एक सतसंग में निरंकारी मिशन के महापुरुष
-जब मंच पर खुल कर विचार करने की हम्हें अनुमति देते हैं ।
और प्रश्न करते हैं कि कर्म-- क्या है ?
और यह किस प्रकार उत्पन्न होता है ?
कई विद्वानों से यह प्रश्न किया जाता है ।
मुझे भी अनुमति मिलती है ।
कर्म जीवन का आधार है ।
मुझे भी आश्चर्य होता है !
कि जिस प्रश्न को हम पर कोई उत्तर नहीं है ।
फिर अचानक ही कुछ शब्दों का प्रवाह मुखार-बिन्दु से नि:सृत हो रहा है ।
यद्यपि में सुन भी रहा हूँ ।
कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।
और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।
जैसे- संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गया निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गया मानसिक दृढ़ता है ।
परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।
और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो जाती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की
कर्म इस जीवन और संसार का सृष्टा है।
महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा
संसार का सार है संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती स्थितियाँ अनुभव हुईं
मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च"
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।
मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
मुझे लगा कि अब हम सत्य के समीप आचुके हैं
मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है
पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।
और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानते हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ;
वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही ख़ूबसूरत है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना का जन्म हुआ है । और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।
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