शनिवार, 22 जून 2019

कोर्ट ऐैतिहासिक फैसले साक्ष्यों के आधार पर कर सकता है । यादवों के इतिहास के साक्ष्य वेदों के आधार पर ही मान्य हैं । क्यों कि पुराण भी वैदिक सिद्धान्तों की प्रतिछाया है । वेदों में भी ऋग्वेद प्राचीनत्तम साक्ष्य है ।

कोर्ट ऐैतिहासिक फैसले साक्ष्यों के आधार पर कर सकता है ।
यादवों के इतिहास के साक्ष्य वेदों के आधार पर ही मान्य हैं ।
क्यों कि पुराण भी वैदिक सिद्धान्तों की प्रतिछाया मात्र है ।
वेदों में भी ऋग्वेद प्राचीनत्तम साक्ष्य है ।
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अर्थात् ई०पू० 2500 से 1500 के काल तक-- इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।
वह भी दास अथवा असुर रूप में
यद्यपि दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है।

और वे असुर भी  वैसे नहीं थे जैसा वर्णन भारतीय पुराणों तथा शास्त्रों में उनका किया जाता है ।
क्योंकि वर्णन करने वाले देव-संस्कृति के उपासक पुरोहित थे।

ऋग्वेद में असुर' शब्द का प्रयोग लगभग 105 बार हुआ है।
उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'श्रेष्ठ' अर्थों में किया गया है और केवल 15 स्थनों  पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'वह भी परवर्ती वैदिक काल में
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त:
शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)

( यास्क निरुक्तकोश )और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में भी व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: वरुण के लिए .. सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में इन्हें असीरियन कहा गया।

परन्तु ये दास या असुर अपने पराक्रम बुद्धि- कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।

अत: दास शब्द प्रारम्भ काल में दानी  या दाता का वाचक था।

परन्तु ईरानी सन्दर्भों में दास नेता अथवा दाता का वाचक है ।

और उन्हीं प्राचीनत्तम सन्दर्भों में असुर और दास शब्दों के अर्थ निर्धारित करने चाहिए न कि आधुनिक अर्थों में

क्यों कि वैदिक सन्दर्भों में तथा परवर्ती काल में भी घृणा शब्द दया का वाचक है ।
परन्तु आज घृणा (नफ़रत) का वाचक है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। 👇
वह भी गोपों को रूप में
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।

(ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है।  👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।

नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।

(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।

और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।... देखें--- 👇
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अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।

(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया।

यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।

असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी 👇

सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि ।
(ऋग्वेद ८/४६/२

हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।

अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।

सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७
अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु:
शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।

अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे।
कालान्तरण में किंवदन्तियाँ के द्वारा कथाओं में व्यतिक्रमण होना स्वाभाविक ही है ।

यद्यपि  पुराणों और ईसाईयों की हिब्रू-बाइबिल में यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।

ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।

जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।

यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति”
“नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें-👇

-ऋग्वेद में "शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा
दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।

उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।👇

यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६

यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है ।
क्या जादौन अपने को इन रूपों में मानते हैं ।

ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है ।

ईरानी में बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है।
जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।

पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास
(गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
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"यह समग्र शोध श्रृंखला :- यादव योगेश कुमार' 'रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "

ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
जो अहीरों का वाचक है
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अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: ९-पाल  (2।9।57।2।5 अमरकोशः)
अत: साक्ष्य अहीरों के पक्ष  में ही है न कि जादौनों के रूप में क्यों कि जादौन बंजारे हैं गोप नहीं -

यादवों की एक शाखा कुकुर  कहलाती थी ।
ये लोग अन्धक राजा के पुत्र कुकुर के वंशज माने जाते हैं ।
दाशार्ह देशबाल -दशवार , ,सात्वत ,जो कालान्तरण में हिन्दी की व्रज बोली क्रमशः सावत ,सावन्त , कुक्कुर कुर्रा , कुर्रू  आदि रूपों परिवर्तित हो गये  ।

ये वस्तुत यादवों के कबीलागत विशेषण हैं ।

  कुकुर एक प्रदेश जहाँ कुक्कुर जाति के यादव रहते थे  यह देश राजपूताने के अन्तर्गत है ; जो कभी मत्स्या देश था ।
और  कालान्तरण में  उसके वंशजों द्वारा नामकरण हुआ ।
कुकुर+ अवलि =कुकुरावलि --कुरावली---करौली
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संस्कृत ग्रन्थों में कुकुर यादवों के विषय में पर्याप्त
आख्यान परक विवरण प्राप्त होता है ।

कोश ग्रन्थों में इस शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक रूप से  इस प्रकार दर्शायी है ।

  कुम् पृथिवीं कुरति त्यजति स्वामित्वेन इति कुकुर ।
यदुवंशीयनृपभेदे तेषां ययातिशापात् राज्यं नास्तीति पुराणकथा यदुशब्दे दृश्या ।

अर्थात् कुकुर 'वह हैं --जो अपने स्वामित्व के द्वारा 'पृथ्वीराज को त्यागते हैं क्यों कि यदु के वंशज जिनके पूर्वज यदु ने ययाति के शाप  से राज्य प्राप्त नहीं किया ।
इस रूढ़िवादी परम्पराओं के प्रभाव से ...

“विधुरि ता धुरिताः” कुकुरस्त्रिय”
   महाकवि-माघः
२ दशार्हे देशभेदे  ।
कुकुरच् किच्च ।
३ कुक्कुरे हड्डचन्द्रः ।
कुकुरनृपश्चान्धकुकुरः भजमानशुचिकम्बलबर्हिषास्तथान्धकस्य पुत्राः” इति विष्णु पुराण

“कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः ।
“अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोलभतात्मजान् कुकुरं भजमानं च शमं कम्बलबहिषम्” हरिवंश पुराण ३८ अध्याय ।
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वारगाथा काल में नल्ह सिह भाट द्वारा
विजय पाल रासो के रचना की गयी ।
नल्हसिंह भाट कृत इस रचना के केवल '42' छन्द उपलब्ध है।

विजयपाल, जिनके विषय में यह रासो काव्य है, विजयगढ़, करौली के 'यादव' राजा थे।
इनके आश्रित कवि के रुप में 'नल्ह सिंह' का नाम आता है।
रचना की भाषा से यह ज्ञात होता है कि यह रचना 17 वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है।

करौली के यदुवंशी राजा पाल कहे जाते हैं |
समय के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर और सम्वत् 1052  में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे |

राजा विजयपाल के पुत्र तहनपाल (त्रिभुवनपाल) ने तहनगढ़ का किला बनवाया |
तहनपाल के पुत्र धर्मपाल (द्वितीय) और हरिपाल थे ;
जिनका समय संवत् 1227 का है |

  कृष्ण जी के प्रपौत्र (नाती )वज्र को मथुरा का अधिपति बनाने का प्रसंग श्रीमद भागवत् के दशम स्कन्ध में आता है ।

कहा जाता है की लगभग सातवीं शताब्दी के आस पास सिंध से (जहां भाटियों का वर्चस्व था ) कुछ यदुवंशी मथुरा वापिस आ गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः जीत लिया ।

इन राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो की श्री कृष्ण 77वीं पीढ़ी के वंशज थे ।

वर्तमान काल में करौली का राजघराना पाल  राजाओं के वंशज है ।
पाल अहीरों का प्राचीनत्तम विशेषण रहा है।

पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खांपें मिली हुई हैं ।
ये ढढोर कबीले को अहीर से सम्बद्ध हैं

ढढोर ' यदुवंशी अहीरों की एक प्रसिद्ध गोत्र है
जिनका निर्गमन राजस्थान के प्रसिद्ध ढूंढार क्षेत्र से हुआ है।
राजस्थान में जयपुर के आसपास के क्षेत्र जैसे करौली, धौलपुर, नीमराणा और ढींग (दीर्घपुर) बयाना (वज्रायन) के विशाल क्षेत्र को " ढूंढार " कहा जाता है एवं यहाँ ढूंढारी भाषा बोली जाती है।

आज भी यहाँ ढंढोर अहीरों के गांव यहाँ मौजूद हैं।
ढढोर अहीर मूलतः द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण के प्रपौत्र युवराज वज्रनाभ यदुवंशी के वंशजों में से एक माने जाते हैं एवं इनकी अराध्य देवी कैलादेवी(कंकाली माता) हैं।
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भगवान कृष्ण की पीढ़ी के 135 वें राजा विजयपाल यदुवंशी के ही विभिन्न पुत्रों में से एक से यह "ढढोर" वंश चला।

ऐसा "विजयपाल रासो "में भी वर्णन मिलता है कि यदुवंशी क्षत्रियों के उस समय राजस्थान और बृज में 1444 गोत्र उपस्थित थे।

इन्हीं विभिन्न 1444 यदुवंशी क्षत्रियों के गोत्र में से एक था !
ढढोर गोत्र जिन्होंने मुहम्मद गौरी के राजस्थान पर आक्रमण के समय पृथवीराज चौहान की ओर से लड़ते हुए गौरी की सेना से युद्ध किया था।

सन् 1018 में मथुरा के महाराज कुलचन्द्र यादव और महमूद गज़नी के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें गज़नी की सेना ने कपट पूर्वक  यदुवंशीयों को पराजित कर दिया।

राजा कुलचंद्र यादव के पुत्र राजा विजयपाल यदुवंशी के नेतृत्व में ज्यादातर यादव बयाना आ गए।
बयाना वज्रायन शब्द का तद्भव है ।

इस लिए विजयपाल ने मथुरा के क्षेत्र  में बनी अपनी प्राचीन राजधानी छोड़कर पूर्वी राजस्थान की मानी नामक पहाड़ी के उच्च-स्थली भाग पर बयाना का दुर्ग का निर्माण किया।

विजयपाल रासो नामक ग्रन्थ में इस राजा के पराक्रम का अच्छा वर्णन है ।

इसमे लिखा है कि महाराजा विजयपाल का 1045 ई0 में अबूबक्र शाह कान्धारी से घमासान युद्ध हुआ ।

संवत 1103 में यवनों ने संगठित होकर अबूबक्र कंधारी के नेतृत्व में विजय मंदिर गढ़ पर हमला किया और दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया  इस युद्ध में  विजयपाल वीरगति को प्राप्त हुये और उनके साथ उनके 18 में से 11 पुत्र भी वीरगति को प्राप्त हुए पराजय का समाचार किले में पहुचते ही महाराजा विजयपाल की रानियों ने राजपरिवार की अन्य स्त्रियों एवं किले की सैकड़ो अहीर क्षत्राणियों के साथ अग्नि की प्रचंड ज्वाला में कूद कर जौहर कर लिया शायद ही देश के इतिहास में इतना बड़ा जौहर हुआ होगा ।
परन्तु यह प्रथा यदुवंश में परवर्ती है ।
क्योंकि कृष्ण की मृत्यु के समय कोई भी कृष्ण की पत्नी या अन्य यदुवंशी स्त्रीयाँ सती या पति की चिता पर नहीं जलीं ।

यह चित्तौड़ के जौहर से भी बड़ा जौहर था जिसके साक्ष्य आज भी विजयमन्दिरगढ़ किले में मौजूद है यह घटना फाल्गुन वदी तीज दिन सोमवार संवत 1103 को घटित हुई थी ।
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सन् 1196ई0 में मोहम्मद गौरी ने बयाना( विजयमन्दिरगढ़) और तिमनगढं पर हमला किया जिसमे विजयपाल यदुवंशी के पीढ़ी के शासक राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी के नेतृत्व में यादव सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना का डटकर रणभूमि में मुकबला किया लेकिन पराजित होकर वहा से पलायन करना पड़ा।

इसके पश्चात वहा से पलायन कर राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी ने बचे हुए यादव सेना और सामंतों के साथ चित्तौड़ में शरण ली ।

यादव रजवाड़ों ने चित्तौड़ के दुर्ग में अपने कुल देवी माँ योगमाया के भव्य मंदिर का निमार्ण करवाया जो कंकाली माता के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हैं।

राजा कुवंरपाल यदुवंशी के पुत्र हुए महिपाल सिंह यादव

यदुवंशी अहीरों ने राजस्थान के कोटा से 22 कि ०मी० दूर पाटन में आये तथा यहाँ तक यदुवंशी अभीरों के
14 44 गोत्र एकसाथ मौजूद थे ।


यद्य पि  करौली के जादौनों का उदय  आठवीं सदी के उत्तरार्द्ध  नवीं सदी के पूर्वार्द्ध में  मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से हुआ जो दशवें अहीर राजा थे ।⬇🔄

राजा धर्मपाल बाद ईस्वी  सन्  879 में इच्छपाल (ऋच्छपाल) मथुरा के शासक हुए ।

 इनके ही दो पुत्र थे  प्रथम  पुत्र ब्रहमपाल जो मथुरा के शासक थे  हुए दूसरे पुत्र विनयपाल  जो महुबा (मध्यप्रदेश) के शासक हुए 

विजयपाल भी करौली के यादव अहीरों की जादौंन शाखा का मूल पुरुष/ आदि पुरुष/ संस्थापक विजयपाल माना गया परन्तु इतिहास में  ब्रह्मपाल ही मान्य हैं 

 विजयपाल जिसने 1040 ईस्वी में अपने राज्य की राजधानी मथुरा से हटाकर बयाना
( विजय मंदिर गढ़) को बनाया ------------


तथा यहाँ केशवराय जी के विशाल मन्दिर का निर्माण कराया इस मन्दिर के नाम से ही आज वह शहर केशवराय पाटन शहर के नाम से जाना जाता है पाटन से यादव समाज के लोग बिखर गए और राजा कुंवरपाल यदुवंशी के जेष्ठ पुत्र  महिपाल सिंह यादव के नेतृत्व में यादव वंश के 86 गोत्र नर्मदांचल में आकर बस गए और शिवपुरी में स्वतंत्र जागीर स्थापित करी।

इन्हीं 1444 गोत्रों में से एक गोत्र है ढंढोर गोत्र जो मुहम्मद गौरी से युद्ध के बाद राजस्थान से पलायन कर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के गोरखपुर, आज़मगढ़ आदि इलाकों में जा बसे।

करौली के सस्थापक कुकुर यादवों की शाखा से लोग थे

यद्यपि ये लोग चरावाहों की परम्पराओं का निर्वहन यदु को द्वारा स्थापित होने से करता थे ।

क्यों कि यदु ने कभी भी राज्य स्वीकार नहीं किया ।
वे गोप थे और हमेशा गायों  से घिरे रहते थे ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें  सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें--

" उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा
यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।।ऋ०10/62/10
इतिहास लेखक मोहन दास गुप्ता ने लिखा की ये सभी भी क्षत्रिय सूचक विशेषण सिंह अपने नाम- के पश्चात् नहीं लगाते थे ।

केवल पाल विशेषण लगाते थे ।
क्यों कि ये स्वयं को गोपाल कृष्ण का वंशज मानते थे ।
गोपाल ,गोप तथा आभीर केवल यादवों के व्यवसाय परक विशेषण हैं ।
और आभीर वीरता सूचक प्रवृत्ति का सूचक है ।

करौली के मन्दिर में गाय और भेड़ यदुवंशी शासकों के पाल गोपाल रूपों का़ी -स्मृति है ।
इस लिए जादौन समाज का यह दावा निराधार व भ्रान्ति मूलक है कि अहीर यदुवंशी नहीं होते हैं ।
उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि जादौन राजस्थान में ही चारण बंजारों का रूपान्तरण है ।

अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित 
अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है ।

और इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का  वर्णन किया गया है ।
इसे भी देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन 
सख्या  प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की  गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-

महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।

कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।

अर्थ- तुलसी दास जी कहते हैं ।
कि "समय बड़ा बलवान होता है।
वो समय ही है जो व्यक्ति को छोटा या बड़ा बनाता है। जैसे एक बार जब महान धनुर्धर अर्जुन का समय खराब हुआ तो वह भीलों के हमले से गोपियों की रक्षा नहीं कर पाए।
पता नहीं तुलसी ने भीलों वाला अनुवाद कहाँ से किया ?

यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ;  क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलता है ।
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।

प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें---
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक  55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का
अनुवादित रूप इस प्रकार है
:-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१।
कि  हे कश्यप  अापने अपने जिस तेज से  प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का
अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)

यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित---
और यही प्रकरण गायत्री परिवार के संस्थापक पं० श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण के बरेली संस्करण में है ।

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
आचार्य   " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह  आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय
और इतना ही नहीं समस्त ब्राह्मणों की आराध्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सत्ता गायत्री भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या हैं ।
और उसका वर्णन भी आभीर तथा गोप शब्द के पर्याय वाची रूप में वर्णित किया है ।
देखें--- निम्न श्लोकों में -

और अनेक भारतीय पुराणों में जैसे अग्नि- पुराण,पद्मपुराण आदि में अहीरों को देवताओं के रूप में  अवतरित किया है और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या के रूप में भी वर्णन किया गया है।
वहाँ भी अहीर (आभीर) तथा गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,
प्राप्य जन्म यदो:कुले ।

भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,
गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

अर्थात् हे कश्यप तुम  अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म लोग !और अपनी भार्यायों के साथ गोपालन करोगे !

अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
और सुनो !
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया  था ।
तो यह दोष ब्राह्मणों का ही है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

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यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्क सूत्र 8077160219..

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