भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी ।
--जो उपनिषद् रूप है ।
परन्तु पाँचवी शताब्दी के बाद से
अनेक ब्राह्मण वादी रूपों को समायोजित कर चुका है --जो वस्तुत भागवत धर्म के पूर्ण रूपेण विरुद्ध व असंगत हैं ।
--जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है।
यद्यपि इसे महाभारत के शान्ति पर्व में समायोजित किया जाना चाहिए था।
क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇
अधेष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: श्रीमद्भगवद् गीता 18/70 अर्थात् --जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ; तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: जो हमारे इस संवाद को सुनेगा !
यदि आप मानते हो कि गीता उपदेशात्मक है तो इसमें सुनने की बात होती परन्तु इसमें तो पढने की बात है
सीधी सी बात है ये ब्राह्मण वाद की क्षत्र-छाया में बाद में लिखी गयी है
दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है ।
जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :-
१-वैभाषिक
२- सौत्रान्तिक
३-योगाचार
४- माध्यमिक का खण्डन है ।
क्यों कि बुद्ध ने ब्राह्मण वाद पर आघात किया तो ब्राह्मणों ने भी बुद्ध के सिद्धान्तों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया
योगाचार और माध्यमिक इन बौद्ध बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी सन् के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई ।
अत: मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही कृष्ण के सिद्धान्तों का सीर हैं । बाद बाकी तो अलग से समायोजित है ।
यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि स्पष्ट रूप से चिन्हित हैं ।👇
यज्ञ भी भागवत धर्म का अंग नहीं हैं क्यों यज्ञ केवल ब्राका कर्म--काण्डों मूलक पैतृिक परम्परा गत धर्म के नाम पर व्यवसाय मात्र है ।
क्यों कि ईश्वर कर्म काण्ड या यज्ञ से प्रेरित नहीं होता
'वह केवल भाव शुद्धि से प्राप्ति होता है ।
श्रीमद्भगवत् गीता केवल आध्यात्मिक साधना-पद्धति मूलक ग्रन्थ है ।
कर्म काण्ड आध्यात्मिक साधना-पद्धति के अंग नहीं हैं
श्रीमद्भगवत् गीता कर्म का ही प्रादुर्भाव
इस प्रकार से निरूपित करता है 👇
अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।
और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।
जैसे- संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गया निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गया मानसिक दृढ़ता है ।
परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।
और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो जाती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की
कर्म इस जीवन और संसार का सृष्टा है।
महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा
संसार का सार है संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती स्थितियाँ अनुभव हुईं
मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च"
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष
मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
मुझे लगा कि अब हम सत्य के समीप आचुके हैं
मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है
पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।
और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानते हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ;
वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही ख़ूबसूरत है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना का जन्म हुआ है ।
और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।
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