सबसे पहले जाति की बात करें तो जातियाँ
एक समुद्र के समान हैं। जिनसे वंश रूपी नदियाँ निकलकर अन्ततोगत्वा कुल रूपी कुल्याओं (कुलावों) में विभाजित हो जाती हैं।
जातियों का निर्माण मनुष्यों की चिर-पुरातन प्रवृतियों से निर्धारित होता है। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होते हुए भी सम्पूर्ण जीवन निर्माण और जीवन सञ्चालन में सहायक होती हैं।
जाति की अवधारणा जन्म मूलक है। शब्द कल्पद्रुम में जाति शब्द जन्- प्रादुर्भावे उत्पन्न होने ) के अर्थ में है।
जातिः---स्त्रीलिंग, (जायतेऽस्यामिति । जन् + अधि- करणे क्तिन् ) -जिसमें जन्म हो । (जन + भावे क्तिन् ।) जन्म। इसी शब्द अमरकोश जाति: शब्द गोत्र के अर्थ में भी है। वस्तुत: जाति और गोत्र जन्म मूलक ही हैं।
संस्कृत के प्राचीन शब्द कोश ( अमर कोश) में भी जाति के पर्याय निम्नलिखित रूप में है।
जाति स्त्री।
जननम्
समानार्थक:जनुस्,जनन,जन्मन्,जनि,उत्पत्ति,
जननम्
समानार्थक:जनुस्,जनन,जन्मन्,जनि,उत्पत्ति,
उद्भव,जाति,भव,भाव
3।3।68।1।2।
3।3।68।1।2।
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जातियों के मूल में उनकी जन्मगत प्रवृतियाँ व स्थितियाँ सदैव से चित्त में विद्यमान रहती हैं। यह एक सूक्ष्म विवेचना है। साधारण जन इस ज्ञान से वञ्चित हा होते हैं।
संसार में अनेक प्राणी विद्यमान हैं। सबकी प्रवृत्तियाँ और गतियाँ भी भिन्न भिन्न हैं। आगामी जन्म का निर्धारण भी व्यक्ति की प्रवृत्तियों के अनुरूप ही होता है।
एक ही परिवार में माता - पिता और परिवेश भी समान होने पर सन्तानों के स्वभाव में भेद होना प्रवृत्ति मूलक प्रारब्ध ही है।
भारतीय समाज में जातियों की अवधारणा प्रवृत्तियों से सम्बन्धित न होकर वृत्तियों से सम्बन्धित की गयी है। जो पूर्णत: सिद्धान्त के विपरीत है।
वृत्तियों से वर्ण का निर्धारण होना तो सही है।परन्तु इन वृत्तियों से जाति का निर्धारण होना ही गलत है। और भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यह गलती जब से हुई है समाज टूटा है। जिसका खामियाजा वह आज तक भुगत रहा है।
वृत्ति आवृत्ति और प्रवृत्ति दर्शन शास्त्र के ये तीन शब्द हमारी व्यावहारिकता की तीन अमूर्त अवस्थाओं को स्थापित करती हैं।
वृत्ति- हमारे उस आचरण का रूपान्तरण है। जिसके द्वारा हम जीविका उपार्जन करते हैं।
- आवृत्ति- हमारे आचरण की अभ्यस्तता (अथवा आदत का रूपान्तरण है। यह स्थापित प्रवृत्ति है। जो मनुष्य द्वारा दोहराए जाने वाले व्यवहार के ढ़ग को प्रदर्शित करती है जो तन्त्रिका मार्गों में अंकित हो जाने से अवचेतन मन से ही स्वत: सञ्चालित होती रहती हैं ।
मानसिक क्रिया का कोई भी क्रम जो बार-बार दोहराया जाता है। आवृत्ति अथवा आदत कहलाता है।
प्रवृत्ति - प्रवृत्ति से तात्पर्य मन का एक सहज झुकाव जो कभी-कभी एक प्रेरक बल के बराबर होता है। प्रवृत्तियाँ हमारे अचेतन मन (चित्त) में सञ्चित जैविक प्रेरणाओं का रूपान्तरण है। प्रवृत्ति स्वभाव की गहराईयों के रूप में होती है।
ये तीनों एक दूसरे के सापेक्ष अवश्य हैं। परन्तु सबका अस्तित्व पृथक पृथक हैं।
यद्यपि प्रवृतियाँ मनुष्यों की वृत्तियों (व्यवसायों व नित्य- नैमित्तिक कर्मों ) को प्रकाशित करती हैं। उसी प्रकार मनुष्य की वृत्तियाँ भी प्रवृत्तियों पर परावर्तित होकर उसे सदैव व्यक्ति के आचरण अथवा कारनामों को प्रभावित करती रहती हैं ।
प्रवृत्ति-
सामान्य अर्थ में प्रवृति किसी जाति के चित्त में संचित जातीय संस्कार है। जो सांसारिक वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति के आग्रह (झुकाव) को निर्देशित करती हैं।
जबकि वृत्ति उसके जीविका उपार्जन के लिए किये गये क्रिया-कलाप को रूपान्तरण करती है।
भारतीय समाज में जातियाँ आनुवांशिक लक्षणों से सुनिश्चित होती हैं। जो किसी जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित जन्मगत श्रृंखला हैं। सभी जातियों का अपना एक विभिन्न परिवेश होता है। भारतीय समाज की सभी जातियाँ अपने अपने परिवेश में बँधी हुई होकर अपनी विशेष वृत्तियों से जीवन निर्वाह करती हुई देखी जाती हैं।
मनुष्य की वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर कभी कभी जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों ( व्यवसायी) वाले वाणी-कुशल व वाचालता से परिपूर्ण होते ही हैं।
समान परिवेश (माहौल) में जैसे कोर्ट -कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर मुवक्किल के पक्ष में पहल करने वाले वकील बोलने के अभ्यस्त हो होते हैं।
और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।
वैसे ही डॉक्टर आदि की भी वृत्ति उनके परिवेश से प्रेरित होती हैं।
"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
और प्रत्येक प्राणी अपनी जाति मूलक अस्तित्व से ही संसार में पहचाना जाता है। जैसे पुष्प की पहिचान उसकी सुगन्ध से होती है। वैसे ही जाति की पहचान उसकी प्रवृत्ति से होती है।
ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके प्राणीयों को इस संसार में क्रमानुगत रूप से उत्पादित किया है।
मानवीय जातियों के उत्तम और अनुत्तम होने का मानक तो प्रकृति के तीन गुण सत' रज और तम का आनुपातिक योग से निश्चित होते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी व्यक्ति के कर्म और गुणों के आधार पर ही वर्णों की बात की गयी है। जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण नहीं किया सकता है -जैसे- एक प्रसंग में ब्रह्मा के चातुर्वर्ण्य का निर्देश भगवान कृष्ण ने करते हुए कहते हैं।
सत्त्व रज तम इन तीनों गुणों के विभाग से तथा कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर के निर्देश से ब्रह्मा द्वारा रचे गये हैं।
क्योंकि वह परमात्मा ही सबकी रचना करने पर भी कर्तापन से रहित रहता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है। और उसी ब्रह्मा को प्रभु ने चारों वर्णों की सृष्टि करने का निर्देश किया।
श्रीभगवानुवाच-
सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ।४८।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे ! वत्स ब्रह्मा ! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
सन्दर्भ:-ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)/अध्याय(6) तथा इसी बात को
नीचे
देवीभागवतपुराण- स्कन्धः (9)अध्यायः (3) - में भी बताया गया है।
"श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके, हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥
ब्रह्मा ने चातुर्वर्ण्य सृष्टि कृष्ण जी के निर्देश पर ही की परन्तु भगवान कृष्ण ने अपने रोमकूपो ( कोशिकाओं ) से गोपों की सृष्टि पञ्चं वर्ण के रूप में की।
श्रीमद्भगवद्गीता में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण नें प्रकृति के तीनों गुणों का धर्म (प्रभाव) को बताया है। जो संसार की मानव जातियों को सांस्कृतिक रूप से सात्विक राजसिक और तामसिक गुणों के अनुपात से प्रभावित करती रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन र्है।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥(५)
अनुवाद : हे महाबाहु अर्जुन ! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६)
अनुवाद:- हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के साथ जीव को बाँधता है।
अनुवाद:- हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के साथ जीव को बाँधता है।
(६)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो! जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ (७)
अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो! जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)
अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
मनुष्य के सभी कार्य प्रकृति के इन्हीं तीनों गुणों से प्रेरित होते हैं। इन्हीं अनुपात में व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ बनती हैं।
योगशास्त्र में वर्णन है कि:– सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः २.१३ ॥ अर्थात "पूर्व कर्म के अनुसार प्राणियों को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।"
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ २.१४।
जो सुख- दु:ख और पाप पण्य
का कारण होते हैं।२/१४। अर्थात
पुण्य और पाप के कारण ये (जन्म, आयु और भोग) सुखदायक और दुःखदायक अनुभव उत्पन्न करते हैं।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं,
"जो मनुष्य धर्मात्माओं के लोकों को प्राप्त होकर तथा वहाँ चिरकाल तक निवास करके योग से च्युत हो गया था, वह पुनः पवित्र और धनवानों के घर में जन्म लेता है।"
अलग-अलग लोग अलग-अलग परिस्थितियों में जन्म लेते हैं, जैसे कि कुछ निर्धन होते हैं, कुछ धनवान होते हैं, कुछ सुंदर होते हैं, कुछ बदसूरत होते हैं। यह भेदभाव क्यों किया जाता है और इसका निर्णय कौन करता है?
कर्म के नियम के अनुसार , आपका सञ्चित कर्म (जो सभी कर्मों का भण्डार है ) तय करता है कि आप कहाँ पैदा होंगे, आपका लिंग क्या होगा, आपका जीवनकाल और आपके जीवन में आपका प्रारब्ध क्या होगा।
कर्म प्रवृत्तियों और इच्छाओं के परिणाम हैं।
(5) जन्म के लिए जिम्मेदार कर्म जीवन की अवधि और आयु सुख-दुख के अनुभव को भी निर्धारित करते हैं।
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जीवन की शूक्ष्मताऐं अन्त:करण में समाहित हैं।
अंतःकरण चतुष्टय का मतलब है- मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार. यह वेदान्त दर्शन की एक अवधारणा है।
आत्मा और प्रकृति के मिलन से चित- उत्पन्न होता है। चित्त ही चेतना का कारण बनता है।
मन इस चित्त की ही तीन क्रमिक अवस्थाऐं है
चित्त स्मृतियों व पूर्व जन्म के अनेक जन्मों के संस्कारों का सञ्चय है।
मन के तीन स्तर होते हैं चेतन ( जाग्रत) अव- चेतन ( स्वप्न) और सुषुप्ति ( निद्रा) मन का अचेतन रूप है।
मन की जाग्रत अवस्था को जब अपने अस्तित्व का बोध व आभास होता है तब वह बोध अहंकार कहलाता है।
मन के इस जाग्रत रूप से अहंकार का जन्म होता है और मन इसी अहम् से युक्त होकर
संकल्प और विकल्प करता है।
इन संकल्पों से इच्छाओं का और विकल्पों से निर्णय शक्ति के रूप मे बुद्धि का जन्म होता है।
प्रवृत्तियों का सञ्चय हमारे चित्त में ही होता है।
अतः प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी जाति का होता है। यहाँ यह अन्तर ध्यान देने योग्य ही है।
मनुष्य की सभी जातियाँ सामान्यतः प्रसव आकृति और बाह्य अंग -रंग आदि से तो समान ही दिखती हैं।
परन्तु उनके चित्त में निहित प्रवृत्तियों से ही उनकी जातिय पृथकता सुनिश्चित होती है ।जो सभी मानव समुदायों ( समाजों) की भिन्न भिन्न है।
किसी भी धार्मिक शास्त्र में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी वर्ण का होता है,-
वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के प्रवृत्तिगत चुनाव ( वरण) से होता है।
वर्ण का सम्बन्ध जन्म से नहीं होता अपितु वृत्ति पर आधारित होता है तथा वृत्ति का चयन प्रवृत्ति के अनुरूप ही होना कल्याणकारी है।
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अब शास्त्रोक्त अर्थ में जाति है क्या ? इसका उत्तर न्यायशास्त्र में गौतम ऋषि ने भी दिया है:– समानप्रसवात्मिका जाति अर्थात "जिसका समान प्रसव (जन्म) हो वह सजाति है।"
समान प्रसव वह है जिनके संयोग से सन्तान का उत्पन्न होना सम्भव है। उदाहरण स्वरूप बैल, गाय एक जाति के हैं परंतु घोड़ा और कुत्ता भिन्न जाति के हैं क्योंकि इनके परस्पर मेल से प्रसव धारण सम्भव नहीं है। एक जाति में भी भिन्न भिन्न स्वरूप एवं लक्षण के जीव हो सकते हैं। ये जातिमूलक प्रवृत्तियाँ उनके आनुवांशिक गुणों की संवाहक हैं।
यह मानव जाति की बात है। जिसमें जातियाँ समानाकृति (species) की तो हैं।
उनकी मनस् प्रवृत्तियों में समानता नहीं है।
परन्तु पशुओं में भी दो भिन्न जातियों के मिश्रण से नयी जाति बनाती है।
जिनकी शारीरिक और प्रवृत्ति मूलक भिन्नता होती है। जैसे
सिंह और बाघ के संयोग से लाइगर, घोड़े–गधे के संयोग से खच्चर इत्यादि मिश्र लक्षण युक्त जीव उत्पन्न होते हैं ।
लाइगर, नर शेर और मादा बाघिन के संकर बच्चे होते हैं. लाइगर, बिल्ली परिवार के सबसे बड़े जानवरों में से एक हैं. ये शेरों की ताकत और बाघों की फुर्ती का मिश्रण होते है।
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व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों से जातियाँ गुण निर्धारित होते हैं।
एक कुत्ता का जो स्वभाव और प्रवृत्ति होती है ।
वह सहज परिवर्तित नहीं होती है नीतिकारों ने कुता के विषय में बताया-
शुनकः स्वर्णपरिष्कृतगात्रो नृपपीठे विनिवेशित एव ।
अभिषिक्तश्च जलैः सुमुहूर्ते न जहात्येव गुणं खलु पूर्वम् ॥३७९।
(मुक्तिसूक्तवलि- शुनक:पद्धति -- जल्हणकृत )
'
अनुवाद:- कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता
जातिगुण नहीं छोड़ता। अर्थात उसकी प्रवृति उसके परिवेशीय गुणों से समझौता नहीं करती है।
संसार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को जानकर भी कौन बुद्धिमान जातीय निर्धारण नहीं करेगा ? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यह भी उसकी प्रवृत्ति सुनिश्चित करती है।
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अब हम आभीर जाति की बात करते हैं।
अभीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
अपनी जीवन यात्रा के कई पढावों पर अपने विकास क्रम में कई रूपों को धारण करने वाला शब्द है अहीर -
अहीर आहीर ये दोनों शब्द क्रमशः अभीर और आभीर शब्दों के ही प्राकृतिक रूप है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर शब्द का समूह वाची "रूप है।
जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुआ है।
यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति के सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका में अफर" के रूप में थी जिसका प्रारम्भिक निवास मध्य अफ्रीका के जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में थे और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे।
ये सभी मूलत: एक स्थान से ही अन्यत्र गये।
सभी अहीर पशुपालक अथवा चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में अभीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं।
परन्तु यथार्थ में ऐसा कदापि नहीं है।
अभीर शब्द का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
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परवर्ती शब्द कोशकारों ने दोनों शब्दों को पृथक- पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की है।
ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता ( निडरता). को केन्द्रित करके की आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की ।
दूसरे कोशकार तारानाथ वाचस्पति ने (1885) के समय में अहीर जाति की वृत्ति ( व्यवसाय) गोपालन को केन्द्रित करके अभीर शब्द की व्युत्पत्ति की-
देखें नीचे क्रमश: दोनों व्युत्पत्तियों का विवरण-
अमरसिंह की व्युत्पत्ति-
१- आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
- यह उपर्युक्त उत्पत्ति अमरसिंह के शब्द कोश अमरकोश में उद्धृत है।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने भी अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है।
वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय) ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति ( व्यवसाय-) से निर्मित होती है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है।
प्रवृत्तिाँ स्वभाव की गहरीइयों में मन के अचेतन तल पर संचित जातिगत जैविक आधार है। सभी जातियों क धार प्रवृत्ति है।
और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का व्यक्तिगत प्रभाव-" जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्म संस्कारों से सम्बन्धित है। स्वभाव जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है। सभी जातियों में व्यक्ति के स्वभाव भिन्न होते है। प्रवृत्तियों के सोने पर भी जैसे निडरता अहीर जाति की प्रवृत्ति है।
और उसके अनुरूप कृषि और पशुपालन अहीरों की वृत्ति है।
कम्प्यूटर में सिस्टम सॉफ्टवेयर प्रवृत्ति है। और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर स्वभाव है। जैसे ब्लूटुठ और शेयरइट का अन्तर ।
वृत्ति-
- वृत्ति का अर्थ है, व्यवहारों का एक समूह जो किसी पर्यावरणीय( परिवेशीय) संकेत या आंतरिक प्रेरणा के अनुरूप जीविका -उपार्जन होता है. कोई कामधन्धा-
आवृत्ति( आदत)- ( पुन: पुन:अभ्यास)अथवा आदत का मतलब है, कोई ऐसा व्यवहार जो बिना ज़्यादा सोच के बार-बार दोहराया जाए. आदतें जन्मजात नहीं होतीं, बल्कि सीखी जाती हैं.आदतों का स्वरूप परिवेश, देश और काल स प्रभावित होता है।
मनोविज्ञान में, आदत को किसी भी नियमित रूप से दोहराए जाने वाले व्यवहार के तौर पर परिभाषित किया गया है।
आवृत्ति (आदत) का सम्बन्ध हमारे अवचेतन मन से जुड़ा होता हैं. अवचेतन मन, हमारे सीखे गए व्यवहारों का भण्डार होता है. यह हमारे कार्यों को सचेत जागरूकता के विना भी यथा क्रम संचालित करता है.
एक उदाहरण से समझे उड़ना सभी पक्षियों की प्रवृति है। परन्तु उनके उड़ने के तरीके अलग हैं। यह उनका प्रवृति मूलक अन्तर है। सभी
मानव का वैज्ञानिक संघ कॉर्डेटा (Chordatae) है. मानव का वैज्ञानिक वर्ग स्तनधारी (Mammalia) है और वैज्ञानिक जाति होमो सेपियंस (Homo sapiens) है. मानव को वैज्ञानिक रूप से वर्गीकृत करने के लिए, ये वर्गीकरण भी इस्तेमाल किए जाते हैं: जीववैज्ञानिक वंश - होमो (Homo), जीववैज्ञानिक कुल - होमिनिडाए (Hominidae), जीववैज्ञानिक गण - प्राइमेट (Primate).
मानव को वर्गीकृत करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कुछ और वैज्ञानिक वर्गीकरण:
- ऐनिमेलिया (Animalia) - जंतु
- कोरडेटाए (Chordatae) - रज्जुकी
- वर्टेब्रेटा (उपसंघ)
- टेट्रापोड़ा (महावर्ग)
- थीरिया (उपवर्ग)
- प्राइमेट्स (गण)
- होमिनिडे (अधिकुल)
मानव जाति विज्ञान, मानव शास्त्र की एक शाखा है. यह मानवों के सजातीय, नस्ली, और/या राष्ट्रीय वर्गों के उद्गमों, वितरण, तकनीकी, धर्म, भाषा, और सामाजिक संरचना का अध्ययन करती है.
परन्तु भारतीय जातियाँ शारीरिक संरचना में समानताऐं होते हुए भी प्रवृत्ति अथव मनसिक स्तर भिन्न भिन्न हैं। इनकी संस्कृति सभ्यता और जनरीतियाँ इनके व्यवसाय ही इनका जातियाँ विभाजन करते हैं।
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जाति, वंश, और कुल ये सभी परिवार से जुड़े शब्द हैं. इनमें स्थूल अन्तर निम्नलिखित प्रकार से है:
- सामान्य तौर पर जाति: एक ही धर्म और संस्कृति वाले लोगों का वह समूह है.जिसकी उत्पत्ति किसी एक आदि पुरुष से हुई हो तथा वह समान प्रवृत्ति हो - जाति में कई वंश परिवार शामिल होते हैं.
- वंश: पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला परिवार.जिसमें लोग किसी एक व्यक्ति या पूर्वज के नाम के आधार अपनी पहचान सुनिश्चित करता है.
- कुल: एक बड़ा परिवार या रक्तसंबंधी लोगों का समूह. कुल में माता-पिता, पुत्र, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ- वगैरह शामिल होते हैं। एक वंश में कई कुल होते हैं।
- कुल ऐसा समूह होता है जिसके सदस्यों में रक्तसम्बन्ध सन्निकट हो.
- एक वंश के सभी वंशज मूल रूप से एक ही पूर्वज से संबंधित होते हैं। जबकि एक ही वंश में कई कुल होते हैं। और एक जाति में कई वंश हो सकत हैं।
[इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य जातियों की मौलिकता (Originality ) एवं इसकी उत्पत्तिमूलक सिद्धान्त को बताते हुए यादवों के वंश, वर्ण, कुल एवं गोत्रों की जानकारी भी देना है।
इन सभी बातों को क्रमबद्ध विधि से बताने के लिए इस अध्याय को निम्नलिखित- (६) उपशीर्षकों में विभाजित किया गया है।
(२)- यादवों की जाति।
जातियों का निर्धारण मनुष्य की आनुवांशिक प्रवृत्तियों से होता है। उन प्रवृत्तियों से जो जन्मजात होती हैं जो परम्परागत रूप से व्यक्ति की पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्ति समूहों में संचारित होती रहती है। इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यक्ति का स्वभाव और गुण भी विकसित होता है, जो उस जाति समूह को उसी के अनुरूप कार्य करने को भी प्रेरित करता है। इसी गुण विशेष के आधार पर समाज में जाति का निर्धारण व एक अलग पहचान होती है।
अर्थात् जन्मजात प्रवृत्ति मूलक आचरण अथवा व्यवहार के आधार पर ही किसी व्यक्ति की जाति का निर्धारण होता है और इसी जन्मजात प्रवृत्तियों के कारण समाज में अलग-अलग जातियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और गुण देखें जातें हैं जो उनके वर्ण का निश्चय करते हैं।।
इसको इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जाति व्यक्ति समूहों की प्रवृत्ति मूलक पहचान है जो मनुष्य समूहों में अलग-अलग देखी जाती है। जैसे वणिक जाति का वर्ण "वैश्य" है जिनका वृत्ति (व्यवसाय) क्रय- विक्रय (खरीद-फरोख्त) करना है। और उसी के अनुसार उनकी स्वभावगत गहराई-(प्रवृत्ति) लोलुपता और मितव्यता दृष्टिगोचर होती है। इसी लोलपता के कारण वणिक का एक विशेषण( लाला) भी है। वैसे संस्कृत भाषा में लाला या लालायित शब्द भी है जो लालसा युक्त व्यक्ति को सूचित करता है।
तमिल शब्दावली में लाला शब्द विद्यमान है।
हिन्दू व्यापारियों की एक जाति जो उत्तरी भारत से तमिल देश में आकर बसी थी; एक हिन्दू व्यापारी जो उत्तर से तमिलनाडु में आकर बसा था। उसके लिए लाला का सम्बोधन होता था।
वणिक जाति में लालसा( लोभ ) अधिक होने से भी उनका यह लाला विशेषण है।
यही उनकी जातिगत और वर्णगत पहचान है।
कुल मिलाकर कोई भी जाति अपने समूह की सबसे बड़ी इकाई अथवा समष्टि रूप होती है। और यह ऐसे ही नहीं बनती है। इसके लिए जाति को प्रमुख इकाईयों के बहुत से विकास क्रमों से गुजरना होता है। जैसे - किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है।
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अब यह सब कैसे संभव होता है। इसको अच्छी तरह समझने के लिए क्रमशः जाति, वर्ण, वंश, कुल और गोत्र को विस्तार से जानना होगा तभी पूरी बात समझ में आयेगी।
हमलोग जानेंगे किस आधार पर यादवों की जाति " अहीर अथवा आभीर" हुई़ ?, जिसे- आभीर को गोप, गोपाल, ग्वाल, घोष, वल्लभ, इत्यादि नामों से क्यों जाना जाता है ?
(२)- यादवों की जाति।
तो इस संबंध में बता दें कि- अहीर जाति की वृत्ति यानी व्यवसाय पूर्व कल से ही कृषि और पशु पालन रहा है। यह वृत्ति उन्ही प्रवृत्ति वालों में हो सकती है जो निर्भीक और साहसी हो।
चुँकि गोपालक अहीर अपने पशुओं को जंगलों, तपती धूप, आंधी तूफान, ठंड और बारिश की तमाम प्राकृतिक झंझावातों को निर्भीकता पूर्वक चलाते हुए पशुओं के बीच रहते हैं। इन्हीं परिस्थितियों इनमें अनेक साहसिक गुणों का विकास होता है। इसी जन्मजात निर्भीक प्रवृत्ति के कारण ही इनको आभीर / अभीर(अहीर) कहा गया, तथा वृत्ति (व्यवसाय) गोपालन के कारण से इन्हें - गोप, गोपाल(ग्वाल) घोष और वल्लभ कहा गया जो इनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान हैं।
कुल मिलाकर मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है।
उसके व्यवसायों के वरण करने से ही उसका वर्ण निर्धारित होता है। व्यवसायों के वरण के आधार पर ही ब्रह्मा मानव जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है।
(इसके बारे में आगे बताया है कि किस आधार पर आभीरों का वर्ण "वैष्णव" है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से अलग है?)
आभीर जाति को यदि शब्द ब्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाय तो- अभीर शब्द में 'अण्' तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है। अर्थात् आभीर शब्द अभीर शब्द का ही बहुवचन है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि-गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं। जैसे-
ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता (निडरता) को केन्द्रित करके आभीर शब्द की व्युत्पत्ति करते है नीचे देखें।
"आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
किंतु वहीं पर अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ नें अपने ग्रन्थ वाचस्पत्यम् में अभीर- जाति की शब्द व्युत्पत्ति को उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय के आधार पर गोपालन को केन्द्रित करके की है। नीचे देखें।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर गायें चराता है या उन्हें घेरता है।
अगर देखा जाय तो उपरोक्त दोनों शब्दकोश में जो अभीर शब्द की ब्युत्पत्ति को बताया गया है उनमें बहुत अन्तर नही है। क्योंकि एक में अहीरों की वीरता मूलक प्रवृत्ति (aptitude ) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है तो वहीं दूसरे ग्रन्थ में अहीर जाति को गोपालन वृत्ति अथवा (व्यवसाय) (profation) को आधार मानकर शब्द ब्युत्पत्ति को दर्शाया है।
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अहीर शब्द के लिए दूसरी जानकारी यह है कि- आभीर का तद्भव रूप अहीर होता है। अब यहां पर तद्भव और तत्सम शब्द को जानना भी आवश्यक हो जाता है। तो इस सम्बन्ध में सर्वविदित है कि - संस्कृत भाषा के वे शब्द जो हिन्दी में अपने वास्तविक रूप में प्रयुक्त होते है, उन्हें तत्सम शब्द कहते है। ऐसे शब्द, जो संस्कृत और प्राकृत से विकृत होकर हिंदी में आये है, 'तद्भव' कहलाते है। यानी तद्भव शब्द का मतलब है, जो शब्द संस्कृत से आए हैं, लेकिन उनमें कुछ बदलाव के बाद हिन्दी में प्रयोग होने लगे हैं। जैसे आभीर संस्कृत का शब्द है, किंतु कालांतर में बदलाव हुआ और आभीर शब्द हिंदी में अहीर शब्द के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऐसे ही तद्भव शब्द के और भी उदाहरण है जैसे- दूध, दही, अहीर, रतन, बरस, भगत, थन, घर इत्यादि।
किंतु यहां पर हमें अहीर और आभीर, और शब्द के बारे में ही विशेष जानकारी देना है कि इनका प्रयोग हिंदी और संस्कृत ग्रंथों में कब कहां और कैसे एक ही अर्थ के लिए प्रयुक्त हुआ है।
तो इस संबंध में सबसे पहले अहीर शब्द को के बारे में जानेंगे कि हिंदी ग्रंथों में इसका प्रयोग कब और कैसे हुआ। इसके बाद संस्कृत ग्रंथों में जानेंगे कि आभीर शब्द का प्रयोग गोप, अहीर और यादवों के लिए कहां-कहां प्रयुक्त हुआ।
अहीर शब्द का प्रयोग हिंदी पद्य साहित्यों में कवियों द्वारा बहुतायत रूप से किया गया है। जैसे-
अहीर शब्द का रसखान कवि अपनी रचनाओं में खूब प्रयोग किए हैं। जैसे-
"ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।। खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी।
वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।।
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने 500 साल पहले दो ग्रंथ "हरिरस" और "देवयान" लिखे। जिसमें ईशरदासजी द्वारा रचित "हरिरस" के एक दोहे में स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था।
नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।।५८।
अर्थात् - अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण (श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण (सर्जक) हो, मैं चारण आप श्री हरि के गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर (समुद्र) जल से भरा हुआ है।५८।
और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर के दशम स्कन्ध में लिखा है-
"सखी री काके मीत अहीर।
काहे को भरि-भरि ढारति हो इन नैन राहके नीर।।
आपुन पियतपियावत दुहिदुहिं इन धेनुन के क्षीर। निशिवासर छिन नहिं विसरत है जो यमुना के तीर।। ॥
मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानि कै छाँडि गए वे पीर।।८२॥
अथ श्यामरंग को तरक वदति ॥ मलार ॥✍️
ये उपरोक्त सभी लोक- उदाहरण कृष्ण के अहीर होने के हैं जो हिन्दी साहित्यिक ग्रंथों प्रयुक्त हुए हैं। अब हमलोग आभीर शब्द को जानेंगे जो अहीर का तद्भव रूप है, वह संस्कृत ग्रंथों में कहां-कहां प्रयुक्त हुआ हैं। इसके साथ ही आभीर (अहीर) शब्द के पर्यायवाची शब्द - गोप, गोपाल और यादव को भी जानेंगे कि पौराणिक ग्रंथों में अभीर के ही अर्थ में कैसे प्रयुक्त हुए हैं।
सबसे पहले हम गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय (७) के श्लोक संख्या- (१४) को लेते हैं जिसमें में भगवान श्री कृष्ण और नंदबाबा सहित पूरे अहीर समाज के लिए आभीर शब्द का प्रयोग शिशुपाल उस समय किया जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर उद्धव जी शिशुपाल के यहां गए। किंतु वह प्रस्ताव को ठुकराते हुए उद्धव जी से श्रीकृष्ण के बारे में कहा कि-
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वं पुत्रः प्रकीर्तितः।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्तोऽयं गतत्रपः।।१४।
प्रद्युम्नं तस्तुतं जित्वा सबलं यादवैः सह।
कुशस्थलीं गमिश्यामि महीं कर्तुमयादवीम्।।१६।
अनुवाद -
• वह (श्रीकृष्ण) पहले नन्द नामक अहीर का भी बेटा कहा जाता था। उसी को वासुदेव लाज- हया छोड़कर अपना पुत्र मानने लगे हैं। १४।
• मैं उसके पुत्र प्रद्युम्न को यादवों तथा सेना सहित जीतकर भूमंडल को यादवों से शून्य कर देने के लिए कुशस्थली पर चढ़ाई करूंगा। १६।
इन उपर्युक्त दोनो श्लोक को यदि देखा जाए तो भगवान श्री कृष्ण सहित संपूर्ण अहीर और यादव समाज के लिए ही आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है किसी अन्य के लिए नहीं।
इसी तरह से आभीर शूरमाओं का वर्णन महाभारत के द्रोणपर्व के अध्याय- २० के श्लोक - ६ और ७ में मिलता है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे।
भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्।
कलिङ्गाः सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६। ।
यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।
शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।।७।
अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल पराच्य (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक। ६
• अनुवाद - शक यवन ,काम्बोज, हंस -पथ नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के अभीर (अहीर) दरद, मद्र, केकय ,तथा एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे।६-७।
इसी तरह से विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६,१७ और १८ में अन्य जातियों के साथ-साथ शूर आभीरों का भी वर्णन मिलता है-
"तथापरान्ताः ग्रीवायांसौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः। कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः।मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा । 17।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18।
अनुवाद - पुण्ड्र, कलिंग, मगध, और दाक्षिणात्य लोग, अपरान्त देशवासी, सौराष्ट्रगण, शूर आभीर और अर्बुदगण, कारूष,मालव और पारियात्रनिवासी, सौवीर, सैन्धव, हूण, साल्व, और कोशल देश वासी तथा माद्र,आराम, अम्बष्ठ, और पारसी गण रहते हैं। १७-१७।
हे महाभाग ! वे लोग सदा आपस में मिलकर रहते हैं और इन्हीं का जलपान करते हैं। उनकी सन्निधि के कारण वे बड़े हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। १८
▪️ इसी तरह से महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या- (१८) और (१९) पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है-
"मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन:।१८।
अनुवाद - मेरे पास दस करोड़ गोपों (आभीरों) की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।
इसी तरह से जब भगवान श्री कृष्ण इंद्र की पूजा बंद करवा दी, तब इसकी सूचना जब इंद्र को मिली तो वह क्रोध से तिलमिला उठा और भगवान श्री कृष्ण सहित समस्त अहीर समाज को जो कुछ कहा उसका वर्णन श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय -२५ के श्लोक - ३ से ५ में मिलता है। जिसमें इंद्र अपने दूतों से कहा कि-
अहो श्रीमदमाहात्म्यं गोपानां काननौकसाम्
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य ये चक्रुर्देवहेलनम्।। ३
वाचालं बालिशं स्तब्धमज्ञं पण्डितमानिनम्।
कृष्णं मर्त्यमुपाश्रित्य गोपा मे चक्रुरप्रियम् ।। ५
अनुवाद - ओह, इन जंगली ग्वालों (गोपों ) का इतना घमंड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला। ३
• कृष्ण बकवादी, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है। ५
इन उपरोक्त दो श्लोकों में यदि देखा जाए- तो इनमें गोप शब्द आया है जो अहीर, और यादव शब्द का पर्यायवाची शब्द है।
इसी तरह से संस्कृत श्लोकों में अहीरों के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग गर्गसंहिता के अध्याय- ६२ के श्लोक ३५ में मिलता है। जिसमें जूवा खेलते समय रुक्मी बलराम जी को कहता है कि -
नैवाक्षकोविदा यूयं गोपाला वनगोचरा:।
अक्षैर्दीव्यन्ति राजनो बाणैश्च नभवादृशा।। ३४।
अनुवाद - बलराम जी आखिर आप लोग वन- वन भटकने वाले वाले गोपाल (ग्वाले) ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जाने ? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं।
इस श्लोक को यदि देखा जाए तो इसमें बलराम जी के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक साथ- गोप, ग्वाल, अहीर और यादव समाज के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। इसलिए गर्ग संगीता के अनुवाद कर्ता, अनुवाद करते हुए गोपाल शब्द को ग्वाल के रूप में रखा।
इसी तरह से भगवान श्री कृष्ण को एक ही प्रसंग में एक ही स्थान पर यदुवंश शिरोमणि और गोप (ग्वाला) दोनों शब्दों से सम्बोधित युधिष्ठिर के राजशूय यज्ञ के दरम्यान उस समय किया गया। जब यज्ञ हेतु सभी लोगों ने श्री कृष्ण को अग्र पूजा के लिए चुना। किंतु वहीं पर उपस्थित शिशुपाल इसका विरोध करते हुए भगवान श्री कृष्ण को
यदुवंश शिरोमणि न कहकर उनके लिए ग्वाला (गोप) शब्द से संबोधित करते हुए उनका तिरस्कार किया। जिसका वर्णन- श्रीमद् भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय 74 के श्लोक संख्या - १८, १९, २० और ३४ में कुछ इस प्रकार है -
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशनतः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत् ।। १८।
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः।। १९।
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निनराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः। २०।
अनुवाद - अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा (अग्रपूजा) होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा। १८
• यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं, क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में है, और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सब के रूप में भी ये ही हैं। १९
• यह सारा विश्व श्री कृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्री कृष्ण स्वरूप ही है। भगवान श्री कृष्णा ही अग्नि, आहुति और मंत्रों के रूप में है। ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग ये दोनों भी श्री कृष्ण की प्राप्ति के लिए ही हैं।
भगवान श्री कृष्ण की इतनी प्रशंसा सुनकर शिशुपाल क्रोध से तिलमिला उठा और कहा -
सदस्पतिनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति।। ३४
अनुवाद - यज्ञ की भूल-चूक को बताने वाले उन सदस्यपत्तियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला (गोपालक) भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है ? क्या कौवा कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है ? ३४ ।
इस श्लोक के अनुसार यदि शिशुपाल के इस कथन पर विचार किया जाए तो वह श्री कृष्ण के लिए गोपाल शब्द का प्रयोग किया। यहां तक तो शिशुपाल का कथन बिल्कुल सही है, क्योंकि - भगवान श्री कृष्ण- गोप, गोपाल और ग्वाला ही हैं। इस संबंध में भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में स्वयं अपने को गोप और गोपकुल में जन्म लेने की भी बात कहे हैं जो इस प्रकार है-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
अतः शिशुपाल भगवान श्री कृष्ण को गोपाल या गोप कहा कोई गलत नहीं कहा। किंतु वह भगवान श्री कृष्ण को कौवा और कुलकलंक कहा, यहीं उसने गलत कहा जिसके परिणाम स्वरुप भगवान श्री कृष्ण ने उसका वध कर दिया।
इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहता है कि-
स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१।
अनुवाद- राजा पौंड्रक ने भगवान से कहा- ओ यादव! ओ गोपाल ! इस समय तुम कहां चले गए थे? २६
• तब भगवान श्री कृष्ण ने पौंड्रक से कहा - राजन ! मैं सर्वदा गोप हूं , अर्थात प्राणियों का प्राण दान करने वाला हूं , संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।
देखा जाए तो इन उपयुक्त दो श्लोकों से तीन बातें और सिद्ध होती है।
• पहला यह कि- राजा पौंड्रक, भगवान श्रीकृष्ण को यादव और गोप दोनों शब्दों से संबोधित करता है। इससे सिद्ध होता है कि यादव और गोप एक ही होते हैं।
• दूसरा यह कि- भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने को गोप कहते हुए यह सिद्ध करते हैं कि मैं गोप हूं।
• तीसरा यह कि- गोप ही एक ऐसी जाती है जो संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों पर शासन करने वाली है।
✳️ ज्ञात हो - अहीर, गोप, गोपाल, ग्वाल ये सभी यादव शब्द का ही पर्यायवाची शब्द हैं, चाहे इन्हें अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, यादव कहें ,सब एक ही बात है।
जैसे भगवान श्री कृष्ण को तो सभी लोग जानते हैं कि यदुवंश में उत्पन्न होने से उन्हें यादव कहा गया जो उनकी वंश मूलक पहचान है। तथा उनको गोप जाति में जन्म लेने से उन्हें गोप कहा गया जो उनके जाति रूपी पहचान है। इसी क्रम में उन्हें गोपालन करने से उन्हें गोपाल और ग्वाला कहा गया जो उनकी वृत्ति यानी व्यवसाय मूलक पहचान है। इसी तरह से उनकी जाति मूलक पहचान के लिए उन्हें अभीर या अहीर कहा गया। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण को चाहे अहीर कहें, गोप- कहें , गोपाल कहें, ग्वाला कहें, या यादव कहें ,सब एक ही बात है।
भगवान श्रीकृष्ण को गोपकुल के साथ यदुवंश में उत्पन्न होने को प्रमाण सहित अध्याय - (७) में बताया जा चुका है।
फिर भी इनके वंश मूलक पहचान को इस अध्याय में भी संक्षेप में आगे बताया गया है।
: (ख)- यादवों का वर्ण।
जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हूं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियां ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है।
उसी सिद्धांत के अनुसार यादवों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है।
यादवों का वर्ण किस आधार पर "वैष्णव" है ? ये ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य से कैसे अलग होकर स्वतंत्र रूप से चातुर्वर्ण्य के सभी कर्मों को निर्वाध करते हैं? चातुर्वर्ण्य और वैष्णव वर्ण में क्या अन्तर है?
इन सभी बातों को इस पुस्तक के अध्याय (पांच और छः) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है। उन्हीं बातों को यहां दुबारा बताना उचित नहीं है। वहां से पाठक गण उपरोक्त सभी जानकारी ले सकते हैं।
अब हमलोग इसी क्रम यादवों के "वंश" के बारे में जानेंगे।
(४)- यादवों का वंश।
जैसा कि जाति के विकास क्रम में इस बात को। हम पहले ही बता चुका हूं कि- किसी भी जाति की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति होता है, फिर कई व्यक्तियों के मिलने से एक परिवार बनता है, और कई परिवारों के मिलने से अनेक कुलों या गोत्रों का निर्माण होता है। पुनः कई कुलों के संयोग से उस जाति का एक वंश और वर्ण बनता है। अर्थात् वंश, वर्ण, कुल, गोत्र और परिवार के सामूहिक रूप को जाति कहा जाता है। अर्थात् जब एक ही प्रवृत्ति वाले जाति के लोग अपने किसी विशिष्ट व्यक्ति के नाम से अपने वंश का निर्धारण करते हैं तव उसी के नाम पर उस जाति का एक वंश बनता है। इस तरह के वंश को द्वितीयक वंश कहा जाता है। जिसमें उस जाति का ब्लड रिलेशन होता है।
वहीं दूसरी तरफ उस जाति का एक आध्यात्मिक वंश होता है जो किसी तारे, ग्रह या उपग्रह के नाम से होता है। इस तरह के वंश को प्राथमिक वंश कहा जाता है, जिसमें उस जाति का किसी भी तरह से ब्लड रिलेशन नहीं होता है।जैसे चंद्रवंश और सूर्यवंश।
हो सकता है कि जो लोग अपने को सूर्यवंशी मानते हों उनका सूर्य से ब्लड रिलेशन होता होगा किंतु जितने चंद्रवंशी हैं उनका चंद्रमा से ब्लड रिलेशन नहीं है। क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि तारे और ग्रहों से पुत्र इत्यादि पैदा करके किसी जाति की जन्मगत वंशावली बताकर उनमें ब्लड रिलेशन स्थापित करना महामूर्खता ही होगी। ऐसा वंश केवल आस्था और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से ही स्वीकार्य किये जा सकतें हैं। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यादवों का प्रथम वंश "चंद्रवंश है। किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि सभी यादव चंद्रमा से उत्पन्न हुए हैं और उनमें चंद्रमा का ब्लड रिलेशन है।
चंद्रमा से यादवों का चंद्रवंश और यदु से यादव वंश कैसे स्थापित हुआ इसके बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी अध्याय (११) में दी गई है जहां आपको यादवों के आदि पुरुष महाराज यदु का जीवन परिचय एवं यादव वंश की क्रमिक जानकारी मिलेगी।
दूसरी बात यह कि जाति और वंश में बस इतना ही अन्तर है कि जाति एक सामूहिक नाम है और वंश एक व्यक्तिगत नाम है। वंश के लिए कोई जरुरी नहीं है कि वह विशेष व्यक्ति जिसके नाम पर वंश बना है, वह राजा ही हो। क्योंकि ऐसे बहुत से वंश हैं जो किसी ऋषि-मुनि के नाम से ही बनें हैं। जैसे ब्राह्मण जाति में जो वंश बनें हैं वे सभी किसी न किसी ऋषि मुनि के नाम से ही हैं।
जाति के इसी विकास क्रम में यादवों का भी वंश स्थापित हुआ जिसका नाम है यादव वंश जो अभीर जाति का द्वितीयक वंश है तथा इनका प्राथमिक वंश चंद्रवंश है। इस बात की पुष्टि उस समय होती है जब भगवान श्रीकृष्ण मूचुकुन्द को अपना परिचय बताते हुए विष्णु पुराण के पञ्चम अंश के अध्याय-२३ के श्लोक सं- २४ में कहते हैं कि-
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोऽहं शशिनः कुले।
वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः।।२४।
अनुवाद - मैं चंद्रवंश के अंतर्गत यदुकुल में वसुदेव जी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ हूँ।
• जिस तरह से भगवान श्रीकृष्ण को चंद्रवंश में अवतरित होने की पुष्टि होती है उसी तरह से उनको यादव वंश में भी अवतरित होने की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- २२ से होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान् शूद्रान कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते।।२२।
अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
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