अब आप राम द्रोही मुझे मत कहना
राम का दुरुपयोग सदीयों से रूढ़िवादी करते आरहे हैं ।
आज राम को फिर आतंक और रूढ़िवादिता का पर्याय वाची बना दिया गया है ।
यद्यपि राम को ३२ देशों की संस्कृतियों
में वर्णन किया गया है ।
यहाँं तक कि सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों में भी गिलगमेश के महाकाव्य में तसरत, राम, सिता, जैसे पात्र विद्यमान हैं।
मिश्र में रेमेसिस और सीटामुन
परन्तु भारत में --रामायण बुद्ध के परवर्ती काल में नये सिरे से किंवदन्तियों तथा कुछ कल्पनाओं के आधार पर निर्मित की गयी ।
आप स्वयं देख लो
सदीयों से श्रृद्धा और मनु का कभी मिलन नहीं हो पाया ।
श्रृद्धा प्रवण लोगों ने ही मनन करने की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया ।
परिणाम यह हुआ कि श्रृद्धा बटक गयी।
और यह सर्व विदित है कि भावनाओं में विचारों का आनुपातिक तारतम्य परक समायोजन न हो तो ज्ञान उत्पन्न हो ही नहीं सकता है ।
श्रृद्धा में डूब कर आप विचार हीन कभी न बनें .
आपको विदित हो कि वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में जावालि ऋषि से संवाद करते हुए राम " तथागत बुद्ध को गाली दें तो कोई बुद्धिजीवी क्या कहेगा?
आप रामायण को कितना सत्य मानोगे ऐसे ही कुछ श्लोक जो ‘आयोध्या-काण्ड’ में आये हैं ।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत, नास्तिक और अनेक अपमान-जनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप स्वयं ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
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:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए राम उनसे फिर बोले :-
“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त ,
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
• सरलार्थ :- हे जावालि!
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।।
क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ।
नीचे तथागत बुद्ध का वर्णन यथावत् कर दिया है।
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“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या
गीता प्रेस गोरख पुर संस्करण :1678)
सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वाक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना
कुछ विद्वान इसे 2000 वर्ष पुरातन भी मानते हैं ।
अब काल निर्धारण ही आप कैसे करोगे ?
कि राम कब हुए कितने वर्ष तक जीवित रहे
इनका कोई भी प्राकृतिक व वैज्ञानिक आधार नहीं हैं
एक स्थान पर वर्णन है कि
अरोगा: सर्वसिद्धार्थश्चतुर्वर्षशतायुष:।
कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वय:।25।
"सतयुग में मनुष्य निरोग होते हैं उनकी संपूर्ण कामनाएं सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ(400)वर्षों की आयु वाले होते हैं ।
त्रेता युग आने पर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ (300) वर्षों की रह जाती है।
इस प्रकार द्वापर में दो सौ (200) और कलयुग में (100 )वर्षों की आयु होती है।
अब विचारणीय तथ्य यह है कि
अब आश्रम व्यवस्था का विधान केवल 100 वर्ष के
लिए ही क्यों है ।
क्या ये व्यवस्था कलियुग में बनायी गयी।
उपनिषदों तथा वेदों मे ध्वनित शतंसमा शब्द भी सौ वर्ष का निर्धारक है ।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे
(ईशावास्योपनिषद)
अर्थात् मनुष्यों को कर्म करते हुए 100वर्ष जीना चाहिए!
यहाँं 200 या 300 वर्षो की तो बात ही नहीं है ।
अब बात यह है कि "शतं समा" ( सौ वर्ष) जाने की बात वेद में होती है तो 'वह किस युग की है ।
कल युग की
यदि हम सब मानते हैं कि वेदों का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ ।
और सतयुग में समान्य व्यक्ति चार सौ वर्ष जीवन व्यतीत करता था ।
तो वेदों के केवल जीवन सौ वर्ष क्यों माने गये हैं
जैसे-
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)
हम सौ शरदों तक देखें (१)।
सौ वर्षों तक हम जीवित रहें (२)।
सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे(३);
सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें,
हमारी उन्नति होती रहे (४);
सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें(५);
हम सौ वर्षों तक बने रहें (६);
सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें (७);
सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें (८)।
उपर्युक्त ऋचाओं में केवल सौ वर्ष की ही कामना की है -जैसे या तीन सौ वर्ष की नहीं।
अब आप बताओ कि महाभारत प्राचीनत्तम या वेद ?
वाल्मीकि रामायण बाल-काण्ड अष्टादश: अध्याय में तो वर्णित है कि ।
चारणाश्च सुतान् वीरान् ससृजुर्वनचारिण: ।
वानरान् सुमहाकायान् सर्वान् वै वनचारिण:।।२३।
देवताओं का गुण गाने वाले बनवासी चारणों ने बहुत से विशालकाय वानर पुत्र उत्पन्न किए वे सब जंगली फल फूल खाने वाले थे ।23।
अब वानर जब वन के नरों से उत्पन्न हुए हैं ।
तो वानरों को नर का पूर्वज क्यों माना जाय ?
अब दशरथ और राम के समय के विषय में कल्पना देखिए कि जो
वाल्मीकि रामायण में वर्णित है कि
-जब राजा दशरथ की अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी तब राम का जन्म हुआ।
(यह वर्णनबीसवाँ सर्ग बाल-काण्ड में है )
षष्टिर्वर्षसहस्राणि जातस्य मम कौशिक।10
कृच्छ्रेणोत्पादितश्चायं न रामं नेतुमर्हसि।
हे कुशिक नन्दन ! मेरी अवस्था साठ हजार वर्ष की हो गयी ।
इस बुढ़ापे में में बड़ी कठिनाई से पुत्र प्राप्ति हुई है अत आप राम को न ले जाऐं।
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-जब एक जिज्ञासु ने कहा कि राम का शासन ग्यारह हजार वर्ष तक हुआ ।और कृष्ण लगभग 125 वर्ष तक जीवित रहे ।
तो दौनों में कैसा मेल ?
और चरित्र के स्तर पर भी
राम वर्ण व्यवस्था के समर्थक और कृष्ण वर्ण व्यवस्था के विध्वंसक
हैं ।
राम देव संस्कृति के प्रतिष्ठा देते हैं तो कृष्ण इन्द्र से युद्ध करते हैं ।
कृष्ण नारी जाति को सम्मान और उच्चता प्रदान करते हैं तो राम सीता जैसी पवित्र स्त्री को अग्नि परीक्षा के बाद भी गर्भवती अवस्था में निर्जन वन प्रदेश में मरने के लिए छोड़कर चले जाते हैं ।
--जो स्त्री चौदह वर्षों तक उनके साथ उनकी सेवा करती है ।
कृष्ण का चरित्र बहुतायत रूप में श्रीमद्भगवत् गीता में प्रतिध्वनित है ।
जिसे पञ्चमी सदी में महाभारत में समायोजित किया गया ।
और अवतार वाद की अवधारणा तो केवल अाभीरों के भागवत धर्म से प्रादुर्भूत है ।
जोकि कि यहूदियों के नवीवाद का एक रूपान्तरण है
यहूदियों ने इसे सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों से ग्रहण किया ।
सुमेरियन पुरा-कथाओं में नबू ज्ञान का देवता है ।
और भाषायी स्तर पर नवी शब्द के दो अर्थ नेता और आँख मिलते हैं ।
संस्कृत भाषा में नाविक शब्द इसी का प्रतिरूप है।
संस्कृत धातु'पाठ में नी धातु इसका श्रोत है।
नवीवाद कालान्तरण में ईसाईयों तथा मुसलमानों की शरीयत में भी यहूदियों से ही आया।
जैनियों में तीर्थंकर और सिखों गुरुवाद की अवधारणा इसी का अवशेष हैं ।
अव राम को अवतार वाद की जद में क्यों से लिया
अत: यह सब पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने किया
राम और कृष्ण के चरित्र का कोई साम्य नहीं
परन्तु अब सब मेल कर दिया है।
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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार
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