शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु

यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३॥
"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण शूद्र तुल्य होता है। क्योंकि वह न तो सम्मान (पूजा) के ही योग्य होता है। और न ही वह दान देने का पात्र होता है। वह सभी धार्मिक शुभ कार्यों में निन्दनीय होता है। ।३३।

देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा ॥३४॥
किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्र विहीन ब्राह्मण  कर ( टेक्स) देने वाले शूद्र की भाँति राजा द्वारा  समझा जाना चाहिए ।३४।

नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता ॥३५॥
"अनुवाद:-  फल की इच्छा रखने वाले साधक को चाहिए कि वह पितृ कार्य और देव पूजा के अवसर पर  उस मूर्ख ब्राह्मण को आसन पर न बिठाऐ ।३५।

राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु ।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः॥३६॥
"अनुवाद:- राजा भी वेद ज्ञान विहीन ब्राह्मण को शद्रतुल्य समझे  और उसे धार्मिक शुभ कार्यों में नियुक्त न करे अपितु उसे खेती बाड़ी के कार्य में लगा दे।३६।

विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥
"अनुवाद:- वेद ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव कुश के चट से स्वयं श्राद्ध कार्य कर लेना उचित है। किन्तु मूर्ख ब्राह्मण से कभी श्रद्धा कार्य नहीं कराना चाहिए ।३७।

आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते ।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः ॥३८॥
"अनुवाद:- मूर्ख ब्राह्मण को भाेजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिए ! क्यों की दान देने वाला व्यक्ति  नरक में जाता है। और दान लेने वाला तो घोर नरकों में ही जाती है।३८।

धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि ॥३९॥
"अनुवाद:- उस राजा के राज्य को धिक्कार है जिसके राज्य में मूर्ख लोग निवास करते हैं। और मूर्ख ब्राह्मण भी ‌दान सम्मान आदि से पूजित होते हैं।३९।

आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि ।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै ॥४०॥
"अनुवाद:- जहाँ मूर्ख और विद्वान के बीच आसन -पूजन और दान में रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता है। अत: विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञानी और मूर्ख की  अवश्य पहचान कर ले ।३९-४०।

मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन ॥४१॥
जहाँ दान मान और परिग्रह में मूर्ख व धूर्त लोग महान गौरवशाली माने जाते हैं। उस देश में विद्वानों को किसी भी प्रकार नहीं रहना चाहिए।४१।

असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते ॥४२॥
"अनुवाद:- दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जन व्यक्तियों के उपभोग के लिए ही होती हैं। जैसे नीम के फल ( निबोरीयों) से अधिक लदे हुए नीम के वृक्ष पर बैठकर केवल कौए ही निबोरियाें को खाते  हैं।४२।

देवीभागवतपुराण- तृतीय स्कन्ध दशमोऽध्याय-


पण्डं कथयते निष्फलत्वं
फलेच्छा सर्वं त्यक्त्वा।
निर्द्वन्द्वमबन्धं नन्दं
 वन्दारु ब्रूते पण्डित:।।१।।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।२।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।३।



कर्मभि: शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रिय:।
शुद्रोपि द्विजवत्सेव्य इति ब्रह्माऽब्रवीत् स्वयम्॥४७।

हे देवी ! शुद्ध कर्मो से मन को शुद्ध करने वाले जितेन्द्रिय शूद्र को भी और अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है। ब्रह्मा ने स्वयं कहा है कि शूद्र की भी ब्राह्मण के समान सेवा की जानी चाहिए। 47॥

महाभारत अनुशासन पर्व-अध्याय-(१३७)


ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रे वेदविवर्जिते ।।
ज्वलंतमग्निमुत्सृज्य न हि भस्मनि हूयते ।।२९ ।।

सन्निकृष्टमधीयानं ब्राह्मणं यो व्यतिक्रमेत्।।
भोजनेनैव दानेन दहत्यासप्तमं कुलम् ।। 1.184.३० ।।

7. इनमें से जिन्होंने इस संसार में [अपने पिछले जन्म में] अच्छे कर्म किए हैं, वे उसी के अनुसार अच्छे जन्म प्राप्त करते हैं। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के रूप में जन्म लेते हैं । लेकिन जिन्होंने इस संसार में [अपने पिछले जन्म में] बुरे कर्म किए हैं, वे उसी के अनुसार बुरे जन्म प्राप्त करते हैं, जैसे कुत्ता, सुअर या जातिहीन व्यक्ति के रूप में जन्म लेना।

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ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च ॥४२॥

विप्राद्द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ।
पादारविन्दविमुखात्श्वपचं वरिष्ठम्।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ।
प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ।१०।


स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।18.45।।
अनुवाद:-
अपने-अपने स्वाभाविक कर्म में अभिरत मनुष्य संसिद्धि को प्राप्त कर लेता है। स्वकर्म में रत मनुष्य किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करता है, उसे तुम सुनो।। गीता
 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।2.53।।
अनुप
जिस काल में वेदों की कामना और भोग मूलक  ऋचाओं से भ्रमित हुई तेरी बुद्धि निश्चल हो जायगी और परमात्मा की समाधि में अचल हो जायगी, उस काल में तू योग को प्राप्त हो जायगा।५३। गीता-
 



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