सबसे पहले जाति की बात करें तो जातियाँ
एक समुद्र के समान हैं। जिनसे वंश रूपी नदियाँ निकलकर कुल रूपी कुल्याओं (कुलावों) में विभाजित हो जाती हैं।
जातियों का निर्माण मनुष्यों की चिर-पुरातन प्रवृतियों से निर्धारित होता है। उन प्रवृतियों से जो जन्म से ही उत्पन्न होते हुए भी सम्पूर्ण जीवन निर्माण और जीवन संचालन में सहायक होती हैं।
जाति की अवधारणा जन्म मूलक है। जातियों के मूल में उनकी जन्मगत प्रवृतियाँ व स्थितियाँ सदैव से चित्त में विद्यमान रहती हैं। यह एक सूक्ष्म विवेचना है।
भारतीय समाज में जातियों की अवधारणा प्रवृत्तियों से सम्बन्धित न होकर वृत्तियों से सम्बन्धित की गयी है। जो पूर्णत: सिद्धान्त के विपरीत था।
वृत्तियों से वर्ण का निर्धारण होना तो सही है।परन्तु जाति का निर्धारण होना ही गलत था और भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यह गलती हुई जिसका खामियाजा आज तक समाज भुगत रहा है। -
दोनों एक दूसरे के सापेक्ष अवश्य हैं। परन्तु पृथक पृथक अवश्य हैं।
यद्यपि प्रवृतियाँ मनुष्यों की वृत्तियों (व्यवसायों व नित्य- नैमित्तिक कर्मों ) को प्रकाशित करती हैं। उसी प्रकार मनुष्य की वृत्तियाँ भी प्रवृत्तियों पर परावर्तित होकर उसे सदैव व्यक्ति के आचरण अथवा कारनामों को प्रभावित करती रहती हैं ।
वैसे प्रवृत्तियों और वृत्तियों को भी जानना आवश्यक है। सामान्य अर्थ में प्रवृति किसी जाति के अवचेतन मन में संचित जातीय संस्कार है। जो उसके सांसारिक वस्तुओं के प्रति उस व्यक्ति के आग्रह (झुकाव) को निर्देशित करती हैं।
और वृत्ति उसके जीविका उपार्जन के लिए किये गये क्रिया-कलाप को रूपान्तरण करती है।
भारतीय समाज में जातियाँ आनुवांशिक लक्षणों से सुनिश्चित होती हैं। जो किसी जाति में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित होती रहते हैं। सभी जातियों का अपना एक विभिन्न परिवेश होता है। भारतीय समाज की सभी जातियाँ अपने अपने परिवेश में बँधी हुई होकर अपनी विशेष वृत्तियों से जीवन निर्वाह करती हुई देखी जाती हैं।
मनुष्य की वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित- व्यययी (कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों ( व्यवसायी) वाले वाणी-कुशल व वाचालता से परिपूर्ण होते ही हैं।
समान परिवेश (माहौल) में जैसे कोर्ट -कचहरी दिवानी आदि में अधिक बोलकर मुवक्किल के पक्ष में पहल करने वाले वकील होते हैं।
और जैसे लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित वृत्ति वाले होते ही हैं।
वैसे ही डॉक्टर आदि की भी वृत्ति उनके परिवेश से प्रेरित हो उनकी प्रवृतियाँ का निर्माण करती हैं।
"यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
और प्रत्येक प्राणी अपनी जाति अस्तित्व से ही संसार में पहचाना जाता है।
इसका अर्थ यही है कि हम मनुष्य हैं, वे पशु हैं, पक्षी हैं अथवा जलचर व नभचर हैं, स्थलचर इत्यादि ये सब विभिन्न जातियाँ हैं।
ईश्वर ने यही वर्गीकरण करके प्राणीयों को इस संसार में क्रमानुगत रूप से उत्पादित किया है।
मानवीय जातियों के उत्तम और अनुत्तम होने का मानक तो प्रकृति के तीन गुण सत' रज और तम का आनुपातिक योग हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी व्यक्ति के कर्म और गुणों के आधार पर ही वर्णों की बात की गयी है। जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण नहीं बताया गया है -जैसे- एक प्रसंग में ब्रह्मा के चातुर्वर्ण्य का निर्देश भगवान कृष्ण ने करते हुए कहा
सत्त्व रज तम इन तीनों गुणोंके विभाग से तथा कर्मोंके विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर के निर्देश से ब्रह्मा द्वारा रचे गये हैं।
क्योंकि वह परमात्मा ही सबकी रचना करने पर भी कर्तापन से रहित है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण तथा देवी भागवत आदि पुराणों में ब्रह्मा की उत्पत्ति विष्णु के नाभिकमल से ही बतायी गयी है। और उसी ब्रह्मा को प्रभु ने चारों वर्णों की सृष्टि करने का निर्देश किया।
श्रीभगवानुवाच-
सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव । महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु ।४८।
अर्थ:- श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
सन्दर्भ:-ब्रह्मवैवर्तपुराण-(ब्रह्मखण्डः)/अध्याय(6) तथा इसी बात को
नीचे
देवीभागवतपुराण- स्कन्धः (9)अध्यायः (3) - में भी बताया गया है।
"श्रीभगवानुवाच
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
अर्थ:-श्रीभगवान स्वराट्- विष्णु बोले हे! वत्स ब्रह्मा! सृष्टि रचना करने के लिए महाविराट के लोमकूपों में स्थित क्षुद्र विराट (छोटे विष्णु) के नाभि कमल से उत्पन्न हो जाओ।४८।
उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे। फिर भी वे पद्मयोनि ब्रह्मा पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अन्ततक नहीं जा सके, हे नारद !तब आपके पिता (ब्रह्मा) चिन्तातुर हो गये ।53-54॥
ब्रह्मा ने चातुर्वर्ण्य सृष्टि कृष्ण जी के निर्देश पर ही की परन्तु भगवान कृष्ण ने अपने रोमकूपो ( कोशिकाओं) गोपों की सृष्टि पञ्चं वर्ण के रूप में की।
श्रीमद्भगवद्गीता में एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण नें प्रकृति के तीनों गुणों का धर्म (प्रभाव) बताया है। जो संसार की मानव जातियों को सांस्कृतिक रूप से सात्विक राजसिक और तामसिक गुणों के अनुपात से प्रभावित करता रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भी
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ (५)
अनुवाद : हे महाबाहु अर्जुन ! सात्विक गुण, राजसिक गुण और तामसिक गुण यह तीनों गुण प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी जीवात्मा शरीर में बँध जाती हैं। (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६)
अनुवाद:- हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के सथ जव को बाँधता है।
अनुवाद:- हे निष्पाप अर्जुन ! वहाँ सतोगुण निर्मलता-प्रकाश- और निरोगता का कारण है। यह सुख और ज्ञान के सथ जव को बाँधता है।
(६)
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् ।
अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो! जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥ (७)
अनुवाद:- : हे कुन्तीपुत्र ! रजोगुण को रागात्मक समझो! जिससे कामनाओं ( इच्छाओं) का जन्म होता है। जो कर्म के बन्धनों में जीवात्मा को बाँधता है । (७)
तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥ (८)
अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
अनुवाद:- : हे भरतवंशी ! तमोगुण को शरीर के प्रति मोह के कारण अज्ञान से उत्पन्न हुआ समझ, जिसके कारण जीव प्रमाद (पागलपन में व्यर्थ के कार्य करने की प्रवृत्ति), आलस्य - किसी कार्य को करने में ढ़ीलापन) और निद्रा (अचेत अवस्था में न करने योग्य कार्य करने की प्रवृत्ति) द्वारा बँध जाता है। (८)
मनुष्य के सभी कार्य प्रकृति के इन्हीं तीनों गुणों से प्रेरित होते हैं। इन्हीं अनुपात में व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ बनती हैं।
योगशास्त्र में वर्णन है कि:– सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगः २.१३ ॥ अर्थात "पूर्व कर्म के अनुसार प्राणियों को जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं।"
ते ह्लादपरितापफलाः पुण्यापुण्यहेतुत्वात् ॥ २.१४।
जो सुख- दु:ख और पाप पण्य
का कारण होते हैं।२/१४। अर्थात
पुण्य और पाप के कारण ये (जन्म, आयु और भोग) सुखदायक और दुःखदायक अनुभव उत्पन्न करते हैं।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं,
"जो मनुष्य धर्मात्माओं के लोकों को प्राप्त होकर तथा वहाँ चिरकाल तक निवास करके योग से च्युत हो गया था, वह पुनः पवित्र और धनवानों के घर में जन्म लेता है।"
अलग-अलग लोग अलग-अलग परिस्थितियों में जन्म लेते हैं, जैसे कि कुछ निर्धन होते हैं, कुछ धनवान होते हैं, कुछ सुंदर होते हैं, कुछ बदसूरत होते हैं। यह भेदभाव क्यों किया जाता है और इसका फैसला कौन करता है
? कर्म के नियम के अनुसार , आपका संचित कर्म (जो सभी कर्मों का भण्डार है ) तय करता है कि आप कहाँ पैदा होंगे, आपका लिंग क्या होगा, आपका जीवनकाल और आपके जीवन में आपका प्रारब्ध क्या होगा।
कर्म प्रवृत्तियों और इच्छाओं के परिणाम हैं।
(5) जन्म के लिए जिम्मेदार कर्मशय जीवन की अवधि और भीतर सुख-दुख के अनुभव को भी निर्धारित करते हैं।
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जीवन की शूक्ष्मताऐं अन्त:करण में समाहित हैं।
अंतःकरण चतुष्टय का मतलब है- मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार. यह वेदान्त दर्शन की एक अवधारणा है।
आत्मा और प्रकृति के मिलन से चित- उत्पन्न होता है। चित्त ही चेतना का कारण बनता है।
मन इस चित्त की ही तीन क्रमिक अवस्थाऐं है
चित्त स्मृतियों व पूर्व जन्म के अनेक जन्मों के संस्कारों का सञ्चय है।
मन के तीन स्तर होते हैं चेतन ( जाग्रत) अव चेतन ( स्वप्न) और सुषुप्ति ( निद्रा)
मन की जाग्रत अवस्था को जब अपने अस्तित्व का बोध व आभास होता है तब वह अहंकार कहलाता है।
मन के इस जाग्रत रूप से अहंकार का जन्म होता है और मन इसी अहम् से युक्त होकर
संकल्प और विकल्प करता होता है।
इन संकल्पों से इच्छाओं का और विकल्पों से निर्णय शक्ति बुद्धि का जन्म होता है।
प्रवृत्तियों का सञ्चय हमारे चित्त में ही होता है।
अतः प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी जाति का होता है। यहाँ यह अन्तर ध्यान देने योग्य ही है।
मनुष्य की सभी जातियाँ सामान्यतः प्रसव आकृति और बाह्य अंग रंग आदि से तो समान ही दिखती हैं।
परन्तु उनके चित्त में निहित प्रवृत्तियों से ही उनकी जातिय पृथकता सुनिश्चित होती है ।जो सभी मानव समुदायों ( समाजों) की भिन्न भिन्न है।
किसी भी धार्मिक शास्त्र में कहीं यह नहीं कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी जन्म से किसी न किसी वर्ण का होता है,-
वर्ण का सम्बन्ध व्यक्ति के प्रवृत्तिगत चुनाव ( वरण) से होता है।
वर्ण का सम्बन्ध जन्म से नहीं होता अपितु वृत्ति पर आधारित होता है तथा वृत्ति का चयन प्रवृत्ति के अनुरूप ही होना कल्याणकारी है।
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अब शास्त्रोक्त अर्थ में जाति है क्या ? इसका उत्तर न्यायशास्त्र में गौतम ऋषि ने दिया है:– समानप्रसवात्मिका जाति अर्थात "जिसका समान प्रसव (जन्म) हो वह सजाति है।"
समान प्रसव वह है जिनके संयोग से सन्तान का उत्पन्न होना सम्भव है। उदाहरण स्वरूप बैल, गाय एक जाति के हैं परंतु घोड़ा और कुत्ता भिन्न जाति के हैं क्योंकि इनके परस्पर मेल से प्रसव धारण सम्भव नहीं है। एक जाति में भी भिन्न भिन्न स्वरूप एवं लक्षण के जीव हो सकते हैं। ये जातिमूलक प्रवृत्तियाँ उनके आनुवांशिक गुणों की संवाहक हैं।
यह मानव जाति की बात है। जिसमें जातियाँ समानाकृति (species) की तो हैं।
उनकी मनस् प्रवृत्तियों में समानता नहीं है।
परन्तु पशुओं में भी दो भिन्न जातियों के मिश्रण से नयी जाति बनाती है।
जिनकी शारीरिक और प्रवृत्ति मूलक भिन्नता होती है। जैसे
सिंह और बाघ के संयोग से लाइगर, घोड़े–गधे के संयोग से खच्चर इत्यादि मिश्र लक्षण युक्त जीव उत्पन्न होते हैं ।
लाइगर, नर शेर और मादा बाघिन के संकर बच्चे होते हैं. लाइगर, बिल्ली परिवार के सबसे बड़े जानवरों में से एक हैं. ये शेरों की ताकत और बाघों की फुर्ती का मिश्रण होते है।
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व्यक्ति के स्वभाव और प्रवृत्तियों से जातियाँ गुण निर्धारित होते हैं।
एक कुत्ता का जो स्वभाव और प्रवृत्ति होती है ।
वह सहज परिवर्तित नहीं होती है नीतिकारों ने कुता के विषय में बताया-
शुनकः स्वर्णपरिष्कृतगात्रो नृपपीठे विनिवेशित एव ।
अभिषिक्तश्च जलैः सुमुहूर्ते न जहात्येव गुणं खलु पूर्वम् ॥३७९।
(मुक्तिसूक्तवलि- शुनक:पद्धति -- जल्हणकृत )
'
अनुवाद:- कुत्ते को स्वर्ण अलंकारों से विभूषित करके राजसिंहासन पर बैठा कर अच्छे मुहुर्त में जल से अभिषेक करने पर भी कुत्ता
जातिगुण नहीं छोड़ता। अर्थात उसकी प्रवृति उसके परिवेशीय गुणों से समझौता नहीं करती है।
संसार में परिभ्रमण करते हुए लाखों-करोड़ों बार जन्म लेकर असंख्य बार प्राप्त हुई नीच, ऊँच और मध्यम अवस्थाओं को जानकर भी कौन बुद्धिमान जातीय निर्धारण नहीं करेगा ? कर्मवश संसारी प्राणी इन्द्रियों की रचना से उत्पन्न होने वाली विभिन्न जातियों में जन्म लेता रहता है। यह भी उसकी प्रवृत्ति सुनिश्चित करती है।
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अब हम आभीर जाति की बात करते हैं।
अभीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
अपनी जीवन यात्रा के कई पढावों पर अपने विकास क्रम में कई रूपों को धारण करने वाला शब्द है अहीर -
अहीर आहीर ये दोनों शब्द क्रमशः अभीर और आभीर शब्दों के ही प्राकृतिक रूप है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर शब्द का समूह वाची "रूप है।
जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुआ है।
यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति के सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका में अफर" के रूप में थी जिसका प्रारम्भिक निवास मध्य अफ्रीका के जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में थे और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे।
ये सभी मूलत: एक स्थान से ही अन्यत्र गये।
सभी अहीर पशुपालक अथवा चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में अभीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं।
परन्तु यथार्थ में ऐसा कदापि नहीं है।
अभीर शब्द का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
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परवर्ती शब्द कोशकारों ने दोनों शब्दों को पृथक- पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की है।
ईसा पूर्व पञ्चम सदी में कोशकार अमरसिंह ने अपने कोश अमरकोश में अहीरों की प्रवृत्ति वीरता ( निडरता). को केन्द्रित करके की आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की ।
दूसरे कोशकार तारानाथ वाचस्पति ने (1885) के समय में अहीर जाति की वृत्ति ( व्यवसाय) गोपालन को केन्द्रित करके अभीर शब्द की व्युत्पत्ति की-
देखें नीचे क्रमश: दोनों व्युत्पत्तियों का विवरण-
अमरसिंह की व्युत्पत्ति-
१- आ=समन्तात् + भी=भीयं (भयम्) + र= राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करता है वह आभीर कहलाता है।
- यह उपर्युक्त उत्पत्ति अमरसिंह के शब्द कोश अमरकोश में उद्धृत है।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोशकार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने भी अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुख करके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है।
वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय) ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति ( व्यवसाय-) से निर्मित होती है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है।
प्रवृत्तिाँ स्वभाव की गहरीइयों में मन के अचेतन तल पर संचित जातिगत जैविक आधार है। सभी जातियों क धार प्रवृत्ति है।
और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का व्यक्तिगत प्रभाव-" जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के पूर्व जन्म के कर्म संस्कारों से सम्बन्धित है। स्वभाव जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है। सभी जातियों में व्यक्ति के स्वभाव भिन्न होते है। प्रवृत्तियों के सोने पर भी जैसे निडरता अहीर जाति की प्रवृत्ति है।
और उसके अनुरूप कृषि और पशुपालन अहीरों की वृत्ति है।
कम्प्यूटर में सिस्टम सॉफ्टवेयर प्रवृत्ति है। और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर स्वभाव है। जैसे ब्लूटुठ और शेयरइट का अन्तर ।
वृत्ति-
- वृत्ति का अर्थ है, व्यवहारों का एक समूह जो किसी पर्यावरणीय( परिवेशीय) संकेत या आंतरिक प्रेरणा के अनुरूप जीविका -उपार्जन होता है. कोई कामधन्धा-
आवृत्ति( आदत)- ( पुन: पुन:अभ्यास)अथवा आदत का मतलब है, कोई ऐसा व्यवहार जो बिना ज़्यादा सोच के बार-बार दोहराया जाए. आदतें जन्मजात नहीं होतीं, बल्कि सीखी जाती हैं.आदतों का स्वरूप परिवेश, देश और काल स प्रभावित होता है।
मनोविज्ञान में, आदत को किसी भी नियमित रूप से दोहराए जाने वाले व्यवहार के तौर पर परिभाषित किया गया है।
आवृत्ति (आदत) का सम्बन्ध हमारे अवचेतन मन से जुड़ा होता हैं. अवचेतन मन, हमारे सीखे गए व्यवहारों का भण्डार होता है. यह हमारे कार्यों को सचेत जागरूकता के विना भी यथा क्रम संचालित करता है.
एक उदाहरण से समझे उड़ना सभी पक्षियों की प्रवृति है। परन्तु उनके उड़ने के तरीके अलग हैं। यह उनका प्रवृति मूलक अन्तर है। सभी
मानव का वैज्ञानिक संघ कॉर्डेटा (Chordatae) है. मानव का वैज्ञानिक वर्ग स्तनधारी (Mammalia) है और वैज्ञानिक जाति होमो सेपियंस (Homo sapiens) है. मानव को वैज्ञानिक रूप से वर्गीकृत करने के लिए, ये वर्गीकरण भी इस्तेमाल किए जाते हैं: जीववैज्ञानिक वंश - होमो (Homo), जीववैज्ञानिक कुल - होमिनिडाए (Hominidae), जीववैज्ञानिक गण - प्राइमेट (Primate).
मानव को वर्गीकृत करने के लिए इस्तेमाल होने वाले कुछ और वैज्ञानिक वर्गीकरण:
- ऐनिमेलिया (Animalia) - जंतु
- कोरडेटाए (Chordatae) - रज्जुकी
- वर्टेब्रेटा (उपसंघ)
- टेट्रापोड़ा (महावर्ग)
- थीरिया (उपवर्ग)
- प्राइमेट्स (गण)
- होमिनिडे (अधिकुल)
मानव जाति विज्ञान, मानव शास्त्र की एक शाखा है. यह मानवों के सजातीय, नस्ली, और/या राष्ट्रीय वर्गों के उद्गमों, वितरण, तकनीकी, धर्म, भाषा, और सामाजिक संरचना का अध्ययन करती है.
परन्तु भारतीय जातियाँ शारीरिक संरचना में समानताऐं होते हुए भी प्रवृत्ति अथव मनसिक स्तर भिन्न भिन्न हैं। इनकी संस्कृति सभ्यता और जनरीतियाँ इनके व्यवसाय ही इनका जातियाँ विभाजन करते हैं।
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