रविवार, 30 जून 2019

श्रीमद्भगवत् गीता देव संस्कृति को नकारती है

वैदिक ऋचाओं और श्रीमद्भगवद्गीता का विषयगत विश्‍लेषण किया जाय तो दौनों में परस्पर विरोधी मान्यताऐं प्रतिध्वनि होती हैं।
दोनों धर्म ग्रन्थ एक ही 'धर्म' के नहीं हो सकते और ना ही इन का र‍चयिता एक ही तथाकथित परमात्‍मा हो सकता है।
श्रीमद्भगवत् गीता गुप्त कालीन आभीरों के भक्ति मूलक भागवत धर्म का प्रकाशन करती है ।
जिसे पञ्चमी सदी में ब्राह्मण धर्म के अनुरूप परिष्कृत किया गया ।

वेदों में जगह जगह इच्‍छा और कामना पर बल दिया गया है-
कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्‍छतं समाः एवं त्‍वयि नान्‍य‍थेतोऽस्ति न कर्म लिप्‍यते नरे।।
यजुर्वेद अध्याय का द्वितीय श्लोक 40/2
ईशावास्योपनिषद में भी सही श्लोक है।

अर्थातः हे मनुष्‍यों, कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करनी चाहिए-
विदित हो कि वेदों में केवल पुरोहित भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र का स्तवन करते हैं ।
कहीं सुन्दर स्त्रीयों की कामना की जाती है तो कहीं
सुन्दर शक्ति शाली पुत्रों की कामना की जाती है।

जबकि श्रीमद्भगवतद् गीता कहती है- अर्थात फल की इच्‍छा रखने वाले व्‍यक्ति फल में आसक्‍त होते हैं और बंधन में पड़ते हैं ।

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च। कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥18.6॥

हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति और फलों की इच्छा का त्याग करके करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।

यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों साथ-साथ मनुष्य को पठन-पाठन, खेती-बाड़ी, जीविका हेतु तथा नित्य कर्म खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना आदि शारीरिक कर्म और परिस्थिति जन्य आवश्यक कर्तव्य-कर्मों को आसक्ति-फलेच्छा का त्याग करके जरूर करना चाहिये।

अपनी कामना, ममता, और आसक्ति का त्याग करके कर्मों को केवल प्राणी मात्र के भले के लिए करने से कर्मों का प्रवाह संसार के लिए और योग का प्रवाह स्वयं के लिये हो जाता है।
अपने हेतु किया गया कर्म बन्धन कारक हो जाता है और अपना व्यक्तित्व परमात्मा में विलय नहीं होने देता।
🎹
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥18.10॥

जो मनुष्य अकुशल कर्म से द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता, वह शुद्ध सत्व गुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है तथा अपने स्वरूप में स्थित है अर्थात्‌ स्वयं में स्थित होकर स्वस्थ है।
🐂अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रविधं कर्मणः फलम्। भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्॥18.12॥

कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो इष्ट-अच्छा, बुरा-अनिष्ट और मिश्रित-मिला हुआ;
ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग करने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता।

... वेदों की इस प्रकार की धज्जीयाँ  तो चार्वाक आदि नास्तिकों ने भी नहीं उड़ाई होंगी।

जैसी श्रीमद्भगवद्गीता ने उड़ाई है,

पुरूषोत्तम न कह कर पुरुष कहा गया है।
लेकिन गीता के 15 वें अध्‍याय में गीता का वक्‍ता ईश्वर के प्रतिनिधि रूप में  कहता हैः

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित- पुरूषोत्तमः - 15/18 अर्थात में लोक और वेद में 'पुरूषोत्तम' के नाम से प्रसिद्ध हूं।

..... गीता में अवतारवाद का सिद्धान्त है परन्तु वेदों में परमात्‍मा के अवतार धारण करने का कहीं उल्‍लेख नहीं मिलता, पर गीता का यह एक प्रमुख सिद्धान्त है।

यही तो भागवत धर्म का मूल सिद्धान्त है जिसका प्रादुर्भाव यहूदियों के नवीवाद का एक रूपान्तरण है।

."यदा यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लानिर्भवति भारत अभ्‍युतथानमधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम !
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्‍कृताम् धर्म संस्‍थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे - श्रीमद्भगवद्गीता (4/7-8)

अर्थात जब जब धर्म की ग्‍लानि होती और अधर्म की उन्‍नति होती है, तब तब मैं अर्थात (भगवान कृष्‍ण) पैदा होता हूं, साधुओ की रक्षा और पापियों के विनाश के लिए तथा धर्म को स्थापित करने के लिए मैं हर युग में पैदा होता हूं!

एक धर्म के दो धर्मग्रंथों में ऐसा पारस्‍पारिक विरोध
ध्वनित करता है कि भागवत धर्म प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म के प्रतिद्वन्द्वी रूप में उदय होता है ।

विद्वानों का एक वर्ग विशेषतः आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्‍पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया था।

स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के शिष्‍य पंडित भीमसेन शर्मा ने इस ओर सब से पहले ध्‍यान दिया और कदम भी उठाया। उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्‍वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्‍वर के सिद्धांत के विपरीत है, अत- उन्‍होंने जिस जिस श्‍लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्‍लोक को झट अर्ध चन्‍द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्‍लोकों को प्रक्षिप्‍त बता कर निकाल बाहर किया,

इस दिशा में एक दूसरे आर्यसमाजी विद्वान प. आर्य मुनि ने इस यक्ष प्रशन के समाधान के लिए एक और ढंग अपनाया, उन्‍होंने जहां 'अहं' पद देखा, वहां उस का अर्थ ' ईश्‍वर' कर दिया और जहां मा शब्‍द मिला, वहां उसका अर्थ वैदिक-धर्म कर दिया (देखें प. नरदेव शास्‍त्री वेदतीर्थ कृत 'आर्य समाज का इतिहास, पृ. 235)
किंतु प. भीमसेन के प्रयास की तुलना में यह दूसरा प्रयास भी उपहास्‍पद है. इनके अतिरिक्‍त इस दिशा में और भी प्रयास किए गए, पञ्च भूमित्र शर्मा आर्योपदेशक और प. शिदत्त शास्‍त्री ने भास्‍कर प्रेस मेरठ से गीता एक संस्‍करण छपवाया जिस में केवल 13 अध्‍याय रखे, बाद में लाहौर से एक और संस्‍करण निकाला गया उसमें केवल 70 श्‍लोक रख्‍ो गए,
शेष 630 श्लोकों को बाहर निकाल फेंके गए, यह काटछांट का तरीका ऊपरी लीपापोती ज्‍यादा कारगार सिद्ध न हुआ,
आर्य समाजी वेद और गीता में से एक के वरण और दूसरे के परित्‍याग पर उतारू हैं।

आर्यसमाजियों के विद्वतापूर्ण् प्रयासों से वेद और गीता के मध्‍य की खाई और गहरी हो गयी है,
लगता है गीता भक्‍तों और वेदानुयायियों में ध्रुवीकरण हो जायेगा, इस के साथ ही जनता में फैलाया गया व फैला यह अंधविश्‍वास कि 'वेद और गीता एक ही चीज हैं' भी समाप्‍त हो जाएगा

.......... गीता एक ही ब्रह्म के रचे हुए हैं,.. सुनिए कृष्‍ण के द्वारा ही- ॐ तत्‍सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्‍पृतः ब्राह्मणास्‍तेन वेदाश्‍च यज्ञाश्‍च विहिता पुरा - गीता 17/23 अर्थात हे अर्जुन, ओम् तत, सत ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेदा यज्ञ आदि रचे गए हैं गीता में कृष्‍ण स्‍पष्‍ट घोषणा कर रहे हैं कि सब से प्रमुख वेद सामवेद है गीता के आधार पर  मैं ही हूं- वेदानां सामवेदा स्मि - गीता 10/22 .

परन्तु मनुःस्मृति में समावेद को हेय माना गया।

.....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें