मंगलवार, 15 अगस्त 2017
व्यञ्जना के भेद- उत्तम विचार )
जैसे- कलम [अर्थ- (1) लेखनी (2) पेड़-पौधे की टहनी (3) कलमकार की कूची (4) चित्र-शैली (जैसे- पटना कलम) आदि], पानी (अर्थ- (1) जल (2) चमक (3) प्रतिष्ठा आदि) इत्यादि।
अनेकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को 'शाब्दी व्यंजना' तथा एकार्थक शब्दों पर टिकी व्यंजना को 'आर्थी व्यंजना' कहते हैं।
व्यंजना के भेद
भेद लक्षण/पहचान-चिह्न परिभाषा एवं उदाहरण
(1) शाब्दी व्यंजना अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग जहाँ अनेकार्थक शब्दों का प्रयोग हो, वहाँ 'शाब्दी व्यंजना' होती है। अनेकार्थक शब्द के अर्थ का निश्चय 14 आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर किया जाता है- संयोग, असंयोग, साहचर्य, विरोध, अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्य-सन्निधि (वक्ता व श्रोता के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति की उपस्थिति), सामर्थ्य, औचित्य, देश, काल, व्यक्ति और काकु (स्वर विकार) ।
शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं-
अभिधामूला एवं लक्षणामूला।
(i) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना अभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर) अभिधात्मक शब्द पर आश्रित (निर्भर) शाब्दी व्यंजना 'अभिधामूला शाब्दी व्यंजना' कहलाती है।
उदाहरण : चिर जीवो जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर।। -बिहारी
बिहारी के इस दोहे का अभिधेयार्थ है- राधा कृष्ण की यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनका गहरा प्रेम क्यों न जुड़े ? दोनों में कौन किससे घटकर है ? ये वृषभानुजा (वृषभानु + जा = वृषभानु की जाया/बेटी = राधा) है और वे हलधर (बलराम) के वीर भाई यानी कृष्ण।
किन्तु 'वृषभानुजा' एवं 'हलधर के वीर' शब्द अनेकार्थक है, अतः उनसे दूसरा और तीसरा अर्थ भी ध्वनित होता है। दूसरे अर्थ में ये वृषभ + अनुजा =बैल की बहन यानी 'गाय' है और वे हलधर = बैल के वीर =भाई यानी 'साँड़' है। तीसरे अर्थ में ये 'वृष राशि में उत्पन्न' है और वे 'शेषनाग के अवतार' ।
इस दोहे में 'वृषभानुजा' के स्थान पर 'राधा' एवं 'हलधर' के स्थान पर 'बलराम' शब्द का प्रयोग कर दिया जाये तो यह व्यंग्यार्थ नष्ट हो जायेगा।
(ii) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना लाक्षणिक शब्द पर आश्रित (निर्भर) लाक्षणिक शब्द पर आश्रित व्यंजना 'लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना' कहलाती है।
उदाहरण : फली सकल मनकामना, लूट्यौ अगणित चैन।
आजु अँचे हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन।।
इस उदाहरण में लक्षणा के 'फली' का अर्थ है- पूर्ण हुई, 'लूटयौ' का अर्थ है- प्राप्त किया और 'अँचै' का अर्थ है- देखा। किन्तु व्यंजना से संपूर्ण पद का व्यंग्यार्थ है- प्रियतम के दर्शन से अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।
(2) आर्थी व्यंजना एकार्थक शब्दों का प्रयोग जहाँ एकार्थक शब्दों का प्रयोग हो, वहाँ 'आर्थी व्यंजना' होती है।
एकार्थक शब्दों के अर्थ का निश्चय 10 आधारों में से किसी एक या अधिक आधार पर किया जाता है- वक्ता (कहनेवाला), बोधव्य (सुननेवाला), काकु (स्वर विकार), वाक्य, वाच्य, अन्य-सन्निधि (कहनेवाले) और सुननेवाले के अलावा किसी तीसरे शख्स की मौजूदगी), प्रकरण (प्रसंग), देश, काल एवं चेष्टा।
उदाहरण : (i) काकु का उदाहरण-
मैं सुकुमारि, नाथ वन जोगू।
तुमहिं उचित तप, मो कहँ भोगू।। -तुलसी
सीता, राम से कहती है कि मैं सुकुमारी हूँ और आप वन जाने के योग्य हैं; आपके लिए तप का रास्ता उचित है और मुझे भोग के रास्ते पर चलने को कह रहे हैं। यहाँ सीता के कहने के विशेष प्रकार यानी स्वर विकार (काकु) के कारण यह ध्वनित हो रहा है कि मैं ही सुकुमारी नहीं हूँ, आप भी सुकुमार हैं। आप वन जाने के योग्य हैं तो मैं भी वन जाने के योग्य हूँ। मैं राजकुमारी हूँ तो आप भी राजकुमार हैं। अतः मेरा भी वन जाना उचित है। चूँकि इसमें प्रयुक्त सभी शब्द एकार्थक हैं इसलिए आर्थी व्यंजना हैं।
(ii) अन्य सन्निधि का उदाहरण : एक लड़की किसी लड़के से प्रेम करती है। उससे मिलने को व्याकुल है, पर उसे कोई खबर भी नहीं भिजवा सकती। अचानक एक दिन वह लड़का दिख गया, पर उस समय लड़की की सखी मौजूद थी। लड़की ने होशियारी के साथ अपनी सखी से कहा- ''क्या बताऊँ सखी, दिन भर काम में जुटी रहती हूँ। सिर्फ शाम को थोड़ी फुरसत मिलती है तब कहीं नदी किनारे पानी लाने जाती हूँ, पर उस समय कोई चिड़िया का पूत भी नहीं होता। क्या करूँ, लाचार हूँ।''
इस साधारण वाक्य का अर्थ उस लड़के के नजदीक रहने (अन्य-सन्निधि) से यह हो जाता है कि तुम शाम को नदी किनारे मिलो।
(iii) चेष्टा का उदाहरण :
कोटि मनोज लजावन हारे।
सुमुखि कहहु को अहहिं तुम्हारे।।
सुनि स्नेहमय मंजुल बानी।
संकुचि सीय मन मँह मुसकानी।। -तुलसी
तुलसी के इस चौपाई का मुख्यार्थ है- वनवास के समय राम, सीता एवं लक्ष्मण के दिव्य रूप को देखकर वन की स्त्रियों में सीता से राम की ओर संकेत कर परिचय पूछा तो उनकी स्निग्ध भोली वाणी सुनकर सीता ने संकोच के साथ मुस्कुरा दिया।
किन्तु इस चौपाई को व्यंग्यार्थ है- सीता ने कुछ बोलकर उनके (वन के स्त्रियों के) प्रश्न का उत्तर नहीं दिया पर उनकी संकोच भरी मुस्कान ने बता दिया कि 'ये मेरे पति हैं।'
चूँकि इस चौपाई में प्रयुक्त सभी शब्द एकार्थक है इसलिए इसमें आर्थी व्यंजना है और आर्थी व्यंजना का आधार आंगिक चेष्टा (संकोच भरी मुस्कान) है।
व्यंजना का महत्त्व : काव्य सौंदर्य के बोध में व्यंजना शब्द शक्ति का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यंजना शब्द-शक्ति काव्य में अर्थ की गहराई, सघनता और विस्तार लाता है। काव्यशास्त्रियों ने सर्वश्रेष्ठ काव्य की सत्ता वहीं स्वीकार की है जहाँ रस व्यंग्य (व्यंजित) हो। रीतिकालीन कवि और आचार्य प्रतापसाहि के शब्दों में-
व्यंग्य जीव है कवित में शब्द अर्थ गति अंग।
सोई उत्तर काव्य है वरणै व्यंग्य प्रसंग।।
अभिधा और लक्षणा में अंतर
अभिधा और लक्षणा में अंतर इस प्रकार हैं-
(i) अभिधा और लक्षणादोनों शब्द-शक्तियाँ हैं। दोनों से शब्दों के अर्थ का बोध होता है, पर अभिधा से शब्द के मुख्यार्थ का बोध होता है, किन्तु लक्षणा से मुख्यार्थ का बोध नहीं होता, बल्कि मुख्यार्थ से संबंधित अन्य अर्थ (लक्ष्यार्थ) का बोध होता है।
अभिधा का उदाहरण- 'बैल खड़ा है।'- इस वाक्य में बैल शब्द सुनते ही 'पशु विशेष' का चित्र आँखों के सामने आ जाता है। लक्षणा का उदाहरण- 'सुनील बैल है।'- सुनील को बैल कहने में मुख्यार्थ की बाधा है, क्योंकि कोई आदमी बैल नहीं हो सकता। बैल में जड़ता, बुद्धिहीनता आदि धर्म होते हैं। सुनील में भी बुद्धिहीनता है, इसलिए सादृश्य संबंध से बैल का लक्ष्यार्थ किया गया- बुद्धिहीन। बुद्धिहीनता का बोध हुआ लक्षणा के द्वारा। इसलिए इस वाक्य में लक्षणा है।
(ii) अभिधा शब्द-शक्ति तत्काल अपने मुख्यार्थ का बोध करा देती है, पर लक्षणा शब्द-शक्ति अपने लक्ष्यार्थ का बोध तत्काल नहीं करा पाती है। लक्षणा के लिए तीन बातों का होना नितांत आवश्यक है- मुख्यार्थ में बाधा, मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में संबंध तथा रूढ़ि या प्रयोजन। इस त्रयी के अभाव में लक्षणा की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन अभिधा की जा सकती है।
(iii) अभिधा शब्द-शक्ति शब्द की सबसे साधारण शक्ति है। इस शब्द-शक्ति का काव्य में कोई विशेष स्थान नहीं है, क्योंकि वाच्य (अभिधेय) शब्द में कोई चमत्कार नहीं रहता।
लक्षक (लाक्षणिक) शब्द में चमत्कार रहता है, इसलिए इसकी काव्य में अधिक उपयोगिता है।
अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना में अंतर
अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना के बीच अंतर इस प्रकार हैं-
(i) अभिधा किसी शब्द के केवल उसी अर्थ को बतलाती है जो पहले से निश्चित और व्यवहार में प्रसिद्ध हो। यह अर्थ भाषा सीखते समय हमें बताया जाता है। शब्दकोश या व्याकरण से हम इस अर्थ को जानते हैं। किन्तु लक्षणा और व्यंजना से हम शब्दों के जो अर्थ निकालते हैं वे पहले से जाने हुए नहीं होते।
लक्षणा से हम शब्दों से ऐसा अर्थ निकालते हैं, जो शब्दों से सामान्यतः नहीं लिया जाता। पर यह अर्थ सदैव मुख्यार्थ से संबंधित ही होगा।
व्यंजना के द्वारा हम शब्दों से ऐसा अर्थ भी निकालते हैं जो उनके मुख्यार्थ से संबंधित न हों।
दूसरे शब्दों में एक बात के भीतर जो दूसरी बात छिपी रहती है उसे व्यंजना शक्ति के द्वारा निकालते हैं।
(ii) अभिधा शक्ति शब्द की सबसे सामान्य शक्ति है। इसके द्वारा व्यक्त अर्थ में चमत्कार नहीं रहता है। दूसरी ओर लक्षणा और व्यंजना के अर्थ में विलक्षणता रहती है, इसलिए काव्य में जितना महत्त्व लक्षणा और व्यंजना का है, उतना अभिधा का नहीं।
व्यंजना का काव्यशास्त्र (साहित्यशास्त्र) में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। भले ही वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदांती आदि अभिधा के महत्त्व से संतुष्ट हो जाये, पर काव्यशास्त्र तो रसप्रधान है, रसास्वादन के बिना, सहृदय की तृप्ति नहीं होती और उस रसाभिव्यक्ति के लिए व्यंजना शक्ति की सत्ता नितांत आवश्यक है।
(iii) अभिधा और लक्षणा का व्यापार केवल शब्दों में होता है, किन्तु व्यंजना का व्यापार शब्द और अर्थ दोनों में।
(iv) वाचक और लक्षक तो केवल शब्द होते हैं, किन्तु व्यंजक केवल शब्द ही नहीं अपितु वक्ता, श्रोता, देश, काल, चेष्टा प्रकरण आदि भी व्यंजक होते हैं।
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