति का उत्पत्ति इतिहास पता न हो तो उसे गाय या पहाड़ से से चमत्कारिक ढ़ग से उत्पन्न कर दिया है।
ब्राह्मणों की कल्पना तो देखें कि ये गाय के गोबर से ही मनुष्य उत्पन्न कर देते हैं ।

🐂🐃✍
महाभारत , वाल्मीकि रामायण तथा पुराणों में एक काल्पनिक कथा सृजित करके महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अन्तर्गत अध्याय 174 के अनुसार वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के सन्दर्भ में  विश्वामित्र का पराभव को दर्शाते हुए कहा --

कि एक बार जब विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध हुआ तो वशिष्ठ की गाय नन्दिनी ने  --

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अपनी पूंछ से बारम्बार अंगार की भारी वर्षा करते हुए पूंछ से ही "पह्रवों "की सृष्टि की, और थनों से द्रविड़ो और शकों को उत्‍पन्‍न किया, योनि देश से यवनों और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्‍म दिया।

कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए।
उसके पार्श्‍वभाग से पौण्‍ड्र,(पुण्डीर) किरात, यवन,सिंहल) , बर्बर (बरवारा) और खसों की सृष्टि की।
इसी प्रकार उस गाय ने फेन से चिबुक, पुलिन्‍द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकार के म्लेच्‍छों की सृष्टि की।
इनमें आज ज्यादा कर राजपूतों के रूप में हैं

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छों के गणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्‍छादित थीं।
सबने भाँति-भाँति के आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। उन्‍होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया।
विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को म्लेच्‍छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था।

उस समय अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले।

भरतश्रेष्‍ठ ! क्रोध में भरे हुए होने पर वशिष्ठ सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे। इस प्रकार नंदिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया।
अब पाठक बुद्धिजीवी स्वयं विचार करें कि क्या ये मानवीय सृष्टि प्राकृतिक सिद्धान्त और नियमों के अनुरूप है ?
क्या प्रजनन का यह सिद्धान्त भी प्रमाणित है ?

अन्धों पर शासन करने के लिए कानों (काणों) ने ये कपोल कल्पित कथाऐं बना डाली .
हिन्दुस्तान का दुर्भाग्य इसी प्रकार लिखा जाता रहा ।

अर्थात् शबर जन-जाति का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व में हुआ है।
पुराणों और वाल्मीकि रामायण में भी हुआ ।
और लिखा कि यह एक म्लेच्छ जाति थी, जो वशिष्ठ जी की नंदिनी नामक गाय के गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न हुई थी।
चलो नाम लीजिए कि गाय के गोबर से ये उत्पन्न हुए
तो गाय तो पवित्रों है और उसका गोबर उससे भी पवित्र।
फिर भी ये म्लेच्‍छ हो गये।

पौराणिक कोश  के लेखक: राणा प्रसाद शर्मा ने भी लिखा है

प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |

संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 488

महाभारत आदि पर्व 174.36-37

भरत ही शबर कहलाए और ये ही जुलाहे थे ।

और शम्बर की वंशज जन-जातियाँ हैं ये
भरत वृत्र के अनुयायी हैं।

संस्कृत साहित्य में शवरे तन्तुवाये च  के रूप में इनका वर्णन किया गया है ।

शूद्रों की यूरोपीय पुरातन शाखा स्कॉटलेण्ड में शुट्र (Shouter) थी
स्कॉटलेण्ड का नाम आयर लेण्ड भी नाम था ।

तथा जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी इसी को कहा गया ... स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र आयबेरिया इन अहीरों की एक शाखा की क्रीडा-स्थली रहा है !
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परन्तु इतिहास कारों की अनभिज्ञता कहें या ब्राह्मण वाद का षड्यन्त्र कि जो गुज्जर जन-जाति आभीरों अथवा गोपोंं  की सन्निकट शाखा है ।

उन्हें सूर्य वंशी अथवा रघुवंशी वर्णित कर दिया ।
जबकि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को ये गुर्ज्जरः अपने चैंची गोत्र से सम्बद्ध मानते हैं।
राधा और वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को पुराणों में आभीर कन्या बताया गया है।
वस्तुत ये विरोधाभासी बातें ऐैतिहासिक तथ्यों के सर्वथा विपरीत है

गुर्जर अभिलेखो के हिसाब से ये सूर्यवंशी या रघुवंशी हैं।
इतिहास कारों ने यह अनुमान लगाया जो समीकरण मूलक नहीं ,👇

संस्कृत साहित्य में गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति तल्कालीन सामाजिक गतिविधियों एवं उनकी प्रवृत्ति पर आधारित है
गुर्ज्जरः शब्द वस्तुत संस्कृत गौश्चर: का ही रूपान्तरण एवं परवर्ती तद्भव रूप है ।
प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी कोश में संस्कृत पुराणों के हबाले से गूजर शब्द का विवरण इस प्रकार दिया है👇

संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] [स्त्री० गूजरी, गुजरिया] १. अहीरों की एक जाति । ग्वाला । २. क्षत्रियों का एक भेद ।
संस्कृत कोश कारों के द्वारा उद्धृत👇
गुर्ज्जरः - गौश्चर:
लिङ्गम् प्रकारश्च :पुंल्लिंग
अर्थःसन्दर्भश्च :: (गुर्शत्रुकृतताडनं
बधोद्यमादिकंवाउज्जरयतियोदेशः।कलिङ्गाःसाहसिकाइतिवद्देशस्थजनेलक्षणेतिज्ञेयम् )
गुज्जराटदेशः।

गुर् =शत्रु + उज्जर-(उत्-जर)बधकर्ता = गुर्ज्जरः
वस्तुत यह व्युत्पत्ति केवल वीर प्रवृत्ति-मूलक है।

-जैसे कि अमरकोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की गयी है

🐂🐃🐃🐃आभीरः, पुं, (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ) गोपः । इत्यमरः ॥ आहिर इति भाषा
इति शब्दरत्नावली॥

प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जरों को 'रघुकुल-तिलक' तथा 'रघुग्रामिणी' कहा है।

बस इसी आधार पर गुर्ज्जरः स्वयं को सूर्य वंशी कहने लगे
राज शेखर का समय  (विक्रमाब्द 930- 977 तक) है ।
ये काव्य-शास्त्र के पण्डित थे।
राजशेखर को स्वयं इतिहास बोध नहीं था।

वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मन्त्री थे।

७ वी से १० वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सुर्यवंशी होने की पुष्टि करती हैं। राजस्थान में आज भी गुर्जरों को सम्मान से 'मिहिर' बोलते हैं, जिसका अर्थ 'सूर्य' होता है।

ये गूजरों के इतिहास में भ्रान्ति मूलक अवधारणा है

परन्तु व्रज प्रान्त में मिहिर अथवा महर नन्द का विशेषण है ।
राधा को प्रेम सागर-जैसे 'ब्रजभाषा के ग्रन्थों में महरेटी महार की बेटा कहा गया है ।

यदि इतिहास कारों ने मिहिर शब्द को गुर्ज्जरः जन-जाति के वंश - विश्लेषण का आधार बनाया है।
तो मिहिर मित्र ( सूर्य ) का परवर्ती तद्भव रूप तो है ही परन्तु मिहिर शुद्ध संस्कृत तत्सम शब्द भी है जो चन्द्रमा का भी वाचक है 👇

मिह् धातु में उणादि सूत्र से किरच् प्रत्यय

  मिह--किरच् = मिहिर 👇
१ सूर्य्ये २ अर्कवृक्षे ३ वृद्धे मेदिनीकोश ४ मेघे हेमचन्द्र कोश ५ वायौ, ६ चन्द्रे, विक्रमादित्यसभास्थे नवरत्नमध्यस्थे पण्डितभेदे च शब्दक० ।
तच्चिन्त्यम् । “धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटकर्परकालि- दासः ।

ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य”

ज्योतिर्विदाभरणवाक्ये वराहः

मिहिराइवेत्येव तत्र समासे वराहमिहिर इत्येकः “वराहमिहिरात्मजेन पृथुयशसा” तत्पुत्रकृतषट्पञ्चा- शिकायामुक्तेः द्वित्वे वररुचिना सह दशसंख्यापत्तेश्च ।

संज्ञा पुं० [सं० महत् या महार्ह, हिं० महरा ( बड़ा, श्रेष्ठ)] [स्त्री० महरि] १. व्रज में बोला जानेवाला एक आदर- सूचक शब्द जिसका व्यवहार विशेषतः जमींदारों और वैश्यों आदि के संबंध में होता है।

(कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल श्रीकृष्ण के पालक और पिता नंद के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है)।

उदाहरण—महर निनय दोउ कर जोरे
घृत मिष्टान षय बहुत मनाया।—सूरदास (शब्द०)।

(ख) फूर आभलाषन को चाखने के माखन लै
दाखन मधुर भरे महर मंगाय रे।—दीन (शब्द०)।

(ग) व्रज की विरह अरु संग महर की कुवरिहि वरत न नेकु लजान।—तुलसी (शब्द०)।

२. एक प्रकार का पक्षी। उ०— सारो सुवा महर कोकिला। रहसत आइ पपीहा मिला।—जायसी (शब्द०)।

३. देखें ' महरा '।  नाऊ बारी महर सब, धाऊ धाय समेत।—रघुराज (शब्द०)।

  'महरि'। उ०—करे नन्द जसोदा महरी।

पल भर कृष्ण राख ना बहरी।—कबीर साहित्य, पृ० ४४।

[हिन्दी की व्रज बोली में महर ] एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार ब्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के संबंध में होता है। विशेष—कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल यशोदा के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है।जैसा कि लल्लूलाल कृत प्रेम-सागर में नन्द महर !

२. गृहस्वामिनी। मालकिन। घरवाली। उदाहरण—बाल बोलि डहिक बिरावत चरित लखि गोपीगन महरि मुदित पुलकित गात।— तुलसी दास  (शब्दावली)।

३. ग्वालिन नामक पक्षी। दहिंगल। उदाहरण—

दही दही कर महरि पुकारा।
हारिल विनवइ आपु निहारा।— जायसी (शब्द०)।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुर्जर मध्य एशिया के कॉकेसस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे।

कुछ विद्वान इन्हे विदेशी भी बताते हैं क्योंकि गुर्जरों का नाम एक अभिलेख में हूणों के साथ कज्जर रूप में मिलता है, परन्तु इसका कोई एतिहासिक प्रमाण नहीं है।

संस्कृत के कुछ रूढ़िवादी विद्वानों के अनुसार, गुर्जर शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'शत्रु का नाश करने वाला' अर्थात 'शत्रु विनाशक' होता है। -जैसा कि हमने राजशेखर के सन्दर्भ में उद्धृत किया।

प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य में दहाड़ता गुर्जर कह कर सम्बोधित किया है।

कुछ इतिहासकार कुषाणों को गुर्जर बताते हैं तथा कनिष्क के "रबातक" शिलालेख पर अंकित 'गुसुर' को गुर्जर का ही एक रूप बताते हैं।
उनका मानना है कि गुशुर या गुर्जर लोग विजेता के रूप में भारत में आये क्योंकि गुशुर का अर्थ 'उच्च कुलीन' होता है।
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गुर्ज्जरः जन-जाति  जिस प्रकार पौराणिक पात्र राधा और गायत्री को अपनी कुल देवी मानते हैं ।

वह उनके अहीरों से सम्बद्ध होने का पौराणिक आधार है

परन्तु पुराणों में गायत्री और राधा को आभीर कन्या ही कहा है 🙏

                      ।सावित्र्युवाच।लक्ष्मीर्नाद्यापिचायातिसतीनैवेहदृश्यतेबृहदाग्रायणेहूताशक्राणीगच्छतीत्विह।नाहमेकाकिनीयास्येयावन्नायान्तिताः

स्त्रियः॥
ब्रूहिगत्वाविरिञ्चिन्तं तिष्ठत्विहृमुहूर्त्तकम्॥वदमानांतथाध्वर्य्युस्त्यक्त्वादेवमुपागमत्।सावित्रीव्याकुलादेवीप्रसक्तागृहकर्म्मणि॥सख्योनाभ्यागतायावत्तावन्नागमनंमम।एवमुक्तोऽस्मिवैदेव !कालश्चाप्यतिवर्त्तते॥यश्चयोम्यंभवेदत्रतत्कुरुष्वपितामह !एवमुक्तेतदावाक्यंकिञ्चित्कोपसमन्वितः॥पत्नीञ्चान्यांमदर्थन्तुशीघ्रं त्वञ्चसमानय।प्रवर्त्ततेयथायज्ञःकालहीनोनजायते॥तथाशीघ्रंविधेहित्वंनारींकाञ्चिदुपानयएवमुक्तस्तथाशक्रोगत्वासर्व्वंधरातलम्स्त्रियोदृष्टास्तुयास्तेन सर्व्वास्तास्तुपरिग्रहाः।

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आभीरकन्यासुरूपासु

भाषाचारुलोचना॥

ददर्शतांसुचार्व्वङ्गीं कमलायतलोचनाम्।

कासिकस्यकुतश्चत्वमागतासुभ्रु !
कथ्यताम्॥एकाकिनीकिमर्थञ्चवीथिमध्येऽवतिष्ठसे।

रूपान्विताचसाकन्या

शक्रंप्रोवाचवेपती॥

गोपकन्याअहंवीर !

बात जब जाटों की होती है तब भी इनके इतिहास को भ्रान्ति मूलक प्रारूप दिया जाता है ।
भारतीय परम्परागत  किंवदन्तियों में जाटों को यदु वंश से सम्बद्ध किया जाता है
और हिन्दी कोश ग्रन्थों में यादव - जादव - जाडव - जाडु तथा जड्ड / जट्ट के रूप में जाट शब्द का विकास क्रम दर्शातया जाता है ।
यज्ञ शब्दः का विकास यज् धातु मूलक है और
यदु शब्द भी यज् धातु मूलक है ।
यष्टि और यदु दौनों शब्द यज् धातु मूलक हैं _________________________________________
प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी कोश में वर्णन है👇
संज्ञा पु० [सं० यष्टि अथवा सं० यादव, > जादव > जाडव > जाडअ > जाटअ > जाट] :-
१. भारतवर्ष की एक प्रसिद्ध जाति जो समस्त पंजाब, सिंध, राजपूताने और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में फैली हुई है ।

विशेष—इस जाति के लोग संख्या में बहुत अधिक हैं और भिन्न भिन्न प्रदेश में भिन्न भिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं ।
इस जाति के अधिकांश आचार व्यवहार आदि राजपूतों से मिलते जुलते होते हैं ।
कहीं कहीं ये लोग अपने को राजपूतों के अंतर्गत भी बतलाते हैं । राजपूतों के ३६ वंशों में जाटों का भी नाम आया है ।
कुछ देशों में जाटों और राजपूतों का बिवाह संबंध भी होता है ।

पर कहीं कहीं के जाटों में विधवा विवाह और सगाई की प्रथा भी प्रचलित है ।
जाटों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं ।
कोई कहता है कि इनकी उत्पत्ति शिव की जटा से हुई; और कोई जाटों को यदुवंशी और जाट शब्द को यदु या यादव से संबंद्ध बतलाता है ।
अधिकांश जाट खेती बारी से ही अपना निर्वाह करते हैं । पंजाब, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान में बहुत से मुसलमान जाट भी हैं ।
२. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना ।
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आयरिश भाषा और संस्कृति का समन्वय प्राचीन फ्रॉन्स की ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड संस्कृति से था ।
ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटॉन् भी इसी संस्कृति से सम्बद्ध थे ।
महाभारत में वर्णन है कि "जाट" "वाहीक" अथवा बाह्लीक देश के निवासी थे जिन्हें महाभारत में "जर्तिका" कहा ।

इसी सन्दर्भ में जट्ट जन-जाति का उल्लेख भी है जिसे जर्तिका नाम से अभिहित किया है ।
जट्टिया चमारों का आह्वावान प्राचीन भारत के के इतिहास कार देवी दास ने दिल्ली के एक सामाजिक सम्मेलन में किया और उन्हें जाटव नाम दिया ।
यह समय सन 1922 ईस्वी का है ।

यद्यपि जाट और जट्ट अलग अलग थे ।
जाटों का सम्बन्ध यदुवंश से रहा परन्तु जट्ट अपने को ईरानीयों से ही सम्बद्ध मानते रहे ।
-जैसे गौश्चर और जोर्जियस् --जो बाद में गुर्ज्जरः या गूजर कहलाए

परन्तु गूजर अहीरों की शाखा के रूप में आठवीं सदी से पूर्व थे ।
कालान्तरण में गूजरों का अलग इतिहास बनने लगा ।
और अहीरों का अलग ..
ऐसे ही जाट और जट्ट (जर्तिका) जन-जाति का सम्बन्ध रहा है ।
सम्भवत: ये पूर्व में समानार्थक नस्ल के हों !
जाटों को भारतीय संस्कृत कोश कार तथा मध्यकालीन इतिहास कार यादवों का एक समुदाय मानते हैं ।
अब महाभारत के लेखक ने ई०पू० पञ्चम् सदी का वर्णन किया है कि वाहीकों के रूप में
अधिकतर जट्ट (जर्तिका) जन-जाति का
जाट यद्यपि 36 राज्यकुलों की सूची में जित वा जाट ने भी स्थान पाया है परन्तु  न तो कोई इन्हें राजपूत मानता है और ना इनका किसी राजपूत जाति के साथ विवाह होना पाया जाता है या भारत भर में फैले हुए हैं इनमें भरतपुर के राजा प्रसिद्ध है ।

शेष लोग खेती बाड़ी का काम करते हैं उनके संस्कार भी लोप हो गए हैं तथा इनमें कण्व भी होता है इस कारण उत्तम कक्षा से गिर जाते हैं ।
पंजाब में ये जिट कहे जाते हैं इनकी जाति व आदि निवास स्थान सिंध नदी के पश्चिम तरफ के देश माने गए हैं ।
महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका नाम की जाति ही आज कल के जाट हैं।
यह आभीरों की ही शाखा है --जो शॉलोमन( शल्य) के साथ उनकी सेना में यौद्धा थे ।

और इनको यदुवंश से निकला हुआ मानते हैं ।
अंग्रेज विद्वान टाड साहब इनको मध्य-एशिया तथा चीन की यूची या यूटी शाखा में मानते हैं यह तक्षक की शाखा भी माने जाते हैं तथा दन्तकथा से महादेव जी की जटा से कोई इनकी उत्पत्ति मानते हैं ।
--जो कि कल्पना प्रसूत है ।

पर एक शिलालेख में पाया जाता है कि जिटवंशी राजा की माता यदुकुल की थी जिसके कारण इनको 36 राजकुलों में भव्य स्थान मिला है ।
ईसा की पांचवी शताब्दी में यह पंजाब में बस गए थे ।
और सन 440 ईसवी में राज करना भी पाया जाता है।

टाडसाहब का कहना है कि "जब यादव लोग शालिवाहन पुर से  बाहर हुए तब सतलज नदी उतरकर मरुस्थल में दाहिया और जोहिया जन-जातियों के सहवर्ती  हुए वहां देरावल राजधानी स्थापित की और यहीं से किसी दबाव के कारण उन्होंने यदु नाम छोड़कर जाट नाम धारण कर लिया ""

यदुकुल के इतिहास में जाटों की बीस शाखा पाई जाती हैं यह लोग बड़े वीर होते हैं इन्होंने महमूद गजनवी का मुकाबला भी किया।

ईस्वी सन 971-1020 के समय में  इनका निवास सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे पर था महाराज रणजीतसिंह इसी वंश में थे इस जाति के अकाली नाम धारियों में अभी तक चक्र धारण किया जाता है जिसका व्यवहार भगवान कृष्ण चंद्र जी ने स्वयं किया।
चौधरी का तत्सम चक्रधारि चक्कधारि चौधारी-है।
यदुवंशीयों में जाटों और अहीरों में चौधरी उपाधि
उनके चक ( भू-खण्डों) के धारक होने से भी है
चौधरी उपाधि जमींदारों की है ।

वास्तव में ब्राह्मणों ने  जाटों और जटों को शूद्र और हेय वर्णित किया है।
जैसा कि आपने अभी महाभारत के कर्ण पर्व में देखा-

गुरू नानक के सिख धर्म को अपनाया और ये पंजाब, पाकिस्तान में बहुतायत से हैं ।
ज्यादातर जट्ट इस्लामीय शरीयत के परस्तिश हो गये
ये जट्ट  स्वतन्त्र विचारों के होते हैं ।

इनकी स्त्रीयाँ सुन्दर डील डौल वाली, लम्बी और सुन्दर ईरानी नस्ल की होती हैं ।
महाभारत में ईरानी प्रदेश मीदिया (मद्रदेश) के शासक शल्य के शासन में  थे ।
वास्तव में शल्य शोलोमन का रूपान्तरण है ।
जिसकी सेना में इज़राएल के अहीर यौद्धा होते थे ।

महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका जन-जाति का वर्णन है जिनका तादात्म्य-एकरूपता जट्ट जन-जाति से है ।👇

बहष्कृता हिमवता गङ्गया च बहिष्कृता ।
सरस्वत्या यमुनयाकुरुक्षेत्रेण चापि ये ।6।

पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां ये८न्तराश्रिता :।
तान् धर्मबाह्यानशुचीन् वाहीकानपि वर्जयेत्।7।

गोवर्धनो नाम वट: सुभद्रं नाम चत्वरम् ।
एतद् राजकुलद्वारमाकुमारात् स्मराम्यहम् ।।8।

कार्येणात्यर्थगूढेन वाहीकेषूषितं मया ।
तत एषां समाचार: संवासाद् विदितो मम ।।9।

शाकलं नाम नगरमापगा नाम निम्नगा ।
जर्तिका नाम वाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम् ।।10।

धाना गौड्यासवं पीत्वा गोमांसं लशुनै: सह ।
अपूप मांस वाट्यानामाशिन शीलवर्जिता : ।11।

गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवासस: ।
नगरागारवप्रेषु बहिर्माल्यानुलेपना: ।12।

मत्तावगीतैर्विविधै: खरोष्ट्रनिनपदोपमै:।
अनावृता मैथुने ता: कामाचाराश्च सर्वश:।13।

आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कटा:।
हे हते हे हतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च ।14।

आक्रोशन्त्य: प्रनृत्यन्ति व्रात्या: पर्वस्वसंयता:।
तासां किलावलिप्तानां निवससन् कुरुजांगले ।15।

कश्चिद् वाहीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ।
सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।16।

मामनुस्मरती शेते वाहीकं कुरुजांगले।
शतद्रुकामहं तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम् ।17।

गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलशंखा शुभा : स्त्रिय:।
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(महाभारते कर्णपर्वणि चतुश्चत्वारिंशो८ध्याय:)
(महाभारत कर्णपर्व चबालीसवाँ अध्याय)

" जो प्रदेश हिमालय ,गंगा ,सरस्वती ,यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर है।
तथा जो सतलज, ब्यास ,रावी, चिनाव ,और झेलम इन पाँचो एवं छठी सिंध नदी के बीच में स्थित है ।
उन्हें बाहीक कहते हैं वह धर्म से बाहर और अपवित्र हैं उन्हें त्याग देना चाहिए ।6-7।

गोवर्द्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा यह दोनों वहां के राज भवन के द्वार पर स्थित हैं।
जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता  हूँ।8।

कर्ण कहता है शल्य से कि मैं अत्यन्त गुप्त कार्य बस कुछ दिनों तक बाल्हीक देश में रहा था ;
इससे वहां के निवासियों के संपर्क में आकर मैंने उनके आचार विचार की बहुत सी बातें जान ली थी।9 ।

वहां (साकल) स्यालकोट- नामक एक नगर और आपगा  नाम की एक नदी है जहां जर्तिका( जट्ट) नाम वाले वाहीक निवास करते हैं उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है ।10।

वह भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं।

पुआ ,मांस और बाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार से शून्य हैं ।11।

वहां की स्त्रियां बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करने वाली मतवाली और नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदीवारीयों के पास गाती और नाचती हैं ।12।

गधों के रैंकने और ऊंटों के बलबलाने की सी आवाजों से मतवाले पन में ही भाँति भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन काल में भी पर्दे के भीतर नहीं रहती हैं।
वह सब की सब सर्वथा स्वैच्छाचारिणी होती हैं।13।

मद से उन्मत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वो एक दूसरे को कहती हैं मजाक करते हुए "घायल की हुई " किसी की मारी हुई"
हे पति मर्दते !
-जैसे मजाक में  
इत्यादि कह कर पुकारती और नृत्त करती हैं पर्व और त्योहारों के अवसर पर तो उन नृत्य करती हुई संस्कार हीन रमणियों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है।।।14।

उन्हीं वाहिक देशीय  मदमस्त  एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई संबंधी वहां से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था ।
वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था ।15।

निश्चय ही वह लम्बी गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ वाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी ।16।

मैं कब सतजल और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुंचकर शंख की बनी हुई मोटी मोटी चूड़ियों को धारण करने वाली वहां की सुंदर स्त्रियों को देखूंगा ।17।

जिनके नेत्रों के प्रांत भाग मैनसिल के आलेपन से उज्जवल हैं दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं  तथा जिन के सारे अंग कंबल और मृग चरम से अावृत हैं वे गोरे रंग वाली प्रियदर्शना और मृदंग ,ढोलक ,और शंख,और मर्दल बाजों की धुन के साथ साथ कब नृत्य करती दिखाई देगी ।18।
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बाह्लीक:–  कांबोज के उत्तरीय  प्रान्त का प्राचीन नाम जहाँ आजकल बलख है।
बाह्लीक को कुछ विद्वान कुरू वंशी यादवों कुरुष मानते हैं ।
विशेष—यह स्थान काबुल से उत्तर की ओर पड़ता है। इसका प्राचीन पारसी नाम बक्तर है ।
जिससे यूनानी शब्द बैक्ट्रिया बना है।

वाहीक महाभारत काल में पंजाब के आरट्ठ देश का ही एक नाम था।
यहाँ के निवासियों को महाभारत, कर्णपर्व में भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात बताया गया है।

वाहीक नाम की उत्पत्ति नमहा इस प्रकार कही गई है-

'वहिश्चनाम हीकश्च विपााशायां पिशाचकौ तयोरप्यं वाहीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।'

अर्थात "विपाशा नदी में दो पिशाच रहते थे, 'वहि' और 'हीक'। इन्हीं दोनों की संतान 'वाहीक' कहलाती है।"

पिशाच जाति का प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है।
पैशाची भाषा में ग्रंथों की रचना भी हुई है।
जैसे-गुणाढ्य की वृहदकथा ।

यह भी माना जाता है कि देव-संस्कृति अनुयायीयों के आने के पूर्व कश्मीर में पिशाच और नाग जातियों
(नागालेण्ड के मूल नवासी )का निवास था।

जान पड़ता है कि वाहीक, 'बाह्लिक' या 'बाह्लीक' का ही रूपान्तरण है, जो मूल रूप से बल्ख या बेक्ट्रिया का प्राचीन भारतीय नाम था।

यहीं के लोग कालांतर में पंजाब और निकटवर्ती क्षेत्रों में आकर बस गये थे।

ईरानीयों की संस्कृतियों से ये प्रभावित थे
ये अपने  रीति रिवाजों के कारण उस समय -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों में अनादर की दृष्टि से देखे जाते थे।

वाहीकों का मुुख्य नगर शाकल (श्यालकोट)था, जहां 'जर्तिक' (जट्ट) नाम के वाहीक रहते थे-

'शाकलं नाम नगरमापगाा नाम निम्नगा,
जर्तिकानामवाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।'
(महाभारत)
सियालकोट वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के उत्तर-पूर्व में स्थित सियालकोट जिले का मुख्यालय एवं सैनिक छावनी है।
नगर उत्तरी-पश्चिमी रेलमार्ग पर लाहौर से १०० किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है।
यह नगर अनेक व्यवसायों एवं उद्योगों का केंद्र है।
नगर में १०वीं शताब्दी के एक किले के भग्नावशेष हैं जो एक टीले पर खड़े हैं।

वाहीक का अर्थ बाह्य या विदेशी भी हो सकता है, किंतु अधिक संभव यही जान पड़ता है कि यह शब्द, जिसकी काल्पनिक या लोक प्रचलित व्युत्पत्ति महाभारत के उपर्युक्त उद्धरण में बताई गई है, वस्तुतः बाह्लिक या फ़ारसी बल्ख का ही रूपान्तरण है।

फ़ारसी एक भाषा है जो ईरान, ताज़िकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और उज़बेकिस्तान में बोली जाती है। यह तीन देशों की राजभाषा है और इसे क़रीब 7.5 करोड़ लोग इस्तेमाल करते हैं।

यह हिन्द यूरोपीय भाषाई परिवार की हिन्द ईरानी (इण्डो ईरानियन) शाखा की ईरानी उपशाखा का सदस्य है और इसमें क्रियापद वाक्य के अंत में आता है।
फ़ारसी संस्कृत से क़ाफ़ी मिलती-जुलती है, और उर्दू (और हिन्दी) में इसके कई शब्द प्रयुक्त होते हैं।
ये फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है।

अंग्रेज़ों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी भाषा का प्रयोग दरबारी कामों तथा लेखन की भाषा के रूप में होता है।
संस्कृत से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
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प्रस्तुति-करण:-यादव योगेश कुमार "रोहि
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परन्तु पाँचवी-सदी में जर्मन जाति से सम्बद्ध एेंजीलस शाखा ने इनको परास्त कर ब्रिटेन का नया नाम आंग्ललेण्ड देकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया --- भारत के नाम का भी ऐसा ही इतिहास है ।
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आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- " अभित: ईरयति इति आभीर " के रूप में भी मान्य है । इनका तादात्म्य यहूदीयों के कबीले अबीरों (Abeer) से प्रस्तावित है ।

"( और इस शब्द की व्युत्पत्ति- अभीरु के अर्थ अभीर से प्रस्तावित है--- जिसका अर्थ होता है ।जो भीरु अथवा कायर नहीं है ,अर्थात् अभीर 
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इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है ।
इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है । जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है । कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर : इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है ।
अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है । यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ... तत्कालीन ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित आडम्बर का विरोध किया ।

अत: ये ब्राह्मणों के चिर विरोधी बन गये और ब्राह्मणों ने इन्हें दस्यु ही कहा "
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बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुआ बताया है , वह भी यवन (यूनानीयों)के साथ ... देखिए कितना विरोधाभासी वर्णन है ।
फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गया.... और वह भी गोपिकाओं को लूटने वाले .. _________________________________________________

जबकि गोप को ही अहीर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में.. इधर उसी महाभारत के लेखन काल में लिखित स्मृति-ग्रन्थों में व्यास-स्मृति के अध्याय १ के श्लोक संख्या ११---१२ पर गोप, कायस्थ ,कोल आदि को इतना अपवित्र माना, कि इनको देखने के बाद तुरन्त स्नान करना चाहिए.. ________________________________________________

यूनानी लोग भारत में ई०पू० ३२३ में आये और महाभारत को आप ई०पू० ३०००वर्ष पूर्व का मानते हो.. फिर अहीर कब बाहर से आये ई०पू० ३२३ अथवा ई०पू० ३०००में .... भागवत पुराण में तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार माना लिया गया है । जबकि वाल्मीकि-रामायण में राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं । राम का और बुद्ध के समय का क्या मेल है ? अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में राम कहते हैं--जावालि ऋषि से---

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यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि

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बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया..... फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये....
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किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा:
आभीर शका यवना खशादय :।
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:
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श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८
वास्तव में एैसे काल्पनिक ग्रन्थों का उद्धरण देकर जो लोग अहीरों(यादवों) पर आक्षेप करते हैं ।
नि: सन्देह वे अल्पज्ञानी व मानसिक रोगी हैं .. वैदिक साहित्य का अध्ययन कर के वे अपना उपचार कर लें ...

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हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ---वीर अथवा शक्तिशाली (Strong or brave) आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था, तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था। वृत्य अथवा वार्त्र भरत जन-जाति जो वृत्र की अनुयायी तथा उपासक थी । जिस वृत्र को कैल्ट संस्कृति में ए-बरटा (Abarta)कहा है । जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं । तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं
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यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था । और इन्हें दास -(दक्ष) घोषित कर दिया था
इसका एक प्रमाण देखें

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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे-

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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में.. यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है ।
यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं।
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ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य व पवित्र अर्थात् (दक्ष ) यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है । अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए..... हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ... ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है  ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है ।
तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं ।
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दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है।
बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है
सम्भवत: इन्होंने चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ... जाटों में दाहिया गोत्र इसका रूप है ।
वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है । जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा (dacoit )हो गया ।

------------------------------------------------------------------- महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है।
महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं ।
कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था ।
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे।
आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों से भी बड़कर  योद्धा माना गया।
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मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है ।

आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं
ब्राह्मणद्वैश्य कन्यायायामबष्ठो नाम जायते ।
"आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण"
इति-----( मनु-स्मृति ) अध्याय १०/१५
परन्तु एक अन्य -स्मृति  वर्णन करती है ब्राह्मणेन संगता माहिष्य कन्यायां आभीर जायते "

अब आप बताऐं कि दो स्त्रीयों से एक पुत्र उत्पन्न हो सकता है ?
दो व्यक्तियों से एक स्त्री में तो हो सकता है ।
यह सब अहीरों को नीच बनाने का षड्यन्त्र है ।

तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं राति ददाति - इति आभीर : " अर्थात् सर्वत्र भय भीत करने वाले हैं ।

- यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था
क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया । दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा।

अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा ।

जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी
महाभारत में अहीरों और जाटों का भी वर्णन है ।
परन्तु गुर्ज्जरः जन-जाति का वर्णन नहीं !
क्यों कि इनका समावेश अहीरों में ही हो गया है ।

सौलहवीं सदी में लिखित काल्पनिक संस्कृत ग्रन्थ
देव संहिता में जाटों का वर्णन इस प्रकार कर दिया

देव संहिता गोरख सिन्हा द्वारा मध्यकाल 16वीं सदी  में लिखा हुआ संस्कृत श्लोकों का एक संग्रह है।
जिसमे जाट जाति का काल्पनिक रूप से जन्म दरशाया है ।
जन्म, कर्म एवं जाटों की उत्पति का उल्लेख शिव और पार्वती के संवाद के रूप में किया गया है।

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा कही जाती है।
महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया।

पिता का यज्ञ समझ कर सती बिना बुलाए ही पहुँच गयी, किंतु जब उसने वहां देखा कि न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वहीं प्राणांत कर दिए. महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दंड देने के लिए अपनी जटा से 'वीरभद्र' नामक गण उत्पन्न किया।

वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ आकर दक्ष का सर काट लिया और उसके साथियों को भी पूरा दंड दिया. यह केवल किंवदंती ही नहीं बल्कि संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गयी है जो देवसंहिता के नाम से जानी जाती है।
इसमें लिखा है कि विष्णु ने आकर शिवाजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को जीवित किया और दक्ष और शिवाजी में समझोता कराने के बाद शिवाजी से प्रार्थना की कि महाराज आप अपने मतानुयाई 'जाटों' का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करवा लेते?

ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे. लेकिन शिवाजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयाई भी प्रधान हैं।

देवसंहिता के कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं-

                    पार्वत्युवाचः
भगवन सर्व भूतेश सर्व धर्म विदाम्बरः
कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम्।। 12।।

अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे तईं जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये।। 12।।

का च माता पिता ह्वेषां का जाति बद किकुलं।
कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान वद प्रभो।। 13।।

अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ?।। 13।।.

                महादेव उवाच:
श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते।
जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं।। 14।।

अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है।। 14।।

महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः।
सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: || 15 ||

अर्थ- शिवजी बोले कि जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं। जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || 15 ||

श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित:।
कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी || 16 ||

अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी  की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || 16 ||

गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी।
विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै सांगीपितं || 17 ||

अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है। इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है। इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || 17 ||

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साभार - "इतिहास के बिखरे हुए पन्ने "

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