वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
उक्त श्लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे
. इस कारण आर्यों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले मूल-भारतवासी असुर (जिन्हें आर्यों द्वारा अदेव कहा गया) कहलाये. जबकि इसके उलट यदि आर्यों द्वारा रचित वेदों में उल्लिखित सन्दर्भों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व तक यहॉं के मूल निवासियों द्वारा ‘असुर’ शब्द को विशिष्ठ सम्मान सूचक अर्थ में विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था. क्योंकि संस्कृत में असुर को संधि विच्छेद करके ‘असु+र’ दो हिस्सों में विभाजित किया है और ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ तथा ‘र’ का अर्थ ‘वाला’-‘प्राणवाला’ दर्शाया गया है. एक अन्य स्थान पर असुनीति का अर्थ प्राणनीति बताया गया है।
ॠग्वेद (10.59.56) में भी इसकी पुष्टि की गयी है. इस प्रकार प्रारम्भिक काल में ‘असुर’ का भावार्थ ‘प्राणवान’ और ‘शक्तिशाली’ के रूप में दर्शाया गया है. केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनार्यों में असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति को इतना अधिक सम्मान व महत्व प्राप्त था कि उससे प्रभावित होकर शुरू-शुरू में आर्यों द्वारा रचित वेदों में (ॠगवेद में) आर्य-वरुण तथा आर्यों के अन्य कथित देवों के लिये भी ‘असुर’ शब्द का विशेषण के रूप में उपयोग किये जाने का उल्लेख मिलता है।
ॠग्वेद के अनुसार असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति के बारे में यह माना जाता जात था कि वह रहस्यमयी गुणों से युक्त व्यक्ति है. महाभारत सहित अन्य प्रचलित कथाओं में भी असुरों के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें मानवों में श्रेृष्ठ कोटि के विद्याधरों में शामिल किया गया है. मगर कालान्तर में आर्यों और अनार्यों के मध्य चले संघर्ष में आर्यों की लगातार हार होती गयी और अनार्य जीतते गये. आर्य लगातार अनार्यों के समक्ष अपमानित और पराजित होते गये. इस कुण्ठा के चलते आर्य-सुरों अर्थात सुरा का पान करने वाले आर्यों के दुश्मन के रूप में सुरों के दुश्मनों को ‘असुर’ कहकर सम्बोधित किया गया. आर्यों के कथित देवताओं को ‘सुर’ लिखा गया है और उनकी हॉं में हॉं नहीं मिलाने वाले या उनके दुश्मनों को ‘असुर’ कहा गया. इस प्रकार यहॉं पर आर्यों ने असुर का दूसरा अर्थ यह दिया कि जो सुर (देवता) नहीं है, या जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करता है-वो असुर है. लेकिन इसके बाद में ब्राह्मणों द्वारा रचित कथित संस्कृत धर्म ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव को समानार्थी के रूप में उपयोग किया गया है. जबकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में ‘दैत्य’ और ‘दानव’ असुर जाति के दो विभाग थे. क्योंकि असुर जाति के दिति के पुत्र ‘दैत्य’ और दनु के पुत्र ‘दानव’ कहलाये. जो आगे चलकर दैत्य, दैतेय, दनुज, इन्द्रारि, दानव, शुक्रशिष्य, दितिसुत, दूर्वदेव, सुरद्विट्, देवरिपु, देवारि आदि नामों से जाने गये. जहॉं तक राक्षस शब्द की उत्पत्ति का सवाल है तो आचार्य चुतरसेन द्वारा लिखित महानतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति ‘वयं रक्षाम:’ और उसके खण्ड दो में प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों पर गौर करें तो आर्यों के आक्रमणों से अपने कबीलों की सुरक्षा के लिये भारत के मूल निवासियों द्वारा हर एक कबीले में बलिष्ठ यौद्धाओं को वहॉं के निवासियों को ‘रक्षकों’ के रूप में नियुक्ति किया गया. ‘रक्षक समूह’ को ‘रक्षक दल’ कहा गया और रक्षकों पर निर्भर अनार्यों की संस्कृति को ‘रक्ष संस्कृति’ का नाम दिया गया. यही रक्ष संस्कृति कालान्तर में आर्यों द्वारा ‘रक्ष संस्कृति’ से ‘राक्षस प्रजाति’ बना दी गयी. निष्कर्ष : इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहॉं के मूल निवासी अनार्यों का भारत के जनपदों (राज्यों) पर सम्पूर्ण स्वामित्व और अधिपत्य था. जिन्होंने व्यापारी बनकर आये और यहीं पर बस गये आर्यों को अनेकों बार युद्धभूमि में धूल चटायी. जिन्हें अपने दुश्मन मानने वाले आर्यों ने बाद में घृणासूचक रूप में दैत्य, दानव, असुर, राक्षस आदि नामों से अपने कथित धर्म ग्रंथों में उल्लेखित किया है. जबकि असुर भारत के मूल निवासी थे ।
और वर्तमान में उन्हीं मूलनिवासियों के वंशजों को आदिवासी कहा जाता है. ।
वाल्मीकि रामायण
बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग
( समुद्र मंथन.)
विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....
तो अब हमें कोई रोके टोके न..... हम सुर हैं,देवता है और धरती के सुर -भूसुर अर्थात ब्राह्मण तो बेरोक टोक सुरापान करे -हमारा शास्त्र इसकी खुली अनुमति देता है ।
.यह वृत्तांत भी संदर्भित किया जाता है -बिना पढ़े मत कहीं और जाईयेगा.
वेदों में असुर शब्द का अर्थ :--- उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम् ।
दासस्य चिद्वृषशिप्रस्य माया जघ्नथुर्नरा पृतनाज्येषु ॥४॥
इन्द्राविष्णू दृंहिताः शम्बरस्य नव पुरो नवतिं च श्नथिष्टम् ।
शतं वर्चिनः सहस्रं च साकं हथो अप्रत्यसुरस्य वीरान् ॥५॥
संस्कृत भाषा में सुरा शब्द का केवल एक ही रूढ़ अर्थ प्राप्त है ।
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(सु अभिषवे + क्रन् ।
स्त्रियां टाप् । इत्युणादिवृत्तौ उज्ज्वलः । २ । २४ । यद्वा सुष्ठु रायन्त्यनयेति ।
सु + रै शब्दे + “ आतश्चोप- सर्गे । ३ । ३ । ११६ । इत्यङ् । टाप् । )
चषकम् । मद्यम् । इति मेदिनी ॥ अस्याः पर्य्यायगुणादि मदिराशब्दे मद्यशब्द च द्रष्टव्यम् । सुराया विशेषगुणा यथा --
“ कृशानां सक्तमूत्राणां ग्रहण्यर्शोविकारिणाम् सुरा प्रशस्ता वातघ्नी स्तन्यरक्तक्षयेषु च ॥
“ इति राजवल्लभः ॥ तत्पानप्रायश्चित्तं यथा -- “ ब्रह्मघ्रश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ।
सेतु दृष्ट्वा विशुध्यन्ते तत्संयोगी च पञ्चमः । ततो धेनुशतं दद्यात् ब्राह्यणानान्तु भोजनम् ॥
“ इति गारुडे २२६ अध्यायः ॥ * ॥
तत्पाने शुक्राचार्य्यशापो यथा --
“ सुरापानाद्वञ्चनां प्रापयित्वा संज्ञानाशं चैनमस्यातिघोरम् ।
दृष्ट्वा कचञ्चापि तथापि रूपं पीत तथा सुरया मोहितेन ॥
समन्युरुत्थाय महानुभाव- स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्षुः । काव्यः स्वयं वाक्यमिदं जगाद सुरापानं प्रति वै जातशङ्कः ॥
यो ब्राह्मणोऽद्यप्रभृतीह कश्चित् मोहात् सुरां पास्यति मन्दबुद्धिः ।
अपेतधर्म्मा ब्रह्महा चैव स स्यात् अस्मिन् लोके गर्हितः स्यात् परे च ॥
मया चेमां विप्रधर्म्मोक्तसीमां मर्य्यादां वै स्थापितां सर्व्वलोके । सन्तो विप्राः शुश्रुवांसो गुरूणां देवा दैत्याश्चोपशृण्वन्तु सर्व्वे ॥
“ इति महाभारते । १ । ७६ । ५९ -- ६२ ॥ ब्राह्मणक्षत्त्रियवैश्यानां त्रिविधसुरापानप्राय- श्चित्तादि यथा --
“ सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् । तथा स्वकाये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्ततः ॥
गोमूत्रमग्निवर्णं वा पिबेदुदकमेव वा ।
पयो घृतं वा मरणाद्गोसकृद्रसमेव वा ॥ कणान् वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा सकृन्निशि ।
सुरापानापनुत्त्यर्थं बालवासा जटी ध्वजी ॥
सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते । तस्माद्ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥
गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
यथैवैका तथा सर्व्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥ यक्षरक्षःपिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।
तद्ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः ॥
अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाप्युदाहरेत् । अकार्य्यमन्यत् कुर्य्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ॥
यस्य कायगतं ब्रह्म मद्येनाप्लाव्यते सकृत् ।
तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वञ्च स गच्छति ॥
एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य निष्कृतिः ॥
इति मानवे ११ । ९१ -- ९९ ॥ सौत्रामणियज्ञेऽपि तत्पाननिषेधो यथा - “ यद्घ्राणमक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा । एवं व्यवायः प्रजया न रत्यै इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्म्मम् ॥
“ इति श्रीभागवते । ११ । ५ । १३ ॥ * ॥ “ यस्मात् सुराया घ्राणभक्षः अवघ्राणं स एव विहितः न पानं तथा पशोरपि आलभनमेव विहितं न तु हिंसा ।
अतो न यथेष्टभक्षणाभ्यनुज्ञेत्यर्थः । व्यवायोऽपि प्रजया निमित्तभूतया न रत्यै । अतो मनोरथवादिन इमं विशुद्धं स्वधर्म्मं न विदुरिति । “ इति तट्टीकायां श्रीधरस्वामी ॥ अन्यत् प्रायश्चित्तशब्दे द्रष्टव्यम् ॥ सुरापाने वर्णनीयानि यथा --सुरापाने विकलता स्खलनं वचने गतौ । लज्जा मानच्यु तिः प्रेमाधिक्यं रक्ताक्षता भ्रमः ॥ “ इति कविकल्पतायां १ स्तवके ३ कुसुमम् ॥
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