शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

सूरसागर काले मीत अहीर

सूरसागर पृष्ठ
(४७९)
दशमस्कन्ध-१०

चातकी बूंद भई हो हेरत हेरत रही हिराइ ।८१॥जैतश्री॥ 

सखीरी काके मीत अहीर ।
 काहेको भरिभरि ढारति हो इन नैन राह के नीर।।

आपुन पियत पियावत दुहि दुहिं इन धेनुन के क्षीर। निशि वासर छिन नहिं विसरत है जो यमुना के तीर।। ॥ 

मेरे हियरे दौं लागति है जारत तनु की चीर । सूरदास प्रभु दुखित जानिकै छांडि गए वे पीर।।८२॥ 

अथ श्यामरंग को तरक वदति मलार ॥
सखीरी श्याम सवै इक सार ।
 मीठे वचन सुहाये वोलत अंतर जारनहार ॥

भवर कुरंग काग अरु कोकिल कपटिन की चटसार ।
 कमल नयन मधुपुरी सिधारे मिटि गयो मंगलचार॥ 

सुनहु सखीरी दोप न काहू जो विधि लिखो लिलार यह करतूति इन्हैकी नाई पूरव विविध विचार॥

उमगी घटा नापि आवै पाव सप्रेम की प्रीति अपार।
सूरदास सरिता सर पोपत चातक करत पुकार।८३॥ राग मलार ॥ 


सखीरीश्याम कहा हितु जानै ।
 कोऊ प्रीति करे कैसेहूँ वे अपनोगुण ठानै ॥

देखो या जलधरकी करनी वरपत पोपै आ नै । सूरदास सरवस जो दीजै कारो कृतहि न मानै॥
८४॥
सारंगा॥ 

तिनहि न पतीजैरी जे कृतहीन माने ज्यों भँवरा रस चाखि चाहिकै तहां जाइ जहां नवतन जाने ॥
 कोयल काग पालि कहा कीन्हों मिले कुलहि जब भए सयाने । 

सोई घात भई नंद महर की मधुवन तेजो आने॥ तव तो प्रेम विचार न की न्हों होत कहा अवके पछिताने। 

सूरदास जे मनके खोटे अवसर परे जाहिँ पहिचाने॥८५।

 धनाश्री॥ तयते मिटे सब आनंद । या ब्रजके सबभाग संपदा लैजु गए नँदनंद ॥ 

विह्वल भई यशोदा डोल त दुखित नंद उपनंद । धेनु नहीं पय श्रवति रुचिर मुख चरति नाहिं तृण कंद ॥

विषम वियोग दहत उर सजनी वाढिरहे दुखदंद। शीतल कौन करैरी माई नाहिं इहां हरिचंदारथ चढि चले गहे नाहि काऊ चाहिरही मतिमंद ।
सूरदास अब कौन छोड़ावै परे विरहके फंद॥८६॥

 कान्हरो॥ 

अव वह सुरति होत कत राजनि । दिनदश रहे प्रीति करि स्वारथ हित रहे अपने काजनि ॥

सबै अजान भए सुनि मुरली वधिक कपटकी वाजनि। 
अव मन थक्यो सिंधुके खग ज्यों फिरि फिरि शरन जहाजनि ॥

 वह नातो तादिनते टूट्यो सुफलकसुत मगभानानि । गोपीनाथ कहाइ सूर प्रभु मार तही कत लाजनि ॥८७॥ गौरी॥

ब्रजरी मनो अनाथ कियो । सुनरी सखी यशोदानंदन सुख संदेह दियो ॥

तब हम कृपा श्यामसुंदरकी कर गिर टेकि लियो। अरु प्रति गाइ वच्छ ग्वालनको जल कालिंदी पियो ॥

यह सब दोपहमहि लागत है विठुरत फटयो नहियो।  
सूरदास प्रभु नंदनंदन विनु कारण कौन जियो ॥८८॥ केदारो।।

अव तो हैं हम निपट अनाथ । जैसे मधु तोरेकी माखी त्यों हम विनु ब्रजनाथ ।।

अधर अमृतकी पीर मुई हम बालदशाते जोरि । सो छिडाय सुफलक सुत लैगयो अनायासही तोरि ॥ 

जौलगि पानि पलक मीडत रही तौलगि चलि गए दूरि । करि निरंध निवहे दै माई आंखिन रथ पदधूरि ॥

हम निशि दिन करि कृपणकी संपति कियो नकबहूं भोगासूर विधाता लिखि राखी वह कविजाके मुख भोग८९॥ 

अथ नंद यशोदा वचन परस्पर ॥ रामकली ॥ 

इक दिन नंद चलाई वात । कहत सुनत गुण राम कृष्णके हौ आयो परभात ॥ वैसेहि भोर भयो घशुमतिको लोचन जल नसमात । 
सुमिरि सनेह विहरि उर अंतर हरि आवत रिजात ॥ यद्यपि वैवसुदेव देवकी हैं निज जननी तात । वार एक मिलि जाहु सूर प्रभु धाइहूनके नात ॥९०॥ गौरी।।

 चूक परी हरिकी सिवकाई। यह अपराध कहांलौं कहिए कहि कहि नंदमहर पछिताई ॥ 
कोमल चरण कमल कंटक कुश हम उनपै वनगाइ चराई ।
 रंचक दधिके काज यशोदा बाँधे कान्ह उलूख ल लाई ॥ इंद्र कोप जानि ब्रज राखे वरुन फांस मान मेरी निठुराई । सूर अजहुँ नातो मानत है प्रेमसहित करै नंद दोहाई ॥ ९१ ॥
 रागसोरठ ॥ हरिकी एकौ वात नजानी । कही कंत कहा

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